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वेद प्रवचन गंगाग प्रशाद उपाध्याय -10

 

उन्नीसवां मंत्र

 

स्वस्ति पन्थामनुचरेम सूर्य्याचन्द्रमसाविव।

 

पुनर्ददताध्नता जानता संगमेमहि।।

 

-ऋग्वेद मण्डल ५, सूक्त ५१, मन्त्र १५

 

अर्थहम लोग कल्याणकारी मार्ग पर चलें, जैसे सूर्य और चन्द्रमा चलते हैं। आदान-प्रदान करने वाले के साथ, हिंसा न करनेवाले के साथ, एक दूसरे के दृष्टिकोण को समझने वाले के साथ संगति करें।

 

व्याख्याइस वेदमन्त्र में उपदेश दिया गया है कि संसार के भिन्न भिन्न प्राणी अनेक प्रकार की असमानताएँ अथवा विशेषताएँ रखते हुए भी किस प्रकार एक-दूसरे का सहयोग प्राप्त कर सकते हैं।

 

यह तो स्पष्ट ही है कि संसार की कोई दो वस्तुएँ एक-सी नहीं है। उनमें कुछ समता और कुछ विषमता अवश्य है। यदि कुछ भी विषमता न होती तो दो क्यों होती, एक ही होती। और यदि एक वस्तु होती, तो गिनती भी न होती। एक किसको कहते? एक शब्द का भाव ही दो, तीन, चार की अपेक्षा से है। यदि एक ही वस्तु होती, तो यह जगत, जिसमें हम रहते हैं, कैसा होता? हम नहीं जानते। हमारी आँखे उस प्रकार के जगत् को देखती नहीं। हमारी बुद्धि उसकी कल्पना नहीं कर सकती। हम जिस जगत् के अंश हैं, उसको हमने नहीं बनाया, परन्तु उसमें रहना अवश्य है और उसके गुप्त नियमों का निरीक्षण करके, अपने आचरणों का ठीक करना है।

 

हम सबकी यह प्रबल इच्छा रहती है कि हम कल्याणप्रद मार्ग पर चलें। कोई भी जान-बूझकर गलत रास्ते पर नहीं चलता और यदि उसे सन्देह हो जाए कि जिस मार्ग पर वह चल रहा है, वह ठीक नहीं तो झट रुक जाता है, और यदि निश्चत हो जाए कि वह मार्ग वस्तुतः गलत है तो, उसका परित्याग कर देता है। यह हम सबकी नैसर्गिक इच्छा है। ठीक मार्ग को ही ‘‘स्वस्ति पथ’’ कहते हैं, वही सीधा मार्ग है।

 

सीधे मार्ग के तीन लक्षण हैं, प्रथम उस पर चलकर उद्दिष्ट स्थान पर पहुंच सकें। दूसरा, वह सरलतम हो, अर्थात् सबसे छोटा हो। गधा भी समझता है कि यदि सीधे मार्ग पर जा सकते हो तो, घूमकर दूर का मार्ग न पकड़ो। तीसरे, उस मार्ग पर चलना सुगम हो, कम-से-कम कठिनाई हो। सुगम और लघुतम मार्ग को भी छोड़ देते हैं, यदि उससे उद्दिष्ट लक्षय पर न पहुँच सकें। यदि मार्ग छोटा परन्तु, दुर्गम या कण्टकाकीर्ण हो, तो ऐसे मार्ग को छोड़कर लम्बा मार्ग लेना पड़ता है। इस तथ्य को मनुष्य के हृदय-पटल पर अंकित करने के लिए बहुत-से दृष्टान्त दिये जा सकते हैं। इस वेदमन्त्र में जो दृष्टान्त दिया गया है, वह लौकिक भी है और वैज्ञानिक भी। वह है, सूर्य और चन्द्र के परस्पर सहयोग का।

 

