उन्नीसवां मंत्र
स्वस्ति पन्थामनुचरेम सूर्य्याचन्द्रमसाविव।
पुनर्ददताध्नता जानता संगमेमहि।।
-ऋग्वेद मण्डल ५, सूक्त ५१, मन्त्र १५
अर्थ– हम लोग कल्याणकारी मार्ग पर चलें, जैसे सूर्य और चन्द्रमा चलते हैं। आदान-प्रदान करने वाले के साथ, हिंसा न करनेवाले के साथ, एक दूसरे के दृष्टिकोण को समझने वाले के साथ संगति करें।
व्याख्या– इस वेदमन्त्र में उपदेश दिया गया है कि संसार के भिन्न भिन्न प्राणी अनेक प्रकार की असमानताएँ अथवा विशेषताएँ रखते हुए भी किस प्रकार एक-दूसरे का सहयोग प्राप्त कर सकते हैं।
यह तो स्पष्ट ही है कि संसार की कोई दो वस्तुएँ एक-सी नहीं है। उनमें कुछ समता और कुछ विषमता अवश्य है। यदि कुछ भी विषमता न होती तो दो क्यों होती, एक ही होती। और यदि एक वस्तु होती, तो गिनती भी न होती। एक किसको कहते? एक शब्द का भाव ही दो, तीन, चार की अपेक्षा से है। यदि एक ही वस्तु होती, तो यह जगत, जिसमें हम रहते हैं, कैसा होता? हम नहीं जानते। हमारी आँखे उस प्रकार के जगत् को देखती नहीं। हमारी बुद्धि उसकी कल्पना नहीं कर सकती। हम जिस जगत् के अंश हैं, उसको हमने नहीं बनाया, परन्तु उसमें रहना अवश्य है और उसके गुप्त नियमों का निरीक्षण करके, अपने आचरणों का ठीक करना है।
हम सबकी यह प्रबल इच्छा रहती है कि हम कल्याणप्रद मार्ग पर चलें। कोई भी जान-बूझकर गलत रास्ते पर नहीं चलता और यदि उसे सन्देह हो जाए कि जिस मार्ग पर वह चल रहा है, वह ठीक नहीं तो झट रुक जाता है, और यदि निश्चत हो जाए कि वह मार्ग वस्तुतः गलत है तो, उसका परित्याग कर देता है। यह हम सबकी नैसर्गिक इच्छा है। ठीक मार्ग को ही ‘‘स्वस्ति पथ’’ कहते हैं, वही सीधा मार्ग है।
सीधे मार्ग के तीन लक्षण हैं, प्रथम उस पर चलकर उद्दिष्ट स्थान पर पहुंच सकें। दूसरा, वह सरलतम हो, अर्थात् सबसे छोटा हो। गधा भी समझता है कि यदि सीधे मार्ग पर जा सकते हो तो, घूमकर दूर का मार्ग न पकड़ो। तीसरे, उस मार्ग पर चलना सुगम हो, कम-से-कम कठिनाई हो। सुगम और लघुतम मार्ग को भी छोड़ देते हैं, यदि उससे उद्दिष्ट लक्षय पर न पहुँच सकें। यदि मार्ग छोटा परन्तु, दुर्गम या कण्टकाकीर्ण हो, तो ऐसे मार्ग को छोड़कर लम्बा मार्ग लेना पड़ता है। इस तथ्य को मनुष्य के हृदय-पटल पर अंकित करने के लिए बहुत-से दृष्टान्त दिये जा सकते हैं। इस वेदमन्त्र में जो दृष्टान्त दिया गया है, वह लौकिक भी है और वैज्ञानिक भी। वह है, सूर्य और चन्द्र के परस्पर सहयोग का।
चाँद और सूरज को हम नित्य देखते हैं। रात में चाँद चमकता है, दिन में सूर्य। सूर्य बहुत बड़ा है, चाँद बहुत छोटा है। हैं दोनों सितारे, जो आकाश में चमकते हैं। आपको ज्ञात होता कि सूर्य कितना बड़ा है
सूर्य और चन्द्रमा की आकाश की यात्राओं पर विचार कीजिए, आपको ये साथ चलते दिखाई नहीं पड़ते। जब सूर्य निकलता है तो, चाँद छिप जाता है, और जब चन्द्रदर्शन होते हैं तो, सूर्यदर्शन होना कठिन हो जाता है।
