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वैराग्य शतकम् भ्रतृहरि विरचित भाग-1.3

 

आजानन्माहात्म्यं पततु शलभो दीपदहने

स मीनोऽप्यज्ञानाद्वडिशयुतमश्नातु पिशितम् ।

विजानन्तोऽप्येतान्वयमिह विपज्जालजटिलान्

न मुञ्चामः कामानहह गहनो मोहमहिमा ॥ २१॥

 

अर्थ:

 

      अज्ञानवश, पतङ्ग दीप की लौ पर गिरकर अपने तई भस्म कर लेता है; क्योंकि वह उसके परिणाम को नहीं जानता; इसी तरह मछली भी कांटे के मांस पर मुंह चलकर अपने प्राण खोती है, क्योंकि वह उससे अपने प्राण-नाश की बात नहीं जानती । परन्तु हम लोग तो अच्छी तरह जानबूझकर भी विपद मूलक विषयों की अभिलाषा नहीं त्यागते । मोह की महिमा कैसी विस्मयकर है ।

    आश्चर्य है कि मनुष्य - जिसे भगवान् ने समझ दी है, जो जानता है कि विषयों की कामना आफत की जड़ है, विषयों में सुख नहीं, घोर विपद है; विषय विष से भी अधिक दुखदायी हैं - विषयों की इच्छा करता है । इससे कहना पड़ता है कि, मोह की माया बड़ी कठिन है । महात्मा कबीरदास कहते हैं:

 

शङ्कर हूँ ते सबल है, माया या संसार।

अपने बल छूटे नहीं, छुडावे सिरजनहार।।

 

 

फलमलमशनाये स्वादुपानाय तोयं

शयनमवनिपृष्ठे वल्कले वाससी च।

नवधनमधुपानभ्रान्तसर्वेन्द्रियाणा-

मविनयमनुमन्तुं नोत्सहे दुर्जनानाम् ।। २२ ।।

 

अर्थ:

 

   खाने के लिए फलों की इफरात है, पीने के लिए मीठा जल है, पहनने के लिए वृक्षों की छाल है; फिर हम धनमद से मतवाले दुष्टों की बातें क्यों सहें ?

 

    मनुष्य को सन्तोष नहीं, उसे तृष्णा नहीं छोड़ती; इसी से वह विषयों को भोगने की लालसा से ढाणियों की खुशामदें करता है, उनकी टेढ़ी-सूधी सुनता है, अपनी प्रतिष्ठा खोता है, निरादर और अपमान सेहत है । अगर वह सन्तोष कर ले, तो उसे ऐसे दुष्टों और धनमद से मतवाले शैतानो की खुशामद क्यों करवानी पड़े? अपनी मानहानि क्यों करनी पड़े ? परमात्मा इन शैतानो से बचावे ! एक तो तंगदिल लोग वैसे ही शैतान होते हैं, पर जब उन पर दौलत का नशा चढ़ जाता है, तब तो उनकी शैतानी का ठिकाना ही क्या ?

 

उस्ताद ज़ौक़ कहते हैं और खूब कहते हैं -

 

नशा दौलत का बद अवतार को, जिस आन चढ़ा ।

सर पै शैतान के, एक और भी शैतान चढ़ा ।।

 

 

     अनुभवहीन और तंगदिल मनुष्य पर जिस समय दौलत का नशा चढ़ गया, तब मानो शैतान के सर पर एक और शैतान चढ़ गया । जिसे किसी चीज़ की जरुरत नहीं वो किसी की खुशामद क्यों करेगा ? वह अपना मान क्यों खोयेगा ? निष्पृह के लिए तो जगत तिनके के समान है । इसलिए सुख चाहो तो इच्छाओं को त्यागो।

 

किसी ने ठीक ही कहा है:

 

भागती फिरती थी दुनिया, तब तलब करते थे हम।

अब जो नफरत हमने की, तो बेक़रार आने को है।।

 

 

 

दोहा:

 

भूमि शयन, बल्कल वसन, फल भोजन जलपान।

धनमदमाते नरन को, कौन सहत अहमान?

