ग्यारहवां मंत्र
पर ऋणा सावीरध मत्कृतानि
माहं राजत्रन्यकृतेन भोजम्।
अव्युष्टा इत्रु भूयसीरूषास
आ नो जीवान् वरूण तासु शाधि।।
-ऋग्वेद मण्डल २,
सूक्त २८, मन्त्र ९
अर्थ– हे राजा वरुण अर्थात् संसार के विधि-विधान के शासक परमात्मन्! मेरे किये हुए ऋणों को दूर कर दीजिए। मेरे
सम्बन्ध में जो दूसरों का किया हुआ ऋण हो, उसे भी दूर कर
दीजिए। मैं दूसरों की कमाई न खाऊं। ऋण चुकाने की चिंता में प्रातः कालीन
मनोवृत्तियां सुखरहित ही प्रतीत हुआ करती हैं। हे वरुण देव! हम जीवों को उन उषाओं में पूर्ण रीति से अनुशिष्ट
कीजिए, अर्थात् हमको ऋणों की चिन्ता से मुक्त कीजिए।
व्याख्या– ‘मा अहं अन्य कृतेन भोजम्’ यह वाक्य समस्त मन्त्र का
निचोड़ है। अन्य वाक्य इसी भावना को केन्द्र बनाकर उसके चारों ओर घूमते हैं। ‘‘मैं किसी दूसरे की कमाई न खाऊँ। मैं अपनी ही कमाई पर निर्भर रहूँ।’’
सृष्टि का यह नियम है कि जो जैसा करेगा, उसे
उसी के अनुकूल भोग मिलेगा। अपनी कमाई का भोग, न कि दूसरों की
कमाई का। जो दूसरों की कमाई खाता है, मानो, वह दूसरों से ऋण लेता है, और ऋण ब्याजसहित चुकाना
पड़ता है। इससे चिन्ता भी बढ़ती है और कर्त्तव्यपालन में भी बाधा पड़ती है।
सृष्टि में प्राणियों के
उपभोग के लिए असंख्य पदार्थ हैं। परन्तु संसार एक बाजार है। यहां प्रत्येक वस्तु
मिलेगी,
परन्तु मुफ्त नहीं, उसका मूल्य तो चुकाना ही
पड़ेगा। ‘‘जिसके पैसा नहीं है पास, उसको
मेला लगे उदास।’’ इसलिए, बाजार जाने से
पहले देख लो कि तुम्हारी जेब में पैसा है या नहीं। नहीं है, तो
कमाई करो और जब पैसा पास हो जाए, तब बाजार जाओ। खाली हाथ
बाजार जानेवाले, या तो बाजार की चीजों से वंचित रहकर जी मसोस
के रह जाते हैं या चोरी करते हैं और कारागार की यातनाएँ झेलते हैं। जो बिना कमाई
के खाना चाहते हैं, उनको ऋण चुकाने की चिन्ता रहती है और
जिनकी प्रकृति दिवालियापन की है, अर्थात् जो ऋण लेकर देना
नहीं चाहते, उनको सृष्टि क्षमा नहीं करती। उनको ऋण तो चुकाना
ही पड़ता है।
इस मन्त्र में परमात्मा को ‘वरुण’ कहकर पुकारा है। ‘वरुण’
शब्द के साथ शासन और शासित की भावना संयुक्त है। जैसे समाज में ‘मित्र’ नाम है सत्यपति या ब्राह्मण का, जो बिना दण्डविधान के
समाज का संशोधन करता है, इसी प्रकार ‘वरुण’
नाम है क्षत्रिय या शासक का जो धर्मपति है, अर्थात्
दण्डविधान के द्वारा समाज की रक्षा करता है। जैसे, शासन-विधान
में राज्य के कानूनों का जाल-सा बिछा रहता है, वैसे ही वरुण
के पाश या जाल सर्वत्र बिछे रहते हैं। सड़क पर चलने का एक नियम है। घर बनाने का एक
नियम है। खेत जोतने का एक नियम है। विवाह करने का एक नियम है। व्यापार करने का एक
नियम है, और यदि आपने एक नियम को भी भंग किया, तो राजपुरुष तुरन्त आपको पकड़ लेते हैं। हर क्रिया के लिए एक कानून है और
हर कानून तोड़ने के लिए एक दण्ड है। विधि-विधान और दण्ड-विधान इन दोनों का नाम शासन
