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वैराग्य शतकम् भर्तृहरिविरचित भाग1.10

 

जीर्णा एव मनोरथाः स्वहृदये यातं च जरां यौवनं

हन्ताङ्गेषु गुणाश्च वन्ध्यफलतां याता गुणज्ञैर्विना ।

किं युक्तं सहसाऽभ्युपैति बलवान्कालः कृतान्तोऽक्षमी

ह्याज्ञातंस्मरशासनाङ्घ्रियुगलं मुक्त्वाऽस्तिनान्यागतिः ।। ९१ ।।

 

अर्थ:                                                         

 

     हमारी इच्छाएं हमारे ह्रदय में ही जीर्ण हो गईं, जवानी भी चली गयी, हमारे अच्छे-अच्छे गुण भी कदरदानों के न होने से बेकार हो गए, सर्वशक्तिमान, सर्वनाशक काल (मृत्यु) शीघ्र-शीघ्र हमारे पास आ रहा है; इसलिए अब हमारी समझ में कामारि शिव के चरणों के सिवा और जगह हमारी रक्षा नहीं है ।

 

     मनुष्य दुखित होकर कहता है - हमारे मन की मन में ही रह गयी, हमारे अरमान न निकले और जवानी कूच कर गयी; अब उसके आने की भी उम्मीद नहीं, क्योंकि जवानी किसी की भी लौटकर आती सुनी नहीं ।

 

    मनुष्य की तृष्णा कभी नहीं बुझती, एक पर एक इच्छा उठा ही करती है । इच्छाएं पूरी नहीं होती और मौत आ जाती है । महाकवि ग़ालिब भी पछता कर कहते हैं -

 

हज़ारों ख्वाहिशें ऐसी, कि हर ख्वाहिश पै दम निकले।

बहुत निकले मेरे अरमान, लेकिन फिर भी कम निकले।।

 

 

 

महाकवि दाग भी घबरा कर कहते हैं -

 

भरे हुए हैं हज़ारों अरमान

फिर उस पै है हसरतों की हसरत।

कहाँ निकल जाऊं या इलाही

मैं दिल की वसअत से तंग होकर।।

 

    मेरे मन में हज़ारों वासनाएं हैं, पर वासनाओं के पूर्ण न होने का दुःख भी कुछ कम नहीं है । हे ईश्वर ! मैं अपने मन की विशालता से तंग हो गया । अब मेरा जी यही चाहता है, कि इस विराट दिल से तंग होकर कहीं चला जाऊं ।

 

इसी तरह महात्मा सुन्दरदास जी भी कहते हैं -

 

तीनहिं लोक आहार कियो सब।

सात समुद्र पियो पुनि पानी।।

और जहाँ तहाँ ताकत डोलत।

काढत आँख दरवात प्रानी।।

दांत दिखावत जीभ हिलावत।

या हित मैं यह डाकिनि जानी।।

सुन्दर खात भये कितने दिन।

हे तृष्णा ! अजहुँ न अघानी।।

 

     इस तृष्णा से सभी समझदार अन्त में दुखी ही हुए हैं और उन्होंने पछता पछता कर ऐसी ही बातें कही हैं । इस तृष्णा के फेर में मनुष्य का बुढ़ापा आ जाता है, पर तृष्णा बूढी नहीं होती । बुढ़ापे में उसका ज़ोर और भी बढ़ जाता है । यह तीनो लोको को खाकर और सातों सागरों को पीकर भी नहीं धापति । इसलिए मनुष्य को आशा-तृष्णा त्यागकर, परमात्मा में लौ लगनी चाहिए । जो नहीं चेतते, उनका परिणाम बुरा होता है । जब एकदम से बुढ़ापा छा जाता है, शरीर अशक्त हो जाता है, तब कुछ भी नहीं होता । उम्र ख़त्म होने या मृत्यु आ जाने पर मनुष्य पछताता हुआ सबको छोड़ चला जाता है । कहा है -

 

ये मम देश विलायत हैं गज ।

ये मम मन्दिर ये मम थाती ।।

ये मम मात पिता पुनि बान्धव ।

ये मम पूत सु ये मम नाती ।।

ये मम कामिनि केलि करै नित ।

ये मम सेवक हैं दिन राती ।।

सुन्दर ऐसेही छाँड़ि गयो सब ।

तेल जरयो सु बुझी जब बाती ।।

 

 

    यह मेरा देश है, ये मेरे हाथी-घोड़े महल-मकान हैं, ये मेरे माँ-बाप और बन्धु-बान्धव तथा नाती-पोते हैं, यह मेरी स्त्री और यह मेरे सेवक हैं; ऐसे करता करता ही मनुष्य सबको छोड़कर चला जाता है । जिस तरह तेल के जल जाने पर दीपक बुझ जाता है; उसी तरह उम्र पूरी होने पर मनुष्य मर जाता है । अतः जवानी में ही स्त्री-पुत्र प्रभृति सबका मोह छोड़, एकान्त में जा, परमात्मा का भजन करना चाहिए; क्योंकि बुढ़ापे में कुछ नहीं हो सकता ।

 

शेख सादी ने कहा है और ठीक कहा है -

 

जवान गोशानशीं, शेर मर्दे राहे खुदास्त ।

कि पीर खुद न तवानद, ज़े गोशये बरखास्त ।।

 

    जवानी में जिन्होंने एकान्त में ईश्वर भजन किया है, सच्चे भक्त वही हैं, बूढा आदमी अगर एकान्तवास पर गर्व करे तो झूठा है, क्योंकि वह तो जहाँ पड़ा है, वह से सरक ही नहीं सकता ।

 

जो लोग साड़ी उम्र संसारी जंजालों में बिता देते हैं और परमात्मा का भजन नहीं करते, उनका नक्शा स्वामी सुन्दरदास जी ने खूब ही खींचा है -

 

ग्रीव त्वचा कटि है लटकी ।

 

कचहुँ पलटे अजहुँ रतीबामी ।।

दन्त गए मुख के उखरे ।

नखरे न गए सु खरो खर कामी ।।

कम्पत देह सनेह सु दम्पति ।

सम्पति जपत है निशि जामी ।।

सुन्दर अन्तहु भौन तज्यो ।

न भज्यो भगवन्त सु लौनहरामी ।।

 

