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वैराग्य शतकम् भर्तृहरिविरचित भाग-1.12

 

ब्रह्मज्ञानविवेकिनोऽमलधियः कुर्वन्त्यहो दुष्करं

यन्मुञ्चन्त्युपभोगकांचनधनान्येकान्ततो निःस्पृहाः ।

न प्राप्तानि पुरा न सम्प्रति न च प्राप्तौ दृढप्रत्ययो

वाञ्छामात्रपरिग्रहाण्यपि परं त्यक्तुं न शक्त वयम् ।। १०८ ।।

 

 अर्थ:

 

   उन बुद्धिमान, निर्मल ज्ञान वाले, ब्रह्मज्ञानियों का कठिन व्रत देखकर हमें बड़ा विस्मय होता है, जो विषय-भोग, धन-दौलत, सोना-चाँदी और स्त्री-पुत्र प्रभृति को एकदम से त्याग देते हैं और फिर उनकी इच्छा नहीं रखते ।

 

 

 

सत् और असत् का विचार करनेवाले देह और आत्मा को अलग अलग समझनेवाले इस संसार को स्वप्न मानने वाले, इस जगत की झूठी चमक-दमक पर मोहित न होनेवाले पुरुह "ज्ञानी" कहलाते हैं । जिनके सामने माया का पर्दा हट जाता है, जिन्हे देह के नाशमान और आत्मा के नित्य और अविनाशी होने का ज्ञान हो जाता है, उन्हें परमात्मा दीखने लगता है । उन्हें परमात्मा के ध्यान में जो आनन्द आता है, उसकी बराबरी त्रिभुवन के सारे सुखैश्वर्य भी नहीं कर सकते । ऐसे ज्ञानी इस जगत से नाता क्यों जोड़ने लगे ? जब तक उन्हें ज्ञान नहीं होता; माया का पर्दा उनकी आँखों के सामने से नहीं हटता, शरीर और आत्मा का भेद मालूम नहीं होता, तभी तक वे इस संसारी जाल में फंसे रहते हैं; जहाँ उन्हें ज्ञान हुआ और उन्होंने संसार की असलियत समझी, तहाँ फ़ौरन ही इसे छोड़ा । एकबार छोड़कर, फिर इसकी इच्छा वे इसलिए नहीं करते, कि वे समझबूझकर इसे छोड़ते हैं; जबरदस्ती या किसी के बहकाने से अथवा दुकानदारी के लिए तो वे इसे छोड़ते ही नहीं, जो उनकी लालसा इनमें बनी रहे ।

 

 

 

जो लोग रूपया पैदा करने या पुजने के लिए घर-गृहस्थी को छोड़ते हैं, उनका मन संसार के विषय-भोगों में लगा रहता है । वे न इधर के रहते हैं न उधर के ही । वे "धोबी का कुत्ता, न घर का न घाट का" अथवा "खुदही मिला न विसाले सनम" या "दुविधा में दोनों गए, माया मिली न राम " वाली कहावत चरितार्थ करते हैं । ऐसे कच्चे त्यागियों के सम्बन्ध में गोस्वामी तुलसीदास जी कहते हैं -

 

इत कुल की करनी तजे, उत न भजे भगवान्।

 

तुलसी अधवर के भये, ज्यों बघूर को पान।।

 

 

 

अर्थात इधर तो वे अपना घरबार और स्त्री-पुत्र तथा अपने कुल के कामों को छोड़ बैठते हैं और उधर भगवान् को भी नहीं भजते । वे हवा के बवण्डर या भभूले में चक्कर खानेवाले पत्ते की तरह अधर में ही चक्कर खाते रहते हैं

 

 

 

अगर वे अपने घर में ही रहते, तो अपने कुल-वर्ण के अनुसार कर्म करते और और महात्माओं की सङ्गति और सेवा-टहल से संसार की असारता, अपने नातेदारों की स्वार्थपरता एवं ईश्वर की महिमा का ज्ञान लाभ करके, ईश्वर की भक्ति करते हुए, प्रह्लाद, जनक और अम्बरीष प्रभृति की तरह, घर में रहकर ही सिद्धि लाभ करते । नादान लोग बिना पूर्ण वैराग्य और ज्ञान के, घर गृहस्थी को छोड़कर वन में चले तो जाते हैं; पर उनकी वासना - ममता अपने घरवालों अथवा पराई स्त्रियों या धन-दौलत में बनी रहती है; इसलिए वे संसारियों की निन्दा के भय से लुक-छिपकर विषयों को भोगते हैं और परमात्मा में मन नहीं लगाते । इस तरह उनके लोक-परलोक दोनों बिगड़ते हैं - वे न तो संसारी सुख ही भोग सकते हैं और न स्वर्ग या मोक्ष ही लाभ कर सकते हैं । सारांश यह, मनुष्य को संसार से पूरी विरक्ति होने पर ही संन्यास लेना चाहिए और एक बार त्यागी बनकर फिर अत्यागी न बनाना चाहिए । त्यागी होकर विषयों में लालसा रखनेवाले महानीच हैं । उनकी दोनों जहाँ में महान दुर्गति होती है ।

 

 

 

प्रत्येक मनुष्य को समझना चाहिए कि यह संसार वास्तव में ही मायाजाल है । कोई किसी का नहीं है । सब अपना अपना मतलब गांठते हैं । मतलब नहीं, तो कोई किसी का नहीं ।

 

 

 

तुलसीदास जी कहते हैं -

 

तुलसी स्वारथ के सगे, बिन स्वारथ कोई नाहिं।

 

सरस वृक्ष पंछी बसें, नीरस भये उड़ जाहिं।।

 

 

 

सभी स्वार्थ के सगे हैं; बिना स्वार्थ कोई किसी का नहीं । जब तक वृक्ष में फल रहते हैं, तभी तक पंछी उस पर रहते हैं; जहाँ वृक्ष फलहीन हुआ कि वे उसे छोड़कर और जगह उड़ जाते हैं । यही हाल संसार का है । सब खड़े दम का मेला है । सभी जीते जी के साथी हैं; मरते ही साड़ी मुहब्बत उड़ जाती है । जो स्त्री अर्द्धाङ्गी कहलाती है, जो पुरुष को अपना प्राण प्यारा कहती है, उसे गले से लगाती है और उसके लिए जान देने तक को तैयार रहती है, दम निकलते ही उससे डरने या भय खाने लगती है । अगर वह रोती भी है, तो अपने सुखों के लिए रोती है; उसके लिए नहीं रोती । और कुटुम्बी - माता पिता भाई बहिन इत्यादि भी दम निकलते ही कहने लगते हैं - "जल्दी उठाओ, अब घर में रखना ठीक नहीं।"

 

 

 

इस मौके की एक कहानी हमें याद आयी है, उसे हम पाठकों के उपकारार्थ नीचे लिखते हैं -

 

 

 

सब जीते जी के साथी हैं

 

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एक सेठ का लड़का किसी महात्मा के पास जाया करता था । सेठ को भय हुआ कि कहिं पुत्र वैराग्य न ले ले; इसलिए उसने पुत्र वधु से कहला दिया कि वह पुत्र को हर तरह से अपने वश में कर ले; जिससे महात्मा की सङ्गति छूट जाय । लड़के की स्त्री उस दिन से उसकी सेवा-टहल और भी ज्यादा करने लगी; हाथों में उसका मन रखने लगी । लड़का जब घर से बाहर जाता, तभी वह कहती - "आपका वियोग मुझसे सहा नहीं जाता । क्षणभर में ही मेरे प्राण अकुलाने लगते हैं; अतः आप मुझे छोड़कर कहीं नहीं जाया करें । लड़के ने महात्मा के पास जाना कम जरूर कर दिया; पर कभी कभी वह चला ही जाता था । एक दिन वह बहुत दिन बीच में देकर पहुंचा । महात्मा ने कहा - "भाई ! आजकल तुम आते क्यों नहीं ?" उसने कहा - "मेरी स्त्री मुझे बहुत ही प्यार करती है । उसे मेरे बिना क्षणभर भी कल नहीं पड़ती; इसी से आना नहीं होता; महात्मा ने कहा - "भाई ! ये सब झूठी बातें हैं । संसार में कोई किसी को नहीं चाहता । अगर तुमको विश्वास न हो तो परीक्षा कर लो ।"

 

सेठ के पुत्र ने परीक्षा करना ही उचित समझा । महात्मा ने उसे प्राणायाम या सांस चढाने की क्रिया सिखा दी । जब वह प्राणायाम क्रिया में पक्का हो गया, तब महात्मा ने कहा - "आज तू घर जाकर कहना, मेरे पेट में बड़ा दर्द है । इसके बाद सांस चढ़ाकर पड़ जाना; पर पहले यह कह देना कि यदि मेरी मृत्यु हो जाय, तो अमुक महात्मा को बुलाये बिना मुझे मत जलाना ।" लड़का घर पहुंचा और पेट के दर्द के मारे चिल्लाने लगा । कुछ देर बाद ज़मीन पर गिर पड़ा और माता पिता से कहने लगा - "यदि मैं मर जाऊं; तो बिना अमुक महात्मा को बुलाये और दिखाए मुझे मत जलाना ।" इसके बाद उसने सांस चढ़ा लिया । घरवालों ने उसे देखा तो बोले -" अब इसमें दम नहीं, काठी-कफ़न लाओ और शमशान की तैयारी करो ।" इतने में उसकी माँ बोली -"पुत्र ने अमुक महात्मा को बुलाने को कहा था, इसलिए पहले उन्हें बुलवाओ ।" सेठ ने महात्मा के पास आदमी भेजा । वह तत्काल चले आये । उन्हें देखते ही सेठ बोला - "मैं मर जाऊं तो हानि नहीं; पर मेरा पुत्र जी उठे यही मेरी इच्छा है ।" यही बात सेठानी और लड़के की स्त्री ने भी कही । महात्मा ने कहा - "मैं एक पुड़िया देता हूँ । तुममे से जो कोई इसे खा लेगा, वह मर जाएगा और लड़का जी उठेगा ।" इस बात के सुनते ही, सब लोग बगल में झाकने और बहाना करने लगें । तब महात्मा ने कहा - "खैर तुम सब नहीं खाते तो मैं ही खा लेता हूँ ।" यह कहकर महात्मा ने पुड़िया खा ली और क्रिया द्वारा सांस उतार उसे होश में कर दिया । लड़के ने सारा हाल सुना । सुनते ही उसे संसारी मुहब्बत का सच्चा हाल मालूम हो गया और उसने घर छोड़ वैराग्य ले लिया । देखिये ! कुटुम्बियों की प्रीती का चित्र महात्मा सुन्दरदास जी कैसी उम्दगी के साथ खींचते हैं -

 

(१)

 

माता पिता युवती सुत बान्धव।

 

लागत है सब कूँ अति प्यारो।।

 

लोक कुटुम्ब खरो हित राखत।

 

