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वैराग्य शतकम् भर्तृहरिविरचित भाग -1.9

 

 

किं वेदैः स्मृतिभिः पुराणपठनैः शास्त्रैर्महाविस्तरैः

स्वर्गग्रामकुटिनिवासफलदैः कर्मक्रियाविभ्रमैः।।

मुक्तवैकं भवबन्धदुःखरचनाविध्वंसकालानलं

स्वात्मानन्दपदप्रवेशकलनं शेषा वणिग्वृत्तयः।। ८१ ।।

 

अर्थ:

 

      वेद, स्मृति, पुराण और बड़े बड़े शास्त्रों के पढ़ने तथा भिन्न-भिन्न प्रकार के कर्मकाण्ड करने से स्वर्ग में एक कुटिया की जगह प्राप्त करने के सिवा और क्या लाभ है ? ब्रह्मानन्द रुपी गढ़ी में प्रवेश करने की चेष्टा के सिवा, जो संसार बन्धनों के काटने में प्रलयाग्नि के समान है, और सब काम व्यापारियों के से काम हैं ।

 

     वेद, स्मृति, पुराण और बड़े-बड़े शास्त्रों के पढ़ने-सुनने और उनके अनुसार कर्म करने से मनुष्य को कोई बड़ा लाभ नहीं है । अगर ये कर्मकाण्ड ठीक तरह से पार पड़ जाते हैं, तो इनसे इतना ही होता है, कि स्वर्ग में एक कुटी के लायक स्थान मिल जाता है, पर वह स्थान भी सदा कब्ज़े में नहीं रहता; जिस दिन पुण्यकर्मों का ओर आ जाता है, उस दिन वह स्वर्गीय स्थान फिर छिन जाता है; इससे प्राणी को फिर दुःख होता है । मतलब यह हुआ कि कर्मकाण्डों से जो सुख मिलता है, वह सुख नित्य या सदा-सर्वदा रहनेवाला नहीं । उस सुख के अन्त में फिर दुःख होता है - फिर स्वर्ग छोड़ कर मृत्युलोक में जन्म लेना पड़ता है - वही जन्म-मरण के दुःख झेलने पड़ते हैं । इसलिए मनुष्यों को ब्रह्मज्ञानी होने कि चेष्टा करनी चाहिए; क्योंकि ब्रह्मज्ञान रुपी अग्नि प्रलयाग्नि के समान है । वह अग्नि संसार बन्धनों को जड़ से जला देती है; अतः फिर सदा सुख रहता है - दुःख का नाम भी सुनने को नहीं मिलता । इसलिए ज्ञानियों ने ब्रह्मज्ञान - आत्मज्ञान को सर्वोपरि सुख दिलानेवाला माना है । मतलब यह है कि बिना ब्रह्मज्ञान या रामभक्ति के सब जप-तप आती वृथा हैं । सारे वेद-शास्त्रों और पुराणों का यही निचोड़ है कि ब्रह्म सत्य और जगत मिथ्या है तथा जीव ब्रह्मरूप है । जो इस तत्व को जानता है वही सच्चा पण्डित है । जो ब्रह्म या आत्मा को नहीं जानता, वह अज्ञानी और मूर्ख है । उसका पड़ना लिखना वृथा समय नष्ट करना है ।

 

 

तुलसीदास जी ने कहा है :-

 

चतुराई चूल्हे परौ, यम गहि ज्ञानहि खाय ।

तुलसी प्रेम न रामपद, सब जरमूल नशाय ।।

 

 महादेवजी पार्वती से कहते हैं :-

 

ये नराधम लोकेषु, रामभक्ति पराङ्गमुखाः।

जपं तपं दयाशौचं, शास्त्राणां अवगाहनं।।

सर्व वृथा विना येन, श्रुणुत्वं पार्वति प्रिये ! ।।

 

     हे प्रिये ! जो नराधम इस लोक में राम की भक्ति से विमुख हैं, उनके जप, तप, दया, शौच, शास्त्रों का पठन-पाठन - ये सब वृथा हैं । असल तत्व भगवान् की निष्काम भक्ति या ब्रह्म में लीन होना है ।

