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ऋग्वेद अग्नि सूक्त -2 की सरल व्याख्या

 


ऋग्वेद अग्नि सूक्त -2 की सरल व्याख्या

इकाई की रूपरेखा

उद्देश्य

प्रस्तावना

अग्नि सूक्तम्

पारिभाषिक शब्दावली

संस्कृत एम. ए. पाठ्यक्रम की इकाई द्वितीय में ऋग्वेद के महत्त्वपूर्ण सूक्तों के महत्त्वपूर्ण मन्त्रों की व्याख्या प्रस्तुत की गई है। इस इकाई को पढ़ने से आप जान पायेंगे। अग्नि सूक्त में वर्णित अग्नि का स्वरूप रूद्र सूक्त में वर्णित रूद्र का स्वरूप अग्नि एवं रुद्रदेवों का वैज्ञानिक परिचय।

प्रस्तावना-

ऋग्वेद के प्रमुख देवों में अग्नि का सर्वोपरिस्थान है । अग्नि समस्तदेवों के पास यजमान द्वारा दी गई आहूतियों को पहुंचाता है तथा यजमान की कामनाओं की पूर्ति का वर्षक है इसीलिए ऋग्वेद में अग्नि सूक्त को सर्वप्रथम लिया गया है। इसी प्रकार रुद्र घोर अर्थात् बलवान व उत्साही देव है जो यजमान की सर्वतोमुखी उन्नति सहायक होते हुए रक्षा करता है। इन्हीं दो देवों का इस इकाई में वर्णन किया जा रहा है।

अग्नि सूक्तम्

यह ऋग्वेद के प्रथम मण्डल का बारहवाँ सूक्त है । इसके देवता अग्नि है तथा यह गायत्री छंद में लिखा गया है।

संहितापाठः

अग्निं दूत वृणीमहे, होतारं विश्ववेदसम् ।

अस्य यज्ञस्य सुक्रतुम् ।।

पदपाठः

अग्निम्। दूतं। वृणीमहे । होतारम् । विश्वऽवेदसम् ।

अस्य । यज्ञस्य । सुक्रतुम् ।

कठिन शब्दार्थ

सुक्रतुम्- उतम या श्रेष्ठ कर्म करने वाले । दूतम् - दूतकर्म सम्पादित करने वाले अर्थात् सन्देशवाहक। होतारम् यज्ञार्थ देवताओं को आमंत्रित करने वाले विश्ववेदसम्- समस्त धनों के स्वामी । अग्निं - अग्नि देव को । वृणीमहे-- वरण करते हैं।

हिन्दी अनुवाद- इस यज्ञ को सम्पन्न करने रूपी उत्तम कर्म को करने वाले, देवताओं तक हवि को ले जाने वाले, उन्हें यज्ञ में आमंत्रित करने वाले सभी प्रकार के धनों के स्वामी अग्नि देव को (हम) वरण करते हैं।

1.अग्निम्- अग्नि शब्द का निवर्चन अनेक प्रकार से किया गया है। अग्र+नी+क्विप् । अंग+नी+क्विप्। अगि (जाना) + नि।

2. होतारम् हू धातु + तृच् । यास्क आदि विद्वान 'हू' धातु से इसकी व्युत्पत्ति मानते हैं जबकि और्णवाभ 'हु' यज्ञ करना धातु से बनाते हैं।

3. सुक्रतुम् सु उपसर्ग पूर्वक कृ धातु निष्पन्न होगा । श्रेष्ठ कर्म कर्ता ।

4. विश्ववेदसम्- विश्वानि वेदांसि यस्य सः । बहुब्रीहि समास है । सम्पूर्ण धनों का स्वामी ।

प्रस्तुत मंत्र में गायत्री छन्द है । इस छन्द में 3 चरण होते हैं तथा प्रत्येक चरण में 8 वर्ण होते हैं, कुल मिलाकर 24 वर्ण का छन्द होता है।

