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वैराग्य शतकम् भ्रतृहरिविरचित भाग-1.6

 

यदेतत्स्वछन्दं विहरणमकार्पण्यमशनं

सहार्यैः संवासः श्रुतमुपशमैकव्रतफलम्।

मनो मन्दस्पन्दं बहिरपि चिरस्यापि विमृशन्

न जाने कस्यैष परिणतिरुदारस्य तपसः।। ५१ ।।

 

अर्थ:

 

   स्वधीनतापूर्वक जीवन अतिवाहित करना, बिना मांगे खाना, विपद में साहस रखनेवाले मित्रों की सांगत करना, मन को वश में करने की तरकीबें बताने वाले शास्त्रों का पढ़ना-सुनना और चंचल चित्त को स्थिर करना - हम नहीं जानते, ये किस पूर्व-तपस्या के फल से प्राप्त होते हैं ?

 

 

     पराधीन मनुष्य कभी सुखी नहीं हो सकता, उसे पग-पग पर अपमानित, लाञ्छित और दुखित होना पड़ता है । जो स्वाधीन हैं, किसी के अधीन नहीं है, वे ही सच्चे सुखिया हैं । जिनको अपने पेट के लिए किसी के सामने गिड़गिड़ाना नहीं पड़ता - किसी के सामने दीन वचन नहीं कहने पड़ते, जिनके दुःख में सहायता देने वाले, बिना कहे कष्ट निवारण करनेवाले मित्र हैं; जो मन को शांत करनेवाले और उसकी चञ्चलता दूर करने वाले शास्त्रों को पढ़ते हैं - वे भाग्यवान हैं । कह नहीं सकते, उन्होंने ये उत्तम फल पूर्वजन्म के किस कठोर तप से पाए हैं ।

 

 दोहा

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सत्संगति स्वछन्दता, बिना कृपणता भक्ष।

जान्यो नहिं किहि तप किये, यह फल होत प्रत्यक्ष।।

 

पाणिः पात्रं पवित्रं भ्रमणपरिगतं भैक्ष्यमक्षय्यमन्नं

विस्तीर्णं वस्त्रमाशासुदशकममलं तल्पमस्वल्पमुर्वी।

येषां निःसङ्गताङ्गीकरणपरिणत: स्वात्मसन्तोषिणस्ते

धन्याः संन्यस्तदैन्यव्यतिकरनिकराः कर्मनिर्मूलयन्ति।। ५२ ।।

 

अर्थ:

 

     वे ही प्रशंसाभाजन हैं, वे ही धन्य हैं, उन्होंने ही धर्म की जड़ काट दी है - जो अपने हाथों के सिवा और किसी बासन की जरुरत नहीं समझते, जो घूम घूम कर भिक्षा का अन्न कहते हैं, जो देशो दिशाओं को ही अपना विस्तृत वस्त्र समझते हैं, जो अकेले रहना पसन्द करते हैं, जो दीनता से घृणा करते हैं और जिन्होंने आत्मा में ही सन्तोष कर लिया है ।

 

     जिन्होंने सबसे मन हटाकर, सब तरह के विषयों को त्याग कर, संसारी माया जाल काटकर अपने आत्म में ही सन्तोष कर लिया है; जो किसी भी वास्तु की आकांक्षा नहीं रखते, यहाँ तक की जल पीने को भी कोई बर्तन पास नहीं रखते; अपने हाथों से ही बर्तन का काम लेते हैं; खाने के लिए घर में सामान नहीं रखते, कल के भोजन की फ़िक्र नहीं करते, आज इस गांव में मांगकर पेट भर लेते हैं तो कल दुसरे गांव में जा मांगते हैं, एक गांव में दो रात नहीं बिताते; जो शरीर ढकने के लिए कपड़ों की भी जरुरत नहीं रखते, दशों दिशाओं को ही अपना वस्त्र समझते हैं; जो पलंग-तोशक, गद्दे-तकियों की आवश्यकता नहीं समझते, ज़रा सी जमीन को ही निर्मल पलंग समझते हैं; जब नींद आती है तो अपने हाथ का तकिया लगाकर सो जाते हैं; जो किसी का संग नहीं करते, अकेले रहते हैं, वैराग्य में ही परमानन्द समझते हैं; जो किसी के सामने दीनता नहीं करते अथवा दैत्यरूपी व्यसनों से घृणा करते और अपने स्वरुप में ही मगन रहते हैं, वे पुरुष सचमुच ही महापुरुष हैं । ऐसे पुरुष रत्न धन्य हैं ! उन्होंने सचमुच ही कर्मबन्धन काट दिया है । वे ही सच्चे त्यागी और सन्यासी हैं । ऐसे ही महापुरुषों के सम्बन्ध में महात्मा सुन्दरदास जी ने कहा है -

 

काम ही क्रोध न जाके, लोभ ही न मोह ताके।

मद ही न मत्सर, न कोउ न विकारो है।।

दुःख ही न सुख माने, पाप ही न पुण्य जाने।

हरष ही न शोक आनै, देह ही तें न्यारौ है।।

निंदा न प्रशंसा करै, राग ही न द्वेष धरै।

लेन ही न दें जाके, कुछ न पसारो है।।

सुन्दर कहत, ताकी अगम अगाध गति।

ऐसो कोउ साधु, सों तो राम जी कू प्यारो है।।

 

 

     जिसमें काम, क्रोध, लोभ, मद और मत्सर प्रभृति विकार नहीं हैं; जो दुःख सुख और पाप पुण्य को नहीं जानता; जिसे न ख़ुशी होती है न रंज; जो अपने शरीर से अलग है; जो न किसी की तारीफ करता है और न किसी की बुराई करता है; जिसे न किसी से प्रेम है न किसी से वैर, जिसका न किसी से लेना है और न किसी को देना, न और ही किसी तरह का व्यवहार है। सुन्दरदास कहते हैं, ऐसे मनुष्य की गति अगम्य और अगाध है । उसकी गहराई का पता नहीं । ऐसा ही मनुष्य भगवान् को प्यारा लगता है ।

 

 

छप्पय

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भोजन को कर पट्ट, दशों दिशि बसन बनाये।

भखै भीख को अन्न, पलंग पृथ्वी पर छाये।

छाँड़ि सबन को संग, अकेले रहत रैन दिन।

नित आतस सों लीन, पौन सन्तोष छिनहिं छिन।

मन को विकार, इन्द्रीन को डारै तोर मरोर जिन।

वे धन्य संन्यास धन, कर्म किये निर्मूल तिन।।

 

 

दुराराध्यः स्वामी तुरगचलचित्ताः क्षितिभुजो

वयं तु स्थूलेच्छा महति च पदे बद्धमनसः।

जरा देहं मृत्युर्हरति सकलं जीवितमिदं

सखे नान्यच्छ्रेयो जगति विदुषोऽन्यत्र तपसः।। ५३ ।।

 

अर्थ:

 

     मालिक को राज़ी करना कठिन है। राजाओं के दिल घोड़ों के समान चंचल होते हैं। इधर हमारी इच्छाएं बड़ी भारी हैं; उधर हम बड़े भारी पद - मोक्ष के अभिलाषी हैं । बुढ़ापा शरीर को निकम्मा करता है और मृत्यु जीवन को नाश करती है । इसलिए हे मित्र ! बुद्धिमान के लिए, इस जगत में, तप से बढ़कर और कल्याण का मार्ग नहीं है ।

 

     सेवा-धर्म बड़ा कठिन है । हज़ारों प्रकार की सेवाएं करने, अनेक प्रकार की हाँ में हाँ मिलाने, दिन को रात और रात को दिन कहने, तरह तरह की खुशामदें करने से भी मालिक कभी संतुष्ट नहीं होता । राजाओं के दिल अशिक्षित घोड़ों की तरह चंचल होते हैं । उनके चित्त स्थिर नहीं रहते; ज़रा सी देर में वे प्रसन्न होते हैं और ज़रा सी देर में अप्रसन्न हो जाते हैं; क्षणभर में गांव के गांव बक्शते और क्षणभर में सूली पर चढ़वाते हैं; इसलिए राजसेवा में बड़ा खतरा है । उसमें ज़रा भी सुख नहीं, यहाँ तक की जान की भी खैर नहीं है । एक तरफ तो हमारी इच्छाओं और हमारे मनोरथों की सीमा नहीं है दूसरी ओर हम परमपद के अभिलाषी हैं; इसलिए यहाँ भी मेल नहीं खाता । बुढ़ापा हमारे शरीर को निर्बल और रूप को कुरूप करता एवं सामर्थ्य और बल का नाश करता है तथा मृत्यु सिर पर मंडराती है । ऐसी दशा में मित्रवर ! कहीं सुख नहीं है । अगर सुख - सच्चा सुख चाहते हो, तो परमात्मा का भजन करो । उससे आपके परलोक और इहलोक दोनों सुधरेंगे, आप जन्म-मरण के कष्ट से छुटकारा पाकर मोक्ष-पद पाएंगे । सारांश यह है कि सच्चा और नित्य सुख केवल वैराग्य और ईश्वर भक्ति में है । गोस्वामी तुलसीदास जी कहते हैं -

 

"तुलसी" मिटै न कल्पना, गए कल्पतरु-छाँह।

जब लगि द्रवै न करि कृपा, जनक-सुता को नाह।।

हित सन हित-रति राम सन, रिपु सन वैर विहाय।

उदासीन संसार सन, "तुलसी" सहज सुभाय।।

 

     मनुष्य चाहे कल्पवृक्ष के नीचे क्यों न चला जाय, जब तक सीतापति की कृपा न होगी तब तक उसके दुखों का नाश नहीं हो सकता; इसलिए शत्रुता-मित्रता छोड़, संसार से उदासीन हो, भगवान् से प्रीति करो ।

 

      खुलासा - कहते हैं, इंद्रा के बगीचे में एक ऐसा वृक्ष है, जिसकी छाया में जाकर मनुष्य या देवता जो चीज़ चाहते हैं, वही उनके पास, आप से आप आ जाती है । उसी वृक्ष को "कल्पवृक्ष" कहते हैं । तुलसीदास जी कहते हैं, जब तक जानकीनाथ रामचन्द्र जी दया करके प्रसन्न न हों तब तक, मनुष्य की कल्पना कल्पवृक्ष की छाया में जाने से भी नहीं मिट सकती ।

 

     जप, तप, तीर्थ, व्रत, शम, दम, दया, सत्य, शौच और दान बगैर काम अगर मन में वासना रखकर किये जाते हैं; यानी करनेवाला यदि उनका फल या परस्कार चाहता है, तो उसे स्वर्गादि मिलते हैं । स्वर्ग में जाने से मनुष्य का आवागमन - इस दुनिया में आना और यहाँ से फिर जाना - पैदा होना और मरना - नहीं बन्द हो सकता । क्योंकि कहते हैं - "पुण्य क्षीणे मृत्युलोके", पुण्यों के क्षीण होते ही फिर स्वर्ग से मृत्युलोक में आना पड़ता है, पर मनुष्य का असल मकसद पूरा नहीं होता; यानि उसे परमपद या मोक्ष नहीं मिलता । इसलिए मनुष्य को निष्काम कर्म करने चाहिए । "गीता" में भी यही बात भगवान् कृष्ण ने कही है । बहुत लिखने से क्या - भगवान् की भक्ति सर्वोपरि है । भगवान् की भक्ति से जो काम हो सकता है, वह घोर-से-घोर तपस्याओं से भी नहीं हो सकता ।

