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अपने अंदर देखें

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          अन्दर देखो❗
                वैदिक भजन ११९० वां
                 राग अल्हैया बिलावल
            गायन समय दिन का प्रथम प्रहर
                 ताल कहरवा आठ मात्रा
यो मर्त्येष्वमृत ऋतावा देवो देवेष्वरतिर्निधायि । 
होता यजिष्ठो मह्ना शुचध्यै हव्यैरग्निर्मनुष ईरयध्यै।। 
                                           ऋग्वेद ४.२.१
                       वैदिक भजन
क्यों है अन्तस् में आत्मग्नि 
ना जिसमें अमृत रस की कमी 
मिट्टी हो जाएगा ये शरीर 
मगर आत्मा तो रहता अमी 
क्यों........... 
इन इन्द्रिय आदि देवों के 
बीच में आत्मा आकर बसा 
प्रयोजन एक ही केवल 
ये आत्मा बने प्रदीप अग्नि 
क्यों............ 
इस जीवन के द्वारा आत्मा 
खुद को करें विकसित 
मिले सामर्थ्य से ही प्रकाश 
कि ना हो ऐश्वर्यों की कमी 
क्यों............ 
यह आत्मा जो बना ' होता ' 
वह दान-आदान का है कर्ता 
करे इसके लिए बलिदान 
मिले ऐश्वर्य लक्ष्य तभी 
क्यों............. 
यह आत्मा यजिष्ठ है यजनिय 
जो पाये आन्तरिक ज्योति 
ये हो सकता तभी सम्भव 
आत्म- बलिदान की ना हो कमी 
क्यों............. 
                ‌‌‌           भाग 2
ये बाह्य अग्निहोत्र हमें 
क्रिया से प्यारा लगता है 
सहस्त्रों गुना यह आत्मग्नि 
आकर्षक प्रिय लगे हर घड़ी 
क्यों........... 
मिले रत्न से भर भूमि 
या हीरे मोती सोना चॉंदी 
तो स्वाहा करके इन सबको 
वह पाना चाहे आत्म-ज्योति 
क्यों............ 
ऐ भाइयों !देखो तनिक भीतर 
ज़रा उत्कंठित होकर कभी 
प्रदीप होने को आत्मग्नि 
प्रतीक्षा में है कब से खड़ी 
क्यों............ 
क्या तुम इसे करोगे नहीं प्रदीप्त 
जो प्रेरित कर रही है प्रबल 
ये अमृत यजन के ही लिए 
दे रहा प्रेरणा अग्रणी 
क्यों.......... 
                       शब्दार्थ:-
अन्तस्= अन्त:करण
अमी=अमृत, सुधा
प्रदीप्त= प्रकाशित होना
होता= यज्ञ करने वाला ,आहुति देने वाला
आदान= लेना, ग्रहण
यजिष्ठ= यज्ञ की तीव्र इच्छा रखने वाला
यजनीय= यज्ञ करने योग्य
स्वाहा= समर्पण करने वाला
उत्कंठा= उत्सुकता
यजन= यज्ञ करना
अग्रणी= नेता, स्वामी, 

