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वैराग्य शतकम् भर्तृहरिविरचित भाग1.11

 


 धन्यानां गिरिकन्दरे निवसतां ज्योतिः परं ध्यायतां-

आनन्दाश्रुजलं पिबन्ति शकुना निःशङ्कमङ्केशयाः ।।

अस्माकं तु मनोरथोपरचितप्रासादवापीतट-

क्रीडाकाननकेलिकौतुकजुषामायुः परिक्षीयते ।। १०३ ।।

 

 अर्थ:

 

    वे धन्य हैं, जो पर्वतों की गुफाओं में रहते हैं और परब्रह्म की ज्योति का ध्यान करते हैं, जिनके आनन्दाश्रुओं को उनकी गोद में बैठे हुए पक्षी निर्भयता से पीते हैं । हमारी ज़िन्दगी तो मनोरथों के महल की बावड़ी के किनारे के क्रीड़ा-स्थान में लीलाएं करते हुए ही वृथा बीतती है ।

 

    मतलब यह कि वे लोग सफल काम हैं, जो पहाड़ों की गुफाओं में बैठे हुए परमात्मा ज्योति का ध्यान करते रहते हैं और ध्यान में इतने मग्न हो जाते हैं कि उन्हें अपने तनबदन की भी सुध नहीं रहती । उनको भीतर ही भीतर उस ब्रह्म के ध्यान से जो आनन्द-बोध होता है, उससे उनकी आँखों से आनन्द के आंसू बहने लगते हैं । पक्षी उनकी गोद में निडर बैठे हुए उन आंसुओं को पीते हैं । उन्हें कुछ खबर नहीं, कि पक्षी गोद में बैठे हैं या क्या कर रहे हैं । वे तो आनन्द में बेसुध रहते हैं । यही आनन्द परमानन्द है । इससे परे और आनन्द नहीं । जिनको यह सच्चा आनन्द  मिलता है, वही सच्चे भाग्यवान हैं । एक वह हैं और एक हम अभागे हैं, जो रात-दिन मनोरथों के महल गढ़ा करते हैं - रात-दिन मिथ्या कल्पनाएं किया करते हैं । इन शेखचिल्ली के से गढन्तों से हमें कोई लाभ नहीं - इन झूठे ख्याली पुलावों के पकने में हमारा दुष्प्राप्य जीवन वृथा नष्ट हो रहा है ।

 

     जो मनुष्य मानव-चोला पाकर परमात्मा का भजन नहीं करते, परमात्मा के दर्शनों की चेष्टा नहीं करते - उनका जीवन वृथा है ।

 

 

 

इसलिए उस्ताद ज़ौक़ ने कहा है -

 

दिल वह क्या, जिसको नहीं तेरी तमनाये विसाल ।

चश्म वह क्या, जिसको तेरे दीद की हसरत नहीं ।।

 

    वह दिल ही नहीं, जिसे तुझे पाने की इच्छा न हो और वह आँख ही नहीं, जिसे तेरे दर्शन की लालसा न हो ।

 

 

बीती सो बीती, अब तो होश करो !

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    भाइयों ! बीती सो बीती, अब तो चेत करो और प्रभु से लौ लगाओ । आजकल मत करो, नहीं तो पछताओगे । अन्त समय पछताने से कोई लाभ न होगा । जो लोग विचार ही विचार करते रहते हैं, वे धोखे में रह जाते हैं और काल एक दिन अचानक आकर उनकी छोटी पकड़ लेता है ।

 

 

 

गोस्वामी तुलसीदास जी कहते हैं -

 

गए पलट आवें नहीं, सो करु मन पहचान ।

आजु जोई सोई कालहि है, तलसी मर्म न मान ।।

रामनाम रटिबो भलो, तुलसी खता न खाय ।

लरिकाई ते पैरिबो, धोखे बूड़ि न जाय ।।

 

    नदी की जो धार चली गयी है, लौटकर नहीं आएगी, जो दिन चले गए हैं, वापस नहीं आएंगे । जो दिन आज है, वही कल है । कल कोई नई बात नहीं हो जायेगी । अतः जो कल करना है उसे आजही करो; और जो आज करना है, उसे अभी करो; क्योंकि यदि पल भर में प्रलय हो गयी - आप चल बसे - तो फिर कब करोगे ? बचपन से ही राम नाम रटना अच्छा है ।  जो लोग बचपन से ही तैरना सीख लेते हैं, धोखे से नहीं डूबते । जो लोग यही विचार किया करते हैं, कि अमुक काम हो जायेगा, तो उसके बाद हम सब गृहस्थी के झगड़े छोड़ भगवत भजन करेंगे, वे इस तरह के विचार किया ही करते हैं कि इतने में समय पूरा हो जाता है और काल उनका चोटा पकड़ कर उन्हें ले जाता है । उस वक्त वह बहुत पछताते और सिर धुनते हैं; लेकिन उस समय क्या हो सकता है ? उस समय उनकी गति उस भौंरे सी होती है, जो कमल के मुख में बन्द हो कर कहता है -

 

 

रात्रिर्गमिष्यति भविष्यति सुप्रभातं।

भास्वानुदेष्यति हसिष्यति पंकजालं ।।

इत्थं विचिन्तयति कोशगते द्विरेफे ।

हा हन्त हन्त नलिनीं गज उज्जहार ।।

 

     बड़े बड़े शाल के लट्ठों को छेद डालने की शक्ति रखने वाला भौंरा, प्रेम के मारे, कोमल कमल में बन्द हो जाता है । रात हो जाती है और भौंरा कमल के अन्दर बैठा विचार करता है - "अब रात का अवसान होगा, सवेरा होगा, सूरज उदय होगा और यह कमल खिल जायेगा; तब मैं निकल जाऊंगा । अब रात भर यहीं आनन्द करूँ ।" वह तो ऐसे विचार करता ही रहता है, कि जंगली हाथी कमल को उखाड़ कर मुंह में रख लेता है और भौंरो के मन की मन में ही रह जाती है । यही दशा संसारी विषय-लोलुपों की है । वह विचार बाँधा ही करते हैं और काल उन्हें मुंह में धर लेता है, अतः हो सके तो बचपन में ही ईश्वर भजन करो । बचपन में यदि ऐसा सौभाग्य न हो, तो जवानी में तो न चूको । जवानी इसके लिए अच्छा समय है । उस अवस्था में शक्ति रहती है । जाने में ईश्वरभक्ति करनेवाला निश्चय ही मोक्ष या स्वर्ग पाता है ।

 

 कहा है -

 

दानं दरिद्रस्य प्रबोशच शान्तिः

यूनां तपो ज्ञानवताञ्च मौनं ।

इच्छा निवृत्तिश्च सुखासितानां

दया च भूतेषु दिवं नयन्ति ।।

 

     दरिद्रता का किया दान, निग्रह अनुग्रह की शक्ति होने पर क्षमा, जवानी का किया तप, विद्वान् होकर चुप रहना, सुख-भोग की सामर्थ्य होने पर इच्छाओं को रोक लेना और प्राणियों पर दया करना - ये स्वर्ग की प्राप्ति करते हैं ।

 

 

ईश्वर भजन में आजकल मत करो

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    एक धनवान सदा घर-धंधों में लीन रहता था । उसकी स्त्री उससे बहुत कुछ कहती थी कि हे स्वामी ! यह शरीर विषय-भोगों के लिए नहीं, बल्कि परमात्मा की भक्ति के लिए मिला है । पारसमणि समझकर, इससे मोक्ष रुपी सोना बना लीजिये । ऐसा न हो कि आप सोना न बनावें और यह पारसमणि पहले ही आपसे छीन ली जाय । इस शरीर का बारम्बार मिलना कठिन है । ८४ लाख योनियां भोगने के बाद यह मनुष्य चोला मिला है । इस बार यदि इससे काम न लिया जायेगा, तो फिर चौरासी लाख योनियों में जन्म-मरण होने पर यह मनुष्य-चोला मिलेगा; इसलिए दो चार घडी तो सब तरफ से मन हटाकर परमात्मा की याद किया करो । स्त्री उससे बार बार कहती, पर वह सेठ उसकी बात टाल देता ।

 

 

     एक दिन सेठ बीमार हो गया । उसने सेठानी से वैद्य को बुलाने को कहा । सेठानी ने वैद्य को बुलाया । वैद्य ने नाड़ी-नब्ज़ देख, रोग का हाल पूछ, दवा का नुस्खा लिख दिया और सेवन-विधि बताकर चला गया । सेठानी ने पंसारी के यहाँ से दवा मंगा, आले में रख दी । दिन भर हो गया पर सेठ को दवा न दी । संध्या समय सेठ ने कहा - "क्या दवा नहीं मंगाई गयी ?" सेठानी ने कहा - "जी, दवा तो मंगा ली है, पर वह रक्खी है उस ताक में ।" सेठ ने पूछा - "अब तक दी क्यों नहीं ?" सेठानी ने कहा - "जल्दी क्या है ? आज नहीं तो कल, नहीं तो परसों दे दूंगी । कभी न कभी दे ही दूंगी ।" सेठ ने कहा - "अगर मैं मर गया तो दवा कौन काम आवेगी ?" सेठानी ने कहा - "मरने को तो आप मानते ही नहीं । मैं जब जब भगवत भजन करने को कहती हूँ, तब-तब आप कह देते हैं कि देखा जायेगा; जल्दी थोड़े ही है । यदि आपको मरने की ही याद होती तो ऐसा न कहते । आज दवा के लिए आपको मरने की याद आयी है । जिस तरह दवा की रोगनाश के लिए जरुरत है; उसी तरह भजन-पूजन की जन्म-मरण का फन्दा काटने के लिए जरुरत है । ऐसा न हो कि पशु योनि मिल जाय और सारा गुड़-गोबर हो जाय ।" आज स्त्री का उपदेश लग गया । सेठ को वैराग्य हो गया । सेठानी ने उसे दवा पिला दी और वह अच्छा भी हो गया । उसी दिन से उसने ईश्वर भजन में लौ लगा दी । वह और सब भूला पर ज़िन्दगी भर, मौत और ईश्वर को न भूला ।

 

 

मौत को हरदम याद रक्खो

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     एक बादशाह ने अपने दरबार और बैठने के स्थानों में कब्रें बनवा रक्खी थीं । वह चाहता था कि मैं हरदम कब्रों को देखकर मौत को न भूलूँ । मौत की याद रहने से पापों से बचा रहूँगा और ईश्वर को न भूलूंगा । हमारे यहाँ के अनेक सच्चे सिद्ध अक्सर शमशान भूमि में ही डेरा रखते हैं । सारांश यह कि मनुष्य को अपनी मौत सदा याद रखनी चाहिए, ताकि संसार से वैराग्य होकर ज्ञान हो और ज्ञान से मोक्ष मिले ।

 

 

 

महात्मा कबीर ने खूब जबरदस्त चेतावनी दी है -

 

"कबिरा" जो दिन आज है, सो दिन नाहिं काल।

चेत सके तो चेतियो, मीच परी है ख्याल।।

     हे कबीर ! जो दिन आज है, वह कल नहीं होगा; यानी आज का सा मौका कल फिर न मिलेगा । चेतना है तो चेत जा ! देख, मृत्यु तेरे घात में है । चूहे पर बिल्ली की तरह झपट्टा मारना ही चाहती है ।

 

 

 

गोस्वामी जी ने भी खूब कहा है -

 

"तुलसी" विलम्ब न कीजिये, भेज लीजै रघुबीर।

तन तरकस ते जात है, श्वास सार सो तीर।।

काल करे सो आज कर, आज करे सो अब।

पल में परलय होएगी, बहुरि करोगे कब?

 

     तुलसीदास जी कहते हैं, देर न करो, भगवान् को भज लो; क्योंकि तनरूपी तरकस से श्वास रुपी तीर, जो सार है, निकला जाता है । जो काम कल करना है, उसे आज ही कर डालो और जो आज करना है, उसे अभी कर डालो; क्योंकि यदि पल में प्रलय हो गयी, तो फिर कब करोगे ?

 

 

    जो मनुष्य दिन-रात घर-धन्धों में ही लगे रहते हैं, कभी खुश होते हैं कभी रंज करते हैं, कभी कन्या के वैधव्य दुःख को देखकर जलते रहते हैं, तो कभी पुत्र के मरण से औंधा मुंह किये पड़े रहते हैं अथवा कान्ता-वियोग या स्त्री के मरण से तड़फते हैं अथवा धनवृद्धि के लिए दौड़ते फिरते हैं । लेकिन परमात्मा का नाम कभी नहीं लेते; यदि लेते हैं तो हाथ को तो गोमुखी में रखते हैं, पर मन को विषयों में लगाए रहते हैं, लोगों से बातें करते रहते और सड़ासड़ माला फेरा करते हैं, ऐसों के पास एक दिन भी चतुर पृष्ठों को न रहना चाहिए ।

 

 

 

कहा है -

 

राजा धर्मविना, द्विजः शुचिविना, ज्ञानं विना योगिनः ।

कान्ता सत्यविना, हयो गति विना, भूषा च ज्योतिर्विना ।।

योद्धा शूरविना, तपो व्रत विना, छन्दो विना गीयते ।

भ्राता स्नेह विना, नरो हरि विना, मुञ्चन्ति शीघ्रं बुधाः ।।

 

     धर्महीन राजा को, शौचहीन ब्राह्मण को, ज्ञानहीन योगी को, असत्यवादिनी स्त्री को, गतिहीन घोड़े को, चमक-दमक रहित गहने को, शूरताहीन योद्धा को, नियम रहित तप को, छन्द बिना कविता को, स्नेह-हीन भाई को और हरिभक्ति रहित पुरुष को बुद्धिमान लोग शीघ्र ही छोड़ देते हैं ।

 

      हरिभक्ति रहित पुरुष को चतुर लोग इसलिए त्याग देते हैं, कि उसकी सङ्गति में उनका मन भी कहीं वैसा न हो जाय । मनुष्य जैसी सङ्गति करता है, वैसा ही हो जाता है । जो विषयी पुरुषों की सङ्गति करता है, वह विषयी हो जाता है; पर जो ज्ञानी और वैरागियों की सङ्गति करता है, वह ज्ञानी और वैरागी हो जाता है । महापुरुषों की एक शुभ दृष्टी से मनुष्य निहाल हो जाता है; यानी भाव-बन्धन से उसका पीछा छूट जाता है । हम आगे दोनों तरह के दृष्टान्त देते हैं -

 

 

एक राजा और महात्मा

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    किसी जंगल में एक महात्मा रहते थे । वह पेड़-पत्ते और हवा खाकर ज़िन्दगी बसर करते थे । उनकी शोहरत सारे देश में फ़ैल गयी । उस देश के राजा ने भी उनसे मिलना चाहा । वज़ीर ने यह खबर महात्मा को दी । महात्मा उस जंगल को छोड़ भागने को तैयार हुए; लेकिन मंत्री के बहुत समझने बुझाने से वह वहां रह गए और राजा को दर्शन देने पर भी राज़ी हो गए ।

 