    मनुष्य की गर्दन हिलने लगती है, खाल लटकने लगती है, कमर झुक जाती है, बाल सफ़ेद हो जाते हैं, तो भी स्त्री के साथ भोग करता है । मुंह के दांत उखड जाते हैं, फिर भी कामी गधे के नखरे नहीं जाते, देह कांपती है; पर स्त्री से प्रीति रखता है और रात-दिन धन का जाप करता है । अन्त में घर छोड़ता है, पर नमकहराम मालिक का भजन नहीं करता ।

 

 

छप्पय

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मन के मनही मांहि, मनोरथ वृद्ध भये सब ।

निज अंगन में नाश भयो, वह यौवनहु अब ।

विद्या है गयी बाँझ, बूझवारे नहीं दीसत ।

दौरयो आवत काल, कोपकर दशनन पीसत ।

कबहुँ नहिं पूजे प्रीति सों, चक्रपाणि प्रभु के चरण ।

भवबन्धन काटे कौन अब, अजहुँ गहरे हरि शरण ।।

 

तृषा शुष्यत्यास्ये पिबति सलिलं स्वादु सुरभि

क्षुधार्तः सञ्शालीन्कवलयति शाकादिवाळितां ।

प्रदीप्ते कामाग्नौ सुदृढतरमाश्लिष्यति वधूं

प्रतीकारो व्याधेः सुखमिति विपर्यस्यति जनः ।। ९२ ।।

 

 अर्थ:

 

    जब मनुष्य का कण्ठ प्यास से सूखने लगता है, तब वह शीतल जल पीता है; जब उसे भूख लगती है, तब वह साग और कढ़ी प्रभृति के संग चावल खाता है; जब उसकी कामाग्नि तेज़ होती है तब वह स्त्री को ज़ोर से गले लगाता है; विचार कर देखने से मालूम होता है, कि ये सब बिमारियों की एक-एक दवा है; परन्तु लोग इन्हे भूल से सुख समान मानते हैं ।

 

     प्यास रोग की दवा शीतल जल है; यानि शीतल जल से तृष्णा नाश होती है । क्षुधारोग की दवा रोटी-भात और साग-दाल प्रभृति हैं; यानी भात-दाल प्रभृति से भूख रोग नाश होता है । कामाग्नि भी एक रोग है, उसके शान्त करने का उपाय स्त्री को छाती से लगाना है, यानी स्त्री का आलिङ्गन करने से या चिपटाने से काम की आग ठण्डी हो जाती है । ( दाह ज्वर में षोडशी कामिनी के शरीर में चन्दन लगाकर चिपटने से बहुत लाभ होता है ) इन बातों पर विचार करने से साफ़ मालूम होता है, कि शीतल जल-पान, भिन्न-भिन्न प्रकार के भोजन और स्त्रियों का आलिङ्गन प्रभृति तृषा, क्षुधा और कामाग्नि प्रभृति रोगों की औषधियां हैं । इनको सुख समझना भूल नहीं तो क्या है ?

 

 

छप्पय

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प्यास लगे जब पान करत, शीतल सुमिष्ट जल।

भूख लगे तब खात, भात-घृत दूध और फल।

बढ़त काम की आगि, तबहिं नववधू संग रति।

ऐसे करत विलास, होत विपरीत दैव गति।

सब जीव जगत के दिन भरत, खात पियत भोगहु करत।

ये महारोग तीनो प्रबल, बिना मिटाये नहिं मिटत।।

 

 

स्नात्वा गाङ्गैः पयोभिः शुचिकुसुमफलैरर्चयित्वा विभो

त्वां ध्येये ध्यानं नियोज्य क्षितिधरकुहरग्रावपर्येकमूले ।

आत्मारामः फलाशी गुरुवचनरतस्त्वत्प्रसादात्स्मरारे

दुःखं मोक्ष्ये कदाहं तब चरणरतो ध्यानमार्गैकनिष्ठ ।। ९३ ।।

 

 अर्थ:

 

    हे शिव ! हे कामारि ! गंगा स्नान करके तुझ पर पवित्र फल-फूल चढ़ाता हुआ, तेरी पूजा करता हुआ, पर्वत की गुफा में शिला पर बैठा हुआ, अपने ही आत्मा में मग्न होता हुआ, वन-फल खाता हुआ, गुरु की आज्ञानुसार तेरे ही चरणों का ध्यान करता हुआ कब मैं इन संसारी दुखों से छुटकारा पाउँगा ?

 

 दोहा

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न रसेवा तजि, ब्रह्म भजि, गुरुचरणन चित लाय।

कब गंगातट ध्यान धर, पूजोंगो शिव पाय?

 

शय्या शैलशिला गृहं गिरिगुहा वस्त्रं तरुणं त्वचः

सारंगाः सुहृदो ननु क्षितिरुहां वृत्तिः फलैः कमलैः ।।

येषां निर्झरम्बुपानमुचितं रत्येव विद्याङ्गना

मन्ये ते परमेश्वराः शिरसि यैर्बद्धो न सेवांजलिः।। ९३ ।।

 

 अर्थ:

 

     मैं उनको परमेश्वर समझता हूँ, जो किसी के सामने मस्तक नहीं नवाते, जो पर्वत की शिला को ही अपनी शय्या समझते हैं, जो गुफा को ही अपना घर मानते हैं, जो वृक्षों की छालों को ही अपने वस्त्र और जंगली हिरणो को ही अपने मित्र समझते हैं, वृक्षों के कोमल फलों से ही उदार की अग्नि को शान्त करते हैं, जो कुदरती झरनो का जल पीते हैं और जो विद्या को ही अपनी प्राण प्यारी समझते हैं ।

 

    जो किसी चीज़ की चाह नहीं रखते, वे किसी की परवा नहीं करते, वे किसी के सामने मस्तक नहीं नवाते; जिनकी वासनाओं का अन्त नहीं होता, वे ही जने-जने के सामने सर झुकाते हैं । जो संसार के दास नहीं, वे सचमुच ही देवता हैं ।

 

