अग्रे गीतं सरसकवयः पार्श्वतो दाक्षिणात्याः
पृष्ठे लीलावलयरणितं चामरग्राहिणीनाम् ।
यद्यस्त्येवं कुरु भवरसास्वादने लम्पटस्त्वं नो
चेच्चेतः प्रविश सहसा निर्विकल्पे समाधौ।। ६१ ।।
अर्थ:
हे
मन ! तेरे सामने चतुर गवैये गाते हों, दाहिने-बाएं दक्खन देश
के उत्तम कवी सरस काव्य सुनते हों, तेरे पीछे चंवर ढोलने
वाली सुंदरी स्त्रियों के कंकणों की मधुर झनकार होती हो, यदि
ऐसे सामान तुझे मयस्सर हों, तो तू संसार रसास्वादन में मग्न
हो; नहीं तो सबका ध्यान छोड़, निर्विकल्प
समाधि में लीन हो ।
विरमत बुधा योषित्सङ्गात्सुखात्क्षणभंगुरा-
त्कुरुत करुणामैत्रीप्रज्ञा वधूजनसंगमम्।
न खलु नर के हाराक्रान्तं घनस्तनमण्डलम्
शरणमथवा श्रोणीबिम्बम् रणन्मणिमेखलम्।। ६२ ।।
अर्थ:
हे
बुद्धिमानो ! स्त्री के संग से बचो, क्योंकि उनके संग से जो
सुख मिलता है, वह क्षणिक है । आप मैत्री, करुणा और बुद्धिरूपी वधू के साथ संगम करो । जिस समय नरक में सजा मिलेगी,
उस समय युवतियों के हारों से शोभित स्तनद्वय और घुंघरूदार कर्धनियों
से सुशोभित कमर तुम्हारी सहायता न करेंगी ।
मनुष्यों,
स्त्रियों में मन मत लगाओ । उनके साथ रहने, उनके
साथ संगम करने से सुख होता है; पर वह सुख नश्वर और
क्षणस्थायी है । वह ऐसा सुख नहीं जो सदा रहे । परिणाम में उससे अनेक प्रकार के
दुःख होते हैं । जो सुख अनित्य है, शेष में दुखों का मूल और
रोगों की खान है, उस सुख को सुख समझना, बुद्धिमानो का काम नहीं । अगर आपको सङ्गंम ही करना है, तो आप सुहानुभूति, परोपकारवृत्ति एवं प्रज्ञारूपी
बहू के साथ सङ्गंम कीजिये । इनके साथ सङ्गंम और प्रीति करने से आप को नित्य सुख
मिलेगा; ऐसा सुख मिलेगा, जो इस लोक और
परलोक में सदा स्थिर रहेगा ।
जिन लोगों ने पहले दूसरों के
दुःख दूर किये हैं, जिन्होंने परोपकार के लिए जानें दी हैं,
जिन्होंने ज्ञान से काम लिया है, उनका भला ही
हुआ है । अगर आप स्त्री-सुख में भूले रहोगे, तो जब आपको नरक
की भयंकर यातनाएं भोगनी पड़ेंगी, जब आप पर यमदूतों के डण्डे
पड़ेंगे, उस समय क्या स्त्रियों के हारों से सुशोभित
स्तन-मण्डल और कर्धनियों से शोभायमान पतली कमर आपकी रक्षा कर सकेंगी ? नहीं, इनसे कोई लाभ न होगा; उस
समय ये आड़े न आएंगे । उस मौके पर, परोपकार करके जो पुण्य
संचय किया होगा, वही आपकी रक्षा करेगा । बुद्धि से काम लोगे
तो भला होगा; क्योंकि बुद्धि ही आपको नरक से बचने की राह
बतावेगी; किन्तु स्त्री तो आपको सीधी नरक की राह दिखावेगी ।
आश्चर्य है, अज्ञानी लोग अच्छे को बुरा और बुरे को अच्छा
समझते हैं । वे अपने सच्चे मित्रों से प्रीति नहीं करते, किन्तु
झूठे और कुराह में ले जानेवालों से प्रीति करते हैं ।
महात्मा
सुन्दरदास जी ने कहा है -
(१)
विषही की भूमि मांहि, विष के अङ्कुर भये।
नारी-विषवेली बढ़ी, नखशिख देखिये।।
विषही के जर मूल, विषही के डार पात।
विषही के फूल फल, लागे जु विशेखिये।।
विष के तन्तु पसार, उरझायी आंटी मार।
सब नर-वृक्ष पर, लपटेहि लेखिये।।
"सुन्दर" कहत, कोऊ सन्त-तरु बची गए।
तिनके तौ कहूं, लता लागि नहीं पेखिये।।
(२)
कामिनी को अंग, अति मलिन महा अशुद्ध।
रोम-रोम-मलिन, मलिन सब द्वार हैं।।
हाड़ मांस मज्जा मेद, चामसूँ लपेट राखै।
ठौर-ठौर रकत के, भरेई भण्डार हैं।।
मूत्रहु-पुरीष-आंत, एकमेक मिल रहीं।
औरहु उदर मांहि, विविध विकार हैं।।
"सुन्दर" कहत, नारी नखशिख निन्द्यरूप।
ताहि जो सराहै, सो तौ बड़ोई गंवार है।।
(३)
रसिकप्रिया रसमंजरी और श्रृंगारहि जान।
चतुराई करि बहुत विधि, विषय बनाई आन।।
विषय बनाई आन, लगत विषयिनकूँ प्यारी।
जागे मदन प्रचण्ड, सराहै नखशिख नारी।।