 

 

छप्पय

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श्रुति अरु स्मृति, पुरान पढ़े बिस्तार सहित जिन ।

साधे सब शुभकर्म, स्वर्ग को बात लह्यौ तिन ।।

करत तहाँ हूँ चाल, काल को ख्याल भयंकर ।

ब्रह्मा और सुरेश, सबन को जन्म मरण डर ।।

ये वणिकवृत्ति देखी सकल, अन्त नहीं कछु काम की ।

अद्वैत ब्रह्म को ज्ञान, यह एक ठौर आराम की ।।

 

 

 

ब्रह्माण्डमण्डलीमात्रं किं लोभाय मनस्विनः ।

शफरीस्फुरितेनाब्धेः  क्षुब्धता जातु जायते ।। ८३ ।।

 

 

अर्थ:

 

    जो विचारवान है, जो ब्रह्मज्ञानी है, उसे संसार लुभा नहीं सकता । मछली के उछालने से समुद्र उड़ नहीं उमड़ता ।

 

 

    जिस तरह सफरी मछली के उछाल-कूद मचाने से समुद्र अपनी गंभीरता को नहीं छोड़ता, ज़रा भी नहीं उमगता, जैसा का तैसा बना रहता है; उसी तरह विचारवान ब्रह्मज्ञानी संसारी-पदार्थों पर लट्टू नहीं होता वह समुद्र की तरह गंभीर ही बना रहता है; अपनी गंभीरता नहीं छोड़ता । समुद्र जिस तरह मछली की उछल-कूद को कुछ नहीं समझता उसी तरह वह त्रिलोकी की सुख-संपत्ति को तुच्छ समझता है । मतलब यह है कि संसारी विषय-भोग उन्ही को लुभाते हैं, जो विचारवान नहीं हैं, जिनमें विचार शक्ति नहीं है, जिन्हे ब्रह्मज्ञान का आनन्द नहीं मालूम है ।

 

 उस्ताद ज़ौक़ कहते हैं -

 

दुनिया है वह सय्यद कि सब दाम में इसके।

आ जाते हैं लेकिन कोई दाना नहीं आता ।।

 

 दुनिया एक ऐसा जाल है, जिसमें प्रायः सभी फंसे हुए हैं । कोई दाना अर्थात विचारशील पुरुष ही इस जाल से बचा हुआ है ।

 

    संसार अन्तः सार-शून्य है, इसमें कुछ नहीं है । यह ठीक आंवले के समान है, जो ऊपर से खूब सुन्दर और चिकना-चुपड़ा दीखता है; मगर भीतर कुछ नहीं । किसी ने संसार को स्वप्नवत और किसी ने इसे कोरा ख्याल ही कहा है ।

 

 

महाकवि ग़ालिब कहते हैं -

 

हस्ती के मत फरेब में आ जाइयो असद ।

आलम तमाम हलक़ ये दाम ख़्याल है ।।

 

    ग़ालिब सृष्टि के चक्कर में मत आ जाना । यह सब प्रपंच तुम्हारे ख़्याल के सिवा और कोई चीज़ नहीं है ।

 

     इसके जाल में समझदार नहीं फंसते किन्तु नासमझ लोग, जाल के किनारों पर लगी सीपियों की चमक-दमक देखकर जाल में आ फंसने वाली मछलियों की तरह इसके माया-मोह में फंसकर अनेक प्रकार के कष्ट उठाते हैं; किन्तु ज्ञानी इसकी अनित्यता, इसकी असारता को देखकर इससे किनारा कर लेते हैं ।

 

 दोहा

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ज्यों सफरी को फिरत लख, सागर करत न क्षोभ।

अण्डा से ब्रह्माण्ड को, त्यों सन्तन को लोभ ।।

 

 