आप दिल्ली के जन्तरमन्तर में जाइए, और किसी विशेषज्ञ से प्रार्थना कीजिए कि वह यन्त्रों द्वारा आपको यह समझा दे कि सूर्य, पृथिवी और चाँद की चालें किस प्रकार होती हैं, दिन कैसे होता है। रात कैसे होती है, दिन-रात कैसे घटते-बढ़ते रहते हैं, ऋतु परिवर्तन कैसे होता है। पृथिवी के कुछ भाग अत्यन्त गरम और कुछ अत्यन्त ठण्डे क्यों है, उत्तरी और दक्षिणी ध्रुवों के निकट वर्ष के आधे भाग में निरन्तर दिन और दूसरे आधे भाग में निरन्तर रात क्यों होती है, तो आपको ‘सूर्याचन्द्रमसाविव’ का ठीक-ठीक अर्थ समझ में आ सकेगा, और यदि आप इस खगोल-सम्बन्धी दृश्य का मानव-समाज की चाल-ढाल से मुकाबला करें, तो आपको आश्चर्य होगा कि इन दोनों दृश्यों में कितना सादृश्य है। यदि, मनुष्य इस सादृश्य को समझ ले तो, सामाजिक विकास और सामाजिक उन्नति में कितनी सहायता मिल सकती है।
अब वेदमन्त्र यह दिखलाता है कि मनुष्य में क्या-क्या गुण होने चाहिएँ, जिनसे दूसरे लोग उससे आकर्षित होकर उसके साथ मिल सकें। मन्त्र में तीन गुणों का वर्णन है- ददता, अध्नता, जानता।
(१) ददता, अर्थात् दानशील वाले के साथ। वेद में दानशीलता की महिमा स्थान-स्थान पर दिखाई गई है। ऋग्वेद में ‘दाशुष’ शब्द का कई स्थानों में इसी अर्थ में प्रयोग हुआ है। प्रेम परमात्मा का सबसे प्रिय गुण है। भिन्न-भिन्न कोटियाँ तथा भिन्न-भिन्न भाँति की भक्तियाँ, इसी प्रेम का रूप हैं। वहीं मनुष्य ईश्वर का प्रियतम है, जो प्रेम करता है, और प्रेम का प्रमाण है, दानशीलता। दया भी दानशीलता का ही एक रूप है। जिससे आप प्रेम करते हैं, उसके साथ कुछ उपकार करना चाहते हैं, कुछ देना चाहते हैं और जिसको आप कुछ देते हैं, वह समझता है कि आप उससे प्यार करते हैं और वह आपकी ओर आकर्षित होता है। आकर्षण संगठन का हेतु है। लोहा चुम्बक की ओर खिंच आता है, क्योंकि चुम्बक अपनी शक्ति लोहे को प्रदान करके उसे चुम्बक जैसा बना देती है। दानी की ओर आकर्षित होना, प्रत्येक प्राणी के जीवन से प्रकट होता है। कुत्ते को कभी-कभी रोटी का एक टुकड़ा डाल दिया करो, वह हरदम आपके साथ रहने लगेगा। बच्चे को मिठाई दे दिया करो, वह अपनी माता की गोद छोड़कर, आपके पास आ जाएगा। जिसमें यह दानशीलता नहीं, उससे सब घृणा करने लगते हैं। यदि आप धनाढ्य हैं, तो धन का दान करें, यदि आप शक्तिसम्पन्न हैं, तो शक्ति का दान करें। यदि विद्या का धन आपके पास है, तो दूसरों को विद्या का दान दीजिए। इससे, आप में दैवी शक्तियों का संचार होगा और, आसुरी प्रवृत्तियां कम होंगी।
(२) दूसरा गुण है ‘अघ्नता’ अर्थात्, जो हिंसा न करता हो, उसके साथ हम जल्दी मिल सकते हैं। हिंसा क्या है? दूसरे के हित या कार्य में बाधक होना। आप नहीं चाहते कि आपके मार्ग में कोई रुकावट हो। रुकावट से आपको दुख होता है। प्रेम का परिणाम ही अहिंसा है। जिससे आप प्यार करते हैं, उसे आप कोई कष्ट नहीं देना चाहते। विश्वबन्धुत्व के लिए, अहिंसा परम आवश्यक गुण है। हिंसक प्राणियों से सभी दूर भागते हैं, और अहिंसक, हिंसकों को भी अपना साथी बना लेता है।