 

किसी ने कहा है -

 

पठित सकल वेदश्शास्त्रपारंगतो वा

यम नियम पारो वा धर्म्मशास्त्रार्थकृद्वा।

अटित सकल तीर्थव्राजको वाहिताग्निर्नहि

हृदि यदि रामः सर्वमेतत्वृथा स्यात्।।

 

       चाहे सारे वेद-शास्त्रों को पढ़लो, चाहे यम नियम आदि कर लो, चाहे धर्मशास्त्र को मनन कर लो और चाहे सारे तीर्थ कर लो, अगर आपके दिल में राम नहीं हैं तो सब वृथा है ।

 

      इसीलिए तुलसीदास जी कहते हैं, कि दोस्तों से दोस्ती और दुश्मनो से दुश्मनी छोड़कर एवं संसार से उदासीन होकर भगवान् से प्रीति करो । मतलब यह है, कि न किसी से राग करो और न किसी से द्वेष; सबको उदासीन होकर देखो । जब आपका दिल राज-द्वेषादि से शुद्ध होगा - इस दुनिया में न कोई आपका प्यारा होगा और न कोई कुप्यारा; तभी आपका दिल एक भगवान् में लगेगा ।

 

    सुंदरदास जी कहते हैं -

 

१)

 

काहे कूँ फिरत नर! दीन भयो घर-घर।

देखियत, तेरो तो आहार इक सेर है।।

जाको देह सागर में, सुन्यो शत योजन को।

ताहू कूँ तो देत प्रभु, या में नहिं फेर है।।

भूको कोउ रहत न, जानिये जगत मांहि।

कीरी अरु कुञ्जर, सबन ही कूँ देत है।।

"सुन्दर" कहत, विश्वास क्यों न राखे शठ?

बेर-बेर समझाय, कह्यौ केती बेर है।। २ ।।

 

 

 

२)

 

काहे कूँ दौरत है दशहुं दिशि?

तू नर ! देख कियो हरिजू को।

बैठी रहै दूरिके मुख मुंदी,

उघारत दांत खवाइहि टूको।

गर्भ थके प्रतिपाल करी जिन,

होइ रह्यो तबहिं जड़ मूको।

"सुन्दर" क्यूँ बिल्लात फिरे अब?

राख ह्रदय विश्वास प्रभु को।। २ ।।

 

१)

 

     हे पुरुष ! तू दीन होकर क्यों घर-घर मारा-मारा फिरता है ? हैख, तेरा पेट तो एक सेर आते में भर जाता है। सुनते हैं, समुद्र में जिसका शरीर चार सौ कोस लम्बा चौड़ा है, उसको भी प्रभु भोजन पहुंचाते हैं, इसमें ज़रा भी शक नहीं । संसार में कोई भी भूखा नहीं रहता । वह जगदीश चींटी और हाथी सबका पेट भरते हैं । अरे शठ ! विश्वास क्यों नहीं रखता ? सुन्दरदास कहते हैं, मैंने तुझे यह बात बारम्बार कितनी बार नहिं समझाई है ?

 

२)

 

    अरे ! तू दशों दिशाओं में क्यों भागता फिरता है ? तू भगवान् के किये कामों का ख्याल कर। देख, जब तू मुंह बन्द किये हुए छिपा बैठा था, तब भी तुझे खाने को पहुँचाया और जब तेरे दांत आ गए तब भी तेरे मुंह खोलते ही खाने को टुकड़ा दिया । जिस प्रभु ने तेरी गर्भावस्था से ही - जबकि तू जड़ और मूक था - पालना की है, वही क्या अब तेरी खबर न लेगा? सुन्दरदास जी कहते हैं, तू क्यों चीखता फिरता है ? भगवान् का भरोसा रख; वही प्रभु अब भी तेरी पालना करेंगे।

 

     सारांश यह कि बुद्धिमान को दुनिया के घमण्डी लोगों की खुशामद छोड़, केवल उसकी खुशामद और नौकरी करनी चाहिए, जिसके दिल में न घमण्ड है और न क्रूरता । जो उसकी शरण में जाता है, उसी की वह अवश्य प्रतिपालना करता और उसके दुःख दूर करने को हाज़रा हुज़ूर खड़ा रहता है । मनुष्य ! तेरी ज़िन्दगी अढ़ाई मिनट की है । इस अढ़ाई मिनट की ज़िन्दगी को वृथा बरबाद न कर । इसे ख़तम होते देर न लगेगी । राजाओं और अमीरों की सेवा-टहल और लल्लो-चप्पो में यह शीघ्र ही पूरी हो जाएगी और उनसे तेरी कामना भी सिद्ध न होगी । यदि तू सबका आसरा छोड़, जगदीश की ही चाकरी करेगा; तो निश्चय ही तेरा भला होगा - तेरे दुखों का अवसान हो जायेगा; तुझे फिर जन्म लेकर घोर कष्ट न सहने होंगे; तुझे नित्य और चिरस्थायी शान्ति मिलेगी । अरे ! तू साड़ी चतुराई और चालाकियों को छोड़कर, एक इस चतुराई को कर; क्योंकि यह चातुरी सच्ची चातुरी है । जो जगदीश को प्रसन्न कर लेता है, वही सच्चा चतुर है ।

 

   कहा है -

 

या राका शशि-शोभना गतघना सा यामिनी यामिनी।

या सौन्दर्य्य-गुणान्विता पतिरता सा कामिनी कामिनी।।

या गोविन्द-रस-प्रमोद मधुरा सा माधुरी माधुरी।

या लोकद्वय साधनी तनुभृतां सा चातुरी चातुरी।।

 

    मेघावरण शून्य पूर्ण-चन्द्रमा से शोभायमान जो रात्रि है, वही रात्रि है । जो सुंदरी है, गुणवती है और पति में भक्ति रखनेवाली है, वही कामिनी है । कृष्ण के प्रेम के आनन्द से मनोहर मधुरता ही मधुरता है । शरीरधारियों का दोनों लोक में उपकार करनेवाली जो चतुराई है, वही चतुराई है ।

 

   दोहा

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नृप-सेवा में तुच्छ फल, बुरी काल की व्याधि।

अपनों हित चाहत कियो, तौ तू तप आराधि।।

 

 

भोगा मेघवितानमध्यविलसत्सौदामिनीचञ्चला

आयुर्वायुविघट्टिताभ्रपटलीलीनाम्बुवद्भङ्गुरम्।

लोला यौवनलालसा तनुभृतामित्याकलय्य द्रुतं

योगे धैर्यसमाधिसिद्धिसुलभे बुद्धिं विधध्वं बुधाः।। ५४ ।।

 

अर्थ:

 

    देहधारियों के भोग - विषय सुख - सघन बादलों में चमकनेवाली बिजली की तरह चञ्चल हैं; मनुष्यों की आयु या उम्र हवा से छिन्न भिन्न हुए बादलों के जल के समान क्षणस्थायी या नाशमान है और जवानी की उमंग भी स्थिर नहीं है । इसलिए बुद्धिमानो ! धैर्य से चित्त को एकाग्र करके उसे योगसाधन में लगाओ ।

 

     संसार और संसार के सारे पदार्थ आसार और नाशमान हैं । यहाँ जो दिखाई देता है वह स्थिर न रहेगा। यह जो अथाह जल से भरा हुआ समन्दर दिखाई देता है, किसी दिन मरुस्थल में परिणत हो जाएगा; पानी की एक बूँद भी नहीं मिलेगी । यह बगीचा जो आज इंद्रा के बगीचे की बराबरी कर रहा है, जिसमें हज़ारों तरह के फलों के वृक्ष लगे रहते हैं, हौज़ बने हुए हैं, छोटी छोटी नहरे कटी हुई हैं, संगमरमर और संगे-मूसा के चबूतरे बने हुए हैं, बीच में इन्द्रभवन के जैसा महल खड़ा है, किसी दिन उजाड़ हो जाएगा; इसमें स्यार, लोमड़ी और जरख प्रभृति पशु बसेरा लेंगे । यह जो सामने महलों की नगरी दीखती है, जिसमें हज़ारों दुमंजिले, तिमंज़िले, चौमंज़िले और सतमंज़िले आलिशान मकान खड़े हुए आकाश को चूम रहे हैं, जहाँ लाखों मनुष्यों के आने जाने और काम धंधा करने के कारण पीठ-से-पीठ छिलती है, किसी दिन यहाँ घोर भयानक वन हो जाएगा । मनुष्यों के स्थान में सिंह, बाघ, हाथी, गैंडे, हिरन और स्यार प्रभृति पशु आ बसेंगे । और तो क्या - यह सूर्य, जो अपने तेज से तीनो लोकों प्रकाश फैलता है, अंधकार रूप हो जाएगा । यह अमृत से पूर्ण सुधाकर - चन्द्रमा भी शून्य हो जायेगा । इसकी शीतल चांदनी न जाने कहाँ विलीन हो जाएगी ? हिमालय और सुमेरु जैसे पर्वत एक दिन मिटटी में मिल जायेंगे। यह ब्रह्मा, विष्णु और रूद्र भी शून्य हो जाएगने । सारा जगत नाश हो जायेगा । ये स्त्री, पुत्र, नाते-रिश्तेदार न जाने कहाँ छिप जायेंगे ? युगों की सहस्त्र चौकड़ियों का ब्राह्मण का एक दिन होता है । उस दिन के पूरे होते ही प्रलय होती है । तब इस जगत की रचना करने वाला ब्रह्मा भी नष्ट हो जाता है । आज तक अनगिनती ब्रह्मा हुए । उन्होंने जगत की रचना की और अंत में स्वयं नष्ट हो गए । जब हमारे पैदा करनेवाले का यह हाल है, तब हमारी क्या गिनती ?