 

 

विपुलहृदयैर्धन्यैः कैश्चिज्जगज्जनितं पुरा

विधृतमपरैर्दत्तं चान्यैर्विजित्य तृणं यथा ।

इह हि भुवनान्यन्ये धीराश्चतुर्दश भुञ्जते

कतिपयपुरस्वाम्ये पुंसां क एष मदज्वरः ।। २३ ।।

 

 

अर्थ:

    कोई तो ऐसे बड़े दिलवाले लोग हुए, जिन्होंने इस प्राचीनकाल में इस जगत की रचना की; कुछ ऐसे हुए जिन्होंने इस जगत को अपनी भुजाओं पर धारण किया; कुछ ऐसे हुए जिन्होंने समग्र पृथ्वी जीती और फिर तुच्छ समझकर दूसरों को दान कर दी; और कुछ ऐसे भी हैं जो चौदह भुवन का पालन करते हैं । जो लोग थोड़े से गावों के मालिक होकर, अभिमान के ज्वर से मतवाले हो जाते हैं, उनके समबन्ध में हम क्या कहें?

 

     सज्जन लोग धनैश्वर्य और प्रभुता पाकर कभी अहङ्कार नहीं करते; ओछे या नीच ही थोड़ी सी विषय सम्पत्ति पाकर अभिमान किया करते हैं । निति रत्न में लिखा है:

 

दिव्यं चूतरसं पीत्वा गर्वं नो याति कोकिलः।

पीत्वा कर्दमपानीयं भेको मकमकायते। ।

अगाधजलसञ्चारी न गर्वं याति रोहितः।

अङ्गष्ठोदकमात्रेण सफरी फर्फरायते।।

 

    उत्तम रसाल के रस को पीकर कोकिल गर्व नहीं करता, किन्तु कीचड मिला पानी पीकर ही मेंढक टरटराया करता है ।

 

    अगाध जल में रहने वाली रोहित मछली गर्व नहीं करती किन्तु अंगूठे जितने जल में सफरी मछली ख़ुशी से नाचती फिरती है ।

 

    बस, छोटे और बड़े, पूरे और ओछे लोगों में यही अन्तर होता है । जो जितना छोटा है, वह उतना ही घमण्डी और उछलकर चलनेवाला है और जो जितना ही बड़ा और पूरा है, वह उतना ही गम्भीर और निरभिमानी है । नदी नाले थोड़े से जल से इतरा उठते हैं; किन्तु सागर, जिसमें अनंत जल भरा है गम्भीर रहता है ।

 

     अभिमान या अहङ्कार महा अनर्थों का मूल है । यह नाश की निशानी है । अहंकारी से परमात्मा दूर रहता है । जिससे परमात्मा दूर रहता है, उसके दुःखों का अंत कहाँ है ? अतः मनुष्यों ! अभिमान को त्यागो । जो आज टुकड़ो का मुहताज है, वह कल राजगद्दी का स्वामी दिखाई देता है और आज जिसके सर पर राजमुकुट है, सम्भव है कि कल वह गली-गली मारा-मारा फिरे । संसार की यही गति है, इसलिए अभिमान वृथा है । परमात्मा ने एक से बढ़कर एक बना दिया है । कहा है:

 

एक-एक से एक-एक को, बढ़कर बना दिया।

दारा किसी को, किसी को सिकन्दर बना दिया।।

 

    *दारा ईरान का बादशाह था । वह अपने समय में मध्याह्न के मार्तण्ड की तरह तपता था । उसने बहुत से देश जीत लिए । किसी को उम्मीद न थी कि, दारा भी किसी से पराजित होगा ; पर ईश्वर ने तो एक से बढ़कर एक बनाये हैं । उसने दारा को भी परास्त करने वाला सिकन्दर पैदा कर दिया । सिकन्दर आज़म ने दारा को शिकस्त दी और भारत पर भी चढ़ाई की।