उस्ताद ज़ौक़ ने कहा है -

 

जिस इन्सां को सगे दुनिया न पाया।

फरिश्ता उसका हमपाया न पाया ।।

 

     जो मनुष्य संसार का दास नहीं - संसार का कुत्ता नहीं - वह देवताओं से कहीं ऊंचा है । देवता उसकी बराबरी नहीं कर सकते । जिसमें सांसारिक वासनाओं का लेश न हो, उस मनुष्य और देवताओं में कोई भेद नहीं ।

 

    सच्चे महात्मा वन और पर्वतों को छोड़कर दुनिया में कभी नहीं आते; वे मांगकर नहीं खाते; उन्हें वन में ही जो कुछ मिल जाता है, वही खा लेते हैं ।

 

महाकवि ग़ालिब कहते हैं -

 

वे तलब दें, तो मज़ा उसमें सिवा मिलता है ।

वह गदा, जिसका न हो खुए सवाल अच्छा है ।।

 

 

    बिना मांगे मिल जाने में बड़ा आनन्द है । फ़क़ीर वही अच्छा जिसमें मांगने की आदत न हो ।

 

 

 

और भी कहा है -

 

दस्ते सवाल, सैकड़ों ऐबों का ऐब है ।

जिस दस्त में ये ऐब नहीं, वह दस्ते गैब है ।।

 

कबीर साहब ने भी कहा है -

 

अनमाँग्या उत्तम कह्यो, माध्यम माँगि जो लेय ।

कहे कबीर निकृष्ट सो, पर घर धरना देय ।।

उत्तम भीख जो अजगरी, सुनि लीजौ निज बैन ।

कहै कबीर ताके गहे, महा परम सुख चैन ।।

 

     महापुरुष भगवान् के भरोसे रहते हैं, इसलिए उन्हें उनकी जरुरत की चीज़ उनके स्थान पर ही मिल जाती है । वे संसार रुपी काजल की कोठरी  में आकर कालिख लगाना पसन्द नहीं करते । संसारी लोगों के साथ मिलने जुलने में भलाई नहीं । संसार से दूर रहना ही भला । क्योंकि मनुष्य जैसे आदमियों को देखता और जैसों की सङ्गति करता है, वैसा ही हो जाता है । रागियों की सङ्गति से वैरागी भी रागी या विषय-भोगी हो जाता है  । जल और वृक्षों के पत्ते खाने वाले ऋषि स्त्रियों के देखने मात्र से अपने तप से हीन हो गए । इसीलिए शास्त्रों में लिखा है कि सन्यासी संसारियों से दूर रहे । वास्तविक महापुरुष जो सच्चे ब्रह्मज्ञानी और रासायनिक हैं; किसी के भी द्वार पर नहीं जाते । जिसे कुछ कामना होती है, वही किसी के द्वार पर जाता है । कामनाहीन पुरुष कभी किसी के पास नहीं जाता । सच्चे महात्मा संसारियों से अपनी जान छुपाते हैं ।

 

 

 

दो महात्मा जो राजा से मिलना नहीं चाहते थे

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     एक नगर के बाहर वन में दो बड़े ही त्यागी महात्मा रहते थे । राजा ने चाहा कि मैं उनसे मिलूं । राजा अपने परिवार सहित उनसे मिलने गया । महात्माओं ने सोचा - यह तो बुरी बला लगी । इसे सदा को टालना चाहिए । आज यह आया है, कल नगर भर आवेगा । फिर हम तो भजन ही न कर सकेंगे । जब राजा पास पहुंचा, तो वे आपस में लड़ने लगे । एक बोला - "तूने मेरी रोटी खाली" । दुसरे ने कहा - "तूने भी तो कल मेरी खा ली थी"। यह देखकर राजा को घृणा हो गयी और वह लौट आया । इस तरह महात्माओं के एकान्तवास में विघ्न नहीं पड़ा ।

 

 संसारियों की सङ्गति बुरी

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    एक महात्मा कहीं से आकर काशी में रह गए । दस पांच वर्ष बाद अनेक लोग उन्हें जान गए और उन्हें अपने-अपने घर भोजन के लिए ले जाने लगे । महात्मा ने देखा कि, घरों में जाने से विक्षेप होता है, इसलिए उन्होंने अपनी लंगोटी ही उतारकर फेंक दी, कि नंगे रहने से लोग घरों पर न ले जाएंगे । पर फल उल्टा हुआ, उनकी महिमा और भी बढ़ गयी । अब तो बड़े-बड़े राजा, रईस और जमींदार उनके दर्शन को आने लगे । उनका सारा समय अमीरों से मिलने में ही बीतने लगा । इतने में एक और महात्मा आये और उनसे एकान्त में पुछा - "क्या हाल है ?" महात्मा ने कहा - "बवासीर से मरते हैं ।" आगन्तुक महात्मा ने कहा - "लोग तो आपको सिद्ध कहते हैं ?" महात्मा ने कहा - "कहा करें, लोग मूर्ख हैं । हमारे चित्त में तो वासनाएं भरी हैं, न जाने हमें किस योनि में जन्म लेना होगा ? हमारा तो सारा वैराग्य इन धनियों की सङ्गति में ही नष्ट हो गया । सच है, निवृत्ति मार्ग वालों को प्रवृत्ति मार्गवालों की सङ्गति करना अच्छा नहीं ।

 

 छप्पय

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बसैं गुहागिरि, शुचित शिला शय्या मनमानी।

वृक्षवकल के वसन, स्वच्छ सुरसरिको पानी।

बाणमृग जिनके मित्र, वृक्षफल भोजन जिसके।

विद्या जिनकी नारि, नहीं सुरपति सभ तिनके।

ते लगत ईश सम मनुज मोहि, तनशुचि ऐसे जग भये।

जे पर सेवा के काज को, हाथ नहीं जोरत नए ।।

 

 

प्रिय सखि विपद्दण्डव्रतप्रताप परम्परा-

तिपरिचपले चिन्ताचक्रे निधाय विधिः खलः ।।

मृदमिव बलात्पिण्डीकृत्य प्रगल्भकुलालवद्-

भ्रमयति मनो नो जानीमः किमत्र विधास्यति ।। ९८ ।।

 

 अर्थ:

 

     हे प्यारी सखी बुद्धि ! कुम्हार जिस तरह गीली मिटटी के लौंदे को चाक पर चढ़कर डंडे से चाक को बारम्बार घुमाता है और उससे इच्छानुसार बर्तन तैयार करता है; उसी तरह संसार को गढ़नेवाला ब्रह्मा हमारे चित्त को चिन्ता के चाक पर चढ़ा कर, विपत्तियों के डंडे से चाक को लगातार घुमाता हुआ, हमारा क्या करना चाहता है, यह हमारी समझ में नहीं आता ?