(३) तीसरा गुण है, ‘जानता’। एक-दूसरे को समझने का यत्न करें। समाज-निर्माण में सब से बड़ा विघ्न, न समझने के दोष से पड़ता है। १0 प्रतिशत झगड़े एक-दूसरे को न समझने के कारण होते हैं। पति-पत्नी प्रेम करने की इच्छा करते हुए भी शत्रु बन जाते हैं, क्योंकि वे एक-दूसरे के दृष्टिकोण को समझने का यत्न नहीं करते। भाई-भाई इसलिए,
हाथी की यह कहानी ऐसी प्रसिद्ध है कि, कई भाषाओं के कवियों ने इस पर कविताएँ रची हैं। वस्तुतः, छहों ठीक थे। उनके उत्तरों में भेद इसलिए था, कि उनके दृष्टिकोण भिन्न-भिन्न थे। आप किसी विशाल भवन का, भिन्न-भिन्न स्थानों पर खड़े होकर फोटो लीजिए। एक ही भवन के भिन्न-भिन्न फोटो दिखाई पड़ेंगे। एक मनुष्य का फोटो भिन्न-भिन्न स्थानों से लिया जाए, तो उसमें भी भिन्नता होगी। ये सब दृष्टिकोणों की भिन्नताओं का खेल है। हम सब भिन्न-भिन्न स्थितियों में होते हैं, अतः हमारा दृष्टिकोण भिन्न-भिन्न होता है, और हम छहों अन्धों के समान लड़ बैठते हैं। यदि कोई समाखा हमको समझा दे, कि बात एक ही है तो, हमारी भ्रान्ति दूर हो जाती है, अतः समाज-संगठन के लिए एक-दूसरे को समझना आवश्यक है।
छोटी बात पर बड़ी लड़ाइयाँ कैसे होती हैं, उसका एक निज उदाहरण देता हूँ। मेरे एक मित्र थे, कृषि विभाग के अध्यक्ष। उनके कृषि-परीक्षणालय में गन्ने बहुत अच्छे होते थे। एक दिन उनके एक देहाती सम्बन्धी आये। उन्होंने उनके लिये अच्छे गन्ने मँगाये और खाने के लिए कहा। वे उस समय अतिथि गृह (Drawing room) में बैठे थे, वहां बहुमूल्य दरियाँ बिछी हुई थीं। गन्ने की छोई फर्श को खराब न करे, इसलिए उन्होंने अतिथि महोदय के समक्ष एक टोकरी रख दी, कि खाते समय छोइयाँ, इसमें डाल दीजिए। अतिथि थे, गांव के रहनेवाले। उन्होंने इस प्रकार गन्ने चूसते कभी किसी को नहीं देखा था। वे बिगड़ गये और कहने लगे, ‘‘तुमने क्या मुझे बैल समझा है कि मेरे सामने टोकरी लाकर रख दी?’’ अध्यक्ष महोदय को लेने के देने पड़ गये। बहुत कुछ क्षमायाचना की, परन्तु, भ्रान्ति दूर न हुई। ऐसे उदाहरण बहुत से मिलेंगे। सभाओं के संगठन, तो इसी प्रकार टूटते हैं। अतः समाज-निर्माण के लिए दानशीलता, अहिंसा तथा एक दूसरे को समझने का यत्न करना आवश्यक है।
भारतीय इतिहास पर दृष्टि डालिए। यह उदारता का अभाव ही था कि पृथिवीराज और जयचन्द में मनमुटाव होता गया और, वह मनमुटाव यहां तक बढ़ा, कि एक सहस्त्र वर्ष से उसके दुष्परिणाम मिटने पर नहीं आते।
भारतवर्ष में दान और अहिंसा दोनों गुणों का प्राचुर्य समझा जाता है। भारतीयों की दानशीलता के कारण ही,
बीसवां मंत्र
इन्धानास्त्वा शत हिम द्युमन्त समिधीमहि। वयस्वन्तो वयस्कृत सहस्वन्तः सहस्कृतम्। अग्ने सपत्नदम्भनमदब्धासो अदाभ्यम्। चित्रावसो स्वस्ति ते पारमशीय।।
-यजुर्वेद अध्याय ३, मन्त्र १८
