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वैराग्य शतकम् भर्तृहरिवरचित भाग 1.8

 

यदा मेरुः श्रीमान्निपतति युगान्ताग्निनिहितः

समुद्राः शुष्यन्ति प्रचुरनिकरग्राहनिलायाः।।

धरा गच्छत्यन्तं धरणिधरपादैरपि धृता

शरीरका वार्त्ता करिकल भकर्णाग्रचपले।। ७१ ।।

 

 अर्थ:

 

    जब प्रलय की अग्नि के मारे श्रीमान सुमेरु पर्वत गिर पड़ता है; मगरमच्छों के रहने के स्थान समुद्र भी सूख जाते हैं; पर्वतों के पैरों से दबी हुई पृथ्वी भी नाश हो जाती है; तब हाथी के कान की कोर के समान चञ्चल मनुष्य की क्या गिनती ?

 

    When Mount Sumeru falls in the fire of the Holocaust; Instead of crocodiles living, the seas also dry up; The earth buried by the feet of the mountains is also destroyed; Then what is the count of a man like the core of an elephant ' s ear ?

 

    जब काल सुमेरु जैसे पर्वतों को जला कर गिरा देता है, महासागरों को सुखा देता है, पृथ्वी को नाश कर देता है, तब इस छोटे से चञ्चल मनुष्य की क्या गिनती ? इसके नाश में कौन सा आश्चर्य ?

 

 

दोहा

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मेरु गिरत सूखत जलधि, धरनि प्रलय ह्वै जात।

गजसुत के श्रुति चपल त्यौं, कहा देह की बात।।

 

 

एकाकी निस्पृहः शान्तः पाणिपात्रो दिगम्बरः।

कदा शम्भो भविष्यामि कर्मनिर्मूलनक्षमः।। ७२ ।।

 

 अर्थ:

 

     हे शिव ! मैं कब अकेला, इच्छा रहित और शान्त हूँगा ? कब हाथ ही मेरा पात्र होगा और कब दिशाएं मेरे वस्त्र होंगे ? मैं कब कर्मों की जड़ उखाड़ने में समर्थ हूँगा ?

 

     O Shiva ! When will I be alone, desirous and calm? When will my hand be my character and when will the directions be my clothes? When will I be able to root out the root of actions?

 

     एकान्त वास करना, इच्छाओं को त्याग देना, शान्त रहना, हाथ से ही पानी वगैरह पीने के बर्तन का काम लेना, दिशाओं को ही वस्त्र समझना; यानी नग्न रहना और कर्मो की जड़ उखाड़ने में समर्थ होना - ये ही कल्याण के मार्ग हैं । जिनमें ये गुण हैं, वे धन्य हैं और वे ही सच्चे सुखिया हैं ।

 

 दोहा

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एकाकी इच्छा-रहित, पाणिपात्र दिगवस्त्र।

शिव शिव ! हौं कब होऊंगा, कर्मशत्रु को शस्त्र?

 

 

 

 प्राप्ताः श्रियः सकलकामदुघास्ततः किं

न्यस्तं पदं शिरसि विद्विषतां ततः किं ।

सम्पादिताः प्रणयिनो विभवैस्ततः किं

कल्पस्थितास्तनुभृतां तनवस्ततः किम् ।। ७३ ।।

 

 

जीर्णा कंथा ततः किं सितममलपटं पट्टसूत्रं ततः किम्

एका भार्या ततः किं हय करिसुगणैरावृतो वा ततः किम्।।

भक्तं भुक्तं ततः किं कदशनमथ वा वासरांते ततः किं

व्यक्त ज्योतिर्नवांतर्मथितभवभयं वैभवं वा ततः किम्।। ७४ ।।

 

 अर्थ:

 

    अगर मनुष्यों को सब इच्छाओं के पूर्ण करनेवाली लक्ष्मी मिली तो क्या हुआ ? अगर शत्रुओं को पदानत किया तो क्या ? अगर धन से मित्रों की खातिर की तो क्या ? अगर इसी देह से इस जगत में एक कल्प तक भी रहे तो क्या ?