चाँद और सूरज को हम नित्य देखते हैं। रात में चाँद चमकता है, दिन में सूर्य। सूर्य बहुत बड़ा है, चाँद बहुत छोटा है। हैं दोनों सितारे, जो आकाश में चमकते हैं। आपको ज्ञात होता कि सूर्य कितना बड़ा है? किसी खगोल-विद्या विशारद से पूछिए। पृथिवी को तो आप जानते ही हैं, यह पृथिवी है, अर्थात् प्रथित या फैली हुई। आप तो इसके एक छोटे-से अंश को ही देखते हैं। हममें करोड़ों में से एक होगा, जो पृथिवी की परिक्रमा कर आया है। पृथिवी बहुत बड़ी है। किसी ऊँचे पहाड़ की चोटी पर खड़े हो जाइए और इधर-उधर दृष्टि दौड़ाइए, पृथिवी की विशालता का कुछ परिचय हो जाएगा। परन्तु, क्या आपको पता है कि सूर्य और पृथिवी के परिमाणों में क्या अनुपात है? यदि पृथिवी को चूरा करके एक गोला बनाएँ, और ऐसे तेरह लाख गोले इकट्ठे करके, फिर उन सबके चूरे को मिलाकर एक बड़ा गोला बनाएँ, तो वह गोला सूर्य के बराबर होगा। और चाँद! यह तो पृथिवी के गोले से बहुत छोटा है। इतना बड़ा सूर्य और इतना छोटा चाँद! इन दोनों के सहयोग से दिन-रात होते हैं। दिन और रात का होना, हमारे जीवन के लिए कितना हितकर है, इसकी आप कल्पना नहीं कर सकते, करने का यत्न भी नहीं करते, क्योंकि यह एक चिर-परिचित घटना है। बड़ी से बड़ी घटनाएँ यदि, सदा होती रहें तो, हमारा ध्यान उनकी ओर नहीं आता। जब ध्यान नहीं जाता, तो हम उससे उपदेश भी नहीं लेते। बड़े-से-बड़े उपदेष्टा के साथ रहनेवाले उनके नौकर उनके व्याख्यानों पर कभी ध्यान नहीं देते। इसी प्रकार, चाँद और सूर्य के सहयोग का दृष्टान्त जन-जागरण पर कोई प्रभाव नहीं डालता। इसीलिए, वेदमन्त्र द्वारा इस दृष्टान्त को देने की आवश्यकता हुई। बात बहुत छोटी है, सक्षम है, समीप है, फिर भी इतनी बड़ी है कि करोड़ों मनुष्यों ने कभी इस पर ध्यान ही नहीं दिया। इसकी आप परीक्षा कर लीजिए। जिन्होंने इस वेदमन्त्र को नहीं पढ़ा, उनसे पूछिए, कि सहयोग का सबसे अच्छा दृष्टान्त कौन-सा है? जो उत्तर मिलें, उनको इकट्ठा कर लीजिए। देखिए कि, कितने उत्तरों में सूर्य और चाँद का दृष्टान्त दिया गया है। वेद के उपदेशों की यह विशेषता है कि बात छोटी हो, परन्तु उसमें भाव बड़ा हो।

 

सूर्य और चन्द्रमा की आकाश की यात्राओं पर विचार कीजिए, आपको ये साथ चलते दिखाई नहीं पड़ते। जब सूर्य निकलता है तो, चाँद छिप जाता है, और जब चन्द्रदर्शन होते हैं तो, सूर्यदर्शन होना कठिन हो जाता है।

 

आप दिल्ली के जन्तरमन्तर में जाइए, और किसी विशेषज्ञ से प्रार्थना कीजिए कि वह यन्त्रों द्वारा आपको यह समझा दे कि सूर्य, पृथिवी और चाँद की चालें किस प्रकार होती हैं, दिन कैसे होता है। रात कैसे होती है, दिन-रात कैसे घटते-बढ़ते रहते हैं, ऋतु परिवर्तन कैसे होता है। पृथिवी के कुछ भाग अत्यन्त गरम और कुछ अत्यन्त ठण्डे क्यों है, उत्तरी और दक्षिणी ध्रुवों के निकट वर्ष के आधे भाग में निरन्तर दिन और दूसरे आधे भाग में निरन्तर रात क्यों होती है, तो आपको सूर्याचन्द्रमसाविवका ठीक-ठीक अर्थ समझ में आ सकेगा, और यदि आप इस खगोल-सम्बन्धी दृश्य का मानव-समाज की चाल-ढाल से मुकाबला करें, तो आपको आश्चर्य होगा कि इन दोनों दृश्यों में कितना सादृश्य है। यदि, मनुष्य इस सादृश्य को समझ ले तो, सामाजिक विकास और सामाजिक उन्नति में कितनी सहायता मिल सकती है।

