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वैराग्य शतकम् भ्रतृहरि विरचित भाग-1 .4

 

यदा किञ्चिज्झोऽहं द्विप इव मदान्धः समभवं

तदा सर्वज्ञोऽस्मीत्यभवदवलिप्तं मम मनः।

यदा किंचित्किञ्चिद्बुधजनसकाशादवगतं

तदा मूर्खोऽस्मीति ज्वर इव मदो मे व्यपगतः।। ३१ ।।

 

 अर्थ:

 

    जब मैं थोड़ा जानता था, तब हाथी के समान मद से अन्धा हो रहा था; मैं समझता था कि मैं सर्वज्ञ हूँ । जब मुझे बुद्धिमानो की सुहबत से कुछ मालूम हुआ; तब मैंने समझा, कि मैं तो कुछ भी नहीं जानता । मेरा झूठा मद, ज्वर की तरह उतर गया।

 

उस्ताद ज़ौक़ ने भी ठीक ऐसी ही बात कही है:

हम जानते थे, इल्म से कुछ जानेंगे ।

जाना तो यह जाना, कि न जाना कुछ भी।।

किसी ने ठीक ही कहा है:

 

"अल्प विद्यो महागर्वी "।

 

 

अतिक्रान्तः कालो लटभललनाभोगसुभगो

भ्रमन्तः श्रान्ताः स्मः सुचिरमिह संसारसरणौ।।

इदानीं स्वः सिन्धोस्तटभुवि समाक्रन्दनगिरः

सुतारैः फुत्कारैः शिवशिवशिवेति प्रतनुमः।। ३२ ।।

 

अर्थ:

 

   ज़ेवरों से लदी हुई स्त्रियों के भोगने-योग्य जवानी चली गयी; और हम चिरकाल तक विषयों के पीछे दौड़ते-दौड़ते थक भी गए । अब हम पवित्र जाह्नवी तट पर, (ललचाने वाली स्त्रियों) की निन्दा करते हुए, शिव-शिव जपेंगे।

 

 किसी ने ठीक ही कहा है:

 

इश्क़ का जोश है जब तक, कि जवानी के हैं दिन।

यह मर्ज़ करता है शिद्दत, इन्ही अय्याम में ख़ास।।

 

    अब तो बुढ़ापे का दौरदौरा है, इस उम्र में हम नाज़नीनों के साथ ऐश कर भी नहीं सकते । इसके सिवा हम सावधान भी हो गए हैं । हमने बेवकूफी छोड़ दी है । हम बहुत दिनों तक विषयों में लीं रहे, हमने बहुत कुछ विषय भोग, भोगे; अब हम थक गए, उनसे हमारा जी ऊब गया । उनसे हमें कुछ भी सुख नहीं मिला । इसलिए हम गंगा जी के किनारे बैठ कर, संसार बन्धन की मूल और नरक की नसैनी सुंदरियों की ममता  छोड़, शिव से प्रीती करेंगे और दिन-रात उन्ही का पवित्र एवं कल्याणकारी नाम जपेंगे, जिससे हमारा अंतकाल तो सुधर जाए ।

दोहा:

 

रमणकाल यौवन गयो, थक्यो भ्रमत संसार।

देहुँ गंगतट शेष वय, शिव-शिव जपत विस्तार।।

 

 

माने म्लायिनि खण्डिते च वसुनि व्यर्थे प्रयातेऽर्थिनि

क्षीणे बन्धुजने गते परिजने नष्टे शनैर्यौवने ।

युक्तं केवलमेतदेव सुधियां यज्जह्नुकन्यापयः-

पूतग्रावगिरीन्द्रकन्दरतटीकुञ्जे निवासः क्वचित् ।। ३३ ।।

 

अर्थ:

 

    जब लोगों में इज़्ज़त आबरू न रहे; धन नाश हो जाये; याचक लौट लौट कर जाने लगें; भाई-बन्धु, स्त्री-पुत्र और नाते-रिश्तेदार मर जाएं; तब बुद्धिमान को चाहिए कि किसी ऐसे पर्वत की गुहा के कोने में जा बसे, जिसके पत्थर गंगा जी के जल से पवित्र हो रहे हों ।

 

    जब लोगों में अपना मान न रहे, लोग नफरत की नज़र से देखने लगें; अपनी धन-दौलत जाती रहे; जो याचक पहले कुछ पाते थे, वे निर्धनता के कारण विमुख होकर लौट जाते हैं; भाई-बन्धु और स्त्री-पुत्र प्रभृति नातेदार दूसरी दुनिया को चले गए हों, तब तो बुद्धिमान को चाहिए कि संसार को त्याग दें; इसमें मोह न रखें और किसी ऐसे पहाड़ की गुफा में जा रहे, जिसके पत्थरों को पवित्र गंगाजल पखार पखारकर पवित्र करता हो। ऐसी हालत में संसार में रहना - वृथा समय खोना है । कम से कम उस समय तो बुद्धिमान एकान्त में बैठकर, सब तरह की आशा तृष्णा छोड़कर, भगवान् के चरणकमलों के मन लगावे ।

 

 

   दोहा:

 

गयो मान यौवन सुधन, भिक्षुक जात निराश।

अब तो मौको उचित यह, श्रीगंगा तट बास।।

 

परेषां चेतांसि प्रतिदिवसमाराध्य बहुधा

प्रसादं किं नेतुं विशसि हृदयक्लेशकलितम् ।

प्रसन्ने त्वय्यन्तः स्वयमुदितचिन्तामणि गुणे

विमुक्तः संकल्पः किमभिलषितं पुष्यति न ते ।। ३४ ।।

 

अर्थ:

 

    हे मलिन मन ! तू पराये दिलों को प्रसन्न करने में किसलिए लगा रहता है ? यदि तू तृष्णा को छोड़कर संतोष कर ले, अपने में ही संतुष्ट रहे, तो तू स्वयं चिंतामणि स्वरुप हो जाये। फिर तेरी कौन सी इच्छा पूरी न हो?