ज्यूँ रोगी मिष्टान्न खाई, रोगहि बिस्तारै।
"सुन्दर" ये गति होइ, जोई रसिकप्रिया धारै।।
(१)
विष की
ज़मीन में विष के अङ्कुर जमे। फिर नारी रूप विषलता बढ़ी । उस लता में विष की जड़ें
लगीं और विष की डालियाँ और पत्तियां आयीं । फिर उस लता में विष के ही फल और फूल
लगे । उस विषलता में विष के तन्तु निकले । फिर उस विषलता ने अपने विष तन्तु
फैला-फैलाकर नर-वृक्षों को उलझा लिया और खुद उनसे लिपट गयी । सुन्दरदास जी कहते
हैं, उस
विषलता के फन्दे में अधिकाँश नर-रुपी वृक्ष फंस गए - कोई विरले ही सन्त रुपी वृक्ष
उससे अछूते बच सके । उनके ही शरीरों में यह विष लता लगी हुई न दिखाई दी ।
मतलब यह
की स्त्री विष की बेल है । उसकी जड़, उसकी डालियाँ, उसकी
पत्तियां, उसके फल फूल सभी विषपूर्ण हैं । सारांश यह कि
स्त्री का सर्वाङ्ग विष से भरा है स्त्री का कोई भी अंग ऐसा नहीं जिसमें विष न हो
। यह स्त्रीरूपी विषबेल अज्ञानी विषयी लोगों को अपने फन्दे में फंसाकर नाश कर देती
है; क्योंकि विष स्वभाव से ही प्राणघाती होता है । सिर्फ वे
लोग इस स्त्रीरूपी विषबेल से बचते हैं, जो ज्ञानी हैं,
जो इसकी असलियत को जानते हैं, जिन्होंने अपनी
इन्द्रियों को अपने वश में कर लिया है, जिनकी इन्द्रियां
विषयों की तरफ नहीं झुकतीं । और भी खुलासा यह है, कि स्त्री
विष-लता के समान है, विष लता जिस वृक्ष से लिपट जाती है,
उसे सुखा-सुखाकर नष्ट कर देती है। इसी तरह स्त्री जिस विषयी पुरुष
के पीछे लग जाती है अथवा जो पुरुष स्त्री के फन्दे में फंस जाता है, वह भी सब तरह से नष्ट हो जाता है । इसके सभी अंगों में विष भरा है । जिस
तरह विष खाने से ज़हर चढ़ता है, उसी तरह इसकी आँख, इनके गाल, इसकी भौं, छातियां,
जांघें प्रभृति किसी भी अंग के देखने और छूने से विष चढ़ जाता है ।
विष के चढ़ जाने से पुरुष मतवाला हो जाता है; उसके होश-हवास
खता हो जाते हैं और बुद्धि मारी जाती है । बुद्धि के मारे जाने से पुरुष बिना
पतवार की नाव की तरह नष्ट हो जाता है । इस लोक में नाना प्रकार के रोग और दुःख
भोगकर मर जाता और परलोक में भी दुःख ही पाता है । संखिया प्रभृति विष का मारा हुआ
इस लोक में दुःख पाता है, पर स्त्री-विष का मारा हुआ अनेक
जन्मों में दुःख पाता है । और ज़हर खाने वाला एक ही बार मरता है; पर स्त्री-विष सेवन करने वाला बारम्बार मरता है । अतः बुद्धिमानों को इस
स्त्रीरूपी विषलता से सदा दूर रहना चाहिए, ताकि इसका विष
शरीर में पैवस्त न होने पावे।
(२)
स्त्री का
शरीर अत्यंत मैला और अतीव अशुद्ध या गन्दा है । इस प्रकार प्रत्येक रोम मैला और
सारे ही दरवाजे गन्दे हैं । इसका शरीर हाड़, मांस, मज्जा, मेद और चमड़े से लिपटा हुआ है । इसके अन्दर जगह जगह खून के हौज़ भरे हुए हैं
। पेशाब और पाखाने की आंतें आपस में सट
रहती है । इन सब के अलावा पेट में और भी अनेक तरह के मैले भरे हुए हैं ।
सुन्दरदास जी कहते हैं, नारी एड़ी से छोटी तक निन्द्य है - नख
से शिख तक निन्दा करने योग्य है । ऐसी निन्दा की पात्री नारी की जो सराहना करते
हैं, वे तो निश्चय ही बड़े गंवार और भौंदू हैं ।
खुलासा यह
है कि स्त्री ऊपर से अच्छी मालूम होती है, पर वास्तव में गन्दगी का पिटारा है । इसकी
नाक में रहँट भरा हुआ है। इसकी आँखों में गींडें भरी हुई हैं । इसके मुंह में कफ
और खखार भरे हुए हैं । इसकी मूत्रेन्द्रिय से हर समय सफ़ेद-सफ़ेद या लाल-लाल गन्दा
पदार्थ बहा करता है । पेशाब से जाँघे भीगी रहती है । इसकी मल और मूत्र की इन्द्रिय
में २ अंगुल से ज्यादा का दूर का फर्क नहीं है । जिन छातियों पर विषयी मर मिटते