     एक दिन राजा अपने परिवार और दरबारियों समेत महात्मा के दर्शन को गया । महात्मा के दर्शन कर वह बहुत ही खुश हुआ और उनसे नगर में चलकर बाग़ में तप करने की प्रार्थना की । महात्मा बहुत ज़ोर देने से इस बात पर राज़ी हो गया । राजा ने अपने बाग़ में उसके लिए एक एकान्त कमरा खूब सजवा दिया । मखमली गद्दे, तकिये, कौच, पलंग और कुर्सियां रखवा दीं और चौदह-चौदह बरस की सुन्दरी मनमोहिनी कामिनियाँ महात्मा जी की सेवा को नियुक्त कर दीं ।

 

     महात्मा जी खूब आनन्द से दिनी गुज़ारने और विधुवदिनी कामिनियों को भोगने लगे । चन्दरोज में ही वह विषयों के वशीभूत हो गए । एक दीं राजा फिर उनसे मिलने गया । उसने देखा कि महात्मा जी का रंग रूप गुलाब के फूल जैसा हो गया है । वह मसनद के सहारे लेते हुए हैं और चन्द्रानना स्त्रियां उन पर मोरछल कर रही हैं । यह तमाशा देख राजा को बड़ा दुःख हुआ । उसने अपने मंत्री से यह हाल कहा । मंत्री ने कहा - "महाराज ! निवृत्ति मार्ग वालों को प्रवृत्ति मार्ग वालों की सङ्गति भूलकर भी न करनी चाहिए ।"

 

 

   कहा है -

 

कामीनाम् कामिनीनां च संगात् कामी भवेत् पुमान्।

देहान्तरे ततः क्रोधी लोभी मोहि च जायते।।

काम क्रोधादि संसर्गाद शुद्धं जायते मनः।

अशुद्धे मनसि ब्रह्मज्ञानं तच्च विनश्यति।।

 

     कामी पुरुषों और स्त्रियों की सङ्गति से पुरुष कामी और जन्मान्तर में मोहि और क्रोधी हो जाता है ।

 

    काम क्रोधादि के सम्बन्ध से मन भी अशुद्ध हो जाता है । अशुद्ध मन से उपदेश किया हुआ ब्रह्मज्ञान भी नष्ट हो जाता है ।

 

 

 

 

 

एक महात्मा और वेश्या

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     एक महात्मा एक दिन वर्षा में भीगते हुए और कीच में लिपटे हुए एक मकान के छज्जे के नीचे जा खड़े हुए । वह मकान राजा की वेश्या का था । महात्मा सर्दी के मारे थर-थर काँप रहे थे । वेश्या की दासी ने महात्मा को देखा और अपनी स्वामिनी से सारा हाल जा कहा । वेश्या ने कहा - "जाओ, महात्मा की लिवा लाओ ।" दासी उन्हें ले आई । वेश्या ने उनको स्नान कराकर नए कपडे पहनाये और भोजन कराया । इसके बाद आप भोजन करके उनके पास गयी और उन्हें पलंग पर लिटा कर उनके पैर दबाने लगी । महात्मा ने एक नज़र भर के वेश्या की तरफ देखा और उसके ह्रदय में अमृत की धारा बहा दी । वह सो गए और वेश्या रात भर उनके चरण चापती रही । सवेरे के समय वह सो गयी और महात्मा उठ कर चल दिए । भोर में उठते ही वेश्या ने दासी से पूछा कि महात्मा कहाँ गए ? उसने कहा कि वो तो चले गए । वेश्या उसी समय नंगी होकर घर से निकल गयी और एक वृक्ष के नीचे जाकर बैठ गयी । राजा ने यह समाचार सुनते ही अपने आदमी उसको लिवा लाने को भेजे । वेश्या ने कहा - "राजा से कह दो, कि मैं आपका वह मैला उठाने वाली पहले की भंगन नहीं हूँ ।" राजा ने यह बात सुन, हुक्म दे दिया कि उसे कोई न छेड़े । अगले दिन वह कहीं चली गयी । सच है, महापुरुषों की क्षणभर की सङ्गति से महापापी भी निहाल हो जाता है । निस्संदेह सत्संग बड़ी चीज़ है ।

 

 कहा है -

 

महानुभावसंसर्गः कस्य नोन्नतिकारकः।

पद्मपत्रस्थितम् वारिधत्ते मुक्ताफलश्रियम ।।

 

    महापुरुषों की सङ्गति से किसकी उन्नति नहीं होती ? कमल के पत्ते पर पड़ी जल की बून्द मोती की शोभा को धारण करती है ।

 

और भी -

 

 दोहा

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जेहि जैसी सङ्गति करी, सो तैसो फल लीन ।

कदली सीप भुजंग मुख, एक बून्द गुण तीन ।।

 

     जो जैसी सङ्गति करता है, वह वैसा ही फल पाता है । मेह की एक बून्द केले में कपूर, सीप में मोती और सर्प मुख में विष हो जाती है ।

 

 

सवैय्या

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ज्ञान बढै गुनवान की संगत,

ध्यान बढै तपसी-संग कीने ।

मोह बढै परिवार की संगत,

लोभ बढै धन में चित दीने ।

क्रोध बढै नर मूढ़ की संगत,

काम बढै तिय के संग कीने ।

बुद्धि विवेक विचार बढै,

कवि "दीन" सुसज्जन संगत कीने ।।

 

      सत्संग की महिमा का पार नहीं । सत्संग से ही दस्यु भील वाल्मीकि ऋषि हो गए । पद्मयोनि से पैदा हुए ब्रह्मा कैवर्त्ति से पैदा हुए व्यासजी, उर्वशी से पैदा हुए वशिष्ठ जी और हिरनी से पैदा हुए ऋषि श्रृंगी सत्संग से ब्रह्मतत्व को प्राप्त हुए; अतः महापुरुष्णो का संग करना चाहिए । "सत्संग" भाव-सागर से पर करने के लिए नौका-स्वरुप है ।

 

 कहा है -

 

तत्त्वं चिन्तय सततं चित्ते,

परिहर चिन्तां नश्वरवित्ते ।

क्षणमिह सज्जनसङ्गतिरेका,

भवति भवार्णवतरणे नौका ।।

 

     हमेशा तत्व की चिन्तना कर, चञ्चल धन की चिन्ता छोड़ । यह जगत अल्पकालीन है; केवल सज्जनों की सङ्गति ही भवसागर के पार जाने के लिए नाव के समान है ।

 

    इस संसार वृक्ष के जितने फल हैं, सभी प्राणी के नाश करनेवाले और उसे सदा दुखों के गर्त में पटक रखनेवाले हैं; केवल दो फल अमृत समान हैं;

 

कहा है -

 

संसारविषवृक्षस्य द्वे फैले अमृतोपमे ।

काव्यामृत रसास्वाद आलापः सज्जनैः सह ।।

 

 

इस संसार रुपी विष-वृक्ष के दो फल अमृत के समान हैं

 

१) काव्यरुपी अमृत का रसास्वादन करना, २) साधु पुरुषों की सङ्गति करना ।

 

     शंकराचार्य जी ने कैसा अच्छा उपदेश दिया है । इसमें संसार-सागर से पार होने का सारा मसाला है -

 

संगः सत्सु विधीयतां, भगवतोभक्तिर्दृढ़ा धीयतां,

शान्त्यादिः परिचीयतां, दृढतरं कर्माशु संत्यज्यताम्।

सद्विद्या ह्युपसर्प्यतां, प्रतिदिनं तत्पादुका सेव्यतां,

ब्रह्मैकाक्षरमर्थ्यतां श्रतिशिरोवाक्यं समाकर्ण्यताम्।।

 

     साधु पुरुषों का संग करना चाहिए । भगवान् में दृढ़ भक्ति करनी चाहिए । क्षमा और दम प्रभृति का अभ्यास करना चाहिए । संसार-बन्धन के कारण "कर्म - सकाम कर्मों को" शीघ्र त्यागना चाहिए । सच्चे विद्वानों की सेवा करनी चाहिए और उनकी पादुकाएं उठानी चाहिए । ब्रह्म बोधक एकाक्षर प्रणव "ॐ" का जाप करना चाहिए और वेद के शिरोवाक्य "वेदान्त" को सुनना चाहिए ।

 

     वाह ! क्या खूब कहा है ! जो इस वचन पर अमल करेगा, उसे परमानन्द की प्राप्ति क्यों न होगी ? अवश्य होगी ।

 

छप्पय

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योगी जग विसराय, जाय गिरिगुहा बसत हैं ।

करत ज्योति को ध्यान, मगन आंसू वरसत हैं ।।

खगकुल बैठत अंक, पियत निःशंक नयनजल ।

धनि-धनि हैं वे धीर, धरयो जिन यह समाधिबल ।।

हम सेवत बारी बाग सर, सरिता बापी कूपतट ।

खोवत है योंही आयु को, भये निपटही नीरघट ।।

 

 

आघ्रातं मरणेन जन्म जरया विद्युच्चलं यौवनं

सन्तोषो धनलिप्सया शमसुखं प्रौढाङ्गनाविभ्रमैः ।

लोकैर्मत्सरिभिर्गुणा वनभुवो व्यालैर्नृपा दुर्जनैः

अस्थैर्येण विभूतिरप्यपहृता ग्रस्तं न किं केन वा ।। १०४ ।।

 

 अर्थ:

 

     मृत्यु ने जन्म को ग्रस रक्खा है, बुढ़ापे ने बिजली के समान चञ्चल युवावस्था को ग्रस रक्खा है, धन की इच्छा ने सन्तोष को ग्रस रक्खा है, जलनेवालों ने गुणों को ग्रस रक्खा है, सर्प और जंगली जानवरों ने वन को ग्रस रक्खा है, दुष्टों ने राजाओं को ग्रस रक्खा है, अस्थिरता या चञ्चलता ने धनैश्वर्य को ग्रस रक्खा है; तब ऐसी कौन सी चीज़ है, जो किसी दूसरी नाशक चीज़ के चंगुल में नहीं है ?

 

      खुलासा यह है, कि जन्म को मृत्यु का भय है, जवानी को बुढ़ापे का भय है, सन्तोष को लोभ का भय है, शान्ति को स्त्रियों के हावभाव और विलासों का भय है, गुणों को उनसे जलने या कुढ़नेवालों का भय है, वन में सर्प और हिंसक पशुओं का भय है, राजाओं में दुष्ट दरबारियों का भय है, धन और ऐश्वर्य में क्षणभंगुरता का भय है । संसार में ऐसी कोई अच्छी वास्तु नहीं है, जिसे किसी का भय न हो । मतलब यह है कि, संसार और संसार के सभी पदार्थ नाशमान हैं । ऐसी कोई चीज़ नहीं है, जिसका काल नाश नहीं कर देता अथवा जिसे किसी तरह का भय नहीं है ।

 

     संसार की यह दशा है, तब भी तो मनुष्य चेत नहीं करता, यही तो आश्चर्य की बात है ! अज्ञानी मनुष्य, मोहवश, अपना हानि-लाभ नहीं देखता; संसार की झूठी माया में फंसा रहता है ।

 

 

तुलसीदास जी ने ठीक ही कहा है -

 

करत चातुरी मोहवश, लखत न निज हित हान ।

शूक मर्कट इव गहत हठ, तुलसी परम सुजान ।।

दुखिया सकल प्रकार शठ, समुझि परत तोई नाहिं ।

लखत न कण्टक मीन जिमि, अशन भखत भ्रम नाहिं ।।

 

     विषयों के संसर्ग से मनुष्य के मन में कामना - इच्छा पैदा होती है । जब इच्छा पूरी नहीं होती, तब क्रोध होता है और क्रोध से मोह की उत्पत्ति होती है । मोह होने से प्राणी को अपना हित या परलोक की हानि नहीं दीखती । राग-द्वेष प्रभृति के कारण उसमें ज्ञानदृष्टी नहीं रहती; पर पढ़ने-लिखने के कारण वह अपने तई परम चतुर समझता है और जिस तरह हठ करके तोता बहेलिये के फन्दे में आप ही फंस जाता है और पिंजरे में कैद हो जाता है तथा बन्दर छोटे मुंह की ठिलिया में रोटी के लिए हाथ डालकर बंदरवाले के कब्जे में हो जाता है; उसी तरह विषयी पुरुष, विषयों के लालच में आकर, अपने तई संसार-बन्धन में फंसा लेता है ।

 

      मनुष्य भूख, प्यास, रोग, शोक, दरिद्रता, प्रिय-वियोग, बुढ़ापा, जन्म-मरण, चौरासी लाख योनियों में दुःख-भोग तथा नरक प्रभृति से हर तरह दुखी है, उसे ज़रा भी सुख नहीं है, पर वह मोह के मारे ऐसा अन्धा हो रहा है कि उसे कांटे में लगे चारे के लिए फंसने वाली मछली कि तरह कुछ भी नहीं सूझता । जिस तरह मछली को रोटी का टुकड़ा प्यारा है; उसी तरह मनुष्य को विषय-भोग प्यारा है । जिस तरह मछली को काँटा है, उसी तरह मनुष्य को ममता का काँटा है । मतलब यह है, अज्ञानी मनुष्य विषय रुपी चारे के लोभ से ममता के कांटे में फंसकर अपना नाश कराता है; पर मज़ा यह कि वह दुःख को दुःख नहीं समझता; तरह-तरह के भयों से घिरा हुआ नाना प्रकार के संकट झेलता है; मछली, तोते और बन्दर की तरह बन्धन में फंसता है, पर निकलना नहीं चाहता । इन दुःखों का उसे ज़रा भी ख्याल नहीं आता । रोज़ लोगों को मरते हुए देखता है, रोज़ बूढ़ों को असह्य कष्ट उठाते देखता है; पर आप नहीं समझता कि मेरी भी यही गति होनेवाली है ! उल्टा हर साल जन्मतिथि को वर्षगाँठ का उत्सव करता है । मित्रों और रिश्तेदारों को निमंत्रण देता है । गाना बजाना और नाच रंग कराता है । कैसी बात है, जहाँ रंज करना चाहिए, वहां नादान मनुष्य ख़ुशी मनाता है ! उसे समझना चाहिए कि हर सालगिरह को उसकी उम्र का एक साल काम  होता है ।

 

 महात्मा सुन्दरदास जी ने क्या खूब कहा है -

 

जबतें जनम लेत, तबही तें आयु घटे ।

माई तो कहत, मेरो बड़ो होत जात है ।।

आज और काल और दिन-दिन होत और ।

दौरयो दौरयो फिरत, खेलत और खात है ।।

बालपन बीत्यो, जब यौवन लाग्यो है ।

यौवनहु बीते बूढ़ो डोकरो दिखात है ।।

"सुन्दर" कहत, ऐसे देखत ही बूझिगयो ।

तेल घटी गए, जैसे दीपक बुझात है ।।

 

     प्राणी जब से जन्म लेता है, तभी से उसकी उम्र घटने लगती है । माँ समझती है कि मेरा लाल बड़ा होता जाता है । दिन-दिन उसके रंग बदलते हैं । बचपन में खाता खेलता और भागा फिरता है । बचपन के बीतते ही जवानी आ जाती है और जवानी के बीतते ही बुढ़ापा आ जाता है और वह बूढा डोकरा सा दिखने लगता है । सुन्दरदास कहते हैं कि देखते-देखते जिस तरह तेल घट जाने से चिराग बुझ जाता है; उसी तरह वह बुझ जाता है; यानी मर जाता है ।

 

छप्पय

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ग्रस्यो जन्म को मृत्यु, जरा यौवन को ग्रास्यौ ।

ग्रसिवे को सन्तोष, लोभ यह प्रगट प्रकास्यो ।।

तैसहि समदृष्टि ग्रसित, बनिता बिलास वर ।

मत्सर गुण ग्रसिलेत, ग्रसत वन को भुजङ्गवर ।।

नृप ग्रसित किये इन दुर्जनन, कियौ चपलता धन ग्रसित ।

कछुहु न देख्यौ बिन ग्रसित जग, याही तें चित अति त्रसित ।।

 

आधिव्याधिशतैर्जनस्य विविधैरारोग्यमुन्मूल्यते

लक्ष्मीर्यत्र पतन्ति तत्र विवृतद्वारा इव व्यापदः ।

जातं जातमवश्यमाशु विवशं मृत्युः करोत्यात्मसात्तत्किं

नाम निरङ्कुशेन विधिना यन्निर्मितं सुस्थितम् ।। १०५ ।।

 

 अर्थ:

 

    सैकड़ों मानसिक और शारीरिक रोग स्वास्थ्य का नाश कर डालते हैं । जहाँ संपत्ति और प्रभुता है, वहां विपत्ति दरवाज़ा तोड़कर चोर की तरह चढ़ाई करती है । जो जन्म लेता है उसे मृत्यु शीघ्र ही अपनी जबड़ों में फंसा लेती है; तब निरंकुश विधाता ने सदा स्थायी रहनेवाली कौन सी चीज़ बनायीं है ?