 

     अगर चीथड़ों की बनी हुई गुदड़ी पहनी तो क्या ? अगर निर्मल सफ़ेद वस्त्र पहने या पीताम्बर पहने तो क्या ? अगर एक ही स्त्री रही तो क्या ? अगर अनेक हाथी-घोड़ों सहित अनेकों स्त्रियां रहीं तो क्या ? अगर नाना प्रकार के व्यंजन भोजन किये अथवा शाम को मामूली खाना खाया तो क्या ? चाहे जितना वैभव पाया, पर यदि संसार बन्धन को मुक्त करनेवाली आत्मज्ञान की ज्योति न जानी, तो कुछ भी न पाया और कुछ भी न किया ।

 

     What if human beings get the lakshmi that fulfills all desires ? What if you demean your enemies? What if money is for the sake of friends? What if you live for a cycle in this world from this body ?

 

      What if you wear an anus made of rags? What if nirmal is dressed in white or wearing a pitambar ? What if there is only one woman? What if there are many women, including many elephants and horses? What if you eat a variety of dishes or eat a small meal in the evening ? No matter how much glory you have, if the world does not know the light of self-knowledge that liberates bondage, you will not find anything and do nothing.

 

     मतलब यह है, सारे संसार के राज्य-वैभव अथवा त्रिभुवन के अधिपति होने में भी जो आनन्द नहीं है, वह आत्मज्ञान या ब्रह्मज्ञान में है ।

 

     आत्मज्ञान होने से ही मनुष्य, जीवन मरण के कष्ट से छुटकारा पाकर, परम शान्ति-लाभ मिलता है ।

 

अर्ब खर्ब लौं द्रव्य है, उदय अस्त लौं राज।

जो तुलसी निज मरन है, तौ आवे केहि काज?

 

    अगर अरब खरब तक धन हो और उदयाचल से अस्ताचल तक राज हो, तो भी अगर अपना मरण हो, तो ये सब किस काम के ? धन-दौलत और राज-पाट सब जीते रहने पर काम आते हैं, मरने पर इनसे कोई लाभ नहीं ।

 

 

दोहा

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इन्द्र भये धनपति भये, भये शत्रु के साल।

कल्प जिए तोउ गए, अन्त काल के गाल।।

 

 

 

भक्तिर्भवे मरणजन्मभयं हृदिस्थं

स्नेहो न बन्धुषु न मन्मथजा विकाराः।

संसर्गदोषरहिता विजना वनान्ता

वैराग्यमस्ति किमितः परमार्थनीयम्।। ७५ ।।

 

अर्थ:

 

    सदाशिव की भक्ति हो, दिल में जन्म-मरण का भय हो, कुटुम्बियों में स्नेह न हो, मन से काम-विचार दूर हों और संसर्ग-दोष से रहित होकर जंगल में रहते हों -  अगर हममें ये गुण हों तब और कौन सा वैराग्य ईश्वर से मांगें ?

 

     May there be devotion to Sadashiv, fear of birth and death in the heart, no affection among the family, remove the thoughts from the mind and live in the forest without infection - if we have these qualities, then what more dispassion should we ask God?

 

    परमात्मा में प्रेम होना, मन में जन्म-मरण का भय होना, रिश्तेदारों से प्रेम न होना, मन में स्त्री की इच्छा का न उठना, एकान्तस्थान में अकेले वन में निवास करना - ये ही तो वैराग्य के पूरे लक्षण हैं । इनसे अधिक वैराग्य के और लक्षण नहीं ।

 

 दोहा

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मन विरक्त हरिभक्ति-युत, संगी बन तृणडाभ ।

याहुते कछु और है, परम अर्थ को लाभ ?