 

    मन ही सब कामों का करता है । सभी इन्द्रियां मन के ही अधीन और मन की ही अनुगामिनी हैं। मन ही बंधन और मोक्ष का कारण है । मनुष्य मन से ही पाप-पुण्य और सुख-दुःख प्रभृति का भागी होता है । मन ही मनुष्य को बुरा-भला, साधु-असाधु सब कुछ बना देता है । मन की वृत्ति सुधरने से ही, मन के वासना-हीन होने से ही, सब कुछ त्यागने से ही, वह आत्मसाक्षात्कार के योग्य हो जाता है ; इसीलिए कोई ज्ञानी पुरुष मन को सम्बोधित करके कहता है -

 

    "अरे मन ! तू स्वयं तो मलिन और दुःख के भार से दबा हुआ है; फिर तू औरो के दिल खुश करने की इतनी कोशिशें क्यों करता है, क्यों आफतें उठता है, क्यों मान खोता है और क्यों अपमान सहता है ? इससे तुझे क्या लाभ होगा ? मेरी बात माने तो तू इच्छा को त्याग दे, किसी भी चीज़ की इच्छा मत रख; तब तुझे शान्ति मिलेगी - परमानन्द की प्राप्ति होगी । जब तू चिंतामणि की भाँती स्वच्छ हो जायेगा, जब तू अपने स्वरुप को पहचान जायेगा, तब तुझे आत्मसाक्षात्कार हो जायेगा, तुझे ब्रह्मज्ञान हो जायेगा, तू ब्रह्म के प्रेम में लीन हो जायेगा, हर्ष-विषाद और शोक-मोह तेरे पास न आएंगे, अष्ट सिद्धि और नव निधि तेरे सामने हाथ बांधे खड़ी रहेंगी । उस समय तेरी कोई अभिलाषा पूरी हुए बिना बाकी न रहेगी । इसीलिए कहता हूँ, कि तू दूसरों को राज़ी करने की अपेक्षा अपने तई ही राज़ी कर, इससे तुझे निश्चय ही उसकी प्राप्ति होगी, जिसके समान त्रिलोकी में और कोई नहीं है । जिस समय उसकी अनुपम छवि तेरी आँखों में समा जाएगी, उस समय तुझे और कुछ अच्छा न लगेगा;केवल वही अच्छा लगेगा । महाकवि रहीम ने कहा है -

 

प्रीतम-छवि नैनन बसी, पर-छवि कहाँ समाये।

भरी सराय "रहीम" लखि, आप पथिक फिर जाए।।

 

   जब आँखों में प्यारे कृष्ण की सुन्दर मनमोहिनी छवि समा जाती है, तब उसमें और किसी की छवि नहीं समा सकती । जब तक नयनों में मुरली मनोहर की छवि नहीं समाती, नयन उसकी छवि से खाली रहते हैं, तभी तक मामूली छवि उनमें समाती रहती है । जिस तरह सराय को भरी हुई देखकर, उसमें कोठरियां खाली न पाकर, मुसाफिर लौट जाते हैं; उसी तरह नयनों में मनमोहन की बांकी छवि देखकर और संसारी मिथ्या खूबसूरतियाँ नयनों के पास भी नहीं फटकती । जब दिल में परम प्यारे कृष्ण का डेरा लग जाता है, तब उसमें सुन्दर कामिनियों और लक्ष्मी  प्रभृति किसी को भी स्थान नहीं मिलता; अर्थात दिल को उसके मुकाबले में संसार के अच्छे से अच्छे पदार्थ - स्त्री-पुरुष और धन-दौलत प्रभृति- तुच्छातितुच्छ जंचते हैं ।

 

दोहा:

 

तू ही रीझत क्यों नहीं, कहा रिझावत और?

तेरे ही आनन्द से, चिंतामणि सब ठौर ।।

 

भोगे रोगभयं कुले च्युतिभयं वित्ते नृपालाद्भयं

मौने दैन्यभयं बले रिपुभयं रूपे जराया: भयम् ।

शास्त्रे वादिभयं गुणे खलभयं काये कृतान्ताद्भयं

सर्वं वस्तु भयान्वितं भुवि नृणां वैराग्यमेवाभयम्।। ३५ ।।

 

 अर्थ:

       विषयों के भोगने में रोगों का डर है, कुल में दोष होने का डर है, धन में राज का भय है, चुप रहने में दीनता का भय है, बल में शत्रुओं का भय है, सौंदर्य में बुढ़ापे का भय है, शास्त्रों में विपक्षियों के वाद का भय है, गुणों में दुष्टों का भय है, शरीर में मौत का भय है; संसार की सभी चीज़ों में मनुष्यों को भय है। केवल "वैराग्य" में किसी प्रकार का भय नहीं है ।

 

     यों तो संसार में ज़रा भी सुख नहीं - सर्वत्र भय ही भय है; पर दुष्ट और नीचों का भय सबसे भारी है । दुष्टों से तंग होकर ही महाकवि ग़ालिब आदमियों की बस्ती में बसना भी पसंद नहीं करते और कहते हैं -

 

रहिये अब ऐसी जगह चलकर, जहाँ कोई न हो।

हमसखुन कोई न हो और हमज़बाँ कोई न हो।।

बे दरो-दीवार सा, इक घर बनाना चाहिए।

कोई हंसाया न हो और पासबाँ कोई न हो।।

पड़िये गर बीमार तो कोई न हो तीमारदार।

और अगर मर जाइये, तो नोहाखां कोई न हो।।

 

     संसार में ज़रा भी सुख नहीं है, सर्वत्र भय ही भय है । एक को एक खाने को दौड़ता है । जिसे देखो वही जला मरता है । यहाँ ईर्ष्या द्वेष का बाजार जोरों से गर्म रहता है, इस वास्ते ऐसी जगह चलकर रहना चाहिए, जहाँ कोई न हो; हमारी बात कोई न समझे और हम किसी की न समझें । मकान भी ऐसा ही हो, जिसमें दरवाजे और दीवार न हो; अर्थात साफ़, जंगल हो। न हमारा कोई साथी हो, न पडोसी; अगर बीमार हो जाएं, तो कोई खबर लेनेवाला तीमारदारी और सेवा-शुश्रूषा करनेवाला न हो। अगर सौभाग्य से मर जाएं, तो कोई शोक करनेवाला भी न हो ।