 

     या काया - जिसे मनुष्य अपना सर्वस्व समझता है, जिसे मल-मल कर धोता है, इत्र फुलेलों से सुवासित करता, नाना प्रकार के रत्नजड़ित मनोहर गहने पहनता, कष्ट से बचने और सुखी होने के लिए नरम-नरम मखमली गद्दों पर सोता, पैरों को तकलीफ से बचाने के लिए जोड़ी-गाडी या मोटर में चढ़ता है - एक दिन नाश हो जाएगी; पांच तत्वों से बानी हुई काया, पांच तत्वों में ही विलीन हो जाएगी । जिस तरह पत्ते पर पड़ी हुई जल की बूँद क्षणस्थायी होती है; उसी तरह यह काया क्षणभंगुर है । दीपक और बिजली का प्रकाश आता जाता दीखता है, पर इस काया का आदि-अन्त नहीं दीखता । यह काया कहाँ से आती है और कहाँ जाती है । जिस तरह समुद्र में बुद्बुदे उठते और मिट जाते हैं; उसी तरह शरीर बनते और क्षणभर में नष्ट हो जाते हैं । सच तो यह है कि यह शरीर बिजली की चमक और बादल की छाया की तरह चञ्चल और अस्थिर है । जिस दिन जन्म लिया, उसी दिन मौत पीछे पद गयी; अब वह अपना समय देखती है और समय पूर्ण होते ही प्राणी को नष्ट कर देती है ।

 

     जिस तरह जल की तरंगे उठ उठ कर नष्ट हो जाती है; उसी तरह लक्ष्मी आकर क्षणभर में विलीन हो जाती है । जिस तरह बिजली चमक कर गायब हो जाती है; उसी तरह लक्ष्मी दर्शन देकर गायब हो जाती है । हवा और चपला को रोकना अत्यन्त कठिन है, पर शायद कोई उन्हें रोक सके; आकाश का चूर्ण करना अतीव कठिन है, पर शायद कोई आकाश को भी चूर्ण करने में समर्थ हो जाये; समुद्र को भुजाओं से तैरना बाउट कठिन है, पर शायद कोई तैरकर उसे भी पार कर सके; इतने असम्भव काम शायद को सामर्थ्यवान कर सके, पर चञ्चला लक्ष्मी को कोई भी स्थिर नहीं कर सकता। जिस तरह अंजलि में जल नहीं ठहरता; उसी तरह लक्ष्मी भी किसी के पास नहीं ठहरती । जिस तरह वेश्या एक पुरुष से राज़ी नहीं रहती, नित नए पुरुषों को चाहती है; उसी तरह लक्ष्मी भी किसी एक के पास नहीं रहती, नित नए पुरुषों को भजती है । इसी से वेश्या और लक्ष्मी दोनों को ही चपला कहते हैं ।

 

      जिस तरह सांसारिक पदार्थ लक्ष्मी और विषय-भोग तथा आयु चञ्चल और क्षणस्थायी है; उसी तरह यौवन या जवानी भी क्षणस्थायी है । जवानी आते दीखती है, पर जाते मालूम नहीं होती । हवा की अपेक्षा भी तेज़ चाल से दिन-रात होते है और उसी तेज़ी से जवानी झट ख़त्म हो जाती और बुढ़ापा आ जाता है । उस समय विस्मय होने लगता है । यह शरीर तभी तक सुन्दर और मनोहर लगता है, जब तक बुढ़ापा नहीं आता । बुढ़ापा आते ही वह उछल-कूद, वह अकड़-तकड़, वह चमक-दमक, वह सुर्खी, वह छातियों का उभार, वह नयनों का रसीलापन न जाने कहाँ गायब हो जाता है । असल में यौवन के लिए बुढ़ापा, राहु है । जिस तरह चन्द्रमा को जब तक राहु नहीं ग्रसता, तभी तक प्रकाश रहता है; उसी तरह जब तक बुढ़ापा नहीं आता, तभी तक शरीर का सौंदर्य और रूप-लावण्य बना रहता है । प्राणियों को बाल्यावस्था के बाद युवावस्था और युवावस्था के बाद वृद्धावस्था अवश्य आती है । युवावस्था सदा नहीं रहती; अच्छी तरह गहरा विचार करने से जवानी क्षणभर की मालूम होती है ।

 

      संसार में जो नाना प्रकार के मनभावन पदार्थ दिखाई देते है, ये सभी नाशमान है । ये सब वास्तव में कुछ भी नहीं; केवल मन की कल्पना से इनकी सृष्टि की गयी है । मूर्ख ही इनमें आस्था रखते हैं, ज्ञानी नहीं ।

 

      इस जगत में ज्ञानी का जीवन सार्थक और अज्ञानी का निरर्थक है । अज्ञानी के जीने से कोई लाभ नहीं। उसके जीने से अर्थ-सिद्धि नहीं होती । वह वृथा सुअवसर गंवाता है । मूर्ख मोह के मारे नहीं समझता, कि ऐसा मौका बड़ी मुश्किल से मिला है । इस बारे चुके तो खैर नहीं । अज्ञानी अपनी अज्ञानता या मोह के कारन ही नाशमान और दुखों के मूल विषयों की ओर दौड़ता है, पर आयु, यौवन और विषयों की क्षणभंगुरता पर ध्यान नहीं देता । यह मायामोह नहीं तो क्या है ?

"सुभाषितावली" में लिखा है -

 

चला विभूतिः क्षणभंगी यौवनं कृतान्तदन्तान्तर्वर्त्ति जीवितं।

तथाप्यवज्ञा परलोकसाधने नृणामहो विस्मयकारि चेष्टितं।।

 

 

     विभूति चञ्चल है, यौवन क्षणभंगुर है, जीवन काल के दांतो में है; तो भी लोग परलोक साधन की परवाह नहीं करते। मनुष्यों की यह चेष्टा विस्मयकारक है !

 

    फिरदौसी ने "शाहना" में कहा है - "मनुष्य इस नापायेदार दुनिया से क्यों दिल लगाते हैं; जबकि मौत का नक्कारा दरवाजे पर बज रहा है ।

 

     मनुष्यों ! होश करो, गफलत की नींद छोडो। वह देखो ! मौत आपका द्वार खटखटा रही है । अब तो मिथ्या संसार का मोह त्यागो । ये जो स्त्री, पुत्र, भाई, बहन, माता-पिता आदि प्यारे और समबन्धी दिखाई देते है, ये उसी वक्त तक हैं, जब तक की शरीर नाश नहीं हुआ है। शरीर के नाश होते ही ये नज़र भी न आएंगे । यह भी समझ में न आवेगा कि कहाँ से आये थे और कहाँ गए। यह बन्धु-बान्धवों का मिलना उन यात्रियों या मुसाफिरों की तरह है, जो भिन्न-भिन्न स्थानों से सफर करते हुए एक वृक्ष के नीचे आकर ठहर जाते हैं और क्षणभर विश्राम लेकर फिर अपनी अपनी राह पर चल देते हैं या उन मुसाफिरों की तरह है, जो अनेक स्थानों से आकर एक सराय या धर्मशाला में ठहरते हैं; और फिर कोई दो दिन, कोई चार दिन ठहर कर अपनी अपनी जगह को चल देते हैं । वृक्षों के नीचे चन्द मिनट ठहरने वालों अथवा सराय के मुसाफिरों का आपस में प्रीती करना क्या अक्लमन्दी है ? जिनका क्षणभर का साथ है, उनमें दिल फंसना, दुःख मोल लेना है । उनके अलग होते ही मन में भयानक वेदना होगी, अतः उनके साथ कोई सरोकार न रखना चाहिए । यह संसार दो स्थानों के बीच का स्थान है । यात्री यहाँ आकर क्षणभर के लिए आराम करते और फिर आगे चले जाते हैं । ऐसे यात्रियों का आपस में मेल बढ़ाना, एक-दुसरे की मुहब्बत के फन्दे में फंसना, सचमुच ही दुःखोत्पादक है । समझदार लोग, मुसाफिरों से दिल नहीं लगाते - उनसे प्रेम नहीं करते - उन्हें अपना-पराया नहीं समझते । न उन्हें किसी से राग है न द्वेष। वे सबको समदृष्टि या एक नज़र से देखते हुए सहाय्य करते और उनका कष्ट निवारण करते हैं, पर उनसे प्रीती नहीं करते; लेकिन मूर्ख लोग स्त्री-पुत्र और माता-पिता प्रभृति को अपना प्यारा समझते और दूसरों को पराया समझते हैं । इस जगत में न कोई अपना है न कोई पराया । यह जगत एक वृक्ष है । इस पर हज़ारों लाखों पक्षी भिन्न भिन्न स्थानों से आकर रात को बसेरा लेते और सवेरे ही अपने अपने स्थानों को उड़ जाते हैं भिन्न भिन्न स्थानों से आये हुए पक्षियों को क्या रातभर के साथ के लिए आपस में नाता जोड़ना चाहिए? हरगिज़ नहीं। दूसरों से समबन्ध जोड़ना, किसी को अपना पुत्र और किसी को अपनी स्त्री एवं किसी को माँ या बहन समझकर स्नेह करना तो मूर्खता ही है । स्नेह तो अपनी काया से भी नहीं करना चाहिए, क्योंकि यह भी क्षणभंगुर है - सदा साथ न रहेगी ।

 

महात्मा सुन्दरदास जी कहते हैं -

 

बालू के मन्दिर मांहि, बैठी रह्यो स्थिर होइ ।

राखत है जीवन की आश, केउ दिन की।।

पल-पल छीजत, घटत जाट घरी-घरी।

विनाशत बेर कहाँ? खबर न छिन की।।

करत उपाय, झूठे लेन-देन खान-पान।

मूसा इत-उत फायर, ताकि रही मिनकी।। १ ।।

 

 

देह सनेह न छाँडत है नर।

जानत है थिर है ये देहा।।

छीजत जात घटै दिन ही दिन।

दीसत है घट को नित छेहा।।

काल अचानक आय गहे कर।

ठाँह गिराई करे तन खेहा।।

"सुन्दर" जानि यह निहचै धर।

एक निरंजन सूँ कर नेहा।।

 

      अरे मूर्ख ! तू इस शरीर की मुहब्बत नहीं छोड़ता, यह तेरी बड़ी भूल है । तू इस बालू के घर को स्थिर या चिरस्थायी समझता है; पर यह दिन-पर-दिन छीजता और घटता जाता है । हमें तो इस घट का नित्य क्षय ही दीखता है । देख, किसी दिन काल अचानक आकर तेरे हाथ पकड़ लेगा और तुझे गिराकर तेरे शरीर को ख़ाक कर देगा । सुन्दरदास जी  कहते हैं - अरे मूर्ख ! तू मेरी बात को - मेरी सलाह को ठीक समझ,  इसमें मीन मेख न लगा । यह अटल बात है और बातों में चाहे फर्क पड़ जाय पर इसमें फर्क नहीं पड़ने का । इसलिए तू अपने इस शरीर से, अपने स्त्री-पुत्रों से और अपनी दौलत से मुहब्बत छोड़कर, एकमात्र जगदीश से प्रेम कर । उनसे स्नेह करेगा तो सदा सुख पायेगा और इनसे मुहब्बत रखेगा तो घोरातिघोर दुःख भोगेगा ।

 

 

    महात्मा सुन्दरदास जी कहते हैं - अरे अज्ञानी मनुष्य ! मुझे तेरी इस बात पर बड़ा ही अचम्भा आता है कि तू इस बालू के मकान में निःशंक और मस्त होकर बैठा हुआ है और कितने ही दिनों तक जीने की उम्मीद रखता है । यह तेरा बालू का घर, हर क्षण छीजता और घटता जाता है।  इसको नाश होते कितनी देर लगेगी ? मुझे तो एक पल का भी भरोसा नहीं है । तू इस बालू के क्षणभंगुर घर में बेखटके बैठा हुआ अनेक तरह के झूठे उपाय-उद्योग, लेन-देन और खान-पान करता है । तू चूहे की तरह इधर-उधर उछलता कूदता फिरता है । क्या तुझे खबर नहीं कि जिस तरह बिल्ली, चूहे की ताक में बैठी रहती है; उसी तरह तेरी घात में मौत बैठी है ।

 

