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वैराग्य शतकम् भर्तृहरिविरचित भाग -1.5

 

गंगातीरे हिमगिरिशिलाबद्धपद्मासनस्य

ब्रह्मध्यानाभ्यसनविधिना योगनिद्रां गतस्य।

किं तैर्भाव्यम् मम सुदिवसैर्यत्र ते निर्विशंकाः

सम्प्राप्स्यन्ते जरठहरिणाः श्रृगकण्डूविनोदम्।। ४१ ।।

 

 

अर्थ:

        अहा ! वे सुख के दिन कब आएंगे, जब हम गंगा किनारे, हिमालय की शालिओं पर, पद्मासन लगाकर, विधान-अनुसार आँख मूंदकर, ब्रह्म का ध्यान करते हुए, योग निद्रा में मग्न होंगे और बूढ़े बूढ़े हिरन निर्भय हो, हमारे शरीर की रगड़ से, अपने शरीर की खुजली मिटाते होंगे ?

 

     जिन पुरुषों को यह सुख प्राप्त है, वही सच्चे सुखिया हैं - उन्ही का जीवन धन्य है ।

 

      प्रेमिका के प्रेम में तन्मय हो जाने में ही मजा है । जब पूरी तरह से ध्यान लग जाता है, तब शरीर पर पक्षी बैठे या जानवर, खुजली मिटावे या चाहे जो करे, कोई खबर नहीं रहती । ऐसे ध्यानियों को ही सिद्धि मिलती है ।

 

 महाकवि दाग कहते हैं -

 

कमाल इश्क़ है ए दाग, महब हो जाना।

मुझे खबर नहीं, नफा क्या ज़रर कैसा?

 

     प्रेम में जो लोग तन्मय हो जाते हैं, उन्ही के प्रेम - प्रेम है । बिना प्रेम के प्रेम थोथा है । मैं तन्मय हूँ, इसलिए मुझे घाटे-लाभ की फ़िक्र तो क्या, खबर ही नहीं ।

 

कबीर कहते हैं -

 

प्रेम-प्रेम सब कोई कहै, प्रेम न चीन्हे कोए।

आठ पहर भीना रहे, प्रेम कहावे सोये।।

लौ लागी जब जानिये, छूटि न कबहुँ जाए।

जीवन लौ लागी रहे, मूआ माहिं समाये।।

 

    कबीर साहब कहते हैं - प्रेम-प्रेम सब कहते हैं, पर प्रेम को कोई नहीं जानता। जिसमें आठ पहर डूबा रहे वही प्रेम है। लौ लगी तभी समझो, जबकि लौ छूट न जाए। ज़िन्दगी भर लौ लगी रहे और मरने पर प्यार में समा जाये।

 

     चित्त का स्वभाव है, कि वह अगली-पिछली बातों को याद करता है। इन्द्रियों का स्वभाव है, कि वे अपने अपने विषयों की ओर झुकती हैं। कान आवाज़ सुनना चाहता है। नेत्र नयी वस्तु देखना चाहते हैं; पर इस तरह ईश्वर-उपासना करने से कोई लाभ नहीं। वृथा अमूल्य समय नष्ट करना है। ईश्वर-उपासना करने वाले को, सबसे पहले अपने चित्त और इन्द्रियों को, उनके कामों से हटा कर अपने अधीन कर लेना चाहिए । बिना चित्त के एक तरफ हुए और बिना इन्द्रियों को उनके काम से रोके - ध्यान नहीं लग सकता ।

 

     ध्यान करनेवाला न शरीर को हिलावे और न किसी तरफ देखे। अगर किसी तरफ भयानक शब्द हो या कोई जीव काटे, तोभी ध्यानी का ध्यान न टूटना चाहिए । आजकल अधिकाँश कर्मकाण्डी गोमुखी में हाथ चलाते जाते हैं और मन में अनेक गढ़न्त गढ़ते जाते हैं । कोई कुछ कहता है, तो उसकी भी सुन लेते हैं। ऐसी ईश्वरोपासना से क्या लाभ?

 

एक गोपी का कृष्ण में आदर्श प्रेम

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     एक बार एक गोपी यशोदा के घर दीपक जलने आई। वहां कृष्ण खेल रहे थे । वह कृष्ण के प्रेम में ऐसी पगी कि उसने बत्ती के बजाय अपनी ऊँगली दीपक पर लगा दी। यहाँ तक कि उसकी साड़ी ऊँगली जल गयी, पर उसे खबर न हुई; किसी दुसरे ने उसे चेत कराया तो उसे चेत हुआ।

 

 

एक नमाज़ी मियां को कुलटा का उपदेश

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     इसी तरह एक मियां जी भी जांनमाज़ बिछा कर नमाज़ पढ़ने लगे। उधर से एक व्यभिचारिणी स्त्री अपने यार के प्रेम में डूबी हुई उससे मिलने चली। वह प्रेम में ऐसी डूबी हुई थी कि वह मियां जी कि जांनमाज़ पर होकर निकल गयी। मियां जी को क्रोध आ गया; आपने उसे दो-चार गालियां सुनाई। स्त्री ने कहा - "लानत है आपके ईश्वर-प्रेम पर, जो आपने मुझे देख लिया ! प्रेम तो मेरे जैसा होना चाहिए, जो अपने यार के प्रेम में मुझे न आप दिखे और न आपकी जांनमाज़ ही ।

