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वेद प्रवचन गंगा प्रशाद उपाध्याय-9

 

सत्रहवां मंत्र

 

मोघमन्नं विन्दते अप्रचेताः सत्यं ब्रवीमि वध इत् स तस्य।

 

नार्यमणं पुष्यति नो सखायं केवलाघो भवति केवलादी।।

 

-ऋग्वेद १0//११७//३

 

अर्थमूर्ख आदमी मुफ्त का भोजन पाने का यत्न करता है, अर्थात् अपने भोजन के लिए कुछ करना नहीं चाहता। जो व्यक्ति, अपने किसी हितैषी का पोषण नहीं करता, उसका ऐसा करना नाश का ही कारण है। जो अकेला खानेवाला है, वह केवल पाप का भागी होता है। मैं सत्य कहता हूँ, अर्थात् इस कथन के सच होने में किंचितमात्र भी सन्देह नहीं है।

 

व्याख्यामनुष्य जीवन के दो बड़े विभाग हैं- एक भोग और दूसरा कर्म। प्रश्न यह है कि इन दोनों का महत्त्व समान है अथवा एक गौण है और दूसरा मुख्य? यदि ऐसा है, तो मुख्य कौन है और गौण कौन? तुलसीदास का कहना है कि कर्म प्रधान है और भोग गौण। अब तनिक अपनी प्रवृत्तियों पर भी विचार कीजिए। आपका मन क्या गवाही देता है? आपने एक घोड़ा मोल लिया। उससे काम लेंगे और कुछ उसे भोजन देंगे। उसे कुछ करना है और कुछ भोगना है। आपको सवारी देना उसका कर्म है, दाना-घास खाना उसका भोग है। इन दोनों में से मुख्य कौन है और गौण कौन? आप चूंकि, भोजन देते हैं, इसलिए काम लेते हैं, अथवा काम लेते हैं, इसलिए, भोजन देते हैं। आपकी प्रथम भावना क्या थी और दूसरी भावना क्या हुई? आप कहेंगे कि हमको घोड़े से काम लेना था, इसलिए, हमें उसके खरीदने की इच्छा हुई और चूंकि, बिना भोजन दिये काम लेना असम्भव है, अतः उसको भोजन भी देते हैं। यदि, बिना भोजन दिए आप काम ले सकते, तो केवल उसके काम की ही परवाह करते, उसके खाने की नहीं। जो बेगार में काम कराते हैं, वे जानते हैं कि बेगारवाला, बिना भोजन के भी काम करने पर मजबूर होगा, इसलिए वे उसके भोजन की भी परवाह नहीं करते, अतः सिद्ध हुआ कि कर्म मुख्य है और भोग गौण। आवश्यक होते हुए भी उसकी आवश्यकता को प्रथमता नहीं दी जा सकती।

 

इस सिद्धान्त के विरुद्ध एक बात कहीं जा सकती है कि प्रायः संसार में लोग भोग के लिए ही कर्म करते हैं। यदि भोग की आशा न हो, तो कर्म नहीं करते। एक चिकित्सक इसलिए चिकित्सा नहीं करता कि उसे चिकित्सा का ज्ञान या सामर्थ्य है, अपितु, इसलिए कि उससे उसे आर्थिक लाभ होगा। एक वकील इसलिए वकालत नहीं करता कि वह वकालत के काम में दक्ष है, अपितु इसलिए कि उसे पैसा मिलता है। इसलिए, लोगों ने अर्थ को ही सर्वेपरि माना है।

 