 

 

    आपको किस बात का गर्व है? यह राज्य और धन दौलत क्या सदा आपके कुल में रहेंगे या आपके साथ जायेंगे ? जो रावण लंकेश्वर था, जिसने यक्ष, किन्नर, गन्धर्व और देवताओं तक को अपने अधीन कर लिया था, आज वह कहाँ है? उसका धन वैभव क्या उसके साथ गया? जिस राम ने समुद्र का पल बांधकर वानर सेना से रावण का नाश किया वही राम आज कहाँ है? जिस बलि ने रावण जैसे त्रिलोक विजयी को अपने पुत्र के पालने से बाँध रखा था आज वह बलि कहाँ है ? जिस सहस्त्रबाहु ने रावण के सर पर चिराग रख कर जलाया था, वह सहस्त्रबाहु ही आज कहाँ है ? चारों दिशाओं को अपने भुजबल से जीतनेवाले भीमार्जुन कहाँ हैं ? इस पृथ्वी पर अनेक, एक से एक बली राजा और शूरवीर हो गए, पर यह पृथ्वी किसी के साथ न गयी । क्या आपकी धन-दौलत, जमींदारी या राजलक्ष्मी अटल और स्थिर है ? क्या यह आपके साथ जाएगी ? हरगिज़ नहीं । आप जिस तरह खाली हाथ आये थे, उसी तरह खाली हाथ जायेंगे ।

 

अभिमानियों का नशा उतरने के लिए उस्ताद ज़ौक ने भी खूब कहा है:

 

दिखा न जोशो खरोश इतना, ज़ोर पर चढ़कर।

गए जहां में दरिया, बहुत उतर-चढ़कर।।

 

     हे मनुष्य ! ज़ोर में आकर इतना जोश-खरोश न दिखा इस दुनिया में बहुत से दरिया चढ़-चढ़ कर उतर गए - कितने ही बाग़ लगे और सूख गए ।

 

महात्मा कबीरदास जी कहते हैं:

 

धरती करते एक पग, करते समन्दर फाल ।

हाथों परवत तोलते, ते भी खाये काल।।

हाथों परवत फाड़ते, समुन्दर घूँट भराय।

ते मुनिवर धरती गले, कहा कोई गर्व कराय?

 

 

त्वं राजा वयमप्युपासितगुरुप्रज्ञाभिमानोन्नताः

ख्यातस्त्वं विभवैर्यशांसि कवयो दिक्षु प्रतन्वन्ति नः ।

इत्थं मानद नातिदूरमुभयोरप्यावयोरन्तरं यद्यस्मासु

पराङ्मुखोऽसिवयमप्येकान्ततो निःस्पृहाः।। २४ ।।

 

अर्थ:

 

    अगर तू राजा है, तो हम भी गुरु की सेवा से सीखी हुई विद्या के अभिमान से बड़े हैं। अगर तू अपने धन और वैभव के लिए प्रसिद्ध है, तो कवियों ने हमारी विद्या की कीर्ति भी चारों और फैला रखी हैं । हे मानभञ्जन करने वाले, तुझमें और हममें ज्यादा फर्क नहीं है । अगर तू हमारी ओर नहीं देखता, तो हमें भी तेरी परवा नहीं है ।

 

 

अभुक्तयां यस्यां क्षणमपि न यातं नृपशतै-

र्भुवस्तस्या लाभे क इव बहुमानः क्षितिभुजाम्।

तदंशस्याप्यंशे तदवयवलेशेऽपि पतयो

विषादे कर्तव्ये विदधति जडाः प्रत्युत मुदम।। २५ ।।

 

अर्थ:

 