 

हमसखुन= हम जैसा कलाम कहने वाला

पासबाँ = साथ रहनेवाला

नोहाखां = शोक करने वाला, रोने वाला

 

महात्मा सुन्दरदास ने भी कहा है-

 

सर्प डसै, सु नहिं कछु तालक;

बीछु लगै, सु भलो करि मानौ।

सिंह हु खाय, तु नाहिं कछु डर ;

जो गज मारत, तौ नहिं हानौ।

आगि जरौ, जल बूढ़ि मरौ, गिरि

जाइ गिरौ; कछु भै मत मानो।

"सुन्दर" और भले सब ही यह;

दुर्जन संग भले जिन जानौ।।

 

 

    सुन्दरदास जी कहते हैं, अगर आपको सांप डसे, बिच्छू काटे और हाथी मारे तो कुछ हज मत समझो । आग में जलने और जल में डूबने और पहाड़ से गिरने में भी कोई हानि न समझो, ये सब भले हैं - इनसे हानि नहीं; हानि और खतरा है दुष्ट की सङ्गति में, इसलिए दुर्जन की सुहबत मत करो । उसकी सङ्गति अच्छी नहीं; पर आजकल दुष्टों की बहुतायत है; कदम कदम पर दुर्जनो के दर्शन होते हैं । इसलिए संसार से दुखित और उदासीन मनुष्य के लिए वन में जाकर रहने में ही शान्ति है । इन पंक्तियों के लेखक को भी, जो अनेक बार ऐसा ही चाहने लगता है, इस संसार से दिल लगाना - इसमें रहना अच्छा नहीं मालूम होता; पर बकौल उस्ताद ज़ौक़, कुछ मजबूरी ऐसी आ पड़ती है, कि सरता नहीं । आपने फ़रमाया है -

 

बेहतर तो है यही, कि न दुनिया से दिल लगे।

पर क्या करें, जो काम न बे-दिल्लगी चले।।

 

 

   संसार से दिल लगाना अच्छा नहीं; पर क्या करें, बिना दिल लगाए चलता भी तो नहीं ।

 

   सारांश यह है कि, यदि सच्ची सुख शान्ति चाहते हो; तो स्त्री-पुत्र, धन-दौलत और ज़मीन जायदाद की ममता छोड़कर वैराग्य लेलो; यानी इन सबको छोड़कर वन में जा बसो और एकमात्र परमात्मा में मन लगाओ । संसार को त्यागने के सिवा, सुख की और राह नहीं । हमने अनेक बार  संसार त्यागने का इरादा किया, पर हमारे अज्ञानी मन ने हमें बारम्बार ऐसा करने से रोका । हम मन की बातों को विचार के कांटे पर तोलते रहे । अब हम इस नतीजे पर पहुंचे हैं कि मन की सलाह ठीक नहीं । हमारा गन्दा मन हमें शैतान की तरह गुमराह कर रहा है । जिस सुख की खोज में ५१ वर्ष यों ही गवां दिए, उस सुख का लेश भी हमें न मिला ।

 

अमीषां प्राणानां तुलितबिसिनीपत्रपयसां

कृते किं नास्माभिर्विगलितविवेकैर्व्यवसितम्।

यदाढ्यानामग्रे द्रविणमदनिःसंज्ञमनसां

कृतं वीतव्रीडैर्निजगुणकथापातकमपि।। ३६ ।।

 

 अर्थ:

 

    कमल-पत्र पर जल की बूंदों के समान चञ्चल प्राणो के लिए; हमने बुरे और भले का विचार न करके, क्या क्या काम नहीं किये? हम धन-मद से मतवाले लोगों के सामने निर्लज्ज होकर अपने गुणों के कीर्तन करने का पाप तक किया है ।

 

    कहने वाला कहता है कि इस जीवन के लिए, जो नितान्त क्षणभंगुर है, जिसकी स्थिरता कुछ भी नहीं है, मैंने कोई उपाय, कोई उद्यम उठा न रखा । और तो और, इस क्षुद्र जीवन के लिए, अपनी तारीफ करने का महापातक भी मैंने किया; और वह भी ऐसे लोगों के सामने, जो धन के मद से मतवाले हो रहे थे और किसी की ओर आँख उठा कर भी न देखते थे । हाय ! ये सब अकर्म करने पर भी मेरा मनोरथ सिद्ध न हुआ ।

 

    संसार में अपने गुणों का आप बखान करना - बड़ा भारी पाप समझा जाता है । आत्मश्लाघा या आत्मप्रशंसा वास्तव में बहुत ही बुरी है । जिसने आत्मश्लाघा की, उसने कौन सा पाप नहीं किया ? इसी से कोई भी बुद्धिमान ऐसा नहीं करता; परन्तु जरूरत इस पाप को भी करा लेती है । जब किसी तरह कोई काम नहीं होता, कोई और तारीफ करने वाला नहीं मिलता; तब मनुष्य, क्षणस्थायी जीवन के लिए, इस निंद्य-कर्म को भी करता है ।

 

 जीवन क्षणभंगुर है

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   यह प्राण उसी तरह चञ्चल हैं, जिस तरह कमल के पत्ते पर पानी की बूँद । यह जीवन बादल की छाया, बिजली की चमक और पानी के बुलबुले की तरह है । जीवन की चञ्चलता पर महात्मा कबीर कहते हैं -

 

पानी केरा बुदबुदा, अस मानुस की जात।

देखता ही छिप जायेगा, ज्यों तारा परभात।।

"कबिरा" पानी हौज़ का, देखत गया बिलाय।

ऐसे जियरा जाएगा, दिन दश ढीली लाय।।

 

    मनुष्य पानी के बुलबुले की तरह है । जिस तरह पानी का बुलबुला उठता और क्षणभर में नष्ट हो जाता है । यह मनुष्य उसी तरह अदृश्य हो जाएगा, जिस तरह सवेरे का तारा देखते देखते गायब हो जाता है।