 

अब वेदमन्त्र यह दिखलाता है कि मनुष्य में क्या-क्या गुण होने चाहिएँ, जिनसे दूसरे लोग उससे आकर्षित होकर उसके साथ मिल सकें। मन्त्र में तीन गुणों का वर्णन है- ददता, अध्नता, जानता।   

 

(१) ददता, अर्थात् दानशील वाले के साथ। वेद में दानशीलता की महिमा स्थान-स्थान पर दिखाई गई है। ऋग्वेद में दाशुषशब्द का कई स्थानों में इसी अर्थ में प्रयोग हुआ है। प्रेम परमात्मा का सबसे प्रिय गुण है। भिन्न-भिन्न कोटियाँ तथा भिन्न-भिन्न भाँति की भक्तियाँ, इसी प्रेम का रूप हैं। वहीं मनुष्य ईश्वर का प्रियतम है, जो प्रेम करता है, और प्रेम का प्रमाण है, दानशीलता। दया भी दानशीलता का ही एक रूप है। जिससे आप प्रेम करते हैं, उसके साथ कुछ उपकार करना चाहते हैं, कुछ देना चाहते हैं और जिसको आप कुछ देते हैं, वह समझता है कि आप उससे प्यार करते हैं और वह आपकी ओर आकर्षित होता है। आकर्षण संगठन का हेतु है। लोहा चुम्बक की ओर खिंच आता है, क्योंकि चुम्बक अपनी शक्ति लोहे को प्रदान करके उसे चुम्बक जैसा बना देती है। दानी की ओर आकर्षित होना, प्रत्येक प्राणी के जीवन से प्रकट होता है। कुत्ते को कभी-कभी रोटी का एक टुकड़ा डाल दिया करो, वह हरदम आपके साथ रहने लगेगा। बच्चे को मिठाई दे दिया करो, वह अपनी माता की गोद छोड़कर, आपके पास आ जाएगा। जिसमें यह दानशीलता नहीं, उससे सब घृणा करने लगते हैं। यदि आप धनाढ्य हैं, तो धन का दान करें, यदि आप शक्तिसम्पन्न हैं, तो शक्ति का दान करें। यदि विद्या का धन आपके पास है, तो दूसरों को विद्या का दान दीजिए। इससे, आप में दैवी शक्तियों का संचार होगा और, आसुरी प्रवृत्तियां कम होंगी।

 

(२) दूसरा गुण है अघ्नताअर्थात्, जो हिंसा न करता हो, उसके साथ हम जल्दी मिल सकते हैं। हिंसा क्या है? दूसरे के हित या कार्य में बाधक होना। आप नहीं चाहते कि आपके मार्ग में कोई रुकावट हो। रुकावट से आपको दुख होता है। प्रेम का परिणाम ही अहिंसा है। जिससे आप प्यार करते हैं, उसे आप कोई कष्ट नहीं देना चाहते। विश्वबन्धुत्व के लिए, अहिंसा परम आवश्यक गुण है। हिंसक प्राणियों से सभी दूर भागते हैं, और अहिंसक, हिंसकों को भी अपना साथी बना लेता है।

 