              
यह आत्मग्नि हममें किस लिए रखा हुआ है? मिट्टी हो जाने वाले हम मर्त्यों में यह कभी न करने वाला अमृतत्त्व, सच्चा, सत्यरूप 'आत्मा' कहलाने वाला एक तत्व निहित है, इन इन्द्रिय आदि देवों के बीच में जो यह एक देव,  इन सब देवों में असङ्ग रूप से गया हुआ एक अमर देव रखा हुआ है, यह किस प्रयोजन के लिए है ? नि:संदेह यह इसलिए है कि यह हममें बढ़े, प्रदीप्त हो ,अपनी महिमा द्वारा विविध प्रकार से प्रदीप हो। यह जीवन इसलिए है कि इस द्वारा आत्मा अपने आप को विकसित कर सके। यह संसार इसलिए है कि इसमें आत्मग्नि अपना अधिक- से- अधिक प्रकाश कर सके, अपनी महान महिमा द्वारा अद्भुत सामर्थ्य द्वारा, अपने दिव्य ऐश्वर्यों द्वारा अपने आप को अधिक- से- अधिक प्रकाशित कर सके। इसलिए यह आत्मा ' होता ' बना है, दान- आदान करने वाला हुआ है। आत्मा के लिए हम जो कुछ बलिदान करते हैं, उसे हज़ारों  गुणा आदान उसके विविध ऐश्वर्यों के रूप में हमें प्राप्त होता है। इसलिए यह आत्मा ही यजिष्ठ, सर्वश्रेष्ठ यजनीय है। इसका ही यजन करके हमें आत्मिक सामर्थ्यों और आत्मिक ऐश्वर्या में अपने को प्रदीप्त करना चाहिए, किन्तु आत्मा से यह अद्भुत समर्थ्यों, दिव्य ऐश्वर्यों का आदान तभी हो सकता है जब हम आत्मा के लिए दान, आत्म- बलिदान करते रहें। ओह❗ यह दिव्य अग्नि तो मनुष्य को आत्म-बलिदान के लिए निरन्तर प्रेरित भी कर रहा है। बाह्य अग्निहोत्र का अग्नि यदि हमें कुछ प्रिय लगता है, यदि इसके प्रति हमें कुछ आकर्षण होता है तो इसमें सहस्त्रों गुना प्रिय और आकर्षक यह अपना अन्दर का आत्मग्नि है। यह प्यारा आत्मा जब दीख जाता है तब तो मनुष्य पृथ्वी भर को स्वाहा करके भी इसके प्रेम को पाना चाहता है।इसकी ज्योति इतनी प्यारी है कि उसके दर्शन मात्र से मनुष्य शेष सब अनात्म संसार को एकदम बलिदान कर देने के लिए उत्कंठित हो जाता है। इसलिए भाइयों ❗ तनिक देखो ❗अन्दर देखो ❗तुम में प्रदीप्त  होने की ही प्रतीक्षा में यह तुम्हारा आत्मग्नि  निहित है। क्या तुम इसे प्रदीप्त  नहीं करोगे? यह अमृत तुम्हें निरन्तर बलिदान( यजन) के लिए प्रेरित कर रहा है, क्या तुम उसकी बात नहीं सुनोगे? 
🕉👏 द्वितीय श्रृंखला का१८४वां वैदिक भजन और अब तक का११९०वां वैदिक भजन🙏
🙏वैदिक श्रोताओं को हार्दिक शुभकामनाएं🙏🌹

1190        👀Look inside❗
       vaidik bhahan 1190th
         Raag alhaiyaa bilaval
Singing time first face of the day
   Taal kaharava 8 beats

Vaidik mantra, 👇

yo martyeshvamrit ritaavaa devo deveshvaratirnidhayi  । 
hota yajishtho mahna shuchadhyai havyairagnirmanush irayadhyai।। 
                                           Rigved 4.2.1

         vaidik bhajan👇

kyon hai antas men aatmagni 
na jisamen amrit ras ki kami 
mittee ho jaayegaa ye sharir 
magar aatmaa to rahataa amee 
kyon........... 
in indriya aadi devon ke 
beech mein aatmaa aakar basaa 
prayojan ek hi keval 
ye aatmaa bane pradipta agni 
kyon............ 
is jivan ke dvaraa aatmaa 
khud ko kare vikasit 
mile samarthya se hi prakash 
ki na ho aishvaryon ki kami 
kyon............ 
ye aatmaa jo banaa  'hotaa ' 
vah daan-aadan ka hai kartaa 
kare isake lia balidaan 
mile aishvarya lakshya tabhee 
kyon............. 
yah aatma yajishth hai yajaniya 
jo paaye aantarik jyoti 
ye ho sakataa tabhi sambhav 
aatm- balidan ki naa ho kami 
kyom............. 
                ‌‌‌           bhag 2
ye bahya agnihotra hamen 
kriyaa se pyaara lagataa hai 
sahastron guna yah aatmagni 
akarshak priya lage har ghadi 
kyom........... 
mile ratna se bhar bhumi 
ya heere moti sonaa chaandi 
to svahaa karake in sabako 
vah paanaa chaahe aatma-jyoti 
kyom............ 
ai bhaiyo !dekho tanik bheetar 
Zara utkanthit hokar kabhi 
pradipta hone ko aatmagni 
pratikshaa mein hai kab se khadee 
kyon............ 
kyaa tum ise karoge nahim pradipt 
jo prerit kar rahi hai prabal 
ye amrit yajan ke hi liye 
de rahaa preranaa agrani 
kyom.......... 
          2.6.2024 10.00  PM