होइ नहीं हमते कहुँ न्यारो।।

 

देह-सनेह तहाँ लग जानहु।

 

बोलत है मुख शब्द उचारो।।

 

"सुन्दर" चेतन शक्ति गयी जब।

 

बेगि कहें घर बार निकारो।।

 

 

 

(२)

 

रूप भलो तबही लग दीसत।

 

जौं लग बोलत-चालत आगे।।

 

पीवत खात सुनै और देखत।

 

सोइ रहे उठि के पुनि जागै।।

 

मात पिता भइया मिली बैठत।

 

प्यार करे युवती गल लागे।।

 

"सुन्दर" चेतन शक्ति गयी जब।

 

देखत ताहि सबै डरि भागे।।

 

 

 

माँ, बाप, स्त्री, पुत्र और नातेदार सबको पुरुष बहुत ही प्यारा लगता है । सब लोग उससे खूब मुहब्बत करते और चाहते हैं कि यह हमसे अलग न हो । लेकिन यह देह की मुहब्बत उसी समय तक है, जब तक की प्राणी अच्छी तरह बोलता चालता है । "सुन्दरदास जी" कहते हैं - जहाँ शरीर में से चेतन शक्ति - आत्मा निकल गयी कि वही सब कहने लगते हैं - "इसे जल्दी घर से बाहर निकालो।" जब तक प्राणी बोलता, चालता, खाता, पीता, सुनता और देखता है एवं सोकर फिर जाग उठता है; तभी तक माँ-बाप और भाई पास बैठते हैं और युवती गले से लगकर प्यार करती है । "सुन्दरदास जी" कहते हैं - ज्योंही चेतन शक्ति शरीर से निकल कर बाहर गयी कि लोग उसे देखते ही डर कर भागने लगते हैं ।

 

 

 

जिस संसार की ऐसी गति है जो नीरा माया-जाल या गोरखधन्धा है, जिसमें कुछ भी सार-तत्व नहीं है, जिसमें स्वार्थपरता या खुदगर्ज़ी कूट-कूट कर भरी है, उस पर मूर्ख ही लट्टू होते हैं । जो समझदार हैं वे उसके जाल में नहीं फंसते, अगर फंस भी जाते हैं, तो सबको छोड़-छोड़कर अलग हो जाते हैं । जितने विद्वान और महात्मा हुए हैं सभी ने कहा - "इस संसार के साथ दिल मत लगाओ; इसके बनाने वाले के साथ दिल लगाओ । इसी में आपकी भलाई और आपका कल्याण है । उसकी शरण में जाने वाले के पास दुःख और क्लेश नहीं फटकते । वह अपने शरणार्थी की सदैव रक्षा करता है । कौरव-सभा में उसी ने द्रौपदी की लाज रखी थी । जो उसे याद करता है, उसकी खबर वह अवश्य लेता है ।

 

 

 

कहा है-

 

जो तुमको सुमिरत जगदीशा, ताहि आपनो जानत ईशा ।

 

अभिमानी से हो तुम दूरा, सतवादी के जीवनमूरा

 

सुखी मीन जहँ नीर अगाधा, जिमि हरशरण न एकौ बाधा।।

 

 

 

दोहा

 

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बड़े विवेकी तजत हैं, सम्पत्ति सुत पितु मात।

 

कंथा और कोपीन हूँ, हमसे तजो न जात।।

 

 

 

 

 

 

 

व्याघ्रीव तिष्ठति जरा परितर्जयन्ती

 

रोगाश्च शत्रव इव प्रहरन्ति देहम् ।

 

आयुः परिस्रवति भिन्नघटादिवाम्भो

 

लोकस्तथाप्यहितमाचरतीति चित्रम्।। १०९ ।।

 

 

 

अर्थ:- वृद्धावस्था भयङ्कर बाघिनी की तरह सामने खड़ी है । रोग शत्रुओं की तरह आक्रमण कर रहे हैं, आयु फूटे हुए घड़े के पानी की तरह निकली चली जा रही है । आश्चर्य की बात है, फिर भी लोग वही काम करते हैं, जिससे अनिष्ट हो ।

 

 

 

बुढ़ापा मौत का पेशखीमा है

 

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बुढ़ापा मौत का पेशखीमा या बकौल "सिसरो" ज़िन्दगी के नाटक का आखिरी सीन है । इसी से चतुर पुरुष बुढ़ापे को देखते ही समझ लेते हैं कि मौत अब आने ही वाली है - हमारे जीवन नाटक का अन्तिम पर्दा गिरने ही वाला है - हमारी ज़िन्दगी का अभिनय अब समाप्त होने ही वाला है । इसी से उन्होंने अगर जवानी और बचपन के दिन वृथा जञ्जालों में भी खोये हैं; तो बुढ़ापे में चेत जाते हैं और सब तजकर हर भजने लगते हैं; पर ऐसे समझदारों की संख्या बहुत थोड़ी है । ज़ियादा तादाद उन अज्ञानियों की है, जो बुढ़ापे को सामने देखकर भी, दम और खांसी के आक्रमण होने पर भी, घरवालों से तिरस्कृत होनेपर भी, संसार की ममता नहीं छोड़ते । अनेक बूढ़े ठीक चला-चली के समय शादी-विवाह करते हैं ; अनेक बेटे-पोतों की पालना में लगे रहते हैं और अनेक धन बढ़ने की चिन्ता में ही मशगूल रहते हैं । इन सब कामों से मनुष्यों का अनिष्ट साधन होता है । न तो उन्हें इस जन्म में ही क्षण-भर को शान्ति मिलती है और न मरने पर अगले जन्म में ही । ममता और कामना के कारण उनका संसार-बन्धन दृढ़ हो जाता है और वे बारबार मरते और जन्म लेते हैं तथा इस घोर दुःख को सुख समझते हैं । भगवान् जाने उन्हें इन घोर दुखों को देखकर भी कैसे सन्तोष होता है ?

 

 

 

भगवान शंकराचार्य कहते हैं -

 

यावज्जनं तावन्मरणं, तावज्जननि जठरे शयनं।

 

इति संसारे स्फुटतर दोषः, कथमिह मानव ! तव सन्तोषः?।।

 

 

 

जब तक जन्म ग्रहण करना है, तब तक मरना और माता के पेट में सोना है । संसार में यह दोष स्पष्ट है । हे मनुष्य ! फिर भी तुझे इस जगत में कैसे सन्तोष है ?

 

 

 

रोज़ आँखों से देखते हैं कि इस संसार में ज़रा भी सुख नहीं है । माता के पेट में प्राणी नौ महीने तक घोर नरक-कुण्ड में पड़ा पड़ा सड़ता है । वहां परमात्मा से बारम्बार विनय करता है कि मुझे इस नरक से बाहर कीजिये । मैं बाहर जाते ही केवल आपका भजन करूँगा; पर बाहर आते ही वह सब भूल जाता है । उसे अपने वादे का ध्यान भी नहीं रहता । बाल्यावस्था वह खेल-कूद या पढ़ने-लिखने में गवां देता है; तरुणावस्था में वह तरुणी के फन्दे में फंसा रहता है और बुढ़ापे में नाती-पोतों और दोहितों का सुख देखना चाहता है । इसी तरह उसकी सारी उम्र बीत जाती है और जिस काम के लिए वह यहाँ आया था, वह काम अधूरा या बिना हुआ रह जाता है और समय पूरा होने पर, काल छोटी पकड़ कर ले जाता है । इसके बाद, वह फिर जन्म लेता और मरता है । इस तरह उसे ८४ लक्ष योनियों में जन्म लेना पड़ता है; तब कहीं फिर ऐसा अवसर उसे मिलता है; यानी जन्म-मरण की फांसी काटने वाली मनुष्य-देह मिलती है । अतः ज्ञानी को चाहिए कि अपने मन को अपने अधीन करे और एकाग्र चित्त से परमत्मा की उपासना में लवलीन हो जाय । इस दुर्लभ मनुष्य-देह को वृथा न गवाएं ।

 

 

 

महात्मा चरणदास ने यही सब मोह-मदिरा का नशा उतरनेवाली और गफलत को दूर करनेवाली बातें नीचे के भजन में बड़ी ही खूबी से अदा की हैं -

 

भजन (राग जंगला)

 

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पीले रे प्याला हो जा मतवाला, प्याला प्रेम हरिरस का रे ।।टेक।।

 

पाप-पुण्य दोउ भुगतन आये, कौन तेरा और तू किसका रे?

 

जो दम जीवे प्रभु के गुण गाले, धन यौवन सुपना निश का रे।।

 

बाल अवस्था खेल गवाँई, तरुण भय नारी-बश का रे।

 

वृद्ध भय कफ बाय ने घेरा, खाट परा नहिं जाय मसका रे।।

 

नाभ-कमल बिच है कस्तूरी, कैसे भरम मिटे पशु का रे।

 

मन सतगुरु यों भरमत डोले, जैसे मिरग फिरै बन का रे।।

 

लाख चौरासी से उबरा चाहे, छोड़ कामिनी का चसका रे।

 

प्रेम लगन "चरणदास" कहत है, नखसिख स्वास भरा विष का रे।।

 

 

 

बुढ़ापे में तो मोक्ष रुपी सोना बना लो

 

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मनुष्य की आयु फूटे घड़े के जल की तरह नित्य निकली जा रही है । प्राणी हर क्षण काल के गाल में है । जब तक वह काल के गाल के नीचे नहीं उतरता, तभी तक खैर है । पर मज़ा यह कि मनुष्य आप काल के गाल में है; तोभी विषयों का पीछा नहीं छोड़ता । इसकी दशा उस मेंढक के समान है, जो सांप के मुंह में फंसा हुआ मछरों को मारने की चेष्टा करता था । मनुष्य नित्य देखता है कि करोड़पति, अरबपति और राजा महाराजा अपनी धन-दौलत को यहीं छोड़-छोड़ कर चले जा रहे हैं; फिर भी उसे होश नहीं होता ! भला इस बेहोशी और गफलत का भी कोई ठिकाना है ! बचपन और जवानी में ही परमात्मा से प्रीति करनी चाहिए । अगर उन अवस्थाओं में भूल हो गयी हो; तो बुढ़ापे में तो अवश्य ही सम्भल जाना चाहिए । यह काया पारसमणि है । यह इसलिए मिली है कि इससे मोक्षरूपी सोना बना लिया जाय । जो लोग देर करते हैं, अवधि बीतने पर, यह पारसमणि उनसे छीन ली जाती है और वे मोक्षरूपी सोना नहीं बना पाते; यानी मोक्षलाभ के उपाय करने के पहले ही काल उन्हें ले जाता है ।

 

 

 

पारस पत्थर की बटिया

 