 

     कबीरदास कहते हैं; जिस तरह देखते देखते हौज़ का पानी, मोरी की राह से निकल कर, बिलाय जाता है; उसी तरह यह जीवात्मा देह से निकल जाएगा; दस पांच दिन की देर समझिये ।

 

महात्मा शंकराचार्य जी ने भी कहा है -

 

नलिनीदलगत जलमतितरलम् ।

तद्वज्जीवनमतिशय चपलम् ।।

 

    यह जीवन कमल-पत्र पर पड़े हुए जल की तरह चञ्चल है ।

 

    ऐसे चञ्चल जीवन के लिए अज्ञानी मनुष्य नीच से नीच कर्म करने से संकोच नहीं करता - यह बड़ी ही लज्जा की बात है । अगर मनुष्य को हज़ारों-लाखों वर्ष की उम्र मिलती या सभी काकभुशुण्ड होते; तो मनुष्य न जाने क्या क्या पाप कर्म न करता? बड़े ही नीच हैं, जो इस चंदरूज़ा ज़िन्दगी के लिए, तरह-तरह के पापों की गठरी बाँध कर, अपना लोक-परलोक बिगाड़ते हैं। मनुष्यों ! आँखें खोल कर देखो और कान देकर सुनो ! मिटटी और पत्थर अथवा लकड़ी वगैरह की बनी चीजों की कुछ उम्र है; पर तुम्हारी उम्र कुछ भी नहीं । अतः इस क्षणस्थायी जीवन में पाप-कर्म न करो।

 

 

कुण्डलिया

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जैसे पंकजपत्र पर, जल चञ्चल ढरि जात ।

त्योंही चञ्चल प्राणहू, तजि जैहें निज गात ।।

तजि जैहें निज गात, बात यह नीके जानत ।

तोहू छाँड़ि विवेक, नृपन की सेवा ठानत ।।

निज गुन करत बखान, निलजता उघरी ऐसे ।

भूल गयो सतज्ञान, मूढ़ अज्ञानी ऐसे ।।

 

 

भ्रातः कष्टमहो महान्स नृपतिः सामन्तचक्रं च

तत्पाश्र्वे तस्य च साऽपि राजपरिषत्ताश्चन्द्रबिम्बाननाः।

उद्रिक्तः स च राजपुत्रनिवहस्ते बन्दिनस्ताः कथाः

सर्वं यस्य वशादगात्स्मृतिपदं कालाय तस्मै नमः।। ३७ ।।

 

अर्थ:

 

   ऐ भाई ! कैसे कष्ट की बात है ! पहले यहाँ कैसा राजा राज करता था, उसकी सेना कैसी थी, उसके राजपुत्रों का समूह कैसा था, उसकी राजसभा कैसी थी, उसके यहाँ कैसी कैसी चन्द्रानना स्त्रियां थीं, कैसे अच्छे अच्छे चारण-भाट और कहानी कहने वाले उसके यहाँ थे ! वे सब जिस काल के वश हो गए, जो काल ऐसा बली है, जिसने उन सब को स्वप्नवत कर दिया, मैं उस बली काल को ही नमस्कार करता हूँ ।

 

महात्मा कबीरदास कहते हैं -

 

सातों शब्दज बाजते, घर-घर होते राग।

ते मन्दिर खाली परे, बैठन लागे काग।।

परदा रहती पदमिनी, करती कुल की कान।

छड़ी जु पहुंची काल की, डेरा हुआ मैदान।।

 

    जिन मकानों में पहले तरह-तरह के बाजे बजते और गाने गाये जाते थे, वे आज खाली पड़े हैं । अब उन पर कव्वे बैठते हैं ।

   जो पद्मिनी पहले परदे में रहती थी, उसी का आज, काल के आने से मैदान में डेरा हो गया है; यानी सबके सामने मरघट में पड़ी है ।

   निश्चय ही संसार अनित्य और नाशमान है । इस जगत की कोई भी चीज़ सदा न रहेगी । एक दिन अपनी अपनी बारी आने से सभी का नाश होगा ।

 

 इसी विषय में महाकवि दाग़ कहते हैं -

 

है ज़वाल आमदा अजज़ा, आफ़रीनश के तमाम।

महार गर्दू है, चिरागे रेहगुज़ारे बाद यां।।

 

     संसार के सभी पदार्थ अनित्य हैं, सभी नाशमान हैं । जिसे सूर्य कहते हैं, वह भी एक ऐसा चिराग - दीपक है, जो हवा के सामने रक्खा हुआ है और "अब बुझा-अब बुझा" हो रहा है; तब औरो की तो बात ही क्या? इस संसार की यही दशा है।

 

     ये अनन्त जलराशिपूर्ण महासागर और सुमेरु तथा हिमालय प्रभृति पर्वत भी एक दिन काल के कराल-गाल में समां जायेंगे । देवता, सिद्ध , गन्धर्व, पृथ्वी, जल और पवन, इन सबको भी काल खा जायेगा । याम, कुबेर, वरुण और इन्द्रादिक महातेजस्वी देव भी एक दिन गिर पड़ेंगे । स्थिर ध्रुव भी अस्थिर हो जायेगा । अमृतमय चन्द्रमा और महाप्रकाशमान सूर्य, ये दोनों भी नष्ट हो जाएंगे । जगत के अधिष्ठाता ईश्वर, परमेष्टि ब्रह्मा और महाभैरव रूप इन्द्र का भी अभाव हो जाएगा; तब संसार के साधारण प्राणियों की कौन गिनती है ? एक दिन इस जगत का ही अस्तित्व नहीं रहेगा, तब और किस की आस्था की जाए ? यह जगत ही भ्रममात्र है । इसमें अज्ञानी को ही आस्था होती है । वही भोगों को सुखरूप समझकर उनकी तृष्णा करता और अपने तई बन्धन में फंसाता है । ज्ञानी पुरुष इस संसार को मिथ्या और सार-हीन तथा नाशमान समझता है । वह तो केवल ब्रह्म को नित्य और अविनाशी समझकर उसमें मग्न रहता है ।

 

 

