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अष्टाध्यायी प्रवचनम् अध्याय 1.1 सूत्र 41_75




 १.१.४१

सूत्राणि:॥ अव्ययीभावश्च

॥ व्याख्या: ॥

॥ अष्टाध्यायी प्रवचनम् ॥

विभक्तिः - अव्ययीभावः १।१ च अव्ययपदम् ।

अनुवृत्तिः - 'अव्ययम्' इत्यनुवर्तते ।

अन्वयः - अव्ययीभावश्च अव्ययम् ।

अर्थः - अव्ययीभावसमासोऽपि अव्ययसंज्ञको भवति ।

उदाहरणम् - अग्नेः समीपमिति उपाग्नि । प्रत्यग्नि शलभाः पतन्ति ।

आर्यभाषार्थ - (अव्ययीभावः) अव्ययीभाव समासवाले शब्द की (च) भी (अव्ययम्) अव्यय संज्ञा होती है । अग्नेः समीपमिति उपाग्नि । अग्नि के समीप । प्रत्यग्नि शलभाः पतन्ति । प्रत्येक अग्नि में पतंग गिरते हैं ।

सिद्धिः - (१) उपाग्नि । उप+अग्नि । उपाग्नि+सु । उपाग्नि। यहां 'अव्ययं विभक्तिसमीप' (२.१.६) से समीप अर्थ में अव्ययीभाव समास होता है । अव्ययीभाव समास की अव्यय संज्ञा होने से 'अव्ययदाप्सुप:' (२.४.८२) से 'सुप्' का लुक् जाता है ।

(२) प्रत्यग्नि । अग्निम् अग्निं प्रति इति प्रत्यग्नि । प्रति+अग्नि । प्रत्यग्नि । यहां सब कार्य उपाग्नि के समान है ।

१.१.४२

सूत्राणि:॥ शि सर्वनामस्थानम्

॥ व्याख्या: ॥॥ अष्टाध्यायी प्रवचनम् ॥

विभक्तिः - शि १।१ (लुप्तप्रथमानिर्देश:) सर्वनामस्थानम् १।१।

अर्थ: - शि-प्रत्यय: (सर्वनामसंज्ञको भवति ।

उदाहरणम् - कुण्डानि तिष्ठन्ति । कुण्डानि पश्य ।

आर्यभाषार्थ - (शि) शि प्रत्यय की (सर्वनामस्थानम्) सर्वनामस्थान संज्ञा होती है ।

उदाहरणम् - कुण्डानि तिष्ठन्ति । कुण्ड विद्यमान हैं । कुण्डानि पश्य । कुण्डों को देख ।

सिद्धिः - (१) कुण्डानि तिष्ठन्ति । कुण्ड + जस् । कुण्ड + शि । कुण्ड + इ । कुण्ड + नुम् + इ । कुण्ड + न् + इ । कुण्डा + न् + इ । कुण्डानि । यहां 'जशशसो: शिं' (७.१.५०) से जस के स्थान में शि' आदेश होता है और उसकी यहां सर्वनामस्थान संज्ञा की जाती है । 'नपुंसकस्य झलचः' (७.१.७२) से अङ्ग को नुम् का आगम और 'सर्वनामस्थाने चासम्बुद्धौ (६ ।४१८) से नकारान्त अङ्ग की उपधा को दीर्घ होता है ।

(२) कुण्डानि पश्य । कुण्ड + शस् । कुण्ड + शि । कुण्ड + इ । कुण्ड + नुम् + इ । कुण्ड + न् + इ । कुण्डा + न् + इ । कुण्डानि । यहां सब कार्य पूर्ववत् है ।

विशेष - सर्वनामस्थान यह पूर्वाचार्यों की संज्ञा है । पाणिनि मुनि ने इस महती संज्ञा को अपने शब्दानुशासन में उसी रूप में स्वीकार कर लिया है ।

१.१.४३

सूत्राणि:॥ सुडनपुंसकस्य

व्याख्या:॥ अष्टाध्यायी प्रवचनम् ॥

विभक्तिः - सुट् १।१ अनपुंसकस्य ६।१।

समासः - न नपुंसकम् इति अनपुंसकम्, तस्य - अनपुंसकस्य (नञ्तत्पुरुषः) ।      

अनुवृत्तिः - सर्वनामस्थानम् इत्यनुवर्तते ।

अन्वयः - अनपुंसकस्य सुट् सर्वनामस्थानम् ।

अर्थः - नपुंसकभिन्नस्य शब्दस्य सुट् प्रत्यय: सर्वनामस्थानसंज्ञको सुट् प्रत्यय: भवति ।

उदाहरणम् - राजा । राजानौ । राजानः । राजानम् । राजानौ ।

आर्यभाषार्थ - (अनपुंसकस्य) नपुंसकलिंग से भिन्न (सुट) सुट् प्रत्ययों की (सर्वनामस्थानम्) सर्वनामस्थान संज्ञा होती है । सु, औ, जस्, अम्, और यहां सु से लेकर और के टकार से प्रत्याहार बनाया गया है । इन पांच प्रत्ययों को 'सुट्' कहते हैं ।

उदाहरणम् - राजा । राजानौ । राजानः । राजानम् । राजानौ ।

सिद्धिः - (१) राजा । राजन् + सु । राजान् + सु । राजान् + ० । राजान् । राजा । यहाँ सुप्रत्यय की सर्वनामस्थान संज्ञा होने से 'सर्वनामस्थाने चाऽसम्बुद्धौ (६.४.८) से नकारान्त अङ्ग की उपधा को दीर्घ होता है । 'हल्ङ्याब्भ्यो दीर्घात' (६.१.६८) से 'सु' का लोप तथा 'नलोपः प्रातिपदिकान्तस्य' (८.२.७) से नकार का लोप होता है । (२) राजानौ । आदि शब्दों की सिद्धिः 'राजा' शब्द के समान समझें ।

१.१.४४

सूत्राणि:॥ न वेति विभाषा ॥

॥ व्याख्या: ॥॥ अष्टाध्यायी प्रवचनम् ॥

विभक्तिः - न अव्ययपदम् । वा अव्ययपदम् । इति अव्ययपदम् । विभाषा १।१।

अर्थ: - निषेध - विकल्पौ विभाषा संज्ञकौ भवतः ।

उदाहरणम् - शुशाव । शुशुवतुः । शिश्वाय । शिश्वियतुः ।

आर्यभाषार्थ - (न, वा इति) निषेध और विकल्प की (विभाषा) विभाषा संज्ञा होती है । शुशाव । वह बढ़ा । शुशुवतुः । वे दोनों बढ़े । शिश्वाय । शिश्वियतुः । अर्थ पूर्ववत् है ।

सिद्धिः - (१) शुशाब । श्वि + लिट् । श्वि + तिप् । श्वि + णत् । श्वि + अ । शुट् + अ ।शु + अ । शु + शु + अ । शु + शौ + अ । शु + शाव् + अ । शुशाव । यहां टुओश्वि गतिवृद्ध्योः' (भ्वा.आ.) धातु से 'परोक्षे लिट्' (३.१.११५) से लिट्' प्रत्यय, तिप्तस्झि०' (३.४.७८) से 'ल' के स्थान में 'तिप' आदेश, 'परस्मैपदानां णल०' (३.४.८१) से तिप् के स्थान में 'ल्' आदेश, 'विभाषा श्वे:' (६११।३०) से व् को उ राम्प्रसारण, 'सम्प्रसारणाच्च (६.१.१०८) से इ को पूर्वरूप उ, 'अचो णिति' (७.१.११५) से उ को वृद्धि औ 'एचोऽयवायाव:' (६११।७८) से औ को आव् आदेश होता है । यहां एक पक्ष में 'विभाषा श्वे: ' (६.१.३०) से व् को उ सम्प्रसारण होगया ।

(२) शिश्वाय । श्वि + लिट् । श्वि + तिप् । श्वि + णत् । श्वि + अ । श्वि + शिव + अ । शि + शिव + अ । शि + श्वै + अ । शि + श्वाय् + अ । शिश्वाय । यहां विभाषा श्वे:' (६.१.३०) से दूसरे पक्ष में सम्प्रसारण नहीं हुआ, अपितु श्वि धातु को लिटि धातोरनभ्यासस्य' (६.१.८) से द्वित्व 'अचो त्रिगति' (७.१.११५) से वृद्धि और 'एचोऽयवायावः' (६.१.७८) से आयु आदेश होता है । इस प्रकार विभाषा के बल से श्वि धातु के लिट्लकार में दो रूप बनते हैं ।

विशेष - प्रश्न- यहां न और वा की विभाषा संज्ञा की गई है । वा की ही विभाषा संज्ञा क्यों न की जाये । न कि विभाषा संज्ञा करने का क्या लाभ है ?

उत्तर - इस शब्दशास्त्र में प्राप्त, अप्राप्त और उभयत्र तीन प्रकार की विभाषा हैं । जो किसी की प्राप्ति में विभाषा का आरम्भ किया जाता है उसे प्राप्त विभाषा कहते हैं । जो किसी की अप्राप्ति में विभाषा का आरम्भ किया जाता है उसे अप्राप्त विभाषा कहते हैं । जो किसी की प्राप्ति में तथा किसी की अप्राप्ति में विभाषा का आरम्भ किया जाता है उसे उभयत्र विभाषा कहते हैं । विभाषा के प्रकरण में पहले प्राप्त और अप्राप्त विषय को 'न' के द्वारा सम किया जाता है । उस विषय के समीकरण के पश्चात् वहां 'वा' के द्वारा विकल्प का विधान किया जाता है । जैसे 'विभाषा श्वे:' (६.१.३०) से श्वि धातु को लिट् और यङ् में विभाषा सम्प्रसारण का विधान किया गया है । यहां 'वचिस्वपियजादीनां किति' (६.१.१५) से कित् विषय में नित्य सम्प्रसारण की प्राप्ति थी और यङ् प्रत्यय के ङित होने से ङित् विषय में किसी से सम्प्रसारण की प्राप्ति थी ही नहीं । इसलिये प्रथम 'न' के द्वारा विषय का समीकरण किया जाता है कि किसी से प्राप्ति थी अथवा नहीं थी । यदि थी तो उसे 'न' के कुठार से हटा दिया जाता है और 'वा' से विकल्प कर दिया जाता है । इसलिये न और वा दोनों की विभाषा संज्ञा की गई है ।

प्रश्न-यहां इति शब्द का प्रयोग क्यों किया गया है ?

उत्तर-इस शब्दशास्त्र में 'स्वं रूपं शब्दस्याशब्दसंज्ञा' (१.१.६८) से शब्द का अपना रूप ग्रहण किया जाता है । जैसे- 'अग्नेर्वक (४.२.३३) कहा तो अग्नि शब्द से उक् प्रत्यय किया जाता है, उसके अर्थ अंगार से नहीं । यदि सूत्र में 'न वा विभाषा' इतना ही कहा जाये तो न और वा शब्दों की विभाषा संज्ञा हो जाये जो कि आचार्य पाणिनि को अभीष्ट नहीं है । अतः यहां इतिकरण अर्थ ग्रहण के लिये किया गया है । उससे न और वा शब्दों का जो निषेध और विकल्प अर्थ है उसकी विभाषा संजा होती है, और या शब्दों की नहीं ।

    १.१.४५

सूत्राणि:॥ इग्यणः सम्प्रसारणम्

॥ व्याख्या: ॥॥ अष्टाध्यायी प्रवचनम् ॥

विभक्तिः - इक् १।१ यणः ६।१ सम्प्रसारणम् १।१।

अन्वयः - यण इक् सम्प्रसारणम् ।

अर्थ: - यणः स्थाने यो भूतो भावी वा इक् स सम्प्रसारणसंज्ञको भवति ।

उदाहरणम् - य् (इ) इष्टम् । व् (उ) उप्तम् । र् (ऋ) गृहीतम् । ल (लृ) ।

आर्यभाषार्थ - (यणः) यण के स्थान में जो भूल अपना भावी (एक) दक है, उसकी (सम्प्रसारणम्) सम्प्रसारण संज्ञा होती है ।

उदाहरणम् - य् (इ) इष्टम् । यज्ञ किया । व् (उ) उप्तम् । बोया । र् (ऋ) गृहीतम् । ग्रहण किया । ल् (लृ) ।

सिद्धिः - (१) इष्टम् । यन्क्त । यज्त । इ अज् + त । इज्त । इत । इष्ट । इष्ट + सु । इष्टम् । यहां 'यज्ञ देवपूजासंगतिकरणदानेषु' (भ्वा०उ०) धातु से 'निष्ठा' (३.२.१०२) से भूतकाल में क्त प्रत्यय, 'वचिस्वपियजादीनां किर्ति' (६.१.१५) से ५० को 'इ' सम्प्रसारण, 'सम्प्रसारणाच्च' (६.१.१०८) से 'अ' को पूर्वरूप 'इ' 'व्रश्च भ्रस्ज.' (८.२.३०) से 'ज्' को 'व्' तथा 'ष्टुना छुः' (८.४.४१) से 'त' को 'ट' होता है ।

(२) उप्तम् । वप् + क्त । वप्त । उ अप्त । उप्त । उपा + सु । उप्तम् । यहां दुवप् बीजसन्ताने सेवने व (भ्वादि) धातु से पूर्ववत् क्त प्रत्यय और पूर्ववत् 'व' को 'उ' सम्प्रसाण होकर 'अ' को पूर्वरूप 'उ' होता है ।

(३) गृहीतम् । ग्रह क्त । ग्रहत । गृ हत । गृहत । गृह इट् + त । गृह इक्त । गृह + है + स । गृहीत + सु । गृहीतम् । यहां 'ग्रह उपादाने' (कथा०प०) धातु से पूर्ववत् क्त प्रत्यय और पूर्ववत् 'र्' को 'ऋ' सम्प्रसारण होकर 'अ' को पूर्वरूप 'ऋ' होता हैं । 'आर्धधातुकस्येवलादे:' (७.१.३५) से 'इट्' का आगम और उसे ग्रहोऽलिटि दीर्घः' (७.२.३०) से दीर्घ होता है ।

विशेष प्रश्न- यहां यण के स्थान में भूत और भावी इक् की सम्प्रसारण संज्ञा की गई है । भूत और भावी से क्या अभिप्राय है ? उत्तर - इस शब्दशास्त्र में सम्प्रसारणविषयक दो प्रकार का विधान मिलता है । 'वचिस्वपियजादीनां किति' (६.१.१५) से कहा गया है कि वच् आदि धातुओं को सम्प्रसारण हो जाये । जब यहां य् के स्थान में इ, व् के स्थान में उ और र् के स्थान में ॠ हो जाता है, तब यह कहते हैं कि सम्प्रसारण होगया है और 'सम्प्रसारणाच्च' (६.१.१०८) में कहा गया है कि सम्प्रसारण से पर वर्ण को पूर्वरूप एकादेश हो जाये । यह भूत सम्प्रसारण है । इसलिये यहां यण के स्थान में भूत और भावी दोनों अवस्थावाले इक की सम्प्रसारण संज्ञा की गई है ।

१.१.४६

सूत्राणि:॥ आद्यन्तौ टकितौ

॥ व्याख्या: ॥॥ अष्टाध्यायी प्रवचनम् ॥

विभक्तिः - आदि - अन्तौ १।२ टकितौ १।२।

समासः - आदिश्च अन्तश्च तौ - आद्यन्तौ (इतरेतरयोगद्वन्द्वः) । टश्च कश्च तौ-टकौ । इच्च इच्च तौ - इतौ । टकौ इतौ ययोस्तौ टकितौ (इतरेतरयोगद्वन्द्वगर्भितबहुव्रीहि:) ।

अन्वयः - ट- कितौ आद्यन्तौ ।

अर्थ: - टित्- कितावागमौ यथासंख्यमादावन्ते च भवतः ।

उदाहरणम् - (टित्) लविता । (कित्) भीषयते ।

आर्यभाषार्थ - (ट-कितौ) टित् और कित् आगम यथासंख्य (आदि- अन्तौ) आदि और अन्त में होते हैं । टित् आगम जिसको विधान किया गया है उसके आदि में होता है और कित् आगम जिसको विधान किया गया है उसके अन्त में होता है ।