 

 

 

तस्मादनन्तमजरं परमं विकासितद्ब्रह्म चिन्तय किमेभिरसद्विकल्पैः ।

यस्यानुषङ्गिण इमे भुवनाधिपत्यभोगादयः कृपणलोकमता भवन्ति।। ७६ ।।

 

 अर्थ:

 

    उस वास्ते मनुष्यों ! अनन्त, अजर, अमर, अविनाशी और शान्तिपूर्ण ब्रह्म का ध्यान करो । मिथ्या जंजालों में क्या रखा है ? जो ब्रह्म का ज़रा सा  भी आनन्द पा जाते हैं, उनकी नज़रों में संसारी राजाओं का आनन्द तुच्छ जंचता है ।

 

     For that, human beings! Meditate on the eternal, the immortal, the indestructible and the peaceful Brahma. What is kept in false traps? In the eyes of those who find the slightest joy of Brahman, the joy of the worldly kings is despised.

 

    मतलब है कि लोगों को अनन्त, अजर, अमर, अविनाशी, शोक-रहित, शान्तिपूर्ण ब्रह्म का ध्यान करना चाहिए । उसी के ध्यान में पूर्णानन्द है; संसार के भोग-विलासों में ज़रा भी आनन्द नहीं । वह आनन्द सदा है; या आनंद क्षणिक है । उसमें सदा सुख है; इसमें सदा दुःख है । जिनको ब्रह्मानन्द का ज़रा सा भी मज़ा आ जाता है, वे त्रिलोकी के अधिपति के आनन्द को भी तुच्छ समझते हैं । राज, धन-दौलत और स्त्री-पुत्र प्रभृति सब उस परमात्मा के पीछे हैं; इसलिए इनको छोड़कर उससे ही प्रीति करने में चतुराई है ।

 

 

दोहा

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ब्रह्म अखण्डानन्द पद, सुमिरत क्यों न निशङ्क ।

जाके छिन-संसर्ग सों, लगत लोकपति रंक ?

 

 

पातालमाविशशि यासि नभो विलङ्घ्य

दिङ्मण्डलं भ्रमसि मानस चापलेन ।

भ्रान्त्यापि जातु विमलं कथमात्मनीतं

तद्ब्रह्म न स्मरसि निर्वृतिमेषि येन ।। ७७ ।।

 

 अर्थ:

 

    हे चित्त ! तू अपनी चञ्चलता के कारण पाताल में प्रवेश करता है, आकाश से भी परे जाता है, दशों दिशाओं में घूमता है; पर भूल से भी तू उस विमल परमब्रह्म की याद नहीं करता, जो तेरे ह्रदय में ही मौजूद है, जिसके याद करने से ही तुझे परमानन्द - मोक्ष - मिल सकती है !

 

     O mind ! Thou enters the abyss because of your conduct, and goes beyond the sky, and rotates in ten directions; But by mistake you do not remember the Transparent Absolute Interminable Personality that exists in your heart, which only by remembering you can you attain bliss and salvation!

 

 

     इस चञ्चल मन की अद्भुत लीला है । यह कभी आकाश में जाता है, कभी पाताल में जाता है और कभी दशों दिशाओं में फिरता है । इधर-उधर तो इतना भटकता है; पर, भूलकर भी, जहाँ जाना चाहिए वहां नहीं जाता । उसके पास ही अमृत का सरोवर है, उसे छोड़कर सदी-गली नालियों में फिरता है । उसे सब जगह छोड़ कर अपने ह्रदय में ही बैठे हुए ब्रह्म के पास जाना चाहिए और हर समय उसकी ही चिन्तना करनी चाहिए; इस से उसके पापों का नाश हो जाएगा, आवागमन से छुटकारा मिल जाएगा एवं परम शान्ति की प्राप्ति होगी । और चिन्ताओं से कोई लाभ नहीं; उन से तो जञ्जालों में ही फंसना होता है ।

 