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एक महापुरुष के पास पारस पत्थर की बटिया थी । उन्होंने एक दरिद्र गृहस्थ पर दया कर उसे वह बटिया दे दी और कह दिया कि हम तीर्थ करने जा रहे हैं; १८ महीने बाद लौटेंगे; तब तक तुम इस बटिया से इच्छानुसार सोना बनाकर अपना दारिद्र दूर कर लेना । महात्मा चले गए । गृहस्थ ने बाजार में जाकर लोहे का भाव पूछा । भाव महंगा था, इसलिए सोचा कि जब लोहा सस्ता होगा, लाकर झट सोना बना लूँगा । इस तरह १८ महीनों में जब दो चार दिन रह गए, तब वह लोहा गाड़ियों पर लादकर लाया । विचार किया - "अब क्या देर है, झट सोना बना लेंगे।" उसे तो ख्याल रहा नहीं और १८ मास का आखिरी दिन आ गया । महात्मा भी आ गए । उन्होंने आते ही अपनी पारसमणि मांगी । गृहस्थ ने कहा - "मैं आज शाम को ही आप की बटिया दे दूंगा।" महात्मा ने कहा - "अब समय हो गया; एक क्षण भी बटिया तुम्हारे पास नहीं रह सकती ।" महात्मा ने बटिया ले ली । गृहस्थ रोटा और हाथ मलता रह गया । यह दृष्टान्त है । दृष्टान्त यह है कि समय पूरा हो जाने पर काल इस बात की प्रतीक्षा नहीं करता कि किसी का समय हुआ है कि नहीं; वह तो प्राणी को लेकर चलता बनता है; अतः समय रहते मोक्ष का उपाय करना चाहिए । आग लगने पर कुआँ खोदने से कोई लाभ नहीं । बुढ़ापा या मौत का पेशखीमा आया देखकर भी होश न करना भारी नादानी है ।

 

 

 

मनुष्यों ! विषयों को छोड़ो और परलोक बनाने की फ़िक्र करो; क्योंकि काल तुम्हारे सिरों पर उसी तरह मण्डरा रहा है; जिस तरह बाज़ चिड़िया की घात में मण्डराता है ।

 

 

 

महात्मा सुन्दरदास जी ने खूब कहा है -

 

तू अति गाफिल होय रह्यो शठ,

 

कुञ्जर ज्यूं कछु शंक न आनै।

 

माय नहीं तनमें अपनो बल,

 

मत्त भयो विषय-सुख ठानै।

 

खोंसत-खात सबै दिन बीतत,

 

नीत अनीत कछु नहीं जानै।

 

"सुन्दर" के हरि काल महारिपु,

 

दन्त उखारी कुम्भस्थल भानै।।

 

*इस कविता में मनुष्य को हाथी और मौत को सिंह माना है । सिंह जिस तरह हाथी के दाँत उखाड़ कर उसके कुम्भस्थल को चीर डालता है; उसी तरह काल-सिंह मनुष्य को मार डालता है । (हाथी की पेशानी के ऊपरी भाग में, सामने ही, जो दो गोले होते हैं । उन्हें "कुम्भस्थल" कहते हैं ।

 

 

 

अरे शठ ! तू बहुत ही गाफिल और असावधान हो रहा है । हाथी की तरह मन में भय नहीं करता । तेरे शरीर में तेरा बल नहीं समाता । मतवाला होकर विषय-भोगों का आनन्द लूट रहा है । छीनते और खाते तेरे दिन बीते जा रहे हैं । तू न्याय-अन्याय, कुछ नहीं समझता । "सुन्दरदास" कहते हैं, घोर शत्रु कालरुपी सिंह तेरे दांतों को उखाड़ कर तेरा कुम्भस्थल फाड़ देगा ।

 

 

 

(२)

 

सन्त सदा उपदेश बतावत,

 

केश सबै सर श्वेत भये हैं ।

 

तू ममता अजहुँ नहीं छाँड़त,

 

मौतहु आयी सन्देश दये हैं ।

 

आजु कि कल चलै उठी मूरख,

 

तेरे हि देखत केते गए हैं ।

 

"सुन्दर" क्यूँ नहीं राम सँभारत ?

 

या जगहू में कौन रहे हैं?।।

 

 

 

सन्त लोग सदा उपदेश देते हैं । तेरे सर के बाल सफ़ेद हो गए हैं; मौत ने अपना सन्देश भेज दिया है । अरे मूर्ख ! आज या कल तू उठ जाएगा । पर अफ़सोस ! इतनी खबर पाने पर भी तू होश नहीं करता और अब तक भी ममता नहीं छोड़ता ! अरे शठ ! तेरी आँखों के सामने, देखते देखते कितने ही चले गए; क्या तू यहीं रहेगा ? इस जगत में कौन रहा है ? अब भी तू भगवन को क्यों नहीं याद करता ?

 

 

 

(३)

 

करत करत धन्ध, कछु न जाने अन्ध।

 

आवत निकट दिन, अगले चपाकदे।।

 

जैसे बाज़ तीतर कुं, दावत है अचानक।

 

जैसे बक मछरी कुं, लीलट लपाकदे।।

 

जैसे मक्षिका की घात, मकरी करत आय।

 

जैसे सांप मूसक कुं, ग्रस्त गपाकदे।।

 

चेत रे अचेत नर, "सुन्दर" सँभार राम।

 

ऐसे तांहि काल आय, लेइगो टपाकदे।।

 

 

 

अरे अन्धे ! धन्धों में लगकर तुझे होश नहीं, तेरे अन्तिम दिन शीघ्र शीघ्र नज़दीक आ रहे हैं । जिस तरह बाज़ अचानक आकर तीतर को दबा लेता है, जिस तरह बगुला मछली को चट से निगल जाता है, जिस तरह मकड़ी, मक्खी की घात में लगी रहती है, जिस तरह सांप चूहे को गप से गपक लेता है; उसी तरह काल तुझ पर झपट्टा मारना ही चाहता है । अरे गाफिल मनुष्य ! होशकर और भगवान् को याद कर ।

 

 

 

(४)

 

मेरो देह, मेरो गेह, मेरो परिवार सब।

 

मेरो धन-माल, मैं तो बहु विधि भारो हूँ।।

 

मेरे सब सेवक, हुकम कोउ मेटे नाहिं।

 

मेरी युवती को मैं तो अधिक पियारो हूँ।।

 

मेरो वंश ऊंचो, मेरे बाप-दादा ऐसे भये।

 

करत बड़ाई, मैं तो जगत उजारो हूँ।।

 

"सुन्दर" कहत, मेरो मेरो करि जानै शठ।

 

ऐसे नहिं जाने, मैं तो काल ही को चारो हूँ।।

 

 

 

यह मेरी देह है, यह मेरा घर है, यह सब मेरा कुटुम्ब है, या मेरा धन-माल है, मैं हर तरह से बड़ा आदमी हूँ । मेरे सब नौकर हैं, जो मेरी आज्ञा का उल्लंघन नहीं करते । मैं अपनी युवती का बहुत ही प्यारा हूँ; मेरा कुल और वंश ऊंचा है; मेरे बाप-दादा ऐसे नामी हुए; मैं जगत का उजियारा हूँ; इस तरह मनुष्य अपनी बड़ाई करता और शेखी बघारता है । "सुन्दरदास" कहते हैं, शठ मेरा ही मेरा करता है पर यह नहीं जानता कि मैं स्वयं मौत का चारा हूँ ।

 

 

 

(५)

 

माया जोरि जोरि, नर राखत जतन करि।

 

कहत है एक दिन, मेरे काम आइ है।।

 

तोहि तौ मरत, कछु बेर नहीं लागे शठ।

 

देखत ही देखत, बबूला सो बिलाई है।।

 

धन तो धरयो ही रहे, चालत न कौड़ी गहै।

 

रीते हाथन से जैसो आयो, तैसो ही जाइ है।।

 

करिले सुकृत, यह बेरिया न आवै फेरि।

 

"सुन्दर" कहत नर पुनि पछताई है।।

 

 

 

मनुष्य धन जोड़-जोड़ कर रखता है और कहता है कि यह एक दिन मेरे काम आएगा । अरे मूर्ख ! तुझे तो मरते देर न लगेगी; देखते देखते पानी के बबूले की तरह, बिलाय जाएगा । तेरा धन, यहाँ का यहीं रक्खा रह जायेगा; चलते समय कौड़ी भी तू साथ न ले जाएगा; जिस तरह रीते हाथों आया था, उसी तरह खाली हाथों चला जाएगा । अरे मूर्ख ! परोपकार या धर्म-पुण्य कर ले, यह मौका फिर न मिलेगा । "सुन्दरदास जी" कहते हैं, अगर हमारी चेतावनी पर ध्यान न देगा, तो अन्त समय पछ्तावेगा ।

 

 

 

किसी कवी ने मोह-निद्रा में सोनेवाले गाफिल को जगाने और उसे अपने कर्तव्य पर आरूढ़ करने के लिए कैसा अच्छा भजन कहा है -

 

 

 

भजन

 

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मूरख छाँड़ वृथा अभिमान ।। टेक ।।

 

औसर बीत चल्यो है तेरो, तू दो दिन को मेहमान ।।

 

भूप अनेक भये पृथ्वी पर, रूप तेज बलवान ।

 

कौन बच्यो या काल बली से, मिट गए नामनिशान ।।

 

धवल धाम धार रथ गज सेना, नारी चन्द्र समान ।

 

अन्त समाही सबहिं को तज के, जाय बसै समसान ।।

 

तज सतसङ्ग भ्रमत विषयन में, जा विधि मर्घट-स्वान ।

 

क्षण भर बैठ सुमिरन न कीनो, जासों होत कल्याण ।।

 

रे मन मूढ़ ! अन्त मत भटके, मेरो कह्यो अब मान ।

 

"नारायण" ब्रजराज कुंवर से, बेगि करो पहचान ।।

 

 

 

दोहा

 

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कुपित सिंहनी ज्यों जरा, कुपित शत्रु ज्यों रोग।

 

फूटे घट जल ज्यों वयस, तउ अहितयुत लोग ।।

 

 

 

 

 

सृजति तावदशेषगुणाकरं पुरुष रत्नमलंकरणं भुवः।

 

तदपि तत्क्षणभङ्गि करोति चेदहह कष्टमपंडितंताविधेः।। ११० ।

 

 

 

अर्थ:

 

ब्रह्मा की यह अज्ञानता खटकती है कि वह मनुष्य को गुणों की खान, पृथ्वी का भूषण और प्राणियों में रत्नरूप बनता है; किन्तु उसे क्षणभंगुर कर देता है ।

 