    सैकड़ों हज़ारों राजा इस पृथ्वी को अपनी अपनी कहकर चले गए, पर यह किसी की भी न हुई; तब राजा लोग इसके स्वामी होने का घमंड क्यों करते हैं ? दुःख की बात है, कि छोटे छोटे राजा छोटे से छोटे टुकड़े के मालिक होकर अभिमान के मारे फूले नहीं समाते ! जिस बात से दुःख होना चाहिए, मूर्ख उससे उलटे खुश होते हैं ।

 

    इस पृथ्वी पर रावण और सहस्त्रबाहु प्रभृति एक से एक बढ़कर राजा हो गए, जिन्होंने त्रिलोकी अपनी ऊँगली पर नचा डाली । वे कहते थे कि हमारे बराबर जगत में दूसरा कोई नहीं है। यह पृथ्वी सदा हमारे पास ही रहेगी । पर वे सब एक दिन इसे छोड़कर चल बसे। यह उनकी न हुई; वे इसे सदा न भोग सके। तब आजकल के छोटे छोटे राजा, जो अपने तई पृथ्वीपति समझ कर अभिमान के नशे में चूर रहते हैं, इसके लिए लड़ते हैं, खून खराबा करते हैं, क्या यह उनकी अज्ञानता नहीं है ? उनकी यह छोटी सी प्रभुता - मालिकाई, सदा-सर्वदा नहीं रहेगी; यह विजली की सी चमक और बदल की सी छाया है । इस पर घमण्ड करना बड़ी भूल की बात है ।

 

 

महात्मा कबीर कहते हैं -

 

चहुँदिशि पाका कोट था, मंदिर नगर मंझार ।

खिरकी खिरकी पाहरू, गज बंधा दरबार ।।

चहुँदिशि तो योद्धा खड़े, हाथ लिए हथियार ।

सब ही यह तन देखता, काल ले गया मार ।।

आस पास योद्धा खड़े, सबै बजावें गाल ।

मंझ महल ते ले चला, ऐसा परबल काल ।।

 

 

   हे मनुष्य ! मौत से डर, अभिमान त्याग । किसी राजा की नगरी के चारों तरफ पक्की शहरपनाह थी, उसका महल शहर के बीचोंबीच था, हरेक फाटक की खिड़की पर पहरेदार थे, दरबार में हाथी बंधा था, चारों तरफ सिपाही हथियार बांधे हुए खड़े थे । आस पास खड़े योद्धा गाल बजाते ही रह गए और वह बलवान काल, ऐसा बंदोबस्त होने पर भी राजा को अपने साथ ले गया ।

 

 

न नटा न विटा न गायना न परद्रोहनिबद्धबुद्धयः।

नृपसद्मनि नाम के वयं स्तनभारानमिता न योषितः।। २७ ।।

 

अर्थ:

 

    न तो हम नट या बाज़ीगर हैं, न हम नचैये-गवैये हैं, न हमको चुगलखोरी आती है, न हमें दूसरों की बर्बादी की बन्दिशें बांधनी आती हैं और न हम स्तनभारावनत स्त्रियां ही हैं; फिर हमारी पूछ राजाओं के यहाँ क्यों होने लगी? हममें इनमें से एक भी बात नहीं, फिर हमारा प्रवेश राजसभा में कैसे हो सकता है ? वहां तो उनकी पूछ है - उन्ही का आदर है - जो उनकी विषय-वासनाएं पूरी करते हैं।

 

दोहा:

 

नट भट विट गायन नहीं, नहिं बादिन के माहिं।

कौन भांति भूपति मिलन, तरुणी भी हम नाहिं?।।

 

 

पुरा विद्वत्तासीऽदुपशमवतां क्लेशहतये

गता कालेनासौ विषयसुखसिद्धयै विषयिणाम् ।

इदानीं तु प्रेक्ष्य क्षितितलभुजः शास्त्रविमुखा

नहो कष्टं साऽपि प्रतिदिनमधोऽधः प्रविशति ।। २८ ।।

 

अर्थ:

 

