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🙏 *आज का वैदिक भजन* 🙏
*भाग 2/2*
*ओ३म् अ॒भि त्वा॑ देव सवित॒रीशा॑नं॒ वार्या॑णाम् ।*
*सदा॑वन्भा॒गमी॑महे ॥*
ऋग्वेद 1/24/3, मन्त्र(वरुण- सूक्त)
अवन वरुण ! तुम सबके हो प्यारे
छोड़ तुझे कहाँ जाएँ
प्रभु !! छोड़ तुझे कहाँ जाएँ
सुख सम्पत्ति का भाग हमारा
तेरी सम्पत्ति से पाएँ
प्रभु !! तेरी सम्पत्ति से पाएँ
तुम हो ईशान, ऐश्वर्यों के स्वामी
सुख-सामग्री के हो वार्य
जिन्हें पाकर हम सारा जीवन
करते हैं पुरुषार्थ के कार्य
रक्षक अवन प्रभु - सुख के दानी
नियमों को सदा अपनाएँ
प्रभु !! छोड़ तुझे कहाँ जाएँ
हे सविता रक्षक पालक प्रभु !
अवन के भाग से दे दो प्रसाद
तेरे सिवा हम माँगें किससे
अपनी सुख सम्पत्ति का भाग
तेरे अवन-ईशान को पाकर
अन्तर्मन सुख-नाद गुञ्जाएँ
प्रभु !! छोड़ तुझे कहाँ जाएँ
शुभ कर्मों से प्रसन्न होकर
मोक्ष का धाम दिया था अनूप
मनोभिराम, आनन्द अवस्था
में ही विहित किया था सूच
हे आत्मन् ! तू हो जा समर्पित
प्रभु पुनः भाग्य जगाएँ
अवन वरुण ! तुम सबके हो प्यारे
छोड़ तुझे कहाँ जाएँ
प्रभु !! छोड़ तुझे कहाँ जाएँ
सुख सम्पत्ति का भाग हमारा
तेरी सम्पत्ति से पाएँ
प्रभु !! तेरी सम्पत्ति से पाएँ
*रचनाकार व स्वर :- पूज्य श्री ललित मोहन साहनी जी – मुम्बई*
*रचना दिनाँक :-- २२.१२.२०२१ १२.०५ प्रात:*
*राग :- भैरवी*
गायन समय प्रातः ६:00 से ९:00, ताल कहरवा ८ मात्रा
*शीर्षक :- स्वामी! हमें हमारा हिस्सा दो* ८०७वां वैदिक भजन
*तर्ज :- *
781-00182
अवन = रक्षण, प्रीति, दान
प्रकृति = मूल तत्व जिनसे संस्कारों की उत्पत्ति हुईं
सविता = उत्पन्न करने वाला, प्रेरणा देनेवाला
ईशान = समस्त ऐश्वर्यों के स्वामी
वार्य = वरण करने योग्य, चाहने योग्य
अनूप = उपमा रहित, अति सुन्दर
विहित = उचित, मुनासिब
सूच = पवित्र, शुद्ध
नाद = गुंजित स्वर
मनोभिराम = मन को प्रसन्न करने वाला
*प्रस्तुत भजन से सम्बन्धित पूज्य श्री ललित साहनी जी का सन्देश :-- 👇👇*
स्वामी! हमें हमारा हिस्सा दो
इस मन्त्र में कहा गया है कि संसार के जितने भी वरण करने योग्य, चाहने योग्य, सुख देने वाले पदार्थ हैं उन सब का ईश्वर, स्वामी, भगवान है। और इसलिए मंत्र के अन्तिम चरण में भगवान से उस भजनीय सुख- ऐश्वर्य की याचना की गई थी. प्रभु की जिस सुख सामग्री को गत मन्त्र में "वार्य" और "भाग" शब्दों द्वारा वर्णित किया गया था उसको प्रस्तुत मन्त्र में "भाग" शब्द द्वारा कहा गया है।
भाग और भग दोनों का धात्वार्थ एक ही है।
प्रभु के भजनीय सुख-ऐश्वर्य का प्रस्तुत मन्त्र में एक बड़ा भावपूर्ण विशेषण दिया गया है। कहा गया है कि प्रभु का वह सुखदायक ऐश्वर्य "शशमान" है। शशमान का अर्थ होता है, उछल-उछल कर दौड़ने वाला। प्रभु का सुख दायक और सेवन करने योग्य ऐश्वर्य कहीं छिपा नहीं पड़ा है वह तो उछल उछल कर दौड़ रहा है उस वक्त वह तो सर्वत्र बड़े वेग से बह रहा है। उसके तो सर्वत्र प्रवाह चल रहे हैं। उसकी कहीं न्यूनता नहीं है इस व्यवस्था में भगवान का वह ऐश्वर्य सबको यथेष्ट मात्रा में प्राप्त होगा चाहिए। उसकी प्राप्ति से किसी को भी वंचित नहीं रहना चाहिए। जब प्यास बुझाने वाले शीतल स्वादिष्ट और शान्तिदायक जल की धाराएं सर्वत्र बह रही हैं तो कोई क्यों प्यासा रहे? पर होता तो यह है कि हम फिर भी प्यासे रह जाते हैं। प्रभु के सुख शान्तिदायक ऐश्वर्य की मंदाकिनी सर्वत्र बहती रहने पर भी हमें बहुत बार वह ऐश्वर्य प्राप्त नहीं होता तो हम बहुत बार दुख दारिद्र्य में डूबते रहते हैं। प्रभु के ऐश्वर्य की सर्वसंताप हारिणी गंगा के सर्वत्र प्रवाहित होते रहने पर भी हमें जो बहुत बार शान्ति प्राप्त नहीं होती, हम तो बहुत बार दु:ख दारिद्र्य में ही गोते खाते रहते हैं। इसका कारण यही हो सकता है कि हमें उस गंगा का पानी पीना नहीं आता।