(३) तीसरा गुण है, ‘जानता। एक-दूसरे को समझने का यत्न करें। समाज-निर्माण में सब से बड़ा विघ्न, न समझने के दोष से पड़ता है। १0 प्रतिशत झगड़े एक-दूसरे को न समझने के कारण होते हैं। पति-पत्नी प्रेम करने की इच्छा करते हुए भी शत्रु बन जाते हैं, क्योंकि वे एक-दूसरे के दृष्टिकोण को समझने का यत्न नहीं करते। भाई-भाई इसलिए, लड़ पड़ते हैं, क्योंकि वे एक -दूसरे को समझ नहीं पाते। दो देशों के निवासी एक-दूसरे के दृष्टिकोण को न समझने के कारण घोर युद्ध कर बैठते हैं, जिसमें लाखों मनुष्यों का संहार हो जाता है। अतः वेद का यह उपदेश है कि समाज का सुदृढ़ निर्माण करना चाहते हो तो, एक-दूसरे के दृष्टिकोण को समझने का यत्न करो और यदि कोई भ्रान्ति हो जाए, तो उसे मिलकर दूर कर लो। यह सम्भव है कि आप दोनों के भावों में कोई भेद न हो। संसार के मनुष्य इतने बुरे नहीं होते, जितने प्रतीत होते हैं, हाँ, लोगों का दृष्टिकोण अलग-अलग होता है। बालकों की पाठ्यपुस्तकों में इसी दोष को स्पष्ट करने के लिए छह अन्धों और हाथी की कहानी गढ़ी गई है। कहते है कि छह अन्धे थे और, वे एक हाथी का वर्णन करने लगे। एक ने कहा- ‘‘हाथी पंखे के समान होता है’’, क्योंकि उसने हाथी के केवल कान टटोले थे। दूसरे ने कहा- ‘‘खम्भे के समान’’, क्योंकि उसने हाथी के चार पैर छुए थे। तीसरे ने सूंड टटोली थी, इसलिए, वह बोला कि हाथी लटकने वाली मोटी रस्सी के समान होता है। चौथा, जिसने हाथी की पीठ टटोली थी, कहने लगा, ‘‘भाई! तुम सब झूठे हो। मैंने स्वयं अनुभव किया है कि हाथी एक सपाट चौकी के समान होता है। पांचवां बोला- ‘‘क्यों गप्पें मार रहे हो? हाथी कोई बड़ी भारी चीज नहीं है। एक हाथ भर की पतली रस्सी है’’, क्योंकि उसने केवल पूंछ टटोली थी। छठे ने हाथी के दांतों को टटोलकर कहा, ‘‘यह कड़ी-कड़ी नुकीली क्या चीज है? क्या इसी को हाथी कहते हैं, जिसके लिए ऐसा आश्चर्य किया जा रहा है?’’

 

हाथी की यह कहानी ऐसी प्रसिद्ध है कि, कई भाषाओं के कवियों ने इस पर कविताएँ रची हैं। वस्तुतः, छहों ठीक थे। उनके उत्तरों में भेद इसलिए था, कि उनके दृष्टिकोण भिन्न-भिन्न थे। आप किसी विशाल भवन का, भिन्न-भिन्न स्थानों पर खड़े होकर फोटो लीजिए। एक ही भवन के भिन्न-भिन्न फोटो दिखाई पड़ेंगे। एक मनुष्य का फोटो भिन्न-भिन्न स्थानों से लिया जाए, तो उसमें भी भिन्नता होगी। ये सब दृष्टिकोणों की भिन्नताओं का खेल है। हम सब भिन्न-भिन्न स्थितियों में होते हैं, अतः हमारा दृष्टिकोण भिन्न-भिन्न होता है, और हम छहों अन्धों के समान लड़ बैठते हैं। यदि कोई समाखा हमको समझा दे, कि बात एक ही है तो, हमारी भ्रान्ति दूर हो जाती है, अतः समाज-संगठन के लिए एक-दूसरे को समझना आवश्यक है।

 

छोटी बात पर बड़ी लड़ाइयाँ कैसे होती हैं, उसका एक निज उदाहरण देता हूँ। मेरे एक मित्र थे, कृषि विभाग के अध्यक्ष। उनके कृषि-परीक्षणालय में गन्ने बहुत अच्छे होते थे। एक दिन उनके एक देहाती सम्बन्धी आये। उन्होंने उनके लिये अच्छे गन्ने मँगाये और खाने के लिए कहा। वे उस समय अतिथि गृह (Drawing room) में बैठे थे, वहां बहुमूल्य दरियाँ बिछी हुई थीं। गन्ने की छोई फर्श को खराब न करे, इसलिए उन्होंने अतिथि महोदय के समक्ष एक टोकरी रख दी, कि खाते समय छोइयाँ, इसमें डाल दीजिए। अतिथि थे, गांव के रहनेवाले। उन्होंने इस प्रकार गन्ने चूसते कभी किसी को नहीं देखा था। वे बिगड़ गये और कहने लगे, ‘‘तुमने क्या मुझे बैल समझा है कि मेरे सामने टोकरी लाकर रख दी?’’ अध्यक्ष महोदय को लेने के देने पड़ गये। बहुत कुछ क्षमायाचना की, परन्तु, भ्रान्ति दूर न हुई। ऐसे उदाहरण बहुत से मिलेंगे। सभाओं के संगठन, तो इसी प्रकार टूटते हैं। अतः समाज-निर्माण के लिए दानशीलता, अहिंसा तथा एक दूसरे को समझने का यत्न करना आवश्यक है।

