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न्यायदर्शन चतुर्थ अध्याय द्वितिय आह्निक

 सूत्र :दोषनिमित्तानां तत्त्वज्ञानादहङ्कारनिवृत्तिः II4/2/1

सूत्र संख्या :1


अर्थ : अथ द्वितीयमान्हिकम् अपवर्ग की परीक्षा समाप्त हुई, अब दूसरे आन्हिक में तत्त्वज्ञान की परीक्षा आरम्भ की जाती हैं- शरीर से लेकर दुःख तक जो दश प्रमेय गिना आये हैं, उनकी उत्पत्ति दोषों तक होती है। जब तत्वज्ञान होता है, तब जीवात्मा को इनमें अहंकार नहीं रहता, अर्थात् मैं शरीर हूं या इन्द्रियादि का समुदाय हूं, यह भाव नहीं रहता, इसलिए शरीरादि की आवश्यकताओं को भी वह अपनी आवश्यकता न समझकर उनसे उदासीनहो जाता है अर्थात् उसे किसी सांसारि पदार्थ की अपेक्षा नहीं रहती। क्योंकि सांसारिक वस्तुओं की अपेक्षा शरीरादि के लिए है, आत्मा के लिए नहीं। शरीरादि में आत्मा बुद्धि रखता हुआ ही मनुष्य विषयों में अनुरक्त होता है। तत्वज्ञान से ज बवह यह जान लेता है कि न शरीराहद मेरे हैं और न मैं इनका हूं, तब उसका अहंकार मिट जाता है। अहंकार के मिट जाने से उसको शरीरोपगत सुख दुःखादि का अनुभव भी नहीं होता। यदि होता भी है तो वह उसको स्वाभाविक धर्मं समझकर उससे प्रसन्न या खिन्न नहीं होता। रागादि के कारण क्या है; जिनके मिथ्या ज्ञान से दोष उत्पन्न होते हैं-


सूत्र :दोषनिमित्तं रूपादयो विषयाः संकल्पकृताः II4/2/2

सूत्र संख्या :2


अर्थ : रूपादि विषय ही संकल्प के होने से रागादि दोषों के उत्पन्न होने का कारण होते हैं, अर्थात् अनुकूल विषयों से राग करता है, प्रतिकूल से द्वेष। जब तक मनुष्य इन रूपादि बाह्य विषयों से उपरत नहीं होता, तब तक अहंकारादि आंतरिक दोष मिट नहीं सकते। इसलिए शुभ संस्कारों से पहले संकल्प को शुद्ध करना चाहिए, क्योंकि बिना संकल्पशुद्धि के बाह्य विषयों से उपराग नहीं होता और बिना बाह्य विषयों से उपराग हुए अहंकारादि आध्यात्मिक शत्रुओं का नाश नहीं हो सकता। अब दोष का विशेष कारण बतलाते हैं-


सूत्र :तन्निमित्तं त्ववयव्यभिमानः II4/2/3

सूत्र संख्या :3


अर्थ : संकल्पकृत रूपादि विषय तो रागादि दोषों के साधारण कारण हैं परन्तु इनका विशेष कारण अबयवी का अभिमान है। ‘यह देह मेरा है, यह स्त्री मेरी है, यह पुज्ञ मेरा है इत्यादि भौतिक पदार्थों में जो ममत्व बुद्धि का होना है, यह अवयवी का अभिमान कहलाता है। जब तक यह अभिमान नहीं टूटता अर्थात् मनुष्य यह नहीं समझता कि ‘न मैं किसी हूं और न मेरा कोई है, यह यह सब सम्बन्ध कल्पित और क्षणिक है।’ तब तक राग द्वेष का बन्धन जिसमें संसारी पुरूष जकड़े हुए है, छूट नहीं सकता। इसलिए मुमुक्षु पुरूष को केवल बाह्य विषयों से उपरात होकर ही सन्तुष्ट न होना चाहिए, किन्तु इस अहंकार के कीड़े को शरीर से निकालकर फेंकना चाहिए, जो सारे शरीर में दोषां का विषय फैला देता है। अब अवयवी की परीक्षा करते हैं प्रथम सन्देह का कारण वतलाते हैं-


सूत्र :विद्याविद्याद्वैविध्यात्संशयः II4/2/4

सूत्र संख्या :4


अर्थ : जहां सत् और असत् दो प्रकार का ज्ञान होने से विद्या दो प्रकार की है, क्हां इन दोनों का ज्ञान न होने से अविद्या भी दो प्रकार की है। इसलिए एक अवयवी के होने में सन्देह होता है कि उसका ज्ञान सत् है वा असत्? यदि यह कहा जावे कि अवयवी का ज्ञान नहीं होता, वह कल्पित है तो अविद्या के दो भेदों में होने से सन्देह होता है, इसी प्रकार यदि उसका ज्ञान माना जावे तो भी विद्या के दो भेद होने से सन्देह होता है। इसलिए अवयवी सन्दिग्ध है। अब इसका उत्तर देते हैं-


सूत्र :तदसंशयः पूर्वहेतुप्रसिद्धत्वात् II4/2/5

सूत्र संख्या :5


अर्थ : दूसरे अध्याय में हेतुओं से अवयवी का होना सिद्ध कर चुके, जब तक उन हेतुओं का खण्डन न किया जावे, तब तक अवयवी के होने में सन्देह नहीं हो सकता। दूसरे पक्ष में भी अवयवी असंदिग्ध हैं-