 

 

    मनुष्य के पीछे भगवान् ने चिन्ता बुरी लगा दी है । बात यह है, कि मनुष्य के पूर्व जन्म के कर्मो के कारण या इस जन्म की भूलों के कारण, उसे विपत्तियां भोगनी ही पड़ती है । विपत्तियों से पार होने के लिए, मनुष्य रात-दिन चिन्तित रहता है । चिन्ता या फ़िक्र से मनुष्य का रूप-रंग  सब नष्ट होकर शीघ्र ही बुढ़ापा आ जाता है । आजकल चालीस बरस की उम्र में ही लोग बूढ़े हो जाते हैं, इसका कारण चिन्ता ही है । अगर चिन्ता न होती, तो मनुष्य को कुछ दुःख न होता । जहाँ तक हो, मनुष्य को चिन्ता को अपने पास न आने देना चाहिए; क्योंकि चिन्ता, चिता से भी बुरी है । चिता मरे हुए को भस्म करती है, पर चिन्ता जीते हुए को ही जलाकर ख़ाक कर देती है; अतः चिन्ता से दूर रहो । स्त्री, पुत्र और धन की चिन्ता में अपनी अमूल्य दुर्लभ काया को नाश न करो; क्योंकि ये स्त्री-पुत्र प्रभृति तुम्हारे कोई नहीं । अगर चिन्ता और विचार ही करना है, तो इस बात का करो कि तुम कौन हो और कहाँ से आये हो ?

 

 

 

स्वामी शंकराचार्य ने मोहमुद्गर में कहा है -

 

का तव कान्ताः कस्ते पुत्रः संसारोऽयमतीव विचित्रः ।

कस्य त्वम् वा कुत आयातः तत्त्वं चिन्तय तदिदं भ्रातः ।।

 

    कौन तेरी स्त्री है ? कौन तेरा पुत्र है ? यह संसार अतीव विचित्र है । तू कौन है ? कहाँ से आया है ? हे भाई ! इस तत्व की चिन्ता कर; अर्थात न कोई तेरी स्त्री है और न कोई तेरा पुत्र है, वृथा चिन्ता क्यों करता है ?

 

    तू कौन है ? कहाँ से आया है ? क्यों आया है ? तूने अपना कर्तव्य पालन किया है या नहीं ? तेरा अन्तिम परिणाम क्या है ? इत्यादि विचारों द्वारा अपने स्वरुप को पहचान जाने अथवा ईश्वर की शरण में चले जाने से ही चिन्ता से पीछा छूटेगा और शान्ति मिलेगी । निश्चय ही चिन्ता और विपत्तियों से बचने के लिए भगवान् का आश्रय लेना सर्वोपरि उपाय है । विपत्ति रुपी समुद्र में डूबते हुए के लिए भगवान् का नाम ही सच्चा सहारा है ।

 

 

 

गोस्वामी तुलसीदास जी ने कहा है -

 

तुलसी साथी विपति के, विद्या विनय विवेक ।

साहस सुकृत सत्यव्रत, राम भरोसो एक ।।

 

तुलसी असमय के सखा, साहस धर्म विचार ।

सुकृत शील स्वाभाव ऋजु, रामशरण आधार ।।

खेलत बालक व्याल संग, पावक मेलत हाथ ।

तुलसी शिशु पितु मातु इव, राखत सिय रघुनाथ ।।

तुलसी केवल रामपद, लागे सरल सनेह ।

तौ घर घट बन बाट मँह, कतहुँ रहै किन देह ।।

 

    सारांश यह कि जो हमारे चित्त को चिन्ता के चाक पर चढ़ा कर विपत्तियों के डंडे से घुमाता है, यदि हम उसकी ही शरण में चले जाएँ, उसी से प्रेम करें, तो वह हमारे चित्त को चिन्ता के चाक पर न रक्खे; अर्थात हमें चिंताग्नि में न जलना पड़े; सुख-शान्ति सदा हमारे सामने हाथ बांधे खड़े रहे । यह बाला उन्हीं को खाती है, जो भगवान् से विमुख रहते हैं । इसलिए यदि इस चिन्ता-डायन से बचना चाहो तो परमात्मा को भजो ।

 

 दोहा

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मन को चिंताचक्र धर, खल विधि रह्यौ घुमाय ।

रचि है कहा कुलालसम, जान्यौ कछु न जाय ?।।

 

महेश्वरे वा जगतामधीश्वरे जनार्दने वा जगदन्तरात्मनि।

तयोर्न भेदप्रतिपत्तिरस्ति मे तथापि भक्तिस्तरुणेन्दुशेखरे।। ९९ ।।

 

 अर्थ:

 

    यद्यपि मुझे विश्वेश्वर शिव और सर्वात्मन विष्णु में कोई भेद नहीं दीखता; तथापि मेरा मन उन्ही की ओर झुकता है, जिनके मस्तक में तरुण चन्द्रमा विराजमान है; अर्थात मैं शिव को ही चाहता हूँ ।

 

 

    विष्णु और शिव में कोई भेद नहीं, एक ही परमात्मा के अलग अलग नाम हैं, वही कृष्ण हैं, वही रघुनाथ हैं, वही राम हैं और वही शिव हैं । पर फिर भी; जिस नाम का आश्रय ले लिया उसी का भरोसा करना ठीक है । मन भटकाना अच्छा नहीं ।

 