 

भारतीय इतिहास पर दृष्टि डालिए। यह उदारता का अभाव ही था कि पृथिवीराज और जयचन्द में मनमुटाव होता गया और, वह मनमुटाव यहां तक बढ़ा, कि एक सहस्त्र वर्ष से उसके दुष्परिणाम मिटने पर नहीं आते।

 

भारतवर्ष में दान और अहिंसा दोनों गुणों का प्राचुर्य समझा जाता है। भारतीयों की दानशीलता के कारण ही, भारत के सशक्त हजारों और लाखों नर-नारी भिखमंगे बन रहे हैं। पवित्र तीर्थों और भिखमंगों का अटूट सम्बन्ध है। हजारों माता-पिता अपने बच्चों को सिखाते हैं कि किस प्रकार भीख मांगी जाती है। जब रेल गंगा या यमुना के पुल से गुजरती है, तो सैकड़ों यात्री जेबों से पैसे निकालकर नदीं में फेंकते हैं, इसको वे गुप्तदान समझते हैं। जब ग्रहण पड़ता है, तो मेहतरों को दान दिया जाता है, क्योंकि यह समझा जाता है, कि ये मेहतर लोग राहु और केतु की सन्तान हैं और इसलिए उनके पार्थिव उत्तराधिकारी हैं। इनको दान देने से चाँद या सूरज कैद से छूट सकेंगे। नागपंचमी के दिन नागों को दूध पिलाया जाता है, और जो इतना नहीं कर सकते, वे दीवारों पर सांप बनाकर उन पर दूध चढा़ते हैं। सोचना यह है कि, ऐसी दानशील और अहिंसक जाति का यथोचित संगठन क्यों नहीं हो पाता? इसका कारण यह है कि, हम वास्तविकता पर विचार नहीं करते? रोटी का चित्र देखने से भूख की निवृत्ति नहीं हो सकती। उस जाति को दानशील कैसे कहा जा सकता है जिसके ब्राह्मण सैकड़ों लोगों को नीच और अछूत कहकर, उनको विद्यादान नहीं दे सकते, या जिसके लखपति या करोड़पति अपना दान इस रूप में देते हैं कि दान लेनेवाले कभी अपने पैरों पर खड़े होने के योग्य न बन पाएँ, और प्रतिदिन अपनी भूख दूर करने के लिए उनके दरवाजों पर हाथ फैलाते रहें। हमारी जातियाँ और उपजातियाँ दूसरों के मार्ग में  नित्य रोड़े अटकाती रहती हैं। धर्म का ढोंग, धर्म समझा जाता है। बड़े और छोटे का भाव, हर बात में पाया जाता है। यदि हम सूर्य और चाँद के समान अपना आचरण करें  तो, ये सब बुराइयाँ घट सकती हैं। वेदमन्त्रों के अध्ययन का, तो यही लाभ है कि हम उनके उपदेशों को, अपने दैनिक जीवन में लाने का यत्न करें।

 

बीसवां मंत्र

 

इन्धानास्त्वा शत हिम द्युमन्त  समिधीमहि।

 

वयस्वन्तो वयस्कृत सहस्वन्तः सहस्कृतम्।

 

अग्ने सपत्नदम्भनमदब्धासो अदाभ्यम्।

 

चित्रावसो स्वस्ति ते पारमशीय।।

 

-यजुर्वेद अध्याय ३, मन्त्र १८

 

अर्थयज्ञ की अग्नि! जलते हुए हम, यज्ञ करने वाले लोग, तुम प्रकाशयुक्त को सौ वर्ष तक जलाएं। अन्न रखनेवाले हम लोग, अन्न पैदा करनेवाले, तुझको प्रज्वलित करें। बलवाले हम यज्ञकर्ता लोग, तुम बल पैदा करनेवाले को जलाते रहें। हे अग्नि! शत्रुओं को दमन करने वाले और किसी से हिंसित न होने वाले हम लोग, तुझको सौ साल तक जलाते रहें। विविध प्रकार के आश्चर्यजनक रुपों को धारण करनेवाले हे अग्निदेव! तेरे कल्याणप्रद पार को मैं पा सकूँ।