संहितापाठः

अग्निमग्निं हवीमभिः सदा हवन्त विश्पतिम् ।

हव्यवाहं पुरूप्रियम्।।

पदपाठः

अग्निं ऽ अग्निं। हविमभिः । सदा । हवन्त । विश्ऽपतिम् । हव्यवाहम्। पुरूप्रियम् ।

कठिनशब्दार्थ — विश्पतिम्- प्रजाओं के स्वामी । हव्यवाहम्- हवि को ले जाने वाले । पुरूप्रियम् - बहुत लोगों के प्रियपात्र । अग्निमग्निं- प्रत्येक अग्नि को | हवीमभिः- आहवानों के द्वारा । हवन्त- बुलाते हैं।

हिन्दी अनुवाद

यज्ञ का सम्पादन करने वाले यजमान, प्रजापालक, हविष्यान्न का देवताओं के समीप ले जाने वाले, बहुत लोगों के प्रिय अग्निदेव को आमंत्रित करने वाले मंत्रों के द्वारा सदैव बुलाते रहते हैं।

टिप्पणियाँ

1. अग्निमग्निम्- प्रत्येक अग्नि को आहवनीय, गार्हपत्य तथा दक्षिण - यज्ञाग्नि 3 प्रकार की मानी गई हैं।

2.—हवीमभिः- ह्वे अथवा हु-मनिन् - तृतीया विभक्ति बहुवचन।

3.-विश्पतिम् विशां पतिः तम्- अग्नि देव।

4.- हव्यवाहम्- हव्यं वहतीति तम् अग्निं।

5.-- पुरूप्रियम् पुरूणां प्रियः तम् अग्निम्।

सहितापाठः

अग्ने देवां इहा वह जज्ञानो वृक्तबहिर्षे । असि होता न ईड्यः ।।

पदपाठः

अग्ने। देवान्। इह। आ । वह । जज्ञानः । वृक्तऽबहिर्षे । असि । होता। नः । ईड्यः ।

कठिन शब्दार्थः-

अग्ने- हे अग्नि देव । जज्ञानः- स्वयं उत्पन्न होने वाले । वृक्तबहि-कुशासन बिछाने वाले (यजमान के लिये) के लिये । इह नः- यहाँ, इस यज्ञ में। आवह-बुला लाओ। नः- हमारे । ईड्यः - स्तुति योग्य ।

हिन्दी अनुवाद

हे अग्नि देव! स्वयं प्रदीप्त होने वाले तुम यज्ञ वेदि पर कुशा के आसन को बिछाने वाले यज्ञमान के लिये देवताओं को इस यज्ञ में ले आओ। आप हमारे लिये देवताओं को बुलाने वाले तथा पूज्य हो ।

टिप्पणियाँ-

1. जज्ञान:- जन् धातु लिट् लकार के स्थान पर कानच् का प्रयोग पुर्लिगं प्रथमा एक वचन।

2.-वृक्तबहिर्षे- वृक्तं बर्हिः येन- तस्मै बहुब्रीहि समास।

3.- वह- वह् धातु लोट लकार म. पु. एकवचन ।

4. –ईड्यः- ईड़' स्तुतौ + ण्यत् पु. प्रथमा एकवचन ।

5.— नः - इसका प्रयोग 'अस्मभ्यम्' के स्थान पर हुआ है।

संहितापाठः

तो उशतो वि बोधय यदग्ने यासि दूत्यम् ।

देवैरा सत्सि बर्हिर्षि । ।

पदपाठः-

तान्। उशतः। वि। बोधय । यत् । अग्ने। यासि । दूत्यम् ।

देवैः । आ । सत्सि । बहिर्षि ।

कठिन शब्दार्थःदूत्यम्- दूत कार्य । यासि- जाते हो। उशतः- हवि की कामना करने वाले । वि बोधय- विशेष रूप से जगा दो या सूचना दे दो। बहिर्षि- कुशासन पर।  आ सत्सि- आकर बैठो।

हिन्दी अनुवाद- हे अग्नि! क्योंकि आप देवताओं का आहवान तथा उनके पास हवि ले जाने का कार्य करते हो, अतः हवि की कामना करने वाले उन देवताओं को सूचना प्रदान कर यहाँ यज्ञमण्डप में बुला लाओ। तथा इस यज्ञवेदि पर बिछी हुई कुशासन पर देवों के साथ आकर बैठो।