उदाहरणम् - (टित्) लविता । काटनेवाला । (कित्) भीषयते । वह डराता है ।

सिद्धिः - (१) लविता ।लू + तृच् । लू + इट् + तृ । लो + इ + तृ ! लव् + इ + तृ । लवितृ + सु ।  लवित अनङ् + सु । लवितन् + सु । लवितान + स् । लवितान् + ० । लविता । यहां 'लूञ् छेदने' (क्रया.उ.) धातु से 'ण्वुल्तृचौ (३.१.१३३) से तृच्' प्रत्यय, 'आर्धधातुकस्येड् वलादेः' (७.२.३५) से 'वृच्' प्रत्यय के आदि में 'इ' का आगम, 'सार्वधातुकार्धधातुकयोः '(७.३१८४) से अङ्ग को गुण, 'एचोऽयवायावः' (६११।६८) से 'अव्' आदेश, 'ऋदुशनस् ' (७.१.९४) से अङ्ग के 'ऋ' को 'अनङ्' आदेश, 'सर्वनामस्थाने चासम्बुद्धौ (६.४.८) से नकारान्त अंग की उपधा को दीर्घ 'हल्ङ्याब्भ्यो.' (६११.६८) से सु' का लोप और 'लोपः प्रातिपदिकान्तस्थ' (८.२.७) से न का लोप होता है । इस सूत्र से 'इट्' का आगम टित् होने से 'तृच्' प्रत्यय के आदि में किया जाता है ।

(२) भीषयते । भी + णिच् । भी + षुक् + इ । भी + ष् + इ । भीषि + लट् । भीषि + त । भीषि + शप् + त । भीषि + अ + त । भीषे + अ + त । भीषय् + अ + ते । भीषयते । यहां 'ञिभी भयें' (जु.प.) धातु से हेतुमति च ' (३.१.१६) से णिच्' प्रत्यय, भियो हेतुभये षुक्' (७.३.४०) से अङ्ग को 'षुक' का आगम 'सनाद्यन्ता धातवः' (३.१.३२) से णिजन्त की धातु संज्ञा होकर, उससे 'वर्तमाने लट्' (३.२.१२६) से 'लट्' प्रत्यय, 'तिप्तस्झि०' (३.४.७८) से 'ल' के स्थान में 'त' आदेश, कर्तरि शब्' (३.१.६८) से 'श' विकरण प्रत्यय, 'सार्वधातुकार्धधातुकयोः' (७.३.८४) से अंग को गुण, 'एचोऽयवायाव: ' (६.१.६८) से 'अव्' आदेश और 'टित आत्मनेपदानां टेरे (३.४.७९) से 'त' प्रत्यय केटि भाग को एकार आदेश होता है । यहां 'षुक' आगम कित् होने से 'भी' अंग के अन्त में किया गया है ।

१.१.४७

सूत्राणि:॥ मिदचोऽन्त्यात्परः

॥ व्याख्या: ॥॥ अष्टाध्यायी प्रवचनम् ॥

विभक्तिः - मित् १।१ अच: ५।१ अन्त्यात् ५।१ परः १।१।

समासः - म इत् यस्य स मित् (बहुव्रीहिः) । अन्ते भवम् अन्त्यम् तस्मात्- अन्त्यात् (तद्धितवृत्ति:) ।

अन्वयः - अन्त्याद् अचः परो मित् ।

अर्थः - अचां मध्ये योऽन्त्योऽच् तस्मात्परो मिद् आगमो भवति । 

उदाहरणम् - अवरुणद्धि । मुञ्चति । पयांसि ।

आर्यभाषार्थ - (मित्) मित् आगम (अन्त्यात्) अन्तिम (अच:) अच् से (परः) परे होता है ।

उदाहरणम् - अवरुणद्धि  ।रोकता है । मुञ्चति । छोड़ता है । पयांसि । नाना प्रकार के जल ।

सिद्धिः - (१) अवरुणद्धि  । अव + रुध् + लट् । अव + रुध् + तिप् । अव + रुश्नम् अव + रुनधु + ति । अव + रुनध् + धि । अव + रुन्द् + धि । अव + रुणद् + धि । अवरुणद्धि । ६ अव उपसर्गपूर्वक 'रुधिर् आवरणे' (रुधा.प.) धातु से 'वर्तमाने लट्' (३.२.१२६). 'लट्' प्रत्यय, तिप् तस् झि' (३.४.७८) से ल्के स्थान में 'तिप्' आदेश, 'रुषादिभ्यः श्नम्' (३.१.७८) से 'श्नम्' के मित् होने से रुध धातु के अन्तिम अच् से परे 'श्नम्' होता है और झषस्तथोर्धोऽध:' (८.२.४०) से तिप् प्रत्यय के तकार को धकार आदेश, 'झलां जश् झषि' (८.४.५३) से रुध् के धकार को जश् दकार आदेश और 'रषाभ्यां नो णः समानपदे (८.४.१) से नकार को णकार आदेश होता है ।

(२) मुञ्चति । मुच् + लट् । मुच् + श + तिप् । मुच् + अ + ति । मुनुम् च् + अ + ति । मुन् च् + अ + ति । मुच् + अ + ति । मुञ् च + अ + ति । मुञ्चति । यहां 'मृच्लृ मोचनें' (तु०प०) धातु से 'तुदादिभ्य: श:' (३.१.७७) से 'श' विकरण प्रत्यय, 'शे मुचादीनाम्' (७.८.४८) से नुम् आगम, 'नश्चापदान्तस्य झलि (८.३.२४) से न् को अनुस्वार और 'अनुस्वारस्य ययि परसवर्ण:' (८.४.५८) से अनुस्वार को परसवर्ण ञकार होता है । नुम्' के मित् होने से वह 'मुच्' धातु के अन्तिम अच् से परे होता है ।

(३) पयांसि । पयस् + जस् । पयस् + शि । पय नुम् स् + इ । पय न् स् + इ । पयान् स् + इ । पयांस् + इ । पयांसि । यहां 'नपुंसकस्य झलच:' (७.१.७२) से पयस् शब्द को नुम् आगम उसके अन्तिम अच् से परे होता है । 'सान्तमहतः संयोगस्य' (६.४.१०) से अंग को दीर्घ तथा पूर्ववत् नकार को अनुस्वार होता है ।

१.१.४८

सूत्राणि:॥ एच इग्घ्रस्वादेशे

॥ व्याख्या: ॥॥ अष्टाध्यायी प्रवचनम् ॥

विभक्तिः - एच ६।१ इक् १।१ ह्रस्वादेशे ७।१। 

समासः - ह्रस्वश्चासौ आदेश:, हस्वादेश:, तस्मिन् - ह्रस्वादेशे (कर्मधारय तत्पुरुषः) । 

अन्वयः - एचो ह्रस्वादेशे इक् । 

अर्थ: - ह्रस्वादेशे कर्त्तव्ये एच: स्थाने इक् - आदेशो भवति ।         

उदाहरणम् - ओ (उ) उपगु । ऐ (इ) अतिरि । औ (उ) अतिनु । 

आर्यभाषार्थ - (एच) एच् के स्थान में (हस्वादेशे) ह्रस्व आदेश करने में (इक्) इक् ही होता है, अन्य नहीं । 

उदाहरणम् - ओ (उ) उपगु । गौ के समीप । ऐ (इ) अतिरि । धन को जीतनेवाला । औ (उ) अतिनु । नौका को लांघनेवाला । 

सिद्धिः - (१) उपगु । उप + गो ।  उपगो ।  उपगु + सु । उपगु । गो: समीपमिति उपगु । हां 'अव्ययं विभक्तिसमीप' (२.१.६) से अव्ययीभाव समास है । 'गोस्त्रियोरुपसर्जनस्य' (१.२.४८) से 'गो' के ओकार को 'उकार' हस्वादेश (उ) होता है । 

(२) अतिरि । अति + रै ।  अति + रि । अतिरि + सु । अतिरि । रायमतिक्रान्तमिति अतिरि ब्राह्मणकुलम् । यहां 'अत्यादय: क्रान्ताद्यर्थे द्वितीयया' (वा.२.२.१८) से प्रादिसमास, 'ह्रस्वो नपुंसके प्रातिपदिकस्य' (१.२.४७) से नपुंसकलिंग में 'रै' के ऐकार को इकार ह्रस्वादेश होता है । 

(३) अतिनु । अति + नौ । अतिनु + सु । अतिनु । नावमतिक्रान्तमिति अतिनु कुलम् । यहां भी पूर्ववत् समास तथा 'औ' को उकार हस्वादेश होता है । 

   १.१.४९

सूत्राणि:॥ षष्ठी स्थानेयोगा

॥ व्याख्या: ॥॥ अष्टाध्यायी प्रवचनम् ॥

विभक्तिः - षष्ठी १।१ स्थानेयोगा १।१। 

समासः - स्थाने योगो यस्याः सा स्थानेयोगा (बहुव्रीहि:) अत्र निपातनात् सप्तम्या अलुक् । 

अर्थ: - आदेशे कर्त्तव्येऽनियतसम्बन्धा षष्ठी स्थानेयोगा भवति । 

उदाहरणम् - अस्तेर्भूः - भविता । भवितुम् । भवितव्यम् । ब्रुवो वचिः - वक्ता । वक्तुम् । वक्तव्यम् । 

आर्यभाषार्थ - इस शब्दशास्त्र में जो षष्ठी विभक्ति अनियत योगवाली सुनाई देती है, वह (स्थानेयोगा) 'स्थाने' शब्द के योगवाली होती है, अन्य योगवाली नहीं । अस्तेर्भूः (२.४.५२) भविता । होनेवाला । भवितुम् । होने के लिये। भवितव्यम् । होना चाहिये। 'ब्रुवो वचि' (२.४.५३) वक्ता । बोलनेवाला । वक्तुम् । बोलने के लिये । वक्तव्यम् । बोलना चाहिये । 

सिद्धिः - (१) अस्तेर्भूः । सूत्र के 'अस्ते:' पद में षष्ठी विभक्ति है । उसका अर्थ यह किया जाता है कि 'अस्ति' के स्थान में 'भू' आदेश होता है, आर्धधातुकविषय में । जैसे कि 'भविता' आदि उदाहरणों में स्पष्ट है । 

(२) ब्रुवो वचिः' (२.४.५३) सूत्र के ब्रुवः ' पद में षष्ठी विभक्ति है । उसका अर्थ यह किया जाता है कि 'ब्रू' के स्थान में वच् आदेश होता है, आर्धधातुक विषय में । जैसा कि 'वक्ता' आदि उदाहरणों में स्पष्ट है । 

विभक्तिः - (१) यहां स्थान शब्द प्रसंगवाची है । जैसे दर्भाणां स्थाने शरैः प्रस्तरितव्यम्' अर्थात् दर्भ के स्थान में शर बिछने चाहियें। यहां यही समझा जाता है कि दर्भ के प्रसंग में शरों का प्रस्तार करना चाहिये, वैसे 'अस्तेर्भूः' (२.४.५२) कहने पर यही समझना चाहिये कि 'अस्' धातु के प्रसंग में 'भू' आदेश होता है । 

(२) षष्ठी विभक्ति के स्व, स्वामी, अनन्तर, समीप, समूह, विकार और अवयव आदि अनेक अर्थ हैं । जितने भी षष्ठी विभक्ति के अर्थ सम्भव हैं, उन सब की प्राप्ति में यहां यह नियम किया जाता है कि व्याकरणशास्त्र में अनियत सम्बन्धवाली षष्ठी विभक्ति का 'स्थाने' शब्द का योग करके अर्थ किया जाये। 

(३) स्थाने योगो यस्याः सा स्थानेयोगा । यहां 'व्यधिकरण बहुव्रीहि समास है; समानाधिकरण नहीं । पाणिनिमुनि के इसी वचन से यहां निपातन से सप्तमी विभक्ति का अलुक माना जाता है । 

     १.१.५०

सूत्राणि:॥ स्थानेऽन्तरतमः

॥ व्याख्या: ॥॥ अष्टाध्यायी प्रवचनम् ॥

विभक्तिः - स्थाने ७।१ अन्तरतमः १।१। 

अनुवृत्तिः - 'षष्ठी' इत्यनुवर्तते ।

अन्वयः - षष्ठीस्थानेऽन्तरतमः (आदेश:) ।

अर्थ: - षष्ठीनिर्दिष्टस्य स्थाने प्राप्यमाणानाम् आदेशानां अन्तरतमः । सदृशतम आदेशो भवति । तच्च सादृश्यं स्थान-अर्थ-गुण-प्रमाण-भेदतश्चतुर्विधं भवति ।

उदाहरणम् - (स्थानतः) दण्डाग्रम् । खट्वाग्रम् । (अर्थतः) वतण्डी चासौ युवतिश्चेति वातण्ड्ययुवति: । (गुणतः) पाकः । त्याग: राग: । (प्रमाणतः) अमुष्मै । अमूभ्याम् ।

आर्यभाषार्थ - (षष्ठी) षष्ठी विभक्ति से निर्दिष्ट के (स्थाने) स्थाने में प्राप्त होनेवाले आदेशों में से (अन्तरतमः) सदृशतम आदेश ही किया जाता है । किसी के स्थान में आदेश करते समय स्थान, अर्थ, गुण और प्रमाण भेद से चार प्रकार का आन्तर्य (सादृश्य) देखा जाता है ।

उदाहरणम् - (स्थान) दण्डाग्रम् । दण्ड का अग्रभाग । खट्वाग्रम् । खाट का अग्रभाग । (अर्थ) वतण्डी चासौ युवतिश्चेति वातड्ययुवतिः । वतण्डी युवति (गुण) पाकः । पकाना । त्यागः । छोड़ना । रागः । रंगना । (प्रमाण) अमुष्मै । उसके लिये । अमूभ्याम् । उन दोनों के द्वारा ।

सिद्धिः - (१) स्थान । दण्ड + अग्रम् । दण्डाग्रम् । यहां 'अकः सवर्णे दीर्घः' (६.१.१०१) से दो अकारों के स्थान में एक कण्ठ्य आकार ही दीर्घ होता है । ऐसे ही खट्वा + अग्रम् । खट्वाग्रम् ।

(२) अर्थ  । वतण्डी चासौ युवतिश्चेति वातण्ड्ययुवति: । यहां वतण्ड शब्द से स्त्री-अपत्य अर्थ में 'वतण्डाच्च' (४.१.१०८) से 'यञ्' प्रत्यय, उसका 'स्त्रियाम्' (४.१.३) से लुक, 'शाङ्गर्वाच ङीन्' (४.१.७३) से ङीन्' प्रत्यय, 'यस्थेति च' (६.४.१४८) से अकार का लोप और 'पोटायुवति०' (२.१.६५) से कर्मधारय समास होता है । यहां 'पुंवत् कर्मधारय०' (६.३.४२) से पुंवद्भाव करते समय अर्थ के सादृश्य

से वतण्ड शब्द का अपत्यवाची वातण्ड्य शब्द ही आदेश होता है, वलण्ड शब्द नहीं ।

(३) गुण  । पाकः । पच् + यञ् । पाच् + अ । पाक् + अ । पाक + सु  ।पाकः । यहां 'चजो: कु 'धिण्ण्यतो:' (७.३.५२) से कुत्व करते समय अल्पप्राण तथा अघोषगुणवाले चकार के स्थान में अल्पप्राण तथा अघोषगुणवाला ककार ही आदेश होता है । इसी प्रकार त्यज् धातु से घञ् प्रत्यय करने पर 'त्याग' शब्द सिद्ध होता है । यहां भी घोष तथा अल्पप्राण गुणवाले जकार के स्थान में घोष तथा अल्पप्राण गुणवाला कार ही आदेश होता है ।

(४) प्रमाण । अगुष्ठौ । अदस् + ङे । अदस् + स्मै । अमु + मै । अमुष्मै । यहां 'अदसो सेर्दा दो मः' (८.२.८०) से अकार के स्थान में उकार आदेश करते समय ह्रस्व प्रमाणवाले 'अ' के स्थान में ह्रस्व प्रमाणवाला 'उ' ही आदेश होता है और अमुभ्याम्, यहां उक्तसूत्र से दीर्घ आकार के स्थान में दीर्घ प्रमाणवाला दीर्घ ऊकार ही आदेश होता है । 

विशेष - प्रश्न- 'षष्ठी स्थानेयोगा' (१.१.४९) से स्थाने पद की अनुवृत्ति की जा सकती है, फिर यहां 'स्थाने' पद का ग्रहण क्यों किया गया है ?