हैं, जिन्हे वे सुन्दर सोने के कलश, कामदेव
के नगाड़े अथवा शान्तरे और अनार कहते हैं, वे दो मांस के
लौंदे हैं । उनके ऊपर चमड़ा चढ़ा हुआ है, इसी से उनके भीतर की
गन्दगी छिपी रहती है । ऐसी गन्दगी की पिटारी की तारीफों में जो लोग कवितायेँ करते
हैं वे सचमुच ही बेअक्ल और गंवार हैं ।
(३)
अनेक तरह
की इन्द्रिय भोग सम्बन्धी वस्तुओं से बनी हुई और सजी हुई स्त्री विषयी लोगों को
बहुत ही प्यारी लगती है । जब बलवान काम जागता है, तब वे इसका नखशिख वर्णन करने में
अपनी सारी विद्वता खर्च कर देते हैं । चोटी से एड़ी तक एक-एक अंग की दिल खोल कर
तारीफ करते हैं । जिस तरह रोगी मिठाई खाकर अपने रोग को बढ़ाता है; उसी तरह जो लोग स्त्री या प्रिय को धारण करते हैं - अपनाते हैं, अनेक तरह के रोगों और दुखों को जानबूझकर आप बुलाते हैं । उनकी हर तरह से
दुर्गति होती है । तरह तरह के रोग होते हैं, बल घटता है,
आयु क्षीण होती है, हर क्षण चिंतित रहना पड़ता
है, शान्ति पास नहीं आती और ईश्वर भजन में मन नहीं लगता । हर
समय उसी को संतुष्ट करने की फ़िक्र लगी रहती है । मरते समय भी उसी में मन अटका रहता
है, जीवात्मा उसे छोड़कर जाना नहीं चाहता, उसके संग ही रहना चाहता है, पर समय आ जाने पर कोई भी
इस काया में क्षणभर भी नहीं रह सकता; अतः देह त्यागनी ही
पड़ती है; पर चूंकि स्त्री में मन लगा रह जाता है, उसकी वासना मन में रह जाती है, इसलिए वासना के कारण
फिर जन्म लेना पड़ता है । जो जन्म लेता है, उसे मरना भी पड़ता
है । इस तरह स्त्री-लोलुप को बारम्बार जन्म लेने और मरने का घोर क्लेश सहना पड़ता
है । उसे कभी सुख नहीं मिलता; उसकी मोक्ष नहीं होती । इसीलिए
कहा है कि, जो लोग स्त्री को रखते हैं, उनकी बड़ी बुरी गति होती है ।
सोरठा
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तजि तरुणी सों नेह, बुद्धिबधू सों नेह कर।
नरक निवारत येह, वहै नरक लै जात है।।
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प्राणाघातान्निवृत्तिः परधनहरणे संयमः सत्यवाक्यं
कालेशक्त्या प्रदानं युवतिजनकथामूकभावः परेषाम्।
तृष्णास्त्रोतोविभङ्गो गुरुषु च विनयः
सर्वभूतानुकम्पा
सामान्यः सर्वशास्त्रेष्वनुपहतविधि:श्रेयसामेष
पन्थाः।। ६३ ।।
अर्थ:
किसी भी
जीव की हिंसा न करना, पराया माल न चुराना, सत्य बोलना, समय पर सामर्थ्यानुसार दान करना, परस्त्रियों की
चर्चा में चुप रहना, गुरुजनो के सामने नम्र रहना, सब प्राणियों पर दया करना और भिन्न भिन्न शास्त्रों में समान विश्वास रखना
- ये सब नित्य सुख प्राप्त करने के अचूक रस्ते हैं ।
यदि आप मोक्ष की अचूक राह चाहते हो, यदि आप चिरस्थायी कल्याण चाहते हो, तो आप किसी भी
प्राणी का विनाश मत करो; अपने पेट के लिए किसी की जान मत
मारो । जब मौका आवे, अपनी शक्ति अनुसार गरीबों और मुहताजों
को दान दो, उनके दुःख दूर करो; उनके
दुखों को अपना दुःख समझकर उनका कष्ट निवारण करो। जहाँ पराई स्त्रियों का ज़िक्र
होता हो, वहां मत बैठो; यदि बैठना ही
पड़े, तो तुम अपनी ज़बान से कुछ मत कहो । माता-पिता और गुरु के
सामने सदा नम्र रहो, उनकी आज्ञा का पालन करो, उनका मान-सम्मान करो; भूल कर भी उनका अपमान न करो ।
छोटे बड़े सभी प्राणियों पर दया करो । सभी शास्त्रों को समान समझो; किसी में विश्वास और किसी में अविश्वास न करो, क्योंकि
सभी का ध्येय एक ही है, सभी वहीँ पहुँचते हैं । जिस तरह
नदियां, टेढ़ी-सीढ़ी बहती हुई समुद्र में ही जा मिलती हैं;
उसी तरह सभी शास्त्र अपनी-अपनी राहों से मोक्ष या परमात्मा की ही