    सच है, दिखाऊ प्रेम से कोई लाभ नहीं; प्रेम हो तो ऐसा हो कि अष्ट पहर चौंसठ घडी अपने प्रेमी का ही ध्यान रहे और उसमें मनुष्य ऐसा डूबा रहे कि तनबदन की भी सुध न रहे । वैसे प्रेम से ही जगदीश मिलते हैं ।

 

दोहा

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ब्रह्मध्यान धर गंगतट, बैठूँगो तज संग।

कबधौं वह दिन होयगो, हिरन खुजावत अंग।।

 

स्फुरत्स्फारज्योत्स्नाधवलिततले क्वापि पुलिने

सुखासीनाः शान्तध्वनिषु द्युसरितः ।।

भवाभोगोद्विग्नाः शिवशिवशिवेत्यार्तवचसः

कदा स्यामानन्दोद्गमबहुलबाष्पाकुलदृशः।। ४२ ।।

 

अर्थ:

 

    वह समय कब आवेगा, जब हम पवित्र गंगा के ऐसे स्थान पर जो चन्द्रमा की चांदनी से चमक रहा होगा , सुख से बैठे होंगे और रात के समय, जब सब तरह का शोरगुल बन्द होगा, आनन्दाश्रुपूर्ण नेत्रों से, संसार के विषय दुखों से थक कर, सर्वशक्तिमान शिव की रटना लगा रहे होंगे ?

 

    धन्य हैं वे लोग जिन्हे संसारी झूठे विषय-सुखों से नफरत हो गयी है, जो यहाँ के जंजालों से थक गए हैं जिन्होंने मोह जाल तोड़कर गङ्गा के पवित्र किनारे पर वास कर लिया है और निस्तब्ध चांदनी रात में, गदगद होकर, शिव शिव रटते हैं !! और लोग जो संसार के मोहपाश में फंसे हुए हैं, अपना जीवन वृथा खोते हैं।

 

 

महादेवो देवः सरिदपि च सैषा सुरसरिद्गुहा एवागारं वसनमपि ता एव हरितः।

सुहृदा कालोऽयं व्रतमिदमदैन्यव्रतमिदं कियद्वा वक्ष्यामो वटविटप एवास्तु दयिता।। ४३ ।।

 

 अर्थ:

 

    महादेव ही एक हमारा देव हो, जाह्नवी ही हमारी नदी हो, एक गुफा ही हमारा घर हो, दिशा ही हमारे वस्त्र हों, समय ही हमारा मित्र हो, किसी के सामने दीन न होना ही हमारा मित्र हो, अधिक क्यों कहें, वटवृक्ष ही हमारी अर्धांगिनी हो ।

 

   जो हज़ारों लाखों देवताओं को छोड़कर एक परमात्मा को ही अपना देव समझता है, रात-दिन उसी के ध्यान में मग्न रहता है; जो गंगा तट पर बस्ता है; गंगा में स्नान करता है; गंगा जल ही पीता है; जो कपड़ों की भी जरुरत नहीं रखता; दिशों को ही अपने वस्त्र समझता है; काल को ही अपना मित्र मानता है; किसी के सामने दीनता नहीं करता, किसी से कुछ नहीं मांगता; वटवृक्ष के आश्रय में रहकर भगवान् का भजन करता और वटवृक्ष को ही अपने दुःख-सुख की संगिनी प्राणवल्लभा समझता है, वही पुरुष धन्य है ! उसका ही जगत में आना सफल है । परमात्मा की दया या पूर्वजन्म के पुण्यों से ही ऐसी बुद्धि होती है । ऐसी बुद्धि के प्रभाव से ही वह दुखों से छूटकर नित्यानन्द में मग्न रहता है ।

 

दोहा:

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देव, ईश, सुरसरि सरित, दिशा वसन गिरी गेह।

सुहृत्काल वट कामिनी, व्रत अदैन्य सुख एह।।

 

 

 

शिरः शार्व स्वर्गात्पशुपतिशिरस्तः क्षितिधरं

महीध्रादुत्तुङ्गादवनिमवनेश्चापि जलधिम्।।

अधो गङ्गा सेयं पदमुपगता स्तोकमथवा

विवेकभ्रष्टानां भवति विनिपातः शतमुखः।। ४४ ।।

 

अर्थ:

 

    देखिये, गङ्गा जी स्वर्ग से शिवजी के मस्तक पर गिरी; उनके सर से हिमालय पर्वत पर; हिमालय से पृथ्वी पर; और पृथ्वी से समुद्र में गिरी । इससे मालूम होता है, कि विवेक-हीनो का पद पद पर सैकड़ो प्रकार से पतन होता है ।

 

    जो विचारपूर्वक काम नहीं करते, जो अक्ल से काम नहीं लेते, उनको तरह तरह से नीचे देखना पड़ता है । कवी ने यहाँ गङ्गा का दृष्टान्त दिया है और खूब दिया है ।

 

    शिक्षा: जो विवेकहीन हैं, जो अहंकारी हैं, वे सदा नीचे देखते और बार बार नीचे गिरते हैं ; अतः मनुष्य को भूलकर भी घमण्ड न करना चाहिए और खूब विचार कर काम करना चाहिए । गङ्गा को बड़ा घमण्ड हुआ, तब उसका गर्व ख़त्म करने के लिए ब्रह्मा ने उसे अपने कमण्डल में भर लिया । गङ्गा का मस्तक नीचे हो गया । फिर भी, उसने घमण्ड न छोड़ा, तब शिवजी ने उसे अपनी जटाओं में रोक लिया । फिर महाराज भगीरथ ने घोर तप किया, तो शिवजी ने उसे छोड़ा । शिवजी के सिर से वह हिमालय पर गिरी और वहां से बहती बहती समंदर में जा गिरी । जो गर्व करते हैं, जगदीश उनके दुश्मन हो जाते हैं । जगदीश उन्ही को मिलते हैं, जो गर्व से दूर भागते हैं और विवेकभ्रष्ट नहीं होते ।