     खुलासा - ज़रा भी समझ रखनेवाले समझ सकते हैं कि प्राणियों के शरीर के भीतर कोई ऐसी चीज़ है, जिसके रहने से प्राणी चलते-फिरते, काम-धंधा करते और ज़िंदा समझे जाते हैं । जिस वक्त वह चीज़ शरीर से निकल जाती है, उस वक्त मनुष्य मुर्दा हो जाता है, उस समय वह न तो चल-फिर सकता है, न देख-सुन या कोई और काम कर सकता है । जिस चीज़ के प्रकाश से शरीर में प्रकाश रहता है, जिसके बल से यह काम-धंधे करता और बोलता चालता है, उसे जीव या आत्मा कहते हैं । हमारा शरीर हमारे आत्मा के रहने का घर है । जिस तरह मकान में मोरी, परनाले, खिड़की और जंगले होते हैं; उसी तरह आत्मा के रहने के इस शरीर रुपी घर में भी मोरी और परनाले वगैरह हैं । आँख, कान, नाक और मुंह प्रभृति इस शरीर रुपी घर के द्वार और गुदा-लिङ्ग या योनि वगैरह मोरी-परनाले हैं । शरीर के करोड़ों छेद इस मकान के जंगले और खिड़कियां हैं । मतलब यह कि, यह शरीर आत्मा या जीव के बसने का घर है । यह घर मिटटी और जल प्रभृति पञ्च-तत्वों से बना हुआ है इस घर के बनाने वाला कारीगर परमात्मा है ।

 

      जिस तरह परमात्मा ने आत्मा के रहने के लिए पांच तत्वों से बने यह शरीर रुपी घर बना दिया है; उसी तरह हमने भी अपने इस आत्मा के शरीर की रक्षा के लिए - मेह पानी और धूप आदि से बचने के लिए - मिटटी या ईंट पत्थर प्रभृति के मकान बना लिए है । हमारे बनाये हुए ईंट पत्थरों के मकान सौ-सौ, दो-दो सौ और पांच-पांच सौ बरसों तक रह सकते हैं । हज़ार हज़ार बरस से ज्यादा मुद्दत के बने हुए मकान आज तक खड़े हुए हैं । पर हमारे आत्मा के रहने का पञ्च तत्वों से बना हुआ मकान इतना मजबूत नहीं - वह क्षणभर में ढह जाता है । इसलिए इस आत्मा के मकान - शरीर - को महात्मा सुन्दरदास जी बालू का मकान कहते हैं । क्योंकि बालू का मकान इधर बनता और उधर गिर पड़ता है । उसकी उम्र पल भर की भी नहीं ।

 

      मनुष्य अज्ञान और मोह से अँधा रहने के कारण, इस बालू के मकान की क्षणभंगुरता का कभी ख्याल भी नहीं करता । वह इस बालू के मकान में ही सैकड़ों बरसों तक रहने की आशा करता है ! मनुष्य की इस गफलत और बेहोशीपर पूर्णज्ञानी महात्मा सुन्दरदास जी को दुःख और आश्चर्य होता है । महापुरुष सदा पराया भला चाहा करते हैं; वे दूसरों को दुःख और क्लेशों से बचाना अपना कर्तव्य और फ़र्ज़ समझते हैं, इसलिए वे अज्ञानान्धकार में डूबे हुए मनुष्यों को सावधान करने के लिए कहते हैं - अरे मूर्ख ! तू इस बालू के घर में रहकर भी बरसों जीने की - इस घर में रहने की - आशा करता है ? अरे नादान ! होश कर ! जाग ! तेरा यह बालू का घर पलक मारते गिर जायेगा ! जबसे तू इस बालू के घर में आया है, तभी से इसकी नींव हिलने लग गयी है । एक मिनट या एक सेकंड में ये गिर सकता है । ऐसे क्षणभंगुर घर में रहकर तू मकान बनवाता है; बाग़-बगीचे लगवाता है; किसी को अपनी स्त्री, किसी को अपना पुत्र और किसी को अपना बाप, भाई या मित्र समझता है; इनके मोह-जाल में फंसता है; बेहोशी में, लोग पर अत्याचार और जुल्म करता एवं पराया धन हडपता है ! मुझे तेरी इन करतूतों को देखकर बिहायत आश्चर्य भी होता और दुःख भी होता है ! सच तो यह है कि, मुझे तेरी नादानी पर तरस आता है । खैर, जो हुआ सो हुआ, अब भी चेत जा !! धन-दौलत, स्त्री-पुत्र, राज-पाट और ज़मींदारी का मोह त्यागकर अपने बनानेवाले कि शरण में जा । वही तेरे इस बालू के घर में बारम्बार आने और क्षणभर में इसे छोड़ भागने के घोर कष्ट को दूर कर सकता है । अगर तू इस जञ्जाल में फंसा रहेगा, मेरी बात पर ध्यान न देगा, तो पीछे बहुत पछतावेगा ।  जिस समय तेरा यह घर गिरने पर आवेगा, तू इसे छोड़ने के लिए मजबूर होगा; उस समय तू हज़ार चाहने और हज़ार रोने-कलपनेपर भी इसमें क्षणभर भी न रह सकेगा । जब तक तू इस बालू के घर में है, तभी तक तेरी स्त्री और तभी तक तेरा पुत्र और धन-दौलत  आदि हैं । जहाँ तैने यह घर छोड़ा या तेरा यह घर गिरा; फिर न तुझे स्त्री दीखेगी, न पुत्र दीखेगा और न धन-दौलत ही । यह बालू का घर तुझे क्षणभर के लिए, इस गरज़ से मिला है कि, तू इसमें जितनी देर रहे उतनी देर जगदीश की भक्ति करके, अपने कर्मबन्धन काटले और जन्म-मरण के झंझटों से बचकर, अपने मालिक में मिल जावे; ताकि फिर तुझे कभी दुःख न भोगने पड़े - तू सदा-सर्वदा - अनन्त काल तक नित्य और अविनाशी सुख भोगता रहे ।

 

      लक्ष्मी क्षणभंगुर है । समुद्र में जिस तरह तरंगे उठती और विलीन हो जाती हैं; उसी तरह लक्ष्मी से विषय-भोग उपजते और नष्ट हो जाते हैं । जिस तरह चपला की चमक स्थिर नहीं रहती; उसी तरह भोग भी स्थिर नहीं रहते । विषयों के भोगने से तृष्णा घटती नहीं, बल्कि बढ़ती है । तृष्णा के उदय होने से पुरुष के सब गन नष्ट हो जाते हैं । दूध में मधुरता उसी समय तक रहती है, जब तक की उसे सर्प नहीं छूता; पुरुष में गन भी उसी समय तक रहते हैं, जब तक कि तृष्णा का स्पर्श नहीं होता । अतः बुद्धिमानो ! अनित्य, नाशमान एवं दुखों कि खान, विष-समान विषयों से दूर रखो; क्योंकि इनमें ज़रा भी सुख नहीं । जब तक विषय-भोग रहेंगे तभी तक आप सुखी रहेंगे; पर एक-न-एक दिन उनसे आप का वियोग अवश्य होगा; उस समय आप तृष्णा कि आग में जलोगे, बारम्बार जन्म लोगे और मरोगे; अतः इन्द्रियों को वश में करो और एकाग्र चित्त से परमात्मा का भजन करो; क्योंकि विषयों को भोगने से नरकाग्नि में जलोगे और जन्म-मरण के घोर संकट सहोगे; पर परमात्मा के भजन या योगसाधन से नित्य सुख भोगते हुए परमानन्द में लीन हो जाओगे ।

 

     बहुत से मनुष्य मन को एकाग्र नहीं करते, पर दिखावटी माला जपते हैं, गोमुखी में सड़ा-सड़ हाथ चलते हैं, "गीता" और "विष्णु सहस्त्रनाम" प्रभृति का पाठ करते हैं और बीच बीच में कारोबार की बातें भी करते रहते हैं अथवा स्त्री बच्चो के झगडे निपटाया करते हैं । ऐसे भजन करने और माला फेरने से कोई लाभ नहीं । इस तरह समय वृथा नष्ट होता है । मन के एक ठौर हुए बिना, शांत और स्थिर हुए बिना सब वृथा है ।

 

महात्मा कबीर ने ठीक ही कहा है -

 

जेती लहर समुद्र की, तेति मन की दौरि।

सहजै हीरा उपजै, जो मन आवै ठौरि।।

माला फेरत युग गया, पाया न मनका फेर।

कर का मनका छाँड़ि के, मन का मनका फेर।।

मूँड़ मुड़ावत दिन गए, अजहुँ न मिलिया राम।

राम नाम कहो क्या करै, मन के औरे काम।।

तन को योगी सब करें, मन को विरला कोय।

सहजै सब विधि पाइये, जो मन योगी होय।।

 

       जितनी समुद्र की लहरें है; उतनी ही मन की दौड़ है। अगर मन ठिकाने आ जाय, उसमें समुद्र की सी तरंगे न उठें, तो सहज हीरा पैदा हो जाय; यानी परमात्मा मिल जाय ।

 

       माला फेरते-फेरते युग बीत गया, पर मनका फेर न मिला; अतः हाथ का मनिया छोड़कर, मनका मनिया फेर। हाथ की माला फेरने से कोई लाभ नहीं; लाभ है मन की माला फेरने से । मन लगाकर एक बार भी ईश्वर को याद करने से बड़ा फल मिलता है; पर चञ्चल चित्त से दिन-रात माला फेरने से भी कुछ नहीं मिलता ।

 

     मूँड़ मुड़ाते अनेक दिन हो गए, पर आज तक भगवान् न मिले । मिले कैसे ? मन राम में लगे तब तो राम मिले ? जिस तरह रवि और रजनी - दिन और रात - एकत्र नहीं होते, उसी तरह राम और काम एकत्र नहीं मिलते । जहाँ काम है, वह राम नहीं और जहाँ राम है, वह काम नहीं ।

 

      तन को योगी सब करते हैं, पर मन को कोई ही योगी करता है । अगर मन होगी हो जाय, तो सहज में सिद्धि मिल जाय । लोग गेरुए कपडे पहन लेते हैं, जटा रखा लेते हैं, हाथ में कमण्डल और बगल में मृगछाला ले लेते हैं - इस तरह योगी बन जाते हैं, पर मन उनका संसारी भोगो में ही लगा रहता है; इसलिए उन्हें सिद्धि नहीं मिलती - ईश्वर दर्शन नहीं होता । अगर वे लोग कपडे चाहें गृहस्थों के ही पहनें, गृशस्थों की तरह ही खाएं-पीएं; पर मन को एक परमात्मा में रक्खें, तो निश्चय ही उन्हें भगवान् मिल जाएं । जो मनुष्य गृशस्थ आश्रम में रहता है, पर उसमें आसक्ति  नहीं रखता, यानी जल में कमल की तरह रहता है, उसकी मुक्ति निश्चय ही हो जाती है; पर जो सन्यासी होकर विषयों में आसक्ति रखता है उसकी मोक्ष नहीं होती । राजा जनक गृहस्थी में रहते थे; सब तरह के राजभोग भोगते थे; पर भोगों में उनकी आसक्ति नहीं थी, इसी से उनकी मुक्ति हो गयी ।

 

      सारांश - विषय-भोग, आयु और यौवन को अनित्य और क्षणभंगुर समझकर इनमें आसक्ति न रखो और मन को एकाग्र करके हर क्षण परमात्मा का भजन करो - तो जन्म-मरण से छुटकारा मिल जाय और परमानन्द की प्राप्ति हो जाय ।

 

कबीरदास जी कहते हैं -

 

कहा भरोसो देह को, विनसि जाय छीन मांहि।

श्वास श्वास सुमिरन करो, और जतन कछु नांहि।।

 

     इस शरीर का क्या भरोसा ? यह क्षणभर में नष्ट हो जाय । इस दशा में सर्वोत्तम उपाय यही है कि, हर सांस पर परमात्मा का नाम लो । बिना उसके नाम के कोई सांस न जाने पावे । बस, इससे बढ़कर उद्धार का और उपाय नहीं है ।