राह बताते हैं । जो ऐसा विश्वास नहीं रखते, तर्क-वितर्क के
झमेले में पड़ते हैं, वे वृथा भटकते और अपनी मंज़िल मक़सूद -
परमपद - तक नहीं पहुँचते ।
महात्मा
तुलसीदास ने ये सब विषय कैसी खूबी से संक्षेप में ही कह दिए हैं -
सदा भजन गुरु साधु द्विज, जीव दया सम जान।
सुखद सुनै रत सत्यव्रत, स्वर्ग-सप्त सोपान।।
वञ्चक विधिरत नर अनय, विधि हिंसा अतिलीन।
तुलसी जग मँह विदित वर, नरक निसैनी तीन।।
ईश्वर-भजन; गुरु,
साधु-महात्मा और ब्राह्मणो की सेवा करना; जीवों
पर दया करना; लोक में समदृष्टि रखना - सबको एक नज़र से देखना;
सबको सुख देना; सुनीति पर चलना और सत्यव्रत
धारण करना - ये सातों स्वर्ग में जाने की सात सीढ़ियां हैं । जो इन कामों को वासना
के साथ करते हैं - इन कामों का पुरस्कार चाहते हैं, वे
स्वर्ग में जाते हैं और जो इन कामों को बिना वासना के करते हैं, वे भगवान् में मिल जाते हैं ।
खुलासा यह
है कि जो लोग परमात्मा का भजन करते हैं, गुरु, महात्मा और
ब्राह्मणो को सेवा करते और उनसे उपदेश लेते हैं, जीवों पर
दया करते हैं, अपनी भरसक किसी भी जीव को दुःख नहीं होने देते,
सबको एक नज़र से देखते हैं, किसी से दोस्ती और
किसी से दुश्मनी नहीं रखते; सभी को सुख देते हैं - किसी को
भी नहीं सताते; न्याय और नीति के मार्ग पर चलते हैं - अनीति
से बचते और अत्याचार नहीं करते तथा सदा सत्य बोलते हैं - सपने में भी झूठ नहीं
बोलते - वे स्वर्ग में जाते हैं, क्योंकि ये सात स्वर्ग की
सीढिया हैं ।
गोस्वामी जी ने ऊपर स्वर्ग में चढ़ने की सात
सीढ़ियाँ बताई हैं, अब वह नरक की तीन नसैनी भी बताते हैं - जो
लोग चोरी, जोरी और ठगी अथवा और तरह से धोखा देकर पराया धन
हड़पते हैं, जो लोग अनीति और अन्याय करते हैं - पराई
स्त्रियों को भोगते हैं, पराई निन्दा या बदनामी करते हैं,
पराया काम बिगाड़ते हैं, जुआ खेलते हैं,
वेश्यागमन करते हैं, जो लोग अपने सुख के लिए
जीवों को मारते हैं अथवा मोह के वश में होकर जीवहत्या करते हैं; यानी छल, अनीति और हिंसा का आश्रय लेते हैं, वे निश्चय ही नरकों में जाते हैं; क्योंकि ये तीनो
काम नरक की नसैनी हैं ।
मातर्लक्ष्मि भजस्व कंचिदपरं मत्काङ्क्षिणी मा स्म
भूः
भोगेभ्यः स्पृहयालवो न हि वयं का निस्पृहाणामसि।
सद्यःस्यूतपलाशपत्रपुटिकापात्रे पवित्रीकृते
भिक्षासक्तुभिरेव सम्प्रति वयं वृत्तिं समीहामहे।। ६४
।।
अर्थ:
हे मां
लक्ष्मी ! अब किसी और को खोज, मेरी इच्छा न कर; अब मुझे
विषय-भोगों की चाह नहीं है; मेरे जैसे निस्पृह -
इच्छा-रहितों के सामने तू तुच्छ है ।
क्योंकि अब मैंने हर ढाकके पत्तो के दोनों में भिक्षा के सत्तू से गुज़ारा
करने का संकल्प कर लिया है ।
जो अपनी इच्छा का नाश कर देता है, जो किसी भी पदार्थ की इच्छा नहीं रखता - वह लक्ष्मी क्या - संसार के बड़े
बड़े सुख-भोग और धन-दौलत को तुच्छ समझता है; वह बादशाहों को
भी माल नहीं समझता । जो जंगल के फलमूलों पर गुज़र कर लेता है या भिक्षा के सत्तू को
ढाक के पात में पानी से घोल कर पी जाता है, वस्त्र की भी
जरुरत नहीं रखता, उसे किसी परवा ? उसे
दुःख कहाँ ? यदि मनुष्य सच्चा सुख चाहे, परमपद या परमात्मा को चाहे तो "इच्छा" को त्याग दे । सब आफतों
की जड़ "इच्छा" ही है ।
दोहा
--------
मौकों तजि भजि और कों, ऐरी लक्ष्मी मात !।
हैं पलाश के पात में, मांग्यो सतुआ खात।।
यूयं वयं वयं यूयमित्यासीन्मतिरावयोः।
किं जातमधुना येन यूयं यूयं वयं वयम्।। ६५ ।।
अर्थ:
पहले
हमारा आपका इतना गाढ़ा सम्बन्ध था कि, आप थे सो मैं था और मैं था सो आप थे । अब
क्या फर्क हो गया है, कि मैं - मैं ही हूँ और आप - आप ही हैं
?
