दो आदर्श ब्रह्मचारी
“ब्रह्मचारी सिञ्चति सानौ रेतः।
पृथिव्यां तेनजावन्ति प्रदि शश्चतस्त्र ।
( अथर्ववेद )
ब्रह्मचारी अपने सद्ज्ञान, पराक्रम, सिद्धान्त, सदाचार तथा उत्तम गुणों को, बड़े-छोटे का विचार न कर, सब में फैलाता है । ' इससे चारों ओर की जनता में नव-जीवन का सञ्चार होता है।
हमारे पाठक इस बात को भली भांति समझ चुके हैं कि ब्रह्मचर्य जैसे उच्च तथा सर्वोपकारी विज्ञान का पहले पहल इसी देश में आविष्कार हुआ था। यही कारण है कि अन्य देशों की अपेक्षा यहीं इसका सुधार और प्रचार विशेष रूप से हुआ ।
हमारे मत से भूमण्डल के इतिहास में जितने अधिक उदाहरण ब्रह्मचर्य के यहाँ मिल सकते हैं, उतने और कहीं मिलने सम्भव नहीं ।
इस देश में अनेक पुरुषों ने ब्रह्मचर्य-पालन की चेष्ठा की है । उनमें से कुछ लोग अपने व्रत से विचलित भी हो गए । बहुतों को सफलता भी मिली, पर हम उन दो आदर्श ब्रह्मचारियों का परिचय करा देना चाहते हैं, जो वास्तव में अद्वितीय हुये हैं । वे अपने उसी ब्रह्मचर्य के प्रभाव से आज भी जनता के श्रद्धा-माजन हो रहे हैं। समस्त भारत के आर्य-साहित्य में उन दोनों महानुभावों का व्यक्तिगत जीवन हमें अमूल्य शिक्षा प्रदान करता है।
इनमें से पहले ब्रह्मचारी का नाम जगदविख्यात महावीर हनूमान है । इनकी कथा रामायण में मिलती है। ये अपने जीवन पर्यन्त अक्षुण्य ब्रह्मचारी रहे। इन्होंने अपने ब्रह्मचर्य का यहाँ तक पालन किया कि स्वप्न सें भी कभी इनका वीर्य स्खलित न होने पाया । ब्रह्मचर्य के प्रभाव से इनका शरीर बज्र के समान हिष्ट-पुष्ट हो गया था। ये महावीर अपने ब्रह्मचर्य के प्रभाव से कठिन से कठिन कार्य कर सकते थे । इनके ब्रह्मचर्य का उद्देश्य केवल जन सेवा-कार्य था । इन्होंने बली से बली राक्षसों का मद चूर्ण कर डाला। अनुकरणीय स्वामिभक्ति, असम पराक्रम, तेजस्वी स्वभाव और पवित्र अन्तःकरण के लिये भी ये परम प्रसिद्ध हैं। इन गुणों से युक्त होने पर भी, वे बहुत बड़े विद्वान और मेधावी थे । वक्तृत्वकला से दूसरों का हृदय अपनी ओर भली भाँति खीचना जानते थे ।
एक स्थान पर किष्किन्धा-काण्ड में श्रीरामचन्द्र भगवान् ने, स्वयं अपने मुख से हनूमान की विद्वता और वाक्-चातुरी की भूरि- भूरि प्रशंसा की है । वह यों है:-- महाबली वालि ने अपने भाई सुग्रीव को मार-पीट कर घर से निकाल दिया था। वे ऋष्यमूक पर्वत पर जाकर इन्हीं हनूमान के साथ रहने लगे थे । एक दिन श्रीरामजी जानकीजी को खोजते हुये लक्ष्मण के साथ उधर आ निकले । सुग्रीव के मन में सन्देह और भय हुआ । उसने इन्हे रहस्य लेने के लिये भेजा । हनूमान भी विप्ररूप धर कर श्रीराम और लक्ष्मण से मिले । उनके भाषण से प्रसन्न होकर श्रीराम ने लक्ष्मण से कहा:---
तमभ्यभाष सोमित्रे ! सुग्रीव-सचिवं कपिम्।
वाक्यज्ञ' मधुरैर्वाक्यै, स्नेहयुक्त मरिन्दमम् ॥
नानृग्वेद विनीतस्य, नायजुर्वेद धारिणः ।
नासामवेद-विदुषः, शक्यमेवं . विभाषितुम् ॥
