पन्द्रहवां मंत्र
इहैव स्तं मा वि यौष्टं
विश्वमायुव्र्यश्नुतम्।
क्रीळन्तौ
पुत्रैर्नप्तृभिर्मोदमानौ स्वे गृहे।।
-ऋग्वेद १0//८५//४२, अर्थर्ववेद १४//१//२२
अर्थ– तुम दोनों वियोग मत करो, अलग-अलग न रहो। पूरी आयु को
तुम दोनों भोगो। पुत्रों के साथ, नातियों के साथ, तुम दोनों खेलते हुए, अपने घर में आनन्द मानो।
व्याख्या– यह मन्त्र गृहस्थ आश्रम का मूलाधार है। इसमें वर और वधू को विवाह के समय
का उपदेश है। ‘इससे पहली बात तो यह निकलती है कि वैदिक विवाह,
एक पुरुष का, एक स्त्री के साथ ही होना चाहिए।
बहुपत्नी-भाव और बहुपति-भाव वैदिक व्यवस्था के विरुद्ध हैं। न तो एक पति की कई
स्त्रियाँ होनी चाहिएँ, न एक स्त्री के कई पति। भिन्न-भिन्न
देशों और युगों में भिन्न प्रथाएँ प्रचलित हैं। कहीं एक स्त्री के कई पति होते हैं,
कहीं एक पति की कईं स्त्रियाँ होती है। हिन्दुओं में बहुपत्नी-प्रथा
तो बहुत दिनों से चली आती है, विशेषकर राजाओं में।
ऋषि-महात्माओं के साथ भी कहीं-कहीं कईं पत्नियों का उल्लेख मिलता है, जैसे याज्ञवल्क्य के दो पत्नियाँ थी। द्रोपदी के पांच पति विख्यात हैं।
परन्तु, ये अपवाद मात्र हैं और समाज की, उस समय क्या अवस्या थी, इसका भी पूरा ऐतिहासिक ज्ञान
नहीं हैं, अतः यह कहना कठिन है कि एक पति और एक पत्नी की
वैदिक व्यवस्था कब और क्यों तोड़ी गई। पौराणिक गाथाओं ने अनेक प्रकार के बहाने
खोजने के लिए कहानियां गढ़ लीं, जिनका सिर-पैर नहीं मिलता।
जैसे द्रोपदी के विषय में कुन्ती का अज्ञानवश वरदान। इससे यह तो पता चलता है कि
भारतवर्ष में बहुपत्नी-प्रथा तो रही, परन्तु उसको प्रशंसनीय
नहीं समझा गया। सम्भव है, जब जातिभेद के कारण रोटी-बेटी का
प्रश्न उपस्थित हुआ तो लड़के-लड़कियों की संख्या में अधिक भेद होने के कारण या किसी
राजनैतिक भय के उपस्थित होने पर उस समय के नेताओं ने कुछ सामयिक व्यवस्थाएँ जारी
कर दी हों, परन्तु वेदमन्त्रों तथा संस्कार पद्धतियों को
देखने से तो यही जान पड़ता है कि एक पत्नी और एक पति की व्यवस्था ही प्रशंसनीय मानी
गई है। सम्भव है कि उच्छृंखल राजाओं ने अपनी शक्ति के घमण्ड में शास्त्रकारों को
विशेष व्यवस्था देने पर बाधित किया हो। परन्तु, बहुपति-भाव
तो संसार में लगभग ‘नहीं’ के बराबर है।
कुछ पहाड़ी जातियाँ ही इसके उदाहरण हैं। बहुपत्नी-प्रथा यद्यपि अनेक देशों और मतों
में विहित मान ली गई है, परन्तु, उसके
दुष्परिणाम भी कुछ कम नहीं हैं। रामायण की कहानी तो अनेक-पत्नी-प्रथा का ही
दुष्परिणाम है। मुसलमानों में अनेक-पत्नी विधान ने इस्लाम धर्म के बहुत से अच्छे
गुणों को नष्ट कर दिया। इस्लाम के फूलने-फलने में जो कुछ बाधाएँ उपस्थित हुई,