उत्तर - यहां स्थाने' पद का पुनः ग्रहण इसलिये किया गया है कि 'यत्रानेकविधानान्तर्य तत्र स्थानत एवान्तर्य बलीय:' (परिभाषा) जहां अनेक प्रकार का आन्तर्य (सादृश्य) हो वहां स्थानकृत आन्तर्य को ही बलवान् माना जाये । जैसे- चेता, स्तोता इत्यादि में चि और स्तु आदि धातुओं को गुण कार्य करते समय प्रमाणकृत सादृश्य से ह्रस्व इ और उ के स्थान में ह्रस्व 'अ' गुण प्राप्त होता है, किन्तु स्थानकृत आन्तर्य के बलवान् होने से इ के स्थान में तथा उ के स्थान में ओ गुण किया जाता है ।

    १.१.५१

सूत्राणि:॥ उरण् रपरः

॥ व्याख्या: ॥॥ अष्टाध्यायी प्रवचनम् ॥

विभक्तिः - उ: ६।१ अण् १।१ रपरः १।१। 

समासः - रः परो यस्मात् स रपरः (बहुव्रीहि:) ।

अर्थ: - ऋकारस्य स्थाने विधीयमानोऽण् आदेशो रपरो भवति । 

उदाहरणम् - (अ) कर्ता । हर्ता । (इ) किरति । गिरति । (उ) द्वैमातुरः । त्रैमातुरः ।

आर्यभाषार्थ - (उ) ॠ वर्ण के स्थान में विधीयमान (अण्) अण् आदेश (रपरः) रपर होता है । जिससे परे र हो उसे रपर कहते हैं । अण्- अ, इ, उ ।

उदाहरणम् - (अ) कर्ता । करनेवाला । हर्ता । हरण करनेवाला । (इ) किरति । वह फेंकता है । गिरति । वह निगलता है । (उ) द्वैमातुरः । दो माताओं का पुत्र । त्रैमातुरः । तीन माताओं का पुत्र (राम) ।

सिद्धिः - (१) कर्त्ता । कृ + तृच् । कृ + तृ । क् अर् + तृ । कर्तृ + सु । कर्ता । यहां 'सर्वधातुकार्धधातुकयोः' (७.३.८४) से क अंग के ॠ को 'अ' गुण होता है और प्रकृत सूत्र से उसे रपर किया जाता है - अर् ।

(२) किरति । कृ + लट् । कृ + तिप् । कृ + श + ति । कृ + अ + ति । क् इर् + अ + ति । किरति । यहां ऋत इद् धातो:' (७.१.१०) से कॄ अंग के 'ऋ' के स्थान में 'इ' आदेश होता है और प्रकृत सूत्र से उसे रपर किया जाता है - इर् ।

(३) द्वैमातुरः । द्विमातृ + अण् । द्वैमातुर + अ । द्वैमातुर + सु । द्वैमातुरः । यहां द्विमातृ' शब्द से अपत्य अर्थ में 'मातुरुत् संख्यासंभद्रपूर्वाया:' (४.१.११५) से अण प्रत्यय और मातृ शब्द के ऋकार को उकार आदेश होता है । प्रकृत सूत्र से उसे रपर किया जाता है - उर् ।

अत्रायं विशेषः - उपदेशेऽजनुनासिक इत् (१.३.२) इति सूत्रे से लकारोत्तर अनुनासिक अकार की इत् सञ्ज्ञा हो जाती है; क्योंकि गुरुपरम्परा से लण्मध्ये त्वित्सञ्ज्ञकः ऐसा वाद चला आ रहा है अतः यह अनुनामिक 'ल' इस रूप में है । इस अन्त्य इत् अकार के साथ हयवरट् (प्रत्याहार - ५) सूत्र का ‘र्’ मिलाने से र्  +  अँ = रँ प्रत्याहार बन जाता है, इस ‘रँ’ प्रत्याहार के अन्तर्गत ‘र्’ और ‘ल’ ये दो वर्ण आते हैं । 

अनुनासिक जानने की व्यवस्था इस प्रकार समझनी चाहिये - प्रतिज्ञाऽनुनासिक्याः पाणिनीयाः । पाणिनीयाः = पाणिनिना प्रोक्ता वर्णाः, प्रतिज्ञया गुरुपरम्परोपदेशेन आनुनासिक्याः अनुनासिकधर्मवन्तः सन्तीति शेषः । अर्थः पाणिनि से कहे गये वर्ण गुरुपरम्परा के उपदेशानुसार अनुनासिक धर्म वाले जानने चाहियें । तात्पर्य यह है कि अनुनासिक के विषय में अब तक आ रही गुरुपरम्परा का आश्रय करना ही युक्त है; गुरुपरम्परा से जो जो अनुनासिक चला आ रहा है उसे अनुनासिक और जो अनुनासिक नहीं माना जा रहा उसे अनुनासिक न मानना ही ठीक है ।

अब प्रश्न होता है कि रप्रत्याहार की क्या आवश्यकता है । इस प्रश्न के उत्तर में सिद्धान्तकौमुदीकार दीक्षित का कहना है कि “उरण् रपरः” इस सूत्र में आये हुए र पद से यदि र वर्ण का ग्रहण किया जाय तो “कृष्णर्द्धि” इस प्रयोग के सिद्ध होने पर भी “तवल्कारः” ' इस प्रयोग की सिद्धि नहीं हो सकती है । इसलिए “तुल्यास्यप्रयत्नम्” के भाष्य में भाष्यकार ने कहा कि “लपरत्वं वक्ष्यामि” अर्थात् रपर के साथ लपर भी होना चाहिए । कैयट ने उक्त भाष्य की व्याख्या करते हुए कहा कि “रप्रत्याहाररूपेण व्याख्यास्यामि”  । तात्पर्य यह है कि लपरत्व की सिद्धि र प्रत्याहार के माध्यम से होगी । इस र प्रत्याहार की सिद्धि के लिए दीक्षितजी कौमुदी में कहते हैं कि “लणसूत्रेऽकारश्च” । इस वचन के आधार पर से लणसूत्रस्थ अकार के अनुनासिकत्व की प्रतिज्ञा करके “उपदेशेऽजनुनासिक इत्” सूत्र इत् संज्ञा की जाती है । इसके बाद “आदिरन्त्येन सहेता” सूत्र से “हयवरट्” सूत्र के रकार से लेकर लणसूत्रस्थ अकार तक र प्रत्याहार की सिद्धि होती है । इस र प्रत्याहार में र और ल ये दो वर्ण आते हैं । “उरण् रपरः” के र पद से यही र प्रत्याहार गृहीत होता है । परिणामस्वरूप “कृष्णर्द्धि' में रपरत्व और “तवल्कारः” प्रयोग में लपरत्व होता है । यह बात “तुल्यास्यप्रयत्नं सवर्णम्” सूत्रस्थ कैयट के अनुरोध पर आधारित है । इस रप्रत्याहार का अंगीकरण न्यासकार मञ्जरीकार ने भी किया है । यहाँ तक र प्रत्याहार के साधक पक्षपर प्रकाश डाला गया है आगे बाधकपक्ष प्रस्तुत किया जाता है ।

व्याकरणशास्त्र के महारथी श्री नागेशभट्ट जी कैयट की आलोचना करते हुयें कहते हैं कि लृकारस्य लपरत्वं वक्ष्यामि, इस वचन से भाष्यकार का तात्पर्य रप्रत्याहार स्वीकार करने का नहीं है, अपितु उनका तात्पर्य “उरण रपरः” सूत्र में लकार का समावेश करने के लिये समझना चाहिये और वह लपरत्वं वचन से ही हो सकता है ।

भगवान् पाणिनि जी का भी यह तात्पर्य नहीं हैं कि “ उरण रपर ” (१.१.५१) सूत्र में रपर पदस्थ रवर्ण से रप्रत्याहार का ग्रहण किया जाये, यदि र्ल् का बोध कराने वाला रप्रत्याहार सूत्र में होता तो स्वयं पाणिनि जी “अतो ल्रान्तस्य” (७.२.२) सूत्र में रेफ और लकार (र ल) का पृथक् उच्चारण (उल्लेख) क्यों करते ? रप्रत्याहार से ही लकार का भी बोध हो जाता । पौर्वापर्य का पर्यालोचन करने वाले पाणिनि जी र प्रत्याहार की विद्यमानता में “अतो रान्तस्य” ही सूत्र की रचना करते, अतः अपूर्णवचन में लपरत्वं वक्ष्यामि कहना ही समीचीन रहेगा । यही भाष्यकार का उचित आशय है । इसीतथ्य को नागेश ने अपनी उद्योत टीका में इस प्रकार लिखा है

अन्ये तु लण्सूत्रस्थाकारस्यानुनासिकत्वेऽतोलान्तस्येत्यत्र भगवान् पणिनिः लकारं नोच्चारयेत्, प्रत्याहारेणैवनिर्वाहात् । तस्मादपूर्वं वचनं कार्यमित्येव भाष्याशय उचित इत्याहुः (१.१.९) पर उद्योत 

       एक बात यह भी है कि भाष्य की विशेष शैली भी भाष्यकार के वैशिष्ट्य का परिचय कराती है । वे यादृश विषय का यादृशी शैली से प्रतिपादन करते हैं अन्यत्र भी तादृशविषय का प्रतिपादन करने के लिये तादृशी ही शैली का प्रयोग करते हैं यथा - “न लोकाव्ययनिष्ठाखलर्थतृनाम्” (२.३.६९) सूत्र में 'तृन्निति नेदं प्रत्ययग्रहणम् किं तर्हि ? प्रत्याहारग्रहणम्' जिस शैली का प्रयोग है, उसी शैली का “कृञ् चानुप्रयुज्यतेलिटि” (३.१.४०) सूत्र में भी प्रयोग मिलता है - कृञ् इति नेदं धातुग्रहणम् किं तर्हि ? प्रत्याहारग्रहणम् ।

      इसी शैली का रप्रत्याहार के विषय में भी इस प्रकार प्रयोग करना चाहिये था ‘र’ इति नेदं वर्णग्रहणम्, किं तर्हि ? प्रत्याहारग्रहणम्, किन्तु यहाँ पर पूर्वप्रसिद्ध शैली का परित्याग कर, लृकारस्य लपरत्वं वक्ष्यामि, इस अपूर्वशैली का प्रयोग करने से स्पष्ट हो जाता है, कि रप्रत्याहार पाणिनि कात्यायन पतञ्जलि (त्रिमुनियों) को अभिप्रेत नहीं है ।

      यदि रप्रत्याहार को स्वीकार भी कर लिया जाये तो “रषाभ्यां नो णः समानपदे” (८.४.१) सूत्रमें इस ‘र’ प्रत्याहार का ग्रहण करने पर सवर्ण के साथ लकार का भी ग्रहण करना पड़ेगा, अब लकार से भी परे नकार को णकार होते लगेगा, जिससे ‘कमलानि’ प्रयोग के स्थान पर ‘कमलाणि’ यह अशुद्ध प्रयोग बनने लगेगा । अतः इस अनिष्टापत्ति (णत्व) को रोकने के लिये रप्रत्याहार को न मानकर, ‘लृकारस्याण्लपरः’ यह वचन मानना ही पड़ेगा । यदि पुनरपि रप्रत्याहार को स्वीकार कर लिया जाये तो “रदाभ्यां निष्ठातो नः पूर्वस्य च दः” (८.२.४२) सूत्रस्थ ‘र’ वर्ण को भी रप्रत्याहार मानना होगा । इसमें र ओर ल (र्ल्) का ग्रहण होने से लकार से परे ‘प्रफुल्तः’ में भी तकार को नकार होने लगेगा, जिससे 'प्रफुल्नः' यह अनिष्ट (अशुद्ध) रूप वनने लगेगा । अतः इस वज्रदोष को दूर करने के लिये “उरण रपरः” (१.१.५१) सूत्र में रप्रत्याहार को न मानना ही समीचीन रहेगा, केवल रवर्ण ही मानना चाहिये ।

       रप्रत्याहार को मान्यता प्रदान करने से 'धीवरी, पीवरी, सर्वरी' इत्यादि प्रयोग अशुद्ध बनने लगेंगे यथा - निष्पन्न ‘धीवन्’ पद की जब स्त्रीलिंग में विवक्षा करते हैं, तव ‘वनो र च’ (४.१.७) सूत्र से ‘धीवन्’ में ङीप और नकार को रेफादेश हो जाता है इस प्रकार ‘धीवरी’ प्रयोग सिद्ध होता है । किन्तु जब “वनो र च” सूत्र में रवर्ण से रप्रत्याहार ग्रहण करेंगे तो प्रत्याहार में ‘रल’ दोनों का ग्रहण होने से ‘धीवन्’में नकार के स्थान पर लकारादेश ही होगा, क्योंकि ‘धीवन्’ में नकार का स्थान दन्त्य है, इधर लकार का भी स्थान दन्त्य है ‘लृतुलसानां दन्ताः’ दोनों (स्थान स्थानी) का सादृश्य मिल जाने से नकार के स्थान पर लकार ही बैठेगा । अव ‘धीवली’ ऐसा अनिष्ट ही प्रयोग बनेगा । फलतः अनिष्ट वारणार्थ और इष्ट प्रयोगसिद्धयर्थ रप्रत्याहार सर्वथा त्याज्य है ।

      रप्रत्याहार स्वीकार करने से अहर्गणः प्रयोग भी शुद्ध नहीं बन पायेगा । ‘अहन् + गणः’ में “रोऽसुपि” (८.२.६९) सूत्र से ‘अहन्’ के नकार को रेफादेश हुआ, पश्चात् रेफ का उर्ध्व गमन हो जाने पर ‘अहर्गणः’ प्रयोग सिद्ध हो जाता है । रप्रत्याहार मानने से “रोऽसुपि” सूत्र में रप्रत्याहारस्थ ‘र’ और ‘ल’ दोनों का ग्रहण होगा । अब अहन् में नकार के स्थान पर “रोऽसुपि” सूत्र से ‘र’ आदेश हो अथवा लकार आदेश हो ? ‘अहन्’ में नकार का दन्त्य स्थान है अतः दन्त्य स्थान वाला लकार ही नकार के स्थान पर बैठेगा (लृतुलसानां दन्ताः) अतः अब ‘अहल्गणः’ यह अशुद्ध ही प्रयोग बनेगा । अत एव शुद्ध रूप ‘अहर्गणः’ बनाने के लिये रप्रत्याहार को तिलाञ्जलि देनी अनिवार्य होगी ।

  ‘लण्’ सूत्रस्थ अकार को अनुनासिक मानकार उसकी इत्संज्ञा करना भी भाष्य विरुद्ध है । क्योंकि ‘हयवरट्’ सूत्र पर भाष्य करते हुए पतञ्जलि भगवान ने लिखा है कि - ‘एषा ह्याचार्यस्य शैली लक्ष्यते यत् तुल्यजातीयानां तुल्य जातीयेषूप दिशति, अचोऽक्षु हलोहल्सु’ । । अर्थात् आचार्य पाणिनिजी की शैली की यही विशेषता है कि जिसमें उन्होंने समान जाति के वर्णों के साथ उपदेश (उल्लेख) किया है, जैसे अचों का अचों में और हलों का हलों में |

     इस भाष्य सिद्धांत के अनुसार लण्सूत्रवर्ती अकार तो व्यंजन उच्चारणार्थः । यही तथ्य भाष्यकार ने भी प्रकट किया है - न पुनरन्तरेणाचं व्यंजनस्योच्चारणमपि सम्भवति । प्रधान अच् तो अ से च तक नौ ही होते हैं । अतः अप्रधान होने के कारण लकारवर्ती अकार का अच् प्रत्याहार में अब ग्रहण नहीं हो सकेगा, इसीलिए “उपदेशेऽजनुनासिक इत्” (१.३.२) सूत्र से उसकी इत्संज्ञा भी नहीं हो सकेगी । फिर रप्रत्याहार कैसे सिद्ध होगा ।