अर्थ– यज्ञ की अग्नि! जलते हुए हम, यज्ञ करने वाले लोग, तुम प्रकाशयुक्त को सौ वर्ष तक जलाएं। अन्न रखनेवाले हम लोग, अन्न पैदा करनेवाले, तुझको प्रज्वलित करें। बलवाले हम यज्ञकर्ता लोग, तुम बल पैदा करनेवाले को जलाते रहें। हे अग्नि! शत्रुओं को दमन करने वाले और किसी से हिंसित न होने वाले हम लोग, तुझको सौ साल तक जलाते रहें। विविध प्रकार के आश्चर्यजनक रुपों को धारण करनेवाले हे अग्निदेव! तेरे कल्याणप्रद पार को मैं पा सकूँ।
व्याख्या– इस वेदमन्त्र में,
इसको आप, एक दृष्टान्त के द्वारा समझने की कोशिश कीजिए। आपका कोई प्यारा बन्धु आपके घर आता है। आपका समस्त परिवार, विशेष सुख का अनुभव करता है। गृह-पत्नी भोजन तैयार करती है। भोजन बनाने की प्रत्येक क्रिया में, एक अपूर्व उत्साह होता है। भोजन तैयार होता है। आगन्तुक के समक्ष परोसा जाता है। देखने में तो, ये कुछ भौतिक क्रियाएँ हैं, परन्तु याज्ञिक बाहर आग जलाता है, परन्तु बाहर आग जलाने से पूर्व उसके हृदय में, श्रद्धारुपी अग्नि जलनी चाहिए। इसलिए, वेदमन्त्र में बड़े सुन्दर शब्दों में कहा है कि हम जलते हुए लोग, तुझे जलाएँ। जिस प्रकार तू तेजामय है, हम भी तेजोमय हों। बाहरी अग्नि और भीतरी अग्नि, दोनों की ज्वालाएँ, समानान्तर रूप में जलनी चाहिएँ। जहाँ, याज्ञिक लोग, बिना भीतर की अग्नि को प्रज्वलित किये, केवल बाहर की अग्नि जलाते हैं
अग्नि अन्न को उत्पन्न करती है। गरम देशों में अन्न अधिक उत्पन्न होता है। अतिशीत प्रधान स्थानों में कुछ भी अन्न नहीं होता। यज्ञ को वैदिक शास्त्रों में, अन्न का उत्पादक माना जाता है। जहाँ यज्ञ अधिक होंगे, वहाँ अन्न भी अधिक उत्पन्न होगा। परन्तु, यज्ञ भी तो वहीं करेगा, जिसके पास अन्न है, अतः याज्ञिक लोग अपने को ‘‘वयस्वन्तः’’ कहते हैं। पृथिवी माता से गेहूं की प्रार्थना करनेवाला किसान पहले बीजरूप में गेहूं रख लेता है, तब कृषि की तैयारी करता है। यज्ञ भी एक कृषिकर्म है, यज्ञ है, बीज का बोना।
सहस्कृत् का अर्थ हुआ
अत्यन्त न् प्रजया पशुभिर्ब्रह्मवर्चसे नान्नाद्येन समेधय स्वाहा।।
अर्थात् हे अग्ने! मैं जो घी की आहुति देता हूँ
अन्त का टुकड़ा बड़े महत्त्व का है। यज्ञ के जो गुण गिनाये, वे नमूना मात्र हैं। यह केवल यज्ञ के लाभों की झांकी मात्र है। ज्यों-ज्यों यज्ञ विशुद्ध होता जाएगा और याज्ञिक को आनन्द आने लगेगा, यज्ञ के अन्य लाभों की उपलब्धि होगी।
यह तो हुई, भौतिक अग्नि की बात। अग्नि नाम परमात्मा का भी है, और
आध्यात्मिक यज्ञ का प्रेरक अग्नि नामवाला, ईश्वर ही है। जिस
प्रकार भौतिक अग्नि ‘चित्रावसु’ है,
उसी प्रकार ईश्वर भी चित्रावसु है। वस्तुतः भौतिक अग्नि भी तो,
चित्रावसु के द्वारा उत्पन्न हुए विचित्र पदार्थों में से एक है,
उसकी विचित्रता अपार है। ईश्वर के अपार आनन्द की थोड़ी-सी झलक पाकर,
जीव उसका पार पाना चाहता है। जैसे, पक्षी उड़कर
अनन्त आकाश का पार पाना चाहता है, उसकी अन्तिम सीमा तक पहुंच
जाना चाहता है, परन्तु, आकाश तो अनन्त
है, उसकी सीमा नहीं

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