सूत्र :वृत्त्यनुपपत्तेरपि तर्हि न संशयः II4/2/6

सूत्र संख्या :6


अर्थ : यदि अवयवी का अभाव मान लिया जावे तो भी उसमें सन्देह नहीं हो सकता, क्योंकि जो वस्तु है उसी में सन्देह होता है औ जो वस्तु ही नहीं, उसमें सन्देह केसा? अब आक्षेप करता हैः


सूत्र :कृत्स्नैकदेशावृत्तित्वादवयवानामवयव्यभावः II4/2/7

सूत्र संख्या :7


अर्थ : प्रत्येक वस्तु में परिणाम भेद से एक वस्तु के साथ दूसरी वस्तु का सम्बन्ध न होने से अवयवी सिद्ध नहीं होता और जिस देश में अवयव रहते हैं उसमें अवयवी के न रहने से नहीं अवयवों के रहने से किन्तु प्रत्येक के भिन्न-भिन्न देशों में रहने से अवयवों का एक-दूसरे से सम्बन्ध नहीं हो सकता, जब अवयव ही भिन्न-भिन्न हैं तो उनका एक अवयवी कैसे सिद्ध हो सकेगा? फिर आक्षेप की पुष्टि करते हैं-


सूत्र :तेषु चावृत्तेरवयव्यभावः II4/2/8

सूत्र संख्या :8


अर्थ : अवयवों में भी अवयवी के न रहने से अवयवी का अभाव मानना पड़ता है क्योंकि अवयवों के भिन्न-भिन्न होने से उनमें एक अवयवी नहीं रह सकता। जब एक-एक अवयव में अवयवी का अभाव है तो सब अवयवों में भी उसका अभाव मानना पड़ेगा। इसलिए अवयवी कोई वस्तु न नहीं। फिर इसी की पुष्टि करते हैं-


सूत्र :पृथक्चावयवेभ्योऽवृत्तेः II4/2/9

सूत्र संख्या :9


अर्थ : यदि यह मान लिया जावे कि अवयवों से अवयवी भिन्न है, वह विभक्त होकर एक-एक अवयव में रहता है तो उसका अवयवों से भिन्न होना सिद्ध नहीं होता। इसलिए अवयवों से भिन्न कोई अवयवी नहीं है। फिर आक्षेप की पुष्टि करते हैं-


सूत्र :न चावयव्यवयवाः II4/2/10

सूत्र संख्या :10


अर्थ : यदि यह मान लिया जाये कि अवयवों और अवयवी में भेद नहीं है, अवयव ही अवयवी हैं, तो यह हो नहीं सकता क्योंकि तन्तु को वस्त्र और स्तम्भ को गृह कोई नहीं मान सकता। अब सूत्रकार इन आक्षेपों का उत्तर देते हैं-


सूत्र :एकस्मिन्भेदाभावा-द्भेदशब्दप्रयोगानुपपत्तेरप्रश्नः II4/2/11

सूत्र संख्या :11


अर्थ : यह प्रश्न कि प्रत्येक अवयव में सम्पूर्ण अवयवी रहता है या उसका कोई भाग? अयुक्त और असंगत है। क्योंकि अवयवों के समुदाय को अवयवी कहते हैं, उसमें और अवयवों में कोई भेद नहीं है। शर्करा का एक अणु भी शर्करा ही है, नमक की एक डेली भी नमक ही कहलाती है। जब अवयव और अवयवी में भेद ही नहीं जो भेद की कल्पना करके यह प्रश्न करना कि ‘अवयवीसब देशों में रहता है वा एक देश में, नहीं बन सकता। अब दूसरे हेतू का खण्डन करते हैं-


सूत्र :अवयवान्तराभावेऽप्यवृत्तेरहेतुः II4/2/12

सूत्र संख्या :12


अर्थ : वादी ने एक अवयवी के दूसरे अवयों में नहोने से जो अवयवी का अभाव सिद्ध किया गया था, वह भी ठीक नहीं क्योंकि अवयव और अवयवी में अन्योयाश्रय सम्बन्ध है और यह सम्बन्ध तभी रह सकता है जबकि अवयवी अपनी वृत्तियों से सम्नूर्ण अवयवों में वर्तमान र्हो इस पर आक्षेपः-


सूत्र :केश-समूहे तैमिरिकोपलब्धिवत्तदुपलब्धिः II4/2/13

सूत्र संख्या :13


अर्थ : जैसे न्यून दृष्टि वाले पुरूष को एक बाल नहीं दीखता, किन्तु केशों का समूह दीख पड़ता है। ऐसे ही एक अणु के न दीखने पर भी अणु समूह घटादि का प्रत्यक्ष होता है। इसलिए अवयवों का समुदाय ही अवयवो है। उससे भिन्न और कोई अवयवी नहीं। इसका उत्तरः-


सूत्र :स्वविषयानतिक्रमेणेन्द्रियस्य पटु-मन्दभावाद्विषयग्रहणस्य तथाभावो नाविषये प्रवृत्तिः II4/2/14