है। यही ‘वरुण्य’ है, अर्थात् वरुण से सम्बन्ध रखने वाली वस्तु। ब्राह्मण उपदेश देता है, दण्ड नहीं
देता। उसके उपदेशों में आन्तरिक प्रेरणा निहित है। परमात्मदेव के लिए भी हम दोनों
प्रकार के भाव रख सकते हैं। ईश्वर मित्र है, क्योंकि वह
हमारा हितैषी है। ईश्वर ‘वरुण’ है,
क्योंकि वह हमारे कर्मों का फल देने वाला है। वेद में बहुत-से
मन्त्रों का रहस्य समझने के लिए वरुण और मित्र की विवेचना को ध्यान में रखना
आवश्यक है।ऋण लेना निकम्मेपन का प्रमाण है और न चुकाना देषद्रोह या समाजद्रोह है,
इसके लिए परमात्मा की ओर से दण्ड मिलता है, इसलिए
प्रत्येक ईश्वर-भक्त को चाहिए कि वह ऋणों से बचता रहे और जो ऋण उसे परिस्थिति के
कारण लेने पड़ते हैं, उनको चुकाने के लिए चिन्तित रहे। ऋण में
निमग्न मनुष्य को कितने दुख भोगने पड़ते हैं, उसका एक अच्छा
दृष्टान्त मन्त्र के वाक्य में दिया हुआ है, ‘‘अव्युष्टा
इत्रु भूयसीः उषासः’’। ‘उषा’ का अर्थ है, प्रातः काल होने से ठीक पूर्व का
मन्द-प्रकाश। उसी को उषाकाल कहते हैं-घोर तड़का। अंधेरी रात की समाप्ति पर जब सूर्य
उदय होने को होता है, तो सूर्य महाराज के चोबदार पहले से ही
घोषणा कर देते हैं कि सूर्य महाराज आ रहे हैं। जागो, उनके
स्वागत के लिए तैयार हो जाओ। उषाकाल दिन का चोबदार है। उषाकाल के आते ही पशु-पक्षी
सबके मन में आनन्द की लहरें उठने लगती हैं। कमल खिलने लगते हैं। समस्त सृष्टि
आनन्द मनाती है। भौतिक प्रकाश और अभौतिक आनन्द दोनों ही उषाकाल के परिणाम हैं।
परन्तु, यह आनन्द और प्रकाश उन्हीं को मिलता है, जो ऋण-रहित
या ऋण-मुक्त हैं। जिनके सिर पर ऋण चढ़ा है, उनको न उषाकाल
आनन्द देता है, न प्रकाश। थोड़ा-सा चित्र खींचिए उस मनुष्य का,
जिसके ऊपर बहुत-सा कर्ज है, और कर्जवाले
अपना-अपना कर्ज वसूल करने के लिए उसका पीछा किये हुये हैं। किसी प्रकार रात हो गई
और कर्जदार ने रात का आश्रय लेकर कहा, ‘‘कल अवश्य ऋण चुका
दूँगाा’’। चलो छुट्टी मिली। थोड़ी देर के लिए ही सही। ऋणी
मनुष्य सो जाता है, परन्तु, ज्यों ही
उषाकाल आता है, उसकी नींद खुल जाती है। क्या वह उषा का
स्वागत करता है? कदापि नहीं। जिन चिन्ताओं से उसको थोड़ी देर
के लिए मुक्ति मिली थी, वे फिर आ घेरती हैं। जिनका उधार लिया
था, उन्होंने रात को कठिनाई से ही पिण्ड छोड़ा था। अब वे फिर
आकर घेरेंगे। रात का भी बहाना नहीं। अब मैं क्या करुंगा? ऐसे
चिन्तित पुरुष की उषाएं भी ‘अव्युष्टाः’ ही हो जाती हैं। ‘व्युष्टिः’ का
अर्थ है, उषाकाल की प्रकाश की किरणें। व्युष्टि का उलटा है,
‘अव्युष्टिः’, अर्थात् उषाकाल प्रकाश देने के
स्थान में अंधेरा देने लगता है, अर्थात् ऋणी मनुष्य के दिन
भी रात से अधिक अंधेरे होते हैं। ऋणी मनुष्य ऋण की चिन्ताओं के कारण दुखी होकर
वरुणदेव से प्रार्थना करता है कि हे भगवन्! ऋण के कारण, मेरा
नाक में दम है। मैं सब प्रकार के सुखों से वंचित हूं। कृपा करके ऋण के पाशों से
