द्वा सुपर्णा सयुजा सखाया
समानं वृक्षं परि षस्वजाते।
तयोरन्यः पिप्पलं
स्वाद्वत्त्यनश्नन्नन्यो अभि चाकशीति।।
-ऋग्वेद १//१६४//२०,
अथर्ववेद ९//९//२०
अर्थ– दो सुन्दर पक्षी, जो सहयोगी हैं और परस्पर मित्र हैं,
एक ही वृक्ष के ऊपर एक-दूसरे से लिपटे हुए स्थिति हैं। इन दोनों में,
एक इस वृक्ष के फल को मजे से खाता है, और
दूसरा पक्षी न खाता हुआ अध्यक्षता का काम करता है।
व्याख्या– देखने में यह एक पहेली-सी प्रतीत होती है, परन्तु
इसमें उपमा द्वारा आर्यसमाज के इस सिद्धान्त की पुष्टि की गई है, कि ईश्वर, जीव और प्रकृति तीन अनादि और अनन्त
अर्थात् नित्य पदार्थ हैं, इनकी न कभी उत्पत्ति होती है,
न विनाश। स्वामी दयानन्द ने तो ऐसा अर्थ किया ही है, परन्तु अन्य विद्वानों की भी इस विषय में पूर्णतया सहमति है। सायणाचार्य
ने लिखा है कि इसमें दो लौकिक चिड़ियों का दृष्टान्त देकर जीव और परमात्मा-इन दोनों
की स्तुति की गई है। निरुक्तकार यास्काचार्य ने भी ऐसा ही लिखा है कि जीव और
ब्रह्म दोनों धर्म करनेवालों की यहाँ प्रतिष्ठा दिखाई गई है। श्री शंकराचार्य ने
मुण्डक-उपनिषद् के भाष्य में तथा वेदान्त-दर्शन के भाष्य में इस मन्त्र को इसी
प्रकरण में लिया है।
परन्तु, इतने स्पष्ट मन्त्र की साक्षी होते हुए भी वेदान्तियों के भिन्न-भिन्न
सम्प्रदायों जैसे, शंकर-सम्प्रदाय तथा भास्कर -सम्प्रदायों
ने अद्वैत-सिद्धि के पक्ष में क्लिष्ट कल्पनाएँ की हैं। सायण ने इस भय से कि कहीं
कोई, उसके भाष्य को प्रचलित दार्शनिकों से विरुद्ध न कहे,
इन मतों की कुछ युक्तियाँ दी हैं। परन्तु थोड़े- से विचार से ही
स्पष्ट हो जाता है, कि वेमन्त्र से उनके सिद्धान्त की पुष्टि
नहीं होती, अपितु वैदिक त्रैतवाद ही सिद्ध होता है। मूल
व्याख्या करने से पूर्व, हमको यह प्राक्कथन करना पड़ा,
इसका यही कारण है कि इस विषय में अनेक भ्रान्तियाँ प्रचलित हैं। इन
ग्रन्थों के पूर्वापर-अध्ययन से निश्चय हो जाता है कि वेद के जिन मन्त्रों में जीव,
ब्रह्म और प्रकृति के नित्यत्व का स्पष्ट वर्णन है, उनको निरस्त करने के लिए कितने हेत्वाभास दिये गये हैं। अब हम मूल
व्याख्या पर आते हैं।
इस मन्त्र में उपमा अलंकार है, लुप्तोपमा अलंकार। साधारण उपमा में उपमा और उपमेय को अलग करके दिखाते हैं
और उपमा के साथ इव, न, वत् (समान,
ऐसा, जैसा) आदि साधर्म्य-सूचक शब्दों का
प्रयोग किया जाता है, परन्तु ‘लुप्तोपमा’
में इन शब्दों का लोप कर देते हैं। केवल उपमा ही उपमेय का भी बोधक
होती है। लुप्तोपमा का महत्व यह है कि साधर्म्य अधिक अनुभूत हो और जो कुछ
थोड़ा-बहुत वैधर्म्य है, जड़ दृष्टि से ओझल हो जाए। जहां
साधर्म्य है, वहां वैधर्म्य तो रहेगा ही। ‘इव’, ‘वत्’ आदि उपमा-बोधक शब्द
साधर्म्य के साथ-साथ वैधर्म्य का भी अवबोधन कराते रहते हैं। जैसे कहा जाए कि राणा
सांगा शेर के समान बहादुर था। इस वाक्य में ‘समान’ शब्द दो बातों का बोधक है। सांगा और शेर में निर्भयता का साधर्म्य अवश्य
था, फिर भी सांगा शेर नहीं था, मनुष्य
था। परन्तु, यदि सांगा को देखकर कोई कहे, ‘‘देखो! यह शेर आ रहा है’’ तो यहाँ ‘समान’ शब्द का लोप कर दिया गया, जिससे साधर्म्य अधिक चमक उठे, और वैधर्म्य आँखों से
तिरोहित हो जाए। लुप्तोपमा अलंकार का यह विशेष महत्त्व है, और
यह बात दृष्टि में रखने से मन्त्र की गम्भीरता का अधिक भान हो सकेगा।
वृक्ष का अर्थ है, भौतिक जड़ जगत् या भौतिक शरीर। इस पर दो पक्षी बैठे हैं-जीव और ब्रह्म।
इनमें साधर्म्य भी है, और वैधर्म्य भी है। सबसे पहला
साधर्म्य यह है कि दोनों का वृक्ष पर आवास है, परन्तु,
सबसे मुख्य वैधर्म्य यह है कि एक फल खाता है, दूसरा,
नहीं खाता। यह भेद थोड़े-से ही विचार से स्पष्ट हो जाता है। आप स्वयं
अपने शरीर पर दृष्टि डालें। आप आंख से देखते हैं। सुन्दर वस्तुओं को देखकर आनन्द