सूत्र संख्या :14


अर्थ : तीव्र होने की दशा में इन्द्रिय अपने विषय को शीघ्र ग्रहण करते हैं मन्द होने पर देर से ग्रहण होता है। परन्तु इन्द्रियों की यह तरव्रता और मन्दता केवल अपने विषयों में होती है, दूसरे इन्द्रिय के विषय में नहीं। तीव्र दृष्टि पुरूष रूप को ग्रहण करता है, गन्ध, रसादि को नही। परमाणु सूक्ष्म होने से किसी इन्द्रिय का विषय नहीं। इसलिए बिना सड्.घात के पृथक-पृथक एक-एक अणु इन्द्रिय का विषय नहीं। यदि अवयवी को अवयवों के सड्.घात से भिन्न कोई वस्तु न माना जावे तो अवयवी का ग्रहण भी इन्द्रियों से न होना चाहिये। क्योंकि जब एक अणु निरवयव है, तो उसका समुदाय सावयव नहीं हो सकता। अतएव अवयवी अवयव समुदाय से भिन्न है और वही अवयव समुदाय को इन्द्रियग्राह्य बनाता है। इस पर आक्षेप:-


सूत्र :अवयवावयवि-प्रसङ्गश्चैवमाप्रलयात् II4/2/15

सूत्र संख्या :15


अर्थ : अवयवी अवयवों के सब देशों में है व एक देश में, जैसे यह प्रश्न किया गया था, ऐसे ही यह प्रश्न भी हो सकता है कि अवयव अवयवी के एक देश रहता है व सब देशों में फिर अवयवों के भी अवयव परमाणुओं के विषय में भी यही प्रश्न होगा यहां तक कि प्रलय पर्यन्त अर्थात् अपने कारण में लीन होने तक यह प्रश्न होता चला जायगा और अन्त में जाकर अभाव या शून्य ही मानना पड़ेगा। फिर यह सन्देह उत्पन्न होगा कि अभाव या शून्य से भाव या उत्पत्ति किस प्रकार हो सकती है? इसका समाधानः-


सूत्र :न प्रलयोऽणुसद्भावात् II4/2/16

सूत्र संख्या :16


अर्थ : अवयवों के विभाग कल्पित करके अवयवी के खण्डन से जो अभाव सिद्ध किया जाता है, यह ठीक नहीं, क्योंकि यह हेतु निरवयव परमाणुओं का खंडन नही कर सकता। वस्तु का विभाग करते-करते अब उसका खण्डन न हो सके, तब उसे परमाणु कहते हैं और कारण में लीन होने का नाम नाश है जो कि कार्य का होता है। कारण रूप परमाणु का जौ कि विभाग के अयोग्य है, नाश नहीं होता। जब परमाणु का प्रलय नहीं है, तब अभाव किसी वस्तु का नहीं हो सकता। अब परमाणु लक्षण कहते हैं-


सूत्र :परं वा त्रुटेः II4/2/17

सूत्र संख्या :17


अर्थ : किसी वस्तु का विभाग करते-करते जब वह इस दशा को पहुंच जावे कि फिर उसका विभाग न हो सके, उसको परमाणु कहते हैं। अब परमाणु के निरवयव होने पर आक्षेप करते हैं-


सूत्र :आकाशव्यतिभेदात्तदनुपपत्तिः II4/2/18

सूत्र संख्या :18


अर्थ : परमाणु का निरवयव होना सिद्ध नहीं होता, क्योंकि परमाणु के भीतर आकाश मौजूद है और बाहर भी आकाश है। जबकि परमाणु ब्याप्त है तो फिर वह निरवयव क्योंकर हो सकता है? अतएव परमाणुसावयव होने से अनित्य है। पुनः वादी कहता हैः-


सूत्र :आकाशासर्वगतत्वं वा II4/2/19

सूत्र संख्या :19


अर्थ : यदि परमाणु में आकाश का होना नहीं मानोगे तो आकाश सर्वव्यापक न रहेगा। अब इसका उत्तर देते हैं-


सूत्र :अन्तर्बहिश्च कार्यद्रव्यस्य कारणान्तरवचनादकार्ये तदभावः II4/2/20

सूत्र संख्या :20


अर्थ : भीतर और बाहर इन शब्दों का व्यवहार कार्य वस्तु और उसके भागों में हो सकता है, परन्तु के कार्य न होने से उसमें यह व्यवहार नहीं हो सकता। क्योंकि सूक्ष्म कारण का नाम जिसका विभाग न होसके, परमाणु है। फिर इसी की पुष्टि करते हैं-


सूत्र :शब्दसंयोगविभवाच्च सर्वगतम् II4/2/21

सूत्र संख्या :21


अर्थ : कोई सावयव पदार्थ आकाश की व्यापकता से रहित नहीं हो सकता। कठिन धातु और पाषाणादिक में भी आकाश विद्यमान है। इसका यह प्रमाण है कि सब पदार्थों में संयोग और शब्द की उत्पत्ति देखने में आती है। अब आकाश के लक्षण कहते हैं-


सूत्र :अव्यूहाविष्टम्भविभुत्वानि चाकाशधर्माः II4/2/22

सूत्र संख्या :22


अर्थ : किसी वेग से जाते हुए पदार्थ का किसी अन्य पदार्थ से टक्कर खाकर लौंने का नाम ब्यूह और उसका रूक जाना विष्टम्भ कहलाता है, ये दोनों धर्म सावयव पदार्थों में होते हैं। आकाश निरवयव है, इसलिए उससे मिलकर न तो कोई पदार्थ लौटसकता है और न रूक ही सकता है। ब्यूह और विष्टम्भ न होने से ही आकाश विभु है अर्थात् उसको गति का कहीं अवरोध नहीं। अतएव आकाश के व्यापक होने से परमाणुओं के निरवयव और नित्य होने में कोई बाधा नहीं हो सकती। अब वादी फिर शंका करता हैः-