प्रभु की सुखदायिनी ऐश्वर्य मंदाकिनी का पानी किस प्रकार पिया जा सकता है हम प्रभु के भजनीय ऐश्वर्य के भागी किस प्रकार हो सकते हैं इसका एक उपाय प्रस्तुत मन्त्र में बताया गया है। मन्त्र में कहा गया है कि हे प्रभु! मैं निंदा से पहले द्वेष रहित होकर तुम्हारे भजनीय ऐश्वर्य को हाथों में धारण करता हूं। मन्त्र के इस कथन से दो बातें सूचित होती हैं, एक तो यह है कि प्रभु का भजनीय ऐश्वर्य निंदा से पहले प्राप्त किया जा सकता है और दूसरी यह है कि वह ऐश्वर्य द्वेष रहित होकर प्राप्त किया जा सकता है। इन दोनों बातों का तात्पर्य समझ लेना चाहिए। निन्दा से पहले प्रभु का ऐश्वर्य प्राप्त किया जा सकता है इस कथन का यह तात्पर्य है कि जब तक हमारा जीवन निंदनीय नहीं बन जाता,जब तक हमारे चरित्र में दोष नहीं आ जाते, तभी तक हम प्रभु के ऐश्वर्य को प्राप्त कर सकते हैं। ज्यों ही हमारे जीवन में दोष आए,पाप घुसे, और हमारा जीवन निन्दनीय बना त्यों ही प्रभु का ऐश्वर्य हमसे छीनना प्रारम्भ हो जाता है। यदि हम प्रभु के ऐश्वर्य को प्राप्त करके सुख का पान करना चाहते हैं तो हमें अपने चरित्र में निंदा को, दोषों को, पापों को नहीं घुसने देना होगा। निष्पाप जीवन ही प्रभु के ऐश्वर्य का उपभोग कर सकता है। यदि हम प्रभु के ऐश्वर्य का उपभोग करना चाहते हैं तो दूसरी बात हमें यह करनी चाहिए कि हमें सर्वथा द्वेष रहित होना चाहिए। हमारे जीवन में किसी प्राणी के प्रति द्वेष नहीं रहना चाहिए। जब हमारे जीवन में द्वेष घुस जाता है तभी उसमें सब प्रकार के पाप घुसते हैं। द्वेषवृत्ति का महावृक्ष हमारे हृदय-क्षेत्र में खड़ा हो जाने पर उसकी छाया में सभी प्रकार के पापों के अंकुर उपजने लगते हैं। इसलिए हमें द्वेष को अपने हृदय में स्थान नहीं करने देना चाहिए। इसके स्थान में हम में प्राणी मात्र के लिए प्रेम के भाव रखने चाहिए हमें अपने हृदयों में से द्वेष को हिंसाशीलता को निकाल कर उसके स्थान में प्रेम को अहिंसाशीलता को उत्पन्न करना चाहिए। जब हमारे मनो में प्राणी मात्र के लिए प्रेम पैदा हो जाता है तब हम में सहज ही उपकार वृत्ति जाग उठती है। और हमारे हृदयों में उपकार वृत्ति जाग पड़ने का परिणाम यह होता है कि सब सद्गुण हमारे अन्दर उपजने लगते हैं।
फलत: हमारे चरित्रों की निन्दा उनके दोष और पाप दूर होने लगते हैं। हमारा जीवन निष्पाप हो जाता है। क्योंकि द्वेष और तज्जन्य हिंसा सब पापों का मूल है और प्रेम और तज्जन्य अहिंसा सब सद्गुणों की सब पुण्य की जननी है। द्वेष के परित्याग की ओर निर्देश करके मन्त्र में जीवन को निष्पाप करने के एक महत्वपूर्ण उपाय को वर्णित कर दिया गया है।
पिछले मन्त्र में भगवान से याचना की गई थी कि हे प्रभु !हम पर ऐसी कृपा कीजिए कि जिससे हम इस लोक में भी सुख प्राप्त करते रहें और हम मोक्ष के सुख को भोगने के भी अधिकारी बनें रहें। प्रस्तुत मन्त्र के वर्णन द्वारा अपने कहने के अद्भुत ढंग में वेद ने यह बता दिया है कि हमारी भगवान से की गई याचना किस प्रकार पूरी हो सकती है। भगवान कहते हैं कि हे मनुष्य! तू चरित्र के दोषों को त्याग दे, जीवन से द्वेष और हिंसा को निकाल कर उसके स्थान में प्रेम और अहिंसा को आरोपित कर दे,और इस प्रकार अपने आप को पवित्र बना ले। फिर तुझे मैं सब मङ्गल प्रदान करूंगा। मेरा सारा ऐश्वर्य तेरे हाथों में होगा।