मुझे मुक्त कर दीजिए, और ऐसी शक्ति दीजिए कि मैं दूसरों की
कमाई का उपयोग करने की इच्छा ही छोड़ दूं, और सब प्रकार के
ऋणों से मुक्त हो जाऊँ।
ऋणी के लिए ऋणी होने की
भावना पहली आवश्यक वस्तु है। जो ऋणी, ऋणी होते हुए भी
अपने को ऋणी नहीं समझता, वह ऋण को चुकाने की भी कोशिश नहीं
करता। ऋण को चुकाने की कोशिश भी वही करेगा, जो ऋण को भार
समझता है। बहुत-से तो ऋण लेने से पहले ही ठान बैठते हैं, कि
हमको ऋण का उपयोग करना है, चुकाना नहीं। नास्तिक चार्वाक का
कथन है-
जब तक जियो, सुख से जियो। ऋण लेकर घी पियो। जब मर जाओगे, तो देह
भस्म हो जायेगी। तुम मरकर वापस नहीं आओगे। जिसने तुमको कर्ज दिया है, वह किससे वसूल करेगा? यद्यपि दुनिया में लोग अपने को
न नास्तिक कहते, न चार्वाक का अनुयायी मानते हैं, परन्तु, व्यवहार-रूप में इस श्लोक के ऊपर कार्य करने
वाले सैकड़ों हैं। ऋण को लेने और न चुकाने के उपाय तलाश करने में संसार लगा हुआ है।
भिन्न-भिन्न प्रकार के कानूनों का सहारा लेकर ऋण से बचने का यत्न किया जाता है।
कचहरियों में कितनी नालिशें होती हैं, जिनमें ऋण लेनेवाले ऋण
को स्वीकार ही नहीं करते या जानबूझकर दिवालिये बन जाते हैं। बहुत कम लोग ऐसे हैं,
जो राजा वरुण से, सच्चे दिल से प्रार्थना करते
हों, कि परमात्म-देव उनको उनके ऋणों से मुक्त कर दें। जिसने
ऋण लेकर अपने को ऋण से दबा हुआ अनुभव किया, और इस चिन्ता के
कारण उसकी सुखद उषाएं अव्युष्ट, अर्थात् चिन्ता के बादलों से
आच्छादित हो गईं, वह अवश्य ऋण से छूट जाएगा, और वही अपनी कमाई का उपभोग कर सकेगा।
मनुष्य जिस परिस्थिति में
जन्म लेता है,
उसमें यह असम्भव है कि वह किसी का ऋण न लेवे। सम्भव केवल इतना ही है
कि जिनका ऋण ले, उनका ऋण चुका दे। समस्त व्यापार ऋण के
आश्रित है। समस्त सरकारें ऋण लेती हैं, जिसको नेशननल डैट (National
Debt) या राष्ट्रऋण कहते हैं। ऋण का संविधान यह प्रकट करता है,
कि आरम्भिक अवस्था में दूसरों की सहायता लेनी ही पड़ती है, चाहे आर्थिंक हो, चाहे नैतिक, चाहे
शारीरिक। परन्तु, जब तक ऋण चुकाने की भावना बनी रहती है,
सामाजिक उन्नति में कोई बाधा नहीं पड़ती। कोई बैंक ऋण देने में संकोच
नहीं करता, यदि ऋण वसूल करने में कोई सन्देह न हो। छोटे
व्यापारी ऋण लेकर ही व्यापार बढ़ाते हैं। परन्तु, यदि ऋण को न
चुकाने के प्रयत्न होने लगते हैं, तो न बैंक चल सकता है,
न व्यापार। इसलिए, ऋणी के मन में ऋणी होने की
भावना जाग्रत होनी चाहिए।
शतपथब्राह्मण आदि ग्रन्थों
में चार प्रकार के ऋणों का उल्लेख आता है-एक सामान्य है और तीन विशेष। तीन ऋण अधिक
परिचित और प्रचलित हैं-एक-पितृऋण, दूसरा-देवऋण, तीसरा-ऋषिऋण।
पहला सामान्य ऋण तो, हर मनुष्य पर है, या यों कहना चाहिए कि हर प्राणी का
हर प्राणी पर। हम अपनी हर एक सुविधा के लिए दूसरों के ऋणी रहते हैं। कभी-कभी तो
हमको यह भी पता नहीं चलता, कि अमुक भोग के लिए हम किसके ऋणी