सूत्र :मूर्तिमतां च संस्थानोपपत्तेरवयवसद्भावः II4/2/23

सूत्र संख्या :23


अर्थ : जितने परिच्छिन्न और स्पर्शवाम् द्रव्य हैं, उनका कुछ न कुछ आकार देखने में आता है, चाहे व त्रिभुज चतुभुँज हो या वत्तुँलाकर या पिण्डाकार इत्यादि। और जिसका आकार होता है, वह संयुक्त है। परमाणु भी परिच्छिन्न और स्पर्शवान् है इसलिए वह निरवयव नहीं हो सकता। इसी की पुष्टि करते हैं-


सूत्र :संयोगोपपत्तेश्च II4/2/24

सूत्र संख्या :24


अर्थ : संयोग भी परमाणुओं का धर्म है, जब तीन परमाणु आपस में मिलेंगे तो दो इधर-उधर होंगे और एक बीच में: संयोग होता है और अपर भाग भी कहलायेंगे। जब परमाणुओं का संयोग होता है और उसके पर और अपर भाग भी होते हैं, तब वे निवयव क्योंकर हो सकते हैं? अब इसका समाधान करते हैं-


सूत्र :अनवस्थाकारित्वा-दनवस्थानुपपत्तेश्चाप्रतिषेधः II4/2/25

सूत्र संख्या :25


अर्थ : जो पदार्थ सावयव है और जिसमें संयोग होता है, वह आकारवान् और अनित्य है। दोनों हेतु अनवस्था दोष युक्त हैं। जिसकी कोई स्थिति न हो, उसे अनवस्था कहते हैं। यदि परमाणु को परिच्छिन्न ने माना जावे तो उसमें अनवस्था दोष आवेगा। क्योंकि अपरिच्छिन्न होने से उसके विभाग होते ही चले जावेंगे, कहीं पर उनकी समाप्ति न होगी। इसलिए अनवस्थिति होने से यह हेतु माननीय नहीं। अब विज्ञानवाद अर्थात् सब पदार्थ भावाश्रिम हैं, अर्थात् बुद्धि में ही ठहरे हुए हैं, वास्तव में कुछ हनीं, की परीक्षा की जाती हैं-


सूत्र :बुद्ध्या विवेचनात्तु भावानां याथात्म्यानुप-लब्धिस्तन्त्वपकर्षणे पटसद्भावानुपलब्धिवत्तदनुपलब्धिः II4/2/26

सूत्र संख्या :26


अर्थ : यदि कपड़े में से एक-एक तार अलग करके देखें तो कपड़ा सिवाय तारों के औश्र कोई वस्तु ही नहीं ठहराता। अतएव कपड़ा केवल बुद्धि का विषय हैं, वास्तव में कुछ नहीं। प्रत्येक वस्तु की यही दशा है कि वह वस्तु तो कुछ नहीं, पर उसका ज्ञान होता है। इसलिए प्रत्येक वस्तु का जो ज्ञान है, वह मिथ्या ज्ञान है। या यूं समझो कि ज्ञान के सिवाय और किसी प्रदार्थ की सत्ता वास्तविक नहीं। क्योंकि जो कुछ मालूम होता है वह ज्ञान ही से है और ज्ञान ही है। इसलिए विज्ञान ही एक पदार्थ है और कुछ नही।

व्याख्या :प्रश्न- हम तो ज्ञान के अतिरिक्त ज्ञेय की सत्ता प्रत्यक्ष देखते हैं, यदि ज्ञेय न हो तो किसका ज्ञान हो? जैसे हमारे सामने यह गाड़ी खड़ी है, इसका प्रत्यक्ष ज्ञान होता है। उत्तर- गाड़ी कोई पदार्थ नहीं, उसकी रचना केवल ज्ञान ने की है। पहिया, धुरा और बम्ब आदि का नाम गाड़ी रख लिया है। इसी प्रकार पहिये आदि भी कोई वस्तु नही। एक गोल चत्र और कई डण्डों का नाम पहिया रख लिया है। इसलिए सब पदार्थों की रचना ज्ञान करता है। अब इसका उत्तर देते हैं-


सूत्र :व्याहतत्वा-दहेतुः II4/2/27

सूत्र संख्या :27


अर्थ : जब किसी पदार्थ की सत्ता है, तब बुद्धि से उसका ज्ञान होता है और जो मिथ्या ज्ञान होता है, वह भी दो दो सत्ताओं की विद्यमानता में होता है। यदि दो सत्तायें विद्यमान न हों तो किसका ज्ञान किस में होगा? क्योंकि मिथ्या ज्ञान का अर्क यह है कि अन्य पदाथ में अन्य पदार्थ का ज्ञान होना। जब कोई पदार्थ सिवाय ज्ञान के है ही नहीं तो किसका ज्ञान किस में होता है? और यह जो हेतु दिया है कि तारों से पृथक कपड़ा कोई वस्तु नहीं, यह भी ठीक नहीं। क्योंकि कपड़े को तार कोई नहीं कहता और न कपड़े का काम तार दे सकता है। इसलिए परस्पर विरूद्ध होने से वादी का हेतु अहेतु है। यदि तारों से कपड़ा पृथक वस्तु है तो उनके बिना उसका ज्ञान क्यों नहीं होता? इसका उत्तर देते हैं-