 

 

शेख सादी ने कहा है -

 

हर्के बेहूदा गर्दन अफ़राज़द।

खेशतन रा बगर्दन अन्दाज़द।।

 

 जो कोई अपनी गर्दन ऊँची करता है, मुंह के बल गिरता है ।

 

आशा नाम नदी  मनोरथजला तृष्णातरंगाकुला

रागग्राहवती वितर्कविहगा धैर्यद्रुमध्वंसिनी।।

मोहावर्त्तसुदुस्तराऽतिगहना प्रोत्तुड्गचिन्तातटी

तस्याः पारगता विशुद्धमनसोनन्दन्ति योगीश्वराः।। ४५ ।।

 

 अर्थ:

 

    आशा एक नदी है, उसमें इच्छा रुपी जल है; तृष्णा उस नदी की तरंगे हैं, प्रीति उसके मगर हैं, तर्क-वितर्क या दलीलें उसके पक्षी हैं, मोह उसके भंवर हैं; चिंता ही उसके किनारे हैं; वह आशा नदी धैर्यरूपी वृक्ष को गिरानेवाली है; इस कारण उसके पार होना बड़ा कठिन है । जो शुद्धचित्त योगीश्वर उसके पार चले जाते हैं; वे बड़ा आनन्द उपभोग करते हैं ।

 

      सारांश: यदि आनन्द चाहो; तो आशा, इच्छा, प्रीति, तर्क-वितर्क, मोह और चिन्ता प्रभृति को एकदम छोड़कर शुद्धचित्त हो जाओ और अपने आत्मा या ब्रह्म के ध्यान में तन्मय हो जाओ ।

 

 

छप्पय

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नदीरूप यह आश, मनोरथ पुअर रह्यो जल।

तृष्णा तरल तरंग, राग है यह ग्रह महाबल।

नाना तर्क विहंग, संग धीरज तरु तोरत।

भ्रमर भयानक मोह, सबद को गहि गहि बोरत।

नित बहत रहत चित-भूमि में, चिन्तातट अति विकट।

कढ़ि गए पार योगी पुरुष, उन पायौ सुख तेहि निकट।।

 

आसंसारं त्रिभुवनमिदं चिन्वतां तात तादृङ्

नैवास्माकं नयनपदवीं श्रोत्रवर्त्मागतो वा।

योऽयं धत्ते विषयकरिणीगाढगूढाभिमान

क्षीवस्यान्तः करणकरिण: संयमालानलीलाम्।। ४६ ।।

 

अर्थ:

 

    ओ भाई ! मैं सारे संसार में घूमा और तीनो भुवनों में मैंने खोज की; पर ऐसा मनुष्य मैंने न देखा न सुना, जो अपनी कामेच्छा पूर्ण करने के लिए हथिनी के पीछे दौड़ते हुए मदोन्मत्त हाथी के समान मन को वश में रख सकता हो ।

 

   भाई ! मैंने त्रिलोक की खोज कर डाली, पर मुझे एक भी आदमी ऐसा न दिखा, जो विषय रुपी हथिनी के पीछे लगे हुए मनरूपी गज को रोक सकता हो । इसका खुलासा यह है - विषयों में फंसे हुए मन को काबू में रखना अथवा उसे विषयों से हटाना असंभव है ।

 

    मन बड़ा जबरदस्त है । इसके पङ्ख नहीं, पर पक्षी की तरह उड़ने वाला है; कभी यह आकाश में जाता है और कभी पातळ में जाता है । मन शरीर को जिधर घूमता है, शरीर उधर ही घूमता है । मन ही मनुष्य को परमात्मा से अलग रखता और मन ही उसे उससे मिला देता है । मन की चंचलता अच्छी नहीं । उसकी चंचलता ही साधना में बाधक है ।

 

महात्मा कबीर कहते हैं -

 

मन-पक्षी तब लगि उड़े, विषय-वासना मांहि ।

ज्ञान-बाज़ की झपट में, जब लगि आया नाहिं ।।

मन के बहुतै रंग हैं, छिन-छिन मध्ये होय ।

एक रंग में जो रहे, ऐसा बिरला कोय ।।

जेती लहार समुद्र की, तेती मन की दौर ।

सहजै हीरा उपजे, जो मन आवे ठौर ।।

मन के मते न चालिये, मन के मते अनेक ।

जो मन पर असवार हैं, ते साधू कोई एक ।।

 

 उस्ताद ज़ौक़ कहते हैं -

 

दुनिया से मैं अगर, दिल मुज़तर को तोड़ दूँ ।

सारे तिलिस्म, बहम मुकद्दर को तोड़ दूँ ।।

 

    संसार में लगे हुए मन को यदि मैं तोड़ दूँ, तो धोखे और बुराई में डालनेवाले इस प्रपंच को ही तोड़ डालूं। संसार पाश में बन्धे हुए मन को तोडना मुश्किल है ।

 