उनका कारण हजरत मुहम्मद साहेब की कईं पत्नियाँ थी। यदि खुदैजा न
मरती और मुहम्मद साहेब का चित्त डांवाडोल न होता, तो इस्लाम
का वह इतिहास न होता, जिसके लिए इस्लाम के बुद्धिमान् पोषकों
को लज्जित और खिन्न होना पड़ता है।
वेदमन्त्र का आदेश है कि
गृहस्थ के दो स्तम्भ हैं- एक ‘पति’ और
दूसरा ‘पत्नी’। यदि पति को मुख्यतम पति
और स्त्री को उपपति (assistant lord or assistant master) कहा
जाए तो ठीक होगा, परन्तु स्त्री के लिए स्त्री प्रत्ययान्त
शब्द होना चाहिए, अतः ‘पत्नी’ शब्द का प्रयोग किया गया। परन्तु, हर स्त्री को ‘पत्नी’ नहीं कह सकते। पत्नी वहीं है, जिसका यज्ञ अर्थात् विवाह-संस्कार के द्वारा सम्बन्ध हुआ हो, अतः पति और पत्नी का पवित्र सम्बन्ध यज्ञ द्वारा होना चाहिए और कई
पत्नियों के साथ विवाह नहीं होता। विवाह-संस्कार के जितने अंग शास्त्रों में दिये
हुये हैं, उनमें द्विवचन का ही प्रयोग है, बहुवचन का नही। पौराणिकों ने और विशेषकर कुलीन ब्राह्मणों ने बहुत
स्त्रियों के पक्ष में जो कपोल-कल्पित विधान गढ़ रक्खा है कि जिस प्रकार एक यूप में
कई पशु बांधे जा सकते हैं और एक पशु, कई यूपों में नहीं बंध
सकता, इसी प्रकार, एक पुरुष कई
स्त्रियों से विवाह कर सकता है, पर, एक
स्त्री कई पतियों से नहीं, यह युक्ति तो निःसार है ही,
परन्तु, यह अवैदिक भी है । वेदमन्त्र में
द्विवचन का प्रयोग इसीलिए है। याज्ञिक लोगों ने भी यज्ञ में पति के साथ पत्नी के
भी बैठने का विधान दिया है, वहाँ एक पत्नी का ही उल्लेख है।
इस सम्बन्ध में शतपथ ब्राह्मण-५//२//१//१0 का निम्न उद्धरण
बड़े महत्त्व का है-
यज्ञ करते समय पति पत्नी को
बुलाता है- हे पत्नी! आ,
हम दोनों स्वर्ग को चढें। अर्थात् स्वर्ग की इच्छा से, जो यज्ञ किया जा रहा है, वह हम दोनों का सांझा है।
यज्ञ तभी सफल होगा, जब हम दोनों मिलकर यज्ञ करेंगे। पत्नी को
क्यों बुलाया, क्योंकि पत्नी, पति का
आधा भाग है। जब तक पत्नी नहीं होती, सन्तान भी नहीं होती और
मनुष्य उस समय तक ‘असर्व’ अर्थात्
अधूरा रहता है, अतः जब पत्नी को प्राप्त करता है, तो सन्तान होती है। तभी ‘सर्व’ अर्थात् पूर्ण होता है। पति पत्नी को इसलिए बुलाता है कि जब तक अधूरा
रहूंगा, यज्ञ में मेरी गति कैसे होगी? इसलिए,
मैं पूरा होकर यज्ञ करुंगा, अधूरा होकर नहीं।
शतपथ का यह उद्धरण विवाह और
गृहस्थ की पवित्रता और गौरव को बड़ी उत्तम रीति से प्रतिपादित करता है। विवाह
स्वर्ग की सीढ़ी है। गृहस्थाश्रम में पति और पत्नी मिलकर, जो यज्ञ करते हैं, मानो, स्वर्ग
की सीढी पर चढ़ रहे हों। विवाह सन्तान के लिए आवश्यक है, इसीलिए,
वेदमन्त्र कहता है – गृहस्थ बनकर स्थिरता के
