ईशा-उपनिषद
सबसे पहले, आइए जानते हैं कि उपनिषद क्या हैं। उपनिषद वैदिक विद्वानों द्वारा अपने शिष्यों को दी गई वेद की ऋचाओं की व्याख्याएं हैं। उपनिषदों में वर्णित व्याख्याएं अनुभवात्मक होती हैं। इन पुस्तकों की लोकप्रियता को देखते हुए आधुनिक काल में उपनिषद नाम की कई पुस्तकें संसार में उपलब्ध हो गई हैं। इस प्रकार, अब उपनिषद कही जाने वाले पुस्तकों की संख्या एक सौ को पार कर गई है, लेकिन, इन नईं पुस्तकों में निहित विचार वेदों से बहुत अलग हैं। केवल ग्यारह उपनिषद ही वेद के अनुरूप होने से प्रमाणिक माने जाते हैं। ईशोपनिषद उनमें से एक है।
ईशोपनिषद ईश्वर, जीव, प्रकृति, पाप, पुण्य, मुक्ति, कर्तव्य, निष्काम कर्म, ज्ञान, अज्ञान, इन सभी के बीच सम्बन्ध और दुखों को दूर करने की विधि बताता है। इस उपनिषद को ‘ईशा’ नाम से जाना जाता है, क्योंकि इसका पहला मंत्र ‘ईशा’ शब्द से शुरु होता है। जैसे, ईश्वर इस पूरे ब्रह्मांड में रहता है, वैसे ही, इस पूरे उपनिषद में ईश्वर के विभिन्न पहलुओं की बात की गई है।
पहला मंत्र – ईशावास्यमिदम् से स्विद्धनम्
इस मंत्र का अर्थ–
ब्रह्मांड की हर चीज बदलती है और हर चीज में ईश्वर मौजूद हैं।
इस ब्रह्मांड की हर चीज का उपयोग वैराग्य की भावना के साथ करें। संतुष्ट रहें और लालच मत करें।
लालची मत बनें। यह पैसा या संपत्ति किस व्यक्ति की है? अर्थात यह पैसा या संपत्ति हमेशा के लिए किसी की नहीं है।
व्याख्या–
1 ब्रह्मांड की हर चीज बदलती है और ईश्वर हर चीज में मौजूद है।
संस्कृत भाषा में ब्रह्मांड को ‘जगत’ कहा जाता है, जिसका अर्थ गतिमान होता है। इस ब्रह्मांड की हर चीज गतिमान है। हम अपनी इंद्रियों के माध्यम से जो कुछ भी महसूस करते हैं, वह कभी स्थिर नहीं रहता। हम तब भी गति कर रहे होते हैं, जब हम अपने आप को बैठा हुआ या सोया हुआ अनुभव करते हैं। जब हमारी यह पृथ्वी लगभग 1040 मील प्रति घंटे की गति से अपनी कक्षा में घूम रही है, तो हम अपने आप को स्थिर कैसे कह सकते हैं? यहां तक कि बड़े-बड़े पहाड़ भी गति कर रहे हैं। उन्हें स्थिर केवल आस-पास की चीजों की अपेक्षा से कहा जाता है।
यह सच है कि इस ब्रह्मांड की हर चीज गतिमान है, लेकिन हर चीज की बदलने की गति समान नहीं है। इस तथ्य को हम अपने दैनिक उपयोग की चीजों में देख सकते हैं। घड़ी की मिनट की सुई घंटे की सुई की तुलना में तेज चलती है और घड़ी की सैकंड वाली सुई से धीमी। अगर सभी चीजें एक ही गति से बदल रही होतीं, तो हम उनकी गति का अंदाजा ही नहीं लगा पाते। इस अवधारणा को समझने के लिए एक उदाहरण पर विचार करते हैं। मान लीजिए, आप अपने सामान के साथ ट्रेन में कहीं जा रहे हैं। आपका सामान स्थिर प्रतीत होता है, क्योंकि सामान और ट्रेन एक ही गति से आगे बढ़ रहे हैं। इससे स्थापित होता है कि हम चीजों की गति को केवल उनकी गति के अंतर के कारण महसूस कर पाते हैं।
जब हम जानते हैं कि अलग-अलग चीजों के बदलाव की गति अलग-अलग होती है, तो हमें उनकी गति में अंतर के कारण पर विचार करना चाहिए। यदि घड़ी की मिनट और घंटे की सुइयों को आपस में बदल दिया जाए, तो हम देखते हैं कि मिनट की सुई, जो पहले घंटे की सुई से तेज चलती थी, अब घंटे की सुई की तुलना में धीमी गति से चलने लगी है। इससे पता चलता है कि सुइयों की गति उनकी अपनी नहीं है, बल्कि, इस गति का कारण कोई बाहरी स्रोत है। यदि उनकी गति उनकी स्वयं की होती, तो उनकी गति को बदलना संभव नहीं होता। बाहरी स्रोत, जो इस ब्रह्मांड की चीजों में गति का कारण है, उसे ईश्वर या ‘ईश’ कहा जाता है। ईश्वर सांसारिक चीजों को बदल देता है, लेकिन वह स्वयं अपरिवर्तनीय है।
इस संसार की हर चीज लगातार बदल रही है, यानी एक ही अवस्था में कुछ भी हमेशा के लिए नहीं रहता है। कोई वस्तु एक स्थान पर स्थिर होने पर भी समय और अवस्था के अनुसार बदलती रहती है।
हम क्यों न मानें कि जो वस्तु सांसारिक वस्तुओं में गति करती है, वह भी गतिमान है? गति किसी प्रकार की अपूर्णता के कारण ही होती है। गति का मौलिक अर्थ है- एक स्थान या स्थिति या समय से दूसरे स्थान या स्थिति या समय में जाना। परमेश्वर में किस प्रकार की अपूर्णता सोची जा सकती है? ईश्वर किस स्थान पर मौजूद नहीं है? ईश्वर किस समय उपलब्ध नहीं होता? ईश्वर किस अवस्था को प्राप्त करने का इच्छुक हो सकता है? यह विचार भी कि ईश्वर में गति किसी बाहरी तत्व के कारण है, इस प्रश्न का समाधान नहीं देता। चूँकि, यदि कोई वस्तु किसी बाह्य तत्व के कारण बदल जाती है, तो उसे उस बाह्य तत्व से कमजोर कहा जाएगा। लेकिन, ईश्वर को किसी अन्य वस्तु से कमजोर स्वीकार करना संभव नहीं। हम कमजोर चीजों में ही बदलाव कर सकते हैं। हमसे ज्यादा शक्तिशाली चीजें हमारे द्वारा नहीं बदली जा सकतीं। इससे पता चलता है कि शक्ति का परिवर्तन के साथ कुछ संबंध है। शक्ति ही परिवर्तन करने की क्षमता का कारण है। अब, कुछ लोग यह प्रश्न उठा सकते हैं कि एक अचल या अपरिवर्तनीय वस्तु अन्य चीजों में परिवर्तन कैसे कर सकती है? यह प्रश्न पूरी तरह से गलत है। वस्तुतः, किसी वस्तु में परिवर्तन ही किसी ऐसी सत्ता द्वारा किया जा सकता है, जो स्वयं गतिहीन हो। इस तरह हम कह सकते हैं कि ईश्वर या ईश ही वह अचल या अपरिवर्तनीय सत्ता है, जिसके कारण अन्य सांसारिक वस्तुओं में परिवर्तन अथवा गति होती है।
इस निष्कर्ष पर पहुंचने से कई मुद्दों का समाधान हो जाता है। बहुत से लोग मानते हैं कि चूंकि ईश्वर सर्वशक्तिमान है, वह जो चाहे कर सकता है। वह शरीर धारण कर भी सकता है, शरीर के बिना भी रह सकता है, जन्म ले भी सकता है और नहीं भी। यदि, हम ऐसा मानें, तो हमें ‘ईश’ को गतिमान अथवा परिवर्तनशील वस्तुओं की श्रेणी में रखना होगा, क्योंकि, केवल सांसारिक चीजों का बदलना ही स्वाभाविक है। पहले हमने शक्ति को परिवर्तन करने की क्षमता से जोड़ा था। असीम रूप से शक्तिशाली होने के लिए उस चीज का असीम रूप से परिवर्तनहीन होना आवश्यक है। ईश्वर सर्वशक्तिमान है और परिवर्तनशील भी नहीं है। अब, अन्य चीजों में परिवर्तन करने में सक्षम होने के लिए, ईश्वर का उन चीजों के साथ, जिनमें उसे परिवर्तन करना है, अच्छा संपर्क होना चाहिए। जिस वस्तु में परिवर्तन होना है, वह परिवर्तन करने वाली वस्तु से दूर नहीं हो सकती। वेद के शब्द प्रमाण के अनुसार यह आवश्यक है कि सांसारिक चीजों में परिवर्तनों के लिए जिम्मेदार सत्ता कण-कण में मौजूद हो। ईश्वर की सर्वव्यापकता के गुण के कारण ही वह इस ब्रह्मांड की रचना कर सका और सर्वज्ञ और सर्वशक्तिमान हो सका।
2 इस ब्रह्मांड की हर चीज का उपयोग वैराग्य की भावना के साथ करें। संतुष्ट रहें और लालची मत बनें।
अगर यह दुनिया परिवर्तनशील है, तो इसके प्रति हमारा व्यवहारिक दृष्टिकोण क्या होना चाहिए? अनपढ़ व्यक्ति भी यह समझ सकता है कि बदलती चीजों के साथ हमारा संबंध अपरिवर्तनीय या चिरस्थायी नहीं हो सकता। इस दुनिया की सभी चीजें हमारे लिए बनाई गई हैं। ऐसे में इनका उपयोग न करना हमें हमारे उद्देश्य की पूर्ति में सहायक नहीं हो सकता। वह विधि, जिसके द्वारा हम सांसारिक वस्तुओं का उपयोग करते हैं और साथ ही साथ अपरिवर्तनीय सत्ता की ओर बढ़ते हैं, है- सांसारिक वस्तुओं का वैराग्य की भावना से भोग करना। हम अपने शरीर को किसी विशेष स्थान, समय या अवस्था में रखने के लिए, जो कुछ भी करते हैं, वह बदल जाता है। हम चाहते थे कि हमारे दूध के दाँत बने रहें, लेकिन उन्होंने हमें छोड़ दिया, हम दूसरे दाँतों को उनकी मूल स्थिति में बनाए रखना चाहते थे, हम फिर असफल रहे। इसलिए, कहा जाता है कि हमें अपना मन इस तरह बनाना चाहिए कि हम सांसारिक चीजों को उनके स्वभाव के साथ इस्तेमाल करें और इस तरह की मानसिकता तभी संभव है, जब हम सांसारिक चीजों का इस्तेमाल वैराग्य के साथ करें। इसका अर्थ यह हुआ कि हमें सांसारिक वस्तुओं का उपयोग केवल अपने उद्देश्य की पूर्ति के लिए ही करना चाहिए और उद्देश्य की प्राप्ति के बाद वे सांसारिक वस्तुएं हमारे लिए अपना महत्व खो दें। ‘वैराग्य’ को समझने का सर्वोत्तम उदाहरण है, पथ। हम पथ पर तभी आगे बढ़ते हैं, जब हम अपना एक पैर आगे रखते हैं और उसके तुरंत बाद, हम अपने पिछले पैर को पथ से अलग कर अपने सामने वाले पैर के आगे रख देते हैं। यदि हम ऐसा नहीं करते हैं, तो मार्ग का उद्देश्य ही व्यर्थ हो जाता है, क्योंकि उस स्थिति में मार्ग के लिए हमें हमारी मंजिल तक ले जाना संभव नहीं होगा। गन्तव्य स्थान पर पहुँचने के बाद कोई मूर्ख ही रेलगाड़ी, बस वगैरह में रहना पसंद करेगा, क्योंकि ये तो यात्रा के साधन हैं, रहने के स्थान नहीं। यदि हम यह समझ लें कि सभी सांसारिक वस्तुएँ साधन मात्र हैं, तो हमारा इनके प्रति दृष्टिकोण बदल जाएगा और हम अपने उद्देश्य की पूर्ति के बाद इन चीजों के साथ चिपकना पसंद नहीं करेंगे। इस तथ्य को समझ लेने वाला व्यक्ति लालची नहीं हो सकता।
3 लालची मत बनो। यह धन या संपत्ति किस व्यक्ति की है? यानी धन या संपत्ति हमेशा किसी व्यक्ति के पास नहीं रहती।
जो व्यक्ति धन खर्च करने की कीमत नहीं समझता, वही व्यक्ति धन इकट्ठा करता है। जिसने यह समझ लिया है कि पैसे की कीमत खर्च करने में है, जमा करने में नहीं, वह पैसे से प्यार करने के बजाय उन चीजों से प्यार करेगा, जिन्हें पैसा खरीद सकता है। इसी तरह, जो व्यक्ति यह समझता है कि ट्रेन की कीमत तभी तक है, जब तक कि वह उसे उसके गंतव्य तक नहीं पहुंचा देती, ऐसा व्यक्ति गंतव्य पर पहुंचने के पश्चात ट्रेन में बैठना पसंद नहीं करेगा। ट्रेन किसी व्यक्ति विशेष के लिए नहीं है, बल्कि उन सभी यात्रियों के लिए है, जिनकी मंजिल एक ही है। इसी तरह, यह धन या संपत्ति किसी विशेष व्यक्ति की नहीं है। यह धन कभी किसान का होता है, तो कभी फल बेचने वाला का। इसलिए, हमें लालच नहीं करना चाहिए।
दूसरा मंत्र -कुर्वन्नेवेह से लिप्यते नरे।
इस मंत्र का अर्थ—मनुष्य को सौ वर्ष के सक्रिय जीवन की कामना करनी चाहिए। ऐसा करने से कर्म बंधन का कारण नहीं बनेंगे। बंधन से बचने का यही एकमात्र उपाय है।
व्याख्या—पिछले मंत्र में हमें सांसारिक वस्तुओं का वैराग्य भाव से उपयोग करने की सलाह दी गई थी। सांसारिक चीजों का उपयोग करना कुछ और नहीं, बल्कि कर्म करना है। यहाँ इस मन्त्र में केवल उन्हीं कर्मों की बात की गई है, जिनसे बन्धन उत्पन्न नहीं होता। हालांकि, हर गति क्रिया है, परन्तु, सभी क्रियाओं को कर्म नहीं कहा जा सकता है। उदाहरण के लिए, पृथ्वी की गति, आकाशीय पिंडों की गति आदि। कर्म कहलाने वाली क्रिया को एक जीवित शरीर द्वारा और एक निश्चित इरादे से किया जाना आवश्यक है। ऐसे कर्म बंधन उत्पन्न कर भी सकते हैं और नहीं भी। उदाहरण के लिए, चोरी एक कर्म है और बंधन का कारण है। परन्तु, जो कर्म दूसरों की भलाई के लिए किए जाते हैं और जिनको करने में कर्त्ता की कामना मोक्ष के इलावा कुछ भी नहीं होती, ऐसे कर्म बंधन का कारण नहीं बनते। कर्म बंधन का क्या अर्थ है? कर्मफल दर्शन का एक मूल सिद्धांत है कि कोई भी कर्म, फल दिए बिना नहीं रहता। हमारे कर्म ऐसे होने चाहिए, जो सांसारिक फल देने वाले न हों, अन्यथा, सांसारिक फलों को भोगने के लिए हमें संसार में आना ही पड़ेगा। यह मंत्र उन कर्मों को निर्दिष्ट करता है, जो बंधन उत्पन्न नहीं करते। ऐसे कर्म कौन से हैं? ऐसे कर्म दूसरे कर्मों से भिन्न कैसे हैं? बंधन उत्पन्न न करने वाले कर्मों को करने की कला पर हम कैसे महारत हासिल कर सकते हैं? यह मंत्र वैराग्य से किए गए कर्मों की बात करता है। वैदिक दर्शन में, जो कर्म सांसारिक फल प्राप्त करने की कामना से किए जाते हैं या दूसरे शब्दों में वैराग्य की भावना के बिना किए जाते हैं, उन्हें सकाम कर्म कहा जाता है। ऐसे कर्म बांधने वाले होते हैं। जो कर्म मोक्ष प्राप्त करने की कामना से किए जाते हैं या दूसरे शब्दों में वैराग्य की भावना से किए जाते हैं, उन्हें निष्काम कर्म कहा जाता है और ऐसे कर्म हमें बांधते नहीं हैं।
कोई भी कर्म सकाम हो सकता है, यानि सांसारिक उद्देश्य को प्राप्त करने की कामना वाला या निष्काम, यानि गैर-सांसारिक उद्देश्य को प्राप्त करने की कामना वाला। कर्मों की प्रकृति कर्ता की मानसिकता पर निर्भर करती है। कर्म सांसारिक स्वार्थ की उपस्थिति की सीमा तक सकाम होते हैं। हमें उन कर्मों को करने का अभ्यास करना चाहिए, जिनमें सांसारिक स्वार्थ न हो। केवल अभ्यास ही यह संभव कर सकता है कि हम सभी कर्म वैराग्य भाव से करें, जिससे हम जन्म मृत्यु के बंधन से मुक्त हो सकें।
तीसरा मन्त्र -असुर्या से जनाः
इस मन्त्र का अर्थ—जो व्यक्ति अपनी आत्मा की हत्या करते हैं, वे मृत्यु के बाद उन जातियों में जन्म लेते हैं, जो मनुष्य की तुलना में बहुत नीची होती हैं और जो अन्धकार से भरी होती हैं।
व्याख्या—इस मंत्र को तीन भागों में बाँटा जा सकता है :
जो लोग अपनी आत्मा को मारते हैं
जातियाँ, जो मनुष्य की तुलना में बहुत नीची हैं
अंधकार से डूबी हुईं जातियां
पिछले मंत्र में उन कर्मों की बात की गई थी, जिनके करने पर हम जन्म मृत्यु के बंधन से छूट सकते हैं। उसमें उल्लेख किया गया था कि किस प्रकार के कर्म हमें बांधते हैं और किस प्रकार के कर्म हमें मुक्त करते हैं। हम बंधन उत्पन्न करने वाले कर्मों को करने से अपने जीवन के अंतिम ध्येय, मोक्ष को प्राप्त नहीं कर सकते। यहाँ, इस मन्त्र में इस प्रकार के कर्म करने वाले व्यक्ति को आत्मा का हत्यारा कहा गया है।
इस मंत्र के दूसरे भाग को समझने के लिए हमें उस कसौटी को जानना होगा, जिसके द्वारा उच्च और निम्न स्तर की जातियों का निर्धारण होता है।
स्वार्थपूर्ण कर्मों को करने से हम अपनी स्वतंत्रता को नष्ट व अपनी निर्भरता को मजबूत करते हैं। व्यक्ति उस हद तक स्वतंत्र है, जिस हद तक दूसरे उस पर निर्भर हैं। किसी देश में सबसे स्वतंत्र वह व्यक्ति होता है, जिसका अस्तित्व उसके देशवासियों द्वारा आवश्यक माना जाता है। वही देश का असली राजा है, जो अपने देशवासियों के दिलों पर राज करता है। वह लोगों के दिलों पर इसलिए राज कर पाता है, क्योंकि उसके सभी कर्मों के केंद्र में उसके देशवासियों का कल्याण होता है। सकाम कर्म या कर्म, जो स्वार्थ से भरे होते हैं, दासता लाते हैं और दासता मृत्यु है। इस अवधारणा को बेहतर ढंग से समझने के लिए, एक उदाहरण लें। मान लीजिए, आपके पास एक नौकर है, जिसे उसकी सेवाओं के लिए भुगतान किया जाता है। लेकिन अगर वह अपनी सेवाओं के लिए पैसे या अन्य लाभ लेने से इनकार करता है, तो आपके हृदय में उसके लिए सम्मान जाग जाएगा और आप उसे अपना नौकर नहीं कहेंगे। आप उसे ‘नौकर’ इसलिए कहते हैं, क्योंकि उसके कर्म स्वार्थ से भरे हुए हैं। उसका वेतन लेना स्वार्थ है, क्योंकि यदि आप उसे भुगतान नहीं करेंगे, तो वह काम नहीं करेगा। लेकिन, अगर वह वेतन या किसी भी प्रकार का अन्य लाभ स्वीकार नहीं करता और अपनी सेवाएं देना जारी रखता है, तो स्थिति पूरी तरह से अलग होगी। वह स्वामी होगा और आप उसके दास। दासता आत्मा की हत्या के समान है। यदि कोई चाहता है कि उसे स्वयं की शाश्वतता का एहसास हो और वह जन्म मृत्यु के बंधन से मुक्त हो, तो उसे सचेत रूप से अपने सभी कर्मों को दूसरों के कल्याण के उद्देश्य से करना होगा।
गुलामी को मौत क्यों माना जाता है? एक अंग्रेजी की कहावत है- ‘गुलाम-जाति मृत-जाति के समान है’। इसके पीछे एक दार्शनिक अर्थ छुपा हुआ है। दास वहीं करता है, जो उसका स्वामी उसे करने के लिए कहता है। वह अपने स्वामी की इच्छा के अनुसार करने से इंकार नहीं कर सकता। वह एक निर्जीव वस्तु की तरह व्यवहार करता है। केवल एक जीवित व्यक्ति के पास ही कर्म करने, न करने या अलग ढंग से करने का विकल्प होता है। एक गुलाम के पास ये विकल्प नहीं होते और इसलिए उसे मृत या निर्जीव माना जाता है।
अब प्रश्न उठता है कि जो व्यक्ति अपनी आत्मा को मारते हैं, मृत्यु के बाद उनका क्या होता है?
यह उपनिषद कहता है कि ऐसे व्यक्ति मृत्यु के बाद उन जातियों में जन्म लेते हैं, जो मनुष्यों की तुलना में बहुत नीची हैं। ये जातियां क्या हैं और इनका आत्मा की हत्या से क्या संबंध है?
हमारा भविष्य हमारे वर्तमान पर निर्भर करता है। हमारे वर्तमान कर्मों के संस्कार हमारी आत्मा में जमा होते रहते हैं। यहीं संस्कार हमारे होने वाले स्वभाव का आधार बनते हैं। अगर आज आप गायन का अभ्यास कर रहे हैं, तो कल आप तैराक नहीं, बल्कि गायक बन सकते हैं और अगर आज आप तैराकी का अभ्यास कर रहे हैं, तो यह अभ्यास आपको गणितज्ञ बनने में मदद नहीं करेगा। कल आप वही बनेंगे जो आप आज करने की कोशिश कर रहे हैं। जिसने जीवन भर स्वार्थपूर्ण कर्म ही किए हैं, वह भविष्य में भी अपने कर्मों के अनुरूप ही बनेगा।
पक्षियों, जानवरों, कीड़ों आदि की योनियां बनाने का क्या उद्देश्य है? बुराई का अच्छाई में परिवर्तन अपने आप नहीं होता, बल्कि यह कईं जन्मों में चलने वाली एक लंबी प्रक्रिया है। पक्षियों, जानवरों, कीड़ों आदि की योनियां इस प्रक्रिया का एक हिस्सा हैं। रोगग्रस्त नेत्रों के लिए प्रकाश हानिकारक तथा अन्धकार हितकर होता है। लेकिन, पक्षियों, जानवरों, कीड़ों आदि की योनियां आत्माओं के लिए कैसे हितकारी हो सकती हैं? पशु आदि प्रजातियों के दो गुण होते हैं- एक है अविद्या और दूसरी है अल्प-स्मृति। पशु आदि स्वार्थी होते हैं। पशु आदि का ज्ञान उनकी शारीरिक आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए ही होता है या दूसरे शब्दों में, उनका ज्ञान उनके स्वार्थ की तरह ही सीमित होता है। जैसे, एक शेर एक बार में 2-4 प्राणियों को ही मार सकता है और इंसानों की तरह हथियार नहीं बना सकता, जो एक बार में लाखों प्राणियों को मार देते हैं। फिर, जानवरों को अपने स्वार्थ को पूरा करने में कईं बाधाएँ आती हैं। अल्पस्मृति के कारण उनके बुरे कर्मों के संस्कार शीघ्र ही मिट जाते हैं। ये दोनों गुण बच्चों में भी देखने को मिलते हैं। पशुओं में इन दो गुणों के होने के कारण, इन शरीरों में आई आत्माओं का बुराई की तरफ झुकाव कम होता जाता है और जब इन आत्माओं को फिर से मानव-शरीर प्राप्त होता है, तो उन्हें अच्छी प्रवृत्ति विकसित करने का अवसर मिलता है। इन निचली जातियों के उद्देश्य को एक उदाहरण के माध्यम से बेहतर ढंग से समझा जा सकेगा। मान लीजिए कोई लड़का है, जिसे क्रिकेट खेलने का शौक है। खेलने की आदत के कारण वह पढ़ाई में ध्यान नहीं लगा पाता । वह अपनी आदत का गुलाम है। अगर किसी तरह उसे अपनी बुरी आदत से छुटकारा मिल सके, तो उसके लिए पढ़ाई में उन्नति करना बहुत आसान होगा। पशु-प्रजातियों का उद्देश्य आत्मायों को उनकी बुरी आदतों से निजात दिलाना ही है।
निचली योनियों अथवा जातियों से हमारा क्या तात्पर्य है? इन योनियों में पक्षी, जानवर, कीड़े आदि आते हैं। किसी योनि को केवल अपने स्वयं के लिए या दूसरों के कल्याण के लिए कर्म करने के कारण निम्न या उच्च कहा जाता है। मनुष्य में, दूसरों के कल्याण के लिए या केवल स्वयं के लिए कर्म करने की क्षमता उसकी आत्मा में बीज रूप में रहती है। इन दोनों में से कोई भी क्षमता विकसित की जा सकती है। यदि हम दूसरों के कल्याण के लिए अपने कर्म करने की क्षमता विकसित करते हैं, तो हम वास्तविक अर्थों में मानव बन जाते हैं, अन्यथा हम निम्न जातियों के लिए अपना मार्ग प्रशस्त कर लेते हैं। मानव शरीर दूसरों के हित के लिए कर्म करने का एक अच्छा उदाहरण प्रस्तुत करता है। आंखें मुंह के लिए देखती हैं और मुंह आंखों के लिए खाता है।
कैसे पक्षियों, जानवरों, कीड़ों आदि की योनियां अंधकारमय हैं? ये जातियां केवल अपने लिए कर्म कर सकती हैं और दूसरों के कल्याण के लिए कर्म करने की क्षमता नहीं रखतीं। इस कारण, इन जातियों में अपना विकास करने का सामर्थ्य नहीं होता। जानवर अपने सारे कर्म अपने लिए ही करते हैं। माताएं बच्चों की देखभाल तो करतीं हैं लेकिन, थोड़े समय के लिए ही। उसके बाद मां का प्यार भी विकास को प्राप्त नहीं होता। परिवार, देश आदि संस्थाएं दूसरों के कल्याण के लिए कर्म करने की सम्भावना प्रस्तुत करती हैं। लेकिन, पशु आदि जातियों के पास इस तरह की कोई भी संस्था नहीं होती। अपना विकास न कर पाने की स्थिति में होने के कारण इन जातियों को अन्धकारपूर्ण कहा जाता है। जैसे जानवरों की अलग-अलग श्रेणियां हैं, जैसे चींटी और बाघ को एक ही श्रेणी में नहीं रखा जा सकता, उसी तरह अन्धकार की भी अलग-अलग श्रेणियां हैं।
संक्षेप में, इस मंत्र का अर्थ इस प्रकार किया जा सकता है- ‘यदि मृत्यु के बाद हम पक्षियों, जानवरों, कीड़ों आदि की योनियों में नहीं जाना चाहते हैं, तो वर्तमान जीवन में हमें अपने कर्म केवल अपने लिए नहीं, बल्कि, दूसरों के कल्याण के लिए व मोक्ष की अभिलाषा से करने चाहिए।
चौथा मंत्र – अनेजदेकं से दधाति
इस मंत्र का अर्थ—ईश्वर एक है, वह गतिमान नहीं है और वह ‘मन’ से भी तेज दौड़ता है। वह इंद्रियों का विषय नहीं है या दूसरे शब्दों में, उसे इंद्रियों के माध्यम से नहीं जाना जा सकता है। वह गतिहीन है, लेकिन फिर भी सभी गतिमान वस्तुओं से आगे रहता है। आत्माओं को अपने कर्म उसे ही समर्पित करने चाहिएं।
व्याख्या—इस मंत्र में पहली बात, जो बताई गई है, वह यह है कि ईश्वर एक है। एक होने के लिए उसका अचल होना अनिवार्य है। जो सत्ता सर्वव्यापी है वह एक ही हो सकती है, दो नहीं। जो वस्तु सर्वव्यापी है, उसका गतिशील होना असंभव है। क्योंकि, किसी चीज के चलने के लिए उस जगह की जरूरत होती है, जहां वह न हो, यानि कोई चीज उस जगह से गति कर सकती है, जहां वह मौजूद हो और उस जगह तक गति कर सकती है, जहां वह मौजूद न हो।
गति के संबंध में, निम्नलिखित तीन सिद्धांत हैं:
जो वस्तु कहीं है ही नहीं, वह गति नहीं कर सकती।
जो वस्तु हर जगह मौजूद है, वह गति नहीं कर सकती।
केवल वहीं वस्तु गति कर सकती है, जो एक स्थान पर विद्यमान हो और दूसरे स्थान पर अनुपस्थित हो।
यदि कोई व्यक्ति जन्म और मृत्यु के बंधन से मुक्त होना चाहता है, तो उसे शाश्वत, सर्वव्यापी और अचल सत्ता का ध्यान करना चाहिए। आमतौर पर, मानव मन अनित्य वस्तुओं द्वारा घिरा रहता है। ‘मन’ को इस संसार की सबसे तेज गति वाली वस्तु कहा जाता है। वह कौन सी चीज है, जो ‘मन’ को हरा सकती है और उसकी गति पर विराम लगा सकती है? ‘मन’ अपनी हार उसी चीज से स्वीकार करेगा, जो उससे तेज हो। केवल वही चीज, जो हर जगह मौजूद हो, ‘मन’ से भी तेज हो सकती है। ईश्वर सर्वव्यापी होने के कारण ‘मन’ से भी तेज कहा जाता है। जहां ‘मन’ जाएगा, वहां ईश्वर पहले से ही होगा। मन किसी भी चीज का ध्यान कर ले, उसे वहां वहीं ईश्वर नामक गतिहीन सत्ता मिलेगी। ईश्वर नाम की सत्ता का अंत खोज पाना असंभव है। इन्द्रियों के सभी विषय इस संसार की वस्तुएं हैं और इस संसार को परिवर्तनशील कहा गया है। उत्तम बुद्धि वाले पुरुष भी ईश्वर को केवल आंशिक रूप से ही जान सकते हैं। मान लीजिए, कोई बहुत बुद्धिमान शिक्षक है। छात्र काफी मेहनत करके नईं नईं चीजें ढूंढते हैं। लेकिन चीजें, जो छात्रों के लिए नई हैं, शिक्षक के लिए पुरानी हैं। वह उन्हें पहले से जानता है। यहीं स्थिति बुद्धिमान पुरुषों और ईश्वर के बीच है। जो ज्ञान बुद्धिमान पुरुषों द्वारा बड़े प्रयास से प्राप्त किया जाता है, वह ज्ञान ईश्वर में उसकी सर्वव्यापकता के कारण पहले से ही विद्यमान होता है। ईश्वर उनसे बहुत आगे है, क्योंकि बुद्धिमान पुरुष चलते हैं, जबकि ईश्वर अचल है। जहां वे बड़ी दौड़-भाग करके पहुंचते हैं, वहां वह ईश्वर पहले से ही मौजूद होता है।
यह सब हमारे जन्म और मृत्यु के बंधन से मुक्त होने के लिए कैसे प्रासंगिक है? मृत्यु के बाद, मनुष्य से निचली योनियों में जाने से बचने के लिए, हमें एक ऐसी सत्ता का ध्यान करने की आवश्यकता है, जो अपने स्वयं के लिए कुछ भी नहीं करती। ईश्वर इस ब्रह्मांड की सभी वस्तुओं में मौजूद रहकर उनमें गतियां करता है, लेकिन ये गतियां उसके अपने लिए न होकर आत्माओं के लिए हैं। इसी प्रकार, यदि हम अपने सभी कर्म उस ईश्वर को समर्पित कर दें, तो हम अपने सभी कर्मों को निस्वार्थ बना सकते हैं। हमें अपने कर्त्तव्यों को कर्त्तव्यों के लिए ही करना चाहिए और बदले में कुछ भी उम्मीद नहीं करनी चाहिए। परन्तु, बिना उम्मीद के कर्म करना संभव नहीं है। जब यह कहा जाता है कि कर्मों के बदले में कुछ भी उम्मीद नहीं करनी है, तो उम्मीदों से हमारा मतलब सांसारिक पदार्थों से होता है। गैर-सांसारिक लाभ की उपेक्षा करना, दूसरों के लिए सभी कर्म करने के ईश्वर के स्वभाव को अपने में लाना ही है। कर्त्तव्य क्या है? अपने सभी कार्यों को ब्रह्मांड नामक मशीन को सुचारु रूप से चलाने के लिए करना कर्त्तव्य कहलाता है। यह तभी संभव है, जब हम यह महसूस करें कि हम ब्रह्मांड नामक मशीन के पुर्जे हैं और ब्रह्मांड के उद्देश्य को पूरा करना हमारा कर्त्तव्य है।
पांचवां मन्त्र– तदेजति से बाह्यतः
इस मंत्र का अर्थ—वह स्वयं गतिहीन रहता है, लेकिन अन्य चीजों को गतिमान करता है। वह निकट भी है और दूर भी। वह हर चीज के अंदर भी मौजूद है और बाहर भी।
व्याख्या—इस मंत्र में ईश्वर में विपरीत प्रतीत होने वाले गुणों का उल्लेख किया गया है। ‘विपरीत गुणों’ और ‘प्रतीत होने वाले विपरीत गुणों’ के बीच अंतर है। आइए पहले इस अंतर को स्पष्ट करें। लोगों के बीच यह धारणा है कि अगर ईश्वर दयालु है, तो वह लोगों को दंडित करके उनको दुखी नहीं कर सकता। दरअसल, दया और दंड विपरीत प्रतीत होते हैं, जबकि इन दोनों के बीच गहरा समन्वय है। कैसे? अस्पतालों और ‘बंदी-गृहों’ की उपयोगिता की कोई भी उपेक्षा नहीं कर सकता। अस्पताल हानिकारक बैक्टीरिया, वायरस वगैरह के लिए ‘सेंटेंस-होमस’ का कार्य करते हैं और ‘बंदी-गृहों’ में समाज में बीमारियां फैलाने वाले इंसानों का इलाज किया जाता है। जैसे, बुद्धिमान लोग ब्रह्मांड के रहस्यों के बीच समन्वय का पता लगाने के लिए कर्तव्यबद्ध हैं, वैसे ही हमें भी इन विपरीत गुणों के बीच समन्वय का पता लगाना चाहिए।
इस मंत्र में पहली बात जो बताई गई है, वह है-
ईश्वर अचल है, लेकिन सभी सांसारिक चीजों में गति का कारण है। प्रथम मंत्र की व्याख्या में इस बिंदु को विस्तार से बताया गया है। फिर भी, उक्त व्याख्या के संबंधित अंश नीचे दिए जा रहे हैं:
‘किसी वस्तु के परिवर्तनशील होने या गति करने का अर्थ है, उस वस्तु का स्थान, समय या अवस्था की अपेक्षा से गतिमान होना और यह कार्य केवल उस वस्तु द्वारा किया जा सकता है, जो स्वयं गतिहीन हो। पहले हमने शक्ति को परिवर्तन करने की क्षमता से जोड़ा था। असीम रूप से शक्तिशाली होने के लिए वह चीज असीम रूप से अपरिवर्तनीय होनी चाहिए।’
ईश्वर इस दुनिया में मौजूद हर चीज (जीवित और निर्जीव) में गति का कारण है। जड़ या निर्जीव वस्तुओं में गति लाना समझ में आता है, लेकिन जब हम कहते हैं कि ईश्वर जीवित वस्तुओं, यानी आत्माओं में परिवर्तन या गति लाता है, तो हमारा क्या मतलब होता है? अच्छे या बुरे कर्म करने के विचार पर आत्मा में खुशी, उत्साह, भय, शर्मिंदगी आदि की भावना पैदा करना ही ईश्वर द्वारा जीवित वस्तुओं में गति पैदा करना है। इन भावनाओं को समझ लेने पर आत्मा अच्छे कर्म करने के लिए आगे बढ़ सकता है और बुरे कर्म करने से खुद को रोक सकता है।
दूसरी बात, जो इस मंत्र में बताई गई है-
ईश्वर निकट भी है और दूर भी। इस उपनिषद के प्रथम मन्त्र की व्याख्या में इस बात को भी समझाया गया है। फिर भी, उक्त व्याख्या के संबंधित अंश नीचे दिए जा रहे हैं:
‘अन्य चीजों में परिवर्तन करने के लिए, उसका उन चीजों के साथ, जिनमें उसे बदलाव करना है, अच्छा संपर्क होना चाहिए। जिस वस्तु में परिवर्तन होना है, वह परिवर्तन करने वाली वस्तु से दूर नहीं हो सकती। वेद के अनुसार, सांसारिक चीजों के परिवर्तनशील होने के कारण, यह आवश्यक है कि परिवर्तन के लिए जिम्मेदार सत्ता सांसारिक चीजों के कण-कण में मौजूद हो।’
कोई वस्तु स्थान, काल और ज्ञान की दृष्टि से निकट या दूर कही जाती है। आइए, इस अवधारणा को एक उदाहरण के माध्यम से समझते हैं। यदि पुत्र और पिता अलग-अलग स्थानों पर निवास करते हैं, तो उनके बीच की दूरी का कारण स्थान है। यदि पिता की मृत्यु हो चुकी है, तो पुत्र और पिता के बीच की दूरी समय के कारण से है, क्योंकि पुत्र और पिता का अस्तित्व भिन्न-भिन्न समय में था। यदि पुत्र और पिता दोनों एक ही समय और स्थान पर मौजूद हों, लेकिन, फिर भी एक-दूसरे को न पहचानते हों, तो उनके बीच की दूरी का कारण यथार्थ ज्ञान न होना है। ईश्वर ब्रह्मांड की सभी चीजों में व्याप्त है और वह आत्माओं के सबसे निकट है। जो आत्माएं उसे नहीं पहचानतीं, उनके लिए उसे दूर ही कहा जाएगा।
तीसरी बात, जो इस मंत्र में बताई गई है-
ईश्वर हर चीज के अंदर और बाहर मौजूद है। ऊपर, बताया गया था कि ईश्वर इस दुनिया की हर चीज में व्याप्त है। लेकिन, इस दुनिया की एक सीमा है। यदि ईश्वर केवल संसार में मौजूद है, तो उसकी भी कोई सीमा होनी चाहिए। लेकिन वह इस दुनिया के बाहर भी मौजूद है। वह इतना विशाल है कि उसकी विशालता का कोई अंत नहीं है। उसकी विशालता आकाश के समान है। जैसे, कोई पक्षी आकाश में इधर से उधर सभी दिशाओं में उड़ता है, लेकिन अंत में उसे आकाश का अंत पाए बिना ही बैठना पड़ता है।
कई आस्तिकों को यह स्वीकार करने में आपत्ति है कि ईश्वर गंदी चीजों में मौजूद है। क्या गंदी चीजों में भी ईश्वर मौजूद है? हां! जिस प्रकार अशुद्ध वस्तुओं में विद्यमान रहते हुए भी विद्युत अपनी पवित्रता बनाए रखती है, उसी प्रकार गंदी चीजों में व्याप्त होते हुए भी ईश्वर पवित्र रहता है। इस विषय पर कठोपनिषद में एक बहुत अच्छा उदाहरण दिया गया है। उसमें कहा गया है कि जैसे सूर्य, जो इस संसार का नेत्र है, किसी नेत्ररोग से प्रभावित नहीं होता, उसी प्रकार शरीर में रहने वाली आत्मा शरीर की किसी विकृति या रोग से प्रभावित नहीं होती है। बहुत से बुद्धिमान लोगों की यह धारणा है कि ईश्वर सभी सांसारिक चीजों से ऊपर है, उसका इस सृष्टि से कोई लेना-देना नहीं है और वह सांसारिक मामलों में हस्तक्षेप नहीं करता। यह धारणा पूरी तरह गलत है। ईश्वर ने इस दुनिया को आत्माओं को उनके कर्मों का फल भोगाने के लिए व उन्हें उसके आनंद का रसास्वादन करने का अवसर प्रदान करने के लिए बनाया है। वह इस दुनिया में मौजूद सभी जीवित और निर्जीव चीजों को नियंत्रित करता है व इस सृष्टि का गलत उपयोग करने वालों के लिए उसकी एक निश्चित दंड व्यवस्था है।
छठा मन्त्र – यस्तु से विचिकित्सति
सातवां मन्त्र – यस्मिन से एकत्वमनुपश्यतः
छठे मन्त्र का अर्थ—जो मनुष्य अन्य सभी प्राणियों को ईश्वर में अनुभव करता है और अन्य सभी प्राणियों में ईश्वर को अनुभव करता है, वह सभी प्रकार के संदेहों से मुक्त हो जाता है।
सातवें मन्त्र का अर्थ—जो मनुष्य सभी प्राणियों को आत्मा के अतिरिक्त कुछ नहीं समझकर उनमें एकत्व का अनुभव करता है, उससे दुख और आसक्ति दूर हो जाती है।
व्याख्या—मनुष्य को तीन प्रकार की समस्याओं का सामना करना पड़ता है-एक है संशय, दूसरी है मोह और तीसरी है दुख। यहां, इन मंत्रों में इन समस्याओं की बात करने के साथ-साथ उनका समाधान भी दिया गया है। संदेह, कई विकल्पों में से किसी एक को चुनने की समस्या को संदर्भित करता है। मनुष्य के सामने हर समय ऐसे प्रश्न आते हैं कि उसका कर्त्तव्य क्या है, क्या उसका कर्त्तव्य नहीं है, उसे किस मार्ग पर चलना चाहिए, उसे किस मार्ग पर नहीं चलना चाहिए? आदि। जानवरों को इस तरह की कोई समस्या नहीं होती, क्योंकि उनके सामने एक ही विकल्प होता है। पशु जाति खराब संस्कारों या प्रवृत्तियों को दूर करने के लिए है, जबकि मानव जाति विकास के मार्ग पर आगे बढ़ने के लिए है। आइए, इस अवधारणा को एक उदाहरण के माध्यम से स्पष्ट करते हैं। मान लीजिए, कोई यात्री है, जो बीमार है। अपनी बीमारी के कारण वह अपने रास्ते पर आगे नहीं बढ़ पा रहा। वह तभी आगे बढ़ सकता है, जब उसकी बीमारी ठीक हो जाए। ठीक होने के बाद उसके सामने दो विकल्प होंगे- एक, अपने रास्ते पर आगे बढ़ना और दूसरा, अपनी यात्रा को समाप्त कर देना। लेकिन, अपनी बीमारी के ठीक होने से पहले, उसके सामने एक ही विकल्प था। यह उदाहरण इस अवधारणा की भावना को समझने के लिए पर्याप्त है। दरअसल, विभिन्न विकल्पों में से चुनने का अवसर मनुष्य के लिए वरदान है। इससे वह अपनी बुद्धि और कर्तव्यपरायणता का उपयोग, अपने में अच्छे संस्कारों को डालने के लिए कर सकता है। यदि उसके सामने एक ही विकल्प होता, तो उसे अपनी बुद्धि के विकास का अवसर नहीं मिलता। ‘संदेह’ ज्ञान में वृद्धि की प्रेरणा देता है। हमें जानना चाहिए कि ‘संदेह’ क्या है और कौन-सी परिस्थितियाँ ‘संदेह’ को जन्म देती हैं।
दूसरी समस्या ‘आसक्ति’ है। कुछ लोग ‘प्रेम’ और ‘लगाव’ को पर्यायवाची मानते हैं। लेकिन, इन दोनों शब्दों में बहुत अंतर है। प्रेम में ‘ज्ञान के साथ लगाव’ होता है और इस कारण प्रेम में पूर्ण निःस्वार्थता होती है। जो आसक्त होता है, वह अपने स्वयं के स्वभाव और अन्य प्राणियों के साथ अपने संबंध को नहीं जानता होता। प्रेम जैसी उच्च भावना को आसक्ति का पर्यायवाची बनाने का सारा श्रेय कवियों और लेखकों को जाता है। आज, किसी के साथ लगाव रखने वाले को प्रेमी कह दिया जाता है, चाहे वह व्यक्ति जिस से वह लगाव रखता है, उसके हित के बारे में कुछ भी न जानता हो।
तीसरी समस्या है, दुख। कोई दुखी क्यों होता है? जब कोई काल्पनिक वस्तु के पीछे भागता है और उसे प्राप्त करने में विफल रहता है, तो ‘दुख’ उसे जकड़ लेता है।
इन तीनों समस्याओं का समाधान इस दुनिया में अपनी स्थिति को समझना और उसमें मौजूद विभिन्न चीजों की ‘एकता’ को महसूस करना है। ये दो मंत्र बताते हैं कि जो व्यक्ति सभी प्राणियों को ईश्वर में और ईश्वर को सभी प्राणियों में महसूस करता है या यह महसूस करता है कि यह पूरा संसार ही ईश्वरमय है और सभी प्राणियों की ‘एकता’ को समझता है, उसे ‘संदेह’, ‘लगाव’ और ‘दुख’ की समस्या नहीं होती।
अब, यह ‘एकत्व‘ क्या है? इसे एक उदाहरण के माध्यम से समझते हैं। मान लीजिए, एक मशीन है, जिसमें विभिन्न आकारों के विभिन्न पुर्जे हैं। मशीन का उद्देश्य तब तक पूरा नहीं होता, जब तक कि सभी विभिन्न पुर्जे आपसी मतभेद भूल कर, इकट्ठे होकर नहीं चलते। इस अर्थ में, हम कह सकते हैं कि मशीन के विभिन्न पुर्जों में भिन्नता होने के बावजूद उनमें ‘एकता’ है। यह दुनिया भी एक मशीन की तरह है और अलग-अलग प्राणी और कुछ नहीं, बल्कि इसके पुर्जे हैं। ईश्वर ने इस दुनिया को आत्माओं को उनके कर्मों का फल भोगाने के लिए व मोक्ष-सुख प्रदान करने के लिए बनाया है। जो इस बात को समझता है और इस संसार की रचना के उद्देश्य व अपने उद्देश्य में ‘एकता’ लाता है, उसे ‘संदेह’, ‘लगाव’ और ‘दुख’ नहीं हो सकता।
आठवां मन्त्र – स से समाभ्यः
इस मन्त्र का अर्थ—ईश्वर सर्वव्यापक, शुद्ध, देहरहित, पापरहित, कवि, अति बुद्धिमान, दूसरों का आधार है और अपने अस्तित्व का कारण है। उसने जीवों को उनके कर्मों के अनुसार भिन्न-भिन्न चीजें भोगने के लिए प्रदान की हैं।
व्याख्या–जैसे आत्मा अपने-अपने शरीर में व्याप्त है, वैसे ही ईश्वर पूरे ब्रह्मांड में व्याप्त है। संसार की वस्तुएं आत्माओं को उनके शरीर के कारण ही वश में कर पाती हैं, उदाहरण के लिए यदि आँख न होती तो आत्मा भिन्न-भिन्न चीजों के सौन्दर्य के प्रति आकर्षण के कारण अपने कर्तव्यों से विमुख न होती। व्यापकता की अवधारणा ने एक संदेह को जन्म दिया है। संदेह है-जैसे आत्मा, पूरे शरीर में व्याप्त होने के कारण, शारीरिक क्रियाओं से प्रभावित होती है, वैसे ही क्या ईश्वर भी इस ब्रह्मांड की गतिविधियों से प्रभावित होता है? यदि ईश्वर इस ब्रह्मांड की गतियों से प्रभावित होता है, तो ईश्वर को जानकर हमारी ‘संदेह’, ‘लगाव’ और ‘दुख’ जैसी समस्याओं का समाधान नहीं हो सकता। उदघोष यह है कि ईश्वर एक ऐसी चीज है, जो ब्रह्मांड की सभी अच्छी और बुरी चीजों में व्याप्त होने के बावजूद ऐसी चीजों की विशेषताओं से अप्रभावित रहता है। ऐसे उदाहरण इस संसार में भी देखने में आते हैं। बिजली और सूर्य की किरणें उन चीजों के गुणों से प्रभावित नहीं होतीं, जिनमें से वे गुजरती हैं या जिन चीजों पर वे गिरती हैं।
यद्यपि, यह शरीर आत्मा का केवल एक उपकरण है, लेकिन आत्मा अपने सभी तरह के ज्ञान के लिए शरीर की विभिन्न इंद्रियों पर निर्भर है। यदि एक या अधिक इन्द्रियां हताहत होती हैं, तो उस हद तक आत्मा का विकास बाधित होता है। यदि इस ब्रह्मांड और ईश्वर के बीच समान संबंध होता, तो ब्रह्मांड के एक हिस्से के चोटिल होने का प्रभाव ईश्वर पर भी पड़ता। लेकिन, ब्रह्मांड और ईश्वर के बीच ऐसा कुछ नहीं है। मनुष्य की तरह ईश्वर अपने कार्यों के लिए किसी भी चीज़ पर निर्भर नहीं है। मनुष्य की लेखनी में किसी प्रकार का दोष विकसित होने पर उसका प्रभाव उस मनुष्य के लेखन पर अवश्य ही पड़ता है, परन्तु ईश्वर को अपने कार्यों के लिए किसी साधन की आवश्यकता नहीं होती। इसी कारण उसे ऐसी सत्ता माना जाता है, जो बिना किसी बाहरी सहायता के अपने सभी कार्यों को करने में सक्षम है। साथ ही, वह ईश्वर आत्माओं की सभी गतिविधियों का आधार है।
कुछ लोगों में यह धारणा है कि चूंकि ईश्वर इस ब्रह्मांड में आत्मा के शरीर में व्याप्त होने के समान व्याप्त है, इसलिए इस ब्रह्मांड को ईश्वर का शरीर कहा जा सकता है। जब यह कहा जाता है कि सूर्य और चंद्रमा इस दुनिया की आंखें हैं, तो ऐसे लोग कल्पना करते हैं कि ईश्वर इन आंखों से उसी तरह देखते हैं, जैसे मनुष्य देखता है। साथ ही, वे परमेश्वर में मनुष्य के समान गतिविधियों की कल्पना करते हैं। इस मानसिकता के कारण, ऐसे लोग समझते हैं कि ईश्वर को भोजन, पत्नी, बच्चों आदि की भी आवश्यकता होती है। मनुष्य को ईश्वर का अनुसरण करने के लिए प्रेरित करने के बजाय, वे कल्पना करते हैं कि ईश्वर मनुष्य का अनुसरण करता है। यह धारणा ईश्वर की व्यापकता के संबंध में प्रयुक्त उपमा की भावना को न समझने के कारण विकसित हुई है। इस धारणा के कारण आस्तिक अपने में कमियाँ विकसित कर लेते हैं, जिनकी हँसी उड़ाई जाती है। इस तरह की धारणाएं इसलिए पनप पाती हैं, क्योंकि मनुष्य की खुद को अपर्याप्त तर्क से संतुष्ट करने की आदत बन गई है।
जो व्यक्ति ईश्वर को पवित्र, देहरहित, पापरहित, ज्ञानी, सबका आधार और किसी बाहरी सहायता की आवश्यकता के बिना समझता है, वहीं व्यक्ति ‘संदेह’, ‘लगाव’ और ‘दुःख’ से मुक्त होता है।
अब प्रश्न यह उठता है कि यदि ईश्वर को किसी प्रकार की कोई आवश्यकता ही नहीं है, तो वह इस ब्रह्मांड की रचना ही क्यों करता है? कुछ लोगों का मानना है कि चूंकि पूरे अंतरिक्ष के एक हजार मिलियन से भी कम हिस्से में जीवन संभव है, तो यह विश्वास करना मुश्किल है कि यह ब्रह्मांड आत्माओं के विकास के लिए बनाया गया है। इस कारण, ऐसे लोग कहते हैं कि या तो यह माना जाना चाहिए कि यह ब्रह्मांड आत्माओं के विकास के लिए नहीं बनाया गया है या इस ब्रह्मांड का निर्माता एक बुद्धिमान प्राणी नहीं हैं, क्योंकि, दस विद्यार्थियों के लिए स्कूल खोलने की इच्छा रखने वाला व्यक्ति स्कूल का निर्माण लाखों एकड़ भूमि पर नहीं करेगा। इसके उत्तर में हम कह सकते हैं कि आधुनिक वैज्ञानिकों ने इस ब्रह्मांड की विशालता का पता तो लगा लिया है, लेकिन उन्हें अभी भी जीवन की विशालता का पता लगाना है। अनेक आत्माओं की अनेक आवश्यकताओं के बारे में सोचने पर हम इस ब्रह्मांड की विशालता की उपयोगिता को समझ सकते हैं। यदि हम अपने को अल्प बुद्धि वाला समझते हैं, तो हमारे सामने दो विकल्प होते हैं- एक यह मानना कि यह ब्रह्मांड अर्थहीन है और दूसरा यह मानना कि यद्यपि यह ब्रह्मांड अर्थपूर्ण है लेकिन, हम इसकी वास्तविक उपयोगिता को नहीं समझ पा रहे हैं। इन दो विकल्पों में से दूसरा विकल्प अधिक उचित है। यहां एक उदाहरण का जिक्र करना जरूरी है। एक बार एक यूरोपियन अफ्रीका में पिछड़ी जाति ‘बद्दू’ के गांव में ठहरा। एक सुबह, जब वह अपने टेंट के सामने टहल रहा था, तो बद्दू उस पर हंसने लगे जैसे कि वह पागल हो। वे यह समझने में असफल रहे कि टहलने का भी एक उद्देश्य हो सकता है। उसी तरह, हम इस ब्रह्मांड के निर्माण के उद्देश्य को नहीं समझ पा रहे हैं। इस ब्रह्मांड को देखते ही हमारे मन में दो विचार आ सकते हैं। एक है- इस ब्रह्मांड का एक उद्देश्य है और उस उद्देश्य का पता लगाना चाहिए। दूसरा है-इस ब्रह्मांड का कोई प्रयोजन नहीं है। इन दोनों में से कौन सा विकल्प वैज्ञानिक है?
नौवां मन्त्र – अन्धं से रताः
दसवां मन्त्र – अन्यदेवाहुः से विचचक्षिरे
ग्यारहवां मन्त्र – सम्भूतिं से सम्भूत्याअमृतमश्नुते
नवम मन्त्र का अर्थ— जो मृत्यु की उपासना करते हैं, उन्हें अन्धकार मिलता है और जो संसार की उपासना करते हैं, वे ओर अधिक अंधकारमय अंत को प्राप्त होते हैं।
दसवें मन्त्र का अर्थ— हमें विद्वानों ने समझाया है कि मृत्यु का ज्ञान और संसार का ज्ञान अलग-अलग चीजों की प्राप्ति कराते हैं।
ग्यारहवें मन्त्र का अर्थ—जिसने मृत्यु अर्थात प्रलय का ज्ञान और संसार का ज्ञान एक साथ प्राप्त कर लिया है, वह मृत्यु अर्थात प्रलय के ज्ञान से मृत्यु के सागर को पार कर जाता है और संसार के ज्ञान से मृत्यु के पार जाकर अनंत आनंद को प्राप्त करता है।
व्याख्या—पिछले मंत्र में कहा गया है कि ईश्वर ने अलग-अलग प्राणियों को उनके कर्मों के अनुसार अलग-अलग वस्तुएं आंबटित की हैं। ब्रह्मांड के संबंध में दो धारणाएं हैं।
चूँकि, संसार की हर वस्तु का नाश निश्चित है, इसलिए अधिकतर सम्प्रदायों द्वारा सांसारिक वस्तुओं के प्रति अच्छी भावना नहीं रखी जाती। उनकी यह धारणा है कि चूंकि मृत्यु ही परम सत्य है, इसलिए आध्यात्मिक व्यक्ति को सांसारिक चीजों से पूरी तरह से अलग हो जाना चाहिए। इन मन्त्रों में ऐसे व्यक्तियों को ‘मृत्यु’ का उपासक कहा गया है। ऐसे लोग घर बनाना, पैसा कमाना आदि हर सांसारिक कार्य को व्यर्थ समझते हैं। यदि संसार के प्रत्येक कार्य का परित्याग कर देना चाहिए, तो क्या करना चाहिए? क्या हमें जीवन के बारे में नहीं सोचना चाहिए और इसके बजाय मृत्यु की पूजा करना शुरु कर देना चाहिए? यदि हम थोड़ा विचार करें, तो हमें पता चलेगा कि सभी प्रचलित संप्रदायों की शिक्षा मृत्यु के लिए है, जीवन के लिए नहीं। ऐसे लोगों की मानसिकता को एक उदाहरण से बेहतर समझा जा सकता है। एक बार, एक ईसाई संत अगस्त्यन से एक व्यक्ति ने कहा, “आप मानते हैं कि विवाह एक पाप है। लेकिन, इस संस्था के बिना पूरी दुनिया का अंत हो जाएगा।” संत ने उत्तर दिया, “यह बेहतर होगा। कम पापी पैदा होंगे और परमेश्वर के नरक में भी कम पापी होंगे।” उनसे पूछा जाना चाहिए था कि यदि यही उद्देश्य होता, तो ईश्वर इस संसार की रचना न करके इस उद्देश्य को पूरा कर सकता था। दरअसल, इस तरह की मानसिकता मनुष्य को इस दुनिया की सुंदरता का आनंद लेने से रोकती है।
दूसरे प्रकार के लोग वे होते हैं, जो इस संसार को सब कुछ मानते हैं। वे इस दुनिया से परे सोच ही नहीं पाते। हर दिन, वे लोगों को मरते हुए देखते हैं, लेकिन फिर भी सोचते हैं कि वे खुद कभी नहीं मरेंगे। ऐसा नहीं है कि ऐसे लोगों ने तर्क से सिद्ध कर दिया है कि यह संसार शाश्वत है। उनका संसार की नित्यता या अनित्यता से कोई मतलब नहीं है। इस दुनिया के अधिकांश लोगों की मानसिकता ऐसी ही है।
यह उपनिषद कहता है कि जो लोग सभी सांसारिक चीजों को व्यर्थ मानते हैं, उन्हें अंधेरे के अलावा और कुछ नहीं मिलता है और जो लोग इस दुनिया को ही सब कुछ मानते हैं, वे ओर भी अधिक अंधकार को प्राप्त होते हैं।
उपनिषद की इस अवधारणा को समझने के लिए हम एक उदाहरण का सहारा लेते हैं। मान लीजिए, एक स्वामी अपने सेवक को दो महीने के लिए दूसरे स्थान पर काम के सिलसिले में भेजता है। इस सेवक की तीन प्रकार की मानसिकताएं हो सकती है। पहली मानसिकता – क्योंकि, मुझे इस शहर में ज्यादा दिन नहीं रहना है, इसलिए बेहतर होगा कि मैं रेलवे प्लेटफॉर्म पर ही रुक जाऊं। जब मैं इस शहर में रहने वाला नहीं हूं, तो शहर के निवासियों के साथ कोई संबंध विकसित करना बेकार होगा। मुझे उस समय का बेसब्री से इंतजार करना चाहिए, जब मैं वापस जाऊंगा। दूसरी मानसिकता- शहर अच्छा है। मुझे शहर के निवासियों के साथ संबंध विकसित करने चाहिएं, शादी करनी चाहिए और यहीं बस जाना चाहिए। यदि स्वामी वापस आने के लिए कहता है, तो मैं उसके ऐसे पत्र कूड़ेदान के हवाले कर दूंगा। तीसरी मानसिकता- हालाँकि, इस शहर में मेरा प्रवास केवल दो महीने का है, मुझे अच्छी तरह से रहना चाहिए और जिस काम के लिए मुझे भेजा गया है, उसे पूरा करना चाहिए। ऐसे में मुझे उन सभी संसाधनों को इकट्ठा करना चाहिए, जो मेरे काम को पूरा करने के लिए आवश्यक हैं, ताकि शहर में मेरा आना बेकार न हो। यदि आप ऐसे सेवक के स्वामी हों, तो निस्संदेह आप सेवक की पहली दो मानसिकताओं की उपेक्षा करेंगे और तीसरी मानसिकता का चुनाव करेंगे। सेवक की पहली मानसिकता खराब है, क्योंकि इस मानसिकता में काम पूरा नहीं होता, लेकिन सेवक की दूसरी मानसिकता इस मायने में बदतर है कि इससे न केवल काम पूरा नहीं होता, बल्कि सेवक भी हाथ से निकल जाता है।
निःसंदेह मृत्यु के उपासक अपने आप को सांसारिक मामलों में अनावश्यक रूप से तल्लीन होने से बचा लेते हैं और ऐसी मानसिकता के परिणामस्वरूप वे मृत्यु पर कम दुख को प्राप्त होते हैं, लेकिन ऐसे लोग नकारात्मकता से भरे होते हैं। वे एक ऐसे यात्री की तरह होते हैं, जिसे रेलवे स्टेशन पर मजबूरन उतरना तो पड़ता है, पर वह शहर में प्रवेश नहीं करना चाहता व जल्द से जल्द वापस जाना चाहता है। ऐसे लोग इस संसार को अनादि और अनुपयोगी समझते हैं। यह सत्य है कि यह संसार अनादि है, परन्तु यह सत्य नहीं है कि यह संसार अनुपयोगी है या इसका कोई उद्देश्य नहीं है। हम इस संसार में एक खास काम को पूरा करने के लिए आए हैं। यदि यह संसार अर्थहीन होता, तो ईश्वर इसे न बनाता। लोग अपनी मूर्खता के कारण इस संसार को व्यर्थ और स्वप्न के समान समझते हैं।
यदि मृत्यु अर्थात प्रलय और संसार का ज्ञान एक साथ हो जाएं, तो मृत्यु का ज्ञान होने से अर्थात् सभी सांसारिक वस्तुओं के विनाश की निश्चितता को जानकर व्यक्ति मृत्यु के भय से मुक्त हो जाता है और संसार को जानकर अर्थात सृष्टि के उद्देश्य को जानकर अनंत आनंद को प्राप्त करने का पात्र बन जाता है।
बारहवां मन्त्र – अन्धंतमः से रताः
तेरहवां मन्त्र – अन्यदेवाहुर्विद्याया से विचचक्षिरे
चौदहवां मन्त्र – विद्यां से विद्ययाअमृतमश्नुते
बारहवें मन्त्र का अर्थ—अज्ञान के उपासकों को अन्धकार और ज्ञान के उपासकों को ओर भी अधिक अन्धकार की प्राप्ति होती है।
तेरहवें मन्त्र का अर्थ—विद्वानों ने समझाया है कि अज्ञान का ज्ञान और ज्ञान का ज्ञान भिन्न-भिन्न लक्ष्यों को प्राप्त कराने वाले होते हैं।
चौदहवें मन्त्र का अर्थ—जिसने अज्ञान का ज्ञान और ज्ञान का ज्ञान एक साथ प्राप्त कर लिया है, वह अज्ञान अर्थात अविद्या के ज्ञान से मृत्यु के भय से मुक्त हो जाता है और ज्ञान के ज्ञान से अंतिम लक्ष्य अनंत आनंद को प्राप्त करता है।
व्याख्या—ये मंत्र एक भूलभुलैया हैं। यह तो समझ आता है कि अज्ञान के उपासक अंधकार को प्राप्त होते हैं, लेकिन ऐसा क्यों है कि ज्ञान के उपासक ओर भी अधिक अंधकार को प्राप्त होते हैं? यहाँ, वस्तुतः ‘अज्ञान के ज्ञान’ और ‘ज्ञान के ज्ञान’ की बात की गई है।
सामान्य शब्दों में किसी वस्तु को जानना ‘ज्ञान’ कहलाता है और किसी वस्तु का न जानना ‘अज्ञान’ कहलाता है। लेकिन प्रश्न यह है कि – ‘ज्ञान का ज्ञान’ और ‘अज्ञान का ज्ञान’ कैसे प्राप्त करें? सबसे पहले हम इस पर विचार करते हैं कि ‘ज्ञान का ज्ञान’ और ‘अज्ञान का ज्ञान’ क्या हैं?
अज्ञान सभी मूर्खों और जड़ वस्तुओं में विद्यमान है। जिस चीज का मुझे ज्ञान नहीं है, उसके संबंध में मैं उतना ही अज्ञेय हूं, जितना कि मेरी कुर्सी, जिस पर मैं वर्तमान में बैठा हूं, लेकिन मेरे ‘अज्ञान के ज्ञान’ की तुलना मेरी कुर्सी से नहीं की जा सकती। वस्तुतः ज्ञान और अज्ञान एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। कैसे? आइए हम ‘चिकित्सा विज्ञान’ पर विचार करें। इस विज्ञान का पहला भाग स्वस्थ रहने के तरीकों और साधनों की चर्चा करता है और इसका दूसरा भाग विभिन्न रोगों के कारणों और उनके उपचार से संबंधित है। ये दोनों भाग मिलकर ही ‘चिकित्सा विज्ञान’ कहलाते हैं। उसी तरह केवल ‘ज्ञान का ज्ञान’ होने पर परम आनंद प्राप्त नहीं किया जा सकता। अनन्त आनंद प्राप्त करने के योग्य होने के लिए ‘ज्ञान के ज्ञान’ और ‘अज्ञान के ज्ञान’ को एक साथ प्राप्त किया जाना आवश्यक है।
यदि हम मानव इतिहास में व्यक्तियों की असफलताओं के कारणों का पता लगाने का प्रयास करें, तो ऐसे सभी कारणों के आधार पर हम देखेंगे कि ये लोग परिस्थितियों का सही ढंग से आंकलन करने में असफल रहे। ऐसी मूर्खताएँ इसलिए हुईं, क्योंकि इन लोगों ने अपने अज्ञान के कारणों पर विचार नहीं किया। आमतौर पर लोग अज्ञान के प्रभावों पर ध्यान देते हैं, लेकिन वे अज्ञान के कारणों के बारे में विचार नहीं करते। जिस व्यक्ति को ‘अज्ञान का ज्ञान’ है, वह जानता है कि अज्ञान क्या है?, यह कैसे उत्पन्न होता है?, इसे कैसे नष्ट किया जा सकता है?, अज्ञान का ज्ञान कैसे हो सकता है? और ‘अज्ञान का ज्ञान’ होने से क्या लाभ हैं?
अब, क्या संसार में कोई ऐसा हो सकता है, जो अंधकार या अज्ञान से प्रेम करता हो और प्रकाश या ज्ञान से घृणा करता हो? हां! अविद्या के उपासक वे लोग हैं, जो इस ब्रह्मांड के रहस्यों का अनावरण करने को बुरा समझते हैं। ऐसे लोग विज्ञान और धर्म को एक दूसरे के विरोधी मानते हैं। दरअसल, यह ब्रह्मांड ईश्वर की निर्दोष पुस्तक है। विभिन्न धार्मिक पुस्तकों द्वारा प्रतिपादित सिद्धांतों और ब्रह्मांड में देखे गए उन सिद्धांतों की व्यावहारिकता के बीच एक महान समन्वय है। यदि इन दोनों में अंतर पाया जाता है, तो धार्मिक ग्रंथों द्वारा दिए गए सिद्धांतों को स्वीकार किया जाता है। इसके विपरीत, सृष्टि चक्र व क्रम के खिलाफ होने पर धार्मिक पुस्तकों द्वारा कही बातों को छोड़ देना चाहिए। यह मन्त्र कहता है कि जिन लोगों को लगता है कि अविद्या का ज्ञान नहीं होना चाहिए, उन्हें अन्धकार की प्राप्ति होती है।
कुछ विद्वान ‘अविद्या के ज्ञान’ का अर्थ ‘बिना ज्ञान के किए जाने वाले कर्म’ करते हैं और मंत्र के इस भाग का अर्थ करते हैं – बिना ज्ञान के कर्मों को करने वाले अन्धकार को प्राप्त होते हैं।
अब आता है मंत्र का दूसरा भाग, जो एक बहुत ही अजीब बात कहता है कि ज्ञान के उपासक ओर भी गहरे अंधकार को प्राप्त होते हैं। कैसे? ज्ञानी व्यक्तियों को यह अनुभव होने लगता है कि वे जो कुछ भी जानते हैं वह अन्तिम ज्ञान है और उससे परे कुछ भी नहीं है। इस संबंध में वे अहंकारी हो जाते हैं और ऐसे व्यक्ति विज्ञान की भावना को ही स्वीकार नहीं कर पाते और इस सत्य को नकार देते हैं कि ज्ञान अनन्त है। ऐसे लोग अपनी इस मानसिकता से समाज को बहुत नुकसान पहुंचाते हैं।
इस मन्त्र में आए ‘अविद्या’ शब्द का अर्थ ‘बिना ज्ञान के किए जाने वाले कर्म’ करने वाले विद्वान मंत्र के इस भाग का अर्थ करते हैं-जो ज्ञान के उपासक संबंधित कर्म नहीं करते, वे ओर भी गहरे अन्धकार को प्राप्त होते हैं। ऐसे विद्वानों का ‘अविद्या’ शब्द से ‘ज्ञान के बिना किए जाने वाले कर्म’ का अर्थ लिया जाना संस्कृत भाषा की भावना के बिल्कुल भी विरुद्ध नहीं है।
इन दोनों प्रकार के लोगों की कमियां बताने के बाद इस समूह का दूसरा मन्त्र कहता है कि अज्ञान के ज्ञान और ज्ञान के ज्ञान के प्रभाव अलग-अलग होते हैं। हमें एक दूसरे के संबंध में इनकी सीमाओं को समझना चाहिए। तीसरा मन्त्र कहता है कि ‘अज्ञान का ज्ञान’ और ‘ज्ञान का ज्ञान’ एक साथ प्राप्त करने पर व्यक्ति अविद्या के ज्ञान से मृत्यु के भय से मुक्त हो जाता है और ज्ञान के ज्ञान से अनंत आनंद को प्राप्त करता है। यहां यह याद रखना चाहिए कि मृत्यु से न डरना और आनंद प्राप्त करना दो अलग-अलग चीजें हैं। अंधा व्यक्ति या कोई भी व्यक्ति उत्साह के कारण मृत्यु से भयभीत नहीं हो सकता, लेकिन ऐसे व्यक्ति को आनंद नहीं मिल सकता।
मंत्रों के इस समूह के साथ मंत्रों के पिछले समूह की तुलना करने पर, यह स्पष्ट हो जाता है कि ‘मृत्यु की पूजा’ और ‘अज्ञान के ज्ञान’ व ‘दुनिया की पूजा’ और ‘ज्ञान के ज्ञान’ को समान माना गया है।
पन्द्रहवां मन्त्र -वायुरनिलममृतमथेदं से स्मर
इस मंत्र का अर्थ—- आत्मा अभौतिक है और शाश्वत है। आत्मा के विपरीत, इस शरीर का नाश होना निश्चित है। हे आत्मा! ओम को याद रखो व अपने पिछले कर्मों को भी याद रखो।
व्याख्या—सारा ज्ञान और सारी शिक्षाएं आत्मा के लिए ही हैं। ईश्वर की प्रकृति, इस संसार की प्रकृति और इन दोनों के बीच के संबंध का उल्लेख करने के बाद, यह उपनिषद अब आत्मा और शरीर की प्रकृतियों की बात करता है। यहाँ इस मन्त्र में, दो पर्यायवाची शब्दों से आत्मा के दो गुणों का वर्णन किया गया है। पहला गुण जड़ वस्तुओं में गति लाने की उसकी क्षमता है। जब तक जड़ पदार्थ आत्मा के संपर्क में नहीं आते, तब तक वे गतिहीन रहते हैं। जड़ वस्तुओं की सजीवता उनकी अपनी नहीं है, बल्कि आत्माओं से उधार ली होती है, उदाहरण के लिए कलम की गति और उसका ज्ञान आत्मा को धारण करने वाले से उधार लिया हुआ होता है। शरीर ओर कुछ नहीं बल्कि, आत्मा का प्रकृति के साथ निकटतम संपर्क है। इसका दूसरा गुण अभौतिक होना है। सभी सांसारिक चीजें पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश जैसे तत्वों का संयोजन हैं। लेकिन, चूंकि आत्मा इन तत्वों का संयोजन नहीं है, इसलिए इसे ठीक ही शाश्वत व अपरिवर्तनीय कहा जाता है।
प्रत्येक व्यक्ति को यह सोचना चाहिए कि ‘आत्मा क्या है?’ लेकिन आम तौर पर, लोगों को यह जानने में कोई दिलचस्पी नहीं होती कि वे कौन हैं और इसके बजाय वे अपना पूरा जीवन अन्य चीजों के बारे में जानने में लगा देते हैं। दरअसल, किसी व्यक्ति के कर्तव्यों को उसकी पद से परिभाषित किया जाता है। उदाहरण के लिए, किसी व्यक्ति के कर्तव्य चपरासी के हैं या प्रबंधक के, इस तथ्य पर निर्भर करता है कि वह चपरासी है या प्रबंधक। आत्मा के वास्तविक स्वरूप को जाने बिना आत्मा के कर्तव्यों और अधिकारों को जानना संभव नहीं है।
कुछ लोगों की धारणा है कि शरीर के निर्माण के समय, ईश्वर आत्मा का भी निर्माण करता है और इन दोनों को संयुक्त कर देता है। ईश्वर द्वारा बनाई गई यह आत्मा भौतिक शरीर की मृत्यु के बाद भी स्वर्ग या नरक को भोगने के लिए बनी रहती है। इस धारणा में आत्मा का आदि तो है, पर अंत नहीं। वेद इस धारणा के विरुद्ध हैं। जो लोग आत्माओं को रचा हुआ मानते हैं, वे ‘सृजन’ के वास्तविक अर्थ को नहीं समझते। वास्तव में, सृजन का मतलब ‘संयोजन’ के अलावा ओर कुछ नहीं है। मिट्टी खोदना ‘विघटन’ है और उस मिट्टी से घड़ा बनाना ‘संयोजन’ है। एक वस्तु, जो न तो ‘संयोजन’ का परिणाम है और न ही ‘विघटन’ का, उसे निर्मित नहीं कहा जा सकता। इसीलिए आत्मा, जो ‘संयोजन’ और/या ‘विघटन’ का परिणाम नहीं है, को निर्मित नहीं कहा जा सकता। चूँकि, केवल सृजित वस्तुओं का ही अंत होता है, यह कहा जा सकता है कि आत्मा शाश्वत है। लेकिन इस शरीर का अंतिम परिणाम जला दिया जाना है, ताकि यह उन तत्वों में वापस मिल सके, जिनसे इसे बनाया गया था। इस मंत्र में, इस शरीर को आत्मा-रहित हो जाने पर जलाने का उल्लेख किया गया है, क्योंकि शरीर के तत्वों को उनके स्रोतों में वापिस मिलाने का यही एकमात्र तरीका है। यह एक स्थापित तथ्य है कि शरीर छोड़ने के बाद आत्मा का शरीर से कोई सरोकार नहीं होता। आत्मा के जाने के बाद, शरीर विघटित होना शुरु हो जाता है। शरीर को इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि वह दफनाया गया है या जलाया गया है। शव के साथ किए गए हमारे व्यवहार से आत्मा को किसी भी तरह का कोई नुकसान नहीं होता। जीवित व्यक्तियों को ही यह तय करना होता है कि मृत शरीर को सड़ने के लिए छोड़ दिया जाए व उसे पृथ्वी प्रदूषण, वायु प्रदूषण और विभिन्न तरह की बीमारियों का कारण बनने दिया जाए या जितनी जल्दी हो सके उसके तत्वों को संबंधित स्रोतों में वापस मिला दिया जाए। यदि इस सृष्टि के प्रारंभ से ही सभी शवों को दफनाया गया होता, तो आज जीवित लोगों के लिए एक इंच भी धरती नहीं होती। इसी वजह से शवों को जलाने का निर्देश दिया गया है।
आत्मा की नित्यता की बात करने के बाद, इस मंत्र के दूसरे भाग में, आत्मा को ईश्वर और उसके पहले के कर्मों को याद करने की सलाह दी गई है। हम कैसे जानें कि यह सलाह शरीर के लिए नहीं, आत्मा के लिए है? शरीर के परमाणु हर समय बदलते रहते हैं और उनमें याद रखने की शक्ति नहीं होती। केवल वहीं चीज, जो नहीं बदलती और चेतन है, ही याद रख सकती है। किसी वस्तु को देखने से जो ज्ञान प्राप्त होता है, वह आँखों के पास नहीं रहता, बल्कि किसी अन्य सत्ता को सौंप दिया जाता है। अगर वह ज्ञान आंखों के पास रहता तो, आंखें ओर कुछ नहीं देख पातीं। एक प्रश्न उठता है- वह कौन सी सत्ता है, जिसे इंद्रियों द्वारा प्राप्त ज्ञान हस्तांतरित किया जाता है? मन को वह सत्ता मानना गलत है। ‘मन’ इन्द्रियों से अधिक चंचल है। इन्द्रियों का कुछ समय के लिए अपने विषयों पर स्थिर रहना संभव है, लेकिन ‘मन’ के लिए किसी एक विषय पर टिका रहना इन्द्रियों की अपेक्षा अधिक कठिन है। साथ ही, ‘मन’ एक समय में एक से अधिक ज्ञान को प्राप्त नहीं कर सकता। फिर वह सत्ता कौन है, जो विभिन्न इंद्रियों और ‘मन’ द्वारा एकत्रित विभिन्न सूचनाओं का रिकॉर्ड रखती है? आत्मा ही वह सत्ता है। विभिन्न इंद्रियों और ‘मन’ द्वारा एकत्रित सभी जानकारियां आत्मा में, जो चेतन, परिवर्तनहीन और शाश्वत है, जमा हो जाती हैं। इस बात को अच्छी तरह समझने के लिए, हम एक उदाहरण की सहायता लेते हैं। देखने के लिए हमें दीपक की रोशनी की आवश्यकता होती है या यूँ कहें कि दीपक देखने का माध्यम बना रहता है, परन्तु कोई भी व्यक्ति यह नहीं मानता कि देखने वाला दीपक है। उसी प्रकार शरीर के होने पर ही कोई वस्तु याद की जा सकती है, लेकिन शरीर तो स्मरण करने का साधन मात्र है। दरअसल, शरीर में रहने वाली आत्मा ही चीज को याद रखती है। आचार्य शंकर के अनुसार, स्मृति आत्मा के अस्तित्व का प्रमाण है।
यह स्थापित करने के बाद कि वह आत्मा है, जो स्मरण करती है, हम आत्मा को ईश्वर को याद करने के साथ-साथ अपने पिछले कर्मों को याद करने की सलाह पर लौटते हैं। जब आत्मा नित्य है, तो उसका शाश्वत सम्बन्ध भी एक सनातन सत्ता से ही होना चाहिए। ईश्वर, जिसका निज नाम ‘ओम’ है, का स्मरण करने से आत्मा अपनी संकीर्णता दूरकर अपने हृदय को अधिक से अधिक बड़ा व महान बना सकती है। अपने हृदय की संकीर्णता को दूर करके वह वास्तव में इस संसार के अन्य प्राणियों के लिए भी उपयोगी सिद्ध होगी। ईश्वर को याद रखने के साथ-साथ आत्मा को अपने पिछले कर्मों को भी याद रखना चाहिए। ऐसा करने से वह अपने कर्मों में आ चुकी गलत प्रवृत्तियों को दूर करने में सक्षम होगी।
सोलहवां मन्त्र -अग्ने नय से उक्तिं विधेम
इस मंत्र का अर्थ—हे ईश्वर! आप हमारे कर्मों के आधारभूत संस्कारों व प्रवृत्तियों से अवगत हैं। तदनुसार, आप हमें पापों से बचने में मदद करें। ये पाप कर्म हमारी प्रगति के मार्ग में बहुत बड़ी बाधा हैं। इस कारण, हम आपको बार-बार नमन करते हैं।
व्याख्या—पिछले मंत्र में हमें अपने पिछले कर्मों को याद करने का निर्देश दिया गया था। अपने अतीत को याद करना हमें विकास के पथ पर कैसे अग्रसर कर सकता है? इस मंत्र में इस बात को समझाया गया है। ‘पहले खुद कोशिश करना’ हमें मदद के लिए ईश्वर से प्रार्थना करने के लिए अधिकृत करता है। अपने पिछले कर्मों को याद करके ही हम अपने संस्कारों का विश्लेषण कर सकते हैं और अपने बुरे संस्कारों या प्रवृत्तियों को कमजोर करने और वांछित संस्कारों को मजबूत करने या उनका बीज बोने का प्रयास कर सकते हैं। ईश्वर हमारे सभी संस्कारों को जानता है। तदनुसार, वह जानता है कि आत्माएँ कहाँ और कैसी गलतियाँ करती हैं। साथ ही, उसके पास हमारे बुरे संस्कारों या प्रवृत्तियों को कमजोर करने और वांछित संस्कारों को मजबूत करने या उनके बीज बोने में हमारी मदद करने की क्षमता और शक्ति है। ईश्वर एक ऐसा प्रकाश है, जिसमें हम चीजों के यथार्थ स्वरूप को देख यानि समझ पाते हैं। जब आत्मा ईश्वर को याद करती है, तो वह चीजों की यथार्थता समझने लगती है और उसमें बुरे संस्कारों के प्रति एक तरह की नापसंदगी पैदा हो जाती है। एक पापी को उसके पापों से छुड़ाने का सबसे अच्छा तरीका है कि उसके मन में पापों के प्रति घृणा विकसित की जाए क्योंकि, मनुष्य तब तक ही पाप कर पाता है, जब तक उसे पापों के प्रति लगाव होता है। ईश्वर को याद करने से आत्मा में पापों के प्रति नापसंदगी पैदा होती है। पापों के मार्ग को छोड़ने में हमारी मदद करने के लिए ईश्वर से प्रार्थना तभी सार्थक होती है, जब हम स्वयं भी अपनी क्षमता के अनुसार इस दिशा में प्रयास करें।
सत्रहवां मन्त्र -हिरण्मयेन से खं ब्रह्म
इस मंत्र का अर्थ—ईश्वर आत्माओं को सलाह देता है कि सत्य चमचमाते ढक्क्न से ढका हुआ है। सूर्य की आत्मा मैं ही हूं।
व्याख्या—बच्चों की तरह बड़े भी वस्तुओं की बहरी चमक से मोहित होकर गहराई में जाने से बचते हैं। ईश्वर आत्माओं को सलाह देते हैं कि वे चीजों की बाहरी चमक से आकर्षित न हों, बल्कि उनकी गहराई में जाकर उन्हें समझने की कोशिश करें। इसके लिए सांसारिक सूर्य का उदाहरण दिया गया है। सूर्य को देखकर मनुष्य उसकी चमक के आगे झुक जाता है और सोचता है कि पृथ्वी पर संपूर्ण प्रकाश का स्रोत सूर्य ही है, लेकिन यह सच नहीं है। सूर्य में जो चमक है, वह ईश्वर की है। लेकिन इस बात को तभी समझा जा सकता है, जब बाहरी चमक को नज़र-अंदाज़ करके विषय की गहराई में जाएं।
-अधिकांश विचार पंडित गंगाप्रसाद उपाध्याय जी के हैं
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