मनुष्य, समस्त जीवधारियों में श्रेष्ठ, अशरफुल, मख़लूक़ात, गुणों का सागर और सृष्टि की शोभा है । यह सब होने पर भी, उसकी उम्र कुछ नहीं; वह पानी के बुलबुले की तरह क्षणभर में नाश हो जाता है ! ब्रह्मा गुणों की खान - पृथ्वी के शोभारूप पुरुष को बनता है, यह तो अच्छी बात है; किन्तु उसे क्षणभर में ही नाश कर देता है, यह दुःख की बात है ! यह विधाता की मूर्खता है ! यदि वह पुरुष को सदा रहनेवाला  - अमर और अजर बनता, तो अच्छा होता । इसमें उसकी बुद्दिमत्ता दीखती । क्योंकि अपने बाग़ में आप ही वृक्ष लगा कर, आप ही जल से सींच कर और बढाकर, अपने ही हाथों से अपने लगाए हुए वृक्ष को कोई नहीं काटता । जो ऐसा करता है; वह मूर्ख ही समझा जाता है ।

 

 

 

विधाता की और भी गलतियां

 

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इस सृष्टि की रचना में, विधाता ने अपनी अनुपम कारीगरी और चातुरी के जो काम किये हैं; उन्हें देखकर मनुष्य की अक्ल दंग रह जाती है । तरह-तरह के फल-फूल और वृक्ष लता पत्रादि; नाना प्रकार के जल, थल और आकाश में विचरने वाले प्राणी; अनगिनत तारे और सूरज-चन्द्रमा तथा नीलगगन प्रभृति को देखकर रचयिता की रचनाचातुरी की हज़ार दिल से तारीफ करनी पड़ती है । निस्सन्देह, विधाता की क्षमता और बुद्धिमत्ता, चतुरी और कारीगरी का पार पाना असंभव है; तथापि यह कहना पड़ता है कि, उस चतुर कारीगर ने भूलें भी बहुत कि हैं । जिस तरह उसने मनुष्य को, सृष्टि का सरदार बनाकर, क्षणभंगुर करने की भूल की है; उसी तरह उसने सोने में सुगन्ध और ईख में फूल न लगाने तथा चन्द्रमा को कलंकी बनाने की भूलें की हैं ।

 

 

 

किसी ने कहा है -

 

शशिनि खलु कलङ्कः, कण्टक पद्मनाले,

 

युवतिकुचनिपात, पक्वता केशजाले।

 

जलधिजलमपेयं, पण्डिते निर्धनत्वं,

 

वयसि धनविवेको, निर्विवेको विधाता।।

 

 

 

चन्द्रमा में कलङ्क, कमल की डण्डी में काँटे, युवतियों की छातियों का गिर जाना, बालों का सफ़ेद हो जाना, समुद्र के जल का पीने योग्य न होना, विद्वानों का धनहीन रहना और बुढ़ापे में धनागम की चिन्ता रहना - ये सब विधाता की मूर्खता का परिचय देते हैं ।

 

 

 

 

 

कहाँ तक कहें, विधाता ने ऐसी-ऐसी अनेक भूलें की हैं । हमने उसकी भूलों के चन्द नमूने यहाँ दिखा दिए हैं । ये सब भूलें मन में काँटे की तरह खटकती हैं; पर इन सब में भी, मनुष्य जैसे प्राणी का, क्षणभर में ही, बबूले की तरह बिलाय जाना सब से अधिक खटकता है ।

 

 

 

 

 

 

 

गात्रं संकुचितं गतिर्विगलिता भ्रष्टा च दन्तावलिः-

 

दृष्टिर्नश्यति वर्धते बधिरता वक्त्रं च लालायते ।

 

वाक्यं नाद्रियते च बान्धवजनो भार्या न शुश्रूषते

 

हा कष्टं पुरुषस्य जीर्णवयसः पुत्रोप्यमित्रायते ।। १११ ।।

 

 

 

अर्थ:

 

मनुष्य की वृद्धावस्था बड़ी खेदजनक है । इस अवस्था में शरीर सुकड़ जाता है, चाल मन्दी पद जाती है, दन्त-पंक्ति टूटकर गिर जाती है, दृष्टी नाश हो जाती है, बहरापन बढ़ जाता है, मुंह से लार टपकती है, बन्धुवर्ग बातों से भी सम्मान नहीं करते, स्त्री भी सेवा नहीं करती और पुत्र भी शत्रु हो जाते हैं ।

 

 

 

बुढ़ापे का चित्र

 

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मनुष्य का बुढ़ापा सचमुच ही दुखों की खान है । जिस तरह शत्रु घात लगाए रहते हैं और मौका पाते ही हमला करते हैं; वैसे ही रोग जवानी में तो दबे-छिपे पड़े रहते हैं, पर बुढ़ापे की अवायी देखते ही प्रणिपार चढ़ बैठते हैं । बुढ़ापे में शरीर निकम्मा हो जाता है, खाल झूलने लगती है, इन्द्रियां बेकाम हो जाती हैं, आँखों से दिखाई नहीं देता, कानो से सुनाई नहीं देता, पैरों से चला नहीं जाता और दम चढ़ा करता है । हर समय खों-खों लगी रहती है; दांत अलग ही कष्ट देते और हिल हिल कर प्राण लेते हैं । कोई कड़ी चीज़ खाई नहीं जाती । ज़रा भी कड़ी चीज़ दांतों-टेल आने से दम निकलने लगता है । जिस समय दन्त-पीड़ा के मारे माथा और कनपटी भन्नाने लगते हैं, तब मनुष्य मृत्यु को याद करने लगता है ।

 

 

 

दांतो पर उस्ताद ज़ौक़ ने खूब कहा है :-

 

जिन दांतों से हँसते थे हमेशा, खिल-खिल।

 

अब दर्द से हैं वही रुलाते, हिल-हिल।।

 

पीरी में कहाँ, अब वह जवानी के मज़े।

 

ए ज़ौक़, बुढ़ापे से हैं दांता किल-किल।।

 

 

 

जिन दांतो से जवानी में खिल खिलाकर हंसा करते थे, अब बुढ़ापे में वही हिल हिल कर हमें रुलाते हैं । ए ज़ौक़ ! बुढ़ापे में अब वह जवानी के मज़े कहाँ हैं ? अब तो इस बुढ़ापे से दांता किल-किल है !

 

 

 

महाकवि नज़ीर अकबराबादी "बुढ़ापे" का क्या ही अच्छा चित्र खींचते हैं -

 

बुढ़ापा

 

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क्या कहर है यारों, जिसे आ जाय बुढ़ापा।

 

और ऐश जवानी के तई, खाय बुढ़ापा।।

 

इशरत को मिला ख़ाक में, गम लाय बुढ़ापा।

 

हर काम को हर बात को, तरसाय बुढ़ापा।।

 

सब चीज़ को होता है, बुरा है बुढ़ापा।

 

आशिक को तो अल्लाह, न दिखलाय बुढ़ापा।।

 

 

 

आगे तो परीजाद ये, रखते थे हमें घेर।

 

आते थे चले आप, जो लगती थी ज़रा देर।।

 

सो आके बुढ़ापे ने किया, है ये अन्धेर।

 

जो दौड़ के मिलते थे, वो अब लेते हैं मुंह फेर।।

 

सब चीज़ को होता है, बुरा है बुढ़ापा।

 

आशिक को तो अल्लाह, न दिखलाये बुढ़ापा।।

 

 

 

क्या यारो, उलट है गया हमसे ज़माना।

 

जो शोख कि थे, अपनी निगाहों के निशाना।।

 

छेड़े है कोई डाल के, दादा का बहाना।

 

हंस कर कोई कहता है, कहाँ जाते हो नाना।।

 

सब चीज़ को होता है, बुरा है बुढ़ापा।

 

आशिक को तो अल्लाह, न दिखलाय बुढ़ापा।।

 

 

 

पूछैं जिसे कहता है, वो क्या पूंछे है बुड्ढे।

 

आवें तो ये गुल-शोर; कहाँ आवे है बुड्ढे।।

 

बैठे तो ये है धूम, कहाँ बैठे है बुड्ढे।

 

देखें जिसे वह कहता है, क्या देखे है बुड्ढे।।

 

सब चीज़ को होता है, बुरा है बुढ़ापा।

 

आशिक को तो अल्लाह, न दिखलाय बुढ़ापा।।

 

 

 

वह जोश नहीं, जिसके कोई खौफ से दहले।

 

वह ज़ोम नहीं, जिससे कोई बात को सहले।।

 

जब फस हुए हाथ, थके पाँव भी पहिले।

 

फिर जिसके जो कुछ शौक में आवे, सोइ कहले।।

 

सब चीज़ को होता है, बुरा है बुढ़ापा।

 

आशिक को तो अल्लाह, न दिखलाय बुढ़ापा।।

 

 

 

करते थे जवानी में, तो सब आपसे आ चाह।

 

और हुस्न दिखाते थे, वह सब आन के दिलख़्वाह।।

 

यह कहर बुढ़ापे ने किया, आह नज़ीर आह !

 

अब कोई नहीं पूछता, अल्लाह ही अल्लाह।।

 

सब चीज़ को होता है, बुरा है बुढ़ापा।

 

आशिक को तो अल्लाह, न दिखलाय बुढ़ापा।।

 

 

 

बुढ़ापे में निर्धनता मरण है

 

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यदि मनुष्य जवानी में प्रचुर धन कमाकर रख देता है, तब तो बुढ़ापा सुख से पार हो जाता है; घरवाले हलवा और मोहन-भोग खिलाते, गरमागरम दूध पिलाते अथवा कोई और सुख से खाये जाने योग्य पदार्थ बना देते हैं; यदि पास पैसा नहीं होता, तो सभी घरवाले हर तरह से अनादर करते और सूखे टुकड़े सामने रखते हैं; इच्छा हो बूढ़ा खाय, इच्छा हो न खाय । अगर बूढ़े के पास धन होता है, तो स्त्री, पुत्र, पौत्र और पुत्री तथा पुत्र-वाद्यें हर समय बूढ़े की हाज़िरी में खड़े रहते हैं; मुंह से बात निकलती नहीं और काम हो जाता है । अगर बूढ़े के पास धन नहीं होता, तो सब उसे त्याग देते हैं; क्योंकि यह संसार मतलब का है; बिना स्वार्थ, बिना मतलब और बिना पैसे कोई बात नहीं करता । मतलब से ही लोग एक दुसरे के नातेदार और सम्बन्धी बने हुए हैं; वास्तव में कोई किसी का नहीं है ।

 

 

 

कहा है -

 

वृक्षं क्षीणफलं त्यज्यन्ति विहगाः, शुष्कसरः सारसाः।

 

पुष्पं पर्य्युषितं त्यज्यन्ति मधुपा, दग्धं वनान्तं मृगाः।।

 

निर्द्रव्यं पुरुषं त्यज्यन्ति गणिकाः, भृष्टश्रियं मन्त्रिणः।

 

सर्व्वः कार्यवशाद् जनोऽभिरमते, कस्यास्तिको वल्लभः ?।।

 

 

 

फलहीन वृक्ष को पक्षी त्याग देते हैं, सूखे तालाब को सारस छोड़ देते हैं, मधुहीन फूलों को भौंरे त्याग देते हैं, जले हुए वन को हिरन छोड़ देते हैं, धनहीन पुरुष को वेश्या त्याग देती है और श्रीहीन राजा को मन्त्री त्याग देते हैं । सब मतलब से एक दुसरे को चाहते हैं; नहीं तो कौन किसका प्यारा है ?