साथ यहीं रहो। पति और पत्नी का कामवासना के लिए क्षणिक सम्बन्ध नहीं है, कि जब चाहा तोड़ दिया, जब चाहा जोड़ लिया, यह तो व्यभिचार या वेश्यावृत्ति है। क्षणिक सम्बन्ध से बच्चे तो उत्पन्न
हो सकते हैं, जैसे, पशु-पक्षियों के,
परन्तु उसे सन्तान या सन्तति नहीं कह सकते। ‘इह
एव’ शब्द से वैवाहिक सम्बन्ध के स्थैर्य पर बल दिया गया है।
उसको अधिक सुदृढ़ करने के लिए मन्त्र में उपदेश है ‘मा वि
यौष्टम्’- दोनों में वियोग न हो। पति-पत्नि के अलग-अलग रहने
से गृहस्थ का संगठन टूट जाता है। अनेक पत्नियाँ होने से, पति
और पत्नी के बीच में दूसरी पत्नी व्यवधान या रुकावट पैदा करती है। इसका सन्तान पर
बुरा प्रभाव पड़ता है। दोनों का साथ रहना, पूरी आयु के लिए भी
आवश्यक है। बहुत से विद्वानों ने आंकड़े इकट्ठे करके यह सिद्ध किया है कि वैवाहिक
जीवन वालों की आयु अविवाहित स्त्री-पुरुष की अपेक्षा लम्बी होती है। होना भी ऐसा
ही चाहिए, क्योंकि यदि स्त्री-पुरुष का सहयोग आयु की क्षीणता
का कारण होता, तो, सृष्टि का क्रम ऐसा
न होता। यह ठीक है कि हर नियम का दुरुपयोग हो सकता है और वह दुरुपयोग हानिकारक भी
होता है, परन्तु यदि शास्त्र की मर्यादा का आदर किया जाए,
तो गृहस्थ-आश्रम जीवन के दीर्घ बनाने में भी सहायक होता है। अतः वेद
का स्पष्ट आदेश है कि पति-पत्नी को यथाशक्ति साथ रहने और हर काम में परस्पर सहायक
होने की आवश्यकता है। विवाह का उद्देश्य है, सन्तान-निर्माण।
निर्माण का अर्थ केवल जन्म देना ही नहीं है, अपितु उसे
धार्मिक बनाना भी है। अतः वेद ने एक मनोवैज्ञानिक बात कही कि नाती-पोतों के साथ
खेलो। बच्चों के साथ खेलने में, जो आनन्द लेते हैं, उनकी वृद्धावस्था में भी नवीनपन (rejuvenation) रहता
है। जो माता-पिता बच्चों के साथ खेलना नहीं जानते, उनके
बच्चे, उच्च भावनाओं को प्राप्त नहीं कर सकते। यदि आपके
बच्चे आपसे डरते हैं, तो समझ लीजिए कि आपकी गृहस्थ-अवस्था
में कोई त्रुटि है। जिन रईसों या राजाओं के बच्चे, सदैव
नौकरों के साथ रहते हैं, वे बहुधा द्वेष आदि दोष के भागी हो
जाते हैं। जो माताएँ अपने कष्ट को कम करने के लिए अपने बच्चों को नौकरों के हवाले
कर देती हैं, वे नहीं जानती कि बच्चे की संवृद्धि के लिए
केवल भोजन की ही आवश्यकता नहीं है, प्रेम भी एक सूक्ष्म भोजन
है, जो मनुष्य के स्वभाव को बनाता है। अतः माता-पिता का
प्रेम बच्चों के निर्माण के लिए अत्यन्त आवश्यक है। माता के हृदय में अपनी सन्तान
के लिए एक नैसर्गिक प्रेम होता है। वह गर्भ के कष्टों को सहते हुए आनन्द मानती है
और बच्चे के पालने-पोसने में उसको जो कष्ट उठाने पड़ते हैं, उनको
सहन करने में, उसे शिकायत नहीं होती। कष्ट सहते हुए हर्षित
होना, यह माताओं का अद्वितीय गुण है और किसी माता को अपने इस