    मन-पक्षी विषय-वासनाओं में उस वक्त तक उड़ता है, जब तक वह ज्ञान बाज़ की झपट में नहीं आता । मतलब यह है, कि मन विषयों में उसी वक्त तक फंसा रहता है, जब तक कि उसे ज्ञान नहीं होता । ज्ञान होते ही मन विषयों के फंदे से निकल जाता है ।

 

    मन के अनेक रंग हैं, जो छिन-छिन में बदलते रहते हैं । जो एक ही रंग में रंगा रहता है, वह कोई विरला ही होता है ।

 

    समुद्र की जितनी लहर हैं, मन की उतनी ही दौड़ हैं । अगर मन एक ही ठिकाने ठहर जावे, तो सहज में हीरा पैदा हो जावे । मतलब यह है कि मन के एक जगह ठहरने या स्थिर हो जाने से सिद्धि मिल जा सकती है, जगदीश के दर्शन हो सकते हैं । चंचल मन से सिद्धि दूर भागती है । जगदीश-मिलान के लिए स्थिर चित्त की दरकार है ।

 

    मन के मते न चालिये क्योंकि मन के मते अनेक हैं । मन पर सवार रहने वाले, मन को अपने वश में रखनेवाले महात्मा कोई विरले ही होते हैं । सारांश यह कि, मन की चाल पर न चलना चाहिए, उसकी सलाह के माफिक काम न करना चाहिए । मन को काबू में रखना चाहिए और उसे अपनी इच्छानुसार चलाना चाहिए । जो मन की राह पर नहीं चलते, मन के अधीन नहीं होते, मन को स्थिर रखते हैं, उसे चंचल नहीं होने देते, उसकी लगाम अपने हाथों में रखते और अपने माफिक चलते हैं - स्वयं उसकी मर्जी पर नहीं चलते, वे जगत को विजय कर सकते हैं । वे नाना प्रकार की सिद्धियों को प्राप्त कर सकते हैं और जगदीश से मिलकर अक्षय सुख के अधिकारी हो सकते हैं । जिन्हें संसारी जालों से छूटना हो, जन्म-मरण के कष्ट न भोगने हों, नित्य और अविनाशी सुख भोगना हो, परमपद प्राप्त करना हो; वे मन को अपने वश में करें, उसे इधर-उधर जाने से रोकें और उसे करतार के ध्यान में लगावें ।

 

 उस्ताद ज़ौक़ एक जगह फिर कहते हैं -

 

बड़े मूज़ी को मारा, नफ़ से अम्मारे को गर मारा ।

नहंगो अज़दहाओ, शेर नर मारा तो क्या मारा ।

 

    अपने दिल को मार, अभिमान को मार; इसमें तेरी बड़ाई है। बड़े बड़े खूंखार जानवरों के मारने में कोई बड़ाई नहीं है । पर अभिमान-शून्य होना है बड़ा कठिन । जिस बासन में लहसन या प्याज रखे जाते हैं, उसमें से उनकी गन्ध बड़ी कठिनाई से जाती है; इसी तरह अभिमान भी बड़ी कठिनाई से जाता है ।

 

     इसके नाश का उपाय, विवेक या ज्ञान है । जब ज्ञान का उदय हो जाता है, तब जिस तरह पका हुआ आम आप-से-आप गिर पड़ता है; उसी तरह अभिमान भी आप-से-आप दूर हो जाता है । अभिमान के नाश होते ही चित्त शुद्ध हो जाता है । चित्त के शुद्ध होने से परमात्मा के दर्शन होने की राह साफ़ हो जाती है ।

 

     मनुष्यों ! अभ्यास करो; अभ्यास से सब कठिनाइयां हल हो जाती है । जैसे भी हो, मन को वासनाहीन बनाओ । वासनाहीन, निर्मल चित्त वाले व्यक्ति पर उपदेश जल्दी असर करता है और उसमें ईश्वरानुराग शीघ्र ही उत्पन्न हो जाता है ।

 

दोहा

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ऐसो मैं संसार में, सुन्यो न देख्यो धीर।

विषय-हथिनी संग लग्यो, मनगज बांधे बीर।।

 

ये वर्धन्ते धनपतिपुरः प्रार्थनादुःखभोज

ये चालपत्वं दधति विषयक्षेपपर्यस्तबुद्धेः।

तेषामन्तः स्फुरितहसितं वासराणां स्मारेयं

ध्यानच्छेदे शिखरिकुहरग्रावशय्या निषण्णः।। ४७ ।।

 

 अर्थ:

 

     वे दिन जो धन के लिए धनवानों की खुशामद करने के दुःख से बड़े मालूम होते थे और वे दिन जो विषयासक्ति में छोटे लगते थे; उन दोनों प्रकार दे दिनों को हम पर्वत की एकान्त गुहा में, पत्थर की शिला पर बैठे हुए आत्मध्यान में मग्न होकर अन्तःकरण में हँसते हुए याद करेंगे।