हैं।
आप सड़क पर प्रातः काल सैर के
लिए जा रहे हैं। दूर से हवा में उड़ती हुई गुलाब की सुगन्धि आपकी नाक में पड़ती है।
आपको सुख का अनुभव होता है। यह गुलाब कहाँ है, किस बाग में है,
किसने यह गुलाब लगाया है? यह सुगन्ध आपको
दूसरों के परिश्रम से मिली है। आप उनके ऋणी हैं। यदि, आप
इसको ऋण समझें, तो आप भी, ऐसे परोपकार
के काम करें, और संसार गुलाबों की सुगन्ध से भर जाए। परन्तु,
यदि आप समझें कि ‘‘माले मुफ्त, दिल बेरहम’’, तो संसार कण्टक बन जाए।
यहाँ एक छोटी-सी बच्चों की
कहानी पर विचार कीजिए। एक पिता ने अपने बच्चे से कहा, ‘‘कल हम तुमको शीरमाल खिलायेंगे।’’ बच्चे ने पूछा,
‘‘शीरमाल क्या होता है?’’ पिता बोला,
‘‘शीरमाल वह चीज है, जिसके बनाने में हजारों
आदमियों का हाथ लगता है।’’ बच्चे को बड़ी उत्सुकता हुई। वह
बड़ी उमंग के साथ प्रातःकाल की प्रतीक्षा करने लगता। जब प्रातःकाल हुआ और बच्चे
ने शीरमाल-शीरमाल पुकारना आरम्भ किया तो
पिता ने दो पैसे की जलेबियाँ हलवाई की दुकान से दिला दीं। लड़के ने कहा, ‘‘यह तो शीरमाल नहीं है। शीरमाल के बनाने में तो हजारों मनुष्यों के हाथ
लगते हैं। मैं तो, हजारों क्या, सौ
मनुष्यों को भी नहीं देखता।’’ पिता बोला, ‘‘ये जलेबियाँ भी हजारों हाथों की बनी हुई हैं।’’ बच्चे
ने कहा, ‘‘कैसे?’’
पिता ने उत्तर दिया, ‘‘देखो! जलेबी आटे की बनती है। आटा गेहूँ का बनता है। गेहूं को किसान बोता
है। सोचो तो सही, कि खेत जोतने और गेहूं बोने से लेकर आटा
तैयार होने तक कितने आदमियों के हाथ लगे होंगे।’’
लड़का दंग रह गया। वह हिसाब
लगाने बैठा तो सैकड़ों की संख्या प्रतीत हुई। बाप ने कहा, ‘‘अभी तुमने पूरा नहीं सोचा। यह तो केवल गेहूँ का ही हिसाब लगाया है। घी के
विषय में भी तो सोचो। फिर चीनी का नम्बर आएगा, फिर यह भी
देखना पड़ेगा कि भट्टी में जो आग जलती है, उसके लिए ईधन उगाने
और लकड़ी का कोयला प्राप्त करने के लिए कितने हाथ लगते हैं।’’
लड़के ने देखा कि हाथों की
संख्या,
जितना विचार दौड़ाते हैं, बढ़ती ही जाती है।
पिता ने कहा, ‘‘इतना ही नहीं। अभी तक, तो तुम्हारा ध्यान केवल गेहूं
चीनी, घी या अग्नि तक ही सीमित था। जिस कडाही में जलेबियाँ
बन रही हैं, उसकी कहानी भी सुनो, वह
क्या कह रही है। कड़ाही लोहे की बनी है। लोहा खदान में होता है। कभी लोहे के
कारखाने में जाओ या कोयले की खदानों पर दृष्टि डालो।’’
यह एक छोटी-सी कहानी है, जो बताती है, कि हमारे ऊपर दूसरे कितने मनुष्यों का
ऋण है। हर एक जलेबी हमारे लिए शीरमाल है, जिसमें हजारों
आदमियों के हाथ लग चुके हैं, और हम सब उनके ऋणी हैं। यह ऋण
तो तभी छूट सकता है, जब हम भी देश या जाति के उद्योगों में
भरसक यत्न करें और जैसे हमने दूसरों से ऋण लिया है, उसी
प्रकार हम भी दूसरों को, उसका बदला चुका सके। जिस देश या
जाति में ऐसे व्यक्ति रहते हैं, जिनके जीवन का एक ही
