नौवां मन्त्र
सहृदयं सांमनस्यमविद्वेषं
कृणोमि वः।
अन्यो अन्यमभि हर्यत वत्सं
जातमिवाघ्न्या ।।
-अथर्ववेद काण्ड ३,
सूक्त ३0, मन्त्र १
अर्थ– मैं तुमको हृदयवाला, मनवाला और द्वेषरहित बनाता हूँ।
एक मनुष्य दूसरे मनुष्य के साथ ऐसा व्यवहार करे, जैसे गाय
नव-उत्पन्न बछड़े के साथ करती है।
व्याख्या– इस मन्त्र में यह उपदेश दिया गया है कि मनुष्यों को एक-दूसरे के साथ कैसे
बर्तना चाहिए। तुम लोगों को मैं बनाता हूं, अर्थात् मेरे
उपदेश का उद्देश्य यह है कि आप ऐसे बन जाएँ। यहां उपदेशक कौन है और किसको उपदेश दे
रहा है? सभी वेदमन्त्रों की यह शैली है कि वे ईश्वर की ओर से
मनुष्यों के लिए अथवा आचार्यों की ओर से शिष्यों को या उपदेशकों की ओर से श्रोताओं
के प्रति उपदेश हैं। वैदिक भाषा में ‘ऋषि’ वेद को कहते हैं, अर्थात् प्रत्येक उपदेशक को ऐसा
उपदेश देना चाहिए कि मनुष्य अपना आचरण सुधार सकें। ‘कृणोमि’
का अर्थ है ‘करोमि’, या
बनाता हूं। मनुष्य कैसा हो? ‘सहृदयम्’ या
हृदयवाले, ‘सांमनस्यम्’ मस्तिष्कवाले,
‘अविद्वेषम्’ द्वेष न करनेवाले। आदर्श मनुष्य
के यही लक्षण हैं। हृदय प्रतीक है, प्रेम का। मन या विचार
प्रतीक है, बुद्धि का। अविद्वेषिता प्रतीक है, विश्वहित का। हृदय में प्रेम हो और बुद्धि न हो तो विश्वहित में बाधा पड़ती
है, नादान दोस्त से बुद्धिमान् दुश्मन अच्छा समझा जाता है।
जिसमें बुद्धि न हो, ऐसा दोस्त अपने लिए भी हानिकारक है और
दूसरों के लिए भी। कल्पना कीजिए कि आप सो रहे हैं, आपकी नाक
पर एक भिंड (बर्र) बैठ जाती है। आपका एक नादान दोस्त आपके पास बैठा है। आपके प्रेम
से प्रेरित होकर वह आपको भिंड के काटने से बचाना चाहता है और पास से एक पत्थर
उठाकर आपकी नाक पर मार देता है। भिंड उड़ जाती है और आपकी नाक घायल हो जाती है। ऐसे
व्यवहार को आप क्या कहेंगे? दोस्त हृदय वाला है, परन्तु मस्तिष्क शून्य है।
क्या आपको ज्ञात है कि संसार
में ऐसे बु़द्धिहीन सहृदय कितने लोग हैं? लाखों माताएं
मूर्खतायुक्त प्रेम के कारण अपनी सन्तान को नष्ट कर देती हैं। हजारों प्रेमी लोग
प्रेम का अनुचित प्रदर्शन करते हैं। बुद्धिहीन प्रेम के कई रूप हैं, कहीं मोह है, कहीं मद, कहीं
प्रमाद, कहीं कामुकता। इन सबके हृदय में प्यार है। परन्तु,
यह सब प्यार नहीं है, प्यार का ढोंग है। इसमें
सहृदयता का सर्वथा अभाव है। वेदमन्त्र का उद्देश्य ऐसी सहृदयता नहीं है। उसके लिए
सौमनस्यता की आवश्यकता है। बुद्धिमान् मित्र आपका हितैषी है। इसलिए, प्रेम के साथ यथेष्ट ज्ञान की आवश्यकता है। जो बुद्धिमान् शत्रु है,
वह कम-से-कम अपने हित को समझकर आपको अपने हित की सुरक्षा के लिए ही
मित्र बनाना चाहता है। जो बुद्धिमान् पुरुष है, वह यह भी
अनुभव करेगा कि दूसरों के हित में ही अपना हित है, अतः वह
परमार्थ के लिए न सही, स्वार्थ के लिए भी विश्व-हित में
भागीदार हो जाता है। जो पुरुष वृक्ष की शाखा पर बैठा हुआ है, यह सोचता है कि यदि वृक्ष की शाखा कट गई तो वह कहां रहेगा, वह कितना मूर्ख है। भारतवर्ष का इतिहास बताता है कि बुद्धिहीन
देशहितैषियों ने कितनी बार भारत की स्वतन्त्रता को नष्ट कर दिया। इसलिए, सहृदयता के लिए सांमनस्य की परम आवश्यकता है। दोनों भावनाएं मिलकर ही
विद्वेष की भावना को दूर कर सकेंगी। विद्वेष भयानक रोग है, सांक्रमिक