 

      मनुष्य शरीर रोगों का घर है । मानसिक और कायिक रोग सदैव उसके भीतर डेरा डाले रहते और स्वास्थ्य का नाश करते रहते हैं । संपत्ति पर विपत्ति सदा ताक लगाए खड़ी रहती है और ज़रा सा भी मौका पाते ही दरवाज़ा तोड़ कर उसका विनाश कर देती है । जन्म लेनेवाले के सिर पर मौत सदा मंडराया करती है एवं दांव-घात देखती रहती है और जब मौका पाती है, उसे अपने पंजो में फंसा लेती है । सारांश यह कि शरीर के साथ रोग, संपत्ति के साथ विपत्ति, जन्म के साथ मृत्यु, संयोग के साथ वियोग, सुख के साथ दुःख और जवानी के साथ बुढ़ापा प्रभृति एक दुसरे के नाशक विधाता ने लगा रखे हैं । विधाता ने कोई भी चीज़ सदा स्थायी नहीं बनाई; जो कुछ बनाया है वह चंदरोज़ा और नाशमान बनाया है ।

 

     संसार की असारता देखकर, मनुष्य को अपने तई इस संसार में पाहुने की तरह समझना चाहिए । जिस तरह पाहुना जहाँ कहीं जाता है और जहाँ ठहरता है, वहां के लोगों से दिल नहीं लगाता; उसी तरह समझदारों को इस दुनिया से दिल न लगाना चाहिए ।

 

 

 

जिसको रहना उत घर, सो क्यों मोड़े मित्त ।

 

जैसे पर-घर पाहुना, रहै उठाय चित्त ।।

इत पर-घर उत है घरा, बनिजन आये हाट ।

कर्म करीना बेचि के, उठि करि चाले बाट ।।

मेरा संगी कोई नहीं, सबै स्वारथी लोय ।

सुन परतीति न उपजे, जीव विश्वास न होय ।।

"कबिरा" ऐसा संसार है, जैसा सैमल-फूल ।

दिन दशके व्यौहार में, झूठे रंग न भूल ।।

 

     मनुष्य का अपना घर वह है जहाँ से वह आया है, यह नहीं ; अतः उसे अपने उस घर से दिल न हटाना चाहिए । इस घर में आकर मेहमान की तरह रहना चाहिए और मेहमान की तरह ही अपना दिल उठाये रखना चाहिए ।

 

    यह पराया घर है और वह अपना घर है । यहाँ हाट में अपना व्यवसाय करने आये हैं । हाट में सौदा बेचकर अपनी राह लगेंगे; यानि इस दुनिया में अपने कर्मों का फल भोगकर यहाँ से चले जाएंगे ।

 

    इस दुनिया में अपना कोई साथी नहीं है । सभी मतलबी यार है और मतलब के लिए ही हमारे बन रहे हैं । सुनकर प्रतीत नहीं होता और जे में विश्वास नहीं आता; पर बात सच्ची है ।

 

    कबीरदास जी कहते हैं - यह संसार सेमल के फूल की तरह है । दस दिन के व्यवहार और मेल-जोल से झूठे रंग पर न भूलना चाहिए ।

 

   सारांश यह है कि दुनिया पराया घर है और प्राणीमात्र यहाँ मेहमान है; अथवा यह संसार सराय है और हमलोग मुसाफिर हैं । यदि हम पाहुने हैं तो, और यदि हम मुसाफिर हैं तो - दोनों ही हालातों में - हमें इस दुनिया से दिल नहीं लगाना चाहिए । हम जहाँ से आये हैं अथवा जहाँ हमारा घर है, हमें अपना दिल वहां के लिए ही उठाये रहना चाहिए ।

 

 दुनिया गोरख धन्धा है

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    यह संसार बिलकुल मिथ्या और असार है; इसमें कुछ भी तत्व नहीं है । केले के खम्भे और प्याज को ज्यों ज्यों छीलते जाइये, त्यों त्यों उसके भीतर से सिवा छिलकों के कुछ नहीं निकलता । यह जगत भी उनकी तरह ही सारहीन है । इसमें कुछ भी नहीं है । यह कोरा मायाजाल या धोखा है । इस गोरखधन्धे में जो फंस जाते हैं, वे बुरी तरह नष्ट होते और अन्त में पछताते हैं । इसलिए भाइयों ! इस मायाजाल से निकलने कि चेष्टा करो । खूब खबरदार रहो ! इस जगत के सभी सुख भोग झूठे और प्राणी के पक्ष में अहितकर हैं । आगा हश्र ने थियेटर के गाने के तर्ज़ में क्या खूब कहा है -

 

इस जाल में सब उलझाए, दुनिया है गोरखधन्धा।

डाल रखा है सबने गले में, लोभ-मोह का फन्दा।।

ये दुनिया है बूरे का लड्डू, देख के जी ललचाये।

न खाये तो भी पछताए, खाये तो पछताए।।

फिर भी सकल जगत है अन्धा।

इस दुनिया के सुख भी झूठे, इसका प्यार भी झूठा।।

सावधान हो ! इस ठगनी ने बड़ों बड़ों को लूटा।

मूरख ! मत बन इसका बन्दा ।।

 

 यह चोला परोपकार और ईश्वर भजन के लिए है

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     आप जब इस दुनिया में आने के लिए माँ के गर्भ में थे, तब अपने परमात्मा से प्रार्थना की थी कि हे नाथ ! मुझे इस नरक कुण्ड से निकालिये; मई दुनिया में जाकर माया-मोह में न फंसकर, केवल आपकी ही परिस्तिश और उपासना तथा जगत के दुसरे प्राणियों का उपकार करूँगा; पर यहाँ आकर बचपन अपने खेल-कूद में और जवानी स्त्री के साथ ऐश-आराम में बिता दी !! क्या आपको ऐसा ही करना चाहिए था ?

 

     यह मनुष्य चोला इसलिए मिला है कि मनुष्य इस जगत में दुसरे प्राणियों की शुभचिन्तना करे और अपने कर्म-बन्धन काट कर परमपद की प्राप्ति करे; पर लोग तो इसकी चमक-दमक पर ऐसे भूल जाते हैं, कि उन्हें अपने आगे के सफर का ख्याल ही नहीं रहता । ऐसा समझने लगते हैं मानो वह सदा यहीं रहेंगे । यहाँ के लिए, जहाँ उन्हें बहुत ही थोड़े दिन रहना होता है, हज़ारों तरह के सामान करते हैं; पर आगे के लम्बे सफर के लिए कुछ नहीं करते ! यहाँ के लिए इतना आडम्बर और वहां के लिए कुछ नहीं । यह चतुराई तो अच्छी नहीं मालूम होती ।

 

उस्ताद ज़ौक़ ने कहा है -

 

क्या यह दुनिया, जिसमें कोशिश न हो दीं के वास्ते।

वास्ते वां के बी कुछ - या सब यहीं के वास्ते ।।

 

     इस दुनिया में आकर कुछ परलोक के लिए भी करना चाहिए । यह नहीं कि उधर की फ़िक्र बिलकुल न की जाय ।

 

    हमें सृष्टि के प्रत्येक पदार्थ और प्रकृति के प्रत्येक काम से परोपकार की शिक्षा मिलती है । सूर्य परोपकार के लिए ही भ्रमण करता है । चन्द्रमा परोपकार के लिए ही कष्ट सहकर जगत में शीतल चांदनी छिटकाता है । सितारे अँधेरी रात में मुसाफिरों को राह दिखने के लिए ही रात-भर टिमटिमाते हैं । ध्रुव उत्तर दिशा का ज्ञान कराने और समुद्र के अगाध और अनन्त जल में जहाज़ों को राह दिखने के लिए ही चमकता है । नदियां परोपकार के लिए ही बहती हैं । वृक्ष परोपकार के लिए ही फलते हैं । परोपकार के लिए ही शेष जी ने इस लम्बी-चौड़ी पृथ्वी का बार अपने सहस्त्र फणों पर धारण कर रखा है । । कच्छप ने परोपकार के लिए ही शेष समेत पृथ्वी का भार अपनी पीठ पर वहन कर रखा है । भगवान् ने परोपकार के लिए ही बारम्बार अवतार लेकर जन्म-मरण का कष्ट उठाया है । शिवि और दधीचि ने परोपकार के लिए ही अपनी जाने दे दी । किसी कवी ने कहा है -

 

 बिरछा फलै न आपको, नदी न अचवे नीर ।

परोपकार के कारणे, सन्तन धरो शरीर ।।

शेष शीश धारे धरा, कछु न अपनो काज ।

परहित पर सारथी रथी, वाइक बने न लाज ।।

 

     किसी जंगल में चूहों की एक कतार चली जाती थी । उनमें एक चूहा अन्धा था । उसके मुख में एक तिनका पकड़ाकर दुसरे चूहे ने उसे अपने मुंह में पकड़ रखा था । उसके सहारे अन्धा चूहा भी चला जाता था । यह जानवरों का हाल है । पशुओं में भी परोपकार-बुद्धि होती है । जो मनुष्य होकर परोपकार शून्य है, वह पशुओं से भी गया-बीता है । खासकर मनुष्य-देह तो परोपकार के लिए ही दी गयी है; अतः मनुष्य को परोपकार करना ही चाहिए ।

 

 कहा है -

 

परोपकारः कर्तव्यः प्राणैरपि धनैरपि ।

परोपकारजं पुण्यं न स्यात् क्रतुशतैरपि ।।

परोपकारशून्यस्य धिङ्मनुष्यस्य जीवितम् ।

यावन्तः पशवस्तेषां चर्माप्युपकरिष्यति ।।

आत्मार्थं जीवलोकेऽस्मिन को न जीवति मानवः ।

परं परोपकारार्थं यो जीवति स जीवति ।।

 

      धन और प्राणो से परोपकार करना चाहिए ; क्योंकि परोपकार के पुण्य के बराबर है सौ यज्ञों का भी पुण्य नहीं है । परोपकार शून्य मनुष्यों के जीने को भी धिक्कार है ! पशुओं का चमड़ा भी पराये काम आता है ।

 

अपने लिए इस लोक में कौन नहीं जीता ? पराये के लिए जो जीता है वही जीता है और तो मृतकवत हैं ।

 

    सौ यज्ञों का पुण्य भी परोपकार-जन्य पुण्य की बराबरी नहीं कर सकता

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      एक वैश्य ने अपने करोड़ों रुपये यज्ञों में खर्च कर दिए । शेष में वह निर्धन हो गया । उसकी स्त्री ने उसे सलाह दी कि राजा को अपने दो चार यज्ञों का फल देकर धन ले आओ, तो शेष जीवन सुख से कट जाय । वैश्य राज़ी हो गया । सेठानी ने उसे राह में खाने के लिए नौ रोटियां रख दिन । वह वन में पहुँच कर एक वृक्ष के नीचे ठहर गया । वह पानी ज़ोर से बरसने के कारण राह न थी । उसी पेड़ के खोंतरे में एक कुतिया ब्यायी थी । वह वर्षा के मारे नौ दिन से खुराक की तलाश में कहीं न जा सकी थी; इसलिए भूखी मरणासन्न हो रही थी । वैश्य ने उसे अपनी सब रोटियां खिला दीं और आप भूखा रह गया । वह भूखा-प्यासा राजा के पास पहुंचा और उसे अपनी राम कहानी कह सुनाई । राजा ने राज-ज्योतिषी से पूछा - "इस सेठ के कौन से यज्ञ का फल उत्तम है ?" ज्योतिषी ने कहा -"महाराज ! इसने राह में कुतिया को अपनी रोटियां खिलाकर जो उपकार किया है, उसी का फल उत्तम है; आप उसे ही खरीद लीजिये ।" वैश्य उस परोपकार के फल को देने पर राज़ी न हुआ; तब राजा ने उसे कई लक्ष मुद्रा देकर विदा किया । सारांश यह, कि संसार में परोपकार और दया के समान और पुण्य नहीं है । अतः मनुष्य को निस्वार्थ भाव से परोपकार करना चाहिए । जो मनुष्य होकर परोपकार नहीं करता उसका जन्म वृथा है ।

 

 किसी ने कहा है -

 

जातः कूर्मः स एकः पृथुभुवनभरायार्पितं येन पृष्ठं ।

श्लाघ्यं जन्म ध्रुवस्य भ्रमति मियमितं यत्र तेजस्विचक्रम् ।।

संजातव्यर्थपक्षाः परहितकरणे नोपरिष्टान्न चाधो ।

ब्रह्माण्डोदुम्बरान्तर्मशकवदपरे प्राणिनोजातनष्टाः ।।

    संसार में उस प्रसिद्ध कछुए का जन्म ही सफल है, जिसने इस विशाल पृथ्वी का भार उठाने के लिए अपनी पीठ दे रक्खी है; और इसी तरह ध्रुव का जन्म प्रशंसनीय है, जिसको बीच में लेकर सप्तर्षियों का ज्योतिमण्डल घूमता है । परोपकार करने में अशक्य मनुष्यों का जन्म इस ब्रह्माण्ड में गूलर के बीच में रहने वाले उन मच्छरों के समान वृथा है जो पंख सहित होने पर भी कुछ नहीं कर सकते ।

 

     अतः भाइयों ! स्त्री-पुत्र प्रभृति के लिए अमूल्य जीवन वृथा नाश मत करो । ये आपके कोई नहीं । ये यहीं के साथी और बड़े स्वार्थी हैं; परलोक में आपके साथ न जाएंगे; वह केवल धर्म ही आपके साथ जाएगा । मौत आपके ले जाने के लिए आना ही चाहती है । इसलिए चेत करो, आँखें खोलो, अब न सोओ । सांस सांस पर जगदीश का सुमिरन करो और निष्काम भाव से प्राणियों पर दया और परोपकार करो; क्योंकि मरने पर ये ही आपके काम आएंगे ।

