🙏 *आज का वैदिक भजन* 🙏 1230
*भाग 1/2*
*ओ३म् अ॒भि त्वा॑ देव सवित॒रीशा॑नं॒ वार्या॑णाम् ।*
*सदा॑वन्भा॒गमी॑महे ॥*
ऋग्वेद 1/24/3, मन्त्र(वरुण- सूक्त)
अवन वरुण ! तुम सबके हो प्यारे
छोड़ तुझे कहाँ जाएँ
प्रभु !! छोड़ तुझे कहाँ जाएँ
सुख सम्पत्ति का भाग हमारा
तेरी सम्पत्ति से पाएँ
प्रभु !! तेरी सम्पत्ति से पाएँ
आये जगत में तेरी कृपा से
रक्षक तुम हो पालनहार
करते हो तुम प्रकृति से रचना
करते जग में सुख-सञ्चार
जड़ चेतन में स्वयं ना शक्ति
तेरी कृपा से चल पाएँ
प्रभु !! छोड़ तुझे कहाँ जाएँ
सूरज चाँद सितारे सागर
पायें गतियाँ तेरे तप से
सोना चाँदी हीरे मोती
अनन्त धातुएँ मिलीं कब से
कार्य शक्ति चेष्टाएँ, तेरी अनन्त हैं
ना सम्भव गिन पाएँ
प्रभु !! छोड़ तुझे कहाँ जाएँ
अवन वरुण ! तुम सबके हो प्यारे
छोड़ तुझे कहाँ जाएँ
प्रभु !! छोड़ तुझे कहाँ जाएँ
सुख सम्पत्ति का भाग हमारा
तेरी सम्पत्ति से पाएँ
प्रभु !! तेरी सम्पत्ति से पाएँ
*रचनाकार व स्वर :- पूज्य श्री ललित मोहन साहनी जी – मुम्बई*
*रचना दिनाँक :-- २२.१२.२०२१ १२.०५ प्रात:*
*राग :- भैरवी*
गायन समय प्रातः ६:00 से ९:00, ताल कहरवा ८ मात्रा
*शीर्षक :- स्वामी! हमें हमारा हिस्सा दो* ८०७वां वैदिक भजन
*तर्ज :- * दुनियां ना भाये मोह
00181-781
अवन = रक्षण, प्रीति, दान
प्रकृति = मूल तत्व जिनसे संस्कारों की उत्पत्ति हुईं
*प्रस्तुत भजन से सम्बन्धित पूज्य श्री ललित साहनी जी का सन्देश :-- 👇👇*
स्वामी! हमें हमारा हिस्सा दो
भाग १
इस मन्त्र में कहा गया है कि संसार के जितने भी वरण करने योग्य, चाहने योग्य, सुख देने वाले पदार्थ हैं उन सब का ईश्वर, स्वामी, भगवान है। और इसलिए मंत्र के अन्तिम चरण में भगवान से उस भजनीय सुख- ऐश्वर्य की याचना की गई थी. प्रभु की जिस सुख सामग्री को गत मन्त्र में "वार्य" और "भाग" शब्दों द्वारा वर्णित किया गया था उसको प्रस्तुत मन्त्र में "भाग" शब्द द्वारा कहा गया है।
भाग और भग दोनों का धात्वार्थ एक ही है।
प्रभु के भजनीय सुख-ऐश्वर्य का प्रस्तुत मन्त्र में एक बड़ा भावपूर्ण विशेषण दिया गया है। कहा गया है कि प्रभु का वह सुखदायक ऐश्वर्य "शशमान" है। शशमान का अर्थ होता है, उछल-उछल कर दौड़ने वाला। प्रभु का सुख दायक और सेवन करने योग्य ऐश्वर्य कहीं छिपा नहीं पड़ा है वह तो उछल उछल कर दौड़ रहा है उस वक्त वह तो सर्वत्र बड़े वेग से बह रहा है। उसके तो सर्वत्र प्रवाह चल रहे हैं। उसकी कहीं न्यूनता नहीं है इस व्यवस्था में भगवान का वह ऐश्वर्य सबको यथेष्ट मात्रा में प्राप्त होगा चाहिए। उसकी प्राप्ति से किसी को भी वंचित नहीं रहना चाहिए। जब प्यास बुझाने वाले शीतल स्वादिष्ट और शान्तिदायक जल की धाराएं सर्वत्र बह रही हैं तो कोई क्यों प्यासा रहे? पर होता तो यह है कि हम फिर भी प्यासे रह जाते हैं। प्रभु के सुख शान्तिदायक ऐश्वर्य की मंदाकिनी सर्वत्र बहती रहने पर भी हमें बहुत बार वह ऐश्वर्य प्राप्त नहीं होता तो हम बहुत बार दुख दारिद्र्य में डूबते रहते हैं। प्रभु के ऐश्वर्य की सर्वसंताप हारिणी गंगा के सर्वत्र प्रवाहित होते रहने पर भी हमें जो बहुत बार शान्ति प्राप्त नहीं होती, हम तो बहुत बार दु:ख दारिद्र्य में ही गोते खाते रहते हैं। इसका कारण यही हो सकता है कि हमें उस गंगा का पानी पीना नहीं आता।