मनाते हैं। भयानक दृष्यों को देखकर, खेद का अनुभव करते हैं।
दोनों अवस्थाओं में आप शरीररुपी वृक्ष के फल को चखते हैं-मीठे फल को भी और कड़वे फल
को भी। आप इसके भोक्ता हुए। आंख आपकी है, आपके अधीन है। आप
चाहें, तो, आंख को बन्द रखें। न सुन्दर
दृश्य देखकर हर्ष होगा, न कुरूप को देखकर दुख, परन्तु, आप यत्न करने पर भी, इसमें
देर तक सफल नहीं होंगे, क्योंकि, आपकी
आन्तरिक भूख आपको बाधित करेगी कि आप आंखें खोलकर उनका उपभोग करें। यदि यह आन्तरिक
भूख न होती, तो अन्धे कभी आंखों के लिए न तरसते। यह सिद्ध है
कि आँख के आप उपभोक्ता हैं, और नैसर्गिंक रीति से हैं। यह
आपका प्राकृतिक स्वभाव है। आप सदैव भोक्ता रहे हैं और रहेंगे।
परन्तु ‘आँख’ आपकी होते हुए भी आपकी नहीं है। आप उसका भोग कर
सकते हैं, योग नहीं कर सकते। अर्थात् आप संयोजक नहीं हैं।
आँख न आपने बनाई और न आप सर्वथा उसको अपनी आज्ञा में रख सकते हैं। जब आँख में पीड़ा
होती है, तो, आँख आपकी अधीनता को परे
फैंक देती है और आपसे विद्रोह कर बैठती है। आँख भौतिक है, जड़
है, चैतन्यशून्य है। यह विरोध क्यों करे, जब तक कोई दूसरा प्रेरक न हो। इससे ज्ञात होता है कि, आपके अतिरिक्त आप के ही समान चेतनत्व वाली कोई और सत्ता भी है, जो आपके साथ-साथ ही उसी वृक्ष पर बैठी है। यह आँख का स्वयं उपभोग तो नहीं
करती, परन्तु, ‘अभिचाकशीति’ अर्थात् अध्यक्षता करती है। ‘अभिचाकशीति’ का अर्थ केवल देखना नहीं है। ‘अभि’ उपसर्ग का विशेष अर्थ है। ‘अभि’ ने देखने के कार्य को अधिक गौरवशाली बना दिया। द्रष्टा का अर्थ है-‘अध्यक्ष’।
यहां ‘त्रित’ शब्द है। एक, आप,
जो आँख से देखते हैं। दूसरा, ब्रह्म जो आँख को
आपके लिए बनाता और परिस्थिति के अनुसार उस की देखभाल रखता है, और तीसरी, आँख जो जड़ है, अर्थात्
एक जड़ अर्थात् अचेतन वृक्ष पर दो पक्षी हैं। आँख का अध्यक्ष आँख से देखता नहीं,
आँख के फल को चखता नहीं। परन्तु, आँख के
भोक्ता के लिए, सामान इक्ट्ठा करता है। कल्पना कीजिए,
इस अध्यक्षता की। इस जड़ सृष्टि में आप आगन्तुक हैं, मेहमान हैं, अतिथि हैं। आतिथ्य करनेवाला कोई और है,
जो भोजन बनाता है, खाता नहीं। सृष्टि के
असंख्य प्राणी अपने भोग के लिए अपने शरीरों में आँखें रखते हैं। इनमें से कोई
आँखों का बनानेवाला नहीं। बहुत-से तो बालक के समान इतने अबोध हैं कि, आंख से देखते हुए भी यह नहीं जानते कि उनकी आँखें हैं। बच्चा माता के दूध
को पीता है, परन्तु जानता नहीं कि दूध क्या है और कहाँ से
आया है। आँख न स्वयं बनती है, न बिगड़ती है। बनने के लिए भी
अध्यक्ष की आवश्यकता है और बिगड़ने के लिए भी, क्योंकि बिगाड़
भी एक परिवर्तन है, जिसमें चेतन की अपेक्षा होती है। हां,
एक बात अवश्य है, दोनों पक्षी, एक भोक्ता और दूसरा अध्यक्ष एक-दूसरे के साथ ऐसे चिपटे हुए हैं, कि साधारण दृष्टि से पता नहीं चलता कि किसका कितना क्षेत्र है। शक्कर और
दूध जब मिल जाते हैं, तो यह जानना कठिन होता है कि कितना अंश
दूध का है और कितना शक्कर का। एक और दृष्टान्त लीजिए। कभी-कभी आपने देखा होगा कि
एक ही वृक्ष पर दो भिन्न-भिन्न लताएँ चढ़ जाती हैं। वे एक-दूसरे से इतनी लिपट जाती
हैं कि, यदि वृक्ष की चोटी पर उन दो लताओं के भिन्न-भिन्न
प्रकार के फूल या पत्ते दिखाई पड़ें, तो यह कहना कठिन होगा कि
अमुक फूल किस लता का है, क्योंकि दोनों आपस में गुत्थी हुई
हैं। यही अवस्था इन दो पक्षियों की है। प्रायः बड़े-बड़े दार्शनिकों की बुद्धि चकरा
जाती है कि अमुक क्रिया जीव के कार्यक्षेत्र की है, या
ब्रह्म के। जहाँ भोग स्पष्ट है, वहाँ तो जीव की सत्ता स्पष्ट
दीखती है, जहाँ भोग में बाधा है, वहाँ
भोक्ता की असमर्थता भी उसकी सत्ता की सीमा की सूचक है। कहावत भी है कि मनुष्य
चाहता है और ईश्वर रोकता है, अर्थात Man proposes God
disposes.