 

    कविता या गाने की चीज़ों का प्रभाव मनुष्य पर बड़ी जल्दी पड़ता है; इसी से हम चार-पांच चित्ताकर्षक और मोहभञ्जन करनेवाले गाने नीचे देते हैं -

 

 

 

भजन (राजबिहाग)

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हे मन गुमानी ! चेत कर; हरि को सुमिर, हरि को सुमिर।

बीती यह जाती है उमर; हरि को सुमिर, हरि को सुमिर।।

नारी नरक की खान है; जिस पर जगत गलतान है।

इसका मज़ा इस आन है; हरि को सुमिर, हरि को सुमिर।।

सुत बन्धु माता और पिता; कुनबा कबीला आशनां।

सब सुख के साथी हैं तेरे; हरि को सुमिर, हरि को सुमिर।।

दुनिया कहौ क्या माल है; माया का फैला जाल है।

इसपर तू क्या खुशहाल है; हरि को सुमिर, हरि को सुमिर।।

कहना मेरा मान ले तू, हरगिज़ न कर अभिमान तू।

एक प्रभु को साँचा जान तू, हरि को सुमिर, हरि को सुमिर।।

 

भजन

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क्या देख दीवाना हुआ रे ।। टेक ।।

 

माया बनी सार की सूली, नारी नरक का कुआँ रे ।। १ ।।

हाड़ चाम का बना पींजरा, तामें मनुआं सूआ रे ।। २ ।।

भाई बन्धु और कुटुम्ब घनेरा, तिन में पच पच मूआ रे ।। ३ ।।

कहत कबीर सुनो भई साधो, हार चला जग जूआ रे ।। ४ ।।

 

 भजन (राग काफी)

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नर समझत नाहिं अनारी ।। टेक ।।

 

गर्भवास में उलटो लटक्यो, पायो दुःख अति भारी ।

जो प्रभु ! अबके मैं बाहर निकसो, तेरो भजन करूँ हरबारी ।

पलक नहिं देउँ बिसारी ।। १ ।।

 

 जन्म होत माया लिपटायो, भूल गया सुध सारी ।

भक्ति भाव में चित्त न राख्यो, ऐसी कुमत बिचारी ।

जन्म की कर दई ख्वारी ।। २ ।।

 

आया था कुछ लाभ करन को, गाँठ की पूँजी हारी ।

सौदा कर ले राम नाम का, आओ शरण गिरधारी ।

भरोसा जिनका है भारी ।। ३ ।।

 

श्री सतगुरु तोहिं नित समझावें, वे हैं सबके हितकारी ।

आप तरें औरन को तारें, कहै "हरिदास" पुकारी ।

उमर योंही मुफ्त गुज़ारी ।। ४ ।।

 

 ग़ज़ल

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उठ जागरे मुसाफिर ! किस नींद सो रहा है ?

जीवन अमूल्य प्यारे, क्यों मुफ्त खो रहा है ? ।।१।!

रहना न यहाँ पे होगा, दुनिया सराय फानी ।

फंसकर बदी में प्यारे, क्यों मस्त हो रहा है ? ।।२।।

ले ले धरम का तोषा, मत भूल ए दिवाने !।

नेकी की खेती कर ले, क्यों पाप बो रहा है ?।।३।।

माता पिता व भाई, होंगे न कोई साथी।

क्यों मोहरूपी बोझा, नाहक का ढो रहा है ?।।४।।

किश्ती तेरी पुरानी, हिकमत से पार कर ले ।

ए दिल ! अथाह जल में, तू क्यों डुबो रहा है ?।।५।।

 

 भजन(लावनी)

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पड़ लोभ मोह के जाल में, नर आयु क्यों खोता है ।। टेक ।।

यह जग जान रैन का सुपना, जिसको कहता अपना अपना।

भूल गया ईश्वर का जपना, फंसा हुआ धन माल में ।

क्या सुख की नींद सोता है ?।। १ ।।

 

चलै अकड़ बन छैल-छबीला, अन्त समय सब हो जाय ढीला ।

काम न आये कुटुम्ब-कबीला, भूला जिनके ख्याल में ।

कोई साथी नहिं होता है ।। २ ।।

 

 

अब क्यों सिर धुनि-धुनि पछतावे, रुदन करै और रौल मचावे ।

कुछ नहिं तेरी पार बसावे, चूका पहिली चाल में ।

क्या खड़ा-खड़ा रोटा है ?।। ३ ।।

 

समझ-सोचकर कदम उठाना, मुश्किल मनुष जन्म है पाना ।

कहै "मुरारी" जो हो दाना, भेज हर को हर हाल में ।

क्यों पाप-बीज बोता है ?।। ४ ।।

 

 महात्मा सुन्दरदास जी की भी सुनिए -

 

बैरी घर मांहि तेरे, जानत सनेही मेरे।

दारा सुत वित्त तेरे, खोंसी-खोंसी खाएंगे।

औरहु कुटुम्बी लोग, लूटें चहुँ ओरही ते।

मीठी मीठी बात कहि, तोसूं लपटायेंगे।

संकट परेगो जब, कोई नहिं तेरो तब।

अन्तहि कठिन, बाकि बेर उठि जायेगे।

"सुन्दर" कहत, तातें झूठो ही प्रपञ्च सब।

स्वप्न की नाइ, यह देखत बिलायेंगे।।१।।

घरी घरी घटत, छीजत जात छिन छिन।

भीजतही गरिजात, माटी को सो ढेल है।

मुकुति के द्वार आई, सावधान क्यूँ न होइ।

बेर-बेर चढ़त न, तिया को सो तेल है।

करि ले सुकृत, हरि भेज ले अखण्ड नर।

याहि में अन्तर पड़े, यामे ब्रह्म मेल है।

मनुष्य जनम यह, जीत भावै हार अब।

"सुन्दर" कहत यामे जूआ को सो खेल है।।२।।

 

       जिनको तू अपने स्नेही मित्र और स्त्री-पुत्र, माता-पिता, भाई-बहन आदि समझता है, वे तेरे घर में तेरे ही दुश्मन हैं । वास्तव में वे सब तेरे शत्रु हैं  पर मोह के कारण वे तुझे वे मित्र से मालूम होते हैं । स्त्री पुत्र आदि तुझसे तेरा धन छीन छीन कर खाएंगे । और कुटुम्बी लोग भी तुझे चारों और से लूटेंगे और मीठी मीठी बातें बनाकर तेरे लिपटेंगे । तेरे लिए वे धन-दौलत, जीव-जान और सर्वस्व तक स्वाहा कर देने को डींगें मारेंगे ।, लेकिन जब तुझ पर संकट पड़ेगा, काल तुझ पर आक्रमण करेगा, तब तेरा कोई न होगा । अन्तकाल ही कठिन है और उस समय सब तुझे छोड़ छोड़ कर दूर हो जाएंगे । "सुन्दरदास" कहते हैं, इसलिए यह सब प्रपञ्च झूठा है; कोई किसी का साथी नहीं है । मरने पर सब स्वप्न की माया की तरह बिलाय जाएंगे ।

 

    घड़ी घड़ी उम्र घटती है और क्षण क्षण काया छीजती है । जिस तरह मिटटी का ढेला भीजते ही गल जाता है; उसी तरह यह काया गल जाती है । अरे मूढ़ ! मुक्ति के द्वार पर आकर, होशियार क्यूँ नहीं होता ? मनुष्य चोला पाकर, आवागमन से पीछा क्यूँ नहीं छुड़ाता ? यह चोला तुझे उसी तरह बारम्बार नहीं मिलेगा; जिस तरह त्रिया का तेल बार बार नहीं चढ़ता । तू पुण्य कर ले और अखण्ड अविनाशी ब्रह्म को भज ले। इसमें अन्तर पड़ने से अन्तर पड़ता है और इसमें लग जाने से जीव ब्रह्म में मिल जाता है । इस मनुष्य जन्म का मिलना जुए का सा खेल है । अब चाहे जीत या हार; अब बाज़ी मार ले चाहे खो दे ।

 

 दोहा

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रोग विरोग विपत्ति बहु, देह आयु आधीन।

निडर विधाता जग रच्यो, महा अथिरता लीन।।

 

 

 

कृच्छ्रेणामेध्यमध्ये नियमिततनुभिः स्थीयते गर्भमध्ये

कान्ताविश्लेषदुःखव्यतिकरविषमे यौवने विप्रयोगः ।

वामाक्षीणामवज्ञाविहसितवसतिर्वृद्धभावोऽप्यसाधुः

संसारे रे मनुष्या वदत यदि सुखं स्वल्पमप्यस्ति किंचित् ।। १०६ ।।

 

अर्थ:

 

    प्रथमावस्था में प्राणी गर्भावस्था में पड़ा रहता है । वहां वह मल-मूत्र राध लोहू प्रभृति गन्दी चीज़ों के बीच में पड़ा हुआ, बड़े बड़े कष्ट भोगता और हिल भी नहीं सकता । दूसरी अवस्था - जवानी में, वह अपनी प्यारी स्त्री की जुदाई के दुःख सहन करता है । तीसरी अवस्था - बुढ़ापे में, वह स्त्रियों से अनादृत होकर दुःख में पड़ा रहता है । हे मनुष्यों ! इस संसार में ज़रा सा भी सुख हो तो बताओ ।

 

 

गर्भावस्था

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    माता के खून और पिता के वीर्य से, गर्भाशय में, प्राणी की देह बनती है । चार मास बाद, उस देह में जीव आ जाता है । उस समय वह घोर अन्धकारपूर्ण कैदखाने में हाँथ-पाँव बंधा हुआ, उल्टा लटका रहता है । मुंह पर झिल्ली होने के कारण, न बोल सकता है और न रो सकता है,

 

    जिस स्थान में वह नौ मास तक रहता है, वह स्थान - गर्भाशय, मल, मूत्र राध, खून, पीव और कफ प्रभृति महागंदे पदार्थों से भरा रहता है । वह जगह गन्दगी होने के सिवा इतनी तंग भी है कि वहां वह अच्छी तरह फैल-पसर कर रह भी नहीं सकता । उसी मैली और तंग जगह में जो साक्षात् नर्क है, वह बड़े ही कष्ट से नौ महीने काटता है । नर्क-कुण्ड के कष्टों से दुखी होकर, वह परमात्मा को याद करता है और उससे वादा करता है कि इस बार मैं जन्म लूँगा तो और कुछ न करके, केवल आपकी उपासना ही करूँगा । खैर, भगवान् दया करके उसे बाहर निकलते हैं; पर बाहर आते ही वह, माया-मोह में फंसकर, ईश्वर को भूल जाता है ।

 

 बालावस्था

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    बालावस्था भी परमदुख की मूल है । इस अवस्था में प्राणी पराधीन और अतीव दीन रहता है । अशक्तता, मूर्खता, चपलता, दीनता और दुःख-सन्ताप - ये विकार इस अवस्था में आ जाते हैं । बालक एक पदार्थ की ओर दौड़ता, दुसरे को पकड़ता और तीसरे की इच्छा करता है । वह बड़ी बड़ी इच्छाएं करता है, पर उसकी इच्छाएं पूरी नहीं होती । वह सदा तृष्णा के फेर में पड़ा रहता और क्षण-क्षण में भयभीत होता है । उसे कभी शान्ति प्राप्त नहीं होती । जिस तरह कदलीवन का हाथी, सांकलों में बंधा हुआ, दीन हो जाता है; उसी तरह यह चैतन्य पुरुष, बालावस्था रुपी सांकलों में, महादीन हो जाता है । जिस तरह क्षण क्षण में द्वार की ओर दौड़ने वाले कुत्ते का अपमान होता है; उसी तरह बालक का अनादर होता है । उसे सदा माता-पिता और बांधवों का भय रहता है । यहाँ तक की अपने से बड़े बालकों और पशु-पक्षियों से भी उसे भीत रहना पड़ता है । स्त्री के नयन और नदी के प्रवाह से भी बालक और मन की चञ्चलता अधिक है । सच तो यह है कि बालक और मन कि चञ्चलता समान है; और सब की चञ्चलता, इन दोनों की चञ्चलता से नीचे है । जिस तरह वेश्या का मन एक पुरुष में नहीं ठहरता; उसी तरह बालक का मन भी एक पदार्थ में नहीं ठहरता ।

 

 

   इस काम या पदार्थ से मेरा अनिष्ट होगा या कल्याण, इतना भी ज्ञान बालक को नहीं होता । जिस तरह ज्येष्ठ आषाढ़ में पृथ्वी तपती रहती है; उसी तरह सुख-दुःख और इच्छा प्रभृति दोषों से बालक जलता रहता है ।

 

    बालक में अशक्तता और पराधीनता इतनी होती है कि, वह आप न उठ सकता है, न बैठ सकता है, न चल सकता है और न खा सकता है । कोई उठा लेता है तो गोद में आ जाता है; नहीं तो अपने मल-मूत्र में ही पड़ा रोया करता है । कोई दूध पीला देता है तो पी लेता है; नहीं तो रोता रहता है । यह शिशु अवस्था है । इस अवस्था को पार कर वह बालकावस्था में आता है;  तब पढ़ने-लिखने का भार उसके सिर पर आता है । उस समय बालक गुरु से इस तरह डरता है; जिस तरह कोई यमदूत से डरता है । ज़रा भी दंगा करने या न पढ़ने से माता-पिता और गुरु प्रभृति की ताड़नाएँ सहनी पड़ती हैं । अगर उसे कुछ रोग हो जाता है, तो वह साफ़ साफ़ कह नहीं सकता और उसे सह भी नहीं सकता; भीतर ही भीतर सहता और दुःख पाता है । यह अवस्था महामूर्खतापूर्ण है । बालक कभी कहता है कि मुझे बर्फ का टुकड़ा भून दो; कभी कहता है कि आकाश का चाँद उतार दो । भोला इतना होता है कि, थाली में जल भर कर चाँद दिखाने और दूध की जगह आटा घोल कर दे देने से भी राज़ी हो जाता है । इस अवस्था में दुःख ही दुःख हैं, सुख और स्वाधीनता का नाम ही नहीं । परमात्मा यह अवस्था किसी को न दे ।

 

 