Semantics:-👇

 Antas= the consciousness
 Amee=nectar, nectar
 Pradipt= to be illuminated
 Hota= performing sacrifices, offering sacrifices
 exchange= take, receive
 Yajishta= having a keen desire for sacrifice
 Yajniya= worthy of sacrifice
 Svaha= the one who surrenders
 curiosity= curiosity
 Yajana= to perform sacrifice
 Agrani= leader, master,

Meaning of bhajan:-👇
                                           
        Vedic hymns

 Why is there self-fire in the innermost 
  in which there is no lack of nectar 
 This body will become dust 
 But the soul remains, necter(amrit) 
 Why........... 
 These senses and other gods 
 The spirit came and settled in the middle 
 Purpose the same only 
 These souls became the lamp fire 
 Why............ 
 The soul through this life 
 Develop yourself 
 Light from the power found 
 That there is no lack of riches 
 Why............ 
 This soul who became 'would' 
 He is the doer of charity 
 Do sacrifice for it 
 Met wealth goals only then 
 Why. 
 This soul is Yajishta Yajniya 
 who finds inner light 
 This can only be possible 
 There is no lack of self- sacrifice 
 Why. 
                 Part 2
 These external fireplaces us 
 Sounds lovely from the action 
 Thousands of times this self-fire 
 Attractive dear seems every hour 
 Why........... 
 Land filled with gems found 
 or diamonds, pearls, gold, and silver 
 So Swaha by all these 
 He wants to find self-light 
 Why............ 
 Hey brothers!Look a little inside 
 A little excited ever 
 Self-fire to be a lamp 
 Waiting for a long time 
 Why............ 
 Will you do it not Pradipt 
 which is inspiring dominant 
 These nectars are for the sacrifice 
 giving inspiration leading 
 Why.......... 
               2.6.2024 10.00 PM
Self study (swaadhyaay) 👇
Look inside❗
                
 Why is this self-fire kept in us?  In us mortals who become dust, there is an element called 'Atma', the true, truthful 'Atma', which never does this, among these sense-like gods, which is this one God, an immortal who has gone unattached to all these gods  God is kept, for what purpose is it?  No doubt it is so that it may grow in us, be illuminated, illuminated in various ways by its glory.  This life is so that the soul can develop itself through it.  This world exists so that in it the Self-Fire may shine more and more of itself, by its great glory and wonderful power, by its divine opulences itself may shine more and more.  Therefore this soul has become ' becomes ', has become a giver of gifts.  Whatever we sacrifice for the soul, we receive in return thousands of times in the form of its manifold opulences.  Therefore this soul is the Yajishta, the best sacrificial.  By sacrificing it, we should illuminate ourselves in spiritual powers and spiritual riches, but this wonderful powers, divine riches can only be exchanged from the soul if we continue to make gifts, self-sacrifices for the soul.  Oh❗ This divine fire is even constantly inspiring man to self-sacrifice.  If the fire of the external Agnihotra seems something dear to us, if we have some attraction to it, it is thousands of times more dear and attractive than this is our inner self-fire.  When this lovely soul is seen, man wants to attain its love even by destroying the whole earth. Its light is so lovely that the mere sight of it makes man eager to sacrifice all the rest of the non-spiritual world.  So brothers ❗ Look a little ❗Look inside ❗It is your self-fire that lies in you just waiting to be ignited.  Won't you illuminate it?  This nectar is inspiring you to constantly sacrifice, will you not listen to it? 
 🕉👏 184th Vedic Bhajan of the second series and 1190th Vedic Bhajan so far🙏
 🙏Wishes to the Vedic listeners🙏🌹

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