यदासीदज्ञानं स्मरितिमिरसंस्कारजनितं

तदा दृष्टं नारिमयभिदमशेषं जगदपि ।।

इदानीमस्माकं पटुतर विवेकाञ्जनजुषां

समीभूता दृष्टीस्त्रिभुवनमपि ब्रह्म तनुते ।। ८४ ।।

 

 अर्थ:

 

    जब तक हमें कामदेव से पैदा हुआ अज्ञान-अन्धकार था, तब तक हमें सारा जगत स्त्रीरूप ही दीखता था । अब हमने विवेकरूपी अञ्जन आँज लिया है, इससे हमारी दृष्टी समान हो गयी है । अब हमें तीनो भुवन ब्रह्मरूप दिखाई देते हैं ।

 

 

    जब हम काम-मद से अन्धे हो रहे थे, जब हमें अच्छे-बुरे का ज्ञान नहीं था, तब हमें स्त्री ही स्त्री दिखाई देती थी, बिना स्त्री हमें क्षणभर भी कल नहीं थी; किन्तु अब हममें विवेक-बुद्धि आ गयी है, अब हम अच्छे-बुरे को समझने लगे हैं, इसलिए अब हमें सारा संसार एक सा मालूम होता है । अब हमें कहीं स्त्री नहीं दीखती, सभी तो एक से दीखते हैं । जहाँ नज़र दौड़ाते हैं, वहीँ ब्रह्म ही ब्रह्म नज़र आता है । मतलब यह कि न कोई स्त्री है न कोई पुरुष, सभी तो एकही हैं; केवल छोले का भेद है । आत्मा न स्त्री है न पुरुष; वह सबमें समान है । मगर अज्ञानियों को यह बात नहीं दीखती । उन्हें और का और दीखता है ।

 

श्वेताश्वतरोपनिषद में लिखा है -

 

नैव स्त्री न पुमानेष न चैवायं नपुंसकः ।

यद्यच्छरीरमादत्ते तेन तेन स युज्यते ।।

 

 

 

     यह आत्मा न स्त्री है न पुरुष और न नपुंसक । यह जिस शरीर को धारण करता है, उसी-उसी के साथ जुड़ जाता है ।

 

    जब मनुष्य को इस बात का ज्ञान हो जाता है कि स्त्री और पुरुष में कोई भेद नहीं, जो मैं हूँ वही स्त्री है - स्त्री ने और तरह का कपडा पहन रखा है और मैंने और तरह का - तब उसका मन स्त्री पर नहीं भूलता । अपने ही स्वरुप को और समझकर उससे मैथुन करने की इच्छा नहीं होती । ज्ञानी को संसार में शत्रु, मित्र, स्त्री-पुत्र, स्वामी-सेवक नहीं दीखते । वह स्त्री-पुत्र और शत्रु-मित्र सबको समान समझता है; किसी से राग और किसी से द्वेष नहीं रखता । उसे कुत्ते में, आदमी में तथा प्राणी मात्र में ही एक विष्णु दीखता है । यह अवस्था परमपद की अवस्था है ।

 

स्वामी शंकराचार्य जी कहते हैं -

 

शत्रौ मित्रे पुत्रे बन्धौ

मा कुरु यत्नं विग्रहसन्धौ ।

भव समचित्तः सर्वत्र त्वम्

वाञ्छस्यचिराद् यदि विष्णुत्वम् ।।

 

     शत्रु, मित्र और पुत्र-बांधवों में, विरोध या मेल के लिए चेष्टा न कर । यदि शीघ्र ही मोक्ष पद चाहता है तो शत्रु-मित्र और पुत्र-कलत्र प्रभृति को एक नज़र से देख । सबको अपना समझ, किसी को गैर न समझ; समान चित्त हो जाय । जैसा ही पुरुष वैसी ही स्त्री, जैसा बेटा वैसा दुश्मन और जैसा धन वैसी मिटटी ।

 

 

 

कहानी - एक सच्चा महात्मा

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      एक साधु सदा ज्ञानोन्मत्त अवस्था में रहता था । वह कभी किसी से फालतू बातचीत नहीं करता था । एक रोज़ एक गाँव में भिक्षा मांगने गया । एक घर से उसे जो रोटी मिली, वह उसे आप खाने लगा और साथ में कुत्ते को भी खिलने लगा । यह देख वहां अनेक लोग इकट्ठे हो गए और उनमें से कोई-कोई उसे पगला कह कर उसकी हंसी करने लगे । यह देख महात्मा ने उनसे कहा - "तुम क्यों हँसते हो?"