युवावस्था

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    बालकावस्था के बाद युवावस्था आती है । यद्यपि ये अवस्था नीचे से ऊपर चढ़ती है; पर यह और भी बुरी है । १५।१६ साल की अवस्था में शादी कर दी जाती है । इसे 'शादी खाने आबादी' कहते हैं, पर यह है बर्बादी । बेचारे के पैरों में ऐसी बेड़ियाँ डाल दी जाती हैं, कि उसे जन्म भर आज़ादी नहीं मिलती । लोहे और काठ की बेड़ियों से चाहे मनुष्य को छुटकारा मिल जाये; पर स्त्री रुपी बेड़ियों से जीवन-भर छुटकारा नहीं मिलता । अब तक पढ़ने लिखने की चिन्ता और गुरु प्रभृति के भय से ही दुखी रहना पड़ता था; पर अब और फ़िक्र - चिंताएं सिर पर सवार होती हैं । वही माता-पिता, जिन्होंने शादी शादी कहकर पैरों में स्त्रीरुपी बेड़ियाँ पहना दी थीं, उठती जवानी के पट्ठे को को भून-भूनकर खाते हैं । कहते हैं - "हमने तुझे पढ़ा लिखा दिया, तेरा शादी-ब्याह कर दिया; हमारा कर्तव्य पूरा हुआ; अब तू कमा । अगर नहीं कमाता है तो अपनी स्त्री को लेकर अलग हो जा ।" इस समय बेचारे की जान पर बन आती है । नौकरी या रोज़गार मिलना कोई खेल नहीं; इसलिए बेचारा भीतर ही भीतर जल-जलकर ख़ाक होने लगता है । अगर धनी घर में जन्म होता है, तो ये कष्ट भोगने नहीं पड़ते । उस अवस्था में और ही नाश के सामान आ इकट्ठे होते हैं । धन, यौवन और प्रभुता इनमें से प्रत्येक अनर्थ की जड़ है । जहाँ ये सब इकट्ठे हो जाएँ, वहां का तो कहना ही क्या ? जिस तरह धन पाने की आशा से, निर्धन लोग धनी को घेरे रहते हैं; उसी तरह इस अवस्था में, सब दोष आकर युवक को घेर लेते हैं । युवावस्था रुपी रात्रि को देखकर काम, क्रोध, लोभ, मोह और अहंकार, "आत्मज्ञान रुपी धन" को लूटते हैं; इसलिए चित्त शांत नहीं रहता और विषयों की ओर दौड़ता है । विषयों का संयोग होने से तृष्णा बढ़ती है । इस तृष्णा राक्षसी के मारे प्राणी जन्म-जन्मांतर में दुःख भोगता है ।

 

     इस अवस्था में विषय भोगों की ओर मन ज़ियादा रहता है । स्त्री अत्यधिक प्यारी लगती है । नित नई स्त्रियों पर मन चला करता है । अगर कोई मित्र आता है, तो नवयुवक उससे कहता है - "अरे यार ! वह नाज़नी कैसी खूबसूरत है ! उसने तो मेरा दिल ही ले लिया । उसके दीदार बिना मुझे क्षण भर चैन नहीं । वह कैसे मिले ?" बस; ऐसी ही बातें अच्छी लगती हैं । अगर इच्छित स्त्री नहीं मिलती, तो मन में क्रोध होता है; क्रोध से मोह होता है और मोह से बुद्धि नष्ट हो जाती है । बुद्धि के नष्ट होने से, मनुष्य बिना पतवार की नाव की तरह से नष्ट हो जाता है । समुद्र में अगाध जल भरा है । उसमें अनन्त तरंगे उठती हैं । इतना विशाल महासागर, ईश्वर आज्ञा के विरुद्ध, मर्यादा को नहीं मेटता; पर युवावस्था शास्त्र और ईश्वर दोनों की आज्ञाओं को मेट देती है । जिस तरह अँधेरे में पदार्थों का ज्ञान नहीं रहता; उसी तरह युवावस्था में शुभ-अशुभ या भले-बुरे का ज्ञान नहीं रहता । जवानी दीवानी में लोक-लाज और हया-शर्म सब हवा हो जाती हैं ।

 

     लिख चुके हैं, युवा अवस्था में स्त्री सबसे अधिक प्यारी लगती है । अगर किसी तरह स्त्री से वियोग हो जाता है, तो पुरुष उसकी वियोगग्नि में इस तरह जलता है, जिस तरह दावाग्नि से वन के वृक्ष जलते हैं । युवावस्था में बड़े से बड़े बुद्धिमानों की बुद्धि उसी तरह मलिन हो जाती है; जिस तरह वर्षाकाल में निर्मल नदी मलिन हो जाती है । इस अवस्था में "वैराग्य और संतोष" प्रभृति गुणों का अभाव हो जाता है ।

 

     मर्यादा पुरुषोत्तम रामचन्द्र जी ने मुनि वसिष्ठ से कहा - "हे मुनिवर ! जिस महासागर में अनन्त और अगाध जलराशि है तथा लाखों करोड़ों बड़े बड़े मगरमच्छ और घड़ियाल हैं, उसका पार करना महाकठिन है; पर मैं उसका पार करना उतना मुश्किल नहीं समझता, जितना की मैं इस युवावस्था का पार करना कठिन समझता हूँ । युवावस्था विषयों की ओर ले जाने वाली, महा अनर्थकारी और लोक-परलोक नशानेवाली है । जिस तरह आकाश में वन का होना आश्चचर्य की बात है; उसी तरह युवावस्था में सब सुखों के मूल वैराग्य, विचार, सन्तोष और शान्ति का होना आश्चर्य है ।"

 

     महाराजा रामचन्द्र एक और जगह कहते हैं - "युवावस्था ! मुझ पर दया करके तू न आना ! मुझे तेरी जरुरत नहीं, क्योंकि मेरी समझ में तेरा आना दुखों का कारण है । जिस तरह पुत्र के मरने का सङ्कट पिता के सुख के लिए नहीं होता; उसी तरह तेरा आना भी सुख के लिए नहीं होता ।"

 

 

वृद्धावस्था

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    यह अवस्था, पहली दो अवस्थाओं से भी बुरी है । बाल्यावस्था महाजड़ और अशक्त है; युवावस्था अनर्थ और पापों का मूल है तथा वृद्धावस्था में शरीर जर्जर और बुद्धि क्षीण हो जाती है, खूब निकल आता है, दांत गिर पड़ते हैं, बाल सफ़ेद हो जाते हैं, बल काम हो जाता है, आँखों से काम सूझता है या सूझता ही नहीं, कानो से सुनाई नहीं देता, पैरों से चला नहीं जाता, लकड़ी तक-तक कर चलना होता है, कफ और खांसी अपना दौरा-दौरा जमा लेते हैं, हर समय सांस फूलने लगता है । बहुत क्या - सारे रोग, शत्रुओं की तरह मौका पाकर, इस अवस्था में चढ़ाई कर देते हैं । स्त्री-पुत्रादि सभी नाते-रिश्तेदार बूढ़े को उसी तरह त्याग देते हैं; जिस तरह पके फल को वृक्ष और निकम्मे बूढ़े बैल को बैलवाले त्याग देता है ।

 

 

 

     ज़रा अवस्था या बुढ़ापा मृत्यु का पेशखीमा है । जिस तरह सांझ होने से रात निकट आती है; उसी तरह बुढ़ापे के आने से मौत निकट आ जाती है । संध्या के आने पर जो दिन की इच्छा करते हैं और बुढ़ापे के आने पर जो जीने की अभिलाषा रखते हैं, वे दोनों ही मूर्ख हैं । जिस तरह बिल्ली, चूहे को खा जाने की घात में रहती है और चाहती है कि चूहा आवे तो खाऊं; उसी तरह मौत देखती रहती है कि बुढ़ापा आवे तो मैं इसे ग्रहण करूँ । ऐसा जान पड़ता है मानो वृद्धावस्था काल की सखी है । वह आकर रोगरूपी आग से शरीर के मांस को जलाती या पकाती और उसका स्वामी - काल आकर प्राणी को भक्षण कर जाता है । अशक्तता, अङ्गपीड़ा और खांसी - ये तीनो काल की पटरानियां हैं । जिस तरह वन में बाघिन आकर पहले शब्द करती या गरजती और मृग का नाश करती है; उसी तरह शरीर रुपी वन में खांसी रुपी बाघिन आकर बल-रुपी मृग का नाश करती है । जिस तरह चन्द्रमा के उदय होने से कमलिनी खिल उठती है; उसी तरह बुढ़ापे के आने से मृत्यु प्रसन्न होती है । जरा बड़ी जबरदस्त है । इसने बड़े बड़े शत्रुहन्ताओं के मान-मर्दन कर दिए हैं । यह शरीर को आग की तरह जलाती है । जिस तरह वृक्ष में आग लगती है, तब धुंआ निकलता है; उसी तरह शरीर वृक्ष में जरा-रुपी अग्नि के लगने से तृष्णा-रुपी धुंआ निकलता है । जरा-रुपी जञ्जीर में बंधने से मनुष्य दीन हो जाता है, अंग शिथिल हो जाते हैं, बल क्षीण हो जाता है, इन्द्रियां निर्बल हो जाती हैं और शरीर जर्जर हो जाता है, पर तृष्णा उलटी बलवती हो जाती है । इस अवस्था में घोर दुःख हैं, सुख का तो लेश भी नहीं ।

 

    जिस समय पुरुष बूढा हो जाता है, उसमें कमाने की शक्ति नहीं रहती; तब सभी उसे पागल समझकर उसकी हंसी करते और उसके पुत्र-पौत्रादि बुरी नज़र से देखते हैं । यहाँ तक की ख़ास उसकी अर्द्धांगी उससे घृणा करने लगती है । पुत्र उसे कोई चीज़ नहीं समझते और लोग भी उसे वृथा की बला समझते हैं । पुत्र और पुत्र-वधुएं उसे एक टूटी सी खाट पर, पौली में डाल देते हैं और उसके थूकने को एक ठीकरा रख देते हैं । आप समय पर अच्छे से अच्छा खाना खाते हैं; पर समय-बे-समय, जब याद आ जाती है, बचा खुचा बासी कूसी खाना, एक पुरानी और फूटी सी थाली या ठीकरे में रख कर दे आते हैं । जब उसका थूक-खखार या मल-मूत्र उठाते हैं - "अब मर क्यों नहीं जाते? जवान-जवान मरे जाते हैं, पर तुमको मौत नहीं आती !" प्रभृति । यह दुर्गति बुढ़ापे में होती है ।

 

     अगर घर गृहस्थी में सौभाग्य से कोई दुःख नहीं होता, घरवाले स्त्री-पुत्र आदि अच्छे मिल जाते हैं, घर में परमात्मा की दया से सुखैश्वर्य के सभी सामान मौजूद होते हैं; तो दूसरों का भला न चेतने वाले, दूसरों को अच्छी अवस्था में देखकर कुढ़ने वाले ही वाले तंग करते हैं । वह अपनी ओर से उसका सर्वनाश करने में कोई बात न उठा रखते हैं । यद्यपि ऐसी बातों से उन्हें कोई लाभ नहीं होता; तो भी वो बिल्ली की सी करतूतों से बाज़ नहीं आते; हरदम नाक में दम किये रहते हैं । मतलब यह कि, संसार में दुखों की ही अधिकता है । यहाँ सुख है ही नहीं । अगर है तो उसके परिणाम में कोई लाभ नहीं; वरन हानि है ।

 

 

उस्ताद ज़ौक़ कहते हैं -

 

राहतो रंज ज़माने में हैं दोनों, लेकिन।

याँ अगर एक को राहत है, तो है चार को रंज ।।

 

    निस्संदेह संसार में सुख और दुःख दोनों ही हैं - पर बहुलता दुःख की ही है, क्योंकि चार दुखियों में मुश्किल से एक सुखी मिलता है ।

 

 

 

उस्ताद ज़ौक़ ही एक जगह और कहते हैं -

 

हलावते शरमो पासदारी, जहाँ में है ज़ौक़ रंजोख्वारी ।

मज़े से गुज़री, अगर गुज़ारी किसी ने बे नामोनंग होकर ।।

 

     संसार से दूर रहना अच्छा; यहाँ के संबंधों की जड़ में दुःख और क्लेश भरा हुआ है । जिसने अपनी ज़िन्दगी चुपचाप गुज़ार दी; सच तो ये है, उसने अच्छी गुज़ार दी ।

 

    सारांश यह कि सभी महात्माओं ने संसार के दुखों का अनुभव करके औरों को चेतावनी दी है, कि इस मिथ्या जगत की माया में न भूलो; इससे दिल मत लगाओ, किन्तु इसके बनानेवाले के साथ दिल लगाओ । इसके साथ दिल लगाने से तुम्हारा बुरा और उसके साथ दिल लगाने से भला है ।

 

 

 

गोस्वामी तुलसीदास ने कहा है -

 

सलिल युक्त शोणित समुझ, पल अरु अस्थि समेत ।

बाल कुमार युवा जरा, है सु समुझ करु चेत ।।

ऐसेही गति अवसान की, तुलसी जानत हेत ।

ताते यह गति जानि जिय, अविरल हरि चित चेत ।।

 

     स्त्री की रज और पुरुष के वीर्य से तुम्हारे शरीर के खून, मांस और हड्डियां बनी । फिर तुम गर्भाशय से बाहर आये । फिर बालक अवस्था में रहे; उसके बाद युवावस्था आयी; फिर बुढ़ापा आया । फिर तुम मरे और कर्मफल भोगने को फिर जन्म लिया । इस तरह लोक-वासना के कारण तुम्हें बारम्बार जन्मना और मरना पड़ता है । इसमें कैसे कैसे कष्ट उठाने पड़ते हैं, इन बातों को याद करते रहो और कष्टों से बचने के लिए सावधान होकर परमात्मा से प्रीति करो; तभी तुम्हारा भला होगा । तुम्हारे सारे नातेदार मतलबी हैं; केवल एक वह सच्चा सहायक और रक्षक है । यही सब विषय नीचे के भजनो में कैसी खूबी से दिखाए हैं -

 

 

 

भजन (राग धनाश्री)

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हरि बिन और न कोई अपना, हरि बिन और न कोई रे।

मात पिता सुत बन्धु कुटुम सब, स्वारथ के ही होई रे ।।

या काय को भोग बहुत दे, मरदन कर कर सोई रे ।

सो भी छूटत नैक न खसकी, संग न चाली धोई रे ।।

घर की नारि बहुत ही प्यारी, तन में नाहीं दोई रे ।

जीवट कहती संग चलूंगी, डरपन लागी सोई रे ।।

जो कहिये यह द्रव्य आपनो, जिन उज्जल मति खोई रे ।

आवत कष्ट राखत रखवारी, चालत प्राण ले जोई रे ।।

इस जग में कोई हितू न दीखे, मैं समझों तोई रे ।

चरणदास-सुखदेव कहैं, ये सुन लीजो सब कोई रे ।।

 

 भजन (राग सोरठ)

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सुध राखो वा दिन की कछु तुम, सुध राखो वा दिन की रे ।

जादिन तेरी यह देह छूटैगी, ठौर बसौगे बन की रे ।।

जिनके संग बहुत सुख कीने, तेरो मुख ढँक होएंगे न्यारे रे ।

जम के त्रास होएं बहु भाँती, कौन छुटावनहारे रे ।।

देहल लों तेरी नारि चलेगी, बड़ी पौल लो माई रे ।

मरघट लों सब बीर भतीजे, हंस अकेला जाए रे ।।

द्रव्य पड़ें और महल खड़े रहे, पूत रहैं घर माहीं रे ।

जिनके काज पचैं दिन राती, सो संग चालत नाहीं रे ।।

देव पितर तेरे काम न आवें, जिनकी सेवा लावे रे ।

चरणदास-सुखदेव कहत हैं, हरि बिन मुक्ति न पावे रे ।।

 

     परमात्मा की भक्ति करो तो ऐसी करो कि परमात्मा के सिवा अन्य किसी भी देवी-देवता या संसारी पदार्थ को कुछ समझो ही नहीं; यानि उस जगदीश के सिवा सबको झूठे, निकम्मे और नाशमान समझो । केवल उसके प्रेम में गर्क हो जाओ और उससे प्रेम के बदले में कुछ मांगो नहीं; तब देखो, क्या आनन्द आता है !