रोग है। जहां सब रोग समाप्त हो जाते हैं, विद्वेष शेष रहता
है। वेद के अन्य मन्त्रों में भी विद्वेश के दोषों की ओर संकेत किया गया है।
उपनिषदों में उल्लेख मिलता है कि जब आचार्य शिष्य को उपदेश देता था, तो आचार्य और शिष्य दोनों मिलकर व्रत करते थे कि हम दोनों कभी एक-दूसरे से
द्वेष न करेंगे। यदि इस प्रथा को सत्यता के साथ सुव्यवस्थित रक्खा जाए, तो देश के विद्यालय देश के कल्याण का कारण बन सकते हैं। मनुष्य को दूसरे
मनुष्यों के साथ उचित व्यवहार करने के लिए तीन साधनों का सम्मिलन अत्यावश्यक है-
(१) प्रेम करो, (२) बुद्धि के साथ प्रेम करो, (३) इस प्रकार बर्ताव करो कि द्वेश के लिए कोई स्थान न रहे। जहां द्वेष
-भावना उत्पन्न होती दिखाई दे, स्मरण रक्खो कि वेदमन्त्र
आपके कान में चिल्लाकर कह रहा है कि ऐसा करना सृष्टि-क्रम और ईश्वर की इच्छा के
विरुद्ध है।
—-
समस्त भाषाओं में तीन प्रकार
के शब्द होते हैं- रुढ़ि,
योगरुढ़ि और योगिक। किसी वस्तु का अर्थ बताने के लिए कोई शब्द चाहिए।
आप किसी वस्तु के लिए कोई मनमाना नाम दे सकते हैं। ऐसे नामों को रुढ़ि कहेंगे। इन
शब्दों से अर्थों के विषय में किसी गुण की कल्पना नहीं कर सकते। शब्दों की दूसरी
कोटि है, यौगिक शब्दों की, अर्थात् जिस
वस्तु में जो गुण, कर्म और स्वभाव पाया जाये उसका वैसा ही
नाम रक्खा जाए। यौगिक शब्द धातुओं से बनते हैं। धातु किसी क्रिया के द्योतक होते
हैं। उस क्रिया को ध्यान में रखकर ही उस वस्तु का नाम रखा जाता है, जैसे -‘रक्षक’ नाम है ‘रक्षा’ करने वाले का। मनुष्य भी रक्षा कर सकता है,
कुत्ता भी रक्षा कर सकता है, घोड़ा भी रक्षा कर
सकता है, अतः ये सब रक्षक हुए। यहां रक्षक यौगिक शब्द हुआ।
परन्तु, जिस प्रकार पहाड़ की चट्टानों के टुकड़े पानी के बहाव
में पड़कर कालान्तर में गोल-मोल बन जाते हैं, इसी प्रकार
यौगिक शब्द लौकिक सरिता के बहाव के साथ विशेष वस्तुओं के द्योतक होने लगते हैं।
इनका नाम है, योगरुढ़ि, अर्थात्
धात्वर्थ लुप्त नहीं होगा, इसलिए वे यौगिक हैं, परन्तु धात्वर्थ की व्यापकता संकुचित हो गई, अतः
धात्वर्थ बताने वाले सब पदार्थों को छोड़कर अधिक प्रसिद्ध विशेष अर्थ का द्योतन
करने से उनमें यौगिकता के साथ रुढ़िपन भी आ जाता है। जैसे, ‘जलज’
शब्द जब यौगिक रहा होगा, तो जल से उत्पन्न
होने वाले सभी पदार्थों को जलज कहते होंगे। मछली भी जलज है, क्योंकि
जल से उत्पन्न होती हैं। कीचड़ भी जलज है, क्योंकि कीचड़ की
उत्पत्ति जल से होती है। परन्तु, कालान्तर में ‘जलज’ अपनी व्यापकता को छोड़कर संकुचित हो गया और केवल
पुष्पविशेष के लिए उसका प्रयोग होने लगा। इसलिए, जलज का अर्थ
केवल ‘कमल’ है, अतः
जलज योगरुढ़ि शब्द है। जितना जनता में प्रचार अधिक बढ़ता है, शब्द
यौगिक से योगरूढि और योगरुढ़ि से रुढ़ि हो जाते हैं। जलज जब योगरुढ़ि हुआ तो उसमें
यौगिकता शेष थी। परन्तु, यदि आप अपने पुत्र का नाम जलज या
कमल रख लें तो जलजपना सर्वथा जाता रहा। अब नाम गुण का द्योतक नहीं है।
इस वेदमन्त्र में ‘अघ्न्या’ शब्द आया है। ‘अघ्न्या’
यहां योगरुढ़ि है। इसका यौगिक अर्थ होगा, ‘न
मारने योग्य’। यों तो हर -एक चीज ही न मारने योग्य है,
परन्तु संसार की जितनी वस्तुएं उपकारक हैं, वे
सभी ‘अघ्न्या’ है। यह यौगिक शब्द है।
घोड़ा अघ्न्य है। बकरी अघ्न्या है। माता-पिता ‘अघ्न्य’