 

 

 

विष्णुः परिस्थितो विष्णुः

विष्णुः खादति विष्णवे ।

कथं हससि रे विष्णो ?

सर्वं विष्णुमयं जगत् ।।

 

 

     विष्णु के पास विष्णु है । विष्णु, विष्णु को खिलता है । अरे विष्णु, तू क्यों हँसता है ? सारा जगत विष्णुमय है; यानी सारा संसार उस पूर्णतम विष्णु से व्याप्त है ।

 

    सच्चे और पहुंचे हुए साधू-फ़क़ीर सारे संसार में एक परमात्मा को देखते हैं । उन्हें दूसरा कोई नज़र नहीं आता । अज्ञानी लोग, जिनके ज्ञान-चक्षु बन्द हैं, जगत में किसी को अपना और किसी को पराया समझते हैं ।

 

किसी ने क्या अच्छा उपदेश दिया है ।

 

एकान्ते सुखमास्यतां परतरे चेतः समाधीयताम् ।

पूर्णात्मा सुसमीक्ष्यतां जगदिदं तद्व्यापितं दृश्यतां ।

प्राक्कर्म प्रविलोप्यतां चितिबलान्नाप्युत्तरे श्लिष्यतां ।

प्रारब्धं त्विह भुज्यतामथ परब्रह्मात्मना स्थीयताम् ।।

 

    एकान्त-निर्जन स्थान में सुख से बैठना चाहिए । परब्रह्म परमात्मा में मन लगाना चाहिए । पूर्णात्मा पूर्णब्रह्म से साक्षात् करना चाहिए और इस जगत को पूर्णब्रह्म से व्याप्त समझना चाहिए । पूर्वजन्म के कर्मो का लोप करना चाहिए और ज्ञान के प्रभाव से अब के किये कर्मों के फल त्याग देने चाहिए; यानी निष्काम कर्म करने चाहिए; जिससे कर्मबन्धन में बंधकर फिर जन्म न लेना पड़े । इस संसार में प्रारब्ध या पूर्व जन्म के कर्मो को भोगना चाहिए और इसके बाद परमेश्वररूप से इस जगत में ठहरना चाहिए; यानि अपने में और परमात्मा में भेद न समझना चाहिए ।

 

 

दोहा

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काम-अन्ध जबही भयौ, तिय देखी सब ठौर ।

अब विवेक-अञ्जन किये, लख्यौ अलख सिरमौर ।।

 

 

रम्याश्चन्द्रमरिचयस्तृणवती रम्या वनान्तस्थळी

रम्यः साधुसमागमः शमसुखं काव्येषु रम्याः कथाः ।

कोपोपहितवाष्पबिन्दुतरलं रम्यं प्रियाया मुखं

सर्वंरम्यमनित्यतामुपगते चित्तेनकिञ्चित्पुनः ।। ८५ ।।

 

 अर्थ:

 

    चन्द्रमा की किरणे, हरी-हरी घास के तख्ते, मित्रों का समागम, शृङ्गार रस की कवितायेँ, क्रोधाश्रुओं से चञ्चल प्यारी का मुख - पहले ये सब हमारे मन को मोहित करते थे; किन्तु जब से संसार की अनित्यता हमारी समझ में आयी, तब से ये सब हमें अच्छे नहीं लगते ।

 

 