दोहा

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नृपति सैन जम्मति सचिव, सुत कलत्र परिवार।

करात सबन को स्वप्न सम, नमो काल करतार।।

 

 

 

 

 

वयं येभ्यो जाताश्चिरपरिगता एव खलुते

समं यैः संवृद्धाः स्मृतिविषयतां तेऽपि गमिताः।

इदानीमेते स्मः प्रतिदिवसमासन्नपतना-

ग्दतास्तुल्यावस्थां सिकतिलनदीतीरतरुभिः।। ३८ ।।

 

 अर्थ:

 

   जिनसे हमने जन्म लिया था, उन्हें इस दुनिया से गए बहुत दिन हो गए; जिनके साथ हम बड़े हुए थे, वे भी इस दुनिया को छोड़कर चले गए । अब हमारी दशा भी रेतीले नदी-किनारे के वृक्षों की सी हो रही है, जो दिन दिन जड़ छोड़ते हुए गिराऊ होते चले जाते हैं ।

 

    जिनसे हम पैदा हुए थे, उन्हें इस दुनिया से गए ज़माना गुज़र गया और जिन लोगों के साथ हम जन्मे थे अथवा जो लोग हमारे समवयस्क थे, वे भी चल बसे; जिन लोगों के साथ हम पले, जिनके साथ हम खेले-कूदे, जिनके साथ हमने कारोबार किया, वे सब भी काल के गाल में समा गए । अब हमारा नम्बर भी आया ही समझिये - अब हम भी चलने ही वाले हैं । दिन-दिन हमारा शरीर क्षीण हुआ जाता है । हमारी दशा अब नदी तट के बालू में लगे हुए वृक्षों की सी है, जिनके गिरने की सम्भावना हर घडी रहती है । हमारी ऐसी हालत है, फिर भी आश्चर्य है, कि हमारा माय-मोह नहीं छूटता ! अब भी हमारा मन नहीं समझता और वह संसारी जञ्जालों से अलग नहीं होना चाहता ! महात्मा कबीर भी यही कहते हैं । उनकी भी सुन लीजिये -

 

बारी बारी आपनी, चले पियारे मिंत।

तेरी बारी जीवरा, नियरे आवे निंत।।

माली आवत देखिकै, कलियाँ करि पुकार।

फूली फूली चुनि लईं, कल्ह हमारी बार।।

साथी हमरे चलि गए, हम भी चालनहार।

कागद में बाकी रही, तातें लागी बार।।

     बारी बारी से सभी प्यारे और मित्र चल बसे। अरे जीव ! अब तेरा नम्बर भी नित्य निकट आता जाता है । माली को आते देख कर, कलियों ने कहा - फूली फूली तो आज चुन ली गयी, कल हमारी भी बारी है । हमारे साथी चले गए अब हम भी चलने वाले हैं । कागज़ में, यानी खाते में कुछ साँस बाकी रह गयी हैं, इससे देर हो रही है; यानी अपनी शेष साँसों को पूरा करने के लिए हम ठहरे हुए हैं ।

 

     संसार का यही हाल है, रोज़ ही यह तमाशा देखते हैं; पर फिर भी हमें होश नहीं होता !

 

 छप्पय

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जो जन्में हम संग, उतौ सब स्वर्ग सिधारे ।

जो खेले हम संग, काल तिनहुँ कहँ मारे ।

हमहूँ जरजर देह, निकट ही दीसत मरिबो ।

जैसे सरिता-तीर-वृक्ष को, तुच्छ उखरिबो ।

अजहुँ नहिं छाँड़त मोह मन, उमग उमग उरझो रहत ।

ऐसे अचेत के संग सों, न्याय जगत को दुख सहत ।।

 

 

यत्रानेके क्वचिदपि गृहे तत्र तिष्ठत्यथैको

यत्राप्येकस्तदनु बहवस्तत्र चान्ते न चैकः।।

इत्थं चेमौ रजनिदिवसौ दोलयन्द्वाविवाक्षौ

कालः काल्या सह बहुकलः क्रीडति प्राणिशारैः।। ३९ ।।

 

 अर्थ:

 

    जिस घर में पहले अनेक लोग थे, उसमें अब एक ही रह गया है। जिस घर में एक था, उसमें अनेक हो गए, पर अन्त में एक भी न रहा । इससे मालूम होता है कि काल देवता, अपनी पत्नी काली के साथ, संसार रुपी चौपड़ में, दिन-रात रुपी पासों को लुढ़का लुढ़का कर और इस जगत के प्राणियों की गोटी बना बनाकर, खेल रहा है।

 

    जिस घर में पहले पुत्र, पौत्र, पुत्र-वधु, पौत्र-वधु, पुत्री, दोहिते और दोहिती प्रभृति अनेक लोग थे, आज वह सूना सा हो गया है, उसमें आज एक ही आदमी नज़र आता है। जिस घर में पहले एक आदमी था, उसका कुटुम्ब इतना बढ़ा कि सैकड़ों हो गए; पर आज देखते हैं कि उसमें एक भी नहीं है । घर का ताला लगा है, भीतर लम्बी लम्बी घास उग आयी है, दीवारे गिर रही हैं, छतें चू रही हैं और ईंटे दांत दिखा रही हैं । अब स घर में चमगीदड, उल्लू, सांप और बिच्छू प्रभृति रहते हैं ।

 

महात्मा कबीर कहते हैं -

 

ऊँचा महल चिनाईया, सुबरन कली बुलाय ।

ते मन्दिर खाली परे, रहे मसाना जाय।

मलमल खासा पहरते, खाते नागर पान।

टेढ़े होकर चालते, करते बहुत गुमान।

महलन मांहि पौढ़ते, परिमल अंग लगाय।

ते सपने दीसे नहीं, देखत गए बिलाय।।

 