 

व्याख्याइस वेदमन्त्र में, यज्ञ करनेवाले पुरुषों और यज्ञ के साधन अग्नि की योग्यताओं का वर्णन किया गया है, यज्ञकर्म भौतिक भी है, और अभौतिक भी। एक यज्ञ बाहर होता है। अग्नि जलती है और उसमें हवि डाली जाती है। यह तो यज्ञ का भौतिक रूप है। परन्तु, अग्नि में घी, कपूर, शक्कर या कपूरचकरी आदि पदार्थों के जलाने मात्र को ही यज्ञ नहीं कहते। जैसा यज्ञ बाहर हो रहा होता है, उसी के समानान्तर यज्ञ करनेवालों के अन्तरात्मा में भी होना चाहिए, तभी यज्ञ की पूर्ति होगी। अध्यात्म यज्ञ के बिना, यज्ञ अधूरा रहता है। बिना अध्यात्म यज्ञ के, अग्नि में हवियों को डालना, अग्निपूजा, अर्थात Fire Worship ही है, जो जड़-पूजा के समान है। यज्ञ का अर्थ, जड़-वस्तु की पूजा नहीं है। चेतन जीव, अचेतन की उपासना करके सुख प्राप्त नहीं कर सकता। याज्ञिकों को चाहिए, कि यज्ञ करने से पहले, अपने में कुछ योग्यताओं को धारण करें।

 

इसको आप, एक दृष्टान्त के द्वारा समझने की कोशिश कीजिए। आपका कोई प्यारा  बन्धु आपके घर आता है। आपका समस्त परिवार, विशेष सुख का अनुभव करता है। गृह-पत्नी भोजन तैयार करती है। भोजन बनाने की प्रत्येक क्रिया में, एक अपूर्व उत्साह होता है। भोजन तैयार होता है। आगन्तुक के समक्ष परोसा जाता है। देखने में तो, ये कुछ भौतिक क्रियाएँ हैं, परन्तु, यदि आप अपने मनों का निरीक्षण करें, तो हर क्रिया में एक विशेष अभौतिक तरंग ओत-प्रोत मिलेगी। जिस माता का पुत्र कईं वर्ष परदेश में काटकर घर को लौटे, और वह माता उसके सामने भोजन परोसे, तो उस माता का हृदय बताएगा कि बिछुड़े हुए पुत्र के सामने भोजन रखना शुष्क भौतिक क्रिया नहीं है। इसमें कई वर्षों के वियोग का दुख और पुनर्मिलन के सुख की कहानी छिपी हुई है।  परन्तु यदि, यही आगन्तुक अतिथि या पुत्र, बाजार में हलवाई की दुकान पर खाना खाये, तो सम्भव है कि भोजन अधिक दक्षता से बना हो, परन्तु, है वह बाहरी क्रिया। खरीदनेवाले ने पैसे फेंक दिये और हलवाई ने भोजन तोल दिया। हलवाई को पैसे मिल गये, और खानेवाले की उदर-तृप्ति हो गई। इसको प्रीति-भोज तो नहीं कहते। यह शुष्क भोजहै। प्रीतिका तो प्रश्न ही नहीं उठता। हलवाई की दुकान पर उसका शत्रु भी आता और ठीक दाम देता, तो हलवाई उसको भी भोजन तोल देता। इसी प्रकार, यज्ञ की बात है।

 