      यदि पाणिनि जी को लकारवर्ती अकार की इत्संज्ञा अभिमत होती और उससे रप्रत्याहार की रचना भी अभिप्रेत होती तो वे “इको यणचि” (६.१.७७) इत्यादि सूत्रों में यण् प्रत्याहारों का उल्लेख इत्संज्ञक अकार से ही करते, यथा “इको यणचि” के स्थान पर “इको योऽचि”, “इग्यणः सम्प्रयारणम्” (१.१.४५) के स्थान पर ‘इग्यः सम्प्रयारणम्’ “इण्कोः” (८.३.५७) के स्थान पर ‘यः कोः’ और “इणः षीध्वंलुङ्लिटां धोऽङ्गात्” (८.३.७८) के स्थान पर ‘यात्षीध्वंलुङ्लिटां धोऽङ्गात्’, “अणुदित्सवर्णस्य चाप्रत्ययः” (१.१.६९) के स्थान पर ‘ओदिव्सवर्णस्य चाप्रत्ययः’ इत्यादि सूत्रन्यास होना चाहिए था । पाणिनिजी ने ऐसा न करके यह सिद्ध कर दिया कि लण्घटक अकार इत्संज्ञक (अनुनासिक) नहीं है और उससे रप्रत्याहार नहीं बन सकता ।

       पुनरपि अनेक सूत्रों को जोड़-तोड़ कर ज्ञापनों के आधार पर उक्त दोषों को शिथिल करके रप्रत्याहार की रक्षा कर भी ली तो भी ज्ञापनादि गौरवों (क्लेशों) की अपेक्षा लपरत्व वचन का निवेश करने में ही अत्यन्त लाघव है फिर “उरणपरः” (१.१.५१) सूत्र को छोड़ कर यह रप्रत्याहार पूरी अष्टाध्यायी में न तो प्राप्त होता है, और न ही पाणिनि जी ने कहीं पर इसका उपयोग किया है । भाष्यकार ने अपने ग्रंथ मे इस रप्रत्याहार की कहीं भी चर्चा नहीं की है ।

      यहाँ एक बात यह विचारणीय उपस्थित है कि नागेश भट्ट ने कहा है कि बहुत से यण् - पदघटित सूत्रों में यण् की जगह य का प्रयोग करने से आधा मात्रा का लाघव होता है । किन्तु यह बात इसलिए असंगत लग रही है कि जब बहुत सूत्रों में यण् की जगह य का प्रयोग किया जायेगा तो अनेक मात्राओं का लाघव होगा । ऐसी स्थिति में बहुत सूत्रों में आधा मात्रा के लाघव की बात असंगत है । इस असंगति को दूर करने के लिए विभिन्न व्याख्याताओं ने  - इस पंक्ति की व्याख्या अपने - अपने ढंग से की है । कुछ लोगों का कहना है कि जहाँ - जहाँ यण की जगह य प्रत्याहार का प्रयोग करने में लाघव हो वहीं य प्रत्याहर से व्यवहार करना उचित है । जैसे “यण्वतः” की जगह “यवतः”, “इको यणचि” की जगह “य इकोचि”, “इणो यण्” की जगह “य इण:” इस रूप में न्यास करने में आधा मात्रा का लाघव है । “इग्यणः” इत्यादि स्थलों में “यण” की जगह “यस्य” ऐसा न्यास करने में लाघव नहीं है, इसलिए यहाँ य प्रत्याहार का प्रयोग नहीं किया जायेगा । इसीलिए बहुषु यण्पदघटितसूत्रेषु” कहा गया है । न कि “सर्वेषु यण्पदघटितसूत्रेषु” ऐसा कहा गया । किन्तु यह कहना भी इसलिए उचित प्रतीत नहीं होता कि इस प्रकार भी अनेक सूत्रों में जब आधा - आधा मात्रा का लाघव हो रहा है तो सब मिलकर अनेक मात्राओं का लाघव होता है । ऐसी स्थिति में “बहुषु यण्पदघटितसूत्रेषु अर्धमात्रालाघवानुरोधेन” यह कहना संगत नहीं हो रहा है । 

     कुछ लोगों का कहना है कि इसका तात्पर्य यह है कि लण् सूत्र में णकारोच्चारण नहीं करना चाहिए और शेखर की पंक्ति की योजना इस प्रकार करनी चाहिए - “वर्णसमाम्नाये अर्द्धमात्रालाघवानुरोधेन बहुषु यण्पदघटितसूत्रेषु यप्रत्याहारेणैव व्यवहरेत्” । अर्थात् “लण् के कार को न करने से वर्णसमाम्नाय में आधामात्रा का लाघव हो रहा है । “इस प्रकार लकारोत्तरत अकार से य प्रत्याहार बना कर बहुत से यण् पद वाले सूत्रों में य का व्यवहार किया जा सकता है । किन्तु यह कथन भी उचित प्रतीत नहीं हो रहा है । कारण यह है कि यदि “लण्” सूत्र का णकार नहीं किया जायेगा तो “अणुदित्” सूत्र में अण् प्रत्याहार तथा इण् प्रत्याहार ये दोनों प्रत्याहार, जो पर णकार (लण् के णकार ) तक माने जाते हैं, इनकी विसंगति होने लगेगी । इसका कारण यह है कि णकार के अभाव में अणु की जगह “आ” प्रत्याहार बनेगा और इण् की जगह य प्रत्याहार (इ  +  अ = य) बनने लगेगा । परिणाम यह होगा कि “आ सर्वनाम्नः”, “योऽचि”, “यस्येति च” इत्यादि सूत्रों में वर्ण का ग्रहण किया जाय या प्रत्याहार का, यह एक अनिश्चय की स्थिति उत्पन्न हो जायेगी । यदि व्याख्यान के द्वारा निर्णय का प्रयत्न किया जायेगा तो अर्द्धमात्रा का लाभव दिखाने वाले को महान् गौरव का सहन करना पड़ेगा ।

      यदि “प्रत्येकम्” पद का अध्याहार करके शेखर की पंक्ति की संगति इस प्रकार बैठायी जाय कि “प्रत्येकमर्द्धमात्रालाघवानुरोधेन बहुषु यण्पदघटितसूत्रेषु यप्रत्याहारेणैव व्यवहरेत्” तो संगति बैठ जाती है । इसका तात्पर्य यह होगा कि जहाँ यण की जगह य का प्रयोग करेंगें वहाँ प्रत्येक जगह आधा मात्रा का लाघव होने के कारण बहुत से यण्पदघटित सूत्रों में पाणिनि को यण् की जगह य प्रत्याहार का ही प्रयोग करना चाहिए था, किन्तु उन्होंने वैसा किया नहीं है । इससे संकेत मिलता है कि लण् सूत्र का अकार अनुनासिक नहीं है । अन्यथा र प्रत्याहार की भाँति य प्रत्याहार भी बनाया गया होता ।

        नागेश भट्ट के द्वारा इस प्रकार र प्रत्याहार का खण्डन करने पर र प्रत्याहार के पक्षधरों की ओर से कहा जाता है कि लणसूत्रस्थ अकार के अनुनासिक होने पर भी उससे केवल र प्रत्याहार ही बनेगा, न कि व प्रत्याहार भी । इसका कारण यह है कि य प्रत्याहार बनाने पर “योऽचि”, “यस्य हलः”, “यस्येति च” इत्यादि सूत्रों में य प्रत्याहार लिया जाय या य वर्ण लिया जाय, इसके निर्णय के लिए व्याख्यान का आश्रयण करना होगा, जो एक प्रकार का गौरव ही होगा । इसीलिए णकार अनुबन्ध की भी सार्थकता होती है कि उसके द्वारा अण, इण् और यण् प्रत्याहारों की सिद्ध हो सके । इस प्रकार लणसूत्रस्थ अकार के अनुनासिकत्व और उसके द्वारा र प्रत्याहार की सिद्धि में कोई बाधा नहीं है । 

       र प्रत्याहारवादियों की ओर से इस प्रकार कहने पर शेखरकार दूसरे किञ्च के द्वारा र प्रत्याहार का निराकरण करते हुए कह रहे हैं कि यदि लणसूत्रस्थ अकार को अनुनासिक माना जायेगा तो भाष्योक्त तृतीय हेतु की अव्यापकत्वापत्ति हो जायेगी । इस बात का विशद विवेचन इस प्रकार है  - भाष्यकार ने अच् प्रत्याहार में अनुबन्धों (इत्संज्ञक वर्णों) का ग्रहण क्यों नहीं किया ? इस प्रश्न के उत्तर में तीन हेतुओं को प्रदर्शित करते हुए अनुमान की प्रक्रिया से बताया है कि अच् प्रत्याहार में अनुबन्धों का ग्रहण नहीं होता है । अनुमान का वह क्रम इस प्रकार है - “अनुबन्धाः प्रत्याहारजन्यबोधविषयत्वाभाववन्तः, लोपशास्त्रीयोद्देश्यतावच्छेदकाक्रान्तत्वात्”  । इसका तात्पर्य है कि अनुबन्ध प्रत्याहारजन्य बोध के विषय नहीं होते, क्योंकि वे लोपशास्त्र जो “तस्य लोपः” है, उसके उद्देश्यतावच्छेदक = इत्संज्ञकत्व से आक्रान्त हैं, अर्थात् उनकी इत् संज्ञा और लोप हो जाता है, इसलिए वे प्रत्याहार में गृहीत नहीं होते । यहाँ प्रयुक्त हेतु तीसरा हेतु है । इसके पूर्व “आचारात् और अप्रधानत्वात्” ये दो हेतु भाष्य में प्रस्तुत किये जा चुके हैं, किन्तु इन दोनों हेतुओं में कोई अव्यापकत्वापत्ति की शंका न होने के कारण तृतीय हेतु में अव्यापकत्वापत्ति की शंका की है । इस प्रसंग में एक यह शंका उपस्थित होती है कि जहाँ हेतु से साध्य की अनुमिति होती है वहाँ साध्य का व्यापक होना और हेतु का व्याप्य होना अनिवार्य होता है । ऐसी स्थिति में जब कि हेतु व्याप्य होता है तब उसका अव्यापक होना तो गुण ही है तो शेखर कार ने हेतु में जो अव्यापकत्वापत्ति का दोष दिया है वह कहाँ तक उचित है ? इस शंका का उत्तर यह है कि यहाँ जो हेतु के अव्यापक की बात कही गई है उसका तात्पर्य यह नहीं है कि हेतु की साध्य के प्रति अव्यापकत्वापत्ति हो रही है, क्योंकि ऐसी अव्यापकत्वापत्ति (व्याप्यता) तो इष्ट ही है । यहाँ जो अव्यापकत्वापत्ति की बात की जा रही है उसका तात्पर्य पक्षतावच्छेदक के प्रति हेतु की अव्यापकत्वापत्ति से है । बात यह है कि अनुमिति दो प्रकार की होती है - एक तो पक्षतावच्छेदक सामानाधिकरण्येन और दूसरी पक्षतावच्छेदकावच्छेदेन । पहली अनुमिति में तो जिस अधिकरण में अनुमिति करनी होती है हेतु का तदधिकरणवृत्तित्व अपेक्षित होता है । पक्षतावच्छेदकावच्छेदेन अनुमितिस्थल में तो पक्षतावच्छेदकावच्छिन्न सारे पक्षों में हेतु की वृत्तिता अपेक्षित होती है । उदाहरण के लिए यदि पर्वतत्वावच्छेदेन सकल पर्वत में वह्नि की सिद्धि करनी है तो सभी पर्वतों में धूम का रहना अनिवार्य होगा । यह धूम पक्षतावच्छेदक पर्वतत्व का व्यापक होता है । यदि एक भी पर्वत में धूम नहीं रहा तो उसमें पक्षतावच्छेदक के प्रति व्यापकता नहीं रहेगी । ऐसे अव्यापक हेतु से पर्वतत्वावच्छेदेन अनुमिति नहीं हो सकती है । 

     प्रस्तुत स्थल में भी यहीं बात है । ऊपर जो अनुमान का क्रम दिखाया गया है, यह अनुमिति पक्षतावच्छेदकावच्छेदेन की जा रही है । इस अनुमिति में “लोपशास्त्रीयोंद्देश्यतावच्छेदका - क्रान्तत्व रूप हेतु को अनुबन्धरूपी प्रत्येक पक्ष में रहना अपेक्षित है, तभी वह पक्षतावच्छेदक का व्यापक हो सकता है । लण् सूत्र के अकार को अनुनासिक मानने पर 'इत्संज्ञायोग्यत्व रूप अनुबन्धत्व के उसमें रहने पर भी लोपशास्त्रीयोद्देश्यतावच्छेदकाक्रान्तत्व रूप हेतु अर्थात् इत्संज्ञकत्व उसमें नहीं जाता है । तात्पर्य यह कि उसकी इत् संज्ञा नहीं होती है । बिना इत् संज्ञा के वह लोपशास्त्रीयोद्देश्यतावच्छेदकाक्रान्त हो ही नहीं सकता । इस प्रकार यहाँ अव्यापकत्वापत्ति रूप दोष की प्रसक्ति होती है । 

        अब प्रश्न होता है कि अनुनासिक होने पर भी उसकी इत् संज्ञा क्यों नहीं होती, जिससे उक्त दोष की आपत्ति होती है ? इस प्रश्न के उत्तर को समझने के लिए पहले इसकी पृष्ठभूमि पर ध्यान देना आवश्यक है । भाष्यकार ने यह विचार किया कि - प्रत्याहारे = वर्णसमाम्नाय में, य एतेऽक्षु = अच्बोधक सूत्रों में प्रत्याहार बनाने के लिए जो अनुबन्ध किये गये हैं, उनका अच्बोधक प्रत्याहारों में ग्रहण क्यों नहीं होता है ? भाष्यकार की यह आशंका अच् प्रत्याहार में आये हुए “णकङ्गच्” इन चार अनुबन्धों के लिए ही है । अच् प्रत्याहार में हल् अनुबन्धों का ग्रहण क्यों नहीं होता ? यही यहाँ के प्रश्न का तात्पर्य है । यहाँ एक जिज्ञासा होती है कि जिस प्रकार भाष्यकार ने अच् प्रत्याहार में हल् अनुबन्धों के ग्रहण की शंका की, उसी प्रकार लण सूत्र के अकार के सम्बन्ध में भी शंका करनी चाहिये थी कि हल प्रत्याहार में अच् अनुबन्ध (लण् के अकार) की गणना क्यों नहीं होती, क्योंकि यह भी अनुनासिक होने के कारण इत्संज्ञा के योग्य है ?