    जिन्होंने ऊँचे ऊँचे महल चिनवाए थे और उनमें सुनहरी काम करवाए थे, वे आज शमशान में चले गए हैं और उनके बनवाये हुए महल सूने पड़े हैं । जो मलमल और खासा पहनते थे, नागर-पान चबाते थे, अकड़-अकड़ कर टेढ़े-टेढ़े चलते थे, अभिमान के नशे में चूर हुए जाते थे और बदन में इत्र, फुलेल और सेन्ट(scent )प्रभृति लगाकर महलों में सोते थे, वे स्वप्न में भी नहीं दीखते । देखते-देखते न जाने कहाँ गायब हो गए ।

 

 

छप्पय

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बहुत रहत जिहिं धाम, तहँ एकहि को राखत।

एक रहत जिहिं ठौर, तहँ बहुतहि अभिलाषत।

फेर एकहू नाहि, करी तहँ राज दुराजी।

काली के संग काल, रची चौपड़ कि बाजी।

दिनरात उभय पास लिए, इहि विधिसौँ क्रीड़ा करत।

सब प्राणी सोबत सार ज्यों, मिलत चलत बिछुरत मरत।।

 

 

तपस्यन्तः सन्तः किमधिनिवसामः सुरनदीं

गुणोदारान्दारानुत परिचयामः सविनयम्।

पिबामः शास्त्रौघानुतविविधकाव्यामृतरसा

न्न विद्मः किं कुर्मः कतिपयनिमेषायुषि जने।। ४० ।।

 

 अर्थ:

 

   हमारी समझ में नहीं आता, कि हम इस अल्प जीवन - इस छोटी सी ज़िन्दगी में क्या क्या करें अर्थात हम गंगा तट पर बस कर तप करें अथवा गुणवती स्त्रियों की प्रेम-सहित यथायोग्य सेवा करें अथवा वेदान्त शास्त्र का अमृत पिएं या काव्यरस-पान करें ।

 

    कहने वाला कहता है और ठीक कहता है - यह जीवन क्षण भर का है । इस चन्दरोजा ज़िन्दगी में हम क्या क्या करें ? काम तो अनेक हैं, पर समय थोड़ा है । गंगा तट पर जाकर शिव-शिव की रट लगाना भी अच्छा है; गुणवती सुंदरियों के साथ मीठी-मीठी बातें बनाना, उनके संग रहना और उनके साथ रमण करना भी भला है । वेदान्त शास्त्र के मर्म को समझना और उसका अमृत रस पीना या काव्य-रस पीना भी अच्छा है । अच्छे सब हैं और सभी करने योग्य हैं; पर हमारी समझ में नहीं आता, कि क्षणभर कि ज़िन्दगी में हम क्या-क्या करें ? मतलब यह है, कि मनुष्य जीवन बहुत ही थोड़ा है । इसलिए मनुष्य को जब तक दम रहे, सब तज कर एकमात्र परमात्मा का भजन करना चाहिए । कबीरदास जी कहते हैं -

 

यह तन कांचा कुम्भ है, मांहि किया रहबास।

"कबिरा" नैन निहारिया, नहीं पलक की आस।।

"कबिरा" जो दिन आज है, सो दिन नाहिं काल।

चेत सके तो चेतिये, मीच परी है ख्याल।।

"कबिरा" सुपने रैन के, उघरि आये नैन।

जीव परा बहु लूट में, जागूँ तो लेन न देन।।

आजकाल की पांच दिन, जंगल होयेगा बास।

ऊपर-ऊपर हिल फिरे, ढोर चरेंगे घास।।

 

 तुलसीदास जी कहते हैं -

 

"तुलसी" जग में आईके, कर लीजे दो काम।

देवेको टुकड़ा भलो, लेवेको हरिनाम।।

"तुलसी" राम-सनेह करु, त्यागु सकल उपचार।

जैसे घटत न अंक नौ, नौ के लिखत पहार।।

जग ते रहु छत्तीस ह्वै, राम-चरन छत्तीन।

"तुलसी" देखु विचारि हिय, है यह मतौ प्रवीन।।

 

    यह शरीर मिटटी के कच्चे घड़े जैसा है। इसी के अंदर जीवात्मा रहता है । कबीरदास जी कहते हैं, आखों से देखा है, एक क्षण की भी आशा नहीं । खुलासा यह, कि जिस शरीर में जीवात्मा रहता है, वह कच्चे घड़े के समान क्षण-भंगुर है । जिस तरह कच्चे घड़े को फूटते देर नहीं; उसी तरह इस कच्चे घड़े जैसे शरीर को नाश होते देर नहीं । कौन जाने किस क्षण यह शरीर रुपी कच्चा घड़ा फुट जाय और इसमें से जीवात्मा निकल जाय ? इसकी आशा उतनी देर की भी नहीं, जितनी देर पलक झपकने में लगती है ।

 

     कबीरदास जी कहते हैं, जो दिन आज है, वह कल न होगा। जीव ! चेत सके तो चेत । मौत सर पर सवार है ।

 

     जो अज्ञानी बरसों का प्रबन्ध करते हैं, बरसों जीने की आशा करते हैं, वे इस वचन से शिक्षा ग्रहण करें । कबीरदास बरसों छोड़ - दो-चार दिन भी जीवन रहने की आशा नहीं करते । वे कहते हैं, आज हो, कल रहो या न रहो । आज तुम हंस-खेल रहे हो, आज तुम्हारा शरीर आरोग्य है; आश्चर्य नहीं, कल तुम बीमार हो कर मरण-शय्या पड़े हो अथवा मर ही जाओ । इसलिए चेत करो, होश सम्भालो और आगे की सफर का बदोबस्त करो । अगर संसार के जंजाल में फंसे हुए, जीवन की लम्बी आशा रखे हुए, शीघ्र ही, आज ही, अभी, इसी क्षण से अगली यात्रा का प्रबन्ध न करोगे; वहां मिलने के लिए - यहाँ के ईश्वरीय बैंक द्वारा - रूपए-पैसे, धन-दौलत, गाडी-घोड़े, महल-मकान और बाग़-बगीचों का बंदोबस्त न करोगे - इस दुनिया में पराया दुःख दूर न करोगे और मालिक का नाम न जपोगे; तो तुम्हें उस लम्बे सफर में बड़ी-बड़ी तकलीफो का सामना करना पड़ेगा। यहाँ बोओगे, तो वहां काटोगे । यहाँ अच्छा करोगे, तो वहां अच्छा पाओगे। यहाँ गरीब और मुहताजों को दोगे, तो वहां आपको मिलेगा ।