टिप्पणियाँ-

1. दूत्यम्- दूतस्य कर्म- दूत्मय् - दूत + यत् प्रत्यय द्वि. एक वचन ।

2.- यासि- या धातु लट् लकार म. पु. एकवचन ।

3.- उशतः वश् धातु लट् के स्थान पर शतृ का प्रयोग । द्वि.ब.व।

4.- बोधय बुध् + णिच् लोट् लकार म.पु. एकवचन।

5. सत्सि- सद् धातु लट् लकार म. पु. एकवचन का वैदिक रूप है

संहितापाठः

घृताहवन दीदिवः प्रति ष्म रिषतो दह ।

अग्ने त्वं रक्षस्विनः । ।

पदपाठः- घृतऽआहवन। दीदिवः । रक्षस्विनः- । रिषतः । दह-। अग्ने। त्वम। रक्षस्विन।

 कठिन शब्दार्थः- घृतऽआहवन- घी की आहुति के द्वारा बुलाये गये । । दीदिवः- देदिप्यमान। रक्षस्विनः- राक्षसो के समूह सहित । रिषतः- हिंसा करने वाले पशुओं को। दहस्म- जला दो- भस्म कर दो ।

हिन्दी अनुवाद- घी की आहुति द्वारा बुलाये गये, हे देदिप्यमान अग्ने, तुम राक्षसो के समुह सहित हिंसा करने वाले शत्रुओं को एवं विरोधियों को पूर्ण रूप से भस्म कर दो।

टिप्पणियाँ

1.    - घृताहवन घृतेन आहवन घृत पूर्वक आ + हू + ल्युट् प्रत्यय

2.  दीदिवः- 'दिव्' धातु क्वसु प्रत्यय से बना है पु. एकवचन।

    3.'रिषतः'- रिष धातु + शतृ प्रत्यय पु. द्वितीया ब. वचन

    4.- दह- दह् धातु लोट् लकार म. पु. एकवचन।

     5.-रक्षस्विनः- रक्षांसि विद्यन्ते येषु तान् रक्षस् + विन् पु. द्वितीया बहुवचन ।

     6.- प्रति- सायणाचार्य के मतानुसार इसका प्रयोग यहाँ 'प्रतिकूल' अथवा 'विरोधी' के अर्थ में हुआ है। यह उपसर्ग नहीं है।

संहितापाठः

अग्निनाग्निः समिध्यते कवि गृहपतिर्युवा ।

हव्यावाड् जुहवास्यः । ।

पदपाठः-

अग्निना। अग्निः। सम् । इध्यते । कविः । गृहऽपतिः । युवा ।

हव्यवाट् । जुहु । आस्यः ।

कठिन शब्दार्थः- कविः- मेधावी, क्रान्तदर्शी। गृहपतिः- घर का स्वामी अथवा घर का रक्षक। युवा- युवक अथवा तरूण। हव्यवाट्- देवताओं के पास हविष्यान्न को ले जाने वाला। जुह्वास्यः- जुहुरूपी मुख वाला। समिध्यते- सम्यक प्रकार से प्रज्जवलित किया जाता है ।

हिन्दी अनुवाद- मेधावी, यजमान के घर का रक्षक, सदा युवक, देवों के समीप हवियों का वाहक तथा जुहु रूपी मुख वाला अग्नि, अग्नि से प्रज्जवलित किया जाता है।

टिप्पणियाँ- अग्निननाग्निः- प्रणीत अग्नि से आहवनीय अग्नि प्रज्जवलित की जाती है ।

कविः- कौतीति कविः कु+इ से यह शब्द बना है ।

       गृहपतिः- गृहस्य पतिः इति षष्ठी तत्पुरूष।

       युवा- प्रदिप्त किये जाने पर अग्नि सदैव तरुण रहता है।

       हव्यवास्य- हव्यं वहतीति- हव्यवाट- हव्य + वह + ण्वि प्र. ए. व.