       यदि कहा जाय कि अच् में हल् अनुबन्ध इसलिए नहीं लिये जायेंगे कि “लोपश्च बलवत्तरः” इस उक्ति के द्वारा उनका लोप हो जायेगा; तो यही उत्तर हल प्रत्याहार में आये हुए अच् अनुबन्ध के लिए भी हो सकता है । किन्तु विचार करने पर विदित होता है कि अच् प्रत्याहार में आये हुए अनुबन्धों का लोप से अपहार हो जाने पर भी हल में आये हुए अच् अनुबन्ध का लोप ही नहीं होगा । कारण कि इसकी इत्संज्ञा ही नहीं हो रही है । इत् संज्ञा न होने का कारण यह है कि प्रत्याहारों के बीच पहला प्रत्याहार हल् प्रत्याहार बनता है, क्योंकि “हलन्त्यम्” सूत्र की आवृत्ति करके आवृत्त “हलन्त्यम्” सूत्र से सर्वप्रथम इत् संज्ञा “हल्” इस चौदहवें सूत्र के लकार की होती है । इसके बाद हल् प्रत्याहार बनाकर “हलन्त्यम्” सूत्र से चकारादि वर्णों की इत् संज्ञा करके अच् प्रत्याहार बनता है । इस प्रकार देखा जाता है कि अच् प्रत्याहार बनने के पहले हल् प्रत्याहार बन जाने के कारण अच् प्रत्याहार में आने वाले हल् अनुबन्धों की इत् संज्ञा और तत्प्रयुक्त लोपेन उनका अपहार तो संभव है किन्तु हल् प्रत्याहार की सिद्धि के पहले अच् प्रत्याहार की निष्पत्ति, जैसा कि पहले बताया जा चुका है न होने के कारण हल प्रत्याहार में आये हुए अनुबन्ध की “उपदेशऽजनुनासिक” सूत्र से इत् संज्ञा होगी ही नहीं । इस प्रकार स्पष्ट होता है कि यदि लण् सूत्र के अकार को अनुनासिक माना जाता है तो इत्संज्ञायोग्यत्वरूप अनुबन्धत्व के उसमें रहने के कारण वह प्रकृत अनुमिति में पक्ष तो बनता है, किन्तु उपर्युक्त व्याख्यान से जैसा कि विदित होता है वह लोपशास्त्रीयोद्देश्यतावच्छेदक इत्व से आक्रान्त नहीं होता है, अर्थात् उसकी इत् संज्ञा नहीं हो रही है । इस प्रकार इस पक्ष में हेतु के न जाने के कारण “पक्षैकदेशावृत्तित्वं भागासिद्धिः” नामक दोष यहाँ पड़ता है ।

       इसी बात को शेखरकार इस प्रकार कह रहे हैं कि तव मते = लण् सूत्र का अकार अनुनासिक है, ऐसा स्वीकार करने वाले प्राचीन के मत में लोप के बलवान् होने पर भी हल् प्रत्याहार की सिद्धि के पहले अच् प्रत्याहार की निष्पत्ति (सिद्धि) न होने के कारण “उपदेशे ऽजनुनासिक इत्” इस सूत्र का वाक्यार्थबोध ही नहीं हो सकेगा । ऐसी स्थति में “लण् सूत्र के अकार की न तो इत् संज्ञा होगी और न लोप होगा । ऐसी स्थिति में लोप शास्त्रीयोद्देश्यतावच्छेदकाक्रान्तत्व हेतु अनुबन्ध नामक पक्ष में नहीं जाता है, इसलिए तृतीय हेतु की अव्यापकत्वापत्ति रूप दोष इस में पड़ रहा है । मेरे मत (नागेश के मत) के अनुसार लण् का अकार अनुनासिक ही नहीं है, इसलिए वह अनुबन्ध भी नहीं है । इस प्रकार इस मत में कोई दोष नहीं पड़ता है । 

      इस कथन के ऊपर र प्रत्याहार के समर्थकों की ओर से कहा जाता है कि भाष्यकार ने कहा है कि “अक्षु य एते प्रत्याहारार्था अनुबन्धाः क्रियन्ते” इस भाष्य से स्पष्ट है कि केवल “अनुबन्धत्व” पक्षतावच्छदेक नहीं है, किन्तु “अज्बोधकसूत्रस्थानुबन्धत्व” ही पक्षतावच्छेदक है । ऐसी स्थिति में लण् का अकार तो जब पक्ष ही नहीं है तो यहाँ तृतीय हेतु की अव्यापकत्वापत्ति का प्रश्न ही नहीं है । इसलिए लण् सूत्र के अकार का अनुनासिकत्व और र प्रत्याहार की सिद्धि में कोई बाधा नहीं है । इस पर शेखरकार का कहना है कि इस प्रकार तृतीय हेतु की अव्यापकत्वापत्ति भले न हो, किन्तु लण के अकार की इत् संज्ञा और लोप से अपहार न होने के कारण उसकी गणना हल प्रत्याहार में होने लगेगी । इसका परिणाम यह होगा कि “अन प्राणने “धातु से क्विप् प्रत्यय करके “अनुनासिकस्य क्विझलो” सूत्र से उपधादीर्घ, प्रातिपदिक संज्ञा और सम्बोधन में प्रथमा, उसका लोप और सम्बुद्धिप्रयुक्त नलोपाभाव करके “हे आन् । मां त्रायस्व” इस अर्थ की विवक्षा में “माम्  +  आंस्त्रायस्व” इस स्थिति में लण के अकार से आंस्त्रायस्व के आकार का ग्रहण करके उसे हल होने के कारण “मोऽनुस्वारः” सूत्र से माम् के मकार को अनुस्वार होने लगेगा ।

         यदि कहा जाय कि व्यक्ति पक्ष में लण्सूत्रस्थ अकार और लक्ष्यस्थ आकार दोनों भिन्न - भिन्न हैं । इसलिए लक्ष्यस्थ आकार का ग्रहण लण सूत्र के अकार से नहीं होगा । तस्मात् “मामांस्त्रायस्व” का दोष नहीं है, तो इस बात को दृष्टिगत कर शेखरकार का कहना है कि “अणुदित्” सूत्र के अणु ग्रहण के प्रत्याख्यान के लिए भाष्यकार ने प्रत्याहार में जातिपक्ष को ही सिद्धान्तित किया है । अन्यथा व्यक्तिभेद होने के कारण “अवात्ताम्” इस प्रयोग में “अवस् - स - ताम्” इस स्थिति में “झलो झलि” से सकार का लोप नहीं होगा, क्योंकि झल् के तकार से लक्ष्यस्थ तकार भिन्न है । जब प्रत्याहार में जातिपक्ष मान लिया गया तो लण् सूत्र के अकार से लक्ष्यस्थ आकार का ग्रहण होगा और फलस्वरूप “मामांस्त्रायस्व” का दोष रहेगा ही ।

         यदि कहा जाय कि ह्रस्वत्व समानाधिकरण अकार ही हल् प्रत्याहार में माना जायेगा । उपर्युक्त लक्ष्यस्थ आकार तो दीर्घ है, अतः यहाँ दोष नहीं है तो ऐसी स्थिति में अन् धातु विच् प्रत्यय करके अन् बनाने पर “माम्  +  अंस्त्रायस्व” इस प्रयोग का दोष दुरुद्धर हो जायेगा । इसके अतिरिक्त ह्रस्वत्व - समानाधिकरण अत्व जात्याश्रय का हल प्रत्याहार में ग्रहण है, ऐसा स्वीकार करने पर दूसरा दोष यह है कि “सोऽस्ति” इस प्रयोग में अकार को हल् मान कर “एतत्तदो :” सूत्र से सु का लोप होने लग जायेगा । इसलिए यही स्वीकार करना चाहिए कि लण् सूत्र का अकार अनुनासिक नहीं है । 

        अत एव = लण सूत्र का अकार अनुनासिक नहीं है, इस बात को स्वीकार करने से ही, अथवा र प्रत्याहार नहीं बनता इस बात को स्वीकार करने से ही अग्रिम भाष्य की संगति होती है । भाष्यकार ने “प्रत्याहारेऽनुबन्धानां कथमज्ग्रहणेषु न” इस वार्तिक का व्याख्यान इस प्रकार किया है  - प्रत्याहारे = वर्णसमाम्नाय में य एतेऽक्षु = अच्बोधक “अइउण्” इत्यादि सूत्रचतुष्टय में ये जो अनुबन्ध प्रत्याहार के लिए किये गये हैं उनका अज्ग्रहणेन अच् संज्ञा से ग्रहण = बोध क्यों नहीं होता ? अर्थात् अइउण् इत्यादि चार सूत्र, जिनसे अच् प्रत्याहार बनता है उन सूत्रों में आये हुए चार अनुबन्ध अच् क्यों नहीं कहे जाते ? ऐसी शंका करके “आचारात्, अप्रधानत्वात्, लोपश्च बलवत्तरः” इन तीन हेतुओं के द्वारा उनका अच् प्रत्याहार में ग्रहण न होना सिद्ध किया है । 

        अब यहाँ यह विचार करना है कि भाष्यकार ने अच् प्रत्याहार में हल् वर्णों के ग्रहण के विषय में शंका तो की, किन्तु हल् प्रत्याहार में इस प्रकार की शंका नहीं की । यदि लण सूत्र का अकार अनुनासिक होता और उसकी इत् संज्ञा होती तो जिस प्रकार भाष्यकार ने अच् प्रत्याहार में हल् वर्णों के ग्रहण के सम्बन्ध में शंका - समाधान किया है, वैसे ही हल् प्रत्याहार में भी अच् वर्ण (लण् के अकार) के ग्रहण के सम्बन्ध में भी शंका - समाधान किये होते; परन्तु भाष्यकार ने ऐसा नहीं किया है, इसलिए समझतें हैं कि लण् सूत्र का अकार अनुनासिक नहीं है । अपने इसी कथन की सम्पुष्टि में नागेश भट्ट आगे कह रहे हैं कि उपर्युक्त शंका के अवसर पर जिन अज्बोधक सूत्रों में अनुबन्धों का ग्रहण नहीं होता, उनका उल्लेख करते हुए भाष्यकार ने “अइउण्” इत्यादि चार सूत्रों का ही उल्लेख किया और वहीं “अस्य प्रत्याहारेऽनुबन्धानाम्” इस वार्तिक की प्रवृत्ति दिखलायी है । इससे भी स्पष्ट होता है कि लण का अकार अनुनासिक नहीं है । यदि होता तो उसके सम्बन्ध में भी शंका - समाधान किया गया होता । 

      अब भाष्य में प्रदर्शित तीनों हेतुओं में द्वितीय हेतु का व्याख्यान करते हुए कह रहे हैं कि तत्र = वार्तिक में आये हुए “अप्रधानत्वात्” इस मध्यम हेतु के भीतर जो प्रधान शब्द आया है, उस प्रधान शब्द से प्रत्याहार में ग्रहण (बोध) रूपी प्राधान्य विवक्षित है । तात्पर्य यह है कि प्रत्याहार में उन्हीं का ग्रहण होता है जो प्रधान होते हैं । अनुबन्ध क्योंकि अप्रधान होते हैं । इसलिए उनका प्रत्याहारों में ग्रहण नहीं होता । उनकी अप्रधानता “अन्त्येन” इस पद में अप्रधान अर्थ में की गई तृतीया विभक्ति द्वारा विदित है ।

        हलषु = हल्बोधक सूत्रों में, तेषाम् = हल् वर्णों का तथा ग्रहण करने के लिये उपदेश किया गया है । अक्षु तु = अच्बोधक सूत्रों में तो स्वरवर्णों का ही, तथोपदेशः = ग्रहण के लिए उपदेश किया गया है । इस प्रकार अच्बोधक सूत्रों में अच् वर्ण की और हल्बोधक सूत्रों में हल वर्णों की प्रधानता होने के कारण तत्र अच् प्रत्याहार में तेषामेव अच् वर्णों का ही और हल् प्रत्याहार में हल् वर्णों का ही संज्ञित्व होता है अर्थात् बोध होता है । यह बात भाष्य में स्पष्ट है । 

        अब यह शंका हो रही है कि नागेश भट्ट ने उपर्युक्त प्रकार से अच् प्रत्याहार में ही अनुबन्धों का ग्रहण न होना सिद्ध किया है । ऐसी स्थिति में इनके मत में भी दृश् आदि प्रत्याहारों में टकार आदि अनुबन्धों का महण क्यों न होवे ? इस प्रश्न के उत्तर में कह रहे हैं कि हश् आदि प्रत्याहारों में टकारादि अनुबन्धों के महण की आपत्ति नहीं है । इसका कारण यह है कि “हयवरट्” के हकार से लेकर हल सूत्र के हकार तक जितने हल् वर्ण हैं, उन सभी वर्णों में बार - बार अकार का उच्चारण किया गया है, क्योंकि विना अच् के व्यञ्जन वर्ण का उच्चारण भी नहीं हो सकता । इसलिए पुनः पुनः अकारोच्चारण से यह समझा जाता है कि उच्चारणार्थक वर्ण से रहित हल् वर्णों का उनसे घटित प्रत्याहार में ग्रहण नहीं होता है । इसलिए हश् आदि प्रत्याहारों में टकारादि अनुबन्धों के ग्रहण होने की आपत्ति नहीं है । यदि कथञ्चित् उच्चारणार्थकवर्णरहित हल् वर्णों का ग्रहण प्रत्याहार में कर लिया जाता है तो तद्विषयक = टकारादि अनुबन्ध विषयक “रामो टीकते” इत्यादि प्रयोगों का अनभिधान ही समझना चाहिए । अर्थात् ऐसे प्रयोग नहीं होते, ऐसा ही मानना चाहिए । 

      तस्मात् = इस उपर्युक्त विवेचन से जब यह सिद्ध हो गया कि लण् सूत्र के अकार को अनुनासिक नहीं माना जा सकता तो इसके अनुनासिकत्व को अप्रामाणिक ही समझना चाहिए । अर्थात् लणसूत्रस्थ अकार अनुनासिक नहीं है । इसलिए उसकी इत् संज्ञा करके र प्रत्याहार बनाया जाता है, यह बात भी अप्रामाणिक ही है । ऐसी स्थिति में प्रश्न होता है कि तब “तवल्कारः” प्रयोग की सिद्धि किस प्रकार होगी ? इसके उत्तर में कह रहे हैं कि “उरण् रपरः “सूत्र में लकार का ग्रहण करना चाहिए । तात्पर्य यह है कि “उरण्रलपर:” ऐसा सूत्र करने में भाष्य का तात्पर्य समझना चाहिए । जिस प्रकार ऋकार और लृकार की सवर्ण संज्ञा करने के लिए “ऋलृवर्णयोर्मिथः सावर्ण्य वाच्यम्” ऐसा कहा गया है, उसी प्रकार ऋकार के स्थान पर रपर और लृकार के स्थान पर लपर आदेश होने के लिए “उरण् रपरः” ऐसा सूत्र मानना चाहिए । ऐसा नागेश भट्ट कहते हैं ।

    विमर्श - नागेश भट्ट इत्संज्ञायोग्यत्व रूप अनुबन्धत्त्व को स्वीकार कर जो तृतीय हेतु की अव्यापकत्वापत्ति का दोष दिये हैं, वह ठीक नही है; क्योंकि “इत्संज्ञकत्वमनुबन्धत्वम्”, इस रूप में अनुबन्धत्व को यदि स्वीकार किया जाता है तो लण् सूत्र का अकार पक्ष ही नहीं बनता है, क्योंकि हल् प्रत्याहार की सिद्धि के पहले उसकी इत् संज्ञा ही नहीं होती है । इसलिये अव्यापकत्वापत्ति का दोष नहीं है । दूसरी बात यह है कि नागेश के मतानुसार उच्चारणार्थक वर्णों की भी निवृत्ति इत् संज्ञा और लोप के द्वारा ही होती है, यह बात उन्होंने 'दिव औत्' सूत्र में कही है । ऐसी स्थिति में हल् प्रत्याहार की सिद्धि के पहले जिस प्रकार लण के अकार की इत् संज्ञा नहीं होती है, उसी प्रकार हयवरट् इत्यादि में हकारोत्तर वर्तमान उच्चारणार्थक अकार की भी इत् संज्ञा नहीं होगी । ऐसी स्थिति में हकार के अकार को लेकर पक्षतावच्छेदकाव्यापकत्व रूप दोष उनके मत में भी आ जाता है । 

     इसी प्रकार “सोऽस्ति” इस प्रयोग में सुलोप की जो आपत्ति दी गई है वह भी ठीक नहीं है, क्योंकि लण् सूत्र के अकार के हल् वर्ण हो जाने पर “अदेङ् गुणः”, “आद्गुणः” इत्यादि स्थलों में णकारोत्तरवर्ती अकार रूप हल से पर में रहने वाली सुविभक्ति के सकार का “हल्ङयाब्भ्यः “सूत्र से लोप होना चाहिए, किन्तु इन स्थलों में लोप न करने से यह परिकल्पना की जायेगी कि लण् सूत्र का अकार र प्रत्याहारातिरिक्त अन्य किसी भी प्रत्याहार का प्रयोजक नहीं है । इस प्रकार लणसूत्रस्थ अकार के हल् प्रत्याहार में न आने के कारण “सोऽस्ति”, “मामांस्वायस्व” इत्यादि प्रयोगों में दिखाये गये सारे दोषों का निराकरण हो जाता है । इस प्रकार लणसूत्रस्थ अकार को अनुनासिक मान कर उससे र प्रत्याहार बनाने में कोई बाधा नहीं है । नागेश भट्ट ने “उरण् रपरः” ऐसा न्यास मान कर लकारोच्चारण करके र प्रत्याहार का जो खण्डन किया है उसकी अपेक्षा र प्रत्याहार को स्वीकार करने में ही लाघव है । 

    १.१.५२

सूत्राणि:॥ अलोऽन्त्यस्य

॥ व्याख्या: ॥॥ अष्टाध्यायी प्रवचनम् ॥

विभक्तिः - अल: ६।१ अन्त्यस्य ६।१। अन्ते भवम् - अन्त्यम्, तस्य-अन्त्यस्य (तद्धितवृत्तिः) । 