हैं। हन्तव्य वही है, जिससे दूसरों को हानि
पहुंचे जैसे सांप, बिच्छु, आदि और वे
भी प्रत्येक अवस्था में नहीं, परन्तु इस वेदमन्त्र में ‘अघ्न्य’ यौगिक न होकर योगरुढ़ि शब्द है, यहां ‘अघ्न्या’ विशेष पशु है,
अर्थात् गाय। एक बार एक यूरोपियन ने मुझसे पूछा कि आप गाय को मारने
से क्यों परहेज करते हैं? मैंने कहा कि हम तो किसी प्राणी की
हत्या नहीं करना चाहते। सभी को अपनी जान प्यारी है। किसी की जान लेना ठीक नहीं,
परन्तु गाय के लिए एक विशेष बात है। हम उसका दूध पीते हैं और इसलिए
हमारे मन में वहीं प्रेम उत्पन्न हो जाता है जो माता के लिए होना चाहिए। माता
अविद्वेषता की न केवल प्रतीक है, अपितु बहुत अच्छा दृष्टान्त
है। माता अघ्न्या है, पूज्या है, अविस्मृतव्या
है। परन्तु गाय का दृष्टान्त सामान्य माता से भी विशेष है। गाय अपने बछड़े को प्यार
करती है, परन्तु सबसे अधिक प्रेम ‘वत्सं
जातम्’ अर्थात् नवोत्पन्न बछड़े के लिए होता है। आप कभी गाय
को बछड़ा देते देखें और गाय को भावनाओं तथा गतियों का निरीक्षण करें। मनुष्य की
माता बच्चा जनने के पश्चात् अपनी पीड़ाओं में विह्वल हो जाती है और बच्चे की ओर कम
ध्यान जाता है, अतः प्रसवकाल में प्रसूता की देखभाल का भार
अधिकतर उसके सम्बन्धियों को सम्भालना पड़ता है, परन्तु गाय का
पहला काम यह होता है कि वह बछड़े के शरीर को गर्भ के मल से साफ कर दे। गाय के पास
बछड़े को शुद्ध करने के लिए, न तो जल होता है, न कपड़ा। परन्तु, प्रेम स्वयं साधन है और स्वयं साध्य
भी। प्रेम के लिए किसी अन्य साधन की आवश्यकता नहीं। गाय का प्रेम जल और वस्त्र दोनों
का स्थान लेने के लिए पर्याप्त है। शरीर का सबसे पवित्र स्थान जिह्वा है। आप गन्दी
चीज को पैर या हाथ से छू सकते हैं, नाक से सूंध सकते हैं,
परन्तु, जिह्वा इतनी पवित्र समझी जाती है कि
कोई गंदी चीज जीभ पर रखने में संकोच होता है। परन्तु गोमाता अपने पवित्र से पवित्र
अंग, अर्थात् जीभ से बछड़े की गन्दगी को साफ करती है। जब तक
बछड़ा गन्दगी से सर्वथा मुक्त नहीं हो जाता, वह बराबर चाटती
रहती है। गन्दगी से छुटकारा बच्चे की पहली आवश्यकता थी। बच्चे की जान बचना कठिन
था। जब बच्चा गन्दगी से मुक्त हो गया, तब उसके भोजन का प्रश्न
उठता है। गाय का बच्चे के लिए प्रेम उसके दूध के रूप में प्रकट होता है। गाय का
प्रेम उसके भीतर से इतना जोर मारता है कि जब तक बच्चा उसके थन से मुंह लगाकर उसके
दूध का पान नहीं कर लेता उसे चैन नहीं पड़ता। प्रत्येक माता अपने बच्चे को दूध
पिलाने के लिए उत्सुक रहती है, परन्तु उतनी नहीं जितनी गौ। ‘गौ’ का अपने नवजात शिशु के लिए ‘प्रेम’- इससे अधिक उत्कृष्ट और शिक्षाप्रद दृष्टान्त
तो दूसरा दिखाई नहीं पड़ता। यह आदर्श है। इसलिए, वेद में गाय
के नवजात बछड़े का दृष्टान्त देकर मनुष्य के कर्तव्य का एक जाज्वल्यमान उदाहरण
प्रस्तुत किया है।
अब इस दृष्टान्त के दार्शनिक
पहलू पर विचार कीजिए। मनुष्य को मनुष्य के साथ कैसा व्यवहार करना चाहिए? गोमाता कहती है कि बच्चे की दो प्रमुख आवश्यकताएं हैं- पहला स्थान और
दूसरा भोजन। स्थान पहला कर्म है, भोजन दूसरा। मैली बोतल में
शुद्ध दूध डालने से दूध भी मैला हो जाता है। मलयुक्त शरीर में पुष्टिकारक भोजन भी
बल का संचार नहीं करता। इसी प्रकार हर मनुष्य को चाहिए कि परोक्ष या प्रत्यक्षरुप