 

    कुण्डलिया

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जैसे चञ्चल चञ्चला, त्योंही चञ्चल भोग।

तैसेही यह आयु है, ज्यों घट पवन प्रयोग।

ज्यों घट पवन प्रयोग, तरल त्योंही यौवन तन।

विनस न लगत न वार, गहत ह्वै जात ओसकन।

देख्यौ दुःसह दुःख, देहधारिन को ऐसे।

साधत सन्त समाधि, व्याधि सों छूटत जैसे।।

 

      विनस - विनाश; वार - समय; गहत - पकड़ते हो; ओसकन - ओंस के कण

 

 

पुण्ये ग्रामे वने वा महति सितपटच्छन्नपालिं कपाली-

मादाय न्यायगर्भद्विजहुतहुतभुग्धूमधूम्रोपकण्ठं।

द्वारंद्वारं प्रवृत्तो वरमुदरदरीपूरणाय क्षुधार्तो

मानी प्राणी स धन्यो न पुनरनुदिनं तुल्यकुल्येषुदीनः।। ५५ ।।

 

 अर्थ:

 

     वह क्षुधार्त किन्तु मानी पुरुष, जो अपने पेट-रुपी खड्डे के भरने के लिए हाथ में पवित्र साफ़ कपडे से ढका हुआ ठीकरा लेकर वन-वन और गांव-गांव घूमता है और उनके दरवाज़े पर जाता है, जिनकी चौखट न्यायतः विद्वान ब्राह्मणो द्वारा कराये हुए हवन के धुएं से मलिन हो रही है, अच्छा है; किन्तु वह अच्छा नहीं, जो समान कुलवालों के यहाँ जाकर मांगता है ।

 

  तुलसीदास जी ने भी कहा है -

 

घर में भूखा पड़ रहे, दस फाके हो जाएँ।

तुलसी भैय्या बन्धु के, कबहुँ न माँगन जाय।।

 

     तुलसीदास जी कहते है, अगर मनुष्य के पास खाने को न हो, उसको उपवास करते करते दस दिन बीत जाएं, अन्न बिना प्राण नाश होने की सम्भावना हो; तो भी उसे अपनी या अपने परिवार की जीवन रक्षा के लिए, कुछ मिलने की आशा से, भाई बन्धुओं के पास हरगिज़ न जाना चाहिए । क्योंकि ऐसे मौके पर वे लोग उसका अपमान करते हैं । उस अपमान का दुःख भोजन बिना प्राण नाश होने के दुःख से अधिक दुःखदायी होता है । मृत्यु की यंत्रणाओं का सहना आसान है, पर उस अपमान को सहना कठिन है ।

 

  और भी किसी ने कहा है -

 

वरं वनं व्याघ्रगजेन्द्र सेवितं।

द्रमालयः पक्कफलाम्बु भोजनं।।

तृणानि शय्या परिधान वल्कलं।

न बन्धुमध्ये धनहीन जीवनं।

 

     व्याघ्र और हाथियों से भरे हुए जंगल में रहना भला, वृक्षों के नीचे बसना भला, पके-पके फल खाना और जल पीना भला, घास पर सो रहना और छालों के कपडे पहन लेना भला; पर भाइयों के बीच में धनहीन होकर रहना भला नहीं ।

 

 

चाण्डाल किमयं द्विजातिरथवा शूद्रोऽथ किं तापसः

किं वा तत्त्वविवेकपेशलमतिर्योगीश्वरः कोऽपि किम्।

इत्युत्पन्नविकल्पजल्पमुखरैः सम्भाष्यमाणा जनैः

न क्रुद्धाः पथि नैव तुष्टमनसो यान्ति स्वयं योगिनः।। ५६ ।।

 

 अर्थ:

 

    यह चाण्डाल है या ब्राह्मण है? यह शूद्र है या तपस्वी है? क्या यह तत्वविद योगीश्वर है ? लोगों द्वारा ऐसी अनेक प्रकार की संशय और तर्कयुक्त बातें सुनकर भी योगी लोग न नाराज़ होते हैं न खुश; वे तो सावधान चित्त से अपनी राह चले जाते हैं ।

 

    योगीजन लोगों की बुरी भली बातों का ख्याल नहीं करते; कोई कुछ भी क्यों न कहा करे । चाहे उन्हें कोई शूद्र कहे, चाहे ब्राह्मण, चाहे भंगी और चाहे तपस्वी; चाहे कोई निंदा करे, चाहे स्तुति; वे अच्छी बात से प्रसन्न और बुरी बात से अप्रसन्न नहीं होते सच्चे महात्मा हर्ष शोक, दुःख-सुख और मान-अपमान सबको समान समझते हैं ।

 

  योगेश्वर कृष्ण ने "गीता" के दुसरे अध्याय में कहा है -

 

दुःखेष्वनुद्विग्नमनाः सुखेषु विगतस्पृहः।

वीतरागभयक्रोधः स्थितधीर्मुनिरुच्यते।।

 

     जो दुःख के समय दुखी नहीं होता; जो राग, भय और क्रोध से रहित है, वह "स्थितप्रज्ञ" मुनि है।

 

बुद्धिमान को किसी बात की परवाह न करनी चाहिए । हाथी की तरह रहना चाहिए । हाथी के पीछे हज़ारों कुत्ते भौंकते हैं, पर वह उनकी तरफ देखता भी नहीं ।

 

 

महात्मा कबीरदास जी कहते हैं -

 

हस्ती चढ़िये ज्ञान के, सहज हुलीचा डारि।

श्वान-रूप संसार है, भूसनदे झकमारि।।

 

"कबिरा" काहे को डरै, सिर पर सिरजनहार?

हस्ती चढ़ दुरिये नहीं, कूकर भूसे हज़ार।

 

 महाकवि रहीम कहते हैं -

 

जो बड़ेन को लघु कहौ, नहिं "रहीम" घट जाहिं।

गिरिधर मुरलीधर कहे, कछु दुख मानत नाहिं।।

 

सज्जन चित्त कबहुँ न धरत, दुर्जन जान के बोल।

पाहन मारे आम को, तउ फल देत अमोल।।

 

    आप ज्ञान रुपी हाथी पर चढ़कर मस्त हो जाओ; किसी की परवा मत करो; बकनेवालों को बकने दो । यह संसार कुत्ते की तरह है । इसे भौंकने दो । झकमार कर आप ही रह जायेगा । देखते हो, जब हाथी निकलता है, सैकड़ों कुत्ते उसके पीछे पीछे भौंकते हैं; पर वह अपनी स्वाभाविक चाल से, मस्त हुआ, शान से चला जाता है - कुत्तों की तरफ नज़र उठाकर भी नहीं देखता । वह तो चला ही जाता है और कुत्ते भी झकमार के चुप हो जाते हैं । मतलब यह है कि तुम अच्छी राह पर चलो, संसार की बुरी भली बातों पर ध्यान मत दो । हाथी का अनुकरण करो ।

 

      कबीरदास कहते हैं - अरे मनुष्य ! तू क्यों डरता है, जबकि तेरे पास तेरा बनानेवाला मौजूद है ? हाथी पर चढ़कर भागना उचित नहीं, चाहे हज़ारों कुत्ते क्यों न भौंके । मतलब यह कि तुमने जो उत्तम पथ अख्तियार किया है, लोगो के बुरा भला कहने से उसे मत त्यागो । संसारी कुत्तों से न डरो, ईश्वर तुम्हारी रक्षा करेगा ।

 

     रहीम कवी कहते हैं, बड़ो को छोटा कहने से बड़े छोटे नहीं हो जाते - वे तो बड़े ही रहते हैं । गिरिराज या गोवर्धन पर्वत को अपनी छोटी ऊँगली पर उठानेवाले - अतुल पराक्रम दिखनेवाले कृष्ण को लोग गिरिधर की जगह मुरली या बांस की बांसुरी धारण करनेवाले मुरलीधर कहते हैं, लेकिन वे बुरा नहीं मानते ।

 

     सज्जन लोग दुष्टों की कड़वी बातों या बोली-ठोलियों का ख्याल ही नहीं करते । लोग आम के वृक्ष के पत्थर मारते हैं, तो भी वह अनमोल फल ही देता है ।

 

 दोहा

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विप्र शूद्र योगी तपी, सुपच कहत कर ठोक।

सबकी बातें सुनत हों, मोको हर्ष न शोक।।

 

सोरठा

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विप्रन के घर जाय, भीख माँगिबो है भलो।

बन्धुन को सिरनाय, भोजनहु करिबो बुरो।।

 

सखे धन्याः केचित्त्रुटितभवबन्धव्यतिकरा

वनान्ते चिन्तान्तर्विषमविषयाशीविषगताः।

शरच्चन्द्रज्योत्स्नाधवलगगना भोगसुभगां

नयन्ते ये रात्रिं सुकृतचयचित्तैकशरणाः।। ५६ ।।

 

 अर्थ:

 

    हे मित्र ! वे पुरुष धन्य हैं, जो शरद के चन्द्रमा की चांदनी से सफ़ेद हुए आकाशमण्डल से सुन्दर और मनोहर रात को वन में बिताते हैं, जिन्होंने संसार बन्धन को काट दिया है, जिनके अन्तः-करण से भयानक सर्प-रुपी विषय निकल गए हैं और जो सुकर्मों को ही अपना रक्षक समझते हैं ।

 

     वही लोग सुखी हैं, वे ही लोग धन्य हैं, जो शरद की चांदनी की मनोहर रात में वन में बैठे हुए परमात्मा का भजन करते हैं, जिन्होंने संसार के जञ्जालों को काट दिया है, जिन्होंने आशा, तृष्णा और राग-द्वेष प्रभृति क्या त्याग दिया है, जिनके भीतरी दिल से विषय रुपी विषैले सर्प भाग गए हैं; यानी जिन्होंने विषयों को विष की तरह दूर कर दिया है, जिनका चित्त केवल पुण्य और परोपकार में ही लगा रहता है ।

 

    हमें संसार की प्रत्येक चीज़ से परोपकार की शिक्षा मिलती है । वृक्ष स्वयं फल नहीं खाते, नदियां आप जल नहीं पीती, सूरज और चाँद अपने लिए नहीं घुमते, बादल अपने लिए मेह नहीं बरसाते - ये सब पराये लिए कष्ट करते हैं । हातिम और विक्रम ने पराये लिए नाना कष्ट उठाये, दधीचि और शिवि ने परोपकार के लिए अपने अपने शरीर भी दे दिए , हरिश्चन्द्र ने पराये लिए घोर दुःसह विपत्ति भोगी । जिनका जीवन परोपकार में बीतता है, उन्ही का जीवन धन्य है ।

 

 शेख सादी ने "गुलिस्तां" में कहा है -

 

चूं इन्सारा न बाशद फ़ज़लो एहसाँ।

चे फ़र्क़ज़ आदमी ता नक़श दीवार।।

 

     यदि मनुष्य में परोपकार करने की इच्छा ही नहीं है, तो उसमें और दीवार पर खींचे हुए चित्र में क्या फर्क है ?

 

    जिससे प्राणी मात्रा का भला हो, वही मनुष्य धन्य है । उसी की माँ का पुत्र जानना सार्थक है ।

 

 "रहीम" कवी कहते हैं -

 

बड़े दीन को दुख सुने, देत दया उर आनि।

हरि हाथी सों कब हती, कहु "रहीम" पहिचानि ?