सूत्र :तदाश्रयत्वादपृथग्ग्रहणम् II4/2/28

सूत्र संख्या :28


अर्थ : सूत्र की तारें जिनसे कपड़ा बनता है, कपड़े का आश्रय है और वही उसकी उत्पत्ति का कारण भी हैं। आश्रित सदा अपने आश्रय के अधीन रहता हैं, इसलिए कपड़े का सूत के तारों से पृथक ग्रहण नहीं होता, किन्तु उसके साथ ही उसका भी ग्रहण किया जाता है। परन्तु यह आश्रय आश्रित का भेद बुद्धि से जाना जाता है, इसलिए वे एक नहीं हैं। जिन पदार्थों में आश्रय और आश्रित सम्बन्ध नहीं हहै, उसका पृथक ग्रहण होता है। फिर इसी अर्थ की पुष्टि करते हैं-


सूत्र :प्रमाणतश्चार्थप्रतिपत्तेः II4/2/29

सूत्र संख्या :29


अर्थ : जो वस्तु जैसी है, उसका प्रत्यक्षादि प्रमाणें से वैसा ही ज्ञान होता है और जो बात प्रमाणसिद्ध हो, उसको मानने से कोई इन्कार नहीं कर सकता, क्योंकि प्रमाण अर्थ का प्रत्यायक है। यह अमुक वस्तु हैं, ऐसी है, इतनी है, इत्यादि वस्तुवाद को प्रमाण सिद्ध करता है, अतः केवल विज्ञानवाद ठीक नहीं। और भी हेतु देते हैः


सूत्र :प्रमा-णानुपपत्त्युपपत्तिभ्याम् II4/2/30

सूत्र संख्या :30


अर्थ : पदार्थों को शून्य या कल्पित मानना ठीक नहीं, क्योंकि जिस प्रमाण से तुम शून्य या कल्पित सिद्ध करोगे, उसकी सत्ता तो माननी ही पड़ेगी, उसका भाव मानने से फिर सबका अभाव क्योंकर सिद्ध होगा। एक वस्तु की भी होने से सबका शून्य या कल्पित होना न रहेगा। यदि बिना प्रमाण के ही सबको शून्य या कल्पित माना जाये तो इसे कोई बुद्धिमान स्वीकार न करेगा क्योंकि बिना प्रमाण के किसी वस्तु की सिद्धि नहीं होती। वादी शंका करता हैः


सूत्र :स्वप्नविषयाभिमानवदयं प्रमाणप्रमेयाभिमानः II4/2/31

सूत्र संख्या :31


अर्थ : जैसे स्वप्न के प्रमेय पदार्थ कल्पित होते हैं, परन्तु उनका अभिमान होता है, ऐसे ही प्रमाण और प्रमेय का अभिमान भी कल्पित है, वास्तव में कुछ नहीं। इस पर एक दृष्टांत और देते हैं-


सूत्र :मायागन्धर्वनगरमृगतृष्णिकावद्वा II4/2/32

सूत्र संख्या :32


अर्थ : या जैसे भ्रम से मायिक गन्धर्वनगर या मगधर्वनगर या मगतृष्णा का मिथ्या ज्ञान होता है, ऐसे ही प्रमाण और प्रमेय का ज्ञान भी कल्पित और वस्तुशून्य है। इसका उत्तरः


सूत्र :हेत्वभावादसिद्धिः II4/2/33

सूत्र संख्या :33


अर्थ : इस प्रतिज्ञा के लिए कि स्वप्नपदार्थ कल्पित हैं, कोई हेतु नहीं है और बिना हेतु के प्रतिज्ञा करने से कोई बात सिद्ध नहीं होती। यदि यह हेतु दिया जाये कि जागृत अवस्था में उनके अभाव से उनका मिथ्या होना सिद्ध होता है, तो जागृदवस्था के विषयों का भाव मानना पड़ेगा, जिससे बाह्य पदार्थों का भाव सिद्ध होगा। जब बाह्य सिद्ध हो गये तो उन्ही का प्रतिबिम्ब स्वप्नपदार्थ भी है (चाहे वे भ्रम से कुछ का कुछ दीखें) यदि कहा जाये कि जागृदवस्था के पदार्थ भी मिथ्या हैं तो स्वप्नपदार्थों का खण्डन नहीं हो सकता। क्योंकि जागृदवस्था को सत्य मानकर स्वप्नावस्था का असत्य होना कहा जाता है, जब जागृतदवस्था ही मिथ्या फिर स्वप्नाव्स्था का मिथ्या होना किसकी अपेक्षा से मानते हो। किसी वस्तु के भाव से उसके अभाव का ज्ञान होता है जैसे बैल के श्रृंग से मनुष्य के श्रृंग का अभाव कहा जाता है। यदि किसी के सींग होते ही नहीं, तो उनको हेतु में रखकर कौन मनुष्य के सींगों का अभाव सिद्ध करता। स्वप्न में जो मिथ्या ज्ञान होता है, उसका कोई कारण होना चाहिए। जब उसका कारण जागृत का ज्ञान है तो फिर वह कल्पित कहां रहां। अतएव जब स्वप्नाभिमान ही निर्मूल नहीं, तो फिर प्रमाण प्रमेयाभिमान कैसे होता है, इसको दिखलाते हैं-