      मूर्ख लोग अव्वल तो परमत्मा में दिल ही नहीं लगाते । यदि भूल से लगाते भी हैं, तो परमात्मा की खोज में जहाँ-तहाँ मारे मारे फिरते हैं; पर अपने ह्रदय में ही उसे नहीं खोजते ! यह उनका महा अज्ञान है ।

 

 

उस्ताद ज़ौक़ ने कहा है :-

 

वह पहलु में बैठे हैं और बदगुमानी ।

लिए फिरती मुझको, कहीं का कहीं है ।।

 

     वह(ईश्वर) बगल में ही बैठा है, पर मैं भ्रम में फंसकर उसे ढूंढने के लिए कहाँ कहाँ मारा फिरता हूँ ।

 

 

महात्मा कबीर कहते हैं :-

 

ज्यों नयनन में पूतली, त्यों खालिक घट मांहि ।

मूरख नर जाने नहीं, बाहर ढूंढन जाहि ।।

कस्तूरी कुण्डल बसै, मृग ढूंढें बन मांहि ।

ऐसे घट-घट ब्रह्म है, दुनिया जाने नाहिं ।।

समझा तो घर में रहे, परदा पलक लगाय ।

तेरा साहिब तुझहि में, अंत कहूँ मत जाय ।।

 

महात्मा सुन्दरदास जी कहते हैं :-

 

कोउक जात प्रयाग बनारस।

कोउ गया जगन्नाथहि धावै ।।

कोउ मथुरा बदरी हरिद्वार सु ।

कोउ गंगा कुरुक्षेत्र नहावै ।।

कोउक पुष्कर ह्वै पञ्च तीरथ ।

दौरिहि दौरि जु द्वारिका आवै ।।

सुन्दर चित्त गह्यौ घरमांहि सु ।

बाहिर ढूँढत क्यूंकरि पावै ? ।।

 

     जिस तरह आँखों में पुतली है, उसी तरह घट में (ह्रदय कमल में) पैदा करने वाला है; पर मूर्ख इस बात को नहीं जानता और उसे बहार खोजने जाता है ।

 

    कस्तूरी हिरन की अपनी नाभि में है, पर मृग उसे बन में खोजता है; उसी तरह ब्रह्म घट-घट में है, पर दुनिया इस भेद को नहीं जानती ।

 

     अगर समझता है तो घर में रह और पलकों का पर्दा लगा कर देख, तेरा मालिक तेरे ही अंदर है; अन्यत्र जाने की ज़रुरत नहीं ।

 

     कोई परमेश्वर की खोज में प्रयाग, काशी, गया, पुरी, मथुरा, कुरुक्षेत्र और पुष्कर जाता है और कोई द्वारका जाता है । सुन्दरदास जी कहते हैं, जो धन घर में गड़ा है, वह बाहर कैसे मिलेगा ?

 

      सारांश यह है, कि संसार अज्ञानान्धकार के कारण "छोरा बगल में ढिंढोरा शहर में" वाली कहावत चरितार्थ करता है । ईश्वर इसी शरीर के भीतर ह्रदय-कमल में मौजूद है, पर अज्ञानी लोग उसे पाने के लिए तीर्थों में भटकते फिरते हैं । इस तरह वह मिलता भी नहीं और वृथा हैरानी होती है । जो उसके दर्शन करना चाहें, नेत्र बन्द करके अपने ह्रदय में ही उसे देखें ।

 

 कुण्डलिया

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फांद्यौ ते आकाश को, पठयौ ते पाताल ।

दशों दिशाओं में तू फिरयो, ऐसी चञ्चल चाल ।।

ऐसी चञ्चल चाल, इतै कबहूँ नहीं आयौ ।

बुद्धि सदन कों पाय, पाय छिनहूँ न छुवायौ ।।

देख्यौ नहीं निज रूप, कूप अमृत को छाँद्यौ ।

ऐरे मन मतिमूढ़ ! क्यों न भव-वारिधि फांद्यौ ? ।।

 