एक और दृष्टान्त लीजिए। जब
कोई प्राणी मरता है,
तो उसका जीव उसके शरीर से निकलता है। मरने वाला अनुभव करता है कि
मैं यहाँ से जा रहा हूं। ब्रैडला इंग्लैण्ड का एक प्रसिद्ध अनीश्वरवादी विचारक और
प्रचारक था। उन्नीसवीं शताब्दी के अन्त में उसने एक अनीश्वरवाद प्रचारिणी सभा खोली
थी। वह कहा करता था कि यदि, मनुष्य में जीव मानते हो,
तो, कुत्तों में भी जीव मानना पड़ेगा। ईसाई
दार्शनिक कुत्तों में जीव नहीं मानते। इस आधार पर, ब्रैडला
मनुष्यों में भी जीव होने का निषेध करता था। परन्तु, सुना
जाता है कि वह जब मरने लगा, तो, उसको
अनुभव होता था कि कोई अज्ञात शक्ति, उसको उसके शरीर से
निकलने के लिए बाधित कर रही है। मृत्यु की यह घटना तो सभी के समक्ष है। भेद केवल
घटना की व्याख्या का है। कोई मरना नहीं चाहता। देह जड़ है। देह हमको निकाल नहीं
सकती। हम निकलना नहीं चाहते। कोई तीसरी सत्ता, जो इस देह की
अध्यक्ष है, हमको बाधित करती है कि अब भोग भोग चुके, खाना हो चुका, पत्तल पर से उठिए- इससे भी वृक्ष और
दो पक्षियों की उपमा ठीक समझ में आती है। हमने यहां भोक्ता और द्रष्टा के स्थान
में भोक्ता और अध्यक्ष शब्द का प्रयोग किया है, क्योंकि ‘अभिचाकशीति’ का ठीक अर्थ न समझकर कुछ लोगों की धारणा
बन गई कि जीव को भोक्ता और ब्रह्म को द्रष्टामात्र (Mere spectator) कहें। यदि वृक्ष के धारण और जीव के पालन में ईश्वर का कोई हाथ नही,
तो द्रष्टामात्र का क्या अर्थ, क्या प्रयोजन
और क्या गौरव? निरपेक्ष दर्शक के अस्तित्व का प्रमाण भी क्या?
वेद में अन्यत्र कहा भी है कि हे प्रभो! हम आपका दाहिना हाथ पकड़ते
हैं, अर्थात्, हम अपने भोगों के लिए
आपकी अध्यक्षता के आश्रित हैं।
जगत् की किसी घटना को लीजिए।
आपको ये तीन सत्ताएँ स्पष्ट दिखाई देंगी- जड़ वृक्ष, अल्पज्ञ
भोक्ता जीव, और सर्वज्ञ अध्यक्ष ब्रह्म। ये परस्पर संयुक्त
हैं। कोई जीव न ईश्वर से अलग है, न प्रकृति से। न कोई
प्रकृति ईश्वर से अलग अथवा ऐसी है, जो जीव का भोग न हो। न
ईश्वर, प्रकृति और जीवों से अलग है।
अब प्रश्न यह है कि क्या ये
तीन सत्ताएँ वास्तव में एक नहीं, तीन हैं? दर्शनशास्त्र
का यह एक जटिल प्रश्न है। द्वैतवाद, अद्वैतवाद, विशिष्ट द्वैतवाद, भेदाभेदवाद आदि-आदि अनेक वाद हैं
और इन विषयों के अध्ययन के लिए सैकड़ों ग्रन्थ मिलेंगे, जिन्होंने
अपने मत की पुष्टि में बहुत कुछ प्रतिपादित किया है और उपनिषद् में आए हुए इस
स्पष्ट त्रैत के एकीकरण का बहुत कुछ यत्न किया गया है। जीव और ब्रह्म में साधर्म्य
होते हुए भी वैधर्म्य का निराकरण असम्भव है। दुख, अज्ञान,
दो ऐसे धर्म हैं जिनका ईश्वर पर अध्यारोप कर ही नहीं सकते।
अल्पज्ञता तथा जड़त्व, भोक्तृत्व और भोग्य पदार्थ, ये दोनों ब्रह्म में नहीं पाये जाते। एक में तीन और तीन में एक की कल्पना
किसी भी प्रकार सम्भव प्रतीत नहीं होती। कुछ लोग समझते हैं कि जो कुछ उत्पन्न जगत्
है, वह सब ईश्वर के लिए है। यह बात कहने में अच्छी लगती है।
भक्त भक्ति के भाव में बहकर, कैसी भी भाषा का प्रयोग कर सकता
है, परन्तु सत्यता तो ऐसी नहीं है। ईश्वर या उसके प्रतिनिधि
को खिलाने-पिलाने का बखेड़ा, इसी भ्रान्ति का परिणाम है। हम
अपने भोक्तृत्व को ईश्वर पर भी आरोपित करते हैं। मन्दिरों और देवालयों में जो
ईश्वर को खिलाने का प्रतिदिन ड्रामा खेला जाया करता है, वह