     जब तक मनुष्य को संसार की असारता, उसकी अनित्यता, उसका थोथापन, उसकी पोल नहीं मालूम होती, तभी तक मनुष्य संसार और संसार के झगड़ों में फंसा रहता है और विषय भोगों को अच्छा समझता है; किन्तु संसार की असलियत मालूम होते ही, उसे विषय सुखों से घृणा हो जाती है । उस समय न उसे चन्द्रमा की शीतल चांदनी प्यारी लगती है, न मित्रमण्डली अच्छी मालूम होती है, न शृङ्गार रस की कवितायेँ अच्छी मालूम होती हैं और न उसका चित्त, चंद्रवदनि कामिनियों को ही देखकर मचलता है ।

 

 

छप्पय

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चन्द चाँदनी रम्य, रम्य बनभूमि पहुपयुत ।

योंही अति रमणीक, मित्र मिळवो है अद्भुत ।।

बनिता के मृदु बोल, महारमणीक विराजत ।

मानिनमुख रमणीक, दृगन अँसुअन जल साजत ।

ए हे परमरमणीक सब, सब कोउ चित्त में चहत ।

इनको विनाश जब देखिये, तब इनमें कछुहु न रहत ।।

 

 

 

भिक्षाशी जनमध्यसंगरहितः स्वायत्तचेष्टः सदा

दानादानविरक्तमार्गनिरतः कश्चित्तपस्वी स्थितः।।

रथ्याक्षीणविशीर्णजीर्णवसनैः सम्प्राप्तकंथासखि-

र्निमानो निरहंकृतिः शमसुखाभोगैकबद्धस्पृहः।। ८६ ।।

 

 अर्थ:

 

    ऐसा तपस्वी को विरला ही होता है, जो भीख मांगकर खाता है, जो अपने लोगों में रहकर भी उनमें मोह नहीं रखता, जो स्वाधीनतापूर्वक अपना जीवन निर्वाह करता है, जिसने लेने और देने का व्यवहार छोड़ दिया है, जो राह में पड़े हुए चीथड़ों की गुदड़ी ओढ़ता है, जिसे मान का ख्याल नहीं है, जिसमें अभिमान नहीं है और जो ब्रह्मज्ञान के सुख को ही सुख मानता है ।

 

 

    ज्ञानी के लक्षण सुन्दरदास जी ने इस भांति कहे हैं -

 

कर्म न विकर्म करे, भाव न अभाव धरे।

शुभ न अशुभ परे, यातें निधरक है।।

वस तीन शून्य जाके, पापहु न पुण्य ताके।

अधिक न न्यून वाके, स्वर्ग न नरक है।।

सुख दुःख सम दोउ, नीचहूँ न उंच कोउ।

ऐसी विधि रहै सोउ, मिल्यो न फरक है।।

एकही न दोय जाने, बंद मोक्ष भ्रम मानै।

सुन्दर कहत, ज्ञानी ज्ञान में गरक है।।

 

 

   जो भीख मांगकर पेट की अग्नि को शांत कर लेता है, पर किसी की खुशामद नहीं करता, किसी के अधीन नहीं होता, स्वाधीन रहता है; राह में पड़े हुए चीथड़े उठाकर उनकी ही गुदड़ी बनाकर ओढ़ लेता है; मान-अपमान और सुख-दुःख को समान समझता है; न किसी से कुछ लेता है न किसी को कुछ देता है; गृहस्थी में या अपने बन्धु-बान्धवों में रहकर भी उनमें ममता नहीं रखता; शुभाशुभ, पाप-पुण्य, स्वर्ग-नरक को कोई चीज़ नहीं समझता; किसी को नीच और किसी को उंच नहीं समझता, सभी में एक आत्मा देखता है; बन्धन और मोक्ष को भी मन का संकल्प या भ्रम समझता है तथा ब्रह्मज्ञान में गर्क रहता है और उसमें ही पूर्ण सुख समझता है - उससे बढ़कर ज्ञानी और कौन है ? ऐसे ज्ञानी के जीवन्मुक्त होने में संशय नहीं । उसे जन्म-मरण का कष्ट नहीं उठाना पड़ता । वह सदा परमानन्द में मग्न रहता है, पर ऐसे पुरुष कोई-कोई ही होते हैं ।