धनि "रहीम" जल पंक को, लघु जिय पियत अघाय।

उदधि बड़ाई कौन है, जगत पियासो जाय? ।।

 

      बड़े लोग दीन और दरिद्रों, निरन्न और दुखियों एवं म्लान और भीतों यानि ख़ौफ़ज़दों की बातें सुनते हैं, उनकी दुख-गाथाओं पर कान देते हैं; फिर ह्रदय में तरस खाकर - दया करके उन्हें कुछ देते और उनका दुख दूर करते हैं । वे इस बात को नहीं देखते कि यह हमारी पहचान का है कि नहीं; यह हमारा अपना आदमी है या गैर है । देखिये, हाथी और भगवान् की पहचान नहीं थी । फिर भी ज्योंही भगवान् को खबर मिली कि गजराज का पैर मगर ने पकड़ लिया है, अब गज का जीवन शेष होना चाहता है, उसने खूब ज़ोर मार लिया है, उसे अपने बचने की ज़रा भी आशा नहीं, इसलिए अब वह तुझे पुकार रहा है; त्योंही, जान-पहचान न होने पर भी भगवान् जल्दी के मारे नंगे पैरों भागे और हाथी की जान बचायी । गज और ग्राह की बात मशहूर है ।

 

 

 

मतलब यह है कि जिससे दूसरों की भलाई हो, दूसरों का दुःख दूर हो वही बड़ा है । वह बड़ा - बड़ा नहीं जिससे दूसरों का उपकार न हो । जो दीनों पर दया करते हैं, दीनों की पालना और रक्षा करते हैं, दीनों के दुःख दूर करते हैं, वे ही बड़े कहलाने योग्य हैं । भगवान् में ये गुण पूर्ण रूप से हैं; इसी से उन्हें दीनदयालु, दीनबन्धु, दीननाथ, दीनवत्सल, दीनपालक और दीनरक्षक आदि कहते हैं । मनुष्य को भगवान् ने अपने जैसा ही बनाया है, वे चाहते हैं कि मनुष्य मेरा अनुकरण करे; दीन दुखियों के दुःख दूर करे, संकट में उनकी सहायता करे, मुसीबत में उन्हें मदद दे । जो मनुष्य ऐसा करते हैं, उन्हें भी संसार दीनबन्धु आदि पदवियाँ देता है और सबसे बड़े दीनबन्धु उससे प्रसन्न होकर, उसकी साड़ी कल्पनाओं को मिटा देते हैं ।

 

रहीम कवी कहते हैं - कीचड का पानी धन्य है, जिसे छोटे छोटे जीव - कीड़े-मकोड़े धापकर पीते हैं । समुद्र चाहे जितना बड़ा है, पर उसमें तारीफ की कोई बात नहीं, क्योंकि उसके पास जाकर किसी की प्यास नहीं बुझती; जो भी जाता है उसके पास से प्यासा ही लौटता है ।

 

 दोहा

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ते नर जग में धन्य हैं, शरदर्शुभ्र निशि मांहि।

तोड़े बन्धन जगत के, मनते विषयन काहि।।

 

सोरठा

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विषय-सर्प को मारि, चित्त लगाय शुभ कर्म में।

पुण्यकर्म शुभधारि, त्यागे सब मन-वासना।।

 

 तस्माद्विरमेन्द्रियार्थ गहनादायासदादाशु च

श्रेयोमार्गमशेषदुःखशमनव्यापारदक्षं क्षणाम्।

शान्तिं भावमुपैहि संत्यज निजां कल्लोललोलां मतिं

मा भूयो भज भङ्गुरां भवरतिं चेतः प्रसीदाधुना।। ५८ ।।

 

अर्थ:

 

     हे चित्त ! अब विश्राम ले, इन्द्रियों के सुख सम्पादन के लिए विषयों की खोज में कठोर परिश्रम न कर; आन्तरिक शान्ति की चेष्टा कर, जिससे कल्याण हो और दुःखों का नाश हो; तरंग के समान चञ्चल चाल को छोड़ दे; संसारी पदार्थों में और सुख न मान; क्योंकि ये असार और नाशमान हैं । बहुत कहना व्यर्थ है, अब तू अपने आत्मा में ही सुख मान ।

 

     अरे दिल ! अब तू इन्द्रियों के लिए विषय-सुखों की खोज में मत भरम, उनके लिए तकलीफ न उठा, शान्त हो जा; उनमें कुछ भी सुख नहीं है, वे तो विष से भी बुरे और काले नाग से भी भयङ्कर हैं । अरे ! अब तो मेरा कहना मान और अपनी चालों को छोड़ । देख तेरे सर पर काल मण्डरा रहा है । वह एक ही बार में तुझे निगल जायेगा । अरे भैय्या, ये इन्द्रियां बड़ी ख़राब हैं, इनमें दया-मया नहीं, यह शैतान की तरह कुराह पर ले जाती हैं । तू इनसे सावधान रह और इनके भुलावे में न आ । अब शान्त हो और कष्ट सहना सीख । अपनी चञ्चल चाल छोड़, जगत को असार और स्वप्नवत समझ । इस जञ्जाल से अलग हो । बारम्बार इसी की इच्छा न कर । अपनी आत्मा में ही मग्न हो । इस तरह अवश्य तेरा कल्याण होगा ।

 

    कल्याण कैसा? जब तू ज्योति-स्वरुप आत्मा को देख लेगा, तब तू उसी में संतुष्ट रहेगा, उससे कभी न डिगेगा, उसके आगे सब लाभ तुझे हेय जंचेंगे । योगेश्वर कृष्ण ने ऐसी ही बात गीता के छठे अध्याय में कही है । उस सुख को सब नहीं जान सकते, जो अनुभव करता है वही जानता है । उसे कोई कह कर बता नहीं सकता ।

 

 कबीरदास कहते हैं -

 

ज्यों नर नारी के स्वाद को, खसी नहीं पहचान ।

त्यों ज्ञानी के सुख को, अज्ञानी नहीं जान ।।

 

    स्त्री-पुरुष के सुख को जैसे हिजड़ा नहीं जान सकता, वैसे ही ज्ञानी के सुख को अज्ञानी नहीं जान सकता ।

 

 छप्पय

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अरे चित्त ! कर कृपा, त्याग तू अपनी चालहि।

शिर पर नाचत खड़्यौ, जान तू ऐसे कालहि ।

ये इन्द्रियगण निठुर, मान मत इनको कहिबौ ।

शांतभाव कर ग्रहण, सीख कठिनाई सहिबौ ।

निजमति तरंग-सम चपल तजि, नाशवान जग जानिये ।

जनि करहु तासु इच्छा कछु, शिव-स्वरुप उर आनिये ।।

 

 

पुण्यैर्मूलफलैः प्रिये प्रणयिनि प्रीतिं कुरुष्वाधुना

भूशय्या नववल्कलैरकर्णैरुत्तिष्ठ यामो वनं।

क्षुद्राणांविवेकमूढमनसां यत्रेश्वराणाम् सदा

चित्तव्याध्यविवेकविल्हलगिरां नामापि न श्रूयते।। ५९ ।।

 

अर्थ:

 

    ऐ प्यारी बुद्धि ! अब तू पवित्र फल-मूलों से अपनी गुज़र कर; बानी बनाई भूमि-शय्या और वृक्षों की छाल के वस्त्रों से अपना निर्वाह कर । उठ, हम तो वन को जाते हैं । वहां उन मूर्ख और तंगदिल अमीरों का नाम भी नहीं सुनाई देता, जिन की ज़बान, धन की बीमारी के कारण उनके वश में नहीं है ।

 

     जिन धनवानों की ज़बान में लगाम नहीं है, जो अपनी धन की बीमारी के कारण मुंह से चाहे जो निकाल बैठते हैं, ऐसे मदान्ध और नीच धनी जंगलों में नहीं रहते, इसलिए बुद्धिमानो को वह चला जाना चाहिए । वहां कहे का अभाव है ? खाने को फलमूल हैं, पीने को शीतल जल है, रहने को वृक्षों की शीतल छाया है और सोने को पृथ्वी है । वह दुःख नहीं है, अशान्ति नहीं है; किन्तु और सभी जीवनधारणोपयोगी पदार्थ हैं ।

 

    जो आशा को त्याग देंगे, वह तो धनियों के दास होंगे ही क्यों ? पर धनियों को भी इतराना न चाहिए । यह धन सदा उनके पास न रहेगा । इसे वे अपने साथ न ले जायेंगे । सम्भव है, यह उनके सामने ही विलाय जाय । फिर ऐसे चञ्चल धन पर अभिमान किसलिए ?

 

किसी ने कहा है -

 

कितने मुफ़लिस हो गए, कितने तवंगर हो गए।

ख़ाक में जब मिल गए, दोनों बराबर हो गए।।

 

    धनी और निर्धन का भेद तभी तक है, जब तक कि मनुष्य ज़िंदा है; मरने पर सभी बराबर हो जाते हैं ।

 

 गिरिधर कवी कहते हैं -

 

 कुण्डलिया

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दौलत पाय न कीजिये, सपने में अभिमान।

चञ्चल जल दिन चारिकौ, ठाउँ न रहत निदान।।

ठाउँ न रहत निदान, जियत जग यश लीजै।

मीठे वचन सुनाय, विनय सब ही की कीजै।।

कह गिरधर कविराय, अरे यह सब घट तौलत।

पाहुन निशिदिन चारि, रहत सब हीके दौलत।।

 

     धनवान होकर सपने में भी घमंड न करना चाहिए । जिस तरह चञ्चल जल चार दिन ठहरता है, फिर अपने स्थान से चला जाता है; उसी तरह धन भी चार दिन का मेहमान होता है, सदा किसी के पास नहीं रहता । ऐसे चञ्चल, ऐसे अस्थिर और चन्दरोजा धन के नशे से मतवाले होकर ज़बान को बेलगाम न रखना चाहिए और सभी के साथ शिष्टाचार दिखाना और नम्रता का बर्ताव करना चाहिए । जब तक देह में प्राण रहे, जब तक ज़िन्दगी रहे, यश कमाना चाहिए; बदनामी से बचना चाहिए । अपनी ज़ुबान से किसी को कड़वी और बुरी लगनेवाली बात न कहनी चाहिए । ज़बान का ज़ख्म तीर के ज़ख्म से भी भारी होता है । तीर का ज़ख्म मिट जाता है, पर ज़बान का ज़ख्म नहीं मिटता । इस जगत में जो जैसा करता है, वह वैसा ही पाता है । जो जौ बोता है वह जौ काटता है; और जो गेंहू बोता है वो गेंहू काटता है; जो दूसरों का दिल दुखाता है, उसका दिल भी दुखाया जायेगा; जो जैसी कहेगा, वह वैसी सुनेगा ।

 

 

उस्ताद ज़ौक़ ने कहा है -

 

बद न बोले ज़ेर गर्दू, गर कोई मेरी सुने।

है यह गुम्बद की सदा, जैसी कहे वैसी सुने।।

 

   आसमान के नीचे किसी को बुरी बात ज़बान से न निकालनी चाहिए । यह तो मठ के अन्दर की आवाज़ है, जैसी कहोगे उसको प्रतिध्वनि रूप में वैसी सुनोगे ।