ड्रामे से इतर कुछ नहीं और अविद्यासूचक है। भोक्ता तो जीव है, अतः जीवों को खिलाने का यत्न करना चाहिए, ईश्वर को
खिलाने का नहीं। देवी-देवताओं पर बलि चढ़ाना भी, इस वेदमन्त्र
का ज्ञान न होने के कारण है।
यदि, इस मन्त्र का रहस्य लोगों की समझ में आ जाए तो, जड़-जगत्
अल्पज्ञ जीव और सर्वज्ञ ईश्वर के परस्पर-सम्बन्ध को समझकर हम बहुत-से निरर्थक
कार्यों से बच सकते हैं तथा देश और जाति के लिए अधिक उपयोगी सिद्ध हो सकते हैं।
चौदहवां मंत्र
ब्राह्मणोऽस्य मुखमासीद्
बाहू राजन्यः कृतः।
ऊरू तदस्य यद् वैश्यः
पदभ्यां शूद्रो अजायत।।
-ऋग्वेद १0//१0//१२, अथर्ववेद १९//६//६,
यजुर्वेद ३१//११
अर्थ– इस पुरुष का मुख ब्रह्मण हो गया।
इसके दोनों बाहु, क्षत्रिय मान लिये गये। इसकी वही दोनों
जाँघें समझिए, जो वैश्य है। दो पैरों से शूद्र उत्पन्न हो
गया।
व्याख्या– यह मन्त्र, उन थोड़े-से वेदमन्त्रों में से है,
जिससे अधिक-से-अधिक लोग परिचित हैं। हिन्दुओं में जो वर्तमान
जातिभेद, छूत-छात, ऊँच-नीच, वर्गद्वेष फैला हुआ है, उसका आधार यही मन्त्र समझा
जाता है। यदि कल्पित गाथाओं को सर्वथा भुलाकर, केवल मन्त्रों
पर ही विचार किया जाए, तो यह वेदमन्त्र वैदिक समाजशास्त्र का
बड़ा उत्कृष्ट सुदृढ़ आधार सिद्ध होगा। मलाई, कीचड़ में पड़कर मल
बन जाती है। सोना, मूर्खों के अधिकार में आकर मैला पड़ जाता
है। औषधि, कुवैद्य के हाथ में पड़कर विष बन जाती है। ये बस
अविद्या के परिणाम हैं और यह मन्त्र दुर्भाग्य से उन परिणामों का एक जीता-जागता
नमूना है, जिसने हिन्दूजाति को नष्ट और हिन्दूसभ्यता को
कलंकित कर दिया। इस मन्त्र का लोकपरिचित अर्थ यह है -प्रजापति के मुख से ब्राह्मण
उत्पन्न हुए, भुजाओं से क्षत्रिय, जंघाओं
से वैश्य और पैरों से शूद्र, इसलिए, ब्राह्मण
सबसे ऊंचे और शूद्र सबसे निकृष्ट हैं। परिणामतः शूद्र अछूत समझे जाते हैं और उनको
बहुत-से वे अधिकार प्राप्त नहीं हैं, जो ब्राह्मण आदि को
हैं। यदि कोई पूछे कि आजकल तो ब्राह्मण मुख से उत्पन्न नहीं होते, न क्षत्रिय बाहू से, न वैश्य जंघाओं से, न शूद्र पैरों से। आजकल तो, सबका उत्पत्ति-स्थान तथा
उत्पत्ति-विधान समान है, फिर यह भेदभाव क्यों? तो इसका, यह उत्तर दिया जाता है कि आदि सृष्टि में
ऐसा ही हुआ था। अब जन्म-जन्मान्तरों से वहीं पूर्वजों का दोष, सन्तति में भी चला आता है और अन्तकाल तक चलता जाएगा। इस प्रतिपत्ति की
पुष्टि में, न तो कोई तर्क था, न
इतिहास की साक्षी, परन्तु, ऐसी मान्यता
फैल जाने पर, भाष्यकारों ने भी किसी-न-किसी प्रामाणिक अथवा
अप्रामाणिक ग्रन्थ के कुछ कथनों को, बिना किसी परीक्षा के
अपने भाष्यों का आधार बना लिया। सायणाचार्य ने लिखा है कि कृष्णयजुर्वेद की
तैत्तिरीयसंहिता में स्पष्ट शब्द-प्रमाण है कि ‘‘प्रजापति ने
मुख से तीन वर्णों का निर्माण किया।’’ जब जनता में यह
प्रसिद्ध कर दिया जाता है कि अमुक बात, उनके धर्म-ग्रन्थों
में लिखी है तो, जनता घोर-से-घोर पाप को भी पुण्य समझकर,
उस पर आरूढ़ हो जाती है। धर्म-ग्रन्थों को आंख बन्द करके मान लेने का
यह अत्यन्त दोषपूर्ण परिणाम है। इस युग में ऋषि दयानन्द ऐसे महापुरुष हुए हैं,
जिन्होंने धर्मग्रन्थों के परीक्षण को भी आवश्यक बताया और ‘ब्राह्मणोऽस्य’ इस मन्त्र के तर्कयुक्त उत्तम अर्थ
हमारे सामने उपस्थिति किये। यह बात नहीं कि अन्य भाष्यकारों को उन प्रचलित मतों की
निस्सारता खटकती न थी। भाष्यकार बुद्धिहीन तो न थे, विद्वान