उद्देश्य है कि ‘‘माहं राजन् अन्यकृतेन भोजम्’’ हे ईश्वर! हम दूसरों की कमाई न खाएं, अपितु जो कुछ
उपभोग हमको प्राप्त हैं, उनमें हमारा भी पूर्ण भाग हो,
तो संसार के समस्त कष्ट मिट जाएँ।
यह संसार एक सहयोगी संस्था
है,
एक कारखाना है, जिसके सभी मनुष्य भागीदार हैं।
कारखाने के हित के लिए प्रत्येक व्यक्ति अपना हिस्सा लगाता है। जब तक भागीदार
सत्यता पर आरूढ़ रहकर कारखाने में अपना-अपना भाग लगाते हैं, तब
तक कोई किसी का ऋणी नहीं, या सब सबके ऋणी हैं, ऋण लेते हैं और ऋण देते हैं। किसी को किसी से शिकायत नहीं है, परन्तु जब भागीदारों की नीयत खराब हो जाती है, और
स्वार्थ भागीदारों को अन्धा कर देता है, तो कारखाने टूट जाते
हैं, जातियां नष्ट-भ्रष्ट हो जाती हैं। संसार के हर देश में
व्यापारिक और औद्योगिक कम्पनियाँ चला करती हैं। जब तक भागीदार अपने-भाग के अनुपात
से ही भोग करते हैं, ऋण का जाल किसी को कष्टप्रद नहीं होता,
परन्तु, जब भाग के अनुपात से भोग का अनुपात बढ़
जाता है, तो वरुणदेव अपने पाशों को शिथिल करने के स्थान में
कड़ा कर देते हैं।
वरुण की पाशों की जकड़ को
ढीला करने की एक ही विधि है। वह है ऋणों की प्रकृति को समझकर अपने जीवन का एक नियम
निर्धारित करना कि मेरा भोग मेरे भाग के अनुपात से बढ़ न जाए। ऐसा न हो कि, मैं कम दाम देकर अधिक दामों का माल खरीदूँ या धोखा देकर माल के दाम न
चुकाऊँ।
भोग और भाग का अनुपात इस
मन्त्र का मूलमन्त्र है,
इसको अच्छी तरह याद कर लेना चाहिए, इससे सबका
कल्याण होगा।
बारहवां मंत्र
सक्तुमिव तितउना पुनन्तो यत्र
धीरा मनसा वाचमकृत।
अत्रा सखायः सख्यानि जानते
भद्रैषां लक्ष्मीर्निहिताधि वाचि।।
-ऋग्वेद मण्डल १0,
सूक्त ७९, मन्त्र २
अर्थ– जैसे सत्तू को साफ किया जाता है, उसी प्रकार,
जिस विषय में बुद्धिमान लोग ज्ञानरूपी चलनी द्वारा वाणी को प्रयोग
करते हैं, हितैषी विद्वान् लोग हित की बातों को ही समझते
हैं। उनकी वाणी में लक्ष्मी रहती है।
व्याख्या– इस मन्त्र का आरम्भ ‘उपमा’ से
होता है। सक्तु अर्थात् सत्तू और तितउ अर्थात् चलनी उपमाएँ हैं। ‘वाचं’ वाणी और ‘मनस्’, बुद्धि उपमेय हैं। समस्त वाक्य को कहेंगे ‘उपमान
प्रमाण।’ न्यायदर्शन में गौतम महामुनि चार प्रकार के
प्रमाणों का उल्लेख करते हैं- (१) प्रत्यक्ष, (२) अनुमान,
(३) उपमान् (४) और शब्द। इन प्रमाणों द्वारा ही मनुष्य को ज्ञान की
उपलब्धि होती है। इनमें मुख्य प्रमाण प्रत्यक्ष ही है। ‘‘प्रत्यक्षे
किं प्रमाणम्’’ अर्थात् जो वस्तु प्रत्यक्ष है, उसके लिए अन्य प्रमाणों की आवश्यकता नहीं। इससे यह सिद्ध होता है कि जब
प्रत्यक्ष उपस्थित न हो, तभी दूसरे प्रमाणों की आवश्यकता
पड़ती है। इस विषय में, तर्कवादियों ने प्रायः भूल की है। कुछ
का कथन है कि जिसका प्रत्यक्ष नहीं होता जैसे ईश्वर, उसकी
प्रत्यक्ष के अभाव में अन्य प्रमाणों द्वारा सिद्धि भी कैसे होगी, क्योंकि अन्य प्रमाणों का आधार तो ‘प्रत्यक्ष’