नूनं व्याकरणं कृत्स्न मनेन बहुधा श्रुतम्।
वहु व्याहरतानेन, न किञ्चिदपशब्दितम् ॥
न मुखेनेत्रयोश्चापि, ललाटे च भ्रुवोस्तथा ।
अन्येष्वपि व सर्वेषु, दोषः संविदितः क्वचित् ॥
अविस्तर मसन्दिग्ध भविलम्बित मव्ययम् ।
उरस्थं कण्ठगे वाक्यं, वर्त्तते मध्यमस्वरम।॥
संस्कार-क्रम-सस्पन्न भद्भुता मविलम्बिताम्।
उच्चारयति कल्याणीं, वाचं हृदय-हर्षिणीम् ॥
वाल्मीकि-रामायण )
हे लक्ष्मण ! मधुर वाक्य से स्नेहयुक्त सुग्रीव के वाणी-विशारद् सचिव हनूमान से भाषण कर, यह ज्ञात हुआ कि ऋग्वेद, यजुर्वेद और सामवेद के न जानने वाले इस प्रकार का भाषण नहीं कर सकते । अर्थात् ये वेद-शात्रज्ञ जान पड़ते हैं। निश्चय ही इन्होंने व्याकरण का अच्छा अध्ययन किया है। कारण यह है कि इन्होंने इतना अधिक बोलने पर भी एक अशुद्धि नहीं की । मुख में, नेत्रों में और भ्रुभाग में तथा अन्य किसी भो अवयव में इनके कहीं भी दोष नहीं दिखलाई पड़ा ।
सूक्ष्म रीति से, स्पष्ट-स्पष्ट, अस्खलित श्रुति-मधुर, न तो बहुत धीरे-धीरे और न बहुत जोर-जोर से, अर्थात् मध्यम स्वर में इन्होंने भाषण किया है। सुसंस्कृत नियमयुक्त, अद्भुत प्रकार से, प्रिय तथा हृदय को हर्षित करने वाली वाणी इनके मुख से उच्चरित्त हुई है । ।
अब हस इनको दृढ़ प्रतिज्ञता तथा पराक्रम-शीलता का परिचय इन्हीं के कहे हुये वाक्यों से कराते हैं:--
श्रीजानकी को खोजते हुये वानर लोग समुद्र-तीर पर पहुँचे । सवों ने समुद्र लाँघने के लिये अपने-अपने बल का वर्णन किया । जाम्बवन्त ने देखा कि बिना हनूमान के काम न चलेगा । अत उन्होनें उन्हें उत्कर्ष-वचनों द्वारा उत्साहित किया। इस पर हनूमान “ने उत्तेजित होकर वानरी-सेना को इस प्रकार सन्तुष्ट किया:--
यथा राघव-निर्मुक्तः, शरः श्वसन-विक्रमः।
गच्छेत्तद्वद्गमिष्यामि, लंङ्का रावणपालिताम् ॥।
नहि द्रक्ष्यामि यदि्तां, लङ्कायां जनकात्मजाम्।
अनेनैव हि वेगेन, गमिष्यामि सुरालयम् ॥
यदिवात्रिदेव सीतां, न द्रक्ष्यामि कृतश्रमः ।
बद्ध्वा राक्षस-राजान मानयिष्यामि रावणम् ।।
सर्वथा कृत कार्योऽह मेष्यामि सह सीतया ।
आनयिष्यामि वांलङ्का, समुत्पाट्य सरावणम्॥
( वाल्मीकि रामायण )
जिस प्रकार श्रीरामचन्द्र का चलाया हुआ बाण सन-सन करता हुआ जाता है, उसी भाँति मैं रावण के द्वारा रक्षा की गई लङ्कापुरी में जाऊँगा । यदि में उस लङ्का में जानकी को न देखूँगा, तो उसी वेग से स्वर्ग में चला जाऊँगा। यदि में इतना परिश्रम करने पर भी त्रिलोक में सीता को न पा सकूंगा, तो में राक्षसों के राजा रावण को बाँध कर यहाँ ले आऊँगा, या तो मैं कृतकार्य होकर सीता के साथ आऊँगा, या लङ्का को भली भाँति नष्ट-भ्रष्ट करके रावण को साथ पकड़ ले आऊंगा ।
पाठकों ने एक आदृश ब्रह्मचारी का परिचय पा लिया। इनकी वाणी में कैसा तेज है ? अब हम दूसरे का परिचय कराते हैं ।