प्रभु की सुखदायिनी ऐश्वर्य मंदाकिनी का पानी किस प्रकार पिया जा सकता है हम प्रभु के भजनीय ऐश्वर्य के भागी किस प्रकार हो सकते हैं इसका एक उपाय प्रस्तुत मन्त्र में बताया गया है। मन्त्र में कहा गया है कि हे प्रभु! मैं निंदा से पहले द्वेष रहित होकर तुम्हारे भजनीय ऐश्वर्य को हाथों में धारण करता हूं। मन्त्र के इस कथन से दो बातें सूचित होती हैं, एक तो यह है कि प्रभु का भजनीय ऐश्वर्य निंदा से पहले प्राप्त किया जा सकता है और दूसरी यह है कि वह ऐश्वर्य द्वेष रहित होकर प्राप्त किया जा सकता है। इन दोनों बातों का तात्पर्य समझ लेना चाहिए। निन्दा से पहले प्रभु का ऐश्वर्य प्राप्त किया जा सकता है इस कथन का यह तात्पर्य है कि जब तक हमारा जीवन निंदनीय नहीं बन जाता,जब तक हमारे चरित्र में दोष नहीं आ जाते, तभी तक हम प्रभु के ऐश्वर्य को प्राप्त कर सकते हैं। ज्यों ही हमारे जीवन में दोष आए,पाप घुसे, और हमारा जीवन निंदनीय बना त्यों ही प्रभु का ऐश्वर्य हमसे छीनना प्रारम्भ हो जाता है। यदि हम प्रभु के ऐश्वर्य को प्राप्त करके सुख का पान करना चाहते हैं तो हमें अपने चरित्र में निंदा को, दोषों को, पापों को नहीं घुसने देना होगा। निष्पाप जीवन ही प्रभु के ऐश्वर्य का उपभोग कर सकता है। यदि हम प्रभु के ऐश्वर्य का उपभोग करना चाहते हैं तो दूसरी बात हमें यह करनी चाहिए कि हमें सर्वथा द्वेष रहित होना चाहिए। हमारे जीवन में किसी प्राणी के प्रति द्वेष नहीं रहना चाहिए। जब हमारे जीवन में द्वेष घुस जाता है तभी उसमें सब प्रकार के पाप घुसते हैं। द्वेषवृत्ति का महावृक्ष हमारे हृदय-क्षेत्र में खड़ा हो जाने पर उसकी छाया में सभी प्रकार के पापों के अंकुर उपजने लगते हैं। इसलिए हमें द्वेष को अपने हृदय में स्थान नहीं करने देना चाहिए। इसके स्थान में हम में प्राणी मात्र के लिए प्रेम के भाव रखने चाहिए हमें अपने हृदयों में से द्वेष को हिंसाशीलता को निकाल कर उसके स्थान में प्रेम को अहिंसाशीलता को उत्पन्न करना चाहिए। जब हमारे मनो में प्राणी मात्र के लिए प्रेम पैदा हो जाता है तब हम में सहज ही उपकार वृत्ति जाग उठती है। और हमारे हृदयों में उपकार वृत्ति जाग पड़ने का परिणाम यह होता है कि सब सद्गुण हमारे अन्दर उपजने लगते हैं।
फलत: हमारे चरित्रों की निन्दा उनके दोष और पाप दूर होने लगते हैं। हमारा जीवन निष्पाप हो जाता है। क्योंकि द्वेष और तज्जन्य हिंसा सब पापों का मूल है और प्रेम और तज्जन्य अहिंसा सब सद्गुणों की सब पुण्य की जननी है। द्वेष के परित्याग की ओर निर्देश करके मन्त्र में जीवन को निष्पाप करने के एक महत्वपूर्ण उपाय को वर्णित कर दिया गया है।