थे, मतिमान् थे। मन में समझते रहे होंगे कि ऐसी थोथी बात को
कैसे मान्यता दी जाए? मुख से ब्राह्मण की उत्पत्ति का अर्थ
ही क्या हो सकता था? परन्तु, बहुत
प्राचीनकाल से यह रोग चला आता है कि धार्मिंक बातें परोक्ष हैं, उनमें बुद्धि लड़ाना पाप है।
मन्त्र के महत्त्व को समझने
के लिए,
एक और आवश्यक बात यह है कि मन्त्र के प्रकरण पर विचार करना चाहिए। यह
मन्त्र पुरुषसूक्त का एक भाग है और थोड़े-से साधारण पाठभेद या क्रमभेद से ऋग्वेद,
यजुर्वेद तथा अथर्ववेद में आया है। पुरुषसूक्त में क्या है, यह देखना होगा।
पुरुषसूक्त पूरा-का-पूरा
लुप्तोपमा अलंकार है। केवल एक उपमा नहीं, अपितु, उपमाओं की एक श्रृंखला है, जिसमें सब उपमाएँ
एक-दूसरे से सम्बद्ध हैं। ‘पुरुष’ का
अर्थ है ‘शरीर’। केवल भौतिक शरीर नहीं,
क्योंकि भौतिक शरीर तो जड़ है, जीवात्मा-युक्त
शरीर, जिसको लोकभाषा में कहते हैं-जिन्दा, जीता-जागता, क्योंकि बिना शरीरी के शरीर नहीं होता।
शरीरी के पृथक हो जाने पर शरीर नहीं कहलाता, लाश कहलाती है।
शरीर वही है, जिसमें जीवात्मा पूर्णरुपेण जाग्रत् या कार्य
करता हो। (A body is a body only so long as the soul therein is
functioning in full vigour) शरीर शब्द की सिद्धि संस्कृत-वैयाकरणों
ने ‘शृ हिंसायाम्’ धातु से की है। यह
मुझे सर्वथा अनुचित प्रतीत होती है। धातु और धातुज शब्द में, कुछ तो सम्बन्ध आवश्यक है। यह आवश्यक नहीं है कि वर्तमान धातुपाठ पूर्ण ही
हो, या वर्तमान व्याकरणों से जो सिद्ध होता है, वही हर अवस्था में लागू हो। शरीर कई ऐसे अवयवों या वस्तुओं का संघात नहीं
जो असम्बद्ध हों। शरीर एक संस्थान या आर्गेनिज्म (Organism) है,
अर्थात् इसका हर एक अंग अपने दूसरे अंगों के संरक्षण में सहायक होता
है। आंख अपना भी संरक्षण करती है और शरीर का भी। भोजन को पचानेवाले अंग शरीर को भी
शक्ति देते हैं और स्वयं अपने को भी, क्योंकि इनमें पुरुषत्व
या शरीरत्व है। रेल का इंजन भाप बनाता है, परन्तु भाप उस
इंजन को शक्ति नहीं देती। जितनी अधिक भाप बनेगी, उतना अधिक
इंजन घिसेगा और कमजोर होगा, क्योंकि इंजन पुरुष नहीं है,
परन्तु हमारा जठर पुरुष का अंग है। खाना न पाने से जठर भी नष्ट होगा
और समस्त शरीर भी। यह एक विचित्र गुण है, जो ‘पुरुष’ अर्थात् शरीर में ही पाया जाता है।
पुरुष की उपमा देकर, वेदमन्त्र इस सूक्ष्म रहस्य को व्यक्त करता है कि जैसे शरीर एक पुरुष या
आर्गेनिज्म है, उसी प्रकार जगत् भी एक आर्गेंनिज्म है,
जिसका हर भाग जगत् के रक्षण में भागीदार है। समस्त पुरुषसूक्त में
आदि से लेकर अन्त तक किसी-न-किसी रूप में लुप्तोपमा का महत्त्व दर्शाया गया है।
परन्तु ‘ब्राह्मणोऽस्य मुखं’ इस मन्त्र में जगत् के अन्य
अंगों से हटकर विशेषतः मानव-समाज को पुरुष माना गया है, और
उसी प्रकार प्रत्येक अंग का पूरे मानव -समाज से सम्बन्ध दिखाया गया है। इसके दो
पक्ष हैं-एक तो प्रत्येक अंग का दूसरे अंगों से भिन्न होना, दूसरा,
हर अंग का दूसरे अंगों का पूरक होना। ‘भिन्नत्व’
और ‘पूरकत्व’ दोनों को
एक साथ समझने की आवश्यकता है। जिस भिन्नत्व में पूरकत्व नहीं, वह पुरुष का अंग नहीं। शरीर में दो आंखें हैं। ये दोनों भिन्न-भिन्न हैं।
दाहिनी आँख अलग, बाईं अलग। परन्तु, दाहिनी
बाईं के रूप के यथेष्ट प्रदर्शन में पूरक है। काना आदमी दो आँखों वाले के समान
नहीं। इसी प्रकार, हर अंग का हाल है। जब मानव-समाज को विराट्