    पहले समयों में, विद्या केवल उन लोगों के लिए थी, जो मानसिक क्लेशों से छुटकारा पाकर चित्त की शान्ति चाहते थे । इसके बाद विषय सुख चाहने वालों के काम की हुई । अब तो राजा लोग शास्त्रों को सुनना ही नहीं चाहते; वे उससे पराङ्गमुख हो गए हैं; इसलिए वह दिन-ब-दिन रसातल को चली जाती है । यह बड़े ही दुःख की बात है।

 

     पहले ज़माने में जो विद्या शान्तिकामी लोगों के अशान्त चित्तों को शान्त करने, उनकी मनोवेदनाओं को दूर करने और उनके शोक ताप की आग में जलने से बचने के काम आती थी, होते होते वही विद्या, विषय-सुख भोगने का जरिया हो गयी । लोग भाँति भाँति की विद्याएं सीख कर राजाओं और ढाणियों को खुश करते और उनसे धन पाकर स्वयं विषय सुख भोगते थे । यहाँ तक तो खैर थी; किन्तु अब राजा लोग ऐसे हो गए हैं, कि वह विद्या और विद्वानों कि ओर नज़र उठा कर भी नहीं देखते, पण्डितों से धर्मशास्त्र नहीं सुनते; इसलिए अब कोई विद्या नहीं पढता । कदर न होने से, विद्या अब अधोगति को प्राप्त होती जा रही है। क्या यह दुःख का विषय नहीं है?

 

 दोहा:

 

विद्या दुःखनाशक हती, फेरि विषय सुख दीन।

जात रसातल को चली, देखि नृपन्ह मतिहीन।।

 

 

 

स जातः कोऽप्यासीन्मदनरिपुणा मूर्ध्नि धवलं

कपालं यस्योच्चैर्विनिहितमलंकारविधये ।

नृभिः प्राणत्राणप्रवणमतिभिः कैश्चिदधुना

नमद्भिः कः पुंसामयमतुलदर्पज्वरभरः ।। २९ ।।

 

अर्थ:

 

    प्राचीन काल में ऐसे पुरुष हुए हैं, जिनकी खोपड़ियों कि माला बनाकर स्वयं शिव ने श्रृंगार के लिए अपने गले में पहनी । अब ऐसे लोग हैं, जो अपनी जीविका-निर्वाह के लिए सलाम करने वालों से ही प्रतिष्ठा पाकर, अभिमान के ज्वर (मद) से गरम हो रहे हैं ।

 

 दोहा:

 

ऐसेहू जग में भये, मुण्डमाल शिव कीन।

धनलोभी नर नावट लखि, तुमको मदज्वर दीन।।

 

अर्थानामीशिषे त्वं वयमपि च गिरामीश्महे यावदित्थं

शूरस्त्वं वादिदर्पज्वरशमनविधावक्षयं पाटवं नः।

सेवन्ते त्वां धनान्धा मतिमलहतये मामपि श्रोतुकामा

मय्यप्यास्था न ते चेत्त्वयि मम सुतरामेष राजन्गतोऽस्मि  ।। ३० ।।

 

अर्थ:

 

    यदि तुम धन के स्वामी हो तो हम वाणी के स्वामी हैं। यदि तुम युद्ध करने में वीर हो तो हम अपने प्रतिपक्षियों से शास्त्रार्थ करके उनका मद-ज्वर तोड़ने में कुशल हैं । यदि तुम्हारी सेवा धन-कामी या धनान्ध करते हैं, तो हमारी सेवा अज्ञान-अंधकार का नाश चाहनेवाले, शास्त्र सुनने के लिए करते हैं । यदि तुम्हें हमारी ज़रा भी गरज़ नहीं है, तो हमें भी तुम्हारी बिलकुल गरज़ नहीं है । लो, हम भी चलते हैं ।



वैराग्य शतकम् भ्रतृहरि विरचित भाग 1-2

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