अनुवृत्तिः - 'षष्ठी' इत्यनुवर्तते । 

अन्वयः - षष्ठी (आदेश) अन्त्यस्यालः । 

अर्थ: - षष्ठीनिर्दिष्टस्य य आदेशः सोऽन्त्यस्याल: स्थाने वेदतिव्यः । 

उदाहरणम् - इद् गोण्या: - पञ्चगोणि: । दशगोणि: । 

आर्यभाषार्थ - (षष्ठी) षष्ठी विभक्ति का निर्देश करके कहा हुआ आदेश (अन्त्यस्य). अन्तिम (अल:) अल् के स्थान में होता है ।  इद्गोण्या: - पञ्चगोणिः । पांच गोणी परिमाण से खरीदा हुआ ।  दशगोणि: । दश गोणी परिमाण से खरीदा हुआ । 

सिद्धिः - पञ्चगोणिः । पञ्चगोणी + ठक् । पञ्चगोणी + ० । पञ्चगोण् इ + ० । पञ्चगोणि + सु । पञ्चगोणि: । पञ्चभिर्गोणीभिः क्रीत इति पञ्चगोणि: । यहां तद्धितार्थोत्तरपदसमाहारे च (२.१.५१) से तद्धितार्थ में द्विगुसमास करके, तेन क्रीतम्' (५.१.३७) से क्रीत अर्थ में 'ठक्' प्रत्यय, 'अध्यर्धपूर्वाद्विगोर्लुगसंज्ञायाम् (५.१.२८) से ठक् प्रत्यय का लुक् होता है ।  तत्पश्चात् 'इद् गोण्या:' (१.२.५०) से विहित इकार आदेश प्रकृत सूत्र से अन्तिम - अल् के स्थान में किया जाता है ।  इसी प्रकार से दशभिर्गोणीभिः क्रीत इति दशगोणिः । गोणी= परिमाणविशेष । 

     १.१.५३

सूत्राणि:॥ ङिच्च

॥ व्याख्या: ॥॥ अष्टाध्यायी प्रवचनम् ॥

विभक्तिः - ङित् १।१ च अव्ययपदम् । 

समासः - ङ इत् यस्य स ङित् (बहुव्रीहि:) । 

अनुवृत्तिः - षष्ठी अलोऽन्त्यस्य इत्यनुवर्तते ।

अन्वयः - षष्ठी (आदेश) ङिच्च अन्त्यस्यालः ।

अर्थ: - षष्ठीनिर्दिष्टस्य यो ङित् आदेशः सोऽपि अन्त्यस्याल: स्थाने वेदितव्यः ।

उदाहरणम् - आन ऋतो द्वन्द्वे मातापितरौ । होतापोतारौ ।

आर्यभाषार्थ - (षष्ठी) षष्ठी विभक्ति का निर्देश करके कहा हुआ (ङित्) ङित् आदेश (च) भी (अन्त्यस्य) अन्तिम (अलः) अल् के स्थान में होता है ।

उदाहरणम् - आन ऋतो द्वन्दे-मातापितरी । माता और पिता । होतापोतारी । होता और पोता (पवित्र करनेवाला) ।

सिद्धिः - (१) मातापितरौ । माता च पिता च तौ मातापितरौ । मातृ + पितृ + औ । मात् आनङ् पितर् + औ । मातापितरौ । यहां 'आन ऋतो द्वन्द्वे (६.३.२५) से विहित ङित् आनङ् आदेश मातृ शब्द के अन्तिम ॠ के स्थान में होता है । इसी प्रकार से होता च पोता च तौ होतापोतारी । होतृ + पोतृ + औ । होतापोतारौ ।

विशेष - प्रश्न- जीवताद्भवान्, जीवतात् त्वम् । यहां तुह्योस्तातङाशिष्यन्तरस्याम्' (७.१.३५) से तु और हि के स्थान में विहित ङित् तातङ् आदेश अन्तिम अल् के स्थान में क्यों नहीं होता ?

उत्तर - तातङ् आदेश में ङित्करण क्ङिति च' (१.१.५) से गुण के प्रतिषेध के लिये है, अत: वह अन्तिम अल्के स्थान में न होकर 'अनेकाशित्सर्वस्य' (८.८.४४) से सवदिश होता है । आन के ङित्व का अन्य कोई प्रयोजन नहीं, अत: वह अन्तिम अल् के स्थान में होता है ।

        १.१.५४

सूत्राणि:॥ आदेः परस्य

॥ व्याख्या: ॥॥ अष्टाध्यायी प्रवचनम् ॥

विभक्तिः - आदेः ६।१ परस्य ६।१। 

अनुवृत्तिः - षष्ठी, अल, इत्यनुवर्तते ।

अन्वयः - षष्ठी परस्यादेरलः ।

अर्थ: - षष्ठी निर्दिष्टस्य परस्य निर्दिश्यमानं कार्यम् आदेरल: स्थाने वेदितव्यम् ।

उदाहरणम् - ईदास: -आसीनः । द्व्यन्तरुपसर्गेभ्योऽप ईत् - द्वीपम् । अन्तरीपम् । समीपम् ।

आर्यभाषार्थ - (षष्ठी) षष्ठी विभक्ति का निर्देश करके (परस्य) पर के स्थान में कहा हुआ आदेश (आदेः) आदिम (अलः) अल् के स्थान में होता है ।

उदाहरणम् - ईदास: - आसीनः । बैठा हुआ । वयन्तरुपसर्गेभ्योऽप ईत्-द्वीपम् । द्वीप । अन्तरीपम् । अन्तरीप । समीपम् । पास ।

सिद्धिः - (१) आसीनः । आस् + लट् । आस् + शानच् । आस् + आन् । आस् + शप् + आन् । आस् + ० + आन । आस् + ईन । आसीन + सु । आसीनः । यहां 'आस् उपवेशनें' (अदा०प०) धातु से 'वर्तमाने लट्' से 'लट्' प्रत्यय, 'लटः शतृशानचावप्रथमासमानाधिकरणें (३.२.१२४) से लट् के स्थान में 'शानच्' आदेश, कर्तरि प्राप्' (३११।६८) से शप्' प्रत्यय, 'अदिप्रभृतिभ्यः शप:' (२.४.७२) से 'श' का लुक् होकर 'ईदास:' (७.२.८३) से आसू 'से परे 'आन' को कहा ईकार आदेश प्रकृत सूत्र से 'आन' के आदिम आ के स्थान में किया जाता है ।

(२) द्वीपम् । द्विता आपो यस्मिन् तद् द्वीपम् । द्वि + अप् । द्वि + ईप् । द्वीप + अ । द्वीप + सु  । द्वीपम् यहां 'वन्तरुपसर्गेभ्योऽप ईत्' (६.३.९७) से द्वि से पर 'अप्' को ईकार आदेश का विधान किया गया है । वह प्रकृत सूत्र से 'अप' के आदिम अकार के स्थान में किया जाता है । तत्पश्चात् 'ऋक्पूरब्धू०' (५.४.७४) से समासान्त 'अ' प्रत्यय होता है ।

     (३) इसी प्रकार अन्तर्गता आपो यस्मिन् तद् अन्तरीपम् । संगता आपो यस्मिन् तत् समीपम् । अन्तर् + अप् = अन्तरीपम् । सम् + अप् =  समीपम् ।

      १.१.५५

सूत्राणि:॥ अनेकाल्शित्सर्वस्य

॥ व्याख्या: ॥॥ अष्टाध्यायी प्रवचनम् ॥

विभक्तिः - अनेकाल्- शित् १।१ सर्वस्य ६।१।

समासः - अनेकाल् च शिच्च एतयोः समाहार: - अनेकाल्शित् (समाहारद्वन्द्वः) ।

अनुवृत्तिः - ' षष्ठी अल:' इत्यनुवर्तते ।

अन्वयः - षष्ठी अनेकाल् शित् सर्वस्याल:  ।

अर्थ: - षष्ठीनिर्दिष्टस्य स्थाने अनेकाल शिच्च य आदेश: स सर्वस्याल: स्थाने वेदतिव्य: ।

उदाहरणम् - (अनेकाल्) अस्तेर्भूः - भविता । भवितुम् । भवितव्यम् । (शित्) 'जशशसो: शि-कुण्डानि तिष्ठन्ति । कुण्डानि पश्य ।

आर्यभाषार्थ - (षष्ठी) षष्ठी विभक्ति का निर्देश करके कहा हुआ (अनेकाल- शित्) अनेक अल्वाला तथा शित् आदेश (सर्वस्य) समस्त अल् के स्थान में होता है ।

उदाहरणम् - (अनेकाल्) अस्तेर्भूः - भविता । भवितुम् । भवितव्यम् । (शित्) जश्शसो: शि-कुण्डानि तिष्ठन्ति । कुण्डानि पश्य । अर्थ पूर्ववत् है ।

सिद्धिः - (१) भविता । अस् + तृच् । भू + तृ । भू + इट् + तृ । भो + इ + तृ । भव् + इ + तृ । भवितृ + सु । भविता । यहां 'अस्तेर्भूः' (२.४.५२) से आर्धधातुक विषय में 'अस्' धातु के स्थान में 'भू' आदेश का विधान किया है । भू आदेश अनेक अल्वाला होने से प्रकृत सूत्र से समस्त 'अस्' धातु के स्थान में किया जाता है ।

(२) कुण्डानि । कुण्ड + जस् । कुण्ड + शि । कुण्ड नुम् + इ । कुण्डन् + इ । कुण्डान् + इ । कुण्डानि । यहां 'जशशसो:' (७.१.२०) से 'जस्' और 'शस्' प्रत्यय के स्थान में 'शि' आदेश का विधान किया है । वह शित होने से प्रकृत् सूत्र से समस्त 'जस्' और 'शस्' प्रत्यय के स्थान में किया जाता है ।

    १.१.५६

सूत्राणि:॥ स्थानिवदादेशोऽनल्विधौ

॥ व्याख्या: ॥॥ अष्टाध्यायी प्रवचनम् ॥

विभक्तिः - स्थानिवत् अव्ययपदम् आदेशः १।१ अनल्विधौ ७।१। स्थानमस्यास्तीति स्थानी । तेन स्थानिना । स्थानिना तुल्यमिति स्थानिवत् (तद्धितवृत्तिः) ।

समासः - अलोविधिरिति अविधिः । न अल्विधिरिति अनविधिः, तस्मिन् - अनल्विधौ (षष्ठीतत्पुरुषगर्भितनञ्तत्पुरुषः) ।

अन्वयः - आदेश: स्थानिवद् अनल्विधौ ।

अर्थ: - आदेशः स्थानिवद् भवति, अनविधौ कर्त्तव्ये (अल्विधि वर्जयित्वा) अत्र धातु-अङ्ग-कृत्-तद्धित-अव्यय-सुप्-तिङ्-पदादेशाः प्रयोजयन्ति ।

उदाहरणम् - (धातुः) अस्तेर्भूः-भविता । भवितुम् । भवितव्यम् । (अङ्गम्) किम: क: - केन । काभ्याम् कैः । (कृंत्) ह्रस्वस्य पिति कृति तुक् प्रकृत्य । प्रहृत्य । (तद्धितः) ठस्येक: - दाधिकम् । युवोरनाकौ - अद्यतनम् । (अव्ययम्) समासेऽनञ्पूर्वे क्त्वो ल्यप् प्रकृत्य । प्रहृत्य । (सुप्) डेर्य: - वृक्षाय । प्लक्षाय । (तिङ) तस्थस्थमिपां तान्तन्ताम: - अकुरुताम् । अकुरुत । (पदम्) बहुवचनस्य वस्नसौ-ग्रामो वः स्वम् । जनपदो नः स्वम् ।

आर्यभाषार्थ - (अनल-विधौ) अनेक अल् की विधि करने में (आदेश) किया हुआ कोई आदेश (स्थानिवत्) स्थानी के समान होता है । धातु, अङ्ग, कृत्, तद्धित, अव्यय, सुप, तिङ् और पद के आदेश इसके उदाहरण: हैं  ।

उदाहरणम् - (१) धातु । धातु के स्थान में किया गया आदेश धातु के समान होता है । जैसे 'अस्तेर्भू:' (२.४.५२) भविता । भवितु । भवितव्यम् । यहां आर्धधातुक विषय में 'अस्' धातु से विहित 'तव्यत्' आदि प्रत्यय 'भू' धातु से भी होते हैं ।

(२) अङ्ग  । अङ्ग के स्थान में किया गया आदेश अङ्ग के समान होता है । जैसे - केन, काभ्याम्, कै: । यहां 'किम: क:' (७.२.१०३) से किम्' के स्थान में किये 'क' आदेश से भी इन, दीर्घत्व और ऐस भाव होता है ।

(३) कृत् । कृत् प्रत्यय के स्थान में किया गया आदेश कृत् के समान होता है । जैसे- प्रकृत्य, प्रहृत्य । यहां समासेऽनञ्पूर्वे क्त्वो ल्यप्' (७.१.३७) से क्त्वा' प्रत्यय के स्थान में 'ल्यप्' आदेश होता है । उसके परे होने पर भी हस्वस्थ पिति कृति तुक् (६.१.७१) से तुक् आगम हो जाता है ।

(४) तद्धित । तद्धित प्रत्यय के स्थान में किया गया आदेश तद्धित के समान होता । जैसे - दाधिकम् । अद्यतनम्  । यहां 'हस्येकः' (७.३.५०) से 'ठ' के स्थान में किया 'इकु' आदेश तथा युवोरनाको (७.१.१) से 'यु' के स्थान में किया 'अन' आदेश तद्धित के समान होता है । इससे कृत्तद्धितसमासाश्च' (१.२.४६) से प्रातिपदिक संज्ञा हो जाती है ।

(क) दाधिकम् । दधि + ठक् । दधि + इक् अ । दध् + इक् । दाध् + इक । दाधिक + सु । दाधिकम् ।

(ख) अद्यतनम्  । अद्य + यु  । अद्य + अन । अद्य + तुद् + अन । अद्य + त् + अन । अद्यतन + सु । अद्यतनम् । यहां 'सायंचिरं०' (४.३.२३) से 'ट्यु' प्रत्यय और उसे 'तुटु' आगम होता है ।

(५) अव्यय । अव्यय के स्थान में किया गया आदेश अव्यय के समान होता है । जैसे- प्रकृत्य प्रहृत्य । यहां अव्यय 'क्त्वा' प्रत्यय के स्थान में 'समासेऽनञ्पूर्वे क्त्वो ल्यप् (७.१.३७) से किया गया 'ल्यप्' आदेश भी अव्यय होता है । 'क्त्वातोसुन्कसुनः' (१.१.४०) से क्त्वा प्रत्ययान्त की अव्यय संज्ञा होती है । यहां ल्यप् आदेश अवस्था में भ. अव्यय संज्ञा होने से 'अव्ययादापसुपः' (२.४.८२) से सुप् का लुक् हो जाता है ।

(६) सुप् । सुप् के स्थान में किया गया आदेश सुप् के समान होता है । जैसे - वृक्षाय, प्लक्षाय । वृक्ष + ङे । वृक्ष + य  । वृक्षा + य  । वृक्षाय । यहां 'डैर्यः' (७.१.१२) से 'ङ' के स्थान में किया गया 'थ' आदेश सुप् के समान होता है । इससे 'सुपि च (७.३.१०२) से अङ्ग को दीर्घ हो जाता है ।

(७) तिङ् । तिड़ के स्थान में किया गया आदेश तिङ् के समान होता है । जैसे- अकुरुताम्, अकुरुत । यहां तस्थस्थमियां तान्तन्ताम:' (३.४.१०१) से 'तस्' के स्थान में किया गया 'ताम्' और 'तम्' आदेश तिङ् के समान होता है । इससे उसकी 'सुप्तिङन्तं पदम् ' (१.४.१४) से पद संज्ञा हो जाती है ।

(८) पद । पद के स्थान में किया गया आदेश पद के समान होता है । जैसे-ग्रामो व: स्वम् । जनपदो नः स्वम् । यहां 'बहुवचनस्य वस्नसों (८.१.२१) से 'युष्माकम्' और 'अस्माकम्' आदि पद के स्थान में किया गया 'वस्' और 'नस्' आदेश पद के समान होता है । इससे यहां 'पदस्य' (८.१.१६) से 'वस्' और 'नस्' के सकार को रुत्व हो जाता है ।