 

 सोरठा

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उञ्छवृत्ति गति मान, समदृष्टि इच्छारहित।

करत तपस्वी ध्यान, कंथा को आसन किये।।

 

 

मातर्मेदिनि तात मारुत सखे तेजः सुबन्धो जलं ।

भ्रातर्व्योम निबद्ध एव भवतामेष प्रणामाञ्जलिः ।।

युष्मतसंगवशोपजातसुकृतोद्रेकस्फुरन्निर्म्मल-

ज्ञानापास्तसमस्तमोहमहिमा लिये परे ब्रह्मणि ।। ८७ ।।

 

अर्थ:

 

    हे माता पृथ्वी ! पिता वायु ! मित्र तेज ! बन्धु जल ! भाई आकाश ! अब मैं आपको अन्तिम विदाई का प्रणाम करता हूँ । आपकी संगती से मैंने पुण्य कर्म किये और पुण्यों के फल स्वरुप मुझे आत्मज्ञान हुआ, जिसने मेरे संसारी मोह का नाश कर दिया । अब मैं परब्रह्म में लीन होता हूँ ।

 

     मनुष्य शरीर पृथ्वी, वायु, तेज, जल और आकाश - पांच तत्वों से बनता है । जिसे आत्मज्ञान हो गया है, जिसने ब्रह्म को पहचान लिया है, वह इन पांच तत्वों से विदा लेता है और प्रणाम करके कहता है, कि मैं आप पाँचों के संग रहने से - यह शरीर धारण करने से - इस योग्य हुआ कि, ब्रह्मज्ञान प्राप्त कर सका; अब मेरा आपका साथ न होगा, अब मैं छोले में न आऊंगा, अब मुझे जन्म न लेना पड़ेगा । मैं आप लोगों का कृतज्ञ हूँ ; क्योंकि आपकी सुसंगति से ही मुझे या फल मिला है । अब मैं आपसे सदा को विदा होता हूँ । अब मैं ब्रह्म के आनन्द में मग्न हूँ । अब मुझे यहाँ आने की, आप लोगों की संगती करने की; यानि शरीर धारण करने की जरुरत नहीं । मतलब यह है कि मनुष्य का चोला ब्रह्मज्ञान के लिए मिलता है; और चोलों में, यह ज्ञान नहीं हो सकता । जो मनुष्य चोले में आकर ब्रह्मज्ञान लाभ करते हैं और उसकी बदौलत परम पद या मोक्ष प्राप्त करते हैं - वे ही धन्य हैं, उन्हीं का मनुष्य-देह पाना सार्थक है ।

 

 छप्पय

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अरी मेदिनी-मात, तात-मारुत सुन ऐरे।

तेज-सखा जल-भ्रात, व्योम-बन्धु सुन मेरे।।

तुमको करत प्रणाम, हाथ तुम आगे जोरत।

तुम्हारे ही सत्संग, सुकृत कौ सिन्धु झकोरत।।

अज्ञान जनित यह मोहहू, मिट्यो तुम्हारे संगसों।

आनन्द अखण्डानन्द को, छाय रह्यो रसरंग सों।।

 

 

यावत्स्वस्थमिदं कलेवरगृहं यावच्च  दूरे जरा

यावच्चेन्द्रियशक्तिरप्रतिहता यावत्क्षयो नायुषः ।

आत्मश्रेयसि तावदेव विदुषा कार्यः प्रयत्नो महा-

न्प्रोदीप्ते भवने च कूपखननं प्रत्युद्यमः कीदृशः ।। ८८ ।।

 

अर्थ:

 

    जब तक शरीर ठीक हालत में है, बुढ़ापा दूर है, इन्द्रियों की शक्ति बनी हुई है, आयु के दिन बाकी हैं, तभी तक बुद्धिमान को अपने कल्याण की चेष्टा अच्छी तरह से कर लेनी चाहिए । घर जलने पर कुआँ खोदने से क्या फायदा ।