सूत्र :स्मृति-संकल्पवच्च स्वप्नविषयाभिमानः II4/2/34

सूत्र संख्या :34


अर्थ : जिन कारणों से स्मृति और संकल्प उत्पन्न होते हैं, उन्ही कारणों से स्वप्नाभिवान ही होता है, अर्थात् जिन पदार्थों का पहले ज्ञान हो चुका हो उनके संस्कार मन में विद्धमान होने से स्वप्न में उनका भान होता है, जो वस्तु दृष्टा या श्रुत न हो, उसका स्वप्न में भी भान नहीं होता यहां दृष्ट से अभिप्राय ज्ञात से है। ज्ञात पदार्थों को जब स्वप्न में बाह्य शरीर और इन्द्रिय काम करने से रूक जाते हैं, सूक्ष्म शरीर और मन उनको स्मरण करता है, यही स्वप्न कहलाता है। यदि स्वप्न और जागरण में कुछ भेद न होता तो स्वप्नाभिमान कहना बन ही नहीं सकता था। तात्पर्य यह कि जैसे स्मृति और संकल्प पूर्वज्ञात विषयों को सिद्ध करते हैं, ऐसे ही स्वप्नाभिमान भी जागृत के अनुभूत विषयों का स्मारक और साधक है।

व्याख्या :प्रश्न- हम प्रायः स्वप्न में अपना शिर कटा हुआ और अपने को आकाश में उड़ता हुआ देखते हैं। यह हमारा पहले देखा हुआ या सुना हुआ कब है? उत्तर- हमने दूसरों के शिर कटे हुए और पक्षी आकाश में उड़ते हुए देखे या सुने हैं। इनके संस्कार हमारे मन में भरे हुए होते हैं। स्वप्न में इन्द्रियों का अर्थों के साथ सम्बन्ध होने से ज्ञान नहीं होता, किन्तु केवल मानसिक ज्ञान होता हैंऔर मन उस समय विकल्पवृत्ति के अधीन होकर उनको यथेच्छ रचना करने लगता है, अन्य के धर्म को अन्य में आरोप करने लगता है। अतएव स्वप्न भी एक प्रकार की स्मृति है, चाहे वह मिथ्या और बनावटी हो। भ्रान्ति का निरोध किस प्रकार हो सकता हैः


सूत्र :मिथ्योपलब्धेर्विनाशस्तत्त्वज्ञानात्स्व-प्नविषयाभिमानप्रणाशवत् प्रतिबोधे II4/2/35

सूत्र संख्या :35


अर्थ : जिस प्रकार जागृदवस्था में स्वप्न का अभिमान नष्ट हो जाता है, इसी प्रकार तत्त्वज्ञान के होने पर मिथ्या ज्ञान नष्ट हो जाता है।

व्याख्या :प्रश्न- मिथ्या ज्ञान किसे कहते हैं? उत्तर- जैसे दूर से स्थाणु को देखकर यह भ्रम होता है कि यह पुरूष है वा क्या? ऐसे ही वस्तु कुछ और हो और उसको समझना कुछ और जाये, इस को मिथ्या ज्ञान कहते हैं। प्रश्न- तत्त्वज्ञान किसे कहते हैं? उत्तर- जो पदार्थ जैसा हो, उनको वैसा ही जान लेना तत्त्वज्ञान कहलाता हैं, स्थाणु को स्थाणु और पुरूष को पुरूष समझना यही तत्त्वज्ञान है। कोई पदार्थ नष्ट नहीं होता, किन्तु उसका तत्त्वज्ञान होने से मिथ्या ज्ञान नष्ट हो जाता है। जैसे बालू को देखकर जो जल का ज्ञान हुआ था, यथार्थ ज्ञान होने पर बालू नष्ट हो जाती, किन्तु उसको जो भ्रम से पानी समझ लिया था, यह मिथ्या ज्ञान नहीं रहता। इसी प्रकार जागृत में पदार्थ या उनके संस्कार नष्ट नहीं होते किन्तु स्वप्नविषय उनका मिथ्याभिमान दूर हो जाता है। अब मिथ्या ज्ञान की सत्ता सिद्ध करते हैं-


सूत्र :बुद्धेश्चैवं निमित्तसद्भावोपलम्भात् II4/2/36

सूत्र संख्या :36


अर्थ : जैसे वस्तु सत्ता अनिवार्य है अर्थात् उसका अभाव नहीं हो सकता वैसे ही मिथ्या बुद्धि का भी अभाव नहीं होता। केवल जिसको तत्त्वज्ञान हुआ है, उसके आत्मा से मिथ्या ज्ञान दूर हो जाता है, अन्यत्र उसकी उत्पत्ति और स्थिति देखी जाती है। अतः निमित्त और सद्भाव के होने से मिथ्या ज्ञान की सत्ता है। अब इसके भेद दिलाते हैं-


सूत्र :तत्त्वप्रधानभेदाच्च मिथ्याबुद्धेर्द्वैविध्योपपत्तिः II4/2/37

सूत्र संख्या :37


अर्थ : जो वस्तु हो उसको तत्तव कहते हैं और जिसका उसमें ज्ञान हो उसे प्रधान कहते हैं। तत्त्व और प्रधान इन दो भेदों के होने से मिथ्या बुद्धि दो प्रकार की है। जैसे रस्सी जो एक वस्तु है, तत्त्व है और सर्प जिसका उसमें ज्ञान होता है, प्रधान है। यही कारण है कि रस्सी में सर्प का ज्ञान होता है। यद्यपि तत्त्वज्ञान के होने पर मिथ्या ज्ञान की निवृत्ति हो जाती है, तथापि जब तक तत्त्वज्ञान नहीं होता, तब तक मिथ्या ज्ञान की सत्ता (चाहे वह भ्रमात्मक ही हो) माननी पड़ती है। तत्त्वज्ञान की उत्पत्ति किस प्रकार होती है, यह दिखलाते हैं-