    एक बार गोस्वामी तुलसीदास जी वृन्दावन गए । वहां उन्हें भगवान् कृष्ण के दर्शन हुए । भगवान् की बांकी झांकी देखकर गोस्वामी जी मुग्ध हो गए, पर उन्होंने उनको सिर न नवाया; क्योंकि उनके इष्टदेव रामचन्द्र जी थे । उन्होंने उस समय कहा -

 

कहा कहूँ छवि आज की, भले बने हो नाथ ।

तुलसी मस्तक जब नवै, धनुषबाण लेयो हाथ ।।

 

    आपकी छवि आज भी बहुत मनोमुग्धकर है, पर मैं तो आपको तभी प्रणाम करूँगा, जब आप धनुष-बाण हाथ में लेकर रामचन्द्र बनोगे । भगवान् को तत्काल रामरूप धर धनुष-बाण हाथ में लेना पड़ा । यह काम भगवान् को भक्त की दृढ़ता देखकर करना पड़ा ।

 

    प्रीति पपहिये की सच्ची और आदर्श है । वह चाहे प्यासा मर जाए, पर मेघ के सिवा किसी भी जलाशय का जल नहीं पीता । "उत्तर चातकाष्टक" में लिखा है -

 

पयोद हे ! वारि ददासि वा न वा ।

तवडेकचित्तः पुनरेष चातकः ।।

 

वरं महत्या म्रियते पिपासया

तथापि नान्यस्य करोत्युपासनाम् ।।

 

    हे मेघ ! तू जल दे चाहे न दे, चातक तो तेरा ही आश्रय रखता है । घोर प्यास से भले ही मर जाए, पर वह दुसरे की उपासना नहीं करता । गोस्वामी तुलसीदास जी ने भी कहा है -

 

चातक घन तजि दूसरे, जियत न नाई नारि।

मरत न मांगे अर्घजल, सुरसरिहु को वारि ।।

व्याधा बधो पपीहरा, परो गंगजल जाय ।

चोंच मूँदि पीवे नहीं, धिक् पीवन प्रण जाय ।।

 

 

   चातक ने मेघ को छोड़ और किसी को अपनी ज़िन्दगी में सर न नवाया । मरते समय गंगा का जल भी ग्रहण न किया । किसी शिकारी ने किसी चातक को मारा, वह गंगाजी में गिर पड़ा, प्यास के मारे घबरा रहा था, पर गंगाजल नहीं पीता था । उसने उलटी चोंच बन्द कर ली; कि कहीं जल मुख में न चला जाय और मेरा प्रण टूट जाय । वाह वाह ! प्रीति और भक्ति हो तो ऐसी ही हो ।

 

   सारांश यह है, कि भगवान् के भी जिस नाम से प्रेम हो, उसे छोड़ कर दूसरे से प्रेम न करना चाहिए । एक ही पति की स्त्री होने में भलाई है । जिसके अनेक पति होते हैं, उसका भला नहीं होता । अनेक देवी-देवताओं के उपासक चातक से शिक्षा ग्रहण करें । कहा है -

 

पतिव्रता को सुख घना, जाके पति है एक।

मन मैली व्यभिचारिणी, जाके खसम अनेक।।

पतिव्रता पति को भजै, और न अन्य सुहाय।

सिंह बचा जो लंघना, तो भी घास न खाय।।

"कबिरा" सीप समुद्र की, रटे पियास पियास।

सकल बूँद को न गिनै, स्वाति बूँद की आस।।

प्रीति रीति तुझ सों मेरे, बहु गुनियाला कन्त।

जो हँसि बोलूं और सूँ, तो नील रंगाऊं दन्त।।

 

    पतिव्रता, जिसके एक पति होता है, सदा सुखी रहती है; किन्तु अनेक खसमवाली व्यभिचारिणी सदा दुखी रहती है । पतिव्रता सदा अपने पति को ही चाहती है; उसे दूसरा अच्छा नहीं लगता । सिंह का बच्चा लंघन पर लंघन करने पर भी घास नहीं खाता । कबीरदास कहते हैं, समुद्र की सीप प्यास ही प्यास रटा करती है; कितनी ही बूंदे क्यों न गिरें, उसे तो स्वाति की बूँद ही प्यारी लगती है । मेरे गुणनिधान कन्त ! मेरी प्रीती तुझसे है । जो मैं दुसरे से हंसकर बोलूं तो मेरा काला मुंह हो ।

 

 दोहा

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नाहिन शिव अरु विष्णु में, सूझै अन्तर मोय ।

तदपि चन्द्रशेखर लखत, प्रीति अधिक कछु होय ।।

 

 

रे कंदर्प करं कदर्थयसि किं कोदण्डटंकारितैः।

रे रे कोकिल कोमलैः किं त्वं वृथाजल्पसि ।।

मुग्धे स्निग्धविदग्धमुग्धमधुरैर्लोलैः कटाक्षैरलं

चेतश्चुम्बितचन्द्रचूड़चरणध्यानमृतं वर्त्तते ।। १०० ।।

 

 

अर्थ:

 

    हे कामदेव ! तू धनुष्टङ्कार सुनाने के लिए क्यों बारबार हाथ उठाता है ? हे कोकिला ! तू मीठी-मीठी सुहावनी आवाज़ में क्यों कुहू-कुहू करती है ? ए मूर्ख स्त्री ! तू अपने मनोमोहक मधुर कटाक्ष मुझ पर क्यों चलाती है ? अब तुम मेरा कुछ नहीं कर सकते; क्योंकि अब मेरे चित्त ने शिव के चरण चूमकर अमृत पी लिया है ।

 

    जब तक मनुष्य का मन ब्रह्मानन्द का मज़ा नहीं जानता, जब तक वह परमात्मा के चरणों में ध्यान लगा कर अमृत नहीं पीटा, तभी तक कामदेव का ज़ोर चलता है, तभी तक कोकिला का पञ्चम स्वर उसके दिल में खलबली पैदा करता है, तभी तक स्त्री के कटाक्ष-बाण उस पर असर करते हैं; कामारि शिव से प्रीति होने पर ये सब कुछ नहीं कर सकते । भगवान् शिव और कामदेव में वैर है; अतः शिवभक्तों पर कामदेव अपने अस्त्र अपने अस्त्र नहीं चला सकता ।