    जिन लोगों को अनेकों प्रकार के एशोइशरत और भोग-विलास के सामान मयस्सर हैं, जिनके यहाँ किसी भी संसारी भोग-विलास की सामग्री का अभाव नहीं है, जिनके सुंदरी मृगनयनी कामिनी सेवा करने को है, जिनके दास-दासी हैं, जिनके बाग़-बगीचे हैं, जिनके गाडी-घोड़े और मोटर हैं, जिनके पीछे अनेक तरह के खुशामदी लगे रहते हैं, जिनके हाथ में द्रव्य है अथवा राजकृपा है - ऐसे लोगों के दिन बड़ी ही जल्दी काटते हैं । उन्हें दिन रात बीतते हुए मालूम ही नहीं होते, लम्बे लम्बे दिन भी छोटे प्रतीत होते हैं; किन्तु जिन लोगों को सब तरह का अभाव है, जो हर बात के लिए तंग हैं, जो अपनी इच्छा पूरी करने के लिए धनियों से धन मांगते हैं, उनकी खुशामद करते हैं, उनकी दुत्कार, फटकार सहते हैं, अपमानित होते हैं, उनके लिए वे ही दिन बड़े भारी मालूम होते हैं - काटे भी नहीं कटते । किन्तु जो लोग विषयों का सामान होते हुए भी विषय सुख नहीं भोगते और अभाव होने पर भी इच्छा नहीं रखते, इसलिए धनियों के देहरे नहीं ढोकते, उनकी खुशामद नहीं करते, अपने आत्माराम में ही मस्त रहते हैं - वे सुखी हैं; उन्हें दिन बड़े और छोटे नहीं लगते ।

 

     जिसने दोनों प्रकार के दिन देखे हैं, पर शेष में उसे ऐसे झगड़ो से विरक्ति हो गयी है, वह कहता है - मैं एकान्त गुफा में पवित्र शिला पर बैठा हुआ, आत्मा का ध्यान करूँगा और उन दिनों की याद करके उन पर घृणा से हसूंगा ।

 

 कुण्डलिया

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छोटे दिन लागत तिन्हें, जिनके बहुविधि भोग।

बीत जात विलसत हँसत, करत सुयत संयोग।।

करत सुयत संयोग, तनक से लागत तिन को।

जे हैं सेवक दीन, निपट दीरघ हैं विनको।।

हम बैठे गिरि- शृङ्ग, अंग याहि ते मोटे।

 

 

सदा एक रस द्योष, लगत हैं बड़े न छोटे।।

 

विद्या नाधिगता कलंकरहिता वित्तं च नोपार्जितम

शुश्रूषापि समाहितेन मनसा पित्रोर्न सम्पादिता।

आलोलायतलोचना युवतयः स्वप्नेऽपि नालिंगिताः

कालोऽयं परपिण्डलोलुपतया ककैरिव प्रेरितः।। ४८ ।।

अर्थ:

 

     न तो हमने निष्कलंक विद्या पढ़ी और न धन कमाया; न हमने शांत-चित्त से माता-पिता की सेवा ही की और न स्वप्न में भी दीर्घनायनी कामिनियों को गले से ही लगाया । हमने इस जगत में आकर, कव्वे की तरह पराये टुकड़ों की ओर ताक लगाने के सिवा क्या किया?

 

    जो संसार में आकर न हरिभजन करते हैं, न विद्या-अध्ययन करते हैं, न धनोपार्जन करके सुख भोगते हैं और न संसार के दुखियों के दुःख ही दूर करते हैं, उनका इस दुनिया में आना वृथा है । किसी ने कहा है -

 

न इधर के रहे, न उधर के रहे।

न खुदा ही मिला न विसाले सनम।।

 

और भी किसी ने कहा है -

 

कहा कियो हम आय के, कहा करेंगे जाय?

इतके भये न उतके, चाले मूल गवाँय।

 

     मतलब यह है, कि विद्या पढ़ना, विद्या-बुद्धि से धन उपार्जन करना, सुख भोगना और माँ-बाप की सेवा करना अच्छा; पर खाली पेट भरने के लिए, कव्वे की तरह पराया मुंह ताकना अच्छा नहीं । मुंह ही ताकना है तो उस परमात्मा का ताको, जो अभावशून्य है और सबका दाता है ।उससे ही आपकी इच्छा पूरी होगी। अगर आप उसी का भरोसा करेंगे, तो वह आपके सब आभाव दूर करेगा, आपके दुखों में दुखी और आपके सुखों में सुखी होगा । उसके बिना आपकी भूख न मिटेगी । रहीम कहते हैं और सच कहते हैं -

 

रामचरण पहिचान बिन, मिटी न मनकी दौर ।

जनम गंवाए बादिही, रटत पराये पौर।।

 

 

 

     भगवान् के चरण कमलों से परिचय हुए बिना, उनके पदपंकजों से प्रेम हुए बिना, मनुष्य के मन की दौड़ नहीं मिटती - मन की चंचलता नहीं जाती और स्थिरता नहीं होती । मन के स्थिर हुए बिना भगवान् के भजन में मन नहीं लग सकता । जो लोग गेरुआ बाना धारण करके साधू हो जाते हैं और भगवान् में मन नहीं लगाते - वे लोग पेट के लिए दर-दर चीख चिल्ला कर अपना दुर्लभ मनुष्य जन वृथा ही गंवाते हैं । वे मूर्ख इस बात को नहीं समझते, कि यह मनुष्य जन्म बड़ी कठिनाई से मिला है । ऐसा मौका जल्दी नहीं मिलने का । अगर यह जन्म पेट की चिंता में गंवाया जायेगा, तो फिर चौरासी लाख योनियों में जन्म लेने के बाद कहीं मनुष्य जन्म मिलेगा । इससे तो यही अच्छा होता, कि वे संसार त्यागी बनने का ढोंग न रचकर, संसारी या गृहस्थ ही बने रहते । संसारी बने रहने से वे इस दुनिया के मिथ्या सुख-भोग तो भोग लेते । ऐसे ढोंगी दोनों तरफ से जाते हैं ।