दूसरे ब्रह्मचारी का नाम भीष्म पितामह है। महाभारत के चरित-नायकों में थे प्रधान माने जाते हैं । इतका परम स्वाथ-त्याग उच्च-धर्म-नीतिज्ञता, अद्भुत पराक्रम, शस्त्रास्त्र चलाने में निपुणता, युद्ध-कौशल, विपुल पांडित्य तथा उदार चरित्र प्रायः सब पर विख्यात है ।
ये भी बाल-ब्रह्मचारी थे। पहले इनका नाम 'दिवव्रत' था, पर जब से इन्होंने अपने पिता के विवाह के लिये ब्रह्मचर्य की कठिन प्रतिज्ञा की, तब से लोग इन्हें 'भीष्म' कहने लगे । इस महापुरुष के उन्नत व्यक्तित्व के सम्बन्ध में एक बहुत ही प्रचलित उत्तम श्लोक है, उसे हम यहाँ देते हैँ:--
भीष्मः सर्व गुणोपेत; ब्रह्मचारी दृढ़व्रतः।
लोक-विश्लुत कीर्तिश्च, सद्धर्माभून्महामतिः ॥
( सूक्ति )
भीष्म सब गुण-सम्पन्न, ब्रह्मचारी, दृढ़, व्रत के पालन करनेवाले, बुद्धिमान और संसार में बड़े यशस्त्री पुरुष थे । भीष्म की विसालता ने वंश-विच्छेद होता हुआ देख कर, इनको विवाह कर लेने की आज्ञा दी । महर्षि व्यास ने भी ब्रह्मचर्य व्रत छोड़ कर, विवाह करने के लिये, बहुत प्रकार से समझाया । बहुत से लोगों ने इन्हें अपनी प्रतिज्ञा छोड़ने के लिये आग्रह किया, पर इस समनस्वा ने अपना प्रण नहीं छोड़ा । जब सब लोग समझा कर हार गये, तब इन्होंने अन्त सें अपने विचार की अटलता जिन ओजस्वी भावों में प्रकट किया, उन्हें यहाँ उद्धृत करते हैं:---
त्यजेच्च पृथ्वी गन्धमापश्चरस मात्मन:--
ज्योतिस्तथा त्यजेद्रुपं, वायुःस्पर्शगुणंत्यजेत् ॥
विक्रमं बृत्रहाजह्याद्धर्म जह्माच्च घर्मराट ।
नत्वहं सत्यमुत्लष्टुं, व्ययसेयं कथश्चन ॥
( महाभारत )
चाहे भूमि आपना गुण गन्ध छोड़ दे । जल अपना तरलत्व त्याग दे--सूर्य अपना तेज छोड़ दे-वायु अपना स्पर्श त्याग दे इन्द्र पराक्रम रहित हो जाये, और धर्मराज घर से विम्मुख होकर रहें, पर में जिस ब्रह्मचर्य रूपी सत्य को, धारण कर चुका हूँ उसे कदापि नहीं छोड़ सकता। इससे बढ़कर ओर क्या एक सत्यशील ब्रह्मचारी कह सकता है ।
ऊपर के दो आदर्श ब्रह्मचारियों के चरित्र से परम सुख देने वाले ब्रह्मचर्य' की महिमा भली भाँति प्रकट होती है। उनके समान यदि एक भी ब्रह्मचारी इस देश में हो जाये, तो उद्धार होने में रत्ती-मात्र सन्देह नहीं ।
अखण्ड ब्रह्मचर्य के पालन करने से ही हनूमान की घर-घर मूर्तियाँ स्थापित कर, पूजन होता इसी व्रत में सफल होने के कारण श्रीसीताजी के स्नेह-पात्र हुये और उन्हें यह आशीर्वाद मिला
अजर-अमर गुणनिधि खुत होहू।
करहि सदा रघुनायक छोहू॥
(रामचरित मानस)
इसी सर्वोत्तम गुण के कारण श्रीरामचन्द्र जी श्री भरत के समान प्रिय मानते रहे । और इसी के एक मात्र कारण से वे महावीर” पदवी से विभूषित हुये ।
अचल ब्रह्मचर्य के कारण ही भीष्स का नाम तर्पण में लिया जाता है। इसी के कारण वे इच्छा मरणी हुये, और महाभारत के रणक्षेत्र में कोई भी उनका सामना -न कर सका । अतएव महत्व की इच्छा रखने वाले पुरुषों को चाहिये कि इन दोनों सत्पुरुषों का अनुकरण कर, अपने को वैसा ही बनावें ।
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