पहले
आपमें और मुझमें भेद नहीं था । जो आप थे सो मैं था और मैं था सो आप थे । मैं और आप
दोनों ही एक से थे - आप और मैं दोनों ही पहले विषयासक्त थे; किन्तु अब बड़ा भेद
हो गया है; यानी आप अब तक विषयासक्त ही हैं पर मैं विषयों से
विरक्त हो गया हूँ । आपने अब तक संसार के झूठे सुखों - विषय वासनाओं का परित्याग
नहीं किया है; पर मित्र, मैं तो अब
इनसे घबरा गया - थक गया; मुझे इनमें कुछ भी सार या तत्व न
दीखा, इसलिए मैंने अब सबसे किनारा करके वैराग्य ले लिया है ।
आप सभी नरक में ही हैं, पर मैं विवेक-बुद्धि से काम लेकर,
नरक से निकलकर स्वर्ग में आ गया हूँ । आप अभी तक दुःख के बीज बो रहे
हैं; पर मैं अब सुख के बीज बो रहा हूँ । मित्र ! तुम भी मेरी
तरह उन भयंकर जञ्जालों को छोड़कर मेरी जैसी सुख की राहपर क्यों नहीं आ जाते ?
मित्रवर ! इस राह में सुख है; उस राह में घोर
दुःख और नरक यातनाएं हैं । संसार को छोड़ने और भगवत से प्रीती करने में बड़ा आनन्द
है ।
उस्ताद ज़ौक़ ने कहा है -
दुनिया से ज़ौक़ रिश्तए उल्फत को तोड़ दे।
जिस सर का है यह बाल, उसी सर में जोड़ दे।।
दोहा
---------
तुम-हम हम-तुम एक हैं, सब विधि रह्यो अभेद।
अब तुम-तुम हम-हमहिं हैं, भयो कठिन यह भेद।।
बाले लीलामुकुलितममीमन्थरा दृष्टिपाताः
किं क्षिप्यते विरम विरमं व्यर्थ एव श्रमस्ते।।
संप्रत्यन्ये वयमुपरतम् बाल्यामावस्था वनान्ते
क्षीणो मोहस्तृणमिव जगज्जालमालोक्यामः।। ६६ ।।
अर्थ:
ऐ बाला !
अब तू लीला से अपनी आधी खुली आँखों से मुझ पर क्यों कटाक्ष बाण चलाती है ? अब तू काममद पैदा
करने वाली दृष्टी को रोक ले; तेरे इस परिश्रम से तुझे कोई
लाभ न होगा । अब हम पहले जैसे नहीं रहे हैं । हमारी जवानी चली गयी है । अब हमने वन
में रहने का निश्चय कर लिया है और मोह त्याग दिया है; अब हम
विषय सुखों को तृण से भी निकम्मा समझते हैं ।
महाकवि
दाग कहते हैं -
तौबा जो मैंने की, निकल आया ज़रा सा मुंह।
वह रंग रूप ही नहीं, सुबहे बहार का।।
बसन्त को
सौंदर्य का बड़ा अभिमान था । जब से मैंने शराब पीने से तौबा कर ली है, तब से
बसन्त-लक्ष्मी का मुंह फीका पड़ गया है । जब तक मैं शराबी था, तभी तक उसकी शोभा का कायल था। अब तो मुझे उसमें भी विशेषता मालूम नहीं
होती ।
इयं बाला मां प्रत्यनवरतमिन्दीवरदल
प्रभाचोरं चक्षुः क्षिपति किमभिप्रेतमनया।।
गतो मोहोऽस्माकं स्मरकुसुमबाण व्यतिकर-
ज्वलज्ज्वाला शान्ति न तदपि वराकी विरमति।। ६७ ।।
अर्थ:
यह बाला
स्त्री मुझ पर बार-बार नीलकमल की शोभा से भी सुन्दर नेत्रों से कटाक्ष क्यों मारती
है ? मैं
नहीं समझता इसका क्या मतलब है ? अब तो मेरा मोह जाता रहा है
- काम के पुष्प बाणो से निकली हुई आग की ज्वाला शान्त हो गयी है । आश्चर्य है,
कि अब तक भी यह मूर्खा बाला अपनी कोशिशों से बाज़ नहीं आती ।
जिनका मोह-जाल कट जाता है, जिनकी विषय-वासना बुझ जाती है, जो स्त्रियों की
असलियत को समझ जाते हैं, जो उनको नरक की नसैनी समझ लेते हैं,
उन पर स्त्रियों के कटाक्ष बाण असर नहीं करते । हाँ वे अपने