 

 कबीर साहब कहते हैं -

 

सुमिरन से मन लाइए, जैसे दीप पतंग।

प्रान तजै छीन एक में, जरत न मोरे अंग।।

 

 इसी बात को उस्ताद ज़ौक़ ने किस तरह कहा है -

 

कहा पतंग ने यह, दारे शमा पर चढ़ कर ।

अजब मज़ा है, जो मर ले किसी के सर चढ़ कर ।।

 

    ऐसी प्रीति को ही प्रीति कहते हैं । दीपक और पतंग, मछली और जल, नाद और कुरङ्ग, चातक और मेघ - इनकी प्रीति आदर्श प्रीति है । ऐसी प्रीति से ही सच्ची सिद्धि मिलती है - ऐसी प्रीति वालों को ही परमात्मा के दर्शन होते हैं ।

 

 दोहा

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सह्यो गर्भदुख जन्मदुःख, जौवन त्रिया वियोग।

वृद्ध भये सबहिन तज्यो, जगत किधौं यह रोग।।

 

 

आयुर्वर्षशतं नृणां परिमितं रात्रौ तदर्धं गतं

तस्यार्धस्य परस्य चार्धमपरं बालत्ववृद्धत्वयोः ।

शेषं व्याधिवियोगदुःखसहितं सेवादिभिर्नीयते

जीवे वारितरङ्गचञ्चलतरे सौख्यं कुतः प्राणिनाम् ।। १०७ ।।

 

अर्थ:

 

    मनुष्य की उम्र औसत सौ बरस की मानी गयी है । उसमें से आधी तो रात में सोने में गुज़र जाती है; बाकी में एक भाग बचपन में और एक भाग बुढ़ापे में चला जाता है । शेष में जो एक भाग बचता है - वह रोग, वियोग, पराई चाकरी, शोक और हानि प्रभृति नाना प्रकार के क्लेशों में बीत जाता है । जल तरंगवत चञ्चल जीवन में प्राणियों के लिए सुख कहाँ है ?

 

    खुलासा: शास्त्रों में मनुष्य की आयु सौ बरस की मानी गयी है । उसमें से पचास बरस; यानि आधी आयु तो रात के समय सोने में बीत जाती है । अब रहे पचास बरस; उनके तीन भाग कीजिये । पहले १७ साल बचपन की अज्ञानावस्था और पराधीनता में बीत जाते हैं । दुसरे १७ साल वृद्धावस्था में चले जाते हैं और शेष १६ साल नाना प्रकार के रोग, शोक, वियोग, हानि-लाभ की चिन्ता और दूसरों से लड़ने-झगड़ने प्रभृतुय में बीत जाते हैं ।

 

 

दुःखपूर्ण जीवन में कहीं सुख नहीं

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     यद्यपि इस जीवन में ज़रा भी सुख नहीं है, क्षण-भर भी शान्ति नहीं है; तो भी मनुष्य का ऐसा मोह है कि वह मरना नहीं चाहता; मौत का नाम सुनते ही काँप उठता है । अगर इस जीवन में सुख होता, तो न जाने क्या होता ? घोर कष्ट और दुखों में भी यदि मनुष्य मरता है तो कहता है -" हम कुछ न जिए, अगर और कुछ दिन जीते तो ................."

 

 किसी कवी ने कहा है -

 

हो उम्र खिज्र भी, तो कहेंगे बवक्ते मर्ग।

हम क्या रहे यहाँ, अभी आये अभी चले।।

 

 

       चाहे हज़ारों बरस की उम्र हो जाए, मरते समय यही कहेंगे, इस संसार में कुछ भी न रहे, अभी आये अभी जाते हैं । जीने की अभिलाषा बनी ही रहती है ।

 

 घृणित जीवन से भी क्यों घृणा नहीं होती?

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     मनुष्य जीवन में दुःख ही दुःख हैं; फिर भी मनुष्य इस घृणित जीवन से सन्तुष्ट क्यों रहता है ? इससे उसे घृणा क्यों नहीं होती ? जिस तरह मैले से भंगी को घृणा नहीं होती; उसी तरह जिनके स्वाभाव में मनुष्य जीवन के दुःख समा गए हैं, उन्हें इस मलिन और घृणित जीवन - दु:खपूर्ण जीवन से घृणा नहीं होती । मैले का कीड़ा मैले में ही सुखी रहता है; मैले से निकलने में उसे दुःख होता है । यही हाल उनका भी है, जिनके अन्तः कारन मलिन हैं । वे मलिन गृहस्थाश्रम में ही सही हैं ।

 

 

मनुष्य का कर्तव्य क्या है ?

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    मनुष्य-जन्म बड़ा दुर्लभ है । यह ८४ लाख योनियां भोगने के बाद मिलता है । अगर मनुष्य इस मानव जीवन में भी चूक जाता है - आवागमन - जन्म-मरण के फन्दे से छूटने का उपाय नहीं करता, तो पछताता और रोता है; पर यह सुअवसर उसे फिर जल्दी नहीं मिलता । इस पर एक दृष्टान्त है -

 

अवसर चुके पछताना होता है

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    किसी राजा के ३६० रानियां थीं । राजा विदेश गया था । जिस दिन वह लौटकर आया उस दिन ३६०वे नम्बर की रानी के यहाँ उसके जाने की बारी थी । रानी ने दासियों से कह दिया कि मैं सोती हूँ; जब राजाजी आवें, मुझे जगा देना । रात को राजा आया; किन्तु दासियों ने भय के मारे रानी को न जगाया । सवेरे राजा चला गया । रानी ने उठकर पुछा - "क्या राजाजी आये थे ?" दसियों ने कहा -"हाँ, आये थे । हम लोग उनके भय के मारे आपको जगा न सकीं ।" रानी बहुत रोई, पछताई । उसे ३६० दिन तक फिर राह देखनी पड़ी । बस, यही हाल उनका है, जो इस मनुष्य जन्म को वृथा गवां देते हैं । इसमें भगवत्भक्ति या उपासना नहीं करते । मर जाने पर, ८४ लाख योनियों को भोगकर, फिर कहीं ऐसा अवसर हाथ आता है । अतः मनुष्य को सब जञ्जाल छोड़कर, एकमात्र भगवत्भक्ति में लग्न चाहिए; एक क्षण भी व्यर्थ न गवाना चाहिए । दम निकले तो जगदीश्वर की याद करता हुआ ही निकले । इसी में कल्याण है । सांस का भरोसा क्या ? आया आया, न आया न आया ।

 

 "गुरु-कौमुदी" में कहा है -

 

अरे भेज हरेर्नाम, क्षेमधाम क्षणे क्षणे ।

बहिस्सरति निःश्वासे विश्वासः कः प्रवर्त्तते ।।

 

     अरे जीव ! प्रत्येक क्षण हरि का नाम भज । हरि का नाम कल्याण धाम है । जो सांस बाहर निकल जाता है, उसका क्या भरोसा ? आवे, न आवे ।

 

 महाभारत में आयु की क्षणभंगुरता पर एक इतिहास लिखा है -

 

     एक ब्राह्मण राह भूलकर किसी भयानक वन में जा निकला । वहां हाथी और सर्प प्रभृति भयानक हिंसक पशु घूम रहे थे । एक पिशाचिनी हाथ में फांसी लिए सामने आ रही थी । उन्हें देखकर वह डर के मारे रक्षा का स्थान खोजने लगा । उसने एक अन्धा कुआँ देखा, जिसमें घास छा रही थी तथा अनेक प्रकार की बेलें लगी थी । वह एक बेल को पकड़ कर औंधा सिर किये, कुँए में लटक गया । थोड़ी देर बाद उसने नीचे की ओर देखा तो एक बड़ा भारी सर्प मुंह फाड़े नज़र आया; ऊपर की ओर देखा तो एक मस्त हाथी खड़ा दीखा । उस हाथी के छः मुख थे । उसका शरीर आधा सफ़ेद और आधा काला था । जिस बेल को वह ब्राह्मण पकडे हुए था, उसको वह हाथी खा रहा था और सफ़ेद और काले दो चूहे चूहे उस बेल की जड़ को काट रहे थे ।

 

      इसका मतलब यों है - वह ब्राह्मण जीव है । सघन वन यह संसार है । काम क्रोध आदि भयानक जीव, इस जीव को नष्ट करने को घूम रहे हैं । स्त्री रुपी पिशाचिनी, भोग-रुपी पाश लेकर, इस जीव के फंसने के लिए फिरती है । कुँए में जो बेल लटक रही है, वही आयु है । उसी को पकड़ कर यह जीव लटक रहा है । कुँए में जो कालसर्प है, वह इस जीव का काल है, वह अपनी घात देख रहा है; उधर रात-दिन रुपी चूहे इस आयु रुपी बेल की जड़ काट रहे हैं । वह हाथी वर्ष है । उसके छः मुख, छः ऋतुएं हैं । कृष्ण और शुक्ल दो पक्ष उस हाथी के दो वर्ण या रंग हैं । मनुष्य इस तरह मौत के मुंह में है । हर क्षण मौत उसे निगलती जा रही है; पर आश्चर्य है कि इस आफत में भी - मृत्यु-मुख में पड़ा हुआ भी - वह अपने को सुखी समझता है और इस नितान्त भयपूर्ण जीवन से सन्तुष्ट है ।

 

 बीत गयी सो बात गयी, आगे की सुधि लो

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    बहुत से लोग कहा करते हैं कि हमने सारी उम्र परपीड़न या पापकर्मों में खोयी; भगवान् को कभी भूल से भी याद न किया; अब हम क्या कर सकते हैं ? यह कहना हमारी भूल है । जो समय बीत गया, वह तो लौट कर आवेगा नहीं; पर जो समय हाथ में है, उसे तो सुकर्म और ईश्वर कि याद में लगाना चाहिए । यदि बाकी उम्र भी व्यर्थ के झंझटों में गवाईं जाएगी, तो अन्तकाल में भारी पछतावा होगा ।

 

 

किसी कवी ने ठीक कहा है -

 

पुत्र कलत्र सुमित्र चरित्र,

धरा धन धाम है बन्धन जीको।

बारहिं बार विषय फल खात,

अघात न जात सुधारस फीको।

आन औसान तजो अभिमान,

कही सुन, नाम भजो सिय-पीको।

पाय परमपद हाथ सों जात,

गई सो गई अब राख रही को।

 

 

 

एक नट की उपदेशप्रद कहानी

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     एक राजा बड़ा ही कञ्जूस था । उसने प्रचुर धन-सञ्चय किया था; पर उससे न तो वह अपने पुत्र को सुख भोगने देता था और न खर्च के डर से अपनी कन्या की शादी ही करता था । एक दिन एक नट-नटी उसके दरबार में आये और राजा से तमाशा देखने की प्रार्थना की । राजा ने कहा -"अच्छा अमुक दिन देखा जाएगा ।" नटनी बार बार याद दिलाती रही और राजा बार बार टालता रहा । अन्त में नटनी ने वज़ीर से कहा - "अगर राजा साहब तमाशा न देखें, तो हम चले जाएँ; हमें खर्च खाते बहुत दिन हो गए ।" यह सुन वज़ीर ने राजा से कहा - "महाराज ! आप तमाशा देख लीजिये । हम लोग चन्दा करके कुछ नट को दे देंगे । अगर आप तमाशा न देखेंगे तो बड़ी बदनामी होगी ।" राजा इस बात पर राज़ी हो गया । तमाशा हुआ । तमाशा होते होते जब दो घडी रात रह गयी और राजा ने कुछ भी इनाम न दिया, तब नटनी ने नट से कहा -

 

रात घडी भर रह गयी, थाके पिंजर आये ।

कह नटनी सुन मालदेव, मधुरा ताल बजाय ।।

 

 नटनी की बात सुकर नट ने कहा -

 

बहुत गयी थोड़ी रही, थोड़ी भी अब जाय।

कहे नाट सुन नायिका, ताल में भंग न पाय।।

 

     एक तपस्वी भी वहां तमाशा देख रहा था । उसने ये सवाल जवाब सुनते ही नट को अपना कम्बल दे दिया, राजा के लड़के ने अपनी हीरों की जडाऊँ कड़ों की जोड़ी दे दी और राजकन्या ने अपने गले के हीरों का हार दे दिया ।

 

    राजा यह सब देखकर चकित हो गया । उसने सबसे पहले तपस्वी से पूछा - "तुम्हारे पास यही एक कम्बल था । तुमने क्या समझकर उसे दे दिया ?" तपस्वी ने कहा - "आपके ऐश्वर्य को देखकर मेरे मन में भोगों की वासना उठ खड़ी हुई थी; पर नट के दोहे से मेरा विचार बदल गया । मैंने उससे यह उपदेश ग्रहण किया, कि बहुत सी आयु तो तप में बीत गयी; अब जो थोड़ी सी रह गयी है, उसे भोगों की वासना में क्यों ख़राब करूँ ? मुझे नट से उपदेश मिला, इससे मैंने अपना एकमात्र कम्बल - अपना सर्वस्व उसे दे दिया । इसके बाद राजा ने पुत्र से पूछा - "तुमने क्या समझकर अपने कड़ों की बेशकीमती जोड़ी उसे दे दी ?" राजपुत्र ने कहा - "मैं बड़ा दुखी रहता हूँ, क्योंकि आप मुझे कुछ भी खर्च करने नहीं देते । दुखी होकर मैंने यह विचार कर रखा था कि किसी दिन राजा को विष देकर मरवा दूंगा; पर इस नट के दोहे से मुझे यह उपदेश हुआ है कि राजा कि बहुत सी आयु तो बीत गयी, अब वह बूढा हो गया है; दो-चार बरस की बात और है; इस अर्से में वह आप ही मर जाएगा, अतः पितृहत्या क्यों की जाय ? इसी उपदेश के बदले में मैंने नट को कड़ों की जोड़ी दे दी ।" फिर राजा ने राजकन्या से पूछा - "तुमने अपना कीमती हार नट को क्यों दिया ?" कन्या ने कहा - मेरी जवानी आ गयी है; आप खर्च के भय से मेरी शादी नहीं करते । कामदेव बड़ा बलवान है । काम की प्रबलता के मारे, मेरा विचार वज़ीर के लड़के के साथ निकल भागने का था; पर नट के दोहे से मुझे यह उपदेश मिला कि राजा कि बहुत सी आयु तो चली गयी; अब जो शेष रह गयी है वह भी बीतने ही वाली है । थोड़े दिनों के लिए पिता के नाम में क्यों बट्टा लगाऊं ? यह अनमोल उपदेश मुझे नट के दोहे से मिला, इसी से मैंने अपना बहुमूल्य हार उसे दे दिया । हे पिता ! नट के दोहे ने आपकी जान और इज़्ज़त बचाई है; अतः आपको भी उसे कुछ इनाम देना चाहिए ।" राजा ने यह सब बातें सोच-समझकर नट को इनाम दे विदा किया और वज़ीर के लड़के के साथ कन्या की शादी कर दी । राजपुत्र को गद्दी देकर आप वैरागी हो गया और अपनी शेष रही आयु आत्मविचार में लगा दी । इसी तरह सभी संसारियों को अपनी शेष आयु सुकर्म और ब्रह्मविचार में लगा, जन्म-मरण से पीछा छुड़ा, नित्य सुख-शान्ति लाभ करनी चाहिए ।