    १.१.५७

सूत्राणि:॥ अचः परस्मिन् पूर्वविधौ

॥ व्याख्या: ॥॥ अष्टाध्यायी प्रवचनम् ॥

विभक्तिः - अच: ६।१ परस्मिन् ७।१ (निमित्तसप्तमी) पूर्वविधौ

समासः - पूर्वस्य विधिरिति पूर्ववधि:, तस्मिन् पूर्वविधौ (षष्ठीतत्पुरुषः) । 

अनुवृत्तिः - स्थानिवत् आदेशः, इत्यनुवर्तते ।

अन्वयः - परस्मिन् अच: पूर्वविधौ स्थानिवत् ।

अर्थः - परनिमित्तकोऽच् आदेशः पूर्वविधौ कर्त्तव्ये स्थानिवद्भवति  । 

उदाहरणम् - पटयति । अवधीत् । बहुखट्वकः ।

आर्यभाषार्थ - (परस्मिन्) पर के कारण से किया गया (अचः) अच् के स्थान में (आदेश:) कोई आदेश (पूर्वविधौ) उससे पूर्व की कोई विधि करने में (स्थानिवत्) स्थानी के समान होता है ।

उदाहरणम् - पटयति । पटु को कहता है । अवधीत् । उसने वध किया । बहुखट्वकः । बहुत खाटोंवाला ।

सिद्धिः - (१) पटयति । पटुमाचष्टे पटयति । पटु + णिच् । पट् + इ । पटि + शप् + ति । पटे + अ + ति । पट् अय् + अ + ति । पटयति । यहां 'पटु' शब्द से 'तत्करोति तदाचष्टे' (वा.३.१.२६) से णिच् प्रत्यय, 'णाविष्ठवत्प्रातिपदिकस्य' (वा.६.४.१५५) से पटु के टि-भाग का लोप हो जाने पर 'अत उपधाया:' (७.२.११६) से उपधा अकार को वृद्धि प्राप्त होती है, किन्तु टि-लोप रूप अच्- आदेश को स्थानिवत् मानने से पूर्ववधि वृद्धि नहीं होती है ।

(२) अवधीत् । हन् + लुङ् । अट् + वध् + च्लि + तिप् । अ + वध् + सिच् + ति । अ + वध् + स् + त् । अ + वध् + इट् + स् + ईट् + त् । अ + वध् + इ + स् + ई + त् । अ + वध् + इ + ० + ई + त् । अवधीत् । यहां 'हन् हिंसागत्यो:' (अदा.प.) धातु से लुङ्लकार में अकारान्त वध् आदेश होता है । 'अतो लोप:' (६.४.४८) से उसके अकार का लोप हो जाता है, उस अकार लोपरूप अच्- आदेश को स्थानिवत् मानने से 'अतो हलादेर्लघोः' (७.२.७) से पूर्ववधि हलन्तलक्षणावृद्धि नहीं होती है ।

(३) बहुखट्वकः । बहव्यः खट्वा यस्य स बहुखट्वकः । बहु + खट्वा + कप् । बहु + खट्व + क । बहुखट्वक + सु । बहुखट्वकः । यहां 'आपोऽन्तरस्याम्' (७.४.१५) से आ को ह्रस्व होता है । इस ह्रस्व रूप अच् आदेश को स्थानिवत् मानने से 'हस्वान्तेऽन्त्यात् पूर्वम्' (६.२.१७४) से खकारस्थ अकार को पूर्वविधि उदात्त स्वर नहीं होता है, किन्तु 'कपि पूर्वम्' (६.२.१७३) से उत्तर पद को अन्तोदात्त स्वर ही होता है ।

     १.१.५८

सूत्राणि:॥ न पदान्तद्विर्वचनवरेयलोपस्वरसवर्णानुस्वारदीर्घजश्चर्विधिषु

॥ व्याख्या: ॥॥ अष्टाध्यायी प्रवचनम् ॥

विभक्तिः - न अव्ययपदम् । पदान्त-द्विर्वचन-वरे-यलोप-स्वर-सवर्ण-अनुस्वार-दीर्घ-जश् - चर् - विधिषु ७।३।

समासः - पदान्तश्च द्विर्वचनं च वरेश्च यलोपश्च स्वरश्च सवर्णं च अनुस्वारश्च दीर्घश्च जश् च चर् च ते पदान्तद्विर्वचन-वरे - यलोपस्वर- सवर्णानुस्वार दीर्घ जश् चर:, तेषाम् - पदान्तद्विर्वचनवरेयलोपस्वरसवर्णानुस्वार- दीर्घजश्चराम् । पदान्तद्विर्वचनवरेयलोपस्वरसवर्णानुस्वारदीर्घजश्चरां विधय इति पदान्तद्विर्वचनवरेयलोपस्वरसवर्णानुस्वारदीर्घजश्चर्विधय:, तेषु - पदान्तद्विर्वचनवरेयलोपस्वरसवर्णानुस्वारदीर्घजश्चर्विधिषु । (इतरेतरयोग- द्वन्द्वगर्भितषष्ठीतत्पुरुषः) ।

अनुवृत्तिः - अचः परस्मिन् पूर्वविधौ स्थानिवत् आदेशः इत्यनुवर्तते । 

अन्वयः - पदान्त० विधिषु परस्मिन् अच: पूर्वविधौ स्थानिवत् न ।

अर्थ: - पदान्त - त - द्विर्वचन - वरे - यलोप - स्वर - सवर्ण - अनुस्वार - दीर्घ - जश् - चर् - विधिषु कर्त्तव्येषु परनिमित्तकोऽच आदेश: पूर्वविधौ कर्त्तव्ये स्थानिवन्न भवति ।

उदाहरणम् - (१) पदान्त: । कौ स्तः । यौ स्तः । तानि सन्ति । यानि सन्ति । 

(२) द्विर्वचनम् । दद्ध्यत्र । मद्ध्वत्र । 

(३) वरे: । अप्सु यायावर: प्रवपेत पिण्डान् । 

(४) यलोपः । कण्डूतिः । 

(५) स्वरः । चिकीर्षकः । जिहीर्षक: । 

(६) सवर्णम् । शिष्टि । पिण्डि । 

(७) अनुस्वारः । शिषन्ति । पिंशति । 

(८) दीर्घः । प्रतिदीव्ना । प्रतिदीव्ने । 

(९) जश् । सग्धिश्च मे, सपीतिश्च मे बब्धां ते हरी धानाः । 

(१०) चर् । जक्षतुः । जक्षुः ।

आर्यभाषार्थ - (पदान्त.) पदान्त, द्विर्वचन, वरे, यलोप, स्वर, संवर्ण, अनुस्वार, दीर्घ, जश् और चर् सम्बन्धी विधि के करने में (अच:) अच् के स्थान में किया गया (परस्मिन्) पर के कारण से (आदेश:) कोई आदेश (पूर्वविधौ) पूर्व की कोई विधि करने में (स्थानिवत्) स्थानी के समान (न) नहीं होता है ।

उदाहरणम् - (१) पदान्त । कौ स्तः । दो कौन हैं । यौ स्तः । जो दो हैं । तानि सन्ति । वे हैं । यानि सन्ति । जो हैं । 

(२) द्विर्वचन । दद्ध्यत्र । यहां दही है । मध्वत्र । यहां मधु है । 

(३) वरे । अप्सु यायावर: प्रवपेत पिण्डान् । यायावरः । घूमनेवाला । 

(४) यलोप । कण्डूतिः । खाज । 

(५) स्वर । चिकीर्षकः । करने का इच्छुक । जिहीर्षकः । हरने का इच्छुक । 

(६) सवर्ण । शिण्डि । तू पृथक् कर । पिण्डि । तू पीस । 

(७) अनुस्वार । शिषन्ति । पृथक करते हैं । पिंशन्ति । पीसते हैं । 

(८) दीर्घ । प्रतिदीना । प्रतिदिन से । प्रतिदिने । प्रतिदिन के लिये । 

(९) जश् । सग्धिश्च मे सपीतिश्च मे बब्धां ते हरी धानाः । सग्धिः = समान भोजन । सपीति:= समान पान । 

(१०) चर् । जक्षतुः । उन दोनों ने खाया । जक्षुः । उन सबने खाया ।

सिद्धिः - (१) पदान्तविधि । (कौ स्तः) अस् + लट् । अस् + शप् + तस् । अस् + ० + तस् । अस् + तस् । स् + तस् । स्तः । यहां 'श्नसोरल्लोपः' (६.४.१११) से क्ङित् सार्वधातुक प्रत्यय के परे होने पर अस् धातु के अकार का लोप होता है । यह अकार लोप परिनिमित्तक अच् आदेश है, यह पूर्व की विधि 'एचोऽयवायाव:' (६.१.७८) से 'काँ को आव आदेश करने में स्थानिवत् नहीं होता है । यदि वह स्थानिवत् हो जाये तो यहां प्राप्त 'आव्' आदेश हो जाये । इसी प्रकार तानि सन्ति' में 'इको यणचि’ (६.१.७०) से 'तानि' को यण- आदेश नहीं होता है ।

(२) द्विर्वचनविधि । (दद्ध्यत्र) दधि + अत्र । दध् च् + अत्र । दध् ध् य् + अत्र । दध्यत्र । यहां 'इको यणचि (६.१.७७) से 'यण' आदेश, 'अनचि च' (८.४.४७) से धकार को द्विर्वचन और 'झलां जश् झर्शि' (८.४.५३) से पूर्व धकार को जश् दकार होता है । यहां यण् परनिमित्तक अय्-आदेश है, यह 'अनचि च' (८.४.४७) से धकार को द्विर्वचन करने में स्थानिवत् नहीं होता है । यदि यह स्थानिवत् हो जाये तो उक्त द्विर्वचन नहीं हो सकता । इसी प्रकार मध्वत्र ।

(३) वरेविधि । (यायावर:) या + यङ् । या या + य । या या य + वरच् । या या य + वर । या या + वर । या या व र + सु । यायावर: । यहां 'या गतौं' (अदा०प०) धातु से धातोरेकाचो हलादे: क्रियासमभिहारे यङ् (३.२.२२) से 'यङ्' प्रत्यय, उससे 'यश्च यङ' (३.२.१७६) से कृत् वरच् प्रत्यय, 'अतो लोप:' (६ ।४१४८) से अकार का लोप, 'लोपो व्योर्वलि' (६.१.६६) से 'य' का लोप होता है । यहां अकार-लोप परनिमित्तक अच्- आदेश है । यदि यह स्थानिवत् हो जाये तो 'यङ्' को मानकर 'आतो तोप इटि च' (६.४.६४) से आकार का लोप हो जाये ।

(४) यलोपविधि । (कण्डूतिः) कण्डू + यक् । कण्डूय + क्तिच् । कण्डूय + ति । कण्डू + ति । कण्डूति + सु । कण्डूतिः । यहां 'कण्ड्वादिभ्यो यक्' (३.१.२७) 'यक्' प्रत्यय उससे 'क्तिच्क्तौ च संज्ञायाम्' (३.३.१७४) से 'क्तिच्' प्रत्यय, 'अतो लोप:' (६.४.४८) से परनिमित्तक अकार का लोप, 'लोपो व्योर्वलि' (६११ ।६६) से य का लोप होता है । यदि य के लोप की पूर्वविधि करने में अकार-लोप रूप अच्-आदेश स्थानिवत् हो जाये तो 'य' का लोप न हो सके । अकार-लोप के स्थानिवत् न होने से य का लोप हो जाता है ।

(५) स्वरविधि: । (चिकीर्षक:) चिकीर्ष + ण्वुल् । चिकीर्षु + अक् । चिकीर्षक + सु । चिकीर्षकः । यहां सनन्त 'चिकीर्ष' धातु से 'ण्वुल्तृचौ (३.१.१३३) से ण्वुल् प्रत्यय, 'अतो लोप:' (६.४.४८) से अकार का लोप होता है । उसके स्थानिवत् न होने से 'लिति' (६.१.१९३) से प्रत्यय से पूर्ववर्ती अच् ईकार को उदात्त स्वर हो जाता है । यदि अकार लोप रूप परनिमित्तक अच्- आदेश स्थानिवत् हो जाये तो प्रत्यय से पूर्ववर्ती ईकार को उदात्त स्वर नहीं हो सकता । अकार लोप के स्थानिवत् न होने से ईकार को उदात्त स्वर हो जाता है । इसी प्रकार जिहीर्षक: ।

(६) सवर्णविधि । (शिष्ठि) शिष् + लोट् । शिष् + सिप् । शिष् + हि । शिष् + धि । शिष् + ढि । शि श्नम् ष् + ढि  । शि न षू + ढि  । शि न् ष् + ढि । शिढि । शिष् ढि शिद् ढि । शिढि । शिष् ढि । शिण्दि । यहां शिष्लृ विशेषणे (रुधा०प०) धातु से 'लोट् च' (३.३.१६२) से लोट् प्रत्यय, तिप् तस् झि०' (३.४.७८) से ल्के स्थान में तिप् आदेश, सेर्ह्यपिच्च' (३.४.८७) से 'सि' के स्थान में अपित् हि' आदेश, 'हुझभ्यो हेर्धिः' (६.४.८७) से 'हि' को धि' आदेश, 'रुधादिभ्यः श्नम्' (३.४.७८) से विकरण 'श्नम् ' प्रत्यय, 'इनसोरल्लोपः' (६.४.१११) से परनिमित्तक: श्नम् के अकार का लोप, 'नश्चापदान्तस्य झलि' (८.३.२४) से पूर्वविधि न् को अनुस्वार, 'अनुस्वारस्य ययि परसवर्ण:' (८.४.५८) से अनुस्वार को पूर्वविधि परसवर्ण ण करते समय परनिमित्तक अच् आदेश रूप अकार का लोप स्थानिवत् नहीं होता है । यदि वह स्थानिवत् हो जाये तो अनुस्वार को परसवर्ण नहीं हो सके । अकार लोप स्थानिवत् नहीं होता इसलिये अनुस्वार को परसवर्ण हो जाता है । इसी प्रकार 'पिष्लृ पेषणे' (रुधादि०) से पिण्डि ।

(७) अनुस्वारविधि  । (शिषन्ति) शिष् + लट् । शिष् + झि । शिष् + अन्ति । शिश्नम् ष् + अन्ति । शि न् ष् + अन्ति । शि ष् + अन्ति । शिषन्ति । यहां शिष्लृ विशेषणे' (रुधादि.) से 'वर्तमाने लट्' (३.२.१२३) से लट् प्रत्यय 'तिप्तस्झि०' (३.४.७८) से ल स्थान में 'झि' आदेश, 'झोऽन्तः' (७.१.३) से 'झ' को 'अन्त' आदेश, 'रुधादिभ्यः श्नम् (३.१.७८) से विकरण 'श्नम्' प्रत्यय, 'श्नसोरल्लोपः' (६.४.१११) से परनिमित्तक 'श्नम्' के अकार का लोप, 'नश्चापदान्तस्य झलि (८.३.२४) से न को अनुस्वार करते समय परनिमित्तक अच् आदेश रूप अकार का लोप स्थानिवत् नहीं होता है । यदि वह स्थानितवत् हो जाये तो 'न्' को अनुस्वार नहीं हो सकता । अकार लोप के स्थानिवत् न होने से 'न' को अनुस्वार हो जाता है ।

(८) दीर्घविधि । (प्रतिदीव्ना) प्रतिदिवन् + टा । प्रतिदीवन् + आ । प्रतिदीला । यहां 'अल्लोपोऽन:' (६.४.१३४) से अकार का लोप परनिमित्तक अच्-आदेश है । वह 'हलि च' (८.३.७७) से पूर्वविधि दीर्घ करने में स्थानिवत् नहीं होता है । यदि वह स्थानिवत् हो जाये तो हल् परे न रहने से दीर्घ नहीं हो सकता, अकार लोप के स्थानिवत् न होने से दीर्घ हो जाता है ।