जुहवास्य- जुहूः आस्यं यस्य सः- बहुब्रीहि समास। जुहू लकड़ी का चम्मच होता है, जिसे स्रुवा भी कहते हैं।

समिध्यते- सम् उपसर्ग पूर्वक इन्ध् धातु से कर्मवाच्य में लट् लकार प्र. पु. एकवचन।

संहितापाठः

कविमग्निमुपस्तुहि सत्यधर्माणमध्वरे ।

देवममीवचातनम् ।

पदपाठः

कविम्। अग्निम्। उप। स्तुहि। सत्यऽधर्माणम्। अध्वरे। देवम्। अमीव ऽ चातनम् ।

कठिन शब्दार्थः-

सत्यधर्माणम्- सत्य धर्म वाले। अभीवचातनम्- हिंसक रोगों तथा शत्रुओं के विनाशक । देवम् धुतिशील, कान्तिमान । अध्वरे- यज्ञे । उपस्तुहि- समीप जाकर स्तुति करो ।

हिन्दी अनुवाद- हे मेधावी, सत्यनिष्ठ, द्युतिमान, हिंसक रोग व शत्रुओं के विनाशक अग्निदेव की यज्ञकर्म में समीप जाकर स्तुति करो ।

टिप्पणियाँ-

1.- सत्यधर्माणम्- सत्यमेव धर्मों यस्य सः तम् बहुब्रीहि ।

2. अमीवचातनम्- अमिवान चातनम्- अम् + वन्, चत् + णिच् + लयुट्-अन् चातनम् हिंसक रोगों व शत्रुओं का विनाशक ।

 

3. देवम् देवो दानाद्, दीपनाद्, द्योतनाद् वा ।

4.- अध्वरे- न ध्वरो विद्यते यस्मिन् तस्मिन्

5.- स्तुहि- यह स्तु धातु लोट् लकार मध्यम पु. एकवचन का रूप हैI

संहितापाठः

यस्त्वामग्ने हविष्पतिर्दूतं देव सपर्यति।

तस्य स्म प्राविता भव ।

पदपाठः -

यः। त्वाम्। अग्ने। हवि ऽ पतिः । दूतं । देव । सपर्यति।

तस्य। स्म। पऽअविता । भव ।

कठिन शब्दार्थः- हविष्पतिः- हवियों का स्वामी, यजमान । सपर्यति-सेवा करता है। पाविता- रक्षक।  भव स्म- बनो ।

हिन्दी अनुवाद

हे अग्नि देव! जो यजमान हवियों से सम्पन्न होकर, देवताओं के दूत आपकी सेवा करता है, उस यजमान के आप रक्षक बनो ।

टिप्पणियाँ-

हविष्पतिः- हविषा पतिः इति - षष्ठी तत्पुरूष

सपर्यति- सपर् (पूजायाम्) + यक् लट् लकार प्र. पु. एकवचन

प्राविता- प्र उपसर्ग पूर्वक अव् धातु + तृच् प्र. एकवचन ।

भव- भ् धातु लोट लकार म. पु. एकवचन ।

स्म- यह पादपूर्ति के लिये प्रयुक्त हुआ है ।

संहितापाठः-

यो अग्निं देववीतये हविष्मां आविवासति ।

तस्मै पावक मृल्लय

पदपाठः

यः। अग्निम्। देव ऽ वीतये । हविष्मान् । आऽ विवासति ।

पावक अग्निदेव। हविष्मान् आविवासति- तस्मै । पावक । मृल्लय ।

कठिन शब्दार्थः-  पावकः- अग्निदेव। हविष्यमान्- हवियों से युक्त। देववितये- देवों के भक्षण के लिए। आविवासति- सेवा करता है। तस्मै- उस यजमान के लिए। मृल्लय- सुखी बनाओ।    

हिन्दी अनुवाद- हे अग्निदेव ! हवियों से युक्त जो यजमान देवतओं के भक्षण के लिए, अग्नि के समीप से अत्यधिक सेवा करता है । उस यजमान को आप सुखी बनाओ।

टिप्पणियाँ-

1.-देववितये- देवानां वीतिः (अशनं) यस्मिन् - वी + क्तिन् चतुर्थी ए. व.