याज्ञिक बाहर आग जलाता है, परन्तु बाहर आग जलाने से पूर्व उसके हृदय में, श्रद्धारुपी अग्नि जलनी चाहिए। इसलिए, वेदमन्त्र में बड़े सुन्दर शब्दों में कहा है कि हम जलते हुए लोग, तुझे जलाएँ। जिस प्रकार तू तेजामय है, हम भी तेजोमय हों। बाहरी अग्नि और भीतरी अग्नि, दोनों की ज्वालाएँ, समानान्तर रूप में जलनी चाहिएँ। जहाँ, याज्ञिक लोग, बिना भीतर की अग्नि को प्रज्वलित किये, केवल बाहर की अग्नि जलाते हैं, वे साधारण पाचक के समान हैं, जिन्हें केवल वेतन से प्रयोजन है। इसी प्रकार जो याज्ञिक, केवल दक्षिणा के लोभ में यज्ञ कराते हैं, उनको आध्यात्मिक लाभ तो होता ही नहीं, ऐसे याज्ञिक, यजमान का भी पूरा भला नहीं कर सकते। यह ठीक है कि यजमान का कर्त्तव्य है कि याज्ञिकों को दक्षिणा दे, परन्तु, इससे पूर्व याज्ञिकों के हृदय में यज्ञ के प्रति श्रद्धा होनी चाहिए। यह पहली योग्यता है, जो यज्ञ करनेवाले याज्ञिक और यज्ञ के साधन अग्नि में होनी चाहिए। यज्ञ के एक मन्त्र में कहा गया है, ‘‘सुसमिद्धाय शोचिषे घृतं तीव्रं जुहोतन’’। पूरी रीति से जलती हुई प्रकाशवाली अग्नि में शुद्ध घी की आहुति दीजिए, अधजली, धुएँ वाली अग्नि में नहीं। उससे घृत की आहुति का पूरा विश्लेषण न होगा और यज्ञ का पूरा लाभ भी न होगा, लेकिन उसी के साथ याज्ञिक का हृदय भी ‘‘सुसमिद्ध’’ होना चाहिए।    

 

अग्नि अन्न को उत्पन्न करती है। गरम देशों में अन्न अधिक उत्पन्न होता है। अतिशीत  प्रधान स्थानों में कुछ भी अन्न नहीं होता। यज्ञ को वैदिक शास्त्रों में, अन्न का उत्पादक माना जाता है। जहाँ यज्ञ अधिक होंगे, वहाँ अन्न भी अधिक उत्पन्न होगा। परन्तु, यज्ञ भी तो वहीं करेगा, जिसके पास अन्न है, अतः याज्ञिक लोग अपने को ‘‘वयस्वन्तः’’ कहते हैं। पृथिवी माता से गेहूं की प्रार्थना करनेवाला किसान पहले बीजरूप में गेहूं रख लेता है, तब कृषि की तैयारी करता है। यज्ञ भी एक कृषिकर्म है, यज्ञ है, बीज का बोना।

 

सहस्कृत् का अर्थ हुआ ‘‘बल को उत्पन्न करेवाला’’। याज्ञिक भी अपने को बलवाला कहता है। बलवान ही बल का मूल्य समझता है और वही अपने से अधिक बलशाली से बल की याचना करता है। निर्बल यज्ञ करने का अधिकारी नहीं। यज्ञ करने के लिए अपने शरीर और अपनी इन्द्रियों पर स्वामित्व होना आवश्यक है। आलसी लोग यज्ञ नहीं करते। वैदिक कार्यकलाप में कई प्रकार के यज्ञों का विधान आता है। उन सबमें बल की आवश्यकता होती है। हर प्रकार के बल की, शारीरिक बल की, मानसिक बल की और आत्मिक बल की। यज्ञ का आरम्भ भी बल से होता है और इसका परिणाम भी बल होता है। बलवान होकर बलवान अग्नि को प्रज्वलित करो, तुम्हारा बल बढेगा। यह तो एक प्रत्यक्ष बात है कि जो लोग नित्य यज्ञ करते हैं, उनको शुद्ध वायु मिलता है। शुद्ध वायु रोगों का नाशक होता है, शरीर को पुष्ट करता तथा बल को बढ़ाता है इसलिए, जो शत्रु का नाश कर सके और शत्रु जिसका नाश न कर सके, उसको अदाभ्य कहा। याज्ञिक को अदब्धासःहोना चाहिए। वह ऐसा प्रबल हो कि शत्रु नष्ट हो जाए, परन्तु शत्रु से उसको हानि की सम्भावना न हो। यज्ञ में रोग उत्पन्न करने वाले कृमि नष्ट हो जाते हैं। मानव जाति के शारीरिक स्वास्थ को ठीक रखने का यज्ञ सर्वोत्कृष्ट साधन है, परन्तु साथ ही यज्ञ करने में जिन मन्त्रों का प्रयोग होता है, उनका अर्थ समझने से यजमान और याज्ञिक सभी को मानसिक बल मिलता है, तथा आन्तरिक भावनाएँ शुद्ध होकर कुभावनाओं को फूलने-फलने का अवकाश नहीं मिलता। यज्ञ में घी की आहुतियाँ डालते समय एक मन्त्र का विनियोग  कर दिया गया है-