ही है। यह युक्ति, प्रायः जैन आदि नास्तिकों
ने आस्तिक्य के विरोध में दी है, परन्तु, आनुषंगिक रूप में यहां हम स्पष्ट कर दें, कि अनुमान
आदि का प्रयोग ही वहाँ होता है, जहाँ ‘प्रत्यक्ष’
न लग सकता हो। यह ठीक है कि, अनुमान आदि शेष
प्रमाणों का प्रमाणत्व प्रत्यक्ष प्रमाण के आधार पर है, परन्तु
प्रमाण और प्रमेय में भेद है, जो प्रमेय प्रत्यक्ष हो गया,
उसके लिए दूसरा प्रमाण खोजने की आवश्यकता नहीं। ‘तुला’ अर्थात् तराजुएँ किसी मुख्य तराजु के आधार पर
बनाई जाती हैं, परन्तु, सब वस्तुएँ मूल
तराजू से ही नहीं तोली जा सकतीं, जब मुख्य तराजू नहीं मिलती,
तभी दूसरी तराजूओं का प्रयोग होता है।
‘प्रत्यक्ष’ और उपमान’ का यह सम्बन्ध समझने के पश्चात्, आइए, समझें कि उपमान आखिर है क्या? साधारणतया उपमा और उपमेय में ‘साधर्म्य’ (समान गुण) होना चाहिए, परन्तु संसार की कोई दो
वस्तुएँ ऐसी नहीं, जिनमें साधर्म्य न हो। सुअर की पूंछ और
हाथी के माथे में भी साधर्म्य है, जैसे कि दोनों पंचभूतों से
बने पदार्थ हैं, परन्तु, कभी किसी ने
हाथी के माथे के लिए सुअर की पूंछ की उपमा नहीं दी। साधर्म्य ऐसा होना चाहिए,
जो झट से दिखाई दे जाए। इसके लिए उपमा में दो गुण होने चाहिएँ-एक तो
वह स्थूल हो, दूसरे बहु-परिचित। अज्ञात उपमेय को ज्ञात उपमा
से नापते हैं। यदि उपमा अज्ञात हो तो उससे उपमेय के जानने में सुगमता न होगी। जैसे
कोई कहे कि आपके घर पर ठहरने में, मुझे स्वर्ग जैसा आनन्द
हुआ। यहां ‘उपमा’ स्वर्ग है और ‘उपमेय’ निवास का सुख है। स्वर्ग अज्ञात है, प्रसिद्ध साधर्म्य नहीं, अतः उपमा अनुचित है। वेद
में बहुत-सी उपमाओं का प्रयोग हुआ है। वहाँ सर्वत्र, उपमाएँ
उपमेयों की अपेक्षा अधिक स्थूल और अधिक परिचित हैं।
इस मन्त्र में सत्तू और चलनी
(सक्तु और तितउ) घर की दैनिक वस्तुएँ हैं। ये सुपरिचित हैं। इन्हीं की उपमाओं का
प्रयोग ‘वाचं’ और ‘मनसा’ दोनों सूक्ष्म उपमेयों के लिए किया गया है। यद्यपि, साधारण
अर्थों को समझने के लिए हमारे इस लम्बे व्याख्यान की आवश्यकता नहीं थी, परन्तु वेद में तो, सभी विद्याओं का समावेश है। वेद
साहित्य और दर्शन के विषय में भी कहीं प्रत्यक्ष और कहीं परोक्षरूप से एक आदर्श
प्रस्तुत करते हैं, अतः हमने आवश्यक समझा कि कुछ प्रसंग से
बाहर होते हुए भी, एक जटिल प्रश्न पर, कुछ
व्यवहारिक प्रकाश डाल दें। इससे वेदों के साहित्यिक अलंकारों की शोभा की भी आभा का
आनन्द मिलता है।
अब मन्त्र की मुख्य व्याख्या
पर ध्यान दीजिए। उपमान से ही आरम्भ करें। सत्तू को छानने के लिए ‘चलनी’ का प्रयोग किया जाता है। क्यों? बिना छाने हुए सत्तू का क्यों प्रयोग नहीं करते? दो
कारणों से। एक तो इतर पदार्थ न मिला हो, जैसे कूड़ा, तिनके या रेत आदि। तितउ का काम है कि वह असली सत्तू से इतर पदार्थ को
निकालकर फेंक दें। दूसरे, सत्तू की भूसी या वह कर्कश अंश दूर
हो जाए, जिसके कारण सत्तू को पचाने में कठिनाई पड़ती हो।