 

 

 

"मोहमुद्गर" में लिखा है -

 

यावद् वित्तोपार्जनशक्तः, तावन्निजपरिवारो रक्तः।

 

तदनु च जरया जर्जर देहे, वार्तां कोऽपि न पृच्छति गेहे।।

 

 

 

जब तक धन कमाने की सामर्थ्य रहती है, तब तक कुटुम्ब के लोग राज़ी रहते हैं; इसके बाद, बुढ़ापे से शरीर जर्जर होते ही कोई बात तक नहीं पूछता।

 

संसार की यही धरा है । जिस पुत्र के लिए बचपन में कहीं से धन लाते और उसे अच्छा पिलाते-खिलाते और पहनाते थे, हर तरह लाड-प्यार करते थे; पास पैसा न होने पर भी, पढ़ाने-लिखाने में अपनी शक्ति से अधिक खर्च करते थे; आप तंगी भोगते थे, पर पुत्र को तंगदस्त न होने देते थे; आप फाटे कपडे पहने फिरते थे; पर उसे अच्छे से अच्छा पहनाते थे; अब वही पुत्र मुंह से नहीं बोलता, मौका पड़ने से वह या उसके पुत्र गालियां देते और कभी कभी बूढ़े को मार तक बैठते हैं; पुत्र-वधुएं दिन-भर टनटनाया करती और कहती हैं - "ससुरजी मारें तो संकट कटे; दिन-भर पड़े पड़े खाते और थूक-थूक कर घर ख़राब करते हैं; हमसे तो रोज़ रोज़ मैला साफ़ नहीं होता।" बेटों की बहुएं तो बहुएं, ख़ास अपनी अर्धाङ्गी देखते ही आँखें चढ़ा लेती और खाऊँ-खाऊँ करती रहती है; बूढ़े पति को आलिङ्गन करना, उसकी सेवा करना तो दूर की बात है, उसे पास बैठना भी बुरा समझती है । बीमारी में सेवा-सुश्रुषा करती-करती कहने लगती है - "अब तो तुम मर जाओ तो अच्छा हो । मुझसे यह सब अब नहीं होता ।" कहाँ तक गिनाव, बुढ़ापे में ऐसे-ऐसे अनगिन्तो दुःख आ घेरते हैं; पर आश्चर्य तो यह है कि, इतने पर भी, अज्ञानियों का मोह नहीं छूटता । हमें एक मोहान्ध बूढ़े की की कहानी याद आयी है, उससे पाठकों को बहुत कुछ ज्ञान होता - उनकी आँखें खुल जाएंगी -

 

 

 

एक बूढ़े सेठ की दुर्दशा

 

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किसी नगर में एक बूढ़ा सेठ रहता था । उसने जवानी में बहुत सा धन सञ्चय किया था । बुढ़ापे में पुत्रों ने सारा धन उससे अपने हाथोने में ले लिया । बूढ़े को पौली में एक टूटी सी चारपाई पर, एक फटी-पुरानी गुदडी बिछाकर पटक दिया । एक लाठी उसके हाथ में दे दी और कह दिया कि घर में चोर-चकोर या कुत्ता-बिल्ली न आने पावे। सब घर के भोजन कर लेने पर बचा खुचा खाना एक फूटी सी थाली में रखकर बाह्यें बूढ़े को दे जातीं । कुछ दिन इस तरह गुज़रे । पुत्र-वधुओं को यह भी अच्छा न लगा । उन्होंने कहा - "ससुरजी के कारण निकलने-बैठने में बार-बार घूंघट करना होता है, इससे बड़ा कष्ट होता है । अच्छा हो अगर ऊपर के चौबारे में रख दिए जाएँ और एक घण्टी इन्हें दे दी जाय । जब इन्हें किसी चीज़ की जरुरत होगी, यह घण्टी बजा देंगे ।" कलियुग में जोरू का हुक्म खुदा के हुक्म के बराबर समझा जाता है । बेटों ने अपनी घरवालियों की बात मंजूर कर ली और कह-सुन कर बूढ़े को ऊपर पहुंचा दिया और एक घण्टी उसे दे दी । बूढ़े को जब खाना या पानी वगैरह की जरुरत होती, घण्टी बजा देता । कुछ दिनों बाद एक दिन, बूढ़े का नाती ऊपर चला गया । बूढ़ा उसे खिलता रहा । शेष में, वह खेलता-खेलता घण्टी ले आया । अब तो मुश्किल हो गयी; बूढ़ा खाये-पिए बिना मर गया । २४ घण्टे बीतने पर किसी को उसकी याद आयी । देख, तो बुधिराम कूच कर गए थे । पुत्रों ने उसे श्मशान पर ले जाकर जला दिया । बुढ़ापे में ऐसी ही दुर्गति होती है ।

 

 

 

बुढ़ापे में ममता और भी बढ़ जाती है

 

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एक बूढ़ा अपने मकान की पौली में पड़ा रहता था । कोई उसकी बात न पूछता था । बेचारा ज्यों त्यों करके दिन काटता था । एक दिन उसका पोता उसे मारने और गाली देने लगा । बूढ़ा भी उसे गाली देने लगा । इतने में नारदजी उधर से आ निकले । उन्होंने बूढ़े से सारा हाल पूछा । उसकी दुर्दशा का हाल सुनकर, नारद जी ने उससे कहा - "तुम्हारा जीवन वृथा है । तुम या तो वन में जाकर तप करो या हमारे साथ स्वर्ग को चलो ।" सुनते ही बूढ़ा लाल हो गया और बोलै - "महाराज ! अपनी राह लीजिये । मेरे नाती-बेटे मुझे मारें चाहें गाली दें, आप काज़ी या मुल्ला ? मैं इन्हीं में खुश हूँ ।" नारदजी संसार की मोह-ममता देखकर दंग रह गए । बात यह है कि, अज्ञानी लोगों कि तृष्णा और ममता बुढ़ापे में और भी बढ़ जाती है । वे हज़ारों तरह के कष्ट सहते और अपमानित होते हैं; पर गृहस्थाश्रम को नहीं त्यागते । इसी मिथ्या और स्वार्थपर संसार कि हाय-हाय में एक दिन मर जाते और ममता के कारण बार-बार जन्म लेते और मरते हैं । इस तरह उनके जन्म-मरण का चक्र घूमा ही करता है ।

 

 

 

मोह त्यागने में ही भलाई है

 

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मोह-ममता ही संसार-बन्धन का कारण है । ज्ञानी समझते हैं कि यहाँ कोई किसी का नहीं है । सभी सराय के मुसाफिर हैं । राह चलते-चलते एक जगह एकत्र हो गए हैं । अपना-सपना समय होने पर, अपनी-अपनी राह लगते हैं । न कोई किसी कि स्त्री है और न कोई किसी का पति है; न कोई किसी का पुत्र है और न पिता; न कोई किसी का भतीजा है और न चाचा प्रभृति । स्वार्थ की जञ्जीर में सब बन्धे हुए हैं । फिर इन स्वार्थियों का साथ भी सदा-सर्वदा को नहीं । आज साथ हैं, तो कल अलग हो जाएंगे । जन्म के साथ मृत्यु निश्चित है और संयोग के साथ वियोग अटल है । जब पुरुष का स्त्री से वियोग होता है, तब उसको बड़ा कष्ट और शोक होता है । इसी तरह पुत्र के मरने पर भी महा शोक होता है । पर जो ज्ञानी हैं , तत्त्ववेत्ता हैं, वे इस जगत के नातों की असलियत को जानते हैं; अतः या तो वे गृहस्थी को तज देते हैं या कुटुम्बियों में रहते हुए भी उनमें मोह-ममता नहीं रकते । जो परिवार में रहते हुए भी, परिवार में मोह-ममता नहीं रखते, वे जीवन्मुक्त हैं । धन्य हैं ऐसे नररत्न !

 

 

 

एक निर्मोही राजा की कहानी सुनने और ध्यान देने योग्य है -

 

 

 

निर्मोही राजा

 

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किसी नगर में एक ज्ञानी राजा था । उसे सब निर्मोही कहते थे । एक दिन उसका राजकुमार बन में शिकार खेलने गया । उसे प्यास ज़ोर से लगी । पानी की खोज में, वह एक मुनि के आश्रम में जा पहुंचा । मुनि ने उसे जल पिलाया और पूछा - "आप किसके पुत्र हैं ?" लड़के ने कहा - "मैं निर्मोही राजा का पुत्र हूँ ।" महात्मा ने कहा - "राजकुमार ! एक ही मनुष्य निर्मोही भी हो और साथ ही राजा भी हो, यह नितान्त असंभव है । जो राजा होगा, वह निर्मोही न होगा और जो निर्मोही होगा, वह राजा न होगा ।" राजकुमार ने कहा - "यदि आपको विश्वास नहीं आता; तो आप जाकर परीक्षा कर लीजिये ।" मुनि ने कहा - "अच्छा, हम नगर में जाते हैं । जब तक हम न लौटें, तब तक आप यहीं ठहरें ।" यह कहकर मुनि महाराज नगर को चले गए और राजभवन के द्वार पर जा पहुंचे । द्वार पर उन्हें एक दासी कड़ी मिली ।

 

मुनि ने दासी से कहा:

 

तू सुन चेरी श्याम की, बात सुनावौं तोहि ।

 

कुंवर विनास्यौ सिंह ने, आसान परयौ मोहि ।।

 

 

 

दासी ने जवाब दिया:

 

ना मैं चेरी श्याम की, नहि कोई मेरो श्याम ।

 

प्रारब्धवश मेल यह, सुनो ऋषि अभिराम ।।

 

 

 

इसके बाद ऋषि आगे चले, तो उन्हें राजकुमार की स्त्री मिली । उससे उन्होंने कहा -

 

।। दोहा ।।

 

तू सुन चातुर सुन्दरी, अबला यौवनवान ।

 

देवीवाहन दलमल्यौ, तुम्हरो श्रीभगवान ।।

 

 

 

स्त्री ने जवाब दिया:

 

।। दोहा ।।

 

तपिया पूरब जनम की, क्या जानत हैं लोक ।

 

मिले कर्मवश आन हम, अब विधि कीन वियोग ।।

 

 

 

इसके बाद ऋषि ने राजकुमार की माता से मिलना चाहा । वे रानी के पास जा पहुंचे और उससे मिलकर उन्होंने कहा -

 

।। दोहा ।।

 

रानी तुमको विपत्ति अति, सूत खायो मृगराज ।

 

हमने भोजन न कियो, तिसी मृतक के काज ।।

 