 

 छप्पय

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अरे काम वेकाम, धनुष टंकारत तर्जत।

तू हू कोकिल व्यर्थ बोल, काहे को गरजत।।

तैसे ही तू नारि वृथा ही करत कटाक्षै।

मोहि न उपजै मोह, छोह सब रहिगे पाछै।।

चित चन्द्रचूड़चरण को, ध्यान अमृत बरषत हिते।

आनन्द अखण्डानन्द को, ताहि अमृत सुख क्यों हिते।।

 

  

 

कौपीनं शतखण्डजर्ज्जरतरं कन्था पुनस्तादृशी

निश्चिन्तम्  सुखसाध्यभैक्ष्यमशनं शय्या श्मशाने वने ।

मित्रामित्र समानताऽतिविमला चिन्ताऽथशून्यालये

ध्वस्ता शेषमदप्रमाद मुदितो योगी सुखं तिष्ठति ।। १०१ ।।

 

 अर्थ:

 

    वही योगी सुखी है, जो एकदम से फटी-पुरानी सैकड़ो चीथड़ों से बनी कोपीन पहनता है और वैसी ही गुदड़ी ओढ़ता है, जिसके पास चिन्ता नहीं फटकती, जो सुख से मिला हुआ भिक्षान्न खाता है, जो श्मशान भूमि या वन में सो रहता है, जो मित्र और शत्रुओं को समान समझता है, जो सूनी झोंपड़ी में ध्यान करता है और जिसके मद और प्रमाद सम्पूर्ण रूप से नष्ट हो गए हैं ।

 

     फटी-पुरानी कोपीन पहनने, चीथड़ों की गुदड़ी ओढ़ने, निश्चिन्त रहने, सुख से मिले भिक्षान्न के खाने, मरघट या जंगल में सो रहने, दोस्त और दुश्मन को बराबर समझने और नितान्त सूने घर में पवित्र ध्यान करने से जिसके मद और प्रमाद नाश हो गए हैं, वही योगी संसार में सुखी है । ऐसी महापुरुषों को किसी की इच्छा नहीं होती । जिसे किसी चीज़ की इच्छा नहीं, उसके किसकी गरज़ ? जो मित्र और शत्रु को एक नज़र से देखते हैं, जहाँ जगह पाते हैं वही पद रहते हैं, वहीँ खा लेते हैं, उन्हें न चिन्ता राक्षसी सताती है, न उन्हें घमण्ड होता है और न उन्हें मस्ती आती है । वे तो ब्रह्म के ध्यान में मग्न रहते हैं, इसलिए दुःख उनके पास नहीं आता; वे सदा सुख में दिन बिताते हैं । जो लोग बढ़िया बढ़िया कपडे पहनते हैं, शाल-दुशाले ओढ़ते है, अच्छे-अच्छे स्वादिष्ट भोजन करते हैं, मखमली गद्दे-तकियों पर सोते हैं, किसी को दोस्त और किसी को दुश्मन समझते हैं, ब्रह्म का ध्यान नहीं करते, उनको चिन्ता लगी ही रहती है । देखने में वे सुखी मालूम होते हैं, पर भीतर ही भीतर उनकी आत्मा जला करती है । चिन्ता उनको खोखला कर डालती है । क्योंकि बढ़िया बढ़िया भोजन और वस्त्रों के लिए उन्हें सदा उपाय करने पड़ते हैं और उनकी रक्षा की चिन्ता करनी पड़ती है । ऐसो के ही मित्र और शत्रु होते हैं । जिनका वे भला करते हैं, जिन्हे कुछ सहायता देते हैं अथवा जिन्हे उनसे कुछ मिलने की आशा रहती है, वे मित्र बन जाते हैं; पर जिनका स्वार्थ साधन नहीं होता, जो उनके ठाठ-बाठ और वैभव को फूटी आँख नहीं देख सकते, वे उनके नाश की चेष्टा करते हैं और उनके दुश्मन हो जाते हैं । इसलिए उन्हें रात-दिन शत्रुओं से बदला लेने और उन्हें पराजित करने की फ़िक्र के मारे क्षणभर भी सुख की नींद नहीं आती । अपने वैभव और ऐश्वर्य को देखकर उन्हें स्वतः ही अभिमान हो आता है । अभिमान के नशे में वो अनर्थ करने लगते हैं; इससे उन्हें सदा भयभीत रहना पड़ता है । बहुत क्या कहें; जिनको आप अमीर देखते हैं, जिनको आप स्त्री-पुरुष, धन-रत्न, गाडी-घोड़े, मोटर प्रभृति से सुखी देखते हैं, वे वास्तव में ज़रा भी सुखी नहीं । सुखी वही है जिसे किसी चीज़ की ज़रूरत नहीं, जिसे किसी से वैर या प्रीति नहीं, जिसे ज़रा भी अभिमान नहीं, जिसकी इन्द्रियां वश में हैं, जो कभी चिन्ता को पास नहीं आने देता और जो ब्रह्मानन्द में ही मग्न रहता है । भला राजा महाराजा और धनी लोग इस सुख को कैसे पा सकते हैं ? अगर सुखी होना चाहो, तो संसार को त्याग कर, एकदम से निश्चिन्त होकर, परमात्मा के सिवा किसी चीज़ की चिन्ता न करो ।

 

     जो लोग संसार त्यागें, वह सच्चे मन से त्यागें; ढोंग करने से कोई लाभ नहीं । आजकल ऐसे बनावटी महात्मा बहुत देखने में आते हैं, जो जाता-जूट बढ़ा लेते हैं, ख़ाक रमा लेते हैं आँखें लाल कर लेते हैं, गंगा में पहरों खड़े रहते हैं, शूलों की शय्या पर सोते हैं, पर उनकी आशा और तृष्णा नहीं जाती । वे ज़ाहिरा कष्ट उठाते हैं, कर्मेन्द्रियों से उनका काम नहीं लेते; पर मन और ज्ञानेन्द्रियों को अपने वश में नहीं करते, वासनाओं का त्याग नहीं करते, इससे उनका जीवन वृथा जाता है । ऐसे लोगों के सम्बन्ध में महात्मा कबीर कहते हैं -