सत्तू शुद्ध हो और कर्कश न हो।
वाणी में भी दो गुण होने
चाहिएँ। वह सत्य ओर प्रिय हो। ‘‘सत्यं बूयात् प्रियं ब्रयात्।’’
अप्रिय सत्य ‘सत्य’ होते
हुए भी निषिद्ध है, क्योंकि उसमें कर्कशता है। सत्तू के
पीसने में त्रुटि है। सत्तू इतना मोटा पिसा है, कि वह खाने
में नहीं आता। जो वाणी, उचित सावधानी के साथ नियोजित नहीं की
गई, वह सत्य होते हुए भी लड़ाई का कारण होती है। काने को काना
कहकर पुकारना लड़ाई मोल लेना है। सत्तू में इतर पदार्थ की मिलावट के समान ही सत्य
वाणी में इधर-उधर की ऊटपटांग बातें मिला देना है। इसलिए असत्य प्रिय हो, तब भी न बोले। राजदरबारों में नित्य ही प्रिय असत्य बोला जाता है। इससे
मनोरंजन तो होता है परन्तु, साथ ही हानि भी बहुत होती है।
इंग्लैण्ड के एक राजा कैन्यूट की कहानी प्रसिद्ध है। उसके खुशामदी दरबारी कहा करते
थे कि महाराज, आपकी आज्ञा तो समुद्र भी मानता है। राजा ने एक
दिन आज्ञा दी कि उसकी कुरसी एक ऐसे स्थान पर रख दी जाए, जहां
समुद्र की तरंगों का आवेग हो। दरबारियों को आशंका हुई। वे बोले, ‘‘महाराज! यहां तो समुद्र की लहरें आयेंगी?’’ राजा
बोला, ‘‘समुद्र से कह दो कि अपनी तरंगें रोक लें।’’ दरबारियों ने कहा, ‘‘समुद्र कैसे मानेगा?’’ राजा ने कहा, ‘‘तुम तो कहा करते थे कि समुद्र राजा
का आज्ञाकारी है! तुम ऐसा झूठ क्यों बोला करते हो?’’ दरबारी
लज्जित हो गये। अन्य राजा भी इसी प्रकार करते, तो उनको कभी
धोखा न खाना पड़ता।
इसलिए वेमन्त्र कहता है कि ‘वाचं’ अर्थात् वाणी को छानकर बोालो। उसमें से
असत्यता (इतर पदार्थ foreign matter) और अप्रियता (कर्कशता indigestible
matter) को निकाल दो।
ऐसी कौन-सी चलनी (तितउ) है
जिससे वाणी के ये दोनों अवगुण दूर हो सकें? मन्त्र उत्तर देता
है-तुम्हारी बुद्धि (मनः) ही ऐसी चलनी है। बुद्धि या तर्क से शुद्ध करके वाणी को
बोलो। जिस प्रकार भिन्न-भिन्न पदार्थों से ‘इतर’ और ‘कर्कश’, दो पदार्थों को
निकालने के लिए भिन्न-भिन्न प्रकार के चलने बनाये गये हैं, इसी
प्रकार वाणी से असत्यता और अप्रियता को दूर करने के लिए बृहद् तर्कशास्त्र का
निर्माण हुआ है। अर्थात् यदि, हम बुद्धि से छानकर वेदवाणी का
प्रयोग करेंगे, तो हम को परम शान्ति की प्राप्ति होगी।
वेद-वाणी विद्या की निधि है, इसी के द्वारा मनुष्य हित और अहित में विवेचन करता है। बुद्धिपूर्वक वाणी
का प्रयोग करने वाले (सखायः) मित्र लोग (सख्यानि जानते) स्वहितों को पहचानते हैं,
और अपनी विद्या द्वारा शान्ति की स्थापना करते हैं। जो बुद्धिरुपी
चलनी का प्रयोग नहीं करते, उनकी वाणी अशुद्ध सत्तुओं के समान
कलह, भ्रान्ति और हृास का कारण बन जाती है। सभी को विदित है
कि मनुष्य ही केवल एक, भाषा-भाषी प्राणी है। यही मनुष्य-जीवन
का गौरव है, परन्तु, जब यही भाषा बिना
बुद्धि के प्रयुक्त की जाती है, तो मनुष्य जाति उन भीषण
दोषों से दूषित हो जाती है, जो दोष किसी पशु-पक्षी या