हे मेरे आत्मा! क्या तू भी कभी द्वेष को छोड़कर प्रेम, और हिंसा को छोड़कर अहिंसा को प्राप्त करेगा और इस प्रकार भगवान के ऐश्वर्य का भागी बनेगा?
आज भाग २ अन्तिम 🎧807 वां वैदिक भजन भाग 2🌹👏🏽
🙏 *aaj ka vaidik bhajan* 🙏 1231
*bhaag 2/2*
*om abhi tvaa dev savitareeshaanan vaaryaanaam .*
*sadaavanbhaagameemahe .*
rigved 1/24/3, mantra(varun- sookt)
avan varun ! tum sabake ho pyaare
chhod tujhe kahaan jaayen
prabhu !! chhod tujhe kahaan jaayen
sukh sampatti kaa bhaag hamaaraa
teree sampatti se paayen
prabhu !! teree sampatti se paayen
tum ho eeshaan, aishvaryon ke swaamee
sukh-saamagree ke ho vaarya
jinhen paakar ham saara jeevan
karate hain purushaarth ke kaarya
rakshak avan prabhu - sukh ke daanee
niyamon ko sadaa apanaayen
prabhu !! chhod tujhe kahaan jaayen
he savitaa rakshak paalak prabhu !
avan ke bhaag se de do prasaad
tere sivaa ham maangen kisase
apanee sukh sampatti kaa bhaag
tere avan-eeshaan ko paakar
antarman sukh-naad gunjaayen
prabhu !! chhod tujhe kahaan jaayen
shubh karmon se prasanna hokar
mokhsha kaa dhaam diyaa thaa anoop
manobhiraam, aanand avasthaa
mein hee vihit kiyaa thaa sooch
he aatman ! too ho jaa samarpit
prabhu punah bhaagya jagaayen
avan varun ! tum sabake ho pyaare
chhod tujhe kahaan jaayen
prabhu !! chhod tujhe kahaan jaayen
sukh sampatti kaa bhaag hamaaraa
teree sampatti se paayen
prabhu !! teree sampatti se paayen
*Part 2/2*
👇Meaning of words👇
Avan = Protection, love, charity
Prakriti = Basic elements from which sanskaras originated
Savita = Creator, Inspirer
Ishan = Lord of all opulences
Varya = Worthy of choice, worth wanting
Anup = Without comparison, very beautiful
Vihit = Right, suitable
Sooch = Holy, pure
Naad = Resonant sound
Manobhiram = Pleasing to the mind
*Composed, instrument player and voiced by: Pujya Shri Lalit Mohan Sahni Ji – Mumbai*
*Composed date: 22.12.2021 12.05 am*
*Raag: Bhairavi*
Singing time: 6:00 am to 9:00 am, rhythm: Kaharwa 8 maatra
*Title: Swaamee! Give us our share*
807th Vedic Hymn
*Tune:-Duniyaan naa bhaaye mohe*
👇Meaning of words👇
Avan = Protection, love, charity
Prakriti = Basic elements from which sanskaras originated
Savita = Creator, Inspirer
Ishan = Lord of all opulences
Varya = Worthy of choice, worth wanting
Anup = Without comparison, very beautiful
Vihit = Right, suitable
Such = Holy, pure
Naad = Resonant sound
Manobhiram = Pleasing to the mind
👇Meaning of bhajan👇
Avan Varun! You are dear to everyone
Where should I go leaving you
O Lord!! Where should I go leaving you
Let us get our share of happiness and wealth
From your wealth
O Lord!! We can get from your wealth
You are Ishan, the owner of riches
You are the bearer of happiness and material things
After getting which we do the work of hard work all our life
Protector Avan Prabhu - Giver of happiness
Always follow the rules
Prabhu!! Where can I leave you
O Savita, protector and guardian Prabhu!