पिछले मन्त्र में भगवान से याचना की गई थी कि हे प्रभु !हम पर ऐसी कृपा कीजिए कि जिससे हम इस लोक में भी सुख प्राप्त करते रहें और हम मोक्ष के सुख को भोगने के भी अधिकारी बनें रहें। प्रस्तुत मन्त्र के वर्णन द्वारा अपने कहने के अद्भुत ढंग में वेद ने यह बता दिया है कि हमारी भगवान से की गई याचना किस प्रकार पूरी हो सकती है। भगवान कहते हैं कि हे मनुष्य! तू चरित्र के दोषों को त्याग दे, जीवन से द्वेष और हिंसा को निकाल कर उसके स्थान में प्रेम और अहिंसा को आरोपित कर दे,और इस प्रकार अपने आप को पवित्र बना ले। फिर तुझे मैं सब मङ्गल प्रदान करूंगा। मेरा सारा ऐश्वर्य तेरे हाथों में होगा।
हे मेरे आत्मा! क्या तू भी कभी द्वेष को छोड़कर प्रेम, और हिंसा को छोड़कर अहिंसा को प्राप्त करेगा और इस प्रकार भगवान के ऐश्वर्य का भागी बनेगा?
कल भाग २, आज भाग १, 🎧807वां वैदिक भजन🌹👏🏽
🕉👏ईश भक्ति भजन
भगवान् ग्रुप द्वारा🙏 🌹
1230
🙏 *Today's vaidik bhajan* 🙏 1230
*Part 1/2*
*Aum abhi tvaa dev savitareeshaanan vaaryaanaam .*
*sadaavanbhaagameemahe .*
rigved 1/24/3, mantra(varun- sookt)
avan varun ! tum sabake ho pyaare
chhod tujhe kahaan jaayen
prabhu !! chhod tujhe kahaan jaayen
sukh sampatti kaa bhaag hamaaraa
teree sampatti se paayen
prabhu !! teree sampatti se paayen
aaye jagat mein teree kripaa se
rakshak tum ho paalanahaar
karate ho tum prakrti se rachanaa
karate jag mein sukh-sanchaar
jada- chetan mein swayam naa shakti
teree kripa se chal paayen
prabhu !! chhod tujhe kahaan jaayen
sooraj chaand sitaare saagar
paayen gatiyaan tere tup se
sona chaandee heere motee
anant dhaatuen mileen kab se
kaarya- shakti cheshtaaen, teree anant hain
na sambhav gin paayen
prabhu !! chhod tujhe kahaan jaayen
avan varun ! tum sabake ho pyaare
chhod tujhe kahaanpyaareay
prabhu !! chhod tujhe kahaan jaayen
sukh sampatti kaa bhaag hamaaraa
teree sampatti se paauen
prabhu !! teree sampatti se paayen
*Composed playing of music instruments and voiced by: Pujya Shri Lalit Mohan Sahni Ji – Mumbai*
*Composed date: 22.12.2021 12.05 am*
*Raag: Bhairavi*
Singing time: 6:00 am to 9:00 am, rhythm: Kaharwaa 8 beats
*Title: Swami! Give us our share*
807th Vedic Bhajan
*Tune: Duniya Na Bhaaye Mohe*
Avan = Protection, love, donation
Prakriti = Basic elements from which sanskars originated
👇Meaning of vaidik bhajan👇
Avan Varun! You are all dear
Where can I leave you?
Lord!! Where can I leave you?
Happiness is our share of wealth
Get from your property
Lord!! Get from your property
Come into the world by your grace
Protector you are the protector
You do create from nature
doing happiness in the world
Not power in the root conscious itself
Let me walk by your grace
Lord!! Where can I leave you?
Sun moon stars ocean
Get speeds by your penance
Gold silver diamonds pearls
Since when did the infinite metals meet?
Working power efforts, yours are infinite
Can't count the possible
Lord!! Where can I leave you?