रूप देकर पुरुष कहा गया तो उसके अंग गिनाये गये। उनके भिन्नत्व पर बल देने के लिए
नहीं, अपितु पूरक होने पर। शरीर को पुरुष तभी तक कहेंगे,
जब तक कि इसके अंग, दूसरे अंगों के पूरक हैं।
यदि एक अंग, दूसरे की पूर्ति नहीं करता तो, वह या तो रोगी शरीर है या मृत शरीर। अवयवों के संघात का नाम अवयवी नहीं।
यदि, केवल अवयवों के संख्या-सम्बन्धी जोड़ का नाम ही अवयवी
होता, तो अवयवों की विशेष व्यवस्था न होती। इस प्रकार,
समाजरुपी पुरुष के अंग भी सुव्यवस्थित होने चाहिएँ, जैसे स्वस्थ शरीर के अंग हेाते हैं। समाजशास्त्र इसी व्यवस्था का तन्त्र
है। मनुष्यों की गिनती से समाज नहीं बनता। यदि किसी शरीर का सिर कट जाए, तो यह नहीं कह सकते कि दस अंगों में एक ही अंग तो कटा है, अतः १/१0 भाग अवयवों के उपस्थिति रहते हुए शरीर भी
१/१0 सुरक्षित होगा। जब आप, वेदमन्त्र
को इस दृष्टि से देखेंगे कि यह पुरुषसूक्त का अंग है और पुरुष का अर्थ है-
सुव्यवस्थित अंगोंवाला शरीर, तो इस मन्त्र की उपयोगिता समझ
में आ सकेगी। मन्त्र में मानव-पुरुष या मानव-विराट् के अंगों की गिनती नहीं गिनाई
गई। यह अंगों का सूचीपत्र नहीं है, जिसमें कहा हो कि
समाजरुपी दुकान पर, एक, सिर या
ब्राह्मण है। दूसरा, बाहू या क्षत्रिय है। यहां प्रत्येक अंग
की इतिकर्त्तव्यता का विधान है। मानव शरीर पर दृष्टि डालिए। उपमा के साधर्म्य को
सोचिए। भोजन, हमारे शरीर में शुद्ध रक्त बनाता है। इस रक्त
के जो बिन्दु मस्तिष्क में पहुंच जाते हैं, वे मस्तिष्क का
कार्य करने लगते हैं, जो पैर की अंगुली में पहुंचते हैं,
वे पैर बन जाते हैं। जब डाक्टर बताता है कि बादामा खाओ, आंख की रोशनी बढ़ेगी, तो उसका यही तो अभिप्राय होता
है कि बादाम से जो रक्त बनेगा, वह आंख में जाकर आंख बन
जाएगा। इस उपमा को आप सब क्रियाओं और प्रतिक्रियाओं पर घटा लीजिए। अब आप वेदमन्त्र
पर आइए। लोगों ने मूर्खता से यह समझा कि शरीर के अंगों की भिन्नता दिखाई गई है,
अर्थात् जो चार वर्ण हैं, वे एक-दूसरे से
भिन्न हैं, पूरक नहीं, अतः ब्राह्मण
अलग हो गये, क्षत्रिय अलग हो गये, वैश्य
अलग और शूद्र अलग। एक-दूसरे से सम्पर्क नहीं, प्रत्येक अंग
अपनी ही रक्षा के लिए प्रयत्नशील हुआ। परस्पर सहयोग जाता रहा। हिन्दूसमाज की
प्रचलित वर्ण-व्यवस्था में यहीं दोष है। नाम के लिए चार वर्ण हैं, परन्तु वे हैं, अलग-अलग, अर्थात्
हिन्दू-समाज स्वस्थ समाज नहीं, रुग्ण समाज है या मृतप्रायः
समाज। वेदमन्त्र का यह आशय कदापि नहीं था।
दूसरी भूल यह हुई कि वाक्य
में जो उद्देश्य था,
उसको विधेय समझ लिया गया। वाक्य था ‘अस्य मुखं
ब्राह्मण आसीत्’ अर्थात् मानव-समाजरुपी विराट् पुरुष का जो
मुख्य भाग होगा, उसका नाम हम ‘ब्राह्मण’
रखेंगे इत्यादि, परन्तु, हमने इसका अर्थ लिया कि जो ब्राह्मण कहलाता होगा, उसको
हम समाज का मुखिया कहेंगे। इन दोनों की भावनाएँ बदल जाती हैं। जो वैद्य का काम
करने योग्य होगा, और जो उस काम को योग्यता से करेगा, उसको हम वैद्य कहेंगे। यह भावना सुव्यवस्था की सूचक है। जिनका नाम वैद्य
होगा, उससे हम वैद्य का काम लेंगे। यह भावना कुव्यवस्थित
समाज की है। वर्तमान हिन्दूसमाज की भावनाएँ पूर्वकथित नहीं, उत्तरकथित
हैं, इसलिए हिन्दूसामज वर्णव्यवस्थाहीन है और जो कुछ
सम्प्रदाय अपनी स्वार्थसिद्धि के लिए ‘वर्णधर्म’ ‘वर्णधर्म’ की दुहाई देते हैं, वे