 

 और भी एक कवी ने कहा है -

 

ऐसी बानी बोलिये मन का आपा खोये।

औरन को शीतल करे, आपौ शीतल होय।।

 

      अभिमान त्यागकर ऐसी बात कहनी चाहिए, जिससे औरों के दिल ठण्डे हों और अपने दिल में भी ठण्डक हो ।

 

 

तुलसीदास जी ने कहा है -

 

ज्ञान गरीबी गुण धरम, नरम बचन निरमोष।

तुलसी कबहुँ न छाँड़िये, शील सत्य सन्तोष।।

 

    नित्य-अनित्य के विचार का ज्ञान, यौवन और धनादि के घमण्ड का त्याग, सतोगुण, प्रभु में निश्छल प्रीती का धर्म, मीठे और नर्म वचन, निराभिमानता, शील, सत्य और सन्तोष, इनको कभी न छोड़ना चाहिए । अज्ञानता, घमण्ड, रजोगुण, तमोगुण, अधर्म, कड़वे वचन, मान, कुशीलता, झूठ और असन्तोष - इनको छोड़ देना चाहिए ।

 

 

दोहा

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बकल बसन फल असन कर, करिहौं बन विश्राम।

जित अविवेकी नरन को, सुनियत नाहीं नाम।।

 

मोहं मार्जयतामुपार्जय रतिं चन्द्रार्धचूडामणौ

चेतः स्वर्गतरङ्गिणीतटभुवामासङ्गमङ्गीकुरु ।

को वा वीचिषु बुद्बुदेषु च तडिल्लेखासु च स्त्रीषु च

ज्वालाग्रेषु च पन्नगेषु च सरिद्वेगेषु च प्रत्ययः।। ६० ।।

 

अर्थ:

 

     ऐ चित्त ! तू मोह छोड़कर शिर पर अर्धचन्द्र धारण करनेवाले भगवान् शिव से प्रीति कर और गंगा किनारे के वृक्षों के नीचे विश्राम ले । देख ! पानी की लहार, पानी के बबूले, बिजली की चमक, आग की लौ, स्त्री, सर्प और नदी के प्रवाह की स्थिरता का कोई विश्वास नहीं; क्योंकि ये सातों चञ्चल हैं ।

 

      मनुष्यों ! आप लोग मोह निद्रा में पड़े हुए क्यों अपनी दुर्लभ मनुष्य-देह को वृथा गँवा रहे हैं ? आपको यह देह इसलिए नहीं मिली है कि, आप इस झूठे संसार से मोह कर, स्त्री पुरुष और धन-दौलत में भूले रहे; बल्कि इसलिए मिली है कि आप इस देह से दुर्लभ मोक्ष पद की प्राप्ति करें । पर संसार की गति ही ऐसी है कि वह अच्छे कामों को त्याग कर बुरे काम करता है । वजह यह है कि मोहान्ध अज्ञानी पुरुष को अच्छे-बुरे का ज्ञान नहीं ।

 

    जो नारी, नरक-कूप के समान गन्दगी से भरी है, जो सब तरह से अपवित्र और घृणयोग्य है, जिसमें प्रीति का नामोनिशान भी नहीं है, जो केवल अपने स्वार्थ से पुरुष को प्यार करती है, पति के निर्धन या कर्जदार होते ही उससे प्रीति कम कर देती या त्याग देती है, जो क्षण भर में परायी हो जाती है, उसी नारी को पुरुष अपनी प्राण-वल्लभा कहता और उसके लिए अपनी सारी सुख-शान्ति को तिलाञ्जलि देकर मरने तक को तैयार हो जाता है । क्या यह अज्ञानता नहीं है ?

 

     कवियों ने मोहवश स्त्री के अंगों की बड़ी लम्बी चौड़ी तारीफ की है । उसके दोनों स्तनों को किसी ने अनारों, किसी ने संतरों अथवा दो सोने के कलशों की उपमा दी है; पर वास्तव में वे मांस के लौंदे हैं । उनकी जांघो की केले के खम्भों से उपमा दी है, पर वे महागंदी हैं; उन पर हर समय मूत्र या सफेदा बहता रहता है । उसकी आँखों की उपमा हिरणी के बच्चे की आँखों से दी है, पर वे सर्प से भी भयानक हैं; क्योंकि सर्प के काटने से मनुष्य बेहोश होता और मरता है, पर स्त्री के तो देखने मात्र से ही वह पागल सा होकर मर-मिटता है । वास्तव में स्त्री सर्प से भी बुरी है । सर्प का काटा एक बार ही मरता है, पर स्त्री का काटा बार बार मरता और जन्म लेता है । जिस तरह कदली वन का हाथी कागज़ की हथिनी को देख उसकी इच्छा करता और शिकारियोजन के जाल में फंस कर, बन्धन में बंध नाना प्रकार के दुःख झेलता है; उसी तरह जो पुरुष स्त्री की इच्छा करता है, वह बन्धन में बँधता और नाश होता है । स्त्री संसार वृक्ष का बीज है, अतः स्त्री कामी पुरुष का इस संसार से पीछा नहीं छोटा । वह इस दुनिया में आकर, स्त्री के कारण, नाना प्रकार के दुःख भोगता, चिंताग्नि में दिन-रात जलता और अंत में मरकर ममता और वासना के कारण फिर जन्म लेता और दुःख भोगता है ।

 

     स्त्री, कामी पुरुष को ज़रा से लालच से अपना दास बना लेती है । कामी पुरुष स्त्री के इशारे पर उसी तरह नाचता है, जिस तरह बन्दर मदारी के इशारे पर नाचता है । वह रात-दिन उसे खुश करने की कोशिशों में लगा रहता है, घर-बाहर, सोते-जागते उसी की चिन्ता करता है, उसी के लिए धन-गर्वित धनियों की खुशामदें करता, उनकी टेढ़ी-सूधी सुनता और आत्मप्रतिष्ठा खोता है । इतने पर भी स्त्री की फरमाइशें पूरी नहीं होती । आज वह गहना मांगती है, तो कल कपडे मांगती है और परसों पुत्र या कन्या के विवाह की बात करती है । कभी कहती है, आज आटा नहीं है, कभी कहती है , आज घर में तेल-नोन नहीं है, इसी तरह उसकी फरमाइशों का अन्त नहीं आता, पर बेचारे पुरुष का अन्त आ जाता है । स्त्री की सेवा चाकरी से उसे इतनी भी फुर्सत नहीं मिलती कि वह क्षणभर भी अपने बनाने वाले स्वामी को पदवन्दना कर सके ।

 

     अनेक प्रकार से सेवा-टहल करने पर भी यदि पुरुष से कोई फरमाइश पूरी नहीं होती, तो वह बाघिन की तरह घुर्राती है । दैवात् यदि पुरुष निर्धन हो जाता है या उसके सिर पर ऋणभार हो जाता है, तो वही सात फेरों की ब्याही स्त्री उसका अनादर और उसकी मरण-कामना करती है । क्योंकि इस जगत में धन की ही कीमत है, मनुष्य की कीमत नहीं । कहते हैं, निर्धन मनुष्य को वेश्या तज देती है । वेश्या का तो नाम प्रसिद्ध है ही; पर वेद विधि से ब्याही हुई स्त्री भी अपने पति को तज देती है । धनहीन को माता-पिता, भाई-बहन, भौजाई, नौकर-चाकर एवं अन्य रिश्तेदार सभी बुरी नज़र से देखते और त्याग देते हैं । संसार का अर्थ - धन के वश में है । जिसके पास धन नहीं, उसका कोई नहीं ।

 

कहा है -

 

माता निन्दति नाभिनन्दति पिता भ्राता न सम्भाषते

भृत्यः कुप्यति नानुगच्छति सुतः कान्ता च नालगते।

अर्थप्रार्थनशंकया न कुरुतेऽप्यालापमात्रं सुहृत

तस्मादर्थमुपार्जयस्व च सखे ! ह्यर्थस्यसर्वेवशाः।।

 

    माता निर्धन पुत्र की निन्दा करती है, बाप आदर नहीं करता, भाई बात नहीं करता, चाकर क्रोध करता है, पुत्र आज्ञा नहीं मानता, स्त्री आलिंगन नहीं करती और धन मांगने के डर से कोई मित्र बात नहीं करता; इसलिए मित्र धन कमाओ, क्योंकि सभी धन के वश में हैं ।

 

 "आत्मपुराण" में कहा है -

 

दरिद्रं पुरुषं दृष्ट्वा नार्यः कामातुरा अपि।

स्प्रष्टुं नेच्छन्ति कुणपं यद्वच्चकृमिदूषितं।।

 

     स्त्रियां काम से आतुर होने पर भी, दरिद्री पति को छूना पसन्द नहीं करती; जिस तरह कीड़ों से दूषित मुर्दे को कोई छूना नहीं चाहता ।

 

     स्पष्ट हो गया कि स्त्री ऊपर से ही सुन्दर है, भीतर से वह महागंदी और पाषाणवत् कठोरहृदय है; जिस समय इसमें निर्दयता आती है, उस समय यह अपने क्रीतदास की तरह सेवा करनेवाले पति और अपने उदर से निकले हुए पुत्र के ऊपर भी दया नहीं करती । अपने स्वार्थ के लिए यह उनकी भी हत्या कर डालती और नरक की राह दिखाती है; अतः स्त्री के मोह में फंसना, अपने नाश का सामान करना है । जिस तरह पतंग दीपक के रूप पर मोहित होकर अपना नाश करता है; उसी तरह कामी भी स्त्री के रूप पर मुग्ध होकर अपने लोक-परलोक गंवाता है - इस जन्म में घोर चिंताग्नि में जलता और मरने पर नरकाग्नि में भस्म होता और तड़पता है ।

 

     वास्तव में स्त्री-पुत्रादि शत्रु हैं, पर पुरुष अज्ञानता से इन्हे अपना मित्र समझता है । महात्मा शंकराचार्य ने अपनी प्रश्नोत्तर माला में लिखा है - "स्त्री-पुत्र देखने में मित्र मालूम होते हैं, पर असल में वे शत्रु हैं ।

एक वैश्य और उसके पुत्र

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    एक वैश्य ने लाखों-करोड़ों रुपये कमाए और अपने धन में से चार-चार लाख रुपये अपने पुत्रों को देकर, उनकी अलग-अलग दुकाने करवा दीं । शेष धन उसने दीवारों में चुनवा दिया । चंद रोज़ के बाद वह सख्त बीमार हो गया । उसे सन्निपात हो गया और वह आन-तान बकने लगा । लोगों ने उसका अन्त समय समझ उससे कहा -"सेठ जी ! बहुत धन कमाया है, इस समय कुछ पुण्य कीजिये, क्योंकि इस समय धर्म ही साथ जायेगा; स्त्री पुत्र, धन प्रभृति साथ न जाएंगे।" वैश्य का गला बन्द हो गया था, अतः वो बोल न सकता था । उसने बारम्बार दीवारों की तरफ हाथ किये । इशारों से बताया कि इन दीवारों में धन गड़ा है, उसे निकालकर पुण्य कर दो । पुत्र, पिता का मतलब समझकर बोले - " पिताजी कहते हैं, जो धन था, सो तो इन दीवारों में लगा दिया, अब और धन कहाँ है ? " लोगों ने लड़कों की बात मान ली । वैश्य अपने पुत्रों की बेईमानी देखकर बहुत रोया, पर बोल न सकता था, इसलिए छटपटा छटपटा कर मर गया । लड़कों ने उसे शमशान ले जाकर जला दिया । वैश्य के मन की मन में ही रह गयी । इससे बढ़कर पुत्रों की शत्रुता क्या होगी ?

 

     जो लोग सैकड़ों प्रकार के अनर्थ और बेईमानी से पराया धन हड़प कर अथवा और तरह से दुनिया का गला काटकर लाखों-करोड़ों अपने पुत्र-पौत्रों को छोड़ जाते हैं, वे इस कहानी से शिक्षा ग्रहण करें और पुत्रों का झूठा मोह त्यागें । इस जगत में न कोई किसी का पुत्र है न पिता । माता-पिता, भाई-बहन, स्त्री-पुत्र सभी एक लम्बी यात्रा के यात्री हैं । यह मृत्युलोक उस यात्रा के बीच का मुकाम है । इस मुकाम पर आकर सब इकट्ठे हो गए हैं । कोई किसी से सच्ची प्रीति नहीं रखता । सभी स्वार्थ की रस्सी से एक-दुसरे से बंधे हुए हैं । जब जिसके चलने का समय आ जाता है, तब वही निर्मोही की तरह सब को छोड़ के चल देता है । जो लोग उस चले जाने वाले या मर जाने वाले के लिए प्राण न्यौछावर करते थे, उसके लिए मरने तक को तैयार रहते थे, उनमें से कोई उसके साथ पौली तक जाता है और कोई उसे श्मशान भूमि तक पहुंचकर और जला-बलाकर  ख़ाक कर आता है । ऐसे नातेदारों से अनुराग करना - उनमें ममता रखना बड़ी ही गलती है ।

 

 कहा है -

 

    "परलोक की राह में जीव अकेला जाता है; केवल धर्म उसके साथ जाता है । धन, धरती, पशु और स्त्री घर में रह जाते हैं । लोग श्मशान तक जाते हैं और देह चिता तक साथ रहती है ।"

 

     बहुत लोग यह समझते हैं कि पुत्र बिना गति नहीं होती; पुत्रहीन पुरुष नरक में जाता है और पुत्रवान स्वर्ग में जाता है । जो लोग ऐसा समझते हैं; वह बड़ी भूल करते हैं । पुत्रों से किसी की भी गति न हुई है और न होगी; सब की गति अपने ही पुरुषार्थ से होती है । अगर पुत्रों से स्वर्ग या मोक्ष की प्राप्ति होती, तो कोई विरला ही नरक में जाता । जो जैसा करता है, उसे वैसा ही फल भोगना होता है । ब्रह्मह्त्या, स्त्रीहत्या, भ्रूणहत्या, परस्त्रीगमन और परधन हरण प्रभृति पापों का फल कर्ता को भोगना ही होता है । जो ऐसा समझते हैं कि ऐसे पाप करने पर भी पुत्र-पौत्रों के होने से, हम दण्ड से बच जाएंगे, वे बड़े ही मूर्ख हैं । ज्ञानी लोग तो संसार बन्धन से छूटने के लिए अपने पुत्रों का भी त्याग कर देते हैं ।

 

 

   एक ब्राह्मण और उसका अन्धा पुत्र

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    किसी नगर में एक ब्राह्मण रहता था । उसके पुत्र नहीं हुआ था, इसलिए उसने गंगाजी की उपासना की । अन्त में बूढी अवस्था में, उसके एक अन्धा पुत्र हुआ । ब्राह्मण उस अन्धे पुत्र को पाकर बड़ा ही प्रसन्न हुआ । उसने खूब उत्सव और भोज प्रभृति किये । इसके बाद जब वह पुत्र पांच बरस का हुआ, ब्राह्मण ने उसका यज्ञोपवीत संस्कार कराकर, उसे विद्या पढ़ना आरम्भ किया । चन्दरोज में वह अन्धा पूर्ण पण्डित हो गया ।

 

    एक दिन पिता-पुत्र बैठे थे । पुत्र ने पिता से पूछा - "पिताजी ! मनुष्य अन्धा किस पाप से होता है ?" पिता ने उत्तर दिया - "पुत्र ! जो पूर्व जन्म में रत्नो की चोरी करता है, वह अन्धा होता है।" पुत्र ने कहा - "पिताजी ! यह बात नहीं है । कारण के गुण कार्य में भी आ जाते हैं । आप अन्धे हैं, इसी से मैं भी अन्धा हुआ हूँ । पिता ने क्रोध में भरकर कहा, " नालायक, मैं अन्धा कैसे ?" पुत्र ने कहा - "पिताजी ! गंगा माता साक्षात् मुक्ति देने वाली हैं । आपने उनकी उपासना पुत्र की कामना से की; इसी से मैं आपको अन्धा समझता हूँ ।  जो वेद-शास्त्र पढ़कर भी पेशाब के कीड़े की इच्छा करता है, वह अन्धा नहीं तो क्या सूझता है ? पेशाब से जैसे अनेक अनेक प्रकार के कीड़े पैदा होते हैं, वैसे ही पुत्र भी उसका एक कीड़ा ही है । आपने जिस पुत्र के लिए गंगाजी की इतनी तपस्या की, वह पुत्र तो कुत्ते-बिल्ली और सूअर प्रभृति पशुओं के अनायास ही हो जाते हैं । पुत्र जैसे मूत्र के कीड़े से किसी को भी स्वर्ग या मोक्ष लाभ नहीं हो सकता; पिताजी ! न कोई किसी का पुत्र है न स्त्री प्रभृति; सब एक ही हैं क्यंकि सब में एक ही आत्मा है । वही आत्मा पिता में है, वही पुत्र में और स्त्री में । जिस तरह मरुभूमि में भ्रम से जल दीखता है, पर वास्तव में वहां जल का नाम-निशान भी नहीं है; उसी तरह भ्रम से यह जगत सच्चा दीखता है, पर वास्तव में कुछ भी नहीं । यह मेरा पुत्र है, यह मेरी स्त्री है, यह मेरा धन है, यह मेरा मकान है - ऐसा वासना से दीखता है । वासना से ही जीव संसार बन्धन में बँधता है; यानी वासना से ही शरीर धारण करता है । वासना से ही मनुष्य अज्ञानी बना रहता है । वासना का त्याग करते ही मनुष्य, ज्ञान-लाभ करके, परमानन्द की प्राप्ति करता है । ज्ञानी सच्चिदानंद रूप ब्रह्म को ज्ञान की आँखों से देखता है, पर अज्ञानी उसे नहीं देख सकता । जैसे अन्धे को सूर्य नहीं दीखता, उसी तरह अज्ञानी को ब्रह्म नहीं दीखता; इसी से अज्ञानी को बाहर की आँखें होने पर भी अन्धा कहते हैं । आप भेद-बुद्धि को त्यागकर, सबमें एक आत्मा को देखो । आत्मज्ञानी होने से ही आपको नित्य सुख मिलेगा।"

 

    पिता, पुत्र के अगाध ज्ञान और पाण्डित्य को देख एकदम चकित हो गया और कहने लगा - "पुत्र ! मैंने चार वेद, छहों शास्त्र, उपनिषद, स्मृति और पुराण प्रभृति पढ़कर कुछ भी लाभ न किया; तेरी बातों से मेरी आँखें खुल गयी।"

 

 संसार को मिथ्या समझकर ही कोई ज्ञानी कहता है -

 

     "हे मन ! तू स्त्री के प्रेम में मत भूल; यह बिजली की चमक, नदी के प्रवाह और नदी की तरंग प्रभृति की तरह चञ्चल है । स्त्री के प्रेम का कोई ठिकाना नहीं; आज यह तेरी है, कल पराई है । एक करवट बदलने में स्त्री पराई हो जाती है । इसकी झूठी प्रीति में कोई लाभ नहीं ।

 

गोस्वामी तुलसीदास जी कहते हैं -

 

उरग तुरग नारी नृपति, नर नीचे हथियार।

तुलसी परखत रहब नित, इनहिं न पलटत बार।।

 

     सर्प, घोडा, स्त्री, राजा, नीच पुरुष और हथियार - इनको सदा परखते रहना चाहिए, इनसे कभी गाफिल न रहना चाहिए, क्योंकि इन्हें पलटते देर नहीं लगती ।

 

     हे मन ! यदि तुझे प्रीति ही करनी है, तो उठ गंगा के किनारे वृक्षों के नीचे चल बैठ और आशुतोष भगवान् चन्द्रशेखर - शिवजी से प्रीति कर । उनकी प्रीति सच्ची और कल्याणकारी है ।

 

 

गोस्वामी जी ने और भी कहा है -

 

कै ममता करु रामपद, कै ममता करु हेल।

"तुलसी" दो मँह एक अब, खेल छाँड़ि छल खेल।।

सम्मुख ह्वै रघुनाथ के, देइ सकल जग पीठि।

तजै केंचुरी उरग कहँ, होत अधिक अति दीठि।।

    या तो भगवान् के चरणों में ममता कर अथवा देह के सब नातों को त्यागकर उदासीन हो जा और कर्म ज्ञानादि साधन करके मन को शुद्ध कर ले । जब तेरा मन शुद्ध हो जाएगा, तब भगवान् के चरणों में आप ही स्नेह हो जाएगा । इन दोनों बातों में से जो एक बात तुझे पसन्द हो, उसे छल छोड़ कर दिल से कर; एक खेल खेल । सारांश यह, कि भगवान् में सहज स्नेह कर । अगर तेरा मन प्रभु की भक्ति में नहीं जमता तो स्त्री-पुत्र आदि संसारी भोगों से मन हटाकर प्रभु की भक्ति की चेष्टा कर ।

 

      जब भगवान् में तेरा मन लग जाए, तब संसार की तरफ से मुंह फेर ले - संसार को पीठ दे दे, जिससे तेरे मन में लोक-वासना न आने पावे; क्योंकि वासना से ह्रदय की दृष्टी मैली हो जाती है । सांप का भीतरी चमड़ा जब मोटा हो जाता है, तब उसे आँखों से साफ़ नहीं दीखता, लेकिन जब वह कांचली छोड़ देता है, तब उसकी आँखों का पटल उतर जाता है; आँखों के साफ़ हो जाने से सांप को खूब साफ़ दिखने लगता है । जिस तरह कांचली त्यागने से सर्प की दृष्टी साफ़ हो जाती है; उसी तरह वासना त्याग देने से ईश्वर के भक्तो की ह्रदय-दृष्टी साफ़ रहती और उन्हें भगवान् के दर्शन होते रहते हैं ।

 

छप्पय

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मोह छाँड़ मन-मीत ! प्रीति सों चन्द्रचूड़ भज !

सुर-सरिता के तीर, धीर धार दृढ़ आसन सज !!

शम दम भोग-विराग, त्याग-तप को - तू अनुसरि।

वृथा विषय-बकवाद, स्वाद सबहि - तू परिहरि।।

थिर नहि तरंग, बुदबुद, तड़ित, अगिन-शिखा , पन्नग, सरित।

त्योंही तन जोवन धन अथिर, चल दलदल कैसे चरित ।।

 

 

शम - इन्द्रिय-निग्रह

 

दम - बाहरी इन्द्रियों का निग्रह

परिहरि - त्याग

पन्नग - सर्प

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