यूनान के प्रसिद्ध दार्शनिक प्लैटो (अफलातून) ने अपने ग्रन्थ रिपब्लिक (शासन-तन्त्र) में इस प्रश्न पर अच्छा प्रकाश डाला है। वह कहता है कि क्या एक अध्यापक, इसलिए अध्यापक कहलाता है कि वह अध्यापन का कार्य करता है, अथवा इसलिए कि वह अमुक वेतन पाता है? एक डाक्टर को आप, इसलिए डाक्टर कहते हैं कि वह डाक्टरी करता है, अथवा इसलिए कि वह इतना धन कमाता है? एक सैनिक का सैनिक नाम उसके कर्म के कारण हुआ अथवा उसके वेतन के कारण? यह तो ठीक है कि अध्यापक, वकील, सैनिक या डाक्टर सब जीविका उपार्जन करते हैं और जीविका के लिए ही काम करते हैं, परन्तु, यदि जीविका-उपार्जन को ही मुख्य माना जाए, तो सब एक-से होंगे, विशेषता न होगी तथा प्रत्येक का सम्मान, उसकी आर्थिक मात्रा के अनुसार होना चाहिए, परन्तु समाज का ऐसा नियम तो नहीं है। एक रोगी मनुष्य डाक्टर की खोज करता है, तो उसकी धनाढ्यता को न देखकर, उसकी डाक्टरी की योग्यता को देखता है। ऐसे डाक्टर को बुलाऊँ, जो डाक्टरी अच्छी कर सके। यह प्रवृत्ति तुलसीदास के ऊपर के कथन को पुष्ट करती है कि न केवल परमात्मा ने, अपितु, मानव समाज ने भी कर्म को भोग पर प्रधानता दी है।

 

जब इतना निश्चित हो गया, तो भोग को कर्म के अधीन रखना होगा, कर्म को भोग के अधीन नहीं। कर्म आधार है, भोग आधेय है। आधेय बिना आधार के ठहर नहीं सकता, इसलिए, वेदमन्त्र कहता है ‘‘मोघं अन्नं विन्दते अप्रचेताः’’ अर्थात् मुफ्त का खाने की इच्छा करने वाला मूर्ख है। वह भोग को प्राथमिका देता है। यह बात सृष्टि नियम के विरुद्ध है। जिस अन्धेरनगरी में टका सेर भाजी और टका सेर खाजाबिकता था, वह नगरी पूरी अन्धेरनगरी न थी। कुछ तो उजाला भी था। पूरी अन्धेरनगरी तो वह होती, जहाँ खाजा और भाजी मुफ्त मिला करती और टका कमाने की भी आवश्यकता न पड़ती। डाक्टर डाक्टरी सीखता भी इसीलिए है कि उसे पूर्ण विश्वास है कि जिस भोग की उसे आकांक्षा है, सृष्टि-क्रम उसको कर्म पर प्रधानता नहीं देता। मूल्य तो उसी चीज का दिया जाता है, जो मूल्यवान् हो। कपड़ा अपने मूल्य से बड़ा है। मूल्य का मूल्य भी कपड़े की अपेक्षा से है न कि मूल्य की अपेक्षा से। बिना कर्म के भोजन की इच्छा करना, परले दर्जे की मूर्खता है। जिस पुरुष को थोड़ी-सी भी बुद्धि है, वह ऐसी मूर्खता कभी नहीं करेगा। संसार को काम प्यारा है, चाम नहीं।

 

मुफ्त भोजन खाने की इच्छा विश्वव्यापी और संक्रामिक रोग है, जिसने मानवजाति को सबसे अधिक पीड़ित किया है। हर नर-नारी को इससे सतर्क रहने की आवश्यकता है। यह मीठा विष है, जिसकी हानि को बुद्धिमान् मनुष्य ही सोच सकते हैं। जो इस रेाग में फँस गया, उसकी मृत्यु अवश्यम्भावी है। वह किसी भी प्रकार बच नहीं सकता।

 

इस कथन की तथ्यता पर थोड़ा-सा विचार कीजिए। मुफ्त खाकर अपने ऊपर परीक्षण कर लीजिए अथवा दूसरे मुफ्तखोरों के जीवन का निरीक्षण कीजिए। कुदरत को यह अभीष्ट नहीं कि मुफ्तखोरों को रहने दे। थोड़ी देर के लिए सहन अवश्य करती है, वह भी उतना ही जितना हर पाप को। वह मनुष्य को अवसर देती है कि यदि वह स्वयं ही अपनी भूल का अनुभव करे और सुधर जाए, तो अच्छा है, अन्यथा इसमें दण्डविधान तो काम करता ही है। माता-पिता अपनी सन्तान की निर्बलताओं को यथाशक्ति तथा अत्यन्त सहिष्णुता के साथ सहन करते हैं और बड़ी से बड़ी भूलों की उपेक्षा करते हैं, परन्तु निठल्ली सन्तान से, वे भी तंग आ जाते हैं और उनका स्वाभाविक प्रेम-तन्तु भी टूट जाता हैं। इसलिए, मुफ्तखोरी से बड़ा कोई पाप नहीं और सर्वथा नाश ही उस पाप का एकमात्र दण्ड या प्रायश्चित्त है। मनुष्य की स्वार्थसिद्धि भी तभी होती है, जब वह दूसरों के हित की बात सोचता है। व्यवसाय-जगत् पर दृष्टि डालिए। कोई व्यवसाय चल नहीं पाता, जब तक उसका आधार परार्थ न हो। कपड़े का व्यापारी दूसरों के हित को दृष्टि में रखकर कपड़े बनाता है। हलवाई दूसरों की रुचि को देखकर मिठाइयाँ बनाता है। आप जितना परहित को दृष्टि में रखकर व्यापार करेंगे, उसमें उतनी ही अधिक सफलता होगी। हर व्यवसाय के लिए प्रश्न रहता है कि उसके साफल्य के लिए बाजार चाहिए। बाजारका क्या अर्थ? यही न कि जिस वस्तु को आप अपने स्वार्थ का साधन बनाना चाहते हैं, उसमें दूसरे मनुष्यों का कितना हित निहित है। इससे विदित होता है कि परोपकार आपका पहला कर्त्तव्य और ध्येय होना चाहिए।

 

परोपकार के दो रूप हैं। एक विनिमय अर्थात्, जो तुम्हारे साथ जितनी भलाई करे, उसका कम-से-कम उतना बदला, तो तुम दे ही दो। दस रुपये की चीज पाकर उसको दस रुपये अवश्य दो, अर्थात् मोघं अन्नकी प्राप्ति मत करो। मत समझो कि चार रुपये में दस का माल मिल गया, तो तुम लाभ में हो। ये मुफ्त के छह रुपये, जिसको तुम लाभ समझते हो, अन्त में तुम्हारे नाश का कारण सिद्ध होंगे। व्यवसाय में, जिसको चालाकी और धोखाधड़ी कहा जाता है, वह व्यवासय की अवनति का कारण होता है। जब सत्य के आधार पर समस्त जगत् की स्थिति है, तब व्यवसाय, जो जगत् का ही एक छोटा-सा-अंश है, असत्य पर कैसे टिक  सकता है? कहते हैं कि व्यापार की सफलता के लिए साख चाहिए। साख का अर्थ ही यह है कि लोगों को विश्वास हो कि तुम दस रुपये में पूरे दस का माल देते हो। भारतवर्ष के प्राचीन ग्रन्थों में सत्य की बड़ी महिमा गाई गई है, परन्तु, दुर्भाग्यवश वह महिमा धर्म-ग्रन्थों और धर्म-उपदेशों तक ही सीमित है, व्यावहारिक-जीवन मे उसका प्रयोग बहुत कम है। मैं यहां एक ही उदाहरण दूंगा। डर्बन में मुझे एक सुन्दर कम्बल दिया गया। उसमें फैक्टरी की आर से एक चिट लगी थी, जिसमें लिखा था कि इस कम्बल में साठ प्रतिशत ऊन है, शेष रुई है। यदि भारतीय फैक्टरी होती, तो यह लिखा होता कि इसमें शत-प्रतिशत ऊन है। प्रसिद्धि है कि लंदन का कुंजड़ा, आपको स्पष्ट कह देगा कि अमुक सेब खट्टा है। क्या प्रयाग और काशी में भी ऐसे कुंजड़े मिलेंगे? सुना है कि इंग्लैण्ड आदि देशों में, दूध में पानी मिलाकर बेचते हैं और स्पष्ट कहते हैं कि इतना दूध है और इतना पानी, क्योंकि पानी मिला दूध पचाने के लिए हलका समझा जाता है। क्या भारत में कोई हलवाई ऐसा करेगा?

 

परोपकार का दूसरा रूप है दान। जब आप मूल्य का विनिमय करते हैं, तो पूरा बदला नहीं दे पाते। पूरे दाम चुकाने पर भी, कुछ न कुछ रह ही जाता है। मनुष्य स्थूलरूप से तो दूसरों के परोपकार पर जीवित रहता ही है, परन्तु, बहुत-से परोक्ष, अदृष्ट और सूक्ष्म रूप हैं, जिनका परिगणन कठिन होता है, जैसे-आप किसी अन्धेरी सड़क पर जा रहे हैं, किसी पास के मकान से विद्युत्- दीपक की किरणें आ रही हैं, आप इसका मूल्य तो नहीं चुकाते, न मकान वाला आपसे विनिमय मांगता है, परन्तु आपको उससे लाभ अवश्य हुआ है। यहाँ दान का प्रश्न उठता है। यह परोक्ष लाभ भी मुफ्तखोरी होगी, यदि आप दान नहीं देते। इसीलिए, छान्दोग्य उपनिषद् में धर्म के तीन स्कन्धों का निरुपण करते समय पहले स्कन्ध में दान को भी शामिल किया है, जो मोघं अन्नके पाप से बचना चाहता है, उसे दान देना चाहिए, क्योंकि आपके भोगों में दूसरों की देन है। इसका बदला दान से ही हो सकता है। आपका दान सृष्टि के सूक्ष्म नियमों द्वारा उन तक भी पहुंच जाता है, जो आपसे अपने उपकारों का मूल्य नहीं मांगते। जो दान नहीं देता, उसके लिए वेद कहता है कि वह ‘‘नो अर्यमणं पुष्यति नो सखायं पुष्यति’’ अर्थात् वह अपने किसी हितैषी का पोषण नहीं करता।

 

अन्त में वेदमन्त्र में, दान न देनेवाले मनुष्य की घोर निन्दा की है। ‘‘केवलाघो भवति केवलादी’’ जो अकेला खाता है, उसके पास अन्त में पापके सिवाय कुछ शेष नहीं रहता, अर्थात् उसके समस्त पुण्य क्षीण हो जाते हैं। जब पुण्य क्षीण हो गये, तो सुख किसका मिले? पुण्य के क्षीण होते ही सुखों का भी क्षय हो जाता है।

 

अंगेजी की एक कहावत है- दान धन का नमक है (Charity is the salt of riches)। अंगे्रजी शब्द साल्ट का अर्थ है, नमक। नमक का अर्थ है, फलों को सुरक्षित रखने का साधन। जैसे, यदि आप नींबू या आम को कई महीनों तक सुरक्षित रखना चाहें तो, उसमें नमक मिलाकर आचार बना लो, नींबू या आम बिगडेगा नहीं। इसी प्रकार, यदि आप अपने धन की रक्षा करना चाहते हैं तो, दान देते रहिए। दान से धन घटता नहीं, बढ़ता है। दान उभयपक्षी हित है। इससे दान पानेवाले का तो हित होता ही है, दान देनेवाले का, उससे कम हित नहीं होता। इसलिए, यासकाचार्य ने दान देनेवाले की देवसंज्ञा की है। तैत्तिरीय उपनिषद् में लिखा है कि श्रद्धा से देना, अश्रद्धा से देना, शोभा से देना, लज्जा से देना, भय से देना और प्रतिज्ञा से भी देना चाहिए।

 

अश्रद्धा और लज्जा से भी देने पर क्यों बल दिया गया? इसका तात्पर्य यह है कि कभी-कभी सात्त्विक भावनाओं की कमी होने पर यदि, मनुष्य किसी पाप की प्रवृत्ति में फँसने लगता है, तो, समाज का भय उसे दलदल में फिसलने से बचा लेता है और कालान्तर में उसकी सतोगुणी प्रवृत्ति लौट आती है। डूबते को तिनके का सहारा। अश्रद्धा से देते-देते भी, श्रद्धा उत्पन्न हो जाती है। अश्रद्धा और लज्जा से दिया हुआ दान भी दूसरों के उपकार में लगता ही है।

 

अथर्ववेद में अतिथि-सत्कार के सम्बन्ध में बहुत अच्छा उपदेश है, जो गृहस्थ अतिथि को बिना खिलाये, स्वयं खा लेता है, वह घरों की श्री को खा जाता है अर्थात् नष्ट कर देता है।

 

अर्थात् गृह की शोभा इसी में है कि हम अकेले न खाएँ।

 

अठारहवां मंत्र

 

अनच्छये तुरगातु जीवमेजद् ध्रुवं मध्य आ पस्त्यानाम्।

 

जीवो मृतस्य चरति स्वधाभिरमत्र्यो मत्र्येना सयोनिः।।

 

-ऋग्वेद १//१६४//३0, अथर्ववेद १//१0//

 

अर्थप्रकृति से बने हुए जड़ घरों के मध्य में न बदलने वाले जीव को चलायमान करता हुआ, बिना विलम्ब के समय पर सबको अनुप्राणित करता हुआ मैं, ईश्वर अन्तर्यामी-रूप से सोता अर्थात् ठहरता हूँ। जीव चेतनारहित जड़ जगत् की प्रकृतियों की सहायता से गतियुक्त होता है। न मरनेवाला जीव, मरण-धर्मवाले शरीर के साथ जन्म लेने वाला होता है।

 

व्याख्याश्री सायणाचार्य इस मन्त्र के भाष्य के आदि में लिखते हैं- अनेन देहस्य असारता जीवस्य नित्यत्वं च प्रतिपाद्यते’ – अर्थात् इस मन्त्र में देह की असारता जीव का नित्यत्व बताया गया है। इससे आर्यसमाज के इस सिद्धान्त की पुष्टि होती है कि ईश्वर, जीव और प्रकृति तीनों नित्य हैं।

 

प्रत्येक देह में तीन चीजें पाई जाती हैं। प्रथम, भौतिक शरीर, जो जड़ होने से स्वयं कुछ नहीं कर सकता, दूसरा, चेतन जीव जो शरीर को चलाता है। परन्तु, यह जीव भी स्वयमेव प्रत्येक गति पर अधिकार नहीं रखता। अल्प होने के कारण वह एक और महती शक्ति से प्रेरणा चाहता है। वह शक्ति है, परमेश्वर। मनुष्य अथवा पशु-पक्षियों के जितने शरीर हैं, वे सब पस्त्य’, अर्थात घर हैं, अर्थात् चेष्टा, इन्द्रिय और अर्थ का आश्रय हैं। जीव बिना प्राकृतिक शरीरों की सहायता के कुछ नहीं कर सकता। जो गति होती है, वह शरीर में या शरीर की सहायता से होती है। जगत् के दो भाग किये हैं- स्थावर और जंगम, न चलनेवाला और चलनेवाला, अचर और चर। परन्तु, अचर जड़ शरीर चर-जीव से चरत्व को ग्रहण करके स्वयं चर जैसा बन जाता है। मेरे हाथ में जड़ कलम है। इस कलम में चरत्व नहीं, यदि, मैं इसे बक्से में बन्द करके अपने कमरे में रख दूं, तो सौ वर्ष पश्चात् भी वह वहीं की वहीं मिलेगी, एक इंच भी आगे न बढ़ेगी। यह न अंग्रेजी पढ़ी है, न हिन्दी, न संस्कृत। परन्तु, जब मैं अपना चरत्व इसे उधार दे देता हूं, तो इससे वाक्य-के-वाक्य ऐसे निकलते हैं, मानो यह कोई विदुषी हो। चर और अचर का परस्पर सहयोग कैसे होता है, इसके लिए सांख्यकारों ने एक दृष्टान्त दिया है। कहते हैं कि एक लंगड़ा है, चल नहीं सकता। दूसरा अन्धा है, देख नहीं सकता। दोनों यात्रा करने में असमर्थ हैं। लंगड़ा बोला, ‘‘भाई अन्धे, तेरे पैर हैं, आँखे नहीं। मेरे आँखे हैं, पैर नहीं। तू मुझे कंधे पर बिठा ले। मैं मार्ग देखता चलूंगा। तू मेरे बताये मार्ग पर पैरों से चलना। हम दोनों मिलकर यात्रा करेंगे।’’ जीव के आँखें हैं, पैर नहीं। प्रकृति के पैर हैं, आँखे नहीं। मेरी कलम हिन्दी नहीं जानती। वह कागज पर दौड़ सकती है, यदि कोई मार्ग-प्रदर्शक हो। मैंने अपना ज्ञान कलम को दिया। कलम ने अपनी चाल मुझे दी। दोनों ने मिलकर लेख पूरा कर दिया। समस्त चराचर की सम्पूर्ण चेष्टाओं की कहानी लंगड़े-अन्धे के सहयोग जैसी है। इसलिए, वेदमन्त्र कहता है कि जीव है तो ध्रुव, परन्तु, शरीर में आने से वह एजत् अर्थात् गतिवाला हो जाता है। सांख्यदर्शन में कपिल मुनि ने जगत् के विकास का यह क्रम दिया है- स्वधा अर्थात् प्रकृति से जब प्रपंच का आरम्भ होता है, तो प्रकृति अपने को महत्तत्व में बदल लेती है, अर्थात् प्रकृति का पहला परिणाम, प्रकृति और जीव का सम्पर्क है। लंगड़ा अन्धे की ओर और अन्धा लंगड़े की ओर आकर्षित हो रहा है। यह महान् कार्य है, अर्थात् जो महती सृष्टि बननेवाली है, उसका यह एक महान् आरम्भ है। लंगड़े के अन्धे की गर्दन पर सवार होते ही, अन्धे की आँखों में रोशनी-सी आने लगती है। इसी प्रकार महत्तत्व का अगला क्रम है, अहंकार। प्रकृति जड़ होने से उसमें अहं-भाव का लेशमात्र भी न था, परन्तु, जब जीव ने प्राकृतिक शरीर को पस्त्यअर्थात् घर बना लिया, तो शरीर के हर एक अवयव में मैंका भाव उत्पन्न हो गया। पैर में कांटा लगा नहीं और पैर चिल्लाया नहीं कि हाय मुझे घायल कर दिया। आँख कहने लगी, मैं देखती हूँ। जो प्रकृति, ‘मै-भावसे शून्य थी, वह मैं-मैंचिल्लाती है- यह है अहंकार। पंचतन्मात्रा और पंचभूत भी तो इसी सहयोग के परिणाम हैं। आप पंचभूतों का नाम अलग-अलग गिनाते हैं, उनके गुण भी बताते हैं, परन्तु क्या आपने सोचा है कि गुण क्या चीज है? ‘गन्धवतीपृथिवी। गन्धवतीका क्या अर्थ? क्या बिना नासिका के सूंघने का कोई अर्थ है? यदि जीवात्मा का, उस भौतिक गोलक से सम्पर्क न होता, जिसको आप नाक कहते हैं, तो गन्धशब्द निरर्थक ही था। पृथिवी तो थी, परन्तु कैसी थी? उसका लक्षण क्या था, या गुण क्या था इसका बोध तो जीवात्मा के सम्पर्क से ही हुआ। जड़ साइकिल पर जब आप चढ़ते हैं, तो साइकिल दौड़ने लगती है। आप जब इत्र को सूँघते हैं, तो इत्र का सुगन्ध उपलब्ध और अवगत हो जाता है। जब वीर्य का जड़ भाग चेतन आत्मा से संयुक्त होता है, तो विकास की गति का आरम्भ हो जाता है। वह माता के गर्भ में ही नहीं, अपितु जन्म के पश्चात् भी बराबर काम करता रहता है। जो लोग समझते हैं कि अण्डे में जीव नहीं होता, वे जीव के महत्तव को नहीं समझते। अण्डे में स्थूलशरीर चाहे न हो, परन्तु, भावी शरीर के समस्त अङ्ग सूक्ष्मरूप से विद्यमान रहते हैं। अन्धा स्वयं नहीं चल रहा, लंगड़े की आँखों की सहायता से चल रहा है, अतः जीव के लिए -एजत्’- ‘चलानेवालाशब्द का प्रयोग हुआ है।

 

अब एक और प्रश्न उठता है। क्या पुरुष और प्रकृति, अर्थात् जीव और शरीर से ही काम चल जाएगा? क्या लंगड़ा और अन्धा मिलकर समस्त सृष्टि के समस्त प्रपंच की व्याख्या कर सकेंगे? ऐसा तो सम्भव प्रतीत नहीं होता। लंगड़े और अन्धे दोनों की शक्तियां परिमित हैं। चींटी  के शरीर में भी लंगड़े और अन्धे का सहयोग है, हाथी के शरीर में भी, साधारण बच्चे के शरीर में भी और एक ऋषि के शरीर में भी। वे स्वयं भी अल्प हैं और उनकी सामूहिक शक्तियाँ भी अल्प हैं। दोनों को एक तीसरी शक्ति की आकांक्षा है, जो उनके संयोग और वियोग को नियमित और शासित कर सके। न तो संयोग ही, केवल लंगड़े और अन्धे के अधीन है, न वियोग ही। लंगड़ा अंधे की गर्दन को छोड़ना नहीं चाहता, और अन्धे को भी कुछ मजा आ रहा है, क्योंकि लंगड़े की आँखों का प्रकाश उसको मिल रहा है, परन्तु वे स्वाधीन नहीं हैं। वेदमन्त्र में कहा है ‘‘अनत् शये तुरगातु’’ – इस संयोग-वियोग को समुचित और यथेष्ट रूप देने के लिए मैं, ईश्वर इन दोनों में व्यापक होकर इन दोनों को अनुप्राणित करता हूँ।

 

एक अग्नि, या एक वायु भिन्न-भिन्न पदार्थों में भिन्न-भिन्न रूप से दिखाई पड़ते हैं, इसी प्रकार जगदीश्वर एक होता हुआ भी भिन्न-भिन्न पदार्थों में भिन्न जैसा प्रतीत होता है।

 

कठोपनिषद् के एक अध्याय में कहा गया है कि जीव केवल प्राण और अपान के सहारे नहीं जीते। इन दोनों को आश्रय देनेवाली एक और शक्ति है, जिसके सहारे प्राणी जीते हैं। यही शक्ति ईश्वर है, जो अनत् शयेसबको अनुप्राणित करती हुई स्थित है।

 

तुरगातुका अर्थ है, जल्दी जानेवाला, अर्थात् ईश्वर की अनुप्राणित करनेवाली शक्ति के संचार में कोई बाधा नहीं पड़ती। वह शीघ्र ही हर स्थान पर कार्य करती है, क्योंकि वह सर्वत्र शयन करती है, सर्वव्यापक है।

 

मन्त्र के अन्तिम दो चरणों में दो द्वन्द्व दिये हैं -जीव और मृत, तथा अमत्र्य और मत्र्य। जीव अमत्र्य हैं, इसका कभी नाश नहीं होता, यह अमृत है। अमृत का उलटा है मृत या मत्र्य अर्थात् शरीर। शरीर की विचित्रता यह है कि वह एक क्षण भी एक अवस्था में नहीं रहता। जीवन अविनाशी है। गीता के सबसे उत्कृष्ट श्लोक तो ये ही हैं-

 

नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि नैनं दहति पावकः।

 

न चैनं क्लेदयन्त्यापो न शोषयति मारुतः।।

 

अच्छेद्योऽयमदाह्योऽयमक्लेद्योऽशोष्य एव च।

 

नित्यः सर्वगतः स्थाणुरचलोऽयं सनातनः।।

 

-भगवद्गीता अध्याय २, श्लोक २३, २४

 

अर्थजीवात्मा को शस्त्र काटते नहीं, आग जलाती नहीं, जल गलाते नहीं, हवा सुखाती नहीं। न यह जीव काटा जा सकता है, न जलाया जा सकता है, न गलाया जा सकता है, न सुखाया जा सकता है। यह नित्य है’, हर कहीं जा सकता है। ठहरा हुआ है, अचल है और सनातन, अर्थात सदा रहनेवाला है। 

 

इसके विपरीत शरीर है। छोटी-सी सुई भी इसको काटने में समर्थ है। आग की छोटी-सी चिंगारी इसको जला सकती है। यह गल भी सकता है और सूख भी सकता है। यह मृत भी है और मत्र्य भी। न अचल है, न सनातन।

 

ऐसे दो सर्वथा भिन्न स्वभाव वाले चेतन, जीव और अचेतन शरीर का संयोनिःअर्थात संयुक्त होना संसार की जटिलतम समस्याओं में से एक है। सम्पर्क भी ऐसा कि अत्यन्त घनिष्ठ। दार्शनिक संसार में यह एक क्लिष्टतम प्रश्न रहा है। बहुत-से दार्शनिक तो इस प्रश्न पर इतने मुग्ध हो जाते है कि वे अपने अमृतत्व को भूलकर जीवन के अस्तित्व को ही अस्वीकार कर बैठते हैं। इंग्लैण्ड के प्रसिद्ध दार्शनिक ह्यूम  ने तो यहाँ तक कह दिया कि मुझे तो अपने शरीर में जीव का कोई अस्तित्व लक्षित नहीं होता। केवल परम्परा से चले आनेवाले व्यवहार के आधार पर मैं कह बैठता हूं कि ‘‘मै हूँ’’

 

परन्तु चाहे दार्शनिकों की उलझनें सुलझें या न सुलझें, चाहे वे अपने कल्पित मापदण्डों द्वारा इनकी व्याख्या कर पाएँ या न कर पाएँ, तथ्य यही है कि अमर जीव नाशवान् शरीर में आकर काम करता है। ‘‘मृतस्य स्वधामि’’ का अर्थ है, इस मरणधर्मा शरीर के गुण-त्रय (सतोगुण, रजोगुण, तमागुण) के साथ मिलकर जीव अपना कार्य करता है।

 

श्राद्ध का अन्न तो जड़ शरीर के ही काम आ सकता है, न कि अमर और चेतन जीव के। मृतक श्राद्ध में जिस अन्न का नाम हम लोगों ने स्वधारक्खा है, वह सम्बन्धित जीव द्वारा ग्रहण नहीं किया जाता। वह तो शरीरधारी ब्राह्मणों को ही खिलाया जाता है और उसकी वही गति होती है, जो नाशवान् शरीर की। स्वधा का वास्तविक अर्थ तो तीन गुणवाली प्रकृति है।

 

जीव का नाशवान शरीर से सम्पर्क होने से यह नहीं समझ लेना चाहिए कि शरीर अनावश्यक है, अथवा इसका सम्बन्ध कल्पित या स्वप्न के समान अतथ्य है। यदि ऐसा होता तो धर्म-अधर्म, कर्त्तव्य -अकर्त्तव्य, हिंसा-अहिंसा का प्रश्न न उठता। हालाँकि, बकरी का जीव भी अमर और अच्छेद्य है, परन्तु, बकरी का मारना यानि बकरी के शरीर को मारना हिंसा है, क्योंकि शरीर नाशवान् होते हुए भी जीव की जीवनयात्रा के लिए आवश्यक है। जीव मरता नहीं, शरीर मरता है। परन्तु, जीव के विकास में सहायक होकर मरता है। अनित्य पदार्थों का भी मूल्य है, वे निरर्थक नहीं हैं। शरीर की स्वधाएँ, जीव के व्यवहार में सहयोग देती हैं और अनादर के योग्य नहीं हैं।

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