   जब तक आपका शरीर निरोग और तन्दरुस्त रहे, बुढ़ापा न आवे, आपकी इन्द्रियों की शक्ति ठीक बनी रहे, आपका अन्त दूर हो, उम्र बाकी दिखे, तभी तक आप अपनी भलाई की चेष्टा कर लीजिये; यानि ऐसी हालत में ही भगवान् का भजन कर लीजिये । जब आप रोगों से जर्जरित हो जाएंगे, कफ,खांसी और दम घेर लेंगे, आँखों से न दिखेगा, कानो से न सुनाई देगा, गले में घर-घर कफ बोलने लगेगा, मौत अपना पंजा जमा देगी, तब आप क्या करेंगे ? अर्थात कुछ नहीं । उस समय आप कुछ करने की चेष्टा करेंगे भी, तो आपकी दशा उसकी सी होगी, जो घर में आग लगने पर कुआ खोदता है ।

 

किसी ने कहा है -

 

प्रथम नार्जिता विद्या, द्वितीय नार्जितं धनं ।

तृतीये नार्जितं पुण्यं, चतुर्थे किं करिष्यति ?

 

    बचपन में यदि विद्या नहीं सीखी, जवानी में यदि धन सञ्चय नहीं किया, बुढ़ापे में यदि पुण्य नहीं किया; तो चौथेपन में क्या करोगे ?

 

    सबसे अच्छी बात तो बचपन में ही परमात्मा की भक्ति करना है । ध्रुव और प्रह्लाद ने बचपन में ही भक्ति करके परमात्मा के दर्शन किये थे अगर इस उम्र में न हो सके, तो जवानी में, जवानी में न हो सके तो बुढ़ापे में तो चूकना ही न चाहिए । स्त्री-पुत्र, धन-दौलत का मोह छोड़ परमात्मा में मन लगाओ; आजकल पर मत टालो; क्योंकि मौत हर समय घात में है, न जाने कब तुम्हे ले जाय । जब वह आ जाएगी तो तुमसे कुछ करते-धरते न बनेगा, तुम घबरा जाओगे, मुंह से परमात्मा का नाम न निकलेगा और हाथों से दान या पराया उपकार न कर सकोगे । उस समय तुम्हारा परलोक बनाने की चेष्टा करना, आग लग जाने पर कुंआ खोदने वाले के समान मूर्खतापूर्ण काम होगा । अतः जो करना है, मरने के समय से पहले ही करो ।

 

 किसी ने परलोक-साधन के लिए क्या अच्छी सलाह दी है -

 

वेदो नित्यंधीयतां तदुदितं कर्म स्वनुष्ठीयतां

तेनेशस्यपिधीयतामपचितिः  कामे मतिसत्यज्यतां।

पापौघः परिधूयतां भवसुखे दोषोऽनुसन्धीयताम्

आत्मेच्छा व्यवसीयतां निजगृहात् तूर्णं विनिर्गम्यताम् ।।

 

 

    नित्य वेद पढ़ो और वेदोक्त कर्मो का अनुष्ठान करो । वेद विधि से परमेश्वर की पूजा करो । विषय भोगों को बुद्धि से हटाओ ; यानि विषयों को त्यागो । पाप समूह का निवारण करो । संसारी सुख इत्र-फुलेल चन्दनादि के लगाने, स्त्री-भोगने और नाच-गाना देखने सुनने प्रभृति परिणाम विचारो ; यानि इनके दोषों की भावना करो । परमेश्वर या आत्मा में अनुराग करो और गृहस्थी के अनेक दोषों को समझ कर, शीघ्र ही घर को त्यागकर वन को चले जाओ ।

 

 उस्ताद ज़ौक़ कहते हैं -

 

बेनिशाँ पहले फ़नासे हो, जो हो तुझको बका ।

वर्ना है किसका निशाँ, ज़ौके फनाने रक्खा ।।

 