 

     कबीरदास कहते हैं, यह जीवन सुपने के समान है । रात को सुपने में देखा कि जीव लूट में पड़ा है, तरह तरह के ऐश आराम कर रहा है, सुख भोग रहा है; लेकिन ज्योंही आँख खुली तो क्या देखता हूँ, कि कुछ भी नहीं है । जिस तरह सुपने में आदमी दिल को फरहत देने वाले बाग़-बगीचों की सैर करता है, माशूका के गले में हाथ डाले घूमता है, उससे सम्भोग करता है; अथवा राजा होता है, हुकूमत करता है, चन्द्रबदनियों का नाच-गान देखता है और मन ही मन बड़ा खुश होता है; पर ज्योंही आँख खुलती है, तो न बाग़-बगीचे दीखते है और न माशूका और राज-पाट। बस, ठीक यही हाल जाग्रत अवस्था का है । जिस तरह रात के सुपने को मिथ्या समझते हो, उसी तरह दिन के दृश्यों को भी मिथ्या समझो । वह सपना सोई हुई हालत में दीखता है और यह जागते हुए । देखते हैं, आज एक आदमी राजा है, हज़ारों तरह के भोग, भोग रहा है; पर कल ही वह राह का भिखारी बन जाता है । आज किसी के घर में सुन्दर पतिव्रता नारी है, आज्ञाकारी पुत्र-पौत्र, सुशीला पुत्र-वधुएं और कन्याएं हैं, सैकड़ों दास-दासी हैं, द्वार पर हाथी झूमता है, मोटर हर समय दरवाजे पर खड़ी रहती है; चंद रोज़ बार देखते हैं, कि वह आदमी गुदड़ी ओढ़े हुए सड़क पर भीख मांग रहा है । पूछते हैं, क्यों जी, तुम्हारा यह क्या हाल ? तुम्हारे कुटुम्बी और धन-दौलत का क्या हुआ? जवाब देता है - भाई ! प्लेग में सारे घर के लोग मर गए । कोई पानी देने वाला और नाम लेने वाला भी न रहा । धन-दौलत में से कुछ को चोर और शेष को डाकू, डाका डाल कर ले गए । जब खाने का भी ठिकाना न रहा, तब प्राणरक्षार्थ भीख माँगना आरम्भ किया है । कहिये, ऐसे जीवन और सुख भोगों को सुपने की माया न कहें तो क्या कहें ?

 

     अभी कल की ही बात है, हमारी एक आँखों की पुतली के समान प्यारी पुत्री हमें छोड़कर चली गयी । वह ऐसी रूपवती थी, कि हम उसे देखकर कहा करते थे - विधाता ने खूब फुर्सत में गढ़ी है । उसके देखने से हमारी शोक सन्तप्तआत्मा को शांति मिलती थी । घोर शोक में गर्क होने पर भी उसे देखकर हम खिल पड़ते थे । हमारे दिनभर के रंजो-गम काफूर हो जाते थे । उसके दर्शनों से हमारे ह्रदय में सुख होता था, इसी से हम उसे 'दिलाराम' भी कहा करते थे । नाम उसका दिलाराम नहीं 'सूर्यकान्ता' था । जब हम घर में बैठे प्रूफ देखा करते थे, वह भोली सूरत घुटुअन चलकर हमारे पास आ जाती । कभी हमारी दवात उलट देती, कभी कलम उठा लेती और कभी प्रूफ के कागज़ों को मुँह में भर लेती । जब हम आनंद में मग्न हो जाते, कलम पटक कर उसे उठा लेते । उसको चूमते, प्यार करते और ह्रदय को शीतल करते थे । आज तीन दिन से वह नहीं है । कहीं नज़र नहीं आती । ऐसा जान पड़ता है, गोया उसे हमने सुपने में देखा था । सुपने में ही वह हमारे पास आयी थी । सुपने में ही अपने बचपन के खेलों से उसने हमें खुश किया था और सुपने में ही हमने उसे प्यार-दुलार किया था । पाठक ! आप ही विचारिये । क्या यह सब सुपना नहीं था ? क्या अब जो हमारे प्यारे हमारे साथ हैं, हमारे सामने फिरते-डोलते और काम-धंधा करते हैं, उनको भी हम सुपने की माया न समझें ? उस डेढ़ साल की बच्ची की तरह ही, हम भी सबको छोड़कर यमसदन के रही न होंगे ? हमारे पीछे जो रह जाएंगे, उन्हें हम सुपने में मिले हुए के समान न दिखेंगे? यद्यपि हमने अभी तक घर-गृहस्थी नहीं त्यागी है । अभी हम संसारी जंजालों में फंसे हुए हैं; तो भी हम अपने प्यारे से प्यारे के मरनेपर भी आँखों से आंसू नहीं डालते । बहुत लोग हमारे इस हाल को देखकर अचम्भा करते हैं । कोई कुछ और कोई कुछ कहता है । पर हमारे न रोने-कूकने का कारण यह है, कि हमने इस संसार में ऐसे ऐसे बहुत से दुःख देखे हैं । हम कई प्राण प्यारों की वियोगग्नि में जले हैं । इसी से अब हम समझ गए हैं कि यह सब सुपना है । एक न एक दिन हम भी सबको छोड़कर चल देंगे अथवा और सब जो हमारी आँखों के सामने मौजूद है - हमारे देखते देखते, सुपने में देखे हुओं की तरह, गायब हो जाएंगे।

 