Avan Varun! You are all dear
Where can I leave you?
Lord!! Where can I leave you?
Happiness is our share of wealth
Get from your property
Lord!! Get from your property
************
**Swaadhyaay-Message of Pujya Shri Lalit Sahni ji related to the presented bhajan :-- 👇👇*
Swami! Give us our share
Part 1 &
2(part 2) to be sent day after tomorrow)
It is said in this mantra that all the things worth choosing, worth desiring, and which give happiness in the world are Ishwar, Swami, Bhagwan of all of them. And that is why in the last part of the mantra, God was requested for that Bhajanic happiness and prosperity. The material of happiness of the Lord which was described by the words "Varya" and "Bhag" in the previous mantra has been described by the word "Bhag" in this mantra.
The meaning of both Bhag and Bhag is the same.
A very emotional adjective has been given in this mantra for the Bhajanic happiness and prosperity of the Lord. It is said that that pleasurable prosperity of the Lord is "Shashmaan". Shashmaan means the one who runs by jumping. The happiness-giving and enjoyable opulence of the Lord is not hidden anywhere. It is jumping and running. It is flowing everywhere with great speed. Its flow is flowing everywhere. There is no shortage of it. In this system, everyone should get that opulence of the Lord in sufficient quantity. No one should be deprived of its attainment. When the streams of cool, tasty and peaceful water that quench thirst are flowing everywhere, then why should anyone remain thirsty? But what happens is that we still remain thirsty. Even though the Mandakini of the happiness-giving opulence of the Lord keeps flowing everywhere, many times we do not get that opulence and many times we keep drowning in sorrow and poverty. Even though the Ganga of the opulence of the Lord which removes all the troubles keeps flowing everywhere, we do not get peace many times, we keep drowning in sorrow and poverty. The reason for this can only be that we do not know how to drink the water of that Ganga. How can the water of the soothing opulence of the Lord Mandakini be drunk and how can we become a part of the opulence of the Lord, a way of this has been told in the present mantra. The mantra says that O Lord! Before criticizing, I hold your opulence of worship in my hands without any hatred.Two things are indicated by this statement of the mantra, one is that the glory of God can be attained before condemnation and second is that that glory can be attained without any malice. The meaning of both these things should be understood. The meaning of the statement that God's glory can be attained before condemnation is that till our life does not become condemnable, till our character does not get flawed, only then we can attain God's glory. As soon as flaws come in our life, sins enter, and our life becomes condemnable, God's glory starts getting snatched from us. If we want to enjoy the glory of God by attaining it, then we should not let slander, flaws, sins enter our character. Only a sinless life can enjoy God's glory. If we want to enjoy the glory of God, then the second thing we should do is that we should be completely free from malice. There should be no hatred towards any living being in our life. When hatred enters our life, then all kinds of sins enter it. When the huge tree of hatred stands in our heart, the sprouts of all kinds of sins start growing in its shade. Therefore, we should not allow hatred to find a place in our heart. Instead of this, we should have feelings of love for all living beings. We should remove hatred and violence from our hearts and generate love and non-violence in its place. When love for all living beings arises in our mind, then the attitude of benevolence awakens in us automatically. And the result of the awakening of the attitude of benevolence in our hearts is that all good qualities start growing in us. As a result, the criticism of our characters, their faults and sins start disappearing. Our life becomes sinless. Because hatred and the violence resulting from it are the root of all sins and love and the non-violence resulting from it are the mother of all virtues. By directing towards the abandonment of hatred, an important way of making life sinless has been described in the mantra.
In this mantra, a request was made to God that O Lord! Kindly bless us in such a way that we can continue to get happiness in this world and we can also remain entitled to enjoy the happiness of salvation. Through the description of this mantra, in its wonderful way of saying, the Veda has told how our request to God can be fulfilled. God says that O man! Give up the defects of character, remove hatred and violence from your life and replace it with love and non-violence, and thus make yourself pure. Then I will give you all the auspicious things. All my wealth will be in your hands.
O my soul! Will you also ever give up hatred and attain love, and give up violence and attain non-violence and thus become a part of God's wealth?
Tomorrow part 2, today part 1, 🎧807th Vedic Bhajan🌹👏🏽
🕉👏Eesh bhakti bhajan
By Bhagwaan group🙏🌹
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