रात्रिः सैव पुनः स एव दिवसो मत्वा बुधा जन्तवो

धावन्त्युद्यमिनस्तथैव निभृतप्रारब्धतत्तत्क्रियाः ।

व्यापारैः पुनरुक्तभुक्त  विषयैरित्थंविधेनामुना

संसारेण कदर्थिता कथमहो मोहान्न लज्जामहे।। ७८ ।।

 

 अर्थ:

 

     प्राणियों में बुद्धिमान यदि जानते हैं कि दिन और रात ठीक पहले की तरह ही होते हैं; तो भी वे उन्हीं काम-धंधों के पीछे दौड़ते हैं, जिनके पीछे वे पहले दौड़ते थे । वे लोग उन्हीं-उन्हीं कामों में लगे रहते हैं, जिनसे क्षणिक और बारम्बार वही लाभ होते हैं, जिनको वे बारम्बार कह और भोग चुके हैं । आश्चर्य का विषय है, कि मनुष्यों को लज्जा नहीं आती !

 

    Wise in beings if they know that day and night are exactly the same as before; Yet they run after the same things they used to run after. They engage in the same things that they have made momentarily and repeatedly benefit from what they have repeatedly said and suffered. Surprisingly, human beings are not ashamed!

 

 

 

     देखते हैं कि पहले की तरह ही दिन, रात, तिथि, वार, नक्षत्र और मॉस तथा वर्ष आते हैं और जाते हैं ; उसी तरह हम कहते-पीते, सोते-जाते और काम-धंधे करते हैं; कोई नई बात नहीं देखते । जिन कामों को पहले करते थे, उन्हें ही बारम्बार करते हैं । उनमें कितना सा लाभ और सुख है, इसे भी देखते-सुनते और समझते हैं । फिर भी; आश्चर्य है कि, हम इस मिथ्या संसार से मोह नहीं तोड़ते !

 

 कुण्डलिया

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वेही निशि वेही दिवस; वेही तिथि वेही बार ।

वे उद्यम वेही क्रिया, वेही विषय-विकार ।

वेही विषय-विकार, सुनत देखत अरु सूंघत ।

वेही भोजन भोग, जागि सोवत अरु ऊंघत ।

महा निलज यह जीव; भोग में भयो विदेही ।

अजहूँ पलटत नाहिं, कढत गन वे के वेही ।।

 

 

 मही रम्या शय्या विपुलमुपधानं भुजलता

वितानं चाकाशं व्यजनमनुकूलोऽयमनिलः।।

स्फुरद्दीपश्चन्द्रो विरतिवनितासंगमुदितः

सुखं शान्तः शेते मुनिरतनुभूतिर्नृप इव।। ७९ ।।

 

 अर्थ:

 

    मुनि लोग राजा महाराजाओं की तरह सुख से ज़मीन को ही अपनी सुखदायिनी शय्या मान कर सोते हैं । उनकी भुजा ही उनका गुदगुदा तकिया है, आकाश ही उनकी चादर है, अनुकूल वह ही उनका पंखा है, चन्द्रमा ही उनका चिराग है, विरक्ति ही उनकी स्त्री है; अर्थात विरक्ति रुपी स्त्री को लेकर वे उपरोक्त सामानों के साथ राजाओं की तरह सुख से आराम करते हैं ।