गुण का अनादर नहीं करना चाहिए।
सन्तान के निर्माण में जो
माता का भाग है,
उससे कम पिता का नहीं। इस विषय में जनता में एक भ्रम है और आजकर के
भौतिक-विज्ञान-वेत्ताओं ने इस भ्रम को कुछ ओर बढ़ा दिया है। लोग समझते हैं कि जीव
माता के गर्भ में उस समय आता है, जब शरीर बनकर या आधा बनकर
तैयार हो जाता है, अतः पिता के गुणों का सन्तति पर अधिक
प्रभाव नहीं पड़ता। इससे संतति-निर्माण का सम्पूर्ण उत्तरदायित्व माता पर छोड़ दिया
जाता है। यदि कईं पत्नियाँ हुईं और उनकी भिन्न-भिन्न सन्तानें हुईं, तो स्थिति और भी विचित्र हो जाती है और पिता, केवल,
उसी पत्नी की सन्तान को प्यार करता है, जो उसे
सबसे प्रिय होती है, परन्तु वैदिक शास्त्रों में पिता और
माता दोनों को बराबर-बराबर उत्तरदाता ठहराया है। यदि जीव माता के ही गर्भ में
प्रविष्ट होता और उसका पिता से कोई सम्बन्ध न होता, तो फिर,
पिता के गुण बच्चे में कैसे पाये जाते? परन्तु,
पशु-पक्षियों में भी देखा जाता है कि पिता के शारीरिक तथा मानसिक
दोनों प्रकार के गुण सन्तान में विद्यमान रहते हैं और समय पाकर उनका विकास होता
है। ऐतरेय उपनिषद् के निम्न वाक्य से हमारे कथन की पुष्टि होती है-
‘गर्भ पहले तो पुरुष
के शरीर में होता है। यह रेत या वीर्य कहलाता है, अर्थात्
वीर्य ही उसका शरीर है। वहां, वह पिता के शरीर के सब अंगों
से तेज को खींचता और अपने में धारण करता है, अर्थात् पिता के
शरीर में, उसके वीर्यरुपी भवन में ठहरकर, वह पिता के गुणों से समन्वित हो जाता है। जब वह पिता के गर्भ से चलकर
गर्भाधान-संस्कार द्वारा माता के गर्भ में आता है, तो यह
उसका पहला जन्म है।’
इस प्रकार, माता और पिता का दीर्घकाल तक बच्चों के साथ रहना और उनकी देखभाल करना
आवश्यक है।
‘‘मोदमानौ स्वे गृहे’’
– अपने निज घर में सुख मनाएँ। यहां ‘‘गृह’’
से तात्पर्य ईंट -पत्थर के मकान से नहीं है। मकान गृह नहीं है,
गृह बनाने का एक स्थानमात्र है। गृह तो एक आध्यात्मिक और सामाजिक
वस्तु है, जो परस्पर प्रेम से ही बन सकती है। गृह समस्त समाज
की इकाई है। यहां, समाज की आरम्भिक शिक्षा दी जाती है।
प्रत्येक व्यक्ति का समस्त मानव-समाज के साथ सीधा सम्बन्ध हो ही नहीं सकता,
जब तक गृहस्थ के माध्यम की सहायता न ली जाए। कुछ नेताओं ने कभी-कभी
ऐसे परीक्षण किये, जिनमें स्त्री और पुरुष बिना गृहस्थ की
मर्यादा के सन्तानोत्पत्ति करें और जो बच्चे उत्पन्न हों, वे
देश या जाति के बच्चे समझे जाएँ। यूनान के प्रसिद्ध दार्शनिक प्लैटो (अफलातून) की
यहीं राय थी, यद्यपि उसके इस प्रस्ताव का कभी किसी ने
परीक्षण नहीं किया। रूस में जब कम्यूनिज्म की आँधी आई और उस आँधी में सब पुराने
वृक्ष उखड़ कर धराशायी हो गये, तब विवाह-वृक्ष की प्रथा भी