 

निर्बन्धन बंधा रहे, बंध्या निरबन्ध होय ।

कर्म करे करता नहीं, दास कहावे सोय ।।

 

 कृष्ण भगवान् गीता के तीसरे अध्याय के छठे श्लोक में कहते हैं -

 

कर्मेन्द्रियाणि संयम्य य आस्ते मनसा स्मरन् 

इन्द्रियार्थान् विमूढात्मा मिथ्याचारः स उच्यते ।।

 

 

   जो मनुष्य कर्मेन्द्रियों को वश में करके कुछ काम तो नहीं करता; किन्तु मन में इन्द्रियों के विषयों का ध्यान किया करता है, वह मनुष्य झूठा और पाखण्डी है ।

 

     मतलब यह है, कि मनुष्यों को हाथ, पाँव, मुंह, गुदा और लिङ्ग को वश में कर लेने और इनसे कोई काम न लेने से कोई लाभ नहीं; इनसे तो इनका कोई काम लेना ही चाहिए; किन्तु आँख, कान, नाक, जीभ और त्वचा को वश में करना चाहिए । आँख, कान आदि पांच इन्द्रियों को वश में करना या अपने अपने विषयों से रोकना जरूरी है । बहुत से लोग, ज़ाहिर में सिद्ध बनने के लिए, हाथ-पाँव प्रभृति कर्मेन्द्रियों से काम नहीं लेते, किन्तु मन में भाँती भाँती के इन्द्रिय विषयों की इच्छा किया करते हैं । भगवान् कृष्ण ऐसों को पाखण्डी कहते हैं ।

 

     सबसे अच्छा और सिद्ध पुरुष वही है जो ज़ाहिरा तो काम करता है, किन्तु अन्दर से मन और ज्ञानेन्द्रियों को विषय वासना से रोकता है । गीता में कहा है -

 

यस्त्विन्द्रियाणि मनसा नियम्यारभतेऽर्जुन ।

कर्मेन्द्रियैः कर्मयोगमसक्तः स विशिष्यते ।।

 

    हे अर्जुन ! जो मन से आँख कान नाक आदि इन्द्रियों को वश में करके और इन्द्रियों को विषयों में न लगा कर "कर्मयोग" करता है, वही श्रेष्ठ है ।

 

रहीम ने यही बात कैसी अच्छी तरह कही है -

 

जो "रहीम" मन हाथ है, मनसा कहुँ किन जाहिं ।

जल में छाया जो परी, काया भीजत नाहिं ।।

तन को योगी सब करें, मन को विरला कोय ।

सहजे सब विधि पाइये, जो मन योगी होय ।।

 

       मतलब यह है कि ढोंग करने से कोई लाभ नहीं । जिनका दिल साफ़ है, जिनके दिल से वासनाएं निकल गयी है, उन्हें नहाने धोने प्रभृति दिखाऊ कामों या दुकानदारी की जरुरत नहीं है । रहीम कहते हैं, मन यदि हाथ में है तो मनसा कहीं क्यों न जाय, हानि नहीं; क्योंकि जल में शरीर की परछाईं पड़ने से शरीर नहीं भीजता । लोग शरीर को जोगी करते हैं - तिलक छापे लगाते हैं, जटाजूट बढ़ाते हैं, नेत्रों को सुर्ख करते हैं, भभूत मलते हैं, कोपीन बांधते हैं; पर मन को कोई विरला ही जोगी करता है । लोग ऊपर से योगी बन जाते हैं, पर मन उनका विषय-भोगों में लगा रहता है । शरीर से चाहे जो काम क्यों न किये जाएँ, पर मन में विषयों की कामना न रहे; यानि शरीर जोगी न हो, मन जोगी हो जाये; तो सिद्धि या मोक्ष मिलने में संदेह नहीं । सारांश यह कि, मन के योगी होने से ही ईश्वर मिलता है ।

 

 महाकवि ज़ौक़ कहते हैं -

 

सरापा पाक हैं धोये जिन्होंने हाथ दुनिया से ।

नहीं हाजत कि वह पानी बहाएं सर से पाऊं तक ।।

                                                  

     जिन्होंने दुनिया से हाथ धो लिए हैं, वे सिरसे पाँव तक शुद्ध हो गए हैं । उन्हें सिर से पाँव तक पानी बहाकर स्नान करने की जरुरत नहीं ।

 

     मन जब वासना-हीन हो जाता है, तब वह सूखी दिया-सलाई के समान हो जाता है । सूखी दिया-सलाई जिस तरह झट जल उठती है, पर गीली नहीं जलती; उसी तरह वासनाहीन मन पर परमात्मा का रंग जल्दी चढ़ता है ; किन्तु वासनायुक्त मन पर हरगिज़ नहीं । इसलिए मन को वासनाहीन करना चाहिए । साथ ही भक्ति भी निष्काम करनी चाहिए । ईश्वर से मुराद न मांगनी चाहिए । कामना रखकर भक्ति करने से कामना निश्चय ही पूर्ण होती है - ईश्वर भक्त की इच्छा अवश्य पूरी करता है; पर वैसी भक्ति से परिणाम में भय है ; क्योंकि फलों के भोगने के लिए जन्मना और मरना पड़ता है । किन्तु जो लोग बिना किसी इच्छा के परमात्मा की भक्ति करते हैं, वे मुक्ति लाभ करते हैं - उन्हें जन्म लेना और मरना नहीं पड़ता ।

 

     जब साधक के मन में कामना नहीं रहती, तब उसके मन से ईर्ष्या-द्वेष और मित्रता-शत्रुता सब दूर हो जाती है । वह सब जगत को एक नज़र से देखता है । वह मनुष्यों की आशा नहीं रखता, केवल परमात्मा की शरण ले लेता है; इसलिए उसे सहज में मुक्ति मिल जाती है । गोस्वामी तुलसीदास जी ने कहा है -

 

तब लगि हमते सब बड़े, जब लगि है कुछ चाह ।

चाह-रहित कह को अधिक, पाय परमपद थाह ।।

 