Give us Prasad from the share of Avan
Whom else except you should we ask
Our share of happiness and wealth
After getting your Avan-Ishan
Let the inner heart resonate with happiness
Prabhu!! Where can I leave you
Pleased with good deeds
You gave me the unique abode of salvation
Prabhu!! You had prescribed this in the state of bliss
O soul! You surrender
Prabhu, awaken your fortune again
Avan Varun! You are dear to everyone
Where can I leave you
Prabhu!! Where should I go leaving you
We get our share of wealth and happiness
From your wealth
O Lord!! Let us get it from your wealth
************
Indra does all the work alone with his natural power
selfstudy(swaadhyaay) 👇
God has created the wonderful, unimaginable world and is creating new things every day. He is doing all these works alone without taking help from others. He has the natural power to create this world. His power is such that no one can suppress him, let alone take him over. The child power of God has been described very beautifully in a prayer mantra. (Tuvishusham tuvikrato sachivo vishva ya mate. Apratha mahitvana. ॥8.68.2)
O great power! O great action! Great wisdom! O Mate!
You have spread the world with your greatness. God has great power, great action, great knowledge, everything is great. In another place it is said -- [Vishvaasmadindra Uttara: (Rigveda 10/86) ]= God is the greatest, therefore no one can suppress or adopt His power. Truly( Nakirsya Shachinam Niyanta Sunritanaam. Nakirvaktaan Daditi. Rigveda 8.32.15)
There is no controller, no speaker, no giver of the true sweet powers of this God. His powers are true, that is, they are timeless, there can be no interruption or obstruction in His power at any time. Being uninterrupted, no one can be its controller. Being infinite, there is no speaker of them. When there are infinite powers, then who will describe them? All living beings are ignorant and finite, how can we describe the powers of that infinite power? Forget about giving it which cannot go anywhere! No one can suppress the power of God-- [ Na me daso naryo mahitva vratam meeyaaya yadhaam dharishye [(R.)]
The vow that I observe, due to its importance, neither a slave nor an Arya can kill that vow. No one, good or bad, can do the works of God, He does them Himself. It is said in the Vedas--
[Na tatte anyo anuveeryaam shakan puraano maghavannot nutan:
[A. 20/17/5]
Maghavan! No one, new or old, can imitate your power. God has always been uniquely powerful. When the Vedas say that no one can adopt the power of God, it has a deep meaning. It does not mean that we should not adopt the qualities like kindness etc. that God has to bear, rather its meaning is that God's power is infinite, how can a finite being bear the power of the infinite.
When Veda says that no one can adopt the power of God, then it has a deep meaning. It does not mean that we should not adopt the qualities of God like mercy etc., rather it means that God's power is infinite, how can a finite being adopt the power of the infinite.
The power to do the special works of God like creation of the world etc. cannot come to the living being. Vyasa Muni said keeping this meaning in mind in Vedanta philosophy - [Bhogamātrasamyaalingaccha [4/4/21] =
There is equality of enjoyment between the liberated being and God.
The question is that when the liberated being is freed from all means, then why should he not be considered equal to God or God? Maharishi Vyas replies that it is true that on attaining salvation the soul becomes bondless, but since the bondlessness has begun, there is a possibility of its end as well. A soul with limited knowledge and limited capability, on becoming God-oriented, becomes entitled to use the blissful quality of God, but he never receives His qualities like infinity and creation.
🕉👏 185th Vedic hymn of the second series
And 1191st Vedic hymn till now🙏🌹
Hearty greetings to all Vedic listeners🙏🌹
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