ध्वस्त हो गई। तब, गृहस्थ की मर्यादा के बिना सन्तानोत्पत्ति
आरम्भ हुई, परन्तु, परीक्षण आरम्भ होते
ही यह व्यवस्था, बिना दीर्घकाल तक चले ही शान्त हो गई,
क्योंकि उसके दुष्परिणाम स्वयं लैनिन आदि को समाज के लिए घातक दिखाई
पड़े। गृहस्थ आश्रम में भी अन्य संस्थाओं के समान दोष हैं, परन्तु,
आवश्यकता रोग को दूर करने की है, रोगी को मार
डालने की नहीं। वेदमन्त्रों के भावों को समझकर उन पर चलने से, ये रोग दूर हो सकते हैं। अति प्राचीनकाल में, जब
प्लैटो आदि दार्शनिक या अन्य मतमतान्तर नहीं थे, ऐसे शुद्ध
और सर्वोत्कृष्ट भावों की विद्यमानता, वेदों के गौरव को
सिद्ध करती है।
सोलहवां मंत्र
अनुव्रतः पितुः पुत्रो माता
भवतु संमनाः।
जाया पत्ये मधुमर्ती वाचं
वदतु शन्तिवाम्।।
-अर्थर्ववेद काण्ड ३,
सूक्त ३0, मन्त्र २
अर्थ– पुत्र पिता का अनुव्रत हो, अर्थात् उसके व्रतों को
पूर्ण करे। पुत्र माता के साथ उत्तम मनवाला हो, अर्थात् माता
के मन को सन्तुष्ट करने वाला हो। पत्नी को चाहिए कि वह पति के साथ मीठी और
शान्तिप्रद वाणी बोले।
व्याख्या– इस वेदमन्त्र में वे आरम्भिक साधन बताये हैं, जिनसे
गृहस्थ सुव्यवस्थित रह सकता है।
ऊपरी दृष्टि से ऐसा लगता है
कि जिन बातों का इस मन्त्र में प्रतिपादन है, वे अतिसाधारण और
चालू हैं, उनको असभ्य और अशिक्षित लोग भी समझते हैं, उनके लिए वेदमन्त्र की आवश्यकता नहीं, परन्तु गम्भीर
दृष्टि से पता चलेगा कि बहुत-सी बातें विचारणीय और ज्ञातव्य हैं। उदाहरण के लिए दो
शब्दों पर विचार कीजिए- एक ‘पुत्र’ और
दूसरा ‘अनुव्रत’। यहां केवल इतनी ही
बात नहीं है कि, लड़कों को मां-बाप की सेवा करनी चाहिए और
उनकी आज्ञा का पालन करना चाहिए। यद्यपि, जिस किसी ने संसार
में सबसे पहले लोगों को यह उपदेश किया होगा, उस समय इतनी
छोटी-सी बात भी बहुत बड़ी और अद्भुत मालूम होती होगी। आज भी यद्यपि कथनमात्र से इस
बात को सभी जानते हैं, फिर भी व्यवहार में तो अत्यन्त
न्यूनता दिखाई देती है। आज्ञाकारी राम तो कथाओं का ही विषय है। व्यवहार में तो,
जिन घरों में हिरण्यकश्यप् नहीं हैं, वहां भी
किसी-न-किसी बहाने से सन्तान प्रह्लाद का स्वांग खेलने के लिए उत्सुक रहती है। कुछ
ऐसे भी मनचले हैं, जो ऐसी शिक्षाओं को असामयिक और प्राचीनकाल
की दास-प्रथा का प्रतीक समझते हैं। बेटा बाप की आज्ञा क्यों माने? इस प्रकार के प्राचीन आचार-शास्त्र के बहुत-से छोटे-मोटे नियम हैं,
जो आजकल गर्हित और भावी विकास के बाधक समझे जाते हैं। यूँ तो हर
मानवी संस्था में समय-समय पर दोष आ जाया करते हैं और उनके सुधार की आवश्यकता होती
है। यदि, संसार के सभी पिता हिरण्यकश्यप बन जाएँ तो, ऐसी संस्थाएँ भी प्रशंसा की दृष्टि से देखी जाएँगी, जो