कीट-पतंग में भी नहीं पाये जाते। कहते हैं कि द्रौपदी ने अपनी अज्ञानता और
बुद्धिहीनता के कारण, कौरवों पर एक ताना कस दिया कि ‘‘अन्धों के अन्धे ही उत्पन्न होते हैं।’’ यह वाणी का
दुरुपयोग था और उस छोटे-से दोष का कितना भयानक परिणाम हुआ! यह तो एक प्रसिद्ध
उदाहरण है, परन्तु, ऐसे उदाहरण हमें
परिवार और हर जीवन-क्षेत्र में मिलेंगे, जिन्होंने संसार को
दुख के सागर में निमग्न कर दिया। जो उपदेशक बुद्धि का प्रयोग करके विद्या प्राप्त
करता है, और शुद्धभाव से उसका उपदेश करता है वह ‘सखा’ है और सखा के सखित्व का जो फल है, वही एक प्रकार से सख्य है। सख्य का परिणाम है, भद्रा
लक्ष्मी। याद रखना चाहिए कि केवल बोलना ही भद्रा लक्ष्मी की प्राप्ति नहीं करा
सकता। वक्ता तो संसार में बहुत से हैं और बहुत से इनमें से प्रभावशाली भी होते हैं,
जिनको वाक्-पटु, सभा-चतुर या वाचाल कहते हैं,
वे सभी छानकर वाणी का प्रयोग नहीं करते। बड़े-बड़े व्याख्यान-दाता
अपने उत्तेजक व्याख्यानों द्वारा जनता को पथभ्रष्ट कर देते हैं। कहा जाता है कि
भाषा भावनाओं को व्यक्त करती है (Language is that which expresses
thought), परन्तु यही भाषा नादान या स्वार्थी मनुष्यों से प्रयुक्त
होकर भावनाओं के छिपाने का साधन बन जाती है। देश जब दो दलों में विभक्त हो जाता है,
तो हर एक दल के पोषक, जनता में दूसरे पक्ष के
विरुद्ध भ्रान्तियाँ उत्पन्न करते हैं। यह सब भाषा को न छानकर प्रयुक्त करने के
कारण होता है।
वाणी-सम्बन्धी दुष्टकर्म चार
हैं- पहला कठोर वचन,
दूसरा झूठ बोलना, तीसरा सब प्रकार की चुगली और
चौथा व्यर्थ की बातचीत करना। ये चारों वे प्रसिद्ध दोष हैं, जो
शुद्ध सत्तुओं को भक्ष्य से अभक्ष्य बना देते हैं, और सखाओं
को शत्रुओं में परिणत कर देते हैं। इन दोषों से बचने का एक मात्र उपाय है, वाणी को बुद्धि के तितउ से छानकर प्रयोग करना। जिन्होंने, भारतवर्ष की सभ्यता का कई सहस्त्र वर्षों का इतिहास पढ़ा है, वे जानते हैं कि जहां शुद्ध वेदवाणी ने आर्यजाति को, संसार की सबसे प्रमुख और प्रभावशाली जाति बना दिया, उसी
जाति ने जब वेदवाणी को बुद्धि से अलग करके बर्तना आरम्भ किया, तो, वेदमन्त्रों को पढ़कर क्या-क्या अनर्थ नहीं किये
गये! नये-नये अवैदिक धर्मों की स्थापना और उत्पत्ति, इसी
बुद्धिहीनता का परिणाम थी। अतः यह आवश्यक है कि हम इस मन्त्र पर पूर्ण रीति से
विचार करें और जो-जो परिस्थितियाँ, ऐसी उत्पन्न हो गई हैं,
जिनके कारण हम लक्ष्मी की प्राप्ति नहीं कर पाते, उनका निराकरण करें। जब हम कहते हैं कि वेद का पढ़ना और सुनना-सुनाना आर्यों
का परमधर्म है, तो इसका यही अर्थ है कि वेदमन्त्रों के
अर्थों को बुद्धि की कसौटी पर कसकर, और उनकी यथार्थ भावनाओं
को समझकर उनके अनुसार आचरण करें, तभी हमारी उन्नति होगी और
विश्व का कल्याण होगा।
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