स्वभावानुसार अपने तीखे-तीखे बाण चलाया ही करती हैं; परन्तु
तत्ववित्त लोग उनके जाल में नहीं फंसते । उन पर उनके अचूक बाण फेल हो जाते हैं ।
दोहा
--------
केहि कारण डारत बयन, कमलनयन यह नार।
मोह काम मेरे नहीं, तउ न तिय-चित हार।।
रम्यं हर्म्यतलं न किं वसतये श्राव्यं न गेयादिकं
किं वा प्राणसमासमागमसुखं नैवाधिकं प्रीतये।।
किं तूद्भ्रान्तपतङ्गपक्षपवनव्यालोलदीपाङ्कुर-
च्छायाचञ्चलमाकलय्य सकलं सन्तो वनान्तं गताः।। ६८ ।।
अर्थ:
क्या
सन्तों के रहने के लिए उत्तमोत्तम महल न थे, क्या सुनने के लिए उत्तमोत्तम गान न थे,
क्या प्यारी-प्यारी स्त्रियों के संगम का सुख न था, जो वे लोग वनों में रहने को गए ? हाँ, सब कुछ था; पर उन्होंने इस जगत को गिरने वाले पतंग
के पंखों से उत्पन्न हवा से हिलते हुए दीपक की छाया के समान चञ्चल समझकर छोड़ दिया;
अथवा उन्होंने मूर्ख पतंग की भांति, जो हवा से
हिलते हुए दीपक के छाया में घूम-घूमकर अपने तई जलाकर भस्म कर देता है, संसार को अपना नाश करते देखकर संसार को छोड़ दिया।
यह संसार
दीपक की लौ के समान है और इसमें बसनेवाले जीव पतंगों के समान हैं । जिस तरह मूर्ख
पतंग दीपक से मोह करके और उस पर गिर-गिर भस्म होते हैं; उसी तरह मनुष्य इस
संसार के असल तत्व को न समझकर, इसके मोह में फंसकर, इसमें नाश होते हैं । जिस तरह पतंग नहीं समझता कि दीपक से प्रेम करने में
मेरे हाथ कुछ न आवेगा, बल्कि मेरी जान ही जायेगी; उसी तरह संसारी आदमी नहीं समझते, कि इन संसारी
विषय-वासनाओं में फंसकर, इनसे प्रेम करके हम अपना नाश करा
बैठेंगे । जो बुद्धिमान और विचारवान हैं, वे इस बात को समझते
हैं; अतः संसारी पदार्थों से मोह नहीं करते और अपने नाश से
बचते हैं । वे संसार को अनित्य और नाश की निशानी समझकर, इससे
मन हटाकर परमात्मा में मन लगते हैं । वे अपने तई दुनिया का मुसाफिर मात्र समझकर,
मौत का हरदम ख्याल रखते हैं ।
महात्मा कबीर ने कहा है -
तन सराय मन पाहरू, मनसा उतरी आय ।
को काहू को है नहीं, सब देखा ठोक बजाय।।
"कबिरा" रसरि पाँव में, कहँ सोवे सुख चैन।
श्वास-नकारा कूंच का, बाजत है दिन-रैन।।
इस चौसर चेता नहीं, पशु-ज्यों पाली देह।
राम नाम जाना नहीं, अन्त परी मुख खेह।।
यह शरीर
सराय है, मन चौकीदार है और मनसा - इच्छा इस शरीर रुपी सराय में उतरा हुआ मुसाफिर है;
इस जगत में कोई किसी का नहीं है । अच्छी तरह ठोक बजा या जांच पड़ताल
करके देख लिया ।
हे कबीर !
पैरों में रस्सी पड़ी हुई है । फिर भी तू सुख चैन में कैसे सो रहा है ? देख इस दुनिया से
कूच करने का श्वास रुपी नागदा दिन-रात बज रहा है !
अगर तू इस
चौपड़ के खेल में न चेतेगा,
इस जन्म में भी होश न करेगा, पशु की तरह शरीर
को पालेगा और राम को नहीं जानेगा; तो अन्त में तेरे मुंह में
धुल पड़ेगी ।
छप्पय
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महल महारमणीक, कहा बसिबे नहिं लायक ?
नाहिन सुनवे जोग, कहा जो गावत गायक ?
नवतरुणी के संग, कहा सुखहू नहिं लागत ?
तो काहे को छाँड़-छाँड़, ये बन को भागत ?