 

गोस्वामी तुलसीदास जी कहते हैं -

 

काम क्रोध मद लोभ की, जब लगि मन में खान।

का पण्डित का मूरखै, दोनों एक समान।

इत कुल की करनी तजे, उत न भजे भगवान्।

"तुलसी" अघवर के भये, ज्यों बघूर के पान।।

"तुलसी" पति दरबार में, कमी बस्तु कुछ नाहिं।

कर्महीन कलपत फिरत, चूक चाकरी मांहि।।

राम गरीबनिवाज हैं, राम देत जन जानि।

"तुलसी" मन परिहरत नहिं, घुरुबिनिया की बानि।।

 

     काम, क्रोध, मद और लोभ - जब तक मन में रहते हैं, तब तक पण्डित और मूर्ख में कोई फर्क नह्नि - दोनों ही समान हैं ।

 

     जो लोग केवल पुजने के लिए घर गृहस्थी को त्यागकर साधू बन जाते हैं, वे अगर घर में रहे तो माता-पिता की सेवा, आतिथ्य सत्कार, पिण्डदान, ब्राह्मण-भोजन, संतानोत्पत्ति और कन्यादान आदि गृहस्थकर्म कर सकते हैं; पर साधुवेश धारण करने से इन कामो को नहीं कर सकते । दूसरी ओर साधू होकर ईश्वर भजन करना चाहिए, पर चूंकि वे सच्चे साधू नहीं - काम, क्रोध, मद, मोह और लोभ उनसे अलग नहीं - इसलिए उनका चित्त स्थिर नहीं होता । चित्त के स्थिर न होने से, ईश्वर में भी उनका मन नहीं लगता । पेट भरने के लिए वे घर-घर मारे-मारे फिरते हैं । इस तरह वे न तो घर के रहते हैं न घाट के। तुलसीदास जी कहते हैं, उनकी गति बवण्डरया बगूले के पत्ते की सी होती है, जो न तो आकाश में ही जाता है, न ज़मीन पर ही रहता है - अधपर में उड़ता फिरता है । इस तरह जन्म गंवाना - मूर्खता नहीं तो क्या है ? जो लोग मेहनत मज़दूरी करके कमा नहीं सकते और बैठे-बैठे मिलता नहीं; वे कुटुम्ब का पालन न कर सकने की वजह से साधू बन जाते हैं । फिर वे दर-दर टुकड़े मांगते हैं और ठोकरें खाते हैं । ईश्वर पर भी उनका भरोसा नहीं । अगर परमात्मा पर भरोसा होता, तो वे ध्यानस्थ होकर उसी का जप करते और वह भी उनकी फ़िक्र करता । जो उसके भरोसे निर्जन और बियाबान जंगलों में भी जाकर बैठ जाते हैं, उनको वह वहीँ पहुंचाता है, इसमें संदेह नहीं । वह उसका नाम न जपने वालों को ही पहुंचाता है; तब उसके ही भरोसे रहनेवालों और उसकी माला जपने वालों को वह कैसे भूल सकता है ? वह सवेरे से शाम तक विश्व के प्राणियों को खाना पहुंचाता है, विश्व का पालन करता है, इसी से उसे विश्वम्भर कहते हैं । वह हाथी को मन और कीड़ों को कन पहुंचाता है, इसमें संदेह नहीं। एक बार शहंशाह अकबरे आज़म को उसके विश्वम्भर होने में सन्देह हुआ । उन्होंने एक कांच के बक्स में एक चींटी बन्द करवा दी । चींटी के उसमें बन्द किये जाने से पहले, उन्होंने स्वयं बक्स का कोना कोना देख लिया । फिर उसमें चींटी बंद कराकर ताला लगा दिया और चाभी अपने पास रख ली । बक्स भी दिन रात अपने सामने ही रखा । २४ घण्टे बाद जब बक्स खोला गया, तो चींटी के मुंह में एक चावल का दाना पाया गया । बादशाह का शक रफा हो गया । उन्होंने भी उसे विश्वम्भर मान लिया ।

 

      तुलसीदास जी कहते हैं, स्वामी के दरबार में किसी चीज़ का अभाव नहीं है । उनके दरबार में धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष चरों पदार्थ मौजूद हैं । उनके भक्त जो चाहते हैं, उन्हें वही मिल जाता है । उनके भक्तो की इच्छा होते ही ऋद्धि सिद्धि उनके क़दमों में हाज़िर हो जाती है, पर शर्त यह है की उनके भक्तों का मन चलायमान न हो, उनका मन किसी दूसरी ओर न जाये । जो लोग ईश्वर की चाकरी में चूकते हैं, स्थिर-चित्त होकर उसकी पूजा उपासना नहीं करते, मन को जगह जगह भटकाते हैं, वे कर्महीन दुःख पाते हैं, उनको मनवांछित पदार्थ नहीं मिलते । सुखदाता को भूलने से सुख कैसे हो सकता है ?