 

 

 

बाल-बच्चो का क्या किया जाय

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     प्रथम तो स्त्री-पुत्र प्रभृति आपके कोई नहीं; एक सराय के मुसाफिर के समान हैं । यहाँ आकर नाता जुड़ गया है । अपने अपने समय पर सब अपनी अपनी राह लगेंगे । इसके सिवा, ये आपसे सच्ची मुहब्बत भी नहीं करते । आपसे इनका काम निकलता है, पाप-पुण्य की गठरी आप बांधते हैं और सुख ये भोगते हैं; इसीसे आपको कोई "बाबूजी", कोई "चाचाजी" और कोई "नानाजी" कहता है । अगर आप इनकी जरूरतों और फरमाइशों को पूरी न करें, तो ये आपका नाम भी न लें । ऐसे स्वार्थी लोगों को मिथ्या प्रीति के फेर में पड़कर, आप अपने अमूल्य और दुष्प्राप्य जीवन को क्यों नष्ट करते हैं ? जब आप इस देह को छोड़कर परलोक में चले जाएंगे, तब क्या ये आपके साथ जाएंगे ? हरगिज़ नहीं । कोई पौली तक और कोई श्मशान तक आपकी लाश के साथ जाएंगे । वहां पहुँच, आपको जला-बला ख़ाक कर सब भूल जायेंगे ।

 

     आप भी मुसाफिर हैं और आपके स्त्री-पुत्र भी मुसाफिर हैं । आपकी अगली सफर बड़ी लम्बी है । यह तो बीच का एक मुकाम है । कर्म-भोग भोगने को आप यहाँ ठहर गए और कर्मवश ही आप से इन सबका मेल हो गया । ये अपने सफर का प्रबन्ध करें चाहे न करें, पर आप तो अवश्य करें । इनके झूठे मोह में आप न भूलें । अगर आप बाल-बच्चों की रोटी और कपड़ों की फ़िक्र में लगे रहेंगे तो यह फ़िक्र तो अन्त तक लगी ही रहेगी और आपको ले जाने वाली गाड़ी या मौत आ जाएगी । उस समय बड़ी कठिनाई होगी । जो लोग उम्र भर गृहस्थी के झंझटों में लगे रहे, अन्त में उनका बुरा ही हुआ । ये घर-झगडे ही तो ईश्वर-दर्शन या स्वर्ग अथवा मोक्ष की प्राप्ति में बाधक हैं ।

 

 

 

महात्मा शेख सादी ने कहा है -

 

ऐ गिरफ़्तारे पाये बन्दे अयाल।

दिगर आज़ादगी मबन्द ख़याल।।

ग़मे फ़रज़न्दों नानो जामओ कूत।

बाज़द आरद ज़े सेर दर मलकूत।।

 

    ऐ औलाद की मुहब्बत में गिरफ्तार रहने वाले, तू किसी तरह भी बन्धन मुक्त नहीं हो सकता ।  सन्तान, रोटी, कपडा तथा जीविका की फ़िक्र तुझे स्वर्ग की चिन्ता से रोकती है ।

 

इसलिए "सब तज और हर भज"।

 

 

क्या घर में रहकर ईश्वर-उपासना नहीं की जा सकती ?

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    घर गृहस्थी में रहकर ईश्वर-उपासना की जा सकती है; पर घर में रहकर भक्ति करना है टेढ़ी खीर । जैसी सङ्गति होती है, वैसा ही मनुष्य हो जाता है । ज्ञानियों की सङ्गति में ज्ञान की और स्त्रियों की सुहबत में काम की उत्पत्ति होती है । घर में रहकर वैराग की उत्पत्ति होना कठिन है ।

 

 

किसी कवी ने कहा है -

 

जाइयो ही तहाँ ही जहां संग न कुसंग होय,

कायर के संग शूर भागे पर भागे है ।

फूलन की वासना सुहाग भरे वासन पै,

कामिनी के संग काम जागे पर जागे है ।

घर बेस घर पै बसो, घर वैराग कहाँ,

काम क्रोध लोभ मोह, पागे पर पागे है ।

काजर की कोठरी में लाखु ही सयानो जाय,

काजर की ऐक रेख लागे पर लागे है ।

 

 

    संसार की संगतियों में मनुष्य संसारी हो जाता है; विषय भोगों की ओर उसका मन चलायमान होता है और स्त्री-पुत्र आदि में उसका राग बना ही रहता है; पर जो वेदान्त ग्रंथों को विचारते और महापुरुषों की सङ्गति करते हैं, उनका अन्तःकरण शुद्ध होते रहने की वजह से, उन्हें गृहस्थाश्रम में ही, वैराग्य उत्पन्न होने लगता है । गृहस्थी में एक न एक दुःख बना ही रहता है । उस दुःख के कारण मनुष्य के मन में वैराग्य भी पैदा होता रहता है । विषयों में दुःख समझना ही वैराग्य का और सुख समझना ही राग का हेतु है । महामूढ़ों को भी कुछ न कुछ वैराग्य बना ही रहता है । जिस समय कोई कष्ट आता है, स्त्री-पुत्र आदि मर जाते हैं, धन नाश हो जाता है, तब मूढ़ भी अपने तई और संसार को धिक्कारता है; लेकिन ज्योंही वह कष्ट दूर हो जाता है, उसका वैराग्य भी काफूर हो जाता है । पर वास्तव में वैराग्य का कारण है - गृहस्थाश्रम ही; क्योंकि बिना गृहस्थाश्रम तो किसी की उत्पत्ति होती ही नहीं । रामचन्द्र और वशिष्ठ प्रभृति को गृहस्थाश्रम में ही वैराग्य हुआ था । और भी बड़े-बड़े सन्यासियों को गृहस्थाश्रम में ही वैराग्य हुआ था । वैराग्य उत्पन्न होते ही, उन्होंने घर गृहस्थी त्याग, वन की राह ली थी ।

 

 

 

      यह बात भी नहीं है कि गृहस्थाश्रम में ज्ञान होता ही न हो । जनकादि महात्मा गृहस्थाश्रम में ही ज्ञानी हुए थे । ज्ञान का कारण "वैराग्य" है । जो गृहस्थ होकर सदैव वैराग्य और विचार में मग्न रहता है, उसके ज्ञानी होने में सन्देह नहीं; पर जो सन्यासी होकर भी भोगों में राग रखता है, उसके अज्ञानी होने में संशय नहीं । "वैराग्य" ही आत्मज्ञान का साधन है । मनुष्य - ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ और संन्यास - किसी आश्रम में क्यों न हो, बिना वैराग्य के ज्ञान नहीं और ज्ञान बिना मोक्ष नहीं । जो पुरुष गृहस्थाश्रम में रहकर भी उसमें आसक्त नहीं होता, जल में कमल की तरह रहता है, उसकी मुक्ति में ज़रा भी सन्देह नहीं । एक दृष्टान्त इस मौके का हमें याद आया है, उससे पाठकों को अवश्य लाभ होगा -

 

 

 

राजा जनक और शुकदेव जी

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    एक बार व्यास जी ने शुकदेव जी से कहा कि तुम राजा जनक के पास जाकर उपदेश लो । शुकदेव जी जनक के द्वार पर गए । भीतर खबर कराई तो राजा ने कहला भेजा, कि द्वार पर ठहरो । शुकदेव जी तीन दिन तक द्वार पर खड़े रहे पर उन्हें क्रोध न आया । राजा ने क्रोध की परीक्षा करने के लिए ही उन्हें तीन दिन तक द्वार पर खड़ा रखा और चौथे दिन अपने पास बुलाया । वहाँ जाकर शुकदेव जी क्या देखते हैं कि राजा जनक सोने के जडाऊ सिंहासन पर बैठे हैं, सुन्दरी नवयौवना स्त्रियां उनके चरण दाब रही हैं और कुछ मोरछल और पंखे कर रही हैं । जगह-जगह विषय भोग या ऐशो आराम के सामान धरे हैं । सामने ही सुन्दर नर्तकियां नाच रही हैं । यह हाल देखकर शुकदेव जी के मन में राजा की ओर से घृणा हुई । उन्होंने मन में कहा - "नाम बड़े और दर्शन छोटे वाली बात है । यह तो भोगों में आसक्त हैं; पिताजी ने इन्हें परम ज्ञानी क्यों कहा ?" राजा जनक शुकदेव जी के मन की बात ताड़ गए । दैवात उसी समय मिथिलापुरी में भीषण आग लग गयी । बाहर से दूत दौड़े आये और कहने लगे - "महाराज ! पुरी में आग लग गयी और और राजद्वार तक आ पहुंची है ।" शुकदेव जी मन में सोचने लगे कि मेरा दण्ड-कमण्डल बाहर रखा है, कहीं वह जल न जाय । उस समय राजा ने कहा -

 

अनन्तवत्तु मे वित्तं यन्मे नास्ति हि किञ्चन।

मिथिलायां प्रदग्धायां न मे दह्यति किञ्चन।।

 

     मेरा आत्मरूप-धन अनन्त है । उसका अन्त कदापि नहीं हो सकता । इस मिथिला के जलने से मेरा तो कुछ भी नहीं जल सकता ।

 

     राजा जनक के इस वाक्य से पदार्थों में उनकी आसक्ति नहीं - अनासक्ति ही साबित होती है । अगर कोई मनुष्य गृहस्थी में रहकर, स्त्री-पुत्र-धन प्रभृति में अनासक्त रहे, उनमें ममता न रक्खे, चाहे व्यवहार सब तरह करे, वह सच्चा ज्ञानी है, उसकी मोक्ष अवश्य होगी ।

 

     ममता ही दुखों का कारण है । जिसकी किसी भी पदार्थ में ममता नहीं, उसे दुःख क्यों होने लगा ? उसकी ओर से, वह पदार्थ मिले तो अच्छा और न मिले तो अच्छा । बचा रहे तो भला और नष्ट हो जाय तो भला । जिसकी जिस चीज़ में ममता होती है, उसे उस चीज़ के नाश होने या उसके न मिलने से अवश्य दुःख होता है ।

 

 कहा है -

 

यस्मिन वस्तूनि ममता नायस्तत्र तत्रेव।

यत्नेवाहमुदासे मुदा स्वभाव संतुष्टः।।

 

    जिस जिस चीज़ में मनुष्य की ममता है, वही-वही दुखी है और जिस जिससे उदासीनता है, वही सन्तुष्टता है । मतलब यह कि "ममता" ही दुखों का मूल है । घर-गृहस्थी में रहो और गृहस्थी के सारे कार्य-व्यवहार करो; पर किसी भी पदार्थ में ममता मत रक्खो । तुम्हारी ओर से कोई मर जाय तो शोक नहीं; धन-दौलत नष्ट हो जाय तो रंज नहीं, आ जाय तो ख़ुशी नहीं; इस तरह उदासीन भाव रक्खो । अगर इस तरह गृहस्थी में रहो, तो तुमसे बढ़कर ज्ञानी कौन है ? तुम्हें अवश्य मोक्षपद मिलेगा ।

 

 निर्मोही पुरुष

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     एक मनुष्य के एक ही लड़का था । लड़का जवान हो गया था । उसकी शादी भी हो गयी थी । एक दिन पिता ने किसी उद्देश्य से शाम को एक सभा बुलाने का निमंत्रण दिया । दैवयोग से दोपहर में उसका पुत्र अचानक मर गया । उसने, उसकी लाश को बैठक में लिटाकर ऊपर से कपड़ा उढ़ा दिया और आप शान्त भाव से द्वार पर बैठकर हुक्का पीने लगा । इतने में सभा का समय हो गया; मित्र लोग आने लगे । उनमें से एक मित्र उसी बैठक में किसी ज़रूरी काम से गया । वहां एक लाश पड़ी देख उसने बाहर आकर पूछा - "यह क्या !"

 

     उसने कहा - "भाई ! लड़का मर गया है पहले सभा का काम कर लें; तब सब मिलकर इसे शमशान घाट पर ले चलेंगे ।" मित्र लोग उस निर्मोही पिता की बात सुनकर चकित हो गए । उन्होंने कहा - "तुम तो अजब आदमी हो ! तुम्हें अपने इकलौते जवान पुत्र का भी रंज नहीं !" उसने कहा - "भाई ! मेरा इसका क्या नाता ? हम सब सराय के मुसाफिर हैं । पूर्वजन्म के कर्मवश एक दुसरे से मिल गए हैं । अपना-अपना समय होने से, अपनी-अपनी राह चले जा रहे हैं; इसमें रंज या शोक की बात ही क्या है ?" ऐसे ही मनुष्य, गृहस्थी में रहकर भी, जन्म-मरण के फन्दे से छूटकर, मोक्षलाभ करते और जीवन्मुक्त कहलाते हैं ।

 

 काम करो, पर मन को ईश्वर में रक्खो

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    अगर भगवान् कृष्ण के कथनानुसार संसार के काम-धंधे किये जाएँ, तो भी हर्ज नहीं; पर मन को संसारी पदार्थों या विषय-भोगों से हटाकर एकमात्र भगवान् में लगाना चाहिए । दुनियावी काम करते रहने और मन को भगवान् में लगाए रहने से सिद्धि मिल सकती है ।

 

 महाकवि रहीम कहते हैं -

 

 दोहा

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जो "रहीम" मन हाथ है, मनसा कहुँ किन जाहि ।

जल में जो छाया परी, काया भीजत नाहिं ।।

 

       सारा दारोमदार मन पर है । व्यभिचारिणी स्त्री घर के धन्धे किया करती है, पर मन को हर क्षण अपने यार में रखती है । गाय जहाँ-तहाँ घास चरती फिरती है, पर मन को अपने बच्चे में रखती है । स्त्रियां जब धान कूटती हैं, तब एक हाथ से मूसल चलाती हैं और दुसरे से ओखल के धान को ठीक करती जाती हैं । इसी बीच में यदि उनका बच्चा आ जाता है, तो उसे दूध भी पिलाती रहती हैं; किन्तु उनका ध्यान बराबर मूसल में ही रहता है । अगर ज़रा भी ध्यान टूटे तो हाथ के पलस्तर उड़ जाएँ । इसी तरह मनुष्य, यदि संसार के काम-धन्धे करता हुआ भी, ईश्वर में मन लगाकर उसकी भक्ति करता रहे, तो कोई हर्ज नहीं; उसे भगवत-दर्शन अवश्य होंगे । यद्यपि इस संसार में रहकर सिद्धि लाभ करना - है बड़े शूरवीरों का काम; तो भी इस तरह अनेक लोग, गृहस्थी में रहते हुए भी मोक्षपद पा गए हैं ।

 

 

 