बालकों में प्रह्लाद की भावनाओं का प्रसार करें, क्योंकि
परिवार का संगठन तो, तभी सुरक्षित रह सकता है, जब पिता और पुत्र दोनों धार्मिक हों। कोढ़ी माँ-बाप की सन्तान को उनसे अलग
रक्खा जाता है, ताकि वह कोढ़ दूसरी पीढ़ी में न आ जाए। चोर और
डाकुओं की सन्तान के भी पृथक्करण की आवश्यकता होती है, परन्तु
ये तो अपवादमात्र हैं। यह साधारण जीवन का आचार-शास्त्र नहीं, अपितु आचार-सम्बन्धी हस्पतालों की नियमावली है, जो
सामान्य जीवन से कुछ भिन्नता रखती है।
अच्छा! आइए पहले ‘अनुव्रत’ शब्द पर विचार करें। इसके लिए देखना यह है
कि सृष्टिक्रम में सन्तानोत्पत्ति की व्यवस्था क्यों रखी गई? यदि कोई परिवार सन्तानहीन ही लुप्त हो जाए, तो क्या
हानि है? और यदि एक क्षण में समस्त संसार नष्ट हो जाए तो,
किसी का क्या बिगड़े? परन्तु, ये प्रश्न वहीं कर सकते हैं, जो जीव की स्वतन्त्र
सत्ता और उसकी आवश्यकताओं पर विचार नहीं करते। परमात्मा ने यह सृष्टि, खेल के लिए नहीं बनाई। यह जीव के विकास के लिए बनाई गई है। दुर्गुणों से
बचने और सद्गुणों को ग्रहण करने के लिए बनाई गई है। पशु-पक्षियों की बुद्धि इतनी
कम है कि उनके आचार की व्यवस्था, ईश्वर ने सीधी अपने हाथ में
रक्खी है। जैसे, बहुत छोटे बालकों पर बुद्धिमान् पिता,
उनकी व्यवस्था का भार नहीं छोड़ता, परन्तु
विद्वान् और परिपक्व सन्तान अपना विधान आप बनाने में स्वतन्त्र होती है। यही प्रथा
पशु-पक्षियों की है। मधुमक्खी का छत्ता बनाने या बया को घोंसला बनाने के लिए किसी
इंजीनियरिंग कालेज की आवश्यकता नहीं पड़ती, परन्तु, मनुष्य का बच्चा तो मुंह धोने का नियम भी सीखता है, अतः
स्पष्ट है कि मानवजाति के लिए एक आचार-शास्त्र चाहिए, जो
परम्परा से चालू रहे। इसी का नाम व्रत है। जब यज्ञोपवीत दिया जाता है, तो एक मन्त्र पढ़ते हैं-
अग्ने व्रतपते व्रतं
चरिष्यामि तच्छकेयं तन्मे राध्यताम्।
इदमहमनृतात् सत्यमुपैमि।।
यजुर्वेद १//५
अर्थ- मैं एक व्रत करता हूं।
परमात्मा इस व्रत के पालने में मेरी सहायता करें। वह व्रत क्या है? असत्य का त्याग और असत्य का ग्रहण। आर्यसमाज के प्रवर्तक ने आर्यसमाज के
नियमों में, इसीलिए, इस व्रत को विशेष
स्थान दिया है। इस नियम पर प्रत्येक मनुष्य के विकास का आधार है। जिसने सत्य की
खोज नहीं की, वह सत्य का पालन क्या करेगा? जो लोग ‘श्रद्धा’ का अर्थ लेते
हैं- ‘‘सत्य की खोज से संकोच और प्रचलित प्रथाओं या गुरुजनों
पर अन्धविश्वास’’, वे श्रद्धा शब्द के अर्थ से अनभिज्ञ हैं। ‘श्रद्धा’ दो शब्दों से बनता है, ‘श्रत्’ अर्थात् सत्य और ‘धा’
अर्थात् धारण करना, अतः श्रद्धा का भी वही
अर्थ है, जो ‘अनृतात् सत्यमुपैमि’