दूषित विचारों का प्रचार करते हैं। जन्म से वर्णव्यवस्था मानने का यही दोष है।
सबसे भयानक और घातक भावना यह है कि चार वर्ण प्रजापति के चार अंगों से उत्पन्न
हुए। यहां तो तात्पर्य यह है, कि मनुष्यों की भिन्न-भिन्न
प्रकृतियों (गुण, कर्म और स्वभाव) तथा उनमें से हर एक का
मानव-समाजरुपी स्वस्थ शरीर के रक्षण का उत्तरदायित्व दृष्टि में रखकर ऐसी व्यवस्था
करनी आवश्यक है कि समष्टि रूप से मानव-समाज उन्नति करता रहे और इसमें रोग न होने
पाये। इसकी सबसे अच्छी उपमा शरीर या पुरुष से ही दी जा सकती थी। इस भावना के साथ
इससे अच्छी उपमा मिलनी कठिन थी। इस उपमा को सुनकर लोग फड़क उठे। उन्होंने पहले कभी
यह उपमा सुनी न थी। परन्तु वेद में तो यह उपमा न जाने कितने काल से चली आती है।
ईरान के प्रसिद्ध कवि, सादी शीराजी ने कहा है ‘‘बनी आदम आजाये यक दीगरन्द’’ अर्थात् मनुष्य परस्पर
एक-दूसरे के अंग हैं। अंग कहने का अर्थ ही यह है कि वे पूरक या सहायक हैं। आँख
स्वयं ही नहीं देखती, पैर और हाथ को भी देखने के योग्य बनाती
है। आंखों की सहायता से हाथ मीठे फल को पकड़ लेता है।
यह वर्णव्यवस्था, जिसे चतुर्वर्ण्य कहते हैं, स्वतः सिद्धि नहीं,
अपितु समाज-कल्पित और समाज-शासित है। प्रत्येक व्यवस्था का ऐसा ही
रूप होता है। स्वयंसिद्ध वस्तु के लिए न बिगाड़ का भय होता है, न सुधार या संरक्षण की चिन्ता। स्वयंसिद्ध चीज मानव-चिन्ता के क्षेत्र से
बाहर की वस्तु है। मनुष्य का सिर कन्धों के ऊपर होता है, यह
स्वयंसिद्ध बात है। किसी को इसमें हस्तक्षेप की गुंजायश नहीं है, न कोई चिन्ता करता है, परन्तु मुख-प्रक्षालन
मानव-कल्पित और मानव-शासित वस्तु है, अतः बचपन से इसकी
शिक्षा दी जाती है। इसी प्रकार जहाँ तक मानव समाज के वर्गीकरण का प्रश्न है,
इससे पहले मन्त्र में स्पष्ट कहा गया है किः-
जब इस मानव -समाजरुपी ‘पुरुष’ (Organism) की व्यवस्था की गई, तो इस संकल्प के दो लक्ष्य थे-व्यक्ति की रक्षा और समष्टि की रक्षा।
व्यक्ति की रक्षा के लिए जीविका का प्रबन्ध सोचा गया और समष्टि की रक्षा के लिए
व्यक्ति के कर्तव्य निर्धारित किये गये। इन दोनों भावनाओं के समन्वय का नाम
वर्णव्यवस्था है।
चतुर्वर्ण्य – व्यवस्था का प्रयोजन यह है कि समाज प्रत्येक व्यक्ति के गुणों (योग्यता)
का निरीक्षण करे। उनके अनुकूल, उसके कर्म (कर्तव्यता) की
नियुक्ति हो अर्थात् समाज प्रेरणा तथा आदेश द्वारा उससे अधिक-से अधिक काम ले और
उसके विभाग (जीवन-साधनों का विभाजन) का प्रबन्ध करे। अच्छा शासन (गवर्नमेंट) उसको
कहेंगे, जिसमें प्रत्येक व्यक्ति की योग्यता की परीक्षा की
जाती है और उस योग्यता के अनुकूल, उसको सामाजिक संगठन तथा
संरक्षण का काम सौंपा जाता है। इसी का नाम है- प्रजा का परिपालन। यह परिपालन केवल
क्षत्रिय ही नहीं कर सकता, इस परिपालन में प्रत्येक छोटे-बड़े
आदमी का हाथ है। समाज की गाड़ी को सभी मिलकर आगे बढ़ाते हैं। इसी का नाम तो
सर्वतन्त्र शासन (डैमोक्रेसी) है। सरकार का काम तो केवल यह प्रबन्ध करना है कि कोई
व्यक्ति ऐसा न छूट जाए, जो समाज की उन्नति में उचित मात्रा
में भागीदार नहीं बनता, तथा यह भी देखना है कि कोई भूखा तो नहीं
मर रहा? जहाँ कहीं शास्त्रों में विधान है कि राजा का
कर्तव्य है कि चतुर्वर्ण्य की उचित व्यवस्था करें, वहाँ उसका
यह तात्पर्य नहीं है कि थोड़े-से वेदमन्त्र सुनकर या एक लिखित परीक्षा लेकर यह