     मुनि लोगों के पास न राजाओं की तरह महल हैं, न बढ़िया-बढ़िया पलंग और मखमली गद्दे-तकिये हैं, न ओढ़ने के लिए शाल-दुशाले हैं, बिजली के पंखे हैं, न झाड़-फानूस या बिजली की रौशनी है और न मृगनयनी, मोहिनी कामिनी ही हैं; तो भी वे ज़मीन को ही अपना पलंग, हाथ को ही तकिया, शीतल वह को ही पंखा, चन्द्रमा को ही दीपक और संसारी विषय-भोगों से विरक्ति को ही अपनी स्त्री मान कर सुख से सोते हैं । राजा-महाराजा और अमीर-उमरा बढ़िया-बढ़िया पलंग, कन्दहारी कालीन, मखमली गद्दे-तकिये, बिजली के पंखे और रौशनी तथा सुंदरी स्त्रियों के साथ जो मिथ्या सुख उपभोग करते हैं, उससे लाख दर्जे उत्तम और सच्चा सुख मुनि लोग ज़मीर और अपनी भुजा, अनुकूल वह, चन्द्रमा तथा अपनी विरक्ति रूपिणी स्त्री के साथ उपभोग करते हैं । अब बुद्धिमानो को विचार करना चाहिए, कि उन दोनों में बुद्धिमान कौन है और वास्तविक सुख किसे मिलता है । अमीरों के सुख के लिए कितने झंझट करने पड़ते हैं और कितनी आफतें उठानी पड़ती हैं; तथापि उन्हें  सच्चा सुख नहीं मिलता और मुनि लोग बिना झंझट, बिना आफत और बिना प्रयास के सच्चा सुख भोगते और शान्ति की नींद सोते हैं ।

 

 

छप्पय

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पृथ्वी परम पुनीत, पलंग ताकौ मन मान्यौ ।

तकिया अपनो हाथ, गगन को तम्बू तान्यौ ।।

सोहत चन्द चिराग, बीजना करात दशोंदिशि ।

बनिता अपनी वृत्ति, संगहि रहत दिवस-निशि ।।

अतुल अपार सम्पति सहित, सोहत है सुख में मगन ।

मुनिराज महानृपराज ज्यों, पौढ़े देखे हम दृगन ।।

 

 

 

 त्रैलोक्याधिपतित्वमेव विरसं यस्मिन्महाशासने

तल्लब्ध्वासनवस्त्रमानघटने भोगे रतिं मा कृथाः।।

भोगः कोऽपि स एक एव परमो नित्योदितो जृम्भते

यत्स्वादाद्विरसा भवन्ति विषयास्त्रैलोक्यराज्यादयः।। ८० ।।

 

अर्थ:

 

    हे आत्मा ! अगर तुझे उस ब्रह्म का ज्ञान हो गया है, जिसके सामने तीनो लोक का राज्य तुच्छ मालूम होता है; तो तू भोजन, वस्त्र और मान के लिए भोगों की चाहना मत कर; क्योंकि वह भोग सर्वश्रेष्ठ और नित्य है; उसके मुकाबले में त्रिलोकी के राज्य प्रभृति सुख कुछ भी नहीं हैं ।

 

    जब तक मनुष्य को ब्रह्म ज्ञान नहीं होता, जब तक उसे आत्मज्ञान नहीं होता, जब तक उसे सुख का स्वाद नहीं मिलता, तभी तक मनुष्य संसारी-विषय-भोगों में सुख समझता है । जब मनुष्य को उस सर्वोत्तम - सदा स्थिर रहनेवाले सुख का स्वाद मिल जाता है, तब वह संसारी आनन्द या दुनियावी मज़े तो क्या - त्रिभुवन के राजसुख को भी कोई चीज़ नहीं समझता । मतलब यह है कि सच्चा और वास्तविक सुख ब्रह्मज्ञान या आत्मज्ञान में है । उसके बराबर आनन्द त्रिलोकी के और किसी पदार्थ में नहीं है । जो संसारी पदार्थों में सुख मानते हैं वे अज्ञानी और नासमझ हैं । उनमें अच्छे और बुरे, असल और नक़ल के पहचानने की तमीज नहीं । वे रस्सी को सांप और मृगमरीचिका को जल समझने वालों की तरह भ्रम में डूबे या बहके हुए हैं ।

 

 

सोरठा

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कहा विषय को भोग, परम भोग इक और है ।

जाके होत संयोग, नीरस लागत इन्द्रपद ।।

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