 

अत्यन्त इध्म आत्मा जातवेदस्तेनेध्यस्व वर्धस्व चेद्ध वर्धय

 

चास्मान् प्रजया पशुभिर्ब्रह्मवर्चसे नान्नाद्येन समेधय स्वाहा।।

 

    

 

अर्थात् हे अग्ने! मैं जो घी की आहुति देता हूँ, यह हवि तेरा आत्मा है, इससे जल, बढ़ और हमको भी प्रज्वलित कर और बढ़ा। प्रजा द्वारा, पशुओं द्वारा, आत्म-ज्ञान द्वारा और अन्न आदि जीवनोपयोगी पदार्थों द्वारा। जब याज्ञिक इस मन्त्र की गूढ़ भावनाओं पर विचार करके मन्त्र का उच्चारण करता है, तो उसकी इच्छा-शक्ति और आत्मबल में संवृद्धि होती है। इसी प्रकार अन्यत्र भी कहा, ‘‘प्रसुव यज्ञं, प्रसुव यज्ञपतिं भगाय।’’ ऐश्वर्य के लिए यज्ञ को प्रेरित करऔर ‘‘वाचस्पतिर्वाचं नः स्वदतु’’ परमात्मा वाणियों का पति या रक्षक है, वह हमारी वाणियों अर्थात् विद्या-प्राप्ति के साधनों को सम्पादित करे। 

 

अन्त का टुकड़ा बड़े महत्त्व का है। यज्ञ के जो गुण गिनाये, वे नमूना मात्र हैं। यह केवल यज्ञ के लाभों की झांकी मात्र है। ज्यों-ज्यों यज्ञ विशुद्ध होता जाएगा और याज्ञिक को आनन्द आने लगेगा, यज्ञ के अन्य लाभों की उपलब्धि होगी।

 

यह तो हुई, भौतिक अग्नि की बात। अग्नि नाम परमात्मा का भी है, और आध्यात्मिक यज्ञ का प्रेरक अग्नि नामवाला, ईश्वर ही है। जिस प्रकार भौतिक अग्नि चित्रावसुहै, उसी प्रकार ईश्वर भी चित्रावसु है। वस्तुतः भौतिक अग्नि भी तो, चित्रावसु के द्वारा उत्पन्न हुए विचित्र पदार्थों में से एक है, उसकी विचित्रता अपार है। ईश्वर के अपार आनन्द की थोड़ी-सी झलक पाकर, जीव उसका पार पाना चाहता है। जैसे, पक्षी उड़कर अनन्त आकाश का पार पाना चाहता है, उसकी अन्तिम सीमा तक पहुंच जाना चाहता है, परन्तु, आकाश तो अनन्त है, उसकी सीमा नहीं, अतः भरसक यत्न करने पर भी पक्षी थोड़ा-बहुत हाथ पैर मारकर थक कर बैठ रहता है, परन्तु उसकी उड़ान की इच्छा की तृप्ति नहीं होती। जीव भी जब परमात्मा के गुणों का चिन्तन करने लगता है, तो उसके ज्ञान की पिपासा बढ़ जाती है। वह जितना जानता है, उससे अधिक जानना चाहता है, जितना आनन्द भोगता है, उससे अधिक आनन्द की आकांक्षा होती है, अपार की अपारता में यही तो विशेषता है कि, पार पाने की प्रेरण बनी रहे, परन्तु पार मिले नहीं। परमात्मा पूर्ण है। जीव अपूर्ण और अल्प है। यदि जीव पूर्ण होता तो उसके जानने और करने के लिए क्या शेष रहता, और यदि अब पूर्ण हो जाए तो, आगे उसकी उन्नति रुक जाए, परन्तु न पार मिलता है, न पार खोजने की इच्छा ही समाप्त होती है, ऐसी परिस्थिति में जीव विचित्रता को लक्ष्य में रखकर यही कह सकता है कि ‘‘ते पारं अशीय’’, अर्थात मैं तेरा पार पा जाता!

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