सूत्र :समाधिविशेषाभ्यासात् II4/2/38

सूत्र संख्या :38


अर्थ : इन्द्रियों के अर्थों से मन को रोक कर आनन्दघन परमात्मा में लगाना समाधि है, और समाधि के अभ्यास करने से तत्त्वज्ञान होता हैं। तत्त्वज्ञान के होने में मन की चंचलता सबसे बड़ी रूकावट हैं और जब तक इन्द्रियों का विषयों के साथ सम्बन्ध रहता है, तब तक मन स्थिर नहीं होता। जब समाधि के अभ्यास से मन को विषयों से रोका जाता है, तब तत्त्वज्ञान की उत्पत्ति होती है। वादी शंका करता हैं-


सूत्र :नार्थविशेषप्राबल्यात् II4/2/39

सूत्र संख्या :39


अर्थ : समाधि का सिद्ध होना कठिन ही नहीं, किन्तु असम्भव सा है, क्योंकि इन्द्रियों के अर्थ ऐसे प्रबल हैं बिना इच्छा के भी मनुष्य को अपनी तरफ खींचते हैं। जब तक इन्द्रिय वर्तमान हैं और उनके विषय भी संसार में विद्यमान हैं, तब तक यह असम्भव है कि मनुष्य का मन उनसे हट सके। हटना तो एक तरफ, यह तो उनसे तृप्त भी नहीं होता। इसी की पुष्टि में दूसरा हेतु देते हैं-


सूत्र :क्षुदादिभिः प्रवर्तनाच्च II4/2/40

सूत्र संख्या :40


अर्थ : भूख, प्यास, सर्दी, गर्मी और बीमारी आदि उपादियां जो स्वाभाविक हैं, कभी मनुष्य को स्थिति नहीं होने देतीं इन स्वाभाविक रूकावटों के होने से समाधि का होना असम्भव है और समाधि के न होने से तत्त्वज्ञान नहीं हो सकता और तत्त्वज्ञान के अभाव में मुक्ति केवल कल्पित रह जाती है। अब इसका उत्तर देते हैं-


सूत्र :पूर्वकृतफला-नुबन्धात्तदुत्पत्तिः II4/2/41

सूत्र संख्या :41


अर्थ : यदि मनुष्य बार-बार समाधि के लिए सत्न करे तो पूर्वजन्मकृत कर्मों की सहायता से समाधि सिद्ध हो सकती है। यदि इस जन्म में न होगी तो अगले जन्म में अवश्य होगी। अभ्यास में बड़ी शक्ति है, जब लौकिक कार्यों में किया हुआ अभ्यास निष्फल नहीं जाता, तब पारलौकिक कार्यों में यह निष्प्रभाव कैसे हो सकता है। इसी की पुष्टि में और हेतु देते हैं-


सूत्र :अरण्यगुहापुलिनादिषु योगाभ्यासोपदेशः II4/2/42

सूत्र संख्या :42


अर्थ : योगाभ्यास का जो उपदेश किया गया है, वह प्रत्येक स्थान पर नीं किन्तु वन, गुहा, नदीतीर आदि एकान्त स्थानों में बैठकर योगाभ्यास करना चाहिए। क्योंकि इन स्थान में विक्षेप नहीं होते या बहुत ही कम होते हैं, जिनका अभ्यास से निवारण किया जा सकता हैं अब शेका करते हैं-


सूत्र :अपव-र्गेऽप्येवं प्रसङ्गः II4/2/43

सूत्र संख्या :43


अर्थ : यदि बिना इच्छा के अर्थ मनुष्य को अपनी ओर खींच सकते हैं, तो मुक्ति में भी कोई वैषयिक ज्ञान से नहीं बच सकता। क्योंकि मुक्ति में केवल इच्छा ही नहीं होती, संसार के विषय तो बिना इच्छा के भी मुक्त पुरूष को अपनी ओर खीचेंगे। अब इसका उत्तर देते हैं-


सूत्र :न निष्पन्नावश्यम्भावित्वात् II4/2/44

सूत्र संख्या :44


अर्थ : मुक्तावस्था में स्थूल शरीर के न रहने से बाह्य विषयों का ग्रहण नहीं हो सकता क्योंकि बाह्य विषयों के ज्ञान के लिए चेष्टा और इन्द्रियों के आश्रय शरीर का होना आवश्यक है। परन्तु मुक्तावस्था में न तो शरीर ही रता है न इन्द्रिय, इसलिए उनसे उत्पन्न होने वाला विषय ज्ञान कैसे हो सकता है? इसी की पुष्टि करते हैं-


सूत्र :तदभावश्चापवर्गे II4/2/45

सूत्र संख्या :45


अर्थ : ज्ञानोत्पत्ति का कारण जो शरीरादि का समुदाय है, धर्माऽधर्म संस्कारों के न रहने से जो शरीररोत्पत्ति का कारण है, मोक्ष में उसका अभाव हो जाता है, शरीर के अभाव से चक्षुरादि इन्द्रियों का भी अभाव हो जाता है, इन्द्रियों का अभाव होने से उनके अर्थों का ज्ञान कैसे हो सकता है। इसलिए मोक्ष में मिथ्याबुद्धि की आशंका करना ठीक नहीं। अब मोक्ष्प्राप्ति के साधन दिखलाते हैः