(९) जश्विधि । (सग्धिः) अद् + क्तिन् । घस्लृ + ति । घस् + ति । घुस् + ति । घ् + ति । घ् + धि । ग् + धि । ग्धि + सु । ग्धिः । समाना ग्धिरिति सग्धिः । यहां 'अद् भक्षणे (अद०प०) से 'स्त्रियां क्तिन्' (३.३.९४) से 'क्तिन्' प्रत्यय, 'बहुलं छन्दसि' (२.४.३९) से अद् के स्थान में घस्लृ आदेश, 'घसिभसोर्हलि च' (६.४.१०) से 'घस्' की उपधा का लोप परनिमित्तक अच् आदेश है । वह 'झलां जश् झषि (८१४।१५३) से पूर्ववधि जश्त्व ग् करते समय स्थानिवत् नहीं होता है । यदि वह स्थानिवत् हो जाये तो 'घ्' को जश्त्व नहीं हो सकता । अकार लोप के स्थानिवत् न होने से जश्त्व हो जाता है ।

(१०) चर्विधि । (जक्षतुः) अद् + लिट् । अद् + तस् । अद् + अतुस् । घस्लृ + अतुस् । घस् + अतुस् । घ् स् + अतुस् । घस् घस् + अतुस् । घ + घस् + अतुस् । ज + घुस् + अतुस् । ज + क्स् + अतुस् । ज + क् + ष् + अतुस् । जक्षतुः । यहां 'अद् भक्षणे' (अदा०प०) धातु 'परोक्षे लिट्' (३.२.११५) से लिट् प्रत्यय, 'तिप्तस्झि०' (३.४.७८) से 'तस्' प्रत्यय, 'परस्मैपदानां गलतुस्०' (३.४.८२) से तस् के स्थान में 'अतुस्' आदेश, 'लिट्यन्यतरस्याम्' (३.१.४) से अद् के स्थान में 'घस्लृ' आदेश, 'गमहनजनखनघसां०' (६.४.९७) से घर की उपधा अकार का लोप परनिमित्तक अच्-आदेश है । यदि वह स्थानिवत् हो जाये तो 'खरि च' (२.४.४४) से पूर्वविधि 'घ' को चर् 'कु' नहीं हो सकता । अकार लोप के स्थानिवत् न होने से 'घ' को चर् 'क' हो जाता है । इस प्रकार परनिमित्तक अच्- आदेश पदान्त आदि विधि करने में उस अच् आदेश से पूर्ववर्ण सम्बन्धी कोई विधि करने में स्थानिवत् नहीं होता है, जिससे कि अच् आदेश से पूर्ववर्ण को वह प्राप्त विधि की जा सके ।

     १.१.५९

सूत्राणि:॥ द्विर्वचनेऽचि

॥ व्याख्या: ॥॥ अष्टाध्यायी प्रवचनम् ॥

विभक्तिः - द्विर्वचने ७।१ अचि ७।१

अनुवृत्तिः - (निमित्तसप्तमी) । 'अच: स्थानिवत् आदेशः' इत्यनुवर्तते । अव्ययः - द्विर्वचनेऽचि अच आदेश: स्थानिवत् ।

अर्थ: - द्विर्वचननिमित्तेऽचि परतोऽच आदेश: स्थानिवत् भवति, द्विर्वचन एव कर्त्तव्ये । अत्र आल्लोप-उपधालोप-णिलोप-यण्- अय् अव्-आय्- आवादेशाः प्रयोजयन्ति ।

उदाहरणम् - (१) आल्लोपः । पपतुः । पपुः । (२) उपधालोपः । जघ्नतुः जघ्नुः । (३) णिलोप: । आटिटत् (४) यण् । चक्रतुः । चक्रुः । (५) अय् । निनय । (६) अव् । लुलव । (७) आय् । निनाय । (८) आव् । लुलाव  ।

आर्यभाषार्थ - (द्विर्वचने) द्विर्वचन के निमित्त (अचि) अघु के परे होने पर (परस्मिन्) पर के कारण से किया गया (अच:) अच् के स्थान में (आदेश) कोई आदेश (द्विर्वचने) केवल द्विर्वचन करने के लिये ही (स्थानिवत्) स्थानिवत् होता है । इसके (१) आल्लोप, (२) उपधालोप, (३) णिलोप, (४) यण, (५) अय्. (६) अव् (७) आम् और (८) आव आदेश प्रयोजन हैं ।

उदाहरणम् - आल्लोप । पपतुः । उन दोनों ने पीया । पपुः । उन सबने पीया । उपधा । जघ्नतुः । उन दोनों ने मारा । जघ्नुः । उन सबने मारा । णिलोप । आटिटत् । उसने घुमाया । यण् । चक्रतुः । चक्रुः । उन सबने किया । अय् । निनय । मैंने लिया । अव् । लुलव । मैने काटा । आयु । निनाय । वह ले गया । आव् । लुलाव । उसने काटा ।

सिद्धिः - (१) आल्लोप । (पपतुः) पा + लिट् । पा + तस् । पा + अतुस् । प् + अतुस् । पा + पा + अतुस् । प + प् + अतुस् । पपतुः । यहां 'परोक्षे लिट्' (३.१.११५) से लिट्' प्रत्यय, 'तिप्तझि०' (३.४.७८) से 'ल्' के स्थान में 'तस्' आदेश, 'आतो लोप इटि च (६.४.६४) से पा धातु के आकार का लोप परनिमित्तक अच्- आदेश है, वह केवल 'लिटि धातोरनभ्यासस्य' (६.१.८) से 'पा' धातु को द्विर्वचन करने में स्थानिवत् हो जाता है, जिससे धातु के प्रथम एकाच अवयव को द्विर्वचन हो सके । इसी प्रकार से पपुः ।

(२) उपधा लोप  । (जघ्नतुः) हन् + लिट् । हन् + तस् । हन् + अतुस् । हुन् + अतुस् । हन् + हन् + अतुस् । ह + हन् + अतुस् । झ + हन् + अतुस् । ज + हन् + अतुस् । जघ्नतुः । यहां 'हन् हिंसागत्यो:' (अदा.प.) धातु से पूर्ववत् लिए प्रत्यय, 'गमहनजनखनघसां' (६.४.९८) से किया गया उपधा का लोप परनिमित्त अच् - आदेश है, वह केवल पूवर्वत् हन् धातु को द्विर्वचन करने में स्थानिवत् हो जाता है, जिससे धातु के प्रथम एकाच् अवयव को द्विर्वचन हो सके । इसी प्रकार से - जघ्नुः ।

(३) णिलोप  । (आटिटत्) अट् + णिच् । आट् + इ । आटि + लुङ् । आट् + आटि + चिल + तिप् । आ + आटि + चङ् + ति । आ + आटि + अ + त् । आ + आट् + अ + त् । आ + आटि + टि + अ + त् । आ आटि ट् + अ + त् । आटिटत् । यहां 'अट् गतौं' (भ्वा.प.) धातु से हेतुमति च' (३.१.२६) से 'णिच्' प्रत्यय, 'अत उपधाया:' (७.२.११६) से धातु की उपधा को वृद्धि, णिजन्त 'आटि' धातु से 'लुङ्' (३.१.११०) से 'लुङ्' प्रत्यय, च्लि लुङि' (३.१.४३) से चिल' के स्थान में 'चङ्' आदेश 'णेरनिटिं' (६.४.५१) से 'णि' का लोप हो जाने पर 'चङि' (६.१.११) से अजादि धातु के द्वितीय एकाच अवयव को द्विर्वचन प्राप्त नहीं होता है, णि लोप के स्थानिवत् हो जाने से आटि धातु के द्वितीय एकाच अवयव टि' को 'टि-टि' द्विर्वचन हो जाता है ।

(४) यण् आदेश  । (चक्रतुः) कृ + लिट् । कृ + तस् । कृ + अतुस् । क्र + अतुस् । कृ + कृ + अतुस् । कृ + कर् + अतुस् । क् अ + र् + अतुस् । च + र् + अतुस् । चक्रतुः । यहां पूर्ववत् लिट्' प्रत्यय करने पर 'इको यणचि’ (६.१.७७) से 'कृ' धातु के 'ऋ' को यण 'ई' आदेश करने पर 'लिटि धातोरनभ्यासस्य' (६.१.८) से अच् के अभाव में प्रथम एकाच अवयव को द्विर्वचन प्राप्त नहीं होता है । यहां यण-आदेश को स्थानिवत् मानकर 'कृ' धातु के प्रथम एकाच अवयव को द्वित्व हो जाता है ।

(५) अय् आदेश  । (निनय) नी + लिट् । नी + मिप् । नी + णल् । नी + अ । ने + अ न् अय् + अ । ने + ने + अ । नि + नय् + अ । निनय । 'यहां 'णीञ् प्रापणे' (स्वा.उ.) धातु से पूर्ववत् लिट्' प्रत्यय 'तिपतस्झि' (३.४.७८) से 'ल्' के स्थान में 'मिप्' आदेश, 'परस्मैपदानां णलतुस्०' (३.४.८२) से मिए के स्थान में 'पल्' आदेश 'णलुत्तमो वा' (७.१.९१) से उत्तम पुरुष के ल का विकल्प से 'णित्व' 'सार्वधातुकार्धधातुकयोः ' (७.३.८४) से अंग को गुण, 'एचोऽयवायाव:' (६.१.७८) से अय् आदेश । उसे स्थानिवत् मानकर 'लिटि धातोरनभ्यासस्य (६.१.८) से ने' को द्विर्वचन होता है ।

(६) आयु आदेश । (निनाय) नी + लिट् । नी + मिप् । नी + णत् । नी + अ । नै + अ । न् आय् + य । नै + नै + अ  । नि + नाय् + अ । निनाय । यहां पूर्ववत् लिट् प्रत्यय, 'णलुत्तमो वा' (७.१.९१) से गल् के णित्त्व पक्ष में 'अचो स्थिति' (७.१.११५) से अंग को वृद्धि, 'एचोऽपवायाव:' (६.१.७८) से आयु आदेश । उसे स्थानिवत् मानकर पूर्ववत् नै' को द्विर्वचन होता है ।

(७) अव आदेश । (लुलव) लूञ् छेदने (क्रया.उ.) धातु से पूर्ववत् लिट् प्रत्यय । शेष सब कार्य निनय के सहाय से समझ लें ।

(८) आव् आदेश । (लुलाव) लूञ् छेदने (क्रया.उ.) धातु से पूर्ववत् लिट् प्रत्यय  । शेष कार्य निनाय के सहाय से समझ लें ।

    १.१.६०

सूत्राणि:॥ अदर्शनं लोपः

॥ व्याख्या: ॥॥ अष्टाध्यायी प्रवचनम् ॥

विभक्तिः - अदर्शनम् १।१ लोपः १।१।

समासः - न दर्शनमिति अदर्शमिति अदर्शनम् (नञ्तत्पुरुषः) ।

अनुवृत्तिः - न वेति विभाषा इत्यस्मात्-मण्डूकप्लुत्या 'इति' शब्दोऽनुवर्तते ।

अन्वयः - अदर्शनम् इति लोपः ।

अर्थ: - वर्णस्यादर्शनम् (विनाश:) प्रति लोपसंज्ञकं भवति ।

उदाहरणम् - गौधेरः । पचेरन् । जीरदानुः ।

आर्यभाषार्थ - (अदर्शनम्) अदर्शन, अश्रवण, अनुच्चारण, अनुपलब्धि, अभाव. और वर्णविनाश ये पर्यायवाची हैं, (इति) इन शब्दों से जो अर्थ कहा जाता है, उसकी (लोपः) लोप संज्ञा होती है ।

उदाहरणम् - गौधेरः । गोहेरा । पचेरन् । वे सब पकावें । जीरदानुः । प्राण को धारण करनेवाला जीव ।

सिद्धिः - (१) गौधेर: । गोधा + ट्रक् । गोधा + एयर । गोधा + ए ० र । गोधू + एर । गौधू + एर । गौधेर + सु । गौधेरः  ।यहां गोधा शब्द से 'गोधाया ढ्रक्' (४.१.१२९) से 'द्रक' प्रत्यय, 'आयनेय०' (७.१.२) से 'ढ्' के स्थान में एय् आदेश और उसके य् का 'लोपो व्योर्वलि (६.१.६६) से. लोप हो जाता है । उसकी लोप संज्ञा है ।

(२) पचेरन् । पच् + लिङ् । पच् + झ । पच् + रन् । पच् + शप् + रन् । पच् + अ + रन् । पच् + अ + सीयुट् + रन् । पच् + अ + इय् + रन् । पच् + ई + रन् । पचेरन् । यहां 'डुपचष् पाकें (ध्वा.प.) धातु से 'विधिनिमन्त्रणा' (३.३.१६१) से 'लिङ्' प्रत्यय, तिप्तस्झि०' (३.४.७८) से ल् के स्थान में झ आदेश, 'झस्य रन्' (३.४.१०५) से झ के स्थान में रन् आदेश, 'लिङः सलोपोऽनन्त्यस्य' (७.२.७९) से 'सीयुट्' से सकार का लोप और 'लोपो व्योर्वलि' (६.१.६६) से सीयुट्' के य् का लोप होता है, उसकी लोप संज्ञा है ।

(३) जीरदानुः । जीव् + रदानुक् । जीव + रदानु । जीरदानुः । यहां 'जीव प्राणधारणे' (वा.प.) धातु से 'जीवे रदानुक्' (उणादि) (२.३.२) से 'रदानुक्' प्रत्यय करने पर 'लोपो व्योर्वलि (६.१.६६) से 'व्' का लोप होता है । उसकी लोप संज्ञा है ।

विशेष - इस व्याकरणशास्त्र में 'स्वं रूपं शब्दस्याशब्दसंज्ञा' (१.१.६८) से शब्द के अपने रूप का ही ग्रहण किया जाता है, उसके अर्थ का नहीं । यहां 'न वेति विभाषा' (१.१.४४) से मण्डूप्लुति न्याय से 'इति' शब्द के सहाय से यहां अदर्शन शब्द के अर्थ की लोप संज्ञा होती है ।

      १.१.६१

सूत्राणि:॥ प्रत्ययस्य लुक्श्लुलुपः

॥ व्याख्या: ॥॥ अष्टाध्यायी प्रवचनम् ॥

विभक्तिः - प्रत्ययस्य ६।१ लुक्-श्लु-लुपः १।३। 

समासः - लुक् च श्लुश्च लुप् च ते - लुक्श्लुलुपः (इतरेतरयोगद्वन्द्वः) ।         

अनुवृत्तिः - अदर्शनम् इत्यनुवर्तते । 

अन्वयः - लुक्श्लुलुपभिः प्रत्ययस्य अदर्शनं लुक्श्लुलुपः । 

अर्थ: - लुक्-श्लु-लुप्शब्दैः प्रत्ययस्यादर्शनं लुक्-श्लुलुप्संज्ञकं भवति । (लुक्) अत्ति । (श्लुः) जुहोति । (लुप्) वरणा: । 

आर्यभाषा - अर्थ-लुक, श्लु, लुप् शब्दों के द्वारा (प्रत्ययस्य) प्रत्यय के (अदर्शनम्) लोप की (लुक्-श्लु-लुपः) लुक, श्लु और लुप् संज्ञा होती है । 

उदाहरणम् - (लुक्) अत्ति  । वह खाता है ।  श्लु । जुहोति । वह होम करता है ।  लुप् । वरणा: । एक जनपद का नाम है । 

सिद्धिः - (१) लुक् । अत्ति  । अद् + लट्  । अद् + तिप् । अद् + शप् + ति ।  अद् + ० + ति । अत्ति । यहां अद् भक्षणे (अदा.प.) धातु से 'वर्तमाने लट्' (३.१.१२३) से लट् प्रत्यय, तिप्तझि०' (३.४.७८) से 'ल्' के स्थान में तिप्' आदेश, 'कर्तरि शब्' (३.१.६८) से 'शम्' विकरण प्रत्यय और उसका 'अदिप्रभृतिभ्यः शप:' (२.४.७२) से लुक् होता है ।  अत: 'शब्' प्रत्यय के अदर्शन की यहां 'लुक' संज्ञा है । 

(२) श्लु  । (जुहोति) हु + लट् । हु + शप् + तिप् । हु + ० + ति । हु + हु + ति । हु + हो + ति । मु + हो + ति । जुहोति । यहां हु दानादनयो:, आदाने चेत्येकें' (जु.प.) धातु से