में हम दूसरों की शुद्धि का ध्यान रक्खें। गाय पशु है, अतः
वह केवल शरीर की शुद्धि का ही ध्यान रख सकती है। मनुष्य को मनुष्य की हर प्रकार की
शुद्धि का ध्यान रखना है। हम स्वयं कोई ऐसा काम न करें, जिससे
संसार में किसी प्रकार का शरीरिक या सामाजिक मल अधिक हो और भरसक कोई ऐसा उपाय न
छोड़ें, जिससे दूसरों की शुद्धि होती हो। शुद्ध रहना अच्छी
चीज है, परन्तु दूसरे को शुद्ध करना या शुद्ध रखना इससे भी
अधिक आवश्यक है। प्रत्येक डाक्टर के लिए उचित है कि उसका शरीर, उसके अंग, उसके वस्त्र स्वच्छ हों, परन्तु जो डाक्टर अपने रोगियों के मल को दूर करते समय अपने कपड़ों की
शुद्धता पर अधिक ध्यान रखता है, वह योग्य डाक्टर नहीं हो
सकता। जो माता अपने वस्त्रों को शुद्ध रखने के लिए अपने बच्चे को गन्दा रखती है,
वह माता कहलाने योग्य नहीं है। उससे कई गुना अच्छी वह माता है,
जिसकी धोती रात को उसके बच्चे के पेशाब से गन्दी हो जाती है। स्वच्छ
महलों में स्वच्छ वस्त्र धारण करनेवाली महारानियां, जिनके
बच्चे दूसरी नौकरानियों के अधीन रहते हैं, वास्तविक माता
नहीं हैं। माता का पद महारानी के पद से कहीं ऊंचा है। इसलिए माता और विशेषकर
गोमाता का दृष्टान्त, हमको यह शिक्षा देता है कि अपने
सम्पर्क में आनेवाले मनुष्यों की शारीरिक, मानसिक तथा
सामाजिक शुद्धि का विचार रक्खें। भोजन का प्रश्न, तो स्थान
के पश्चात् उठेगा। जो धनाढ्य सेठ अपने दरवाजे पर रोज फकीरों को सदावर्त बांटता है
और भिखमंगों की शुद्धि पर ध्यान नहीं देता, वह कोई प्रशंसा
का काम नहीं करता। वह भिखमंगों की संख्या में वृद्धि करता है। भारतवर्ष की कंगाली
का यह भी एक कारण है। हम परोपकार को भी बिना बुद्धि के करते हैं, अतः इस परोपकार से भी सामाजिक बुराइयां बढ़ती हैं। यदि हमारे देश के
ब्राह्मण लोग वेदमन्त्र के रहस्य को दृष्टि में रखते, तो
उनका पहला कर्तव्य था कि अछूतों की छूत को छूड़ाते। नवजात बछड़ा अछूत है- छूने के
योग्य नहीं, मैला है, गन्दा है। गाय ने
चाट-चाटकर उसको अस्पृश्य से स्पृश्य बना दिया। इसी प्रकार हमारा कर्तव्य है कि
जितनी निम्न जातियां हैं, जो वस्तुतः अस्पृश्य हैं, उनको स्पृश्य बना दें, परन्तु हमारा उनके साथ ऐसा
व्यवहार है कि उनकी अस्पृश्यता अधिक हो जाती है। उनके घर, उनके
वस्त्र, उनके रहन-सहन ऐसे हैं कि उनको शु़द्ध होने का अवसर
ही नहीं मिलता। यदि कोई अछूत पढ़ना चाहे तो पढ़ नहीं पाता, अच्छे
वस्त्र पहनना चाहे तो ऊँचे लोग इसमें अपना अपमान समझते हैं। यह ऐसा व्यवहार तो
नहीं, जिसकी प्रेरणा इस वेदमन्त्र से ली गई हो। अछूतों के
गुण-कर्म और स्वभावों को मैला रखते हुए यदि उनके खाने-पीने का अच्छा प्रबन्ध भी कर
दिया जाए, तो यह मैली बोतल में शुद्ध दूध डालने के समान ही
होगा। अतः जहां उनकी आर्थिक अवस्था सुधारी जाए, वहां उनके
गुण, कर्म और स्वभावों में जो मैलापन है, उसको भी दूर करने की आवश्यकता है। हमारे मनों सहृदयता और सांमनस्यता की
परम आवश्यकता है। परन्तु, इन सूक्ष्म भावनाओं को मूर्त और
स्पष्ट बनाने के लिए ‘वत्सं जातं इव अघ्न्या’ का चित्र अपने समक्ष रखना होगा। इतना उच्च आदर्श व्यवहार में लाना कठिन
अवश्य है, परन्तु अतिशयोक्ति युक्त आदर्श भी प्रेरणा तो करते
ही हैं। वैदिक उच्च आदर्श से प्रेरणा मिलती है।