 

 

रानी ने जवाब दिया:

 

।। दोहा ।।

 

एक वृक्ष डालें घनी, पंछी बैठे आय ।

 

यह पाटी पीरी भई, उड़ उड़ चहुँ दिशि जाएँ ।।

 

 

 

इसके बाद ऋषि राज-दरबार में गए और राजा से मिले । कुशल-प्रश्न होने के बाद ऋषि ने कहा -

 

।। दोहा ।।

 

राजा मुखत में राम कहु, पल-पल जात घडी ।

 

सुत खायो मृगराज ने, मेरे पास खड़ी ।।

 

 

 

राजा ने जवाब दिया:

 

।। दोहा ।।

 

तपिया तप क्यों छांडियो, इहाँ पालक नहि सोग ।

 

वासा जगत सराय का, सभी मुसाफिर लोग ।।

 

 

 

राजा का जवाब सुनते ही ऋषि को विश्वास हो गया कि, राजा ही नहीं, राजा और राजा का सारा कुटुम्ब निर्मोही है ।

 

 

 

मनुष्य को प्रथम तो गृहस्थाश्रम में रहना ही नहीं चाहिए और यदि रहे भी, तो निर्मोही राजा कि तरह मोह त्याग कर रहे । ममता त्याग कर गृहस्थी में रहने से, मनुष्य भवबंधन में नहीं बांधता और संसार के दुःख-क्लेश उसे संतप्त नहीं कर सकते । ऐसे ज्ञानी को जीवन्मुक्त कहते हैं ।

 

 

 

पर हम देखते हैं कि बुढ़ापे में मनुष्य कि आशा-तृष्णा और भी बढ़ जाती है । बूढ़ा रात-दिन अपने बेटे-पोतों और दोहितों की चिन्ता में ही मग्न रहता है । आप मरने के किनारे बैठा रहता है; तोभी पुत्र-पौत्रों के लिए धन की चिन्ता किया करता है । उसे काम से काम इस चला चली की अवस्था में तो परमात्मा का भजन करना चाहिए; पर बूढ़े से यह नहीं होता ।

 

 

 

शंकराचार्य कृत "मोहमुद्गर" में लिखा है -

 

बालस्तावत् क्रीड़ासक्तः, तरुणस्तावत् तरूणीरक्तः।

 

वृद्धस्तावत् चिंतामग्नः, परमे ब्रह्मणि कोऽपि न लग्नः।।

 

 

 

बचपन में मनुष्य खेल-कूद में लगा रहता है, जवानी में युवती स्त्री में आसक्त रहता है और बुढ़ापे में चिन्ता फ़िक्रों में डूबा रहता है; लेकिन परम ब्रह्म की चिन्तना में कोई नहीं लगा रहता ।

 

 

 

शोक चिन्ता करना वृथा है

 

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शोक चिन्ता करना वृथा और नाशमान है । यहाँ कोई किसी का नहीं फिर वृथा शोच-फ़िक्र में अपनी दुर्लभ मनुष्य-देह को नाश करना और जिस काम के लिए जगत में आये हैं, उस काम की ओर ध्यान न देना, सचमुच ही भारी नादानी है । पुत्र मर गया तो क्या ? स्त्री मर गयी तो क्या ? धन चला गया तो क्या ? जिस तरह स्त्री-पुत्र, मित्र-यार प्रभृति चले गए; मर गए; उसी तरह हम भी एक दिन मर जाएंगे; फिर शोच किसका ? यदि वे चले जाते और हम सदा बने रहते; तो भी शोच सकते थे; पर जब सभी को जाना है तो कौन किसका शोच करे ?

 

 

 

कहा है -

 

अष्टकुलाचलसप्तसमुद्राः ब्रह्म-पुरन्दर-दिनकर-रुद्राः।

 

न त्वं नाहं नायं लोकः, तदपि किमर्थं क्रियते शोकः ।।

 

 

 

हिमाचल और विंध्याचल प्रभृति आठ पर्वत, सातों समुद्र, ब्रह्मा, इन्द्र, सूर्य और रूद्र सभी अनित्य और नाशमान हैं । न तू, न मैं और न यह लोक स्थायी है; तो फिर शोक किस लिए किया जाता है ?

 

 

 

मृत्यु से डरने और घबराने की जरुरत नहीं

 

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जब तक मनुष्य को शरीर और शरीरी अथवा देह और आत्मा के अलग-अलग होने का ज्ञान नहीं होता, तब तक वह इस बात को नहीं समझता कि आत्मा, अमर,अविनाशी, नित्य और शाश्वत है; वह कभी नहीं मरता, उसे जल डूबा नहीं सकता, आग जला नहीं सकती, हवा सोख नहीं सकती, तलवार-बन्दूक प्रभृति मार नहीं सकती, तभी तक वह डरता और घबराता है । यह शरीर नाश होता है, आत्मा नहीं; मरना, एक कपडा उतारकर दूसरा पहनना है; शरीर आत्मा के ठहरने की धर्मशाला मात्र है; अगर यह धर्मशाला टूट जायेगी तो आत्मा दूसरी में जा रहेगा - ऐसा ज्ञान होते ही, मनुष्य के मन में भय और भावना नहीं रहती । दुःख सुख का सम्बन्ध शरीर से है, आत्मा से नहीं; आत्मा को दुःख सुख नहीं व्यापते, क्योंकि वह निराकार है - ऐसा ज्ञान होते ही, दुःख आप से आप भाग जाते हैं - हाँ मौत की याद हरदम रखनी चाहिए, क्योंकि मौत को याद रखने से पाप नहीं होते और परमात्मा की शरण में शांति लाभ करना ही अच्छा मालूम होता है; पर मौत से डरना कभी न चाहिए । जो शरीर और आत्मा में भेद नहीं समझते, वे ही मौत के नाम से काँप उठते हैं; किन्तु जो शरीर और आत्मा को जुदा-जुदा समझते हैं, जीवन में कभी पाप नहीं करते, सदा पराया भला करते और परमात्मा को हर क्षण याद करते हैं, वे हँसते-हँसते चोला छोड़ देते हैं । भीष्म-पितामह कई दिनों तक शरशय्या पर लेटे रहे उन्हें ज़रा भी कष्ट न मालूम हुआ । अन्तिम दिन उन्होंने जगदीश को याद करते करते, नश्वर चोला हँसते-हँसते त्याग दिया ।

 

 

 

भीष्म-पितामह आत्मतत्त्व को पूर्वतया जानने वाले थे । वे जानते थे कि मैं पहले भी था अब वर्त्तमान में भी हूँ और आगे भविष्य में भी इसी तरह रहूँगा । शत्रु मेरा बाल भी बांका नहीं कर सकते । हाँ, वे मेरी इस देह का नाश कर सकते हैं; पर देह का नाश होने से मेरी क्या हानि ? इस देह के नाश होने पर, दूसरी देह, इससे ताज़ा और नई, मुझे मिलेगी । मेरा आत्मा नित्य और अविनाशी है, उसे नाश करनेवाला जगत में कोई भी नहीं ।

 

 

 

गीता में कहा है -

 

नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि, नैनं दहति पावकः ।

 

न चैनं क्लेदयन्त्यापो, न शोषयति मारुतः ।। 23 ।।

 

 

 

अविनाशी तू तद्विद्धि येन सर्वमिदं ततम् ।

 

विनाशमव्ययस्यास्य न कश्चित्कर्तुमर्हति ।। १७ ।।

 

 

 

मुझको काटे कहाँ है वह तलवार ।

 

दाग दे मुझको कहाँ है वह नार ।।

 

गरम मुझको करे, कहाँ है वह पानी ।

 

वह में कब ताब, सूखने की ।।

 

मौत को मौत न आएगी ।

 

क़सद मेरा जो करके जायेगी ।।

 

 

 

मौत का शोक दूर करने का नुस्खा

 

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महात्मा बुद्ध के ज़माने में किसी स्त्री का इकलौता पुत्र मर गया । पुत्र-शोक, सब शोकों से भारी होता है; इसलिए वह स्त्री शोकाभिभूत होकर, महात्मा बुद्ध के पास गयी और उनसे लड़के के जिला देने की प्रार्थना की । महात्मा ने कहा - "जिस घर में कोई न मारा हो, उस घर से थोड़े राय के दाने ले आओ । अगर तुम वो दाने ले आई तो हम तुम्हारे पुत्र को ज़िन्दा कर देंगे ।" वह स्त्री घर-घर पूछती फिरी; पर उसे एक भी घर ऐसा न मिला,जिसमें मौत न हुई थी । अतः वह बैरंग वापस आयी और महात्मा से सारा हाल निवेदन कर दिया । सुनते ही महात्मा ने कहा - "मौत प्राणिमात्र के पीछे लगी हुई है; जो जन्मा है वह अवश्य मरेगा । यह संसार नाशमान है । आगे पीछे सब को इस जगत से चल देना है। कोई सदा सर्वदा के लिए यहाँ नहीं आया । इसलिए इसमें शोक की कोई बात नहीं । मूर्ख ही मरे हुए का शोच किया करते हैं, ज्ञानी नहीं । ज्ञानी जानते हैं, कि आत्मा अजर, अमर, नित्य और अविनाशी है; इसी से वे शोच नहीं करते; किन्तु मूर्ख देह को आत्मा समझते हैं; इसी से शोक करते हैं ।" महात्मा का यह उपदेश सुनते ही, स्त्री का शोक दूर हो गया और उसे परम शांति लाभ हुई ।

 

 

 

भगवान् की शरण में ही सुख है

 

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इस जगत में मनुष्य को किसी भी अवस्था में सुख नहीं है । फिर बुढ़ापा तो हर तरह दुखों की खान ही है । अतः मनुष्य को जवानी में ही, आगे आनेवाले बुढ़ापे का ख्याल करके, विषयों से मन हटा लेना और परिवार वालों के नाम को भी न रखा चाहिए । सामझदार को कम से कम जवानी के उतार में तो घर जञ्जाल त्याग, वन में जा, परमात्मा की भक्ति और उपासना करनी चाहिए । मन बारम्बार दबाने और समझने से से शान्त हो जाता है और धीरे-धीरे रही सही ममता भी छूट जाती है । अभ्यास के कारण, अन्तकाल में भगवत ही मन में रहने से, मनुष्य की मुक्ति भी हो जाती है; यानि आवागमन से पीछा छूट जाता है । परब्रह्म की शरण में चले जाने से जो आनन्द आता है, उसे लिखकर बता नहीं सकते ।

 