2.- हविष्मा- हविष्- मतुप्

3.- आविवासति- आ उपसर्ग पूर्वक + वा धातु + सन् + लट् लकार प्र. पु. एकवचन ।

4.- मृल्लय - मृल्ल धातु लोट् लकार म. पु. एकवचन ।

संहितापाठः

स नः पावक दीदिवोऽग्ने देवाँ इहा वह ।

उप यज्ञं हवश्चि नः ।।

पदपाठः

स। नः। पावक। दीदिवः । अग्ने । देवान। इह। आ। वह।

उप। यज्ञं। हविः। च। नः।

कठिन शब्दार्थः-

देदीप्यमान,- प्रकाशित होने वाले । पावक- पवित्र करने  वाला। नः- हमारे लिए। इह- यहां पर। आ वह- ले जाओ । उप वह- समीप ले आवो।

टिप्पणियाँ-

दीदिवः- दिव् + क्विन् दीव्यतीति ।

आ वह – आ उपसर्ग पुर्वक वह धातु लोट लकार म् पु एक वचन।

देवाँ- इह – देवान + इह – सन्धि से दवों बना है।

 सः यह अग्नि के लिए प्रयुक्त हुआ है।

संहितापाठः

स नः स्तवान आ भर गायत्रेण नवीयसा ।

रयिं वीरवतीमिषम्।।

पदपाठः

स। नः। स्तवानः। आ । भर | गायत्रेण । नवीयसा । रयिम्। वीरऽवतीम। इषम् ।

कठिन शब्दार्थः-

स्तावनः- स्तुत किये जाते हुए । गायत्रेण - गायत्री छंद के द्वारा । नवीयसा-  अत्यन्त नवीन। रयिम्- धन का। वीरवतीम्- पुत्रों से युक्त। इषम्-  परिपूर्ण कर दो।

हिन्दी अनुवाद हे अग्नि देव! अत्यन्त नवीन गायत्री छन्द में विरचित इस सूक्त से स्तुति किये जाते हुए आप हमारे लिये धन को तथा पुत्रों से युक्त अन्न को प्रचुर मात्रा में प्रदान करें ।

टिप्पणियाँ- नवीयसा- नव + ईयसुन् तृ. एकवचन । गायत्रेण- गायत्री छन्दसा निर्मितं इति गायत्रम्- गायत्री+ अण तृ एकवचन।

स्तवानः- स्तु धातु – लट के स्थान पर शानच्- प्रथमा एक वचन।

वीरवतीम्- वीर + वत + ई द्वि एक वचन।

रयिम्- धन – यह शब्द रासे बना है, जिसका अभिप्राय है देना।

इषम्- इष + क्विप् द्वि. एकवचन ।

आ भर -आ उपसर्ग पूर्वक हृ धातु लोट लकार म. पु. एकवचन ।

संहितापाठः

3.2.12. अग्ने शुक्रेण शोचिषा विश्वाभिर्देव हूतिभिः । इमं स्तोमं जुषस्व नः ।।

पदपाठः

अग्ने । शुक्रेण । शोचिषा । विश्वाभिः । देव ऽ हूतिभिः । इमम्। स्तोमं । जुषस्व । नः ।

कठिन शब्दार्थः- शुक्रेण- श्वेत। शोचिषा- प्रकाश के द्वारा। विश्वभिः- समस्त-   देवहूतिभिः- देवताओं के निमन्त्रण से । इमम्- इस। स्तोमम् स्त्रोत अथवा स्तुति को । जुषस्व- सेवन करो।

हिन्दी अनुवाद

अग्नि ! श्वेत प्रकाश तथा सभी देवताओं के निमन्त्रणों से युक्त आप हमारे इस स्तोत्र विशेष को प्रसन्नतापूर्वक सेवन करो ।

टिप्पणियाँ-

1. शुक्रेण - तृतीया एकवचन ।

2. शोचिषा तृतीया एकवचन ।

3. देवहूतिभिः देवानां हूतयः ताभिः

4.- नः- इसका प्रयोग अस्माकम् के स्थान पर हुआ है ।

5. स्तोमम् स्तु + मन् द्वि. एकवचन ।

6.- जुषस्व- जुष् धातु लोट लकार म. पु. एकवचन ।

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