इन जान लियो या जगत को, जैसे दीपक पवन में ।
बुझिजात छिनक में छवि भरयो, होत अंधेरो भवन में
।।
अतीव
सुन्दर व रमणीक महल क्या बसने योग्य नहीं हैं ? गवैये जो मनोहर गाना गाते हैं, क्या वह सुनने योग्य नहीं है ? नवीना बाला स्त्रियों
के साथ रमण करने में क्या आनन्द नहीं आता ? अगर इन सब में
आनन्द और सुख है, तो लोग इन सबको छोड़-छोड़ कर बन में क्यों
भागे जाते हैं ? इसलिए भागे जाते हैं, कि
उन्होंने इस जगत को उस दीपक के समान समझ लिया है, जो हवा में
रखा हुआ है और क्षणभर में बुझ जाता है ।
किं कन्दाःकन्दरेभ्यः प्रलयमुपगता निर्झरा व गिरिभ्यः
प्रध्वस्ता वा तरुभ्यः सरसफलभृतो वल्कलिन्यश्च
शाखाः।।
वीक्ष्यन्तेयन्मुखानि प्रसभमपगतप्रश्रयाणाम् खलानां
दुःखोपात्ताल्पवित्तस्मयवशपवनानअर्तितभ्रूलतानि।। ६९
।।
अर्थ:
क्या
पहाड़ों की गुफाओं में कन्द-मूल और उनकी चट्टानों में पानी के झरने नहीं रहे, क्या छाल वाले
वृक्षों में रसीली फलवती शाखाएं नहीं रहीं, जो लोग उन
अभिमानी और नीचों के सामने दीनता करते हैं, जिनकी भौंहें
मारे अभिमान के चढ़ी रहती हैं और जिन्होंने बड़े कष्ट से थोड़ा सा धन जमा कर लिया है ?
Are there no waterfalls in the caves
of the mountains, and do the bark trees have no juicy fruit branches, who
humble in front of the arrogant and lowly, whose eyebrows are full of pride and
who have accumulated a little money with great suffering?
पहाड़ों में रहने को गुफाएं, खाने को कन्दमूल, पीने को उनके झरनों का जल और
वृक्षों में मीठे मीठे रसीले फल मौजूद हैं; फिर भी लोग उन
धनियों की टेढ़ी भृकुटियों को क्यों देखते हैं, उनकी
टेढ़ी-सूधी क्यों सहते हैं, जिनकी आँखें उस थोड़े से धन के मद
से नहीं खुलती, जो उन्होंने बड़े बड़े कष्टों से येनकेन
प्रकारेण जमा कर लिया है ! ऐसे नीच अभिमानियों से अपमानित होने की अपेक्षा पहाड़ों
में रहना और फलमूल तथा शीतल जल पर गुज़ारा करना भला । इस से उनकी आत्मा खूब सुखी
होगी; अभिमानी नीच धनियों की बुरी बातों से आत्मा जल जल कर
ख़ाक होती है ।
अगर कुछ भी समझ हो, ज़रा भी आत्मप्रतिष्ठा का ख्याल हो,
तो मनुष्य को अपनी "इच्छा" का नाश करना चाहिए । इच्छा
रहित मनुष्य सात विलायतों के बादशाह को भी तुच्छ समझता है । धनियों से दीनता करना
और माँगना बड़ी बुरी बात है । देखिये गोस्वामी तुलसीदासजी प्रभृति महापुरुषों ने
क्या कहा है :-
तुलसी कर पर कर करो, कर तर कर न करो।
जा दिन कर तर कर करो, ता दिन मरण करो।।
माँगन मरण समान है, मत कोई मांगो भीख।
माँगन ते मरना भला, यह सतगुरु की सीख।।
तुलसीदास जी कहते हैं - हे प्रभु ! हाथ पर
हाथ करो, हाथ के नीचे हाथ न करो । जिस दिन हाथ के नीचे हाथ
करो, उस दिन हमारी मौत हो जाए । मतलब यह है कि जब तक हम
दूसरों को देते रहे, तब तक हम जीवित रहे; जिस दिन हमारी मांगने की नौबत आ जाये, उस दिन हम मर
जाएँ ।
अगर दीनता
ही करनी है तो परमात्मा से करो । उसके आगे दीनता करने से सभी इच्छाएं पूरी हो सकती
हैं । कहा है :-
तेरी बन्दानवाज़ी, हफ्त किश्वर बख़्फ़ा देती है ।
जो तू मेरा - जहाँ मेरा, अरब मेरा, अज़म मेरा ।। दाग़ ।।
कबीर
ने कहा है :-
थोड़ा सुमिरन बहुत सुख, जो करि जानै कोय ।
सूत लगे न बिनावनी, सहजै तनसुख होय ।।
साईं सुमिर, मत ढील कर; जा सुमरे
ते लाह।
इहाँ ख़लक खिदमत करे, वहाँ अमरपुर जाह।।
भगवान् की
थोड़ी सी याद करने से ही बहुत सुख होता है, बशर्ते की कोई याद करना जाने । इसमें न तो
सूत लगता है और न बिनवाई देनी पड़ती है; सहज में आनन्द होता
है ।
हे मनुष्य
! स्वामी को सुमिरन करने में देर न कर । उसके सुमिरन में बहुत लाभ हैं । जो स्वामी
को याद करता है, इस दुनिया में संसारी लोग उसकी सेवा करते हैं और जब मर कर दूसरी दुनिया
में जाता है, तब स्वर्गपुरी में बस्ता है ।
छप्पय
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कहा कन्दराहीन भये, पर्वत भूतल से ?