    जब तक मन में ज़रा भी आशा रहती है, तभी तक मनुष्य किसी को बड़ा मानता है और किसी का दास बनता है; जब आशा नहीं रहती तब वह सबको समान समझता है और सबका आसरा छोड़ एकमात्र परमात्मा का आसरा पकड़ता है; इससे उसको भवबन्धन से छुटकारा मिलकर परमपद की प्राप्ति हो जाती है ।

 

 

    छप्पय

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कन्था अरु कोपीन, फटी पुनि महा पुरानी ।

बिना याचना भीख, नींद मरघट मनमानी ।।

रह जग सों निश्चिन्त, फिरै जितहि मन आवै ।

राखे चित कू शान्त, अनुचित नहीं भाषै ।।

जो रहे लीन अस ब्रह्म में, सोवत अरु जागत यदा ।

है राज तुच्छ तिहुँ भुवन को, ऐसे पुरुषन को सदा ।।

 

 

 

भोगा भंगुरवृत्तयो बहुविधास्तैरेव चायं भवः

तत्कस्यैव कृते परिभ्रमतरे लोका कृतं चेष्टितैः ।

आशापाशशतोपशान्तिविशदं चेतः समाधीयतां

कामोच्छित्तिवशे स्वधामनि यदि श्रद्धेयमस्मद्वचः ।। १०२ ।।

 

 अर्थ:

 

    नाना प्रकार के विषय भोग नाशमान और संसार-बन्धन के कारण हैं, इस बात को जानकार भी मनुष्यों ! उनके चक्कर में क्यों पड़ते हो ? इस चेष्टा से क्या लाभ होगा ? अगर आपको हमारी बात का विश्वास हो, तो आप अनेक प्रकार के आशा-जाल के टूटने से शुद्ध हुए चित्त को सदा कामनाशक स्वयंप्रकाश शिवजी के चरण में लगाओ । (अथवा अपनी इच्छाओं के समूल नाश के लिए, अपने ही आत्मा के ध्यान में मग्न हो जाओ ।

 

 

    आप आज जिन विषय-सुखों को देखकर फूले नहीं समाते, वे विषय-सुख सदा आपके साथ नहीं रहेंगे । वे आज हैं तो कल नहीं रहेंगे । वे बिजली की चमक के समान चञ्चल हैं; अभी बिजली चमकी और फिर नहीं । आप ऐसे नश्वर, असार और क्षणस्थायी सुखों पर मत भूलो । होश करो ! अपनी काया नाशमान है । आप सदा इस संसार में नहीं रहेंगे । आपकी ज़िन्दगी का कोई भरोसा नहीं । आपका जो दम आता है, उसे ही गनीमत समझिये । आप एक कदम रखकर, दूसरा कदम रखने की भी दृढ़ आशा न कीजिये । आपका जीवन हवा के झोंको से छिन्न-भिन्न मेघों के समान है । अभी घटा छा रहीं थी; देखते देखते हवा उन्हें कहाँ का कहाँ उड़ा ले गयी; आकाश साफ़ हो गया। यह सारा संसार, संसार के सुख-भोग, स्त्री-पुत्र, धन-रत्नादि सभी स्वप्न की सी माया हैं । यह दुनिया मुसाफिरखाना है । रोज़ अनेक आदमी मुसाफिरखाने, सराय या धर्मशालाओं में आते और जाते रहते हैं; सदा उनमें कोई नहीं रहता । वे जिस तरह एक दिन या दो-तीन दिन रहकर चले जाते हैं; उसी तरह आपको भी, इस दुनिया रुपी सराय में चन्द रोज़ क़याम करके, आगे जाना होगा । ये सारे सामान यहाँ के यहीं रह जायेंगे । ये सब ऐसे ही रहेंगे, पर आप न रहेंगे । इसलिए आप होशियार रहिये, भूलिए मत । जिस जवानी पर आप इतना इतराते और इतने श्रृंगार-बनाव करते हैं, यह भी चन्दरोज़ा है । यह चार दिन की चाँदनी है । इसके बाद अन्धेरी रात निश्चय ही आवेगी । उस समय आपको यह अकड़, यह उछाल कूद, यह एन्ठना, यह मूंछे मरोड़ना - सब हवा हो जाएगा । आप शीघ्र ही लाठी तक कर चलने लगेंगे । आपका रूप-लावण्य नाश हो जाएगा । जो लोग आपको खूबसूरत समझकर आज प्यार करते हैं, वे ही कल आपको देखकर नाक-भौं सिकोड़ेंगे । फिर भला, आप ऐसी नश्वर निकम्मी काया क्यों इतना अभिमान करते हैं ? आप अहङ्कार को त्यागिये और अपने को उस खिलाडी का एक मिटटी का पुतला मात्र समझिये । सबकी शुभकामना और परोपकार कीजिये और एकमात्र अपने बनानेवाले से ही दिल लगाइये । इसी में आपका कल्याण है । यह जगत कुछ भी नहीं, कोरा भ्रम है । यह मृगमरीचिका या स्वप्न की सी माया है । इस पर ज्ञानी नहीं भूलते ।

 

 

महात्मा सुन्दरदास जी कहते हैं -

 

कोउ नृप फूलन की सेज पर सूतो आई ।

जब लग जाग्यो तौ लों, अति सुख मान्यो है ।।

नींद जब आयी, तब वाही कूँ स्वप्न भयो ।

जब परयो नरक के कुण्ड में, यूं जान्यो है ।।

अति दुःख पावे, पर निकस्यो न क्यूँ ही जाहि ।

जागि जब परयो, तब स्वप्न बखान्यो है ।।

यह झूठ वह झूठ, जाग्रत स्वप्न दोउ ।

"सुन्दर" कहत, ज्ञानी सब भ्रम मान्यो है ।।

 

 छप्पय

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अति चञ्चल ये भोग, जगत हूँ चञ्चल तैसो ।

तू क्यों भटकत मूढ़ जीव, संसारी जैसो ।।

आशाफांसी काट, चित्त तू निर्मल ह्वैरे ।

करि रे प्रतीति मेरे वचन, ढुरिरे तू इह ओर को ।।

छिन यहै यहै दिनहुँ भल्यौ, निज राखै कुछ भोर को ।

 

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