घोषणा कर दे कि तुम ब्राह्मण वर्ण के हो, अपने नाम के आगे ‘शर्मा’ लगाया करो, तुम
क्षत्रिय वर्ण के हुए, तुमको ‘वर्मा’
लगाने का अधिकार हो गया, तुम वैश्य वर्ग के हो,
तुमको अपने नाम के साथ ‘गुप्त’ लगाने का अधिकार है, राज ने तुमको शूद्र प्रमाणित
किया है, तुम अपने को ‘दास’ लिख सकते हो। वस्तुतः यह वर्णव्यवस्था नहीं, वर्णव्यवस्था
का दुरुपयोग है और इससे द्वेष तथा भेदभाव बढ़ता है। वस्तुतः वैदिक आदर्श राज्य वह
होगा कि जिसके प्रबन्ध में हर ब्राह्मणत्व की योग्यता रखनेवाले को ब्राह्मण के
कर्त्तव्यों के पालन का अवसर मिले और उसी के द्वारा वह जीविका प्राप्त कर सके। इसी
प्रकार अन्य लोग भी। न कोई निठल्ला रहे, न भूखा रहे, न अपने गुणों का दुरुपयोग करने के लिए प्रेरित हो सके। इस प्रकार
वर्णव्यवस्था कर्म तथा फल दोनों का यथोचित निर्धारण करती है। वर्णव्यवस्था केवल
आध्यात्मिक प्रश्न नहीं, आर्थिक प्रश्न भी है, जीविका का भी प्रश्न है। इसलिए, एक बात और स्पष्ट हो
जाती है, जो शायद नई-सी प्रतीत हो, परन्तु,
वेदमन्त्र पर विचार करने से उचित प्रतीत होती है, वह यह कि चतुर्वर्ण्य का सम्बन्ध केवल गृहस्थ आश्रम से है, क्योंकि गृहस्थ-आश्रम ही मानव-समाज का मुख्य और व्यावहारिक भाग है। मनु जी
ने भी गृहस्थ-आश्रम को सब आश्रमों का मूलाधार माना है। अन्य आश्रम गृहस्थ के ही
आश्रित हैं। ब्रह्मचर्य आश्रम में, समाज के अन्य वर्गों का
प्रश्न ही नहीं उठता। हर शिशु को पूर्ण रीति से विकास करने का अवसर मिलना चाहिए।
वर्ण तो गुणों की परीक्षा के पश्चात् ही निश्चित हो सकेगा। कच्चे फलों का वर्गीकरण
कैसा? जिस देश में पिताओं की प्रतिष्ठा देखकर, बच्चों की शिक्षा का प्रबन्ध हो, वह देश उन्नत तो
नहीं कहा जा सकता। जहाँ, वेद पढ़ाने के लिए कुल के पूर्वजों
का इतिहास देखना आवश्यक हो, वहां, पक्षपात
भी अवश्य होगा और बहुत-से शिशु शैशवकाल में ही अयोग्य सिद्ध हो जायेंगे।
मध्य-कालीन संस्कारों तथा रस्मों-रिवाज में, जो पग-पग पर
वर्ग-भेद के चिह्न मिलते हैं, वे वैदिक काल के तो नहीं हो
सकते और उन्होंने अपने काल में समाज की पर्याप्त हानि की होगी। वहीं संस्कार हमको
दायभाग में मिले हैं। वानप्रस्थ और संन्यासियों में चार वर्गों का भेदभाव होना भी
ठीक प्रतीत नहीं होता। ब्राह्मण वानप्रस्थ, क्षत्रिय
वानप्रस्थ, वैश्य वानप्रस्थ, शूद्र
वानप्रस्थ और इसी प्रकार ब्राह्मण संन्यासी, क्षत्रिय
संन्यासी, वैश्य संन्यासी और शूद्र संन्यासी का क्या अर्थ?
ये दोनों आश्रम तो वर्णभेद से ऊपर उठ जाते हैं। जब वर्णव्यवस्था
जन्म-परक मान ली गई, तो संन्यासियों में भी दलबन्दी हुई।
सम्प्रदायों की अपेक्षा से संन्यासियों का भी वर्गीकरण हुआ। पुत्रैषणा, वित्तैषणा और लोकैषणा का केवल रूप बदला। पुत्रैषणा का स्थान लिया
शिष्यैषणा ने, वित्तैषणा का स्थान लिया मठैषणा ने और लोकैषणा
कुछ बढ़ गई, घटी नहीं। यह है साम्प्रदायिकता की घुड़दौड़,
जो आजकल भी वातावरण को दूषित करती रहती है। यदि, वानप्रस्थ का काम तपस्या है और यदि संन्यासी का काम धर्म प्रचार है तो कौन
संन्यासी किस सम्प्रदाय का है, इसका क्या अर्थ? सभी वानप्रस्थ सत्य की खोज करें और सभी संन्यासी बिना मत-मतान्तर की
अपेक्षा के सर्वतन्त्र धर्म की प्रेरणा करें, तो ही समाजरुपी
पुरुष के अंग और उपाङ्ग ठीक हो सकते हैं।
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