सूत्र :तदर्थं यमनियमाभ्यामात्मसंस्कारो योगाच्चाध्यात्मविध्युपायैः II4/2/46

सूत्र संख्या :46


अर्थ : योगशास्त्र के विध्यनुसार यम नियमसदि आठ अंगों के द्वारा आत्मसंस्कार करना चाहिए।

व्याख्या :प्रश्न- योग के आठ अंग क्या हैं? उत्तर- (1) यम (2) नियम (3) आसन (4) प्राणायाम (5) प्रत्याहार (6) धारणा (7) ध्यान (8) समाधि। इनकी व्याख्या योगदर्शन के साधनपाद में की गई है। प्रश्न- क्या योगाभ्यास के बिना मुक्ति नहीं हो सकती? उत्तर- योग के बिना तत्त्वज्ञान का होना कठिन है और तत्त्वज्ञान के बिना मुक्ति नहीं हो सकती। इसलिए मुमुक्ष को योगाभ्यास आवश्यक हैं। प्रश्न- योग और समाधि से तत्त्वज्ञान होने में क्या प्रमाण है? उत्तर- यदि कोई पूछे कि मिसरी के मीठा होने में क्या प्रमाण है तो इसका उत्तर यह है कि या तो जिन्होंने मिसरी का खाया हैं, उनसे पूछो या खुद खाकर देख लो, इसके सिवाय और क्या प्रमाण हो सकता है इसी प्रकार या तो योगियों से जाकर पूछों या खूद योग करके देखो। योग अतिरिक्त और भी मोक्ष के साधन हैं-


सूत्र :ज्ञानग्रह-णाभ्यासस्तद्विद्यैश्च सह संवादः II4/2/47

सूत्र संख्या :47


अर्थ : योगसाधन के अतिरिक्त मोक्ष प्राप्ति के लिए मुमुक्ष को अध्ययन, श्रवण और मनन के द्वारा तत्त्वज्ञान का निरन्तर अभ्यास करना चाहिए। इसके अतिरिक्त बुद्धि को परिपक्व बनाने के लिए तत्त्वज्ञानियों के साथ संवाद भी करना चाहिए। क्योंकि बिना अभ्यास के ज्ञान की वृद्धि और बिना संवाद के बुद्धि की परिपक्वता और सन्देहों की निवृद्धि नहीं हो सकती। संवाद किस प्रकार करना चाहिएः


सूत्र :तं शिष्यगुरुसब्रह्मचारिविशिष्टश्रेयोऽर्थि-भिरनसूयुभिरभ्युपेयात् II4/2/48

सूत्र संख्या :48


अर्थ : प्रथम तो अपने से अधिक विद्वान् गुरू से संवाद करना चाहिए, यह संवाद शास्त्रार्थ करना चाहिए। और उत्तर पा रधृष्टता या हठ नहीं करना चाहिए। यदि कुछ सन्देह रहे तो नम्र भाव से विनीत शब्दों में उसे निवेदन करना चाहिए। गुरू के अतिरिक्त ज्ञान की दृढ़ता के लिए अपने समाध्यायी तथा योग्य शिष्यों के साथ भी प्रेमपूर्वक संवाद करना चाहिए। इस प्रकार संवाद करने से तत्त्वज्ञान की प्राप्ति में सहायता मिलती है। यदि अपने से अधिक विद्वान न मिले तो क्या करेः


सूत्र :प्रतिपक्षहीनमपि वा प्रयोजनार्थमर्थित्वे II4/2/49

सूत्र संख्या :49


अर्थ : जिसको तत्त्वज्ञान की जिज्ञासा हो, यदि उसे पूरा तत्त्वज्ञानी गुरू न मिले तो दूसरे विचारशील पुरूषों से भी प्रतिपक्षहीन होकर अर्थात् अपना कोई पक्ष स्थापन न करके संवाद करे। जिज्ञासुको आग्रह न करना चाहिए, क्योंकि आग्रही मनुष्य सत्य को प्राप्त नहीं हो सकता। यदि तत्त्वज्ञान के लिए वाद ही उपयुक्त है तो जल्प और वितण्डा का उपयोग किस अवसर पर करना चाहिएः-


सूत्र :त-त्त्वाध्यवसायसंरक्षणार्थं जल्पवितण्डे वीजप्ररोहसंरक्षणार्थं कण्टकशाखा-वरणवत् II4/2/50

सूत्र संख्या :50

व्याख्याकार : स्वामी दर्शनानन्द सरस्वती

अर्थ : जिस प्रकार बीज बोने वाले का प्रयोजन केवल अन्न और फल से होता है, परन्तु उसकी रक्षा के लिए खेत के चारों तरफ उसे कांटों की बाढ़ लगानी पड़ती है, जिससे दुष्ट जन्तु उस अन्न या फल को जो उसका अभिप्रेत है, नष्ट न कर सकें। इसी न प्रकार संवाद का तात्पर्य केवल तत्त्वज्ञान से है किन्तु हेतुके और नासिक लोग अपने कुतर्क और हेत्वाभासों से तत्त्वज्ञान को जटिल और संशयास्पद बना देते हैं उनसे उसकी रक्षा करने के लिए कभी-कभी जल्प और वितण्डा की भी आवश्यकता होती है। अतएव अपने अवसर पर ही इनका प्रयोग करना चाहिए, न कि सर्वदा।

व्याख्या :इति चुतुर्थाध्यायस्य द्वितीयमान्हिकम्। चतुर्थाध्यायः समाप्तः।

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