 

     भगवान् दीनबंधु, दीन-दयाल और गरीब परवर हैं । वे दीनों के दुःख दूर करनेवाले और गरीबों की गरीबी या मुहताजी मिटाने वाले हैं । वे अपनों को अपना समझ कर, इस लोक और परलोक में पूर्ण सुखैश्वर्य देते हैं । इस दुनिया में अर्थ, धर्म और काम देते हैं और मरने पर, उस दुनिया में, स्वर्ग या मोक्ष देते हैं । मतलब यह है, जो ईश्वर की शरण में चले जाते हैं, ईश्वर अपने उन शरणागतों की इच्छाओं को उनके मन में इच्छा होते ही पूरी कर देता है । पर अफ़सोस तो यही है कि मन अपनी घुरुबिनिया की आदत नहीं छोड़ता अर्थात मन संसारी पदार्थों में जाए बिना नहीं रहता । अगर मन संसारी पदार्थों में जाना छोड़ दे, तो दरिद्रता रहे ही क्यों? सारे अभाव दूर हो जाएं।

 

 

छप्पय

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विद्या रहित कलंक, ताहि चित्त में नहिं धारी।

धन उपजायो नाहिं, सदा-संगी सुखकारी।

मात-पिता की सेवा सुश्रुषा, नेक न कीन्हि

मृगनयनी नवनारि, अंक भर कबहुँ न लीन्हि।

योंही व्यतीत कीन्हों समय, ताकत डोल्यो काक ज्यों।

ले भाज्यों टूक पर हाथ तें, चंचल चोर चलाक ज्यों।।

वितीर्णे सर्वस्वे तरुणकरुणापूर्णहृदयाः

स्मरन्तः संसारे विगुणपरिणाम विधिगतिः।

वयं पुण्यारण्ये परिणतशरच्चन्द्रकिरणै-

स्त्रियामां नेष्यामो हरचरणचित्तैकशरणाः।। ४९ ।।

 

 अर्थ:

 

    सर्वस्व त्यागकर (अथवा सर्वस्वा नष्ट हो जाने पर) करुणापूर्ण ह्रदय से, संसार और संसार के पदार्थों को सारहीन समझकर, केवल शिवचरणो को अपना रक्षक समझते हुए, हम शरद की चांदनी में, किसी पवित्र वन में बैठे हुए कब रातें बिताएंगे?

 

    वह दिन कब आवेंगे जब हम सर्वस्वा त्यागकर, संसार को आसार समझकर, संसार के सुखो को अनित्य समझकर, संसार के भोग-विलासों को दुःख-मूल समझकर, विषयों को विष समझकर, किसी पवित्र वन में बैठे हुए शरद ऋतू की चांदनी रात को शिव-शिव की रटना लगाते हुए व्यतीत करेंगे? अर्थात हमारे ये दिन जो संसारी जंजालों में बीते जा रहे हैं, वृथा नष्ट हो रहे हैं । जब हम सबको त्यागकर भगवान् का भजन करेंगे, तभी हमारे दिन ठीक तरह से काटेंगे। हम उन्ही दिनों को सार्थक हुआ समझेंगे । संसारी सुखों से तो हम अघा गए।

 

तुलसीदास कहते है -

 

दुखदायक जाने भले, सुखदायक भेज राम।

अब हमको संसारको, सब विधि पूरन काम।।

 

     हे मन ! अब परमात्मा में लग; संसारी सुखों में अब हमारी इच्छा नहीं: इनकी पोल अब हमने देख ली।

 

 

वयमिह परितुष्टा वल्कलैस्त्वं च लक्ष्म्या

सम इह परितोषो निर्विशेषावशेषः।

स तु भवति दरिद्री यस्य तृष्णा विशाला

मनसि च परितुष्टे कोऽर्थवान्को दरिद्रः ? ।। ५० ।।

 

 अर्थ:

 

   हम वृक्षों की छाल पहनकर सन्तुष्ट हैं; आप लक्ष्मी से सन्तुष्ट हो । हमारा तुम्हारा दोनों का सन्तोष समान है, कोई भेद नहीं । वह दरिद्र है, जिसके दिल में तृष्णा है । मन में सन्तोष आने पर कौन धनी और कौन निर्धन है ? अर्थात संतोषी के लिए धनी और निर्धन दोनों बराबर हैं ।

 

    जिसमें सन्तोष है, वह सदा सुखी है । उसे कोई सुख नहीं जिसकी इच्छाएं बड़ी बड़ी हैं । जिसे सन्तोष नहीं है; वह सदा दुखी है । सन्तोष बड़ी से बड़ी दौलत से भी अच्छा है । जो सुखी होना चाहे, वह तृष्णा को त्यागे और परमात्मा जो दे उसी में सन्तोष करे । सन्तोषी के लिए कोई व्याधि नहीं है । सन्तोषी के चित्त, मन और काया सदा सुखी रहते हैं । सन्तोषी किसी की खुशामद नहीं करता ।

 

उस्ताद ज़ौक़ कहते हैं -

 

जो कुंजे कनाअत में हैं, तक़दीर पर शाकिर।

है ज़ौक़ बराबर, उन्हें कम और ज़ियादा।।

 

    जो सन्तोषी हैं और तकदीर पर भरोसा रखते हैं, उन्हें कम और ज्यादा सभी बराबर हैं । उन्हें जो मिल जाये उसी पर सब्र है ।

 

 

शेख सादी ने 'गुलिस्तां' में लिखा है -

 

ए कनाअत तबन्गरम गरदां।

के वराये तो हेच नेमत नेस्त।।

 

     हे सन्तोष ! मुझे धनी बना दे - क्योंकि संसार की कोई दौलत तुझसे बढ़कर नहीं है।

 