    कबीरदास कहते हैं - अरे भाई ! आज अथवा कल अथवा पांच दिन बाद तुम्हारा बसेरा जंगल में होगा । तुम्हारे ऊपर हल चलेंगे अथवा तुम्हारे ऊपर उगी हुई घास को गाय-भैंस आदि पशु चरेंगे । खुलासा यह है, कि तुम कदाचित आज ही मर जाओ; आज बच गए तो कल खैर नहीं । अगर सांस पूरे न हुए होंगे - चित्रगुप्त के खाते में तुम्हारे कुछ सांस बाकी होंगे, तो उनके पूरे होने पर पांच या दस दिन बाद तुम अवश्य मरोगे । तुम इस शरीर में सदा न रहोगे । तुम्हारे देह छोड़ते ही, लोग तुमसे घृणा करेंगे । ख़ास तुम्हारी हृदयेश्वरी ही तुम्हारी सूरत देखकर डरेगी । तुम्हारे बदन पर अगर एक चांदी का छल्ला भी होगा, तो उसे उतार लेगी । लोग तुम्हें लेजाकर जला या गाड़ आवेंगे । जिस जगह तुम जलाये या दफनाए जाओगे - जहाँ तुम्हारे शरीर की ख़ाक पड़ी होगी, उसी जगह किसान हल चलावेंगे । यदि तुम्हारी मिटटी पर घास उग आएगी, तो ढोर चौपे उसे चरेंगे । अतः होशियार हो जाओ ! गफलत की नींद त्यागो और अपनी अवश्यम्भावी यात्रा का प्रबन्ध करो, जिससे राह में तुम्हें किसी वास्तु का अभाव और किसी तरह की तकलीफ न हो ।

 

     इस दुनिया में काम बहुत है और उम्र का यह हाल है, कि पलक मारने भर का भरोसा नहीं । इस क्षण-भर की ज़िन्दगी में कौन सा काम करना चाहिए, जिससे की आगे की यात्रा में सुख ही सुख मिले ? यही सवाल ऊपर उठाया गया है । इस सवाल को ईश्वर तक पहुंचे हुए, इसवहार के सच्चे और प्रथम श्रेणी के भक्तवर गोस्वामी तुलसीदास जी ने बहुत ही खूबसूरती से हल कर दिया है । उन्होंने मनुष्य के लिए दो ही काम चुन दिए हैं - "देवे को टुकड़ा भला, लेवे को हरनाम"। उनकी इन दो बातों पर जो अमल करेंगे, निश्चय ही उनको सुख ही सुख है । उन्हें नारको की भीषण यातनाएं न सहनी होंगी। वे स्वर्ग में नाना प्रकार के सुख भोगेंगे और अमृतपान करेंगे, कल्पतरु उनकी इच्छाओं को पूरी करेगा । अगर वे पराया भला करके, दुखियों के दुःख दूर करके, बदला या मुआवजा पाने की इच्छा न करेंगे; निष्काम कर्म करेंगे और और कृष्ण के प्रेम में गर्क हो जाएंगे, उसके सिवा किसी भी संसारी पदार्थ को न चाहेंगे; तो उन्हें वह चीज़ मिलेगी, जो हज़ारों लाखों स्वर्गों से भी बढ़-चढ़कर होगी; फिर उन्हें दुःख का नाम भी न सुनना पड़ेगा । यही बात महात्मा तुलसीदास जी ने अपने दोहों में कही है; उन्हें खाली पढ़िए ही नहीं, उन पर गौर भी कीजिये। बिचारने से उनकी बातें आपके दुःख और क्लेश नाश करने वाली महाऔषधियां जान पड़ेंगी । अगर आप उनकी बताई हुई दवा पिएंगे, तो आप अजर-अमर हो जाएंगे ।

 

    तुलसीदास जी कहते हैं - संसार में आकर दो काम कर लो १)  भूखों को भोजन दो और २) भगवान् का नाम लो ।

 

    तुलसीदास जी कहते हैं - कर्म, ज्ञान और उपासना प्रभृति उपचारों को त्याग कर भगवान् की भक्ति करो; क्योंकि भक्ति से विषयी लोगों को भी मुक्ति मिल सकती है; किन्तु कर्म, ज्ञान और उपासना से नहीं । जैसे नौ(९) का पहाड़ा लिखने से नौ का अंक नहीं मिटता, वैसे ही कर्म, ज्ञान आदि से वासना नहीं मिटती और जब तक वासना बनी रहती है तब तक मुक्ति नहीं हो सकती । वासना ही तो जन्म मरण की जड़ है, वासना से ही जन्म लेना पड़ता है; वासना मिटी और मुक्ति हुई; पर विषयी लोगों की वासना नहीं मिटती । जी तरह नौ का पहाड़ा लिखने से नौ का अंक बना ही रहता है; उसी तरह उनके कर्म, ज्ञान और उपासना आदि उपचार करने पर भी वासना बनी ही रहती है ।

 

       इस दोहे कर अर्थ हमने साधारणतया समझा दिया है । अगर हम और भी खुलासा समझावे तो ३।४ पेज खर्च होंगे । मतलब यह, मुक्ति-लाभ करने के लिए "भक्ति" सीधा और सरल उपाय है । नारद, वाल्मीकि और शबरी प्रभृति, भक्ति के प्रभाव से ही ऊँचे चढ़े हैं  - कर्म, ज्ञान और उपासना आदि से नहीं ।

 

     जगत से ३६ की तरह और भगवान् के चरणों में - छह, तीन या तिरसठ की तरह रहो । तुलसीदास जी कहते हैं, मन में विचार करके देख लो, यह मत अत्युत्तम है ।

 

    ६ जगत है और ३ मनुष्य है । ३६ के अंक में ३ ने ६ को पीठ दे रखी है । बस, इसी तरह तुम इस जगत को पीठ देकर रहो; यानी संसार की ओर मत देखो, संसार में ममता मत रखो । दूसरी ओर भगवान् के पक्ष में ६३ की तरह रहो । इसमें ६ भगवान् की शरण है और ३ मनुष्य है । जिस तरह ३ का अंक ६ की ओर टकटकी लगाए देखता रहा है उसी तरह मनुष्य को हरदम जगदीश की शरण में टकटकी लगाए हुए रहना चाहिए ।

 

 

दोहा

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तप तीरथ तरुणी-रमण, विद्या बहुत प्रसंग ।

कहा-कहा मन रूचि करै, पायौ तन क्षणभंग ।।



वैराग्य शतकम् भ्रतृहरि विरचित भाग-1.3

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