दसवां मन्त्र
उद् वयं तमसस्परि स्वः
पश्यन्त उत्तरम्।
देवं देवत्रा सूर्यमगन्म
ज्योतिरुत्तमम्।।
– ऋग्वेद १//५0//१0, अथर्ववेद ७//५३//७, यजुर्वेद
२0//२१, २७//१0, ३५//१४,
३८//२४
अर्थ– हम लोगों ने पाप या अन्धकार से ऊपर उठकर प्रकाश को देखा और परम प्रकाशक
ईश्वर को पा लिया। आगे बढ़कर देखा तो अधिक तेजवाले प्रकाश को पाया और आगे बढ़े तो हर
प्रकाशक वस्तु में व्यापक सर्वोत्कृष्ट ज्योति अर्थात् परम-प्रभु की प्राप्ति हुई।
व्याख्या– तमसः परि, अर्थात अंधकार से ऊपर। ‘तमस्’ नाम है, अंधेरे का और
पापों का भी। मनुष्य का साधारण जीवन अन्धकार या पापों से आच्छादित रहता है।
खाने-पीने और संसार के बखेड़ों में लिप्त
मनुष्य को परमात्म-तत्त्व के दर्शन नहीं होते। हमको रोटी तो दिखाई देती है
परन्तु, रोटी में व्यापक ईश्वर नहीं दीखता। पानी दीखता है,
परन्तु पानी में व्यापक ईश्वर दिखाई नहीं देता। जब तक हमारी आंखों
के समक्ष अन्धकार का गुबार छाया हुआ है, सूर्य के दर्शन नहीं
होते। जब अधिक कुहरा पड़ता है, तो चमकता हुआ सूर्य भी दिखाई
नहीं देता। संसार के साधारण व्यवहार कुहरे के समान प्रकाश को आच्छादित करते हैं।
लोगों से पूछो कि क्या इस संसार में ‘आत्मतत्त्व’ भी है? वे कहते हैं ‘कहाँ है
दिखाओ?’ तुम कहते हो कि फूलों में ईश्वर व्यापक है। हम फूल
की हर पंखड़ी को तोड़कर देखते हैं, कहीं ईश्वर तो दिखाई नहीं
पड़ता। यदि ईश्वर प्रत्येक आंख को समानरूप में दिखाई पड़ जाता, तो सभी मनुष्य समान रूप से आस्तिक और ईश्वर के श्रद्धालु होते और संसार
में पाप, अन्धकार या क्लेश का नाम न होता। परन्तु, ऐसी समान-दृष्टि हम सबको मिली नहीं। परमात्मतत्त्व की बात तो दूर रही,
साधारण भौतिक पदार्थ भी हम सबकी आंखों को स्पष्टता से समान प्रतीत
नहीं होते। एक सुशिक्षित वैज्ञानिक एक छोटे-से पत्ते को देखकर उसमें जितने गुण देख
सकता है, वे गुण साधारण बच्चे को तो नहीं दिखाई पड़ते। साधारण
मनुष्य की अपेक्षा माली की आंख अधिक तेज है और साधारण माली की अपेक्षा
वनस्पतिशास्त्र-विशारद वैज्ञानिक की। इससे एक बहुत बड़ी बात यह सिद्ध हुई कि ‘आस्तिकता’ जादू की भांति सबको यकायक प्राप्त नहीं हो
जाती। जैसे बच्चा एक-एक अक्षर पढ़ते-पढ़ते अन्त में परम विद्वान हो जाता है, इसी प्रकार आत्मदर्शन का भी विकास होता है। इसकी भी कक्षाएं हैं। यदि आप
सुयोग्य गणितज्ञ बनना चाहते हैं, तो छूमन्तर से गणित का
ज्ञान न होगा। लगातार सैकड़ों मंजिलें तय करनी पड़ेंगी, तब
कहीं जाकर आप गणित की उच्च कक्षा तक पहुंच सकेंगे। किसी विद्यार्थी के जीवन पर
सावधानी के साथ दृष्टि डालिए। उसके क्रमशः विकास की परिगणना कीजिए। यदि गणित एक
दिन में नहीं आता, यदि लिखना-पढ़ना एक दिन में नहीं आता,
यदि रोटी पकाना एक दिन में नहीं आता, यदि कपड़ा
सीना एक दिन में नहीं आता, तो यह कैसे सम्भव है कि इधर-उधर
के दो भजनों को गा लेने या दो-चार उपदेशों को सुन लेने से आप आस्तिकता जैसी
सर्वोत्कृष्ट विद्या के धनी बन जाएं? प्रस्तुत वेदमन्त्र में
क्रमशः इसी विकास की ओर संकेत किया गया है।
किसी माघ के दिन प्रातः-काल
उठकर देखिए। सवेरा हो गया। सूर्योदय को हुये दो घण्टे हो गये, परन्तु सूर्य चमकते हुए भी दिखाई नही पड़ता। चारों ओर कुहरा छाया हुआ है।
यह नहीं कि सूर्य न निकला हो, परन्तु कुहरे ने हमारी निगाह