ईश्वर प्राप्ति की सहज राह कौन सी है

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    गृहस्थी में रहने की अपेक्षा, गृहस्थी त्यागकर, वन के एकान्त भाग में रहकर, भगवत में मन लगाना अवश्य आसान है ।" गृहस्थी में रहने से मन विषय-भोगों की ओर दौड़ता ही है । स्त्री को देखने से काम जागता ही है; पर न देखने से मन नहीं चलता । पराशर ऋषि ने मत्स्यगन्धा देखी, तो उनका मन चलायमान हुआ । विश्वामित्र ने मेनका देखी तो उनका मन बिगड़ा । शिव ने मोहिनी देखी तो उनका मन चञ्चल हुआ । इसीलिए पहले के अनेक महापुरुष अपने-अपने घर त्यागकर वन में चले गए और वहाँ उन्हें सिद्धि प्राप्त  हो गयी । पर वन में जाकर भी जो मन को विषयों में लगाए रहते हैं, ममता को नहीं त्यागते; कामना को नहीं छोड़ते, वे गृहस्थी में भी बुरे हैं । वे धोबी के कुत्ते की तरह, न घर के न घाट के ।

 

 

 

त्याग में ही सुख है

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    जो धन-दौलत, राजपाट, स्त्री-पुत्र प्रभृति को त्यागकर वन में रहते हैं; किसी भी चीज़ की इच्छा नहीं रखते, यहाँ तक की खाने के लिए पाव भर आटे की भी जरुरत नहीं रखते; जहाँ जगह पाते हैं, वही पड़े रहते हैं; जो मिल जाता है, उसी से पेट भर लेते हैं - वे सचमुच ही सुखी हैं ।

 

 

 

शंकराचार्य महाराज ने "मोहमुद्गर" में कहा है -

 

सुरमन्दिरतरुमूलनिवासः शय्याभूतलमजिनंवासः ।

सर्वपरिग्रहभोगत्यागः कस्य सुखम न करोति वैराग्यः  ।।

 

      जो देवमन्दिर या पेड़ के नीचे पड़े रहते हैं, भूमि ही जिनकी चारपाई है, मृगछाला ही जिनका वस्त्र है, सारे विषय-भोग के सामान जिन्होंने त्याग दिए हैं; यानी वासना रहित हो गए हैं - ऐसे किन मनुष्यों को सुख नहीं है ? अर्थात ऐसे त्यागी सदा सुखी हैं ।

 

 

 

देह नहीं मन के वैराग्य से लाभ है

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    अनेक लोग गेरुए कपडे पहन लेते हैं, तिलक-छापे या राख लगा लेते हैं; पर उनका मन सदा भोगों में लगा रहता है । वे शरीर को वैरागियों सा बना लेते हैं; पर उनका मन भोगियों सा रहता है; इसलिए उनका जन्म वृथा जाता है । आजकल साधु-सन्यासी बनना एक प्रकार का रोज़गार हो गया है । जिनसे किसी तरह की मेहनत मज़दूरी नहीं होती, वे साधु वेश बनाकर लोगों को ठगते और घर मनीआर्डर भेजते हैं । बहुत से ढोंगी नगरों में आकर बड़े आदमियों के यहाँ डेरा लगा देते हैं, चेले-चेलियों से भेंट लेते हैं, नवयौवना सुन्दरियों को पास बिठाकर उपदेश देते हैं, अपने कदमों में रुपयों और अशर्फियों के ढेर लगवाते हैं, भला ऐसों का मन परमात्मा में लग सकता है ? जब विश्वामित्र और पराशर जैसे, हवा और पानी पर गुज़ारा करने वाले, मुनियों का मन स्त्रियों के देखते ही चञ्चल हो गया; तब रबड़ी-मलाई, मावा-मोहनभोग उड़ाने वालों का मन कैसे स्त्रियों पर न चलेगा ? ऐसा कौन है जिसका मन स्त्रियों ने खण्डित नहीं किया ?

 

 कहा है -

 

कोऽर्थान् प्राप्य न गर्वितो ?

विषयिणः कस्यापदो नागताः ?

स्त्रीभिः कस्य न खण्डितं भुवि मनः ?

को नामा राज्ञां प्रियः ?

कः कालस्य न गोचरान्तरगतः ?

कोऽर्थी गतो गौरवं ?

को वा दुर्जनवागुरा निपतितः

क्षेमेण यातः पुमान् ?

 

    किसको धन पाकर गर्व नहीं हुआ ? किस विषयी पर आफत नहीं आयी ? पृथ्वी पर किसका मन नारी ने आकृष्ट नहीं किया ? कौन राजाओं का प्यारा हुआ ? कौन काल की नज़र से बचा ? किस मँगते का गौरव हुआ ? कौन सज्जन दुष्टों के जाल में फंसकर कुशल से रहा ?

 

 

 

सन्यासियों को स्त्री-दर्शन भी मना है

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धर्मशास्त्र में लिखा है -

 

सम्भाषायेत्  स्त्रियं नैव, पूर्वदृष्टां च न स्मरेत ।

कथाम् च वर्जयेत्तासां, नो पश्येल्लिखितामपि ।।

यस्तु प्रव्रजितो भूत्वा पुनः सेवेत्तु मैथुनम् ।

षष्ठिवर्षसहस्त्राणि विष्ठायां जायते कृमिः ।।

 

     यति को स्त्री से बात न करनी चाहिए, पहले की देखी हुई स्त्री की याद न करनी चाहिए तथा स्त्रियों की चर्चा भी न करनी चाहिए और स्त्री का चित्र भी न देखना चाहिए ।

 

     जो सन्यासी होकर स्त्री के साथ मैथुन करता है, वह साठ हज़ार वर्ष तक विष्ठा का कीड़ा होता है । और विषयों से मन को रोकना उतना कठिन नहीं, जितना कि स्त्री से रोकना कठिन है; इसी से स्त्री का चित्र तक देखने की मनाही की है । जो ढोंगी, साधु-सन्यासी दुनियादारों के घर आते और स्त्रियों में बैठे रहते हैं, उनको उपदेश ग्रहण करना चाहिए ।

 

 

 

ढोंगी साधुओं के लिए अमूल्य उपदेश

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    बनावटी या ढोंगी साधुओं के सम्बन्ध में महात्मा तुलसीदास जी ने कहा है -

 

तन को योगी सब करें, मन को विरला कोय।

सहजे सब सिधि पाइये, जो मन योगी होय।।

जाके उर बर वासना, भई भास कछु आन।

तुलसी ताहि विडम्बना, केहि बिधि कथहि प्रमान।।

काह भयो बन बन फिरे, जो बनि आयो नाहिं।

बनते बनते बनि गयो, तुलसी घर ही माहिं।।

रामचरण परचे नहीं, बिन साधन पद-नेह।

मूँड़ मुड़ायो बादिहीं, भाँड़ भये तजि गेह।।

कीर सरस बाणी पढ़त, चाखत चाहें खाँड़।

मन राखत वैराग मँह, घर में राखत राँड़।।

जहाँ काम तहँ राह नहीं, जहाँ राम नहिं काम।

तुलसी दोनों नहिं मिलें, रवि रजनी इक ठाम।।

तब लगि योगी जगतगुरु, जब लगि रहे निरास।

जब आशा मन में जगी, जग गुरु योगी दास।।

 

(*व्याख्या ज्यादा होने के कारण यहाँ नहीं दी गयी है)

 

 

 

कोरा सन्यासी भेष धारना, नरक के सामान करना है

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     आजकल अनेक वेद विरुद्ध काम करने वाले, मनगढंत मत चलानेवाले, झूठ बोलनेवाले, बगुला और बिलाव की सी वृत्ति रखनेवाले फिरते हैं । गृहस्थों को चाहिए कि उनका बातों से भी सत्कार न करें । ठगों का सत्कार होने से ही ठग-साधू बढ़ रहे हैं । उनमें से कोई मूर्ती बनाकर पूजता और पुजवाता है । कोई अपने को कबीरपन्थी, कोई नानकपन्थी, कोई रामानुजी और कोई दादूपन्थी कहता है । इन पन्थों से कोई लाभ नहीं । जब तक "आत्मज्ञान" नहीं होता, तब तक सिद्धि या मोक्ष नहीं मिलती; अतः मन को सब तरफ से हटाकर, आत्मचिंतन में लगाना चाहिए । ढोंग करने से मनुष्य-जन्म वृथा जाता है । काम तो सब यतियों के से किये जाते हैं, कष्ट भी उन्ही की तरह उठाये जाते हैं; पर परिणाम में मिलता कुछ भी नहीं । बिना आत्मज्ञान या ब्रह्मविचार के कल्याण नहीं होता । गृहस्थों को भी चाहिए कि ऐसे ठगों का आदर-सम्मान न करें । ऐसे बनावटी साधु-सन्यासी आप नरक में जाते हैं और अपने शिष्यों को भी नरक में घसीट ले जाते हैं ।

 

 

    किसी ने ठीक यही बात कविता में बड़ी खूबी से कही है -

 

आत्मभेद बिन फिरें भटकते, सब धोखे की टाटी में।

कोई धातु में ईश्वर मानत, कोई पत्थर कोई माटी में।।

वृक्ष कोई जल में कोई, कोई जंगल कोई घाटी में।

कोई तुलसी रुद्राक्ष कोई, कोई मुद्रा कोई लाठी में।

भगत कबीर कोई कहे नानक, कोई शंकर परिपाटी में।

कोई नीमार्क रामानुज है, कोई बल्लभ परिपाटी में।।

कोई दादू कोई गरीब दासी, कोई गेरू रंग की हाटी में।

कहै "आज़ाद" भेष जो धारे, चले नरक की भाटी में।।

 

 

    सन्यासी एक जगह न रहे

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     सन्यासी का मन किसी प्रीती में न फंस जाय अथवा किसी से उसकी मुहब्बत न हो जाय; इसलिए धर्मशास्त्र में सन्यासियों को एक दिन से ज्यादा एक गाँव में रहना तक मन लिखा है ।

 

 

   कहा है -

 

आबे दरिया बहे तो बेहतर,

इन्सां रवाँ रहे तो बेहतर।

पानी न बहे तो उसमें दुर्गन्ध आये,

खञ्जर न चले तो मोर्चा खाये।।

 

 गिरिधर कवी कहते हैं -

 

कुण्डलिया

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(१)

 

बहता पानी निर्मला, पड़ा गन्ध सो होय ।

त्यों साधू रमता भला, दाग लागे न कोय ।।

दाग लागे न कोय, जगत से रहे अलहदा ।

राग-द्वेष युग प्रेत, न चित को करें बिच्छेदा ।।

कहा "गिरिधर" कविराय, शीट उष्णादिक सहता ।

होय न कहुँ आसक्त, यथा गंगाजल बहता ।।

 

(२)

 

रहने सदा इकन्त को, पुनि भजनो भगवन्त ।

कथन श्रवण अद्वैत को, यही मतो है सन्त ।।

यही मतो है सन्त, तत्व को चितवन करनो ।

प्रत्येक ब्रह्म अभिन्न, सदा उर अन्तर धरनो ।।

कहा "गिरिधर" कविराय, बचन दुर्जन को सहनो ।

तज के जन-समुदाय, देश निर्जन में रहनो ।।

 

सन्यासियों के कर्तव्य कर्म

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(यति पञ्चक से)

 

वेदान्तवाक्येषु सदा रमन्तो,

भिक्षान्नमात्रेण च तुष्टिमन्तः।

विशोकमन्तः करणे रमन्तः,

कौपीनंवन्तः खलु भाग्यवन्तः।।

 

(२)

 

मूलं तरो: केवलमाश्रयन्तः,

पाणिद्वयं भोक्तुममन्त्रयन्तः।

कत्थामिव श्रीमपि कुत्सयेतः,

कौपीनंवन्तः खलु भाग्यवन्तः।।

 

(३)

 

देहादिभावं परिवर्त्तयन्तः,

आत्मानमात्मन्यवलोकयन्तः।

नान्तं न मध्यं न वहिः स्मरन्तः,

कौपीनंवन्तः खलु भाग्यवन्तः।।

 

(४)

 

स्वानन्दभावे परितुष्टिमन्तः,

सुशान्त सर्वेन्द्रियतुष्टिमन्तः।

अहर्निशं ब्रह्मसुखे रमन्तः,

कौपीनंवन्तः खलु भाग्यवन्तः।।

 

 

(५)

 

पञ्चाक्षरं पावन मुच्चरन्तः,

पतिं पशूनां हृदि भावयन्तः।

भिक्षाशिनो दिक्षु परिभ्रमन्तः,

कौपीनंवन्तः खलु भाग्यवन्तः।।

 

भावार्थ

 

(१)

 

   वेदान्त वाक्य या उपनिषदों में अथवा ब्रह्मविद्या में मन लगाए रहनेवाला, केवल भिक्षा के अन्न से सन्तुष्ट रहनेवाला, मन को शोक-ताप शून्य करके सन्तुष्ट रहेवाला और कोपीन पहनने वाला योगी भाग्यवान है ।

 

 (२)

 

    केवल वृक्ष के मूल में आश्रय लेने वाला, दोनों हाथों को भोजन के लिए न लगाने वाला, आत्मश्लाघा की तरह लक्ष्मी की निन्दा करनेवाला अर्थात अपनी तारीफ और धन से दूर रहनेवाला एवं कोपीन धारण करनेवाला योगी सुखी है ।

 

 (३)

 

    सुखासक्ति, वासना को त्यागनेवाला, अपने स्वरुप में औरों को देखनेवाला, अन्त, मध्य और पुत्र कलत्र आदि को न याद करनेवाला एवं कोपीन बाँधनेवाला यति भाग्यवान है ।

 

 

(४)

 

    अपने आत्मा में ही आनन्दमग्न रहनेवाला, आँख कान नाक जीभ प्रभृति इन्द्रियों के विषय-सुखों के त्यागने से सन्तुष्ट और आत्मसाक्षात्कार से खुश रहनेवाला और दिन-रात ब्रह्म के दर्शनों से पैदा हुए आनन्द में रहनेवाला तथा कोपीन पहनने वाला योगी सुखी है ।

 

 

(५)

 

    "शिवाय नमः" इस पांच अक्षर के, आत्मा को शुद्ध करनेवाले, मन्त्र का उच्चारण करनेवाला, ह्रदय में पशुपति शङ्कर की भावना करता हुआ, भिक्षान्न पर गुज़ारा करके, दिशाओं में घूमनेवाला और कोपीन धारण करनेवाला योगी भाग्यवान है ।

 

 यतिपञ्चक का फल

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     वास्तविक महापुरुष होने की इच्छा रखनेवालों को उपरोक्त "यति पञ्चक" कण्ठाग्र कर लेना और इस पर अमल करना चाहिए; तब उन्हें  निश्चय ही शान्ति और सिद्धि मिलेगी ।

 

 

छप्पय

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शतहि वर्ष की आयु में, रात में बीतत आधे।

ताके आधे आध, वृद्ध बालकपन साधे।।

रहे यहै दिन, आधि व्याधि गृहकाज समोये।

नाना विधि बकवाद करत, सबहिन को खोये।।

जल की तरंग बुदबुद सदृश, देह खेह ह्वै जात है।

सुख कहो कहाँ इन नरन कौ, जासों फूल गात है।।

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