बुढ़ापे का चित्र देखकर, मौत को सिर पर मँडराती समझकर, कुटुम्बियों का नाता झूठा समझकर, विषय-वासनाओं को त्यागकर, पुत्र-कलत्र और धन-दौलत की ममता छोड़कर वैराग्य में मन लगाओ । अच्छा हो यदि शरीर में शक्ति सामर्थ्य होते हुए घर से निकल कर वन में जा बसों और सबसे नाता तोड़ एकमात्र परमात्मा से नाता जोड़ लो । उसका नाता ही सच्चा नाता है; और सब नाते झूठे हैं । उसकी शरण में चले जाने से शोक-ताप सता नहीं सकते । भगवान् को भूलने से ही मनुष्य दुःख भोगता और संसारी शत्रुओं से तंग रहता है; किन्तु जो भगवान् के चरण-कमलों में चला जाता है, उसका कोई अनिष्ट नहीं कर सकता और शोक-ताप तो उससे हज़ार कोस दूर भागते हैं । याद रक्खो, परमात्मा की शरण में चले जाने वाले से काल और यमराज तक भय खाते हैं ऋद्धि सिद्धि तो उसके सामने हाथ बांधे खड़ी रहती हैं ।

 

 

 

भगवान् ने कहा है -

 

जो समीप आवै शरणाई ।

 

राखौं ताहि प्राण की नाई ।।

 

 

 

गोस्वामी तुलसीदास कहते हैं -

 

कोटि विघ्न संकट विकट, कोटि शत्रु जो साथ।

 

तुलसी बल नहीं कर सकें, जो सुदृष्टि रघुनाथ।।

 

राखन हारा साइयाँ, मारि न सकहे कोय ।

 

बाल न बांका कर सकै, जो जग बैरी होय ।।

 

 

 

बुढ़ापे में जगदीश को याद करो

 

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बुढ़ापा आ जाने पर भी, जो परलोक बनाने की सुध नहीं करते, स्त्री-पुरुषों की ममता में पड़कर, घर-गृहस्थी के जञ्जाल में फंसकर, उम्र पूरी कर देते हैं, उनकी भयङ्कर हानि और निन्दा होती है ।

 

कहा है -

 

मूर्खो द्विजातिः स्थविरो गृहस्थः ।

 

कामी दरिद्रो, धनवान तपस्वी ।।

 

वेश्या कुरूपा, नृपतिः कदर्य्यः ।

 

लोके षडेतानि विडम्बितानि ।।

 

 

 

मूर्ख ब्राह्मण, बूढा गृहस्थ, दरिद्री कामी, धनवान तपस्वी, कुरूपा वेश्या और स्वेच्छाचारी राजा - ये ६ अपना फजीता और लोकनिन्दा करनेवाले हैं ।

 

 

 

जो बुढ़ापे तक भी गर्भावस्था का किया इकरार पूरा नहीं करते, उनको विद्वान् और तत्त्ववेत्ता लोग पुरुष नहीं "नपुंसक" कहते हैं । उनको बारम्बार जन्म लेना और मरना होता है । अतः बुढ़ापे में तो मनुष्य को सब तज कर हर भजन और अपना परलोक सुधारना चाहिए ।

 

 

 

छप्पय

 

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भयो संकुचित गात, दन्तु उखरि परे महि।

 

आँखिन दीखत नाहिं, बदन ते लार परत बहि।।

 

भई चाल बेचाल, हाल बेहाल भयो अति ।

 

बचन न मानत बन्धु, नारिहु तजि प्रीति गति ।।

 

यह कष्ट महा दिए वृद्धपन, कछु मुख सों नहिं कहि सकत।

 

निज पुत्र अनादर कर कहत, यह बूढ़ो यों ही बकत ।।

 

 

 

 

 

 

 

क्षणं बालो भूत्वा क्षणमपि युवा कामरसिकः

 

क्षणं वित्तैहीनं क्षणमपि च सम्पूर्णविभवः।

 

जराजीर्णैरङ्गैर्नट इव क्लीमंडिततनुर्नरः

 

संसारान्ते विशति यमधानीजवनिकाम्।। ११२ ।।

 

 

 

अर्थ:

 

मनुष्य नाटक के एक्टर के समान है; जो क्षणभर में बालक, क्षणभर में युवा और कामी रसिया बन जाता है तथा क्षण में दरिद्र और क्षण में धनैश्वर्य-पूर्ण हो जाता है । फिर; अन्त में बुढ़ापे से जीर्ण और सुकड़ी हुई खाल का रूप दिखाकर, यमराज के नगर की ओट में छिप जाता है ।

 

 

 

महाराज भर्तृहरि जी ने मनुष्य का नाटक के स्टेज-एंकर से खूब ही अच्छा मिलान किया है । सचमुच ही मनुष्य नाटक के किरदार सा ही काम करता है ।

 

 

 

मंच पर जिस तरह एक ही कलाकार कभी बालक, कभी जवान, कभी बूढ़ा, कभी धनि, कभी निर्धन, कभी राजा, कभी फ़कीर, कभी साधू, कभी असाधु तथा कभी रोगी और निरोगी, त्यागी और अत्यागी, भोगी और योगी, गृहस्थ और सन्यासी बनकर, तरह-तरह के तमाशे दिखता और शेष में नाटक के परदे के पीछे छिप जाता है; उसी तरह मनुष्य बालक और जवान, धनी और निर्धन प्रभृति के स्वांग भर और दिखाकर, अन्त में जीवन-नाटक का आखिरी सीन - बुढ़ापे का रूप - दिखा कर, यमपुरी-रुपी परदे की ओट में जाकर छिप जाता है; यानि इस दुनिया से कूच कर जाता है ।

 

 

 

छप्पय

 

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छिन में बालक होत, होत छिनहि में यौवन।

 

छिन ही में धनवन्त, होत छिन ही में निर्धन।।

 

होत छिनक में वृद्ध, देह जर्जरता पावत।

 

नट ज्यों पलटत अंग, स्वांग नित नए दिखावत।।

 

यह जीव नाच नाना रचत, निचल्यो रहत न एकदम।

 

करके कनात संसार की, कौतुक निरखत रहत यम।।

 

 

 

 

 

अहौ वा हारे वा बलवति रिपौ वा सुहृदि वा

 

मणौ वा लोष्ठे वा कुसुमशयनेवा दृषदि वा।

 

तृणे वा स्त्रैणे वा मम समदृशो यान्तु दिवसाः

 

क्वचितपुण्यारण्ये शिवशिवशिवेति प्रलपतः।। ११३ ।।

 

 

 

अर्थ:

 

हे परमात्मा ! मेरे शेष दिन, किसी पवित्र वन में, "शिव शिव" रटते हुए बीतें; सर्प और पुश-हार, बलवान शत्रु और मित्र, कोमल पुष्प-शय्या और पत्थर की शिला, मणि और पत्थर, तिनका और सुन्दरी कामिनियों के समूह में मेरी समदृष्टि हो जाय, मेरी यही इच्छा है ।

 

 

 

खुलासा - कोई विरक्त पुरुष परमात्मा से प्रार्थना करता है कि मेरी मति ऐसी कर दे कि, मुझे सर्प और हार, शत्रु और मित्र, पुष्प-शय्या और शिला, रत्न और पत्थर, तिनका और सुन्दरी स्त्री सब एक से दीखने लगें; इनमें मुझे कुछ भेद न मालूम हो; मैं समदर्शी हो जाऊं और मेरा शेष जीवन किसी पवित्र वन में "शिव शिव शिव" जपते बीते।

 

 

 

जब सभी शरीरों में एक ही व्यापक ब्रह्म दीखने लगे; शत्रु-मित्र में भेद न मालूम हो; हर्ष-शोक और दुःख-सुख सब में चित्त एकसा रहे; तब योगसिद्धि हुई समझनी चाहिए ।

 

कबीरदास कहते हैं -

 

सदृष्टि सतगुरु करौ, मेरा भरम निकार।

 

जहाँ देखों तहाँ एक ही, साहब का दीदार।।

 

समदृष्टि तब जानिये, शीतल समता होय।

 

सब जीवन कि आत्मा, लखै एकसी सोय।।

 

समदृष्टि सतगुरु किया, भरम किया सब दूर।

 

दूजा कोई दिखे नहीं, राम रहा भरपूर।।

 

 

 

यही अवस्था सर्वोत्तम अवस्था है । इसी में परमानन्द है । इस अवशता में शोक और दुःख का नाम भी नहीं है; पर यह अवस्था उन्ही को प्राप्त होती है, जिन पर जगदीश कि कृपा होती है या जिनके पूर्व जन्म के सञ्चित पुण्यों का उदय होता है ।

 

 

 

समदर्शी होने के उपाय

 

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समदर्शिता ही परमानन्द की सीढ़ी है

 

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चित्त की समता ही योग है । जब समान दृष्टी हो गयी, तब योगसिद्धि में बाकी ही क्या रहा ? जब मनुष्य को इस बात का ज्ञान हो जाता है, कि समस्त जगत और जगत के प्राणियों में एक ही चेतन आत्मा है; छोटे बड़े, नीच-उंच सभी शरीरों में एक ही ब्रह्म का प्रकाश है; तब उसकी नज़र में सभी समान हो जाते हैं । जब वह राजा-महराजा, अमीर और गरीब, मनुष्य और पशु-पक्षी, हाथी और चींटी, सर्प और मगर - सब में एक ही चेतन आत्मा को व्यापक देखता है; तब उसके दिल में किसी से राग और किसी से विराग, किसी से विरोध और किसी से प्रणय-भाव रह नहीं जाता; उस समय उसे न कोई शत्रु दीखता है और न कोई मित्र । इस अवस्था में पहुँचने पर, वह न किसी को अपना समझता है, न पराया । इस समय ही उसे स्त्री और पुरुष, दोस्त और दुष्काण, सर्प और पुष्प-हार, सोना और मिट्टी प्रभृति में कोई फर्क नहीं मालूम होता । इस अवस्था में, उसके अन्तःकरण से दुखों का घटाटोप दूर होकर, परमानन्द कि प्राप्ति होती है । उस समय जो आनन्द होता है, उसको कलम से लिखकर बताना कठिन ही नहीं; असंभव है ।

 

 

 

समस्त जगत में एक ही आत्मा व्यापक है ?