का। प्रत्येक बच्चे को यह व्रत लेना पड़ता है और यह आशा की जाती है
कि आयुपर्यन्त इसका पालन करे। मानव जाति के कल्याण के लिए यह आवश्यक है और हर
गृहस्थ को यह व्रत लेना चाहिए।
परन्तु यह परम्परा तो तभी चल
सकती है,
जब भावी सन्तान पूर्वजों के व्रत का आदर करे। इसलिए कहा कि पुत्र को
पिता का ‘अनुव्रत’ होना चाहिए। यह
दायभाग में सबसे बड़ी सम्पत्ति है, जो कोई पिता अपने पुत्र के
लिए या कोई आचार्य अपने शिष्य के लिए छोड़ सकता है। ‘अनुव्रत’
का प्रश्न तो, तभी उठेगा जब ‘व्रत’ होगा। माता-पिता के जो आचरण आकस्मिक या
स्वाभाविकरूप से इस ‘व्रत’ के अन्तर्गत
नहीं, वे अनुपालनीय भी नहीं। इसीलिए, गुरु
उपदेश देता है कि हमारे जो-जो सुचरित हैं, वे ही पालनीय हैं,
अन्य नहीं, व्यक्तिगत घटनाएं नहीं। अपितु,
वैदिक दिशा-निर्देश ही प्रत्येक माता-पिता को करणीय और प्रत्येक
पुत्र या पुत्री के लिए अनुकरणीय हैं।
अब ‘पुत्र’ शब्द के अर्थों पर विचार कीजिए। हर बच्चा जो
उत्पन्न होता है, पुत्र कहलाने के योग्य नहीं, शास्त्र के विधान से उसको ‘पुत्र’ बनने की योग्यता प्राप्त करनी चाहिए। पुत् नाम है नरक का। नरक से जो रक्षा
करे, उसे पुत्र कहते हैं।
पुत्र के अन्तर्गत लड़के और
लड़की के बच्चे भी आते हैं, क्योंकि वे सब भी नरक से तारने वाले हैं।
यह नरक-त्राण क्या है, इस पर विचार करना चाहिए। पौराणिकों ने नरक को एक स्थान-विशेष माना है,
जहाँ पापी लोग जाते हैं और यदि पुत्र मृतकों का श्राद्ध-तर्पण करता
है, तो, उसके पितृगण नरक से छूटकर
स्वर्ग में चले जाते हैं। यह बात वैदिक कर्मफल सिद्धान्त के सर्वथा विरुद्ध है।
फिर प्रश्न है कि पुत्र, पिता को नरक से कैसे छुड़ाता है?
एक दृष्टान्त लीजिए। आज, हमारे पुत्रों ने अपनी योग्यता से देश-देशान्तरों में वैदिकभाषा, वैदिक -संस्कृति का प्रचार कर दिया। जब हमने दूसरा जन्म लिया, तो ये परम्पराएँ उस जन्म में हमारी सहायक होंगी। यदि, हमारी सन्तान की भूलों से वैदिक-परम्पराएँ नष्ट हो गईं, तो हम ऐसी दुनिया में जन्म लेंगे, जो अवैदिक और
प्रतिकूल होंगी, अतः हमें बड़ी कठिनाई होगी। यही नरक है।
स्वामी दयानन्द से पूर्व की
सैकड़ों पीढ़ियों के लोग,
यदि, यह बात समझते और अपने पूर्वजों के
नरकत्राण की दृष्टि से वैदिक-धर्म का लोप न होते देते तो, स्वामी
दयानन्द को फिर से वैदक-धर्म का जीर्णोद्धार करने का कष्ट न उठाना पड़ता और उनका
जीवन आरम्भिक कक्षा की शिक्षा देने के स्थान पर, उच्च कक्षा
की शिक्षा देने में काम आता। कल्पना कीजिए कि मैं मरकर अरब में पुनर्जन्म लूँ,
तो वहां अवैदिक इस्लाम का प्रचार पाऊँगा और अपने पूर्वजन्म के
संस्कारों के प्राबल्य के आधार पर, यदि वैदिक जीवन व्यतीत