     मनुष्य को चाहिए कि सूखी रोटी और चीथड़ों से बानी गुदड़ी में सुखी रहे । मनुष्यों के एहसानों का भार उठाने से अपने दुखों का भार हल्का न समझे । जो तंगनज़र हैं, जो लोभी हैं, उनको या तो सन्तोष से सुख मिलता है अथवा मर जाने से । सन्तोष की तारीफ में महात्मा कबीर की भी सुनिए -

 

    गो-धन गज-धन बाजि-धन और रतन-धन-खानि।

जब आवे सन्तोष-धन, सब धन धूरि-समानि।।

 

    संसार में गो धन, गज धन, बाजि धन और रतन धन आदि अनेक प्रकार के धन हैं । कोई गायों को धन मानता है, कोई हाथियों को धन मानता है, कोई घोड़ों को और कोई हीरे, पन्ने, पुखराज, नीलम प्रभृति को धन मानता है । संसारी लोग इन सबको ही धन समझते हैं, पर इन धनो से किसी की भी तृष्णा नहीं बुझती, सन्तोष नहीं आता - शान्ति नहीं मिलती । जब सन्तोष रुपी धन मनुष्य के हाथ आता है; तब वह गाय, बैल, घोड़े, हाथी, मुहर-अशरफी और हीरे-पन्ने प्रभृति धनो को मिटटी के समान समझता है और सन्तोष-धन से सुखी हो जाता है । सारांश यह कि जय, घोड़े, हाथी, हीरे-पन्नो प्रभृति से किसी को सुख शांति नहीं मिलती । सुख शांति मिलती है केवल सन्तोष से; अतः सन्तोष धन सब धनो से बड़ा धन है । और धन, देखने में अच्छे मालूम होते हैं, पर उनमें वास्तविक सुख नहीं - वास्तविक सुख सन्तोष में ही है ।

 

तुलसीदास जी की भी सुनिए -

 

 

 

जहाँ तोष तहाँ राम है, राम तोष नहीं भेद।

"तुलसी" देखत गहत नहिं, सहत विविध विधि खेद।।

 

     मनुष्य जब दुनियावी आदमियों का आसरा-भरोसा छोड़कर भगवान् की शरण में आ जाता है, तब उसे सन्तोष होता है । भगवान् में और सन्तोष  में फर्क नहीं है । जहाँ सन्तोष है, वहां भगवान् है और जहाँ भगवान् है, वह सन्तोष है । तुलसीदास जी कहते हैं - हमने आँखों से देखा है, जिन्होंने भी भगवान् की शरण गही और सन्तोष किया, वे निश्चय ही सुखी हुए । इसके विपरीत, जो लोग दुनियावी मनुष्यों और धन प्रभृति से सुख की आशा करते हैं, भगवान् से विमुख रहते हैं, उन पर भरोसा नहीं करते, एकमात्र उन्हीं की शरण में नहीं जाते, वे नाना प्रकार के दुःख भोगते हैं । बचपन में माँ के मर जाने से अथवा परतंत्र रहने से दुःख पाते हैं । जवानी में अपनी स्त्री को परपुरुष का देखकर जलते-कुढ़ते हैं अथवा पराई सुन्दर स्त्री को देखकर और उसे न पाकर कामाग्नि में भस्म होते हैं अथवा पुत्र कन्या और स्त्री प्रभृति प्यारों के मरने से उनकी वियोगग्नि में जल-जलकर दुखी होते हैं; अथवा धन के नाश होने से कलपते हैं । बुढ़ापे में आँख, कान आदि इन्द्रियों के बेकाम हो जाने से और शरीर में शक्ति न रहने एवं जने-जने से अपमानित होने से घोर, दुःसह दुःख सहन करते हैं । जब तरह तरह के रोग आकर घेर लेते हैं, तब जीवन भार स्वरुप मालूम होता है । जब ऐसे ऐसे झंझटों में तृष्णा को साथ लेकर मर जाते हैं; तब फिर चौरासी लाख योनियों में जन्म लेते और मरते हैं । इस तरह हज़ारों लाखों बरस बाद - न जाने कब ? फिर मनुष्य जन्म मिलता है । मनुष्य देह पाकर ही मनुष्य अपने उद्धार का उपाय कर सकता है; क्योंकि इसी जन्म में भले बुरे के विचार की शक्ति होती है; और योनियों में तो पाप ही पाप होते हैं; अतः मनुष्य जन्म को मामूली बात समझकर योंही दुनियावी सुख-भोगों में नहीं गंवाना चाहिए । संसारी सुख-भोगो से न तो इस दुनिया में सुख शांति मिलती है और न इसके बाद की दुनिया में । इस लोक में सुख भोगनेवालों को लाखों वर्षों तक घोर दुःख भोगने होते हैं । हाँ, जो लोग इस मनुष्य देह की कीमत समझकर, सब संसारी सुखों को लात मारकर, भगवान् की शरण में चले जाते हैं और संतोष वृत्ति रखते हैं; वे इस लोक और परलोक में सदा सुख भोग करते हैं और अंत में ब्रह्म में लीन हो जाते है ।

 

 छप्पय

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तुम धनसों सन्तुष्ट, हमहुँ हैं वृक्षबकल तें।

दोउ भये समान, नैन मुख अंग सकल तें।

जाने जात दरिद्र, बहुत तृष्णा है जिनके।

जिनके तृष्णा नाहिं, बहुत सम्पत है तिनके।

तुमहि विचार देखो दृगन, को निर्धन? धनवन्त को ?

जुत पाप कौन ? निष्पाप को ? को असन्त अरु सन्त को?

 

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