 

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बेशक, सारे जगत में एक ही चेतन आत्मा है । जिस तरह गुलाब-जल से भरे घड़े में, गङ्गाजल से भरे घड़े में, मूत्र से भरे घड़े में और शराब से भरे घड़े में एक ही सूर्य का प्रतिबिम्ब - अक्स पड़ता है, सबमें एक ही सूर्य दीखता है; उसी तरह मनुष्य, पशु-पक्षी और मागत-मैच प्रभृति जगत के सभी प्राणियों में एक ही चेतन ब्रह्म का प्रतिबिम्ब या प्रकाश है । अलग-अलग प्रकार के शरीरों या उपाधियों के कारण, सबमें एक ही आत्मा होने पर भी अलग-अलग दीखते हैं । लेकिन भिन्न-भिन्न शरीरों में भिन्न-भिन्न आत्मायों का होना, अज्ञानियों को ही मालूम होता है; जो सच्चे तत्ववेत्ता और पपूर्ण ज्ञानी हैं अथवा जो आत्मतत्त्व कि तह तक पहुँच गए हैं, उन्हें सभी शरीरों में एक ही आत्मा दीखता है । वे समझते हैं कि, जो आत्मा हम में है, वही समस्त जगत और जगत के प्राणियों में है । बकरी के शरीर में जो आत्मा है, वह बकरी; हाथी के शरीर में जो आत्मा है, वह हाथी और मनुष्य के शरीर में जो आत्मा है, वह मनुष्य कहलाता है । जिन जिन शरीरों में आत्मा प्रवेश कर गया है, उन्ही उन्हीं शरीरों के नाम से वह पुकारा जाता है; शरीरों या उपाधियों का भेद है; आत्मा में कोई भेद नहीं । नदी, तालाब, झील, बावड़ी, झरना, सोता और कुंआ - इन सब में एक ही जल है, पर नाम अलग-अलग है । नाम अलग अलग हैं । एक लोहे के डण्डे पर कपडा लपेट कर जो अग्नि जलाई जाती है, उसे मशाल कहते हैं और एक मिट्टी के दीवले में जो अग्नि जलती है, उसे दीपक कहते हैं । पृथ्वी एक ही है, पर उसके नाम अलग-अलग हैं । किसी को नगर, किसी को गाँव, किसी को ढानी और किसी को घर कहते हैं; पर है तो सब धरती ही । ताना और बाना एक ही सूत के दो नाम हैं; पर है दोनों में ही सूत । वन एक ही है; उस में अनेक वृक्ष हैं और उनके नाम तथा जातियां अलग-अलग हैं । बीज से वृक्ष होता है और वृक्ष से बीज होता है; अतः बीज वृक्ष है और वृक्ष बीज है । दोनों एक ही हैं, पर नाम अलग-अलग हैं । बाप से बीटा पैदा होता है; अतः बाप में और बेटे में एक ही आत्मा है, अतएव बाप बेटा है और बेटा बाप है । बहुत कहना-समझाना वृथा है । निश्चय ही सबमें एक ही चेतन आत्मा है, पर भिन्न-भिन्न प्रकार के शरीरों के कारण नाम अलग-अलग हैं । भ्रम के कारण मनुष्य को असल बात समझ नहीं पड़ती । मृगमरीचिका में जल नहीं है; पर भ्रमवश मनुष्य को जल दीख पड़ता है और वह कपडे उतार कर तैरने को तैयार हो जाता है । रस्सी-रस्सी है, सांप नहीं; पर अँधेरे में वही रस्सी सांप सी दीखती है और मनुष्य डर कर उछालता और भागता है । इसी तरह जब तक मनुष्य के ह्रदय में अज्ञान रुपी अंधकार रहता है, उसे और का और दीखता है । देख और आत्मा अलग़-अलग हैं । देह नाशमान और आत्मा अविनाशी हैं; पर अज्ञानी को, जिसके दिल में अँधेरा है, देह और आत्मा एक मालूम होते हैं तथा शरीर और आत्मा दोनों ही नाशमान जान पड़ते हैं । इसी तरह सब जगत में एक ब्रह्म व्यापक है - शरीर-शरीर में एक ही चेतन आत्मा है; पर अज्ञानी सब प्राणियों में एक ही आत्मा नहीं मानता है । अज्ञान-अंधकार के मारे, वह इस बात को नहीं समझता कि मुझमें, उधो में, माधव में, रामा में, मेरी स्त्री में, मेरे पुत्र में, माधव के पुत्र में, घोड़े में, हाथी में, सर्प में और सिंह में एक ही आत्मा है; यानी जो आत्मा मुझमें है वही समस्त जगत में है ।

 

 

 

बिहारीलाल कवी ने कहा है -

 

मोहन मूरति श्याम की, अति अद्भुत गति जोइ।

 

वसत सुचित अन्तर तऊ, प्रतिबिम्बित जग होइ।।

 

 

 

श्याम की मोहिनी मूरत की गति अति अद्भुत है । वह सुन्दर ह्रदय में रहती है, तोभी उसका प्रतिबिम्ब - अक्स - सारे जगत में पड़ता है ।

 

 

 

महाकवि नज़ीर कहते हैं -

 

ये एकताई ये यकरंगी, तिस ऊपर यह क़यामत है।

 

न कम होना न बढ़ना और हज़ारों घट में बंट जाना।।

 

 

 

ईश्वर एक है और एक रंग है - निर्विकार और अक्षय है; उसमें रूपान्तर नहीं होता और वह घटता-बढ़ता भी नहीं; लेकिन अचम्भे की बात है कि, वह घट-घट में इस तरह प्रकट होता है, जिस तरह एक सूर्य का प्रतिबिम्ब सैकड़ों जलाशयों में दिखाई देता है ।

 

 

 

क्या जीवात्मा और परमात्मा में भी कुछ भेद नहीं है ?

 

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निस्संदेह; जीवात्मा और परमात्मा में कोई भेद नहीं है । दोनों में  एक ही आत्मा है । जीव की उपाधि अन्तःकरण है और परमेश्वर की उपाधि माया है । जीव की उपाधि छोटी है और परमात्मा की बढ़ी है; इसी से ईश्वर में जो सर्वज्ञता प्रभृति धर्म हैं; जीव में नहीं । गंगा की बढ़ी धरा में नाव और जहाज़ चलते है, हज़ारों मगरमच्छ और करोड़ों मछलियां तैरती हैं तथा किनारे पर लोग स्नान करते हैं । पर वही गङ्गाजल अगर एक गोलास में भर लिया जाय, तो उसमें न तो नाव और जहाज़ होंगे, न मगरमच्छ और मछलियां होंगी और न किनारे पर लोग स्नान करते होंगे । दरअसल, गंगा की बड़ी धरा में जो जल है, व्है जल गिलास में है । वह गंगा का बड़ा प्रवाह है और गिलास में थोड़ा सा जल है । जिस तरह दोनों जलों के एक होने में सन्देह नहीं; उसी तरह जीवात्मा और परमात्मा के एक होने में सन्देह नहीं । सारांश यह कि, जीवात्मा, परमात्मा और समस्त जगत में एक ही ब्रह्म है । जो इस बात कि तह तक पहुँच जाएगा, वह किस से बैर करेगा और किससे प्रीती ? जब तक मनुष्य इस बात को अच्छी तरह नहीं समझ लेता और यही बात उसके दिल पर नक्श हुई नहीं रहती कि, जो आत्मा मेरे शरीर में है वही जगत के और प्राणियों  के शरीर में है, तभी तक वह किसी को अपना और किसी को पराया, किसी को अपनी स्त्री और किसी को अपना पुत्र, किसी को शत्रु और किसी को मित्र, किसी को सर्प और किसी को फूलों का हार समझता है; किसी से खुश होता है और किसी से नाराज़, किसी से विरोध करता और किसी से प्रणय । पहले के पहुंचे हुए महात्मा जो सिंहो को अपने आश्रमों में भेद बकरी कि तरह पालते और सर्पों को गले का हार बनाये रहते थे, वह क्या बात है ? और कुछ नहीं, यही बात है, कि वे भीतरी दिल से सिंह में भी और अपने में एक ही आत्मा समझते थे; इसी से वे उनसे डरते नहीं थे और सिंह तथा सर्प प्रभृति हिंसक जीव भी उन्हें कष्ट न पहुंचते थे ।

 

 

 

कैवल्यौपनिषद में लिखा है -

 

यत्परं ब्रह्म सर्वात्मा, विश्वस्यायतन महत्।

 

सूक्ष्मात्सूक्ष्मतरं नित्यं स त्वमेव त्वमेव तत्। ।

 

 

 

जो ब्रह्म सब प्राणियों का आत्मा, सम्पूर्ण विश्व का आधार, सूक्ष्म से भी सूक्ष्म और नित्य है, वही तुहि है और तू वही है ।

 

 

 

ज्ञानकाण्ड उपनिषत् ही तो वेद का निष्कर्ष और सार है ।  उसमें सर्वत्र आत्मा को ही ईश्वर कहा है । हमारे वेद ही नहीं, संसार के समस्त धर्मशास्त्र - कुरान और बाइबिल आदि में भी यही बात कही है । कुरान में "ला इलाहा इल्ला अन्ना" यही निचोड़ कहा है, यानी आत्मा के सिवा दूसरा और ईश्वर नहीं है । बाइबिल में भी ईसा मसीह ने कहा है - "Ye are the living temples of God अर्थात चमक ईश्वर के जीवित मंदिर हो; अर्थात "तत्वमसि" । वह तुम हो ।

 

 

 

समदर्शी होने से मोक्ष मिलती है

 

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"समस्त जगत में एक ही ब्रह्म या चेतन आत्मा व्यापक है - इस बात को जाने-समझे बिना, समदर्शी हो नहीं सकता इसी से हमने यह बात विस्तार स समझायी है । अब रही यह बात कि, समदर्शी होने कि क्या जरुरत है ? समदृष्टि होने से क्या लाभ है ? इन प्रश्नों का उत्तर हम संक्षेप में ही दिए देते हैं - समदृष्टि हो जाने से मनुष्य का दुःख और क्लेशों से पीछा छूट जाता है; वर्णनातीत परमानन्द कि प्राप्ति होती है; संसार-बन्धन काट जाता है; आवागमन का झगड़ा मिट जाता है; प्राणी को बारम्बार जन्म लेना और मरना नहीं पड़ता; उस कि मोक्ष हो जाती है और वह परमपद या विष्णुत्व को प्राप्त हो जाता है । स्वामी शंकराचार्य जी महाराज कहते हैं -

 

शत्रौ मित्रे पुत्रे बन्धौ, मा कुरु यत्नं विग्रहसन्धौ ।

 

भव समचित्तः सर्वत्र त्वं, वाञ्छस्यचिराद् यदि विष्णुत्वम् ।।

 

 

 

हे मनुष्य ! यदि तू शीघ्र ही मोक्ष या विष्णुत्व चाहता है, तो शत्रु और मित्र, पुत्र और बंधुओं से विरोध और प्रणय मत कर; यानी सब को एक नज़र से देख, किसी में भेद न समझ ।

 

 

 

सार- यदि मोक्ष, मुक्ति या परमानन्द चाहते हो, तो सब जगत में अपने ही आत्मा को देखो, किसी को अपना और किसी को पराया, किसी को शत्रु और किसी को मित्र मत समझो ।

 

 

 

छप्पय

 

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सर्प सुमन को हार, उग्र बैरी अरु सज्जन।

 

कंचन मणि अरु लोह, कुसुम शय्या अरु पाहन।

 

तृण अरु तरुणी नारि, सबन पर एक दृष्टी चित।

 

कहूँ राग नहि रोष, द्वेष कितहुँ न कहुँ हित।।

 

 

 

 

 

-------------------------इति वैराग्य शतकम्

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