को कुण्ठित कर दिया है। उसी समय यदि आप किसी ऊंची पहाड़ी पर चढ़ जाएँ, तो देखेंगे कि सूर्य चमक रहा है। क्यों? इसलिए कि आप
कुहरे से ऊपर उठ गये। पूना से बम्बई जाते हुए जब रेलगाड़ी ऊंचाई पर चढती है,
तो ऐसा प्रतीत होता है कि गाड़ी ऊपर है और बादल नीचे मंडरा रहे हैं,
क्योंकि आप उस स्तर से ऊंचे उठ गये जहां बादलों का अंधेरा था। जो
बात भौतिक प्रकाश पर लागू होती है, वही मानसिक और आध्यात्मिक
ज्ञान पर भी लागू होती है। निरक्षर पुरुष को किताबों के पृष्ठ ऐसे प्रतीत होते हैं,
मानों किसी ने स्वच्छ कागज पर रोशनाई फैला दी हो, परन्तु जब मनुष्य निरक्षर से साक्षर होने लगता है तो अक्षरों की एक-एक
रेखा अपूर्व ज्ञान की द्योतक होती है, क्योंकि शिक्षार्थी
अन्धकार से ऊपर उठ जाता है।
इस क्रमिक विकास के लिए वेद
में तीन सुन्दर शब्द दिये हैं-
उत्, उत्तर (Comparative degree), उत्तम (Superlative
degree)। इसमें एक बहुत बड़ा रहस्य छिपा है। ईश्वर के दर्शन के
इच्छुक को ‘तमस- परि’ अन्धकार या पापों
से ऊपर उठना चाहिए। योगदर्शन में अष्टांग योग का वर्णन आता है। योग कुछ साधारण
श्वास-प्रश्वासों के नियन्त्रण या शारीरिक आसनों का नाम नहीं है। बहुत-से नट ऐसे
विचित्र आसन करते हुए देखे जाते हैं, जिन्हे देखकर आश्चर्य
होता है कि उन्होंने अपने शरीर के प्रत्येक अंग पर कैसे आधिपत्य प्राप्त कर लिया!
परन्तु वे योगी तो नहीं। वे आस्तिक्य, आत्मदर्शन या
तत्त्वज्ञता में तो सर्वथा कोरे हैं। योग के आठ अंगों में अहिंसा, सत्य, तत्त्वज्ञता में तो सर्वथा कोरे हैं। योग के
आठ अंगों में अहिंसा, सत्य, अस्तेय,
ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह वाला जो पहला अङ्ग है। वह तो अन्धकार और
पापों से ऊपर उठने के ही लिए है। अहिंसा और सत्य की प्राप्ति क्षणभर में तो नहीं
होती। जो अपने को साधु कहते हैं या जिनको संसार साधु कहता है उनको भी अहिंसा और
सत्य की उपादेयता में सन्देह रहता है। जो लोग रात-दिन शास्त्रों में सत्य और
अहिंसा के उपदेश सुनते और उनके आधार पर प्रतिदिन दूसरों को उपदेश देते हैं,
वे भी यह कहते सुने जाते हैं कि सत्य और अहिंसा का सहारा लेकर,
तो कुंजड़ा साक-भाजी बेचने में भी सफल नहीं हो सकता, बड़ी-बड़ी योजनाओं की बात तो दूर रही। योग और योगियों के पीछे दौड़नेवाले
संसार में भरे पड़े हैं। बड़े-बड़े सेठ और सेठानियां नित्य ऐसे योगियों की खोज में
रहते हैं, जो धनप्राप्ति का कोई सरल लटका बता सकें। वे योग
के इच्छुक नहीं हैं। वे हिंसा और असत्य के तमस् या अंधकार से ऊपर उठना भी नहीं
चाहते, फिर उनको ‘सूर्य्यम् उदगन्म’
अर्थात् प्रभु के प्रकाश की झांकी कैसे मिले! हाँ, यदि वे ऐसा अभ्यास डालें कि उनके जीवन से पाप की प्रवृत्तियां दूर हो जाएं
तो उनकी निगाह ऊंची उठ सकती है और कम-से-कम दूर से यह दिखाई पड़ जाता है कि किसी
पहाड़ की चोटी पर सूर्य चमक रहा है। सूर्य का अभाव नहीं है, हमारे
सिर पर न चमके न सही, दूसरों के सिर पर चमकता है। ये पहाड़ की
चोटियां क्या हैं? महात्माओं के जीवन। वे हमको सांसारिक
अंधकार से ऊपर उठे दिखाई पड़ते और हमको अपनी ओर बुलाते हैं कि ऊपर को आंख उठाओ और
शनैः- शनैः पहाड़ी पर चढ़ते जाओ-
Lives of great men, all remind us,
We can make our lives sublime.