करना चाहूं, तो कितनी कठिनाई होगी! परन्तु यदि, इस पीढ़ी में वहां वैदिक धर्म का प्रचार हो जाए, तो
मुझे कितनी सुविधा हो! वैदिक संस्कृति में पले हुए वैदिक व्रतों के व्रती पिताओं
के पुत्रों का कर्त्तव्य है कि अपने पितृगण के भावी क्षेत्र को अनुकूल बनाने के
लिए पिताओं के अनुव्रत हों। इस प्रकार, वे अपने और अपने पीछे
आनेवालों के लिए क्षेत्र तैयार कर सकेंगे। व्यक्ति तो मर चुकते हैं, परन्तु संस्कृतियां बनी रहती हैं। कुलों की सन्तति, राज्यों
की सन्तति, और धन-सम्पत्ति की सन्तति से कहीं मूल्यवाली है,
संस्कृति की सन्तति। इसी संस्कृति को स्थिर या चिरस्थायी बनाने के
हेतु हम सन्तान चाहते हैं। संस्कृति की सन्तति मुख्य चीज है, वही साध्य है और सन्तान उस सन्तति का साधन है।
अब कहा कि पुत्र को ‘‘मात्रा संमनाः’’ माता के समान मनवाला होना चाहिए।
माता प्रेम की निधि है। माता से अधिक प्रेम, तो कोई करता ही
नहीं और प्रेम एक प्रकार का गोंद है, जिससे अनैक्य में ऐक्य
उत्पन्न होता है, स्वार्थ में परमार्थ आता है, दानवता में मानवता का संचार होता है, अतः अपने
मानसिक विकास का सबसे बड़ा साधन है, माता के स्नेह को स्मरण
रखना। माता का कृतज्ञ होना ही मनुष्य के आत्म-निर्माण की पहली सीढ़ी है।
मन्त्र के पिछले चरण में
पत्नी के लिए उपदेश है कि पति के साथ मीठी और शान्तिप्रद वाणी बोले। पुरुष स्वभाव
से कुछ कर्कश होता है और स्त्री का स्वभाव कोमल होता है। पुरुष दांत है, तो स्त्री जीभ है। जीभ और दांत का सामीप्य है। कर्कशता और कोमलता का
सम्मिलन है। समस्त शरीर में जहां नर्म पेशियां हैं, वहां
कठोर अस्थियां भी हैं। यदि हड्डियां ही होतीं, मांस नहीं
होता, तो शरीर का व्यापार कैसे चलता? शरीर
शरीर न होता, पत्थर की चट्टान होता और यदि पेशियां ही होतीं,
यह ढांचा ही न होता, तो हम चल-फिर न पाते। अतः
कठोर वस्तुओं को अपना धर्म पालने के लिए कोमल वस्तुओं के सामीप्य, सान्निध्य और सहायता की आवश्यकता है। मशीन को चालू रखने के लिए तेल की
आवश्यकता होती है। गृहस्थ के जटिल जीवन में पत्नी अपनी मधुरवाणी से कर्कशता को
कोमल बनाए रखती है। जब पति बाहर के व्यापार से थका-माँदा झुँझलाया हुआ, सायंकाल को घर लौटता है, तो पत्नी अपनी मधुर
स्वागतकारिणी वाणी से सारी थकावट दूर कर देती है। पत्नी वस्तुतः पति की रक्षिका बन
जाती है। यह आनन्द केवल वैवाहिक जीवन में ही प्राप्त हो सकता है, अन्यत्र नहीं। इसीलिए पत्नी को ‘जाया’ कहा, न केवल इसलिए कि उससे पुत्र उत्पन्न होगा,
जो उसके कुल को स्थिर रखेगा, परन्तु, इसलिए भी कि पत्नी की मीठी बोली पति के लिए प्रतिदिन नये जीवन का संचार
करती है।
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