     मरने से पहले सांसारिक बन्धनों से अपने चित्त को हटा ले - अमर होने की यही एक तरकीब है; वर्ना मौत किसी का निशान नहीं छोड़ती ।

 

 छप्पय

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जौ लौं देह निरोग, और जौ लौं जरा तन ।

अरु जौ लौं बलवान आयु, अरु इन्द्रिन के गन ।

तौं लौं निज कल्याण करन को, यत्न विचारत ।

वह पण्डित वह धीर-वीर, जो प्रथम सम्हारत ।

 

फिर होत कहा जर्जर भये, जप तप संयम नहिं बनत ।

भव काम उठ्यौ निज भवन जब, तब क्योंकर कूपहि खनत ।।

 

 

 

नाभ्यस्ता भुविवादिवृन्ददमनी विद्या विनीतोचिता

खड्गाग्रैः करिकुम्भपीठदलनैर्नाकं न नीतं यशः ।

कान्ताकोमलपल्लवाधररसः पीतो न चन्द्रोदये

तारुण्यं गतमेव निष्फलमहो शून्यालये दीपवत् ।। ८९ ।।

 

 अर्थ:

 

    हमनें इस जगत में नम्रों को संतुष्ट करनेवाली और वादियों की मान भञ्जन करनेवाली विद्या नहीं पढ़ी, तलवार की धार से हाथी के मस्तक का पिछला भाग काटकर अपना यश स्वर्ग तक नहीं पहुँचाया; चांदनी रात में सुन्दरी के कोमल अधर-पल्लव (निचले होठ) का रस भी नहीं पिया । हाय ! हमारी जवानी सूने घर में जलनेवाले और आपही बुझ जाने वाले दीपक की तरह योंही गयी !

 

दोहा

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विद्या पढ़ी न रिपु दले, रह्यौ न नारि समीप।

यौवन यह योंही गयो, ज्यों सूने गृह दीप।।

 

 

ज्ञानं सतां मानमदादिनाशनं

केषांचिदेतन्मदमानकारणं ।।

स्थानं विविक्तं यामिनां विमुक्तये

कामातुराणामतिकामकारणाम् ।। ९० ।।

 

अर्थ:

     अच्छे मनुष्यों में तो ज्ञान उनके मान-मद आदि का नाश करता है; किन्तु दुष्टों में वही ज्ञान मान-मद प्रभृति औगुणों की वृद्धि करता है । एकांत स्थान योगियों के लिए तो मुक्ति दिलानेवाला होता है; किन्तु वही कामियों की कामज्वाला बढ़ानेवाला होता है ।

 

    जिस तरह स्वाति-बूँद सीप में पड़ने से मोती और केले में कपूर हो जाती है, किन्तु सर्पमुख में पड़ने से विष का रूपधारण करती है; उसी तरह एक चीज़ पुरुष-भेद से अलग अलग गुण दिखाती है । ज्ञान से अच्छे लोगों का अभिमान नाश हो जाता है, वे सब किसी को अपने बराबर समझते हैं, सबके साथ सुहानुभूति रखते हैं, किसी का दिल नहीं दुखाते; किन्तु उसी ज्ञान से दुष्ट लोगों की दुष्टता और भी बढ़ जाती है, वे अपने सामने जगत को तुच्छ समझते हैं; विद्याभिमान के मारे किसी की ओर नज़र उठा कर भी नहीं देखते, अपने सिवा सबको पशु समझते हैं । एक ही ज्ञान दो स्थानों में, स्थान भेद से अपना अलग-अलग प्रभाव दिखाता है । जैसे एकान्त स्थान योगियों के चित्त को ब्रह्मविचार में लीन करता है और इससे उनको परमपद - मुक्ति - मिल जाती है ; किन्तु वही एकान्त स्थान कामियों के दिलों में मस्ती पैदा करता है ।

 

दोहा

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ज्ञान घटावै मान-मद, ज्ञानहि देय बढ़ाय।

रहसि मुक्ति पावे यती, कामी रत लपटाय।।

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