(Long Fellows’s Psalm of Life)
महात्माओं के जीवन हमको
स्मरण कराते हैं कि हम भी अपने जीवनों को उत्कृष्ट बना सकते हैं। कब?- जबकि हम ‘स्वः पश्यन्त’ स्वर्ग
अर्थात् ऊपर की ओर देखें। ‘स्वः’ का
अर्थ यहाँ कोई विशेष स्थान नहीं। विषय-वासनाओं के कुहरे से उठते ही आत्मा को
प्रकाश की प्राप्ति होने लगती है। सम्राट अशोक का जीवन पापमय था, उसने मानव-संहार में कोई कसर उठा नहीं रक्खी। यकायक उसकी आंख उस अन्धकार
से ऊपर उठ गई और उसको एक ऐसी ज्योति की किरण दिखाई दी कि उसका जीवन बदल गया। उसको
सत्य और अहिंसा पर श्रद्धा हो गई। इसी प्रकार जब आपको प्रकाश की किरण सूझ पड़े,
तो उससे सन्तुष्ट न हूजिए। आगे अभ्यास करते जाइए। जब आप उत्तरोत्तर
उन्नति करेंगे तो आत्मप्रकाश के भी अधिक दर्शन होंगे। हर एक बात अभ्यास से आएगी।
पूर्ण अभ्यास होने पर, ‘देवत्रा देवं पश्यन्तः’ हर देव में परमात्मदेव के दर्शन हो जाते हैं, यह
पराकाष्ठा है।
—-
देव अर्थ है प्रकाशवान्
पदार्थ का। देव तो बहुत-से हैं। सूर्य चमकता है, अतः देव है।
चन्द्र चमकता है, अतः देव है। बिजली चमकती है, अतः देव है। अग्नि चमकती है, अतः देव है। जुगनू
चमकता है, अतः देव है। बिजली का दीपक चमकता है, अतः देव है। गैस का हण्डा चमकता है, अतः देव है।
मिट्टी का टिमटिमाता दीपक भी देव है, क्योंकि यह चमकता है।
आपकी आंख चमकती है, अतः देव है। उल्लू की आंख चमकती है,
अतः देव है। चींटी की आंख चमकती है, अतः देव
है। परन्तु इन सब देवों से बड़ा और इन सबका मूलाधार परमात्मा महादेव है, जो ‘उत्तमं ज्योतिः’ सबसे बड़ी
ज्योति है। पापरुपी अन्धकार से उठकर जब मनुष्य का हृदय स्वच्छ होने लगता है,
तो, जो प्रकाश पहले धुंधला-सा दिखाई पड़ता था,
वह अधिक स्पष्ट हो जाता है और हम अनुभव करने लगते हैं कि जहां और
ज्योतियां छोटी-छोटी थीं, वहां परमात्म ज्योति सबसे बड़ी और
सबसे उत्तम है और समस्त अन्य ज्योतियां, उसी बड़ी ज्योति के
आधार पर प्रकाशित हैं। उपनिषद् कहती है-
न तत्र सूर्य्यो भाति न
चन्द्रतारकं
नेमा विद्युतो भान्ति
कुतोऽयमग्निः।
तमेव भान्तमनुभाति सर्वं
तस्य भासा सर्वमिदं विभाति।।
—-
सूर्य को देखने के लिए कोई
दीपक नहीं जलाता। दीपक में भी सूर्य की ही रोशनी है। इसी प्रकार, परमात्मा की उत्तम ज्योति के प्रकाशित होने पर समस्त संसार प्रकाशित हो
जाता है।
इस्लाम धर्म के कथानकों में
एक कथानक ऐसा ही आता है,
जिससे ज्ञात होता है कि आस्तिकता का भाव क्रमशः उन्नति करता है।
कहते हैं कि अंधेरी रात में एक तारा दिखाई दिया। मनुष्य ने समझा, यह बड़ा चमकदार है। यही संसार का मालिक होगा। वह कहने लगा, ‘हाज़ा रब्बी’ (यही मेरा ईश्वर है)। थोड़ी देर में तारा
डूब गया और चांद निकल आया। तब उसके जी में आया कि वह तारा ईश्वर नहीं। ईश्वर कभी
डूबता नहीं। तारे से अधिक प्रकाश तो चांद का है, इसलिए चांद