झरना निर्जल भये कहा, जे पूरित जल से ?
कहा रहे सब वृक्ष, फूल-फल बिन मुरझाये ?
सही खलन के बैन, अन्धता जो मद छाये ।
कर संचित धन जे स्वल्प हूँ, इत उत फेरें भ्रू
विकट ।
रे मन ! तू भूल न जाहुं कहूं, इन खल पुरुषन के
निकट ।।
गंगातरंगकणशीकरशीतलानि
विद्याधराध्युषितचारुशीलतलानि।।
स्थानानि किं हिमवतः प्रलयं गतानि
यत्सावमानपरपिण्डरता मनुष्याः।। ७० ।।
अर्थ:
हिमालय
पर्वत के वे चट्टानें जो गंगाजल की लहरों से उठे हुए छींटो से शीतल हो रही है और
जहाँ जगह जगह विद्याधर बैठे हैं, क्या अब नहीं रही हैं, जो लोग
अपमान से मिले हुए पराये टुकड़ों पर गुज़र करते हैं ?
Are the rocks of the Himalayan
mountain that are cooling down with the splashes raised by the waves of Ganga
water and where awareness human are sitting everywhere, are they no longer
there, those who pass through the alien pieces of humiliation?
पराये टुकड़ों पर गुज़र करने की अपेक्षा मर जाना
भला है । अगर माँगना ही हो तो, तो मांगने की विधि चातक से
सीखनी चाहिए । वह एक से ही मांगता है, दूसरे से हरगिज़ नहीं
मांगता, चाहे मर क्यों न जाए; और
मांगने में भी यह खूबी, कि वह कभी अधीन होकर नहीं मांगता;
एक घनश्याम(बादल) से ही मांगता है । चातक के समान याचक और
वारिद(बादल) के समान दानी जगत में कौन है ? जो ओछों से
मांगते हैं, जने-जने के पैर पकड़ते हैं, उनको धिक्कार है ! इसलिए मनुष्यों ! पापहीये की तरह एकमात्र घनश्याम से ही
मांगो । महात्मा तुलसीदास जी ने कहा है :-
"तुलसी" तीनों लोक में, चातक ही को माथ।
सुनियत जासु न दीनता, किये दूसरो नाथ।।
ऊंची जाति पपीहरा, नीचे पियत न नीर।
कै याचै घनश्याम सों, कै दुःख सहै शरीर।।
ह्वै अधीन चातक नहीं, शीश नाय नहिं लेय।
ऐसे मानी मंगनहीं, को वारिद बिन देय।।
तुलसी
कहते हैं - तीनो लोक में सिर्फ एक पापहीये का ही सिर ऊंचा है, क्योंकि उसने अपने
स्वामी स्वाति के सिवा और किसी से कभी दीनता नहीं की ।
पपहिए की
जाति ऊंची है; क्योंकि वह नदियों और तालाबों वगैरह जलाशयों का पानी नहीं पीता । वह या तो
घनश्याम से यानि स्वाति नक्षत्र में बादल से ही मांगता है अथवा दुःख भोगता है ।
पपहिया और
मंगतों की तरह अधीन होकर और सिर नवकार नहीं लेता । वह तो मान के साथ ही लेता है ।
ऐसे मानी मांगते को बादल के सिवा और कौन दे सकता है ? जिनको परमात्मा ने
देने लायक बनाया है, उन्हें दिल खोलकर गरीब और मुहताजों को
देना चाहिए । जो देते हैं, फिर पाते हैं और जो देते हैं
उन्हीं का जीवन सफल है । रहीम कवी कहते हैं :-
दीनहि सबको लखत है, दीन लखे नहीं कोय।
जो "रहीम" दीनहिं लखत, दीनबन्धु सम होय।।
"रहिमन" वे नर मर चुके, जे कहूं माँगन जाहिं।
उनते पाहिले वे मुए, जिन मुख निकसत नाहिं।।
तबही लग जीबो भलो, दीबो परे न धीम।
बिन दीबो जीबो जगत, हमें न रुचे "रहीम"।।
दीन या मुहताज सबकी तरफ देखता है, पर दीन की तरफ कोई नहीं देखता । रहीम कहते हैं, जो
दीन की तरफ देखता है, वह दीनबन्धु भगवान् के समान होता है ।
रहीम कहते
हैं, वे
मनुष्य मर गए जो कहीं मांगने जाते हैं । उनसे पहले वे मरे, जिनके
मुंह से नाही निकलती है । मतलब यह है कि मंगता तो मरा हुआ है ही, पर जो मांगने वालों को नहीं देता, वह उससे भी पहले
मरा हुआ है । जीना तभी तक अच्छा है जब तक देना मन्दा न हो । बिना दान किये जीना,
रहीम कहते हैं, हमें अच्छा नहीं लगता ।
दोहा
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गंगातट गिरिवर गुफा, उहाँ कहँ नहीं ठौर ?
क्यों ऐते अपमान सों, खात पराये कौर ?
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