के प्रति सम्बोधन करके उसने कहा, ‘हाज़ा रब्बी- यही मेरा
ईश्वर है।’ चांद भी डूब गया और सूर्य निकला। उपासक के
मस्तिष्क में उसी प्रकार की फिर तर्कना हुई और उसने सूर्य के प्रति वही भाव प्रकट
किये जो तारे के लिये किये थे- ‘हाज़ा रब्बी’ (यही मेरा ईश्वर है), परन्तु सूर्य को डूबते देखकर वह
अज्ञान भी दूर हो गया और वह सोचने लगा कि ईश्वर वहीं है, जो
कभी अस्त न हो और जिसके सहारे ही समस्त देव देवीप्यमान होते हों।
संसार में करोड़ों ऐसे मनुष्य
हैं,
जो हर चमकते पदार्थ को ईश्वर समझ बैठते हैं। आकाश में जब कभी कोई
नया तारा दिखाई पड़ता है, तो ग्राम के मूर्खों में उसके लिए
भक्तिभाव उत्पन्न हो जाता है। तारों की उपासना, उसी अविद्या
का परिणाम है। परन्तु जैसे-जैसे अविद्या मिटती जाती है, मनुष्य
असली मालिक का अनुभव करने लगता है।
संसारभर के ईश्वर-उपासकों के
इतिहास पर विचार कीजिए। पता चलेगा कि सब एक ही स्तर पर नहीं हैं, क्योंकि सबका विकास एक-सा नहीं है। अंधेरी रात के पश्चात् जब उषाकाल आता
है, तो प्रकाश की एक धीमी-सी रेखा प्रतीत होती है। वह सूर्य
की किरण नहीं है, उसका आभास-मात्र है, परन्तु
शनैः-शनैः वही रेखा अधिक होने लगती है और जब सूर्य निकलता है तो सारा जगत्
प्रकाशित हो जाता है। इसी प्रकार, जब बच्चा सुनता है कि कोई
ईश्वर जैसी चीज भी है, तो उसको आश्चर्य होता है कि वह ईश्वर
कैसा है, जिसे हम आंखों से नहीं देख सकते। उसको बताया जाता
है कि ईश्वर ऊपर है। वह अपनी आंख उठाकर आसमान की ओर ताकने लगता है। बच्चों से पूछो
कि ईश्वर कहां है, तो वे हाथ ऊपर को उठा देते हैं। कोई कहता
है कि बादलों में ईश्वर है। कोई कहता है बादलों के ऊपर है। अंग्रेजी बाइबिल में एक
शब्द आता है ‘माई फ़ादर इन हैविन’ (My father in
heaven) इसका अर्थ हुआ कि ‘मेरा बाप जो स्वर्ग
में है।’स्वर्ग के लिए ‘हैविन’ कहा। अंग्रेजी में ‘हीव’ (heave) का अर्थ है, ऊपर को उठना। लोगों ने समझा कि यह जो
ऊपर उठा हुआ दिखाई पड़ता है, अर्थात् आकाश, यही हैविन है और हमारे परमपिता परमात्मा उसी हैविन में रहते हैं। वस्तुतः
यह बात है नहीं। ऊपर उठने का अर्थ है पापों से ऊपर उठना।
ईश्वर का प्रकाश उसी हृदय में अधिक चमकता है, जिसमें पापों का अन्धकार कम हो गया है। मैले दर्पण में तो सूर्य की किरण
का आभास नहीं पड़ता। इसी प्रकार, जिस हृदय में पापों का
अन्धकार आच्छादित रहता है, उसमें आत्मप्रकाश की किरणें चमक
नहीं पातीं। जब दर्पण निर्मल होता है, तभी उपासक कहने लगता है-
त्वमेव प्रत्यक्षम्। त्वमेव प्रत्यक्षम् । ओहो! तू तो प्रत्यक्ष है। तू तो
प्रत्यक्ष है। जब तक अंधेरा था तुझे देख नहीं पा रहा था। जब मेरी आंख की ज्योति
बढ़ी तो तू नजर आने लगा।
आस्तिक भावों की उन्नति भी
क्रमशः होती है और अभ्यास से होती है। यही इस मन्त्र का रहस्य है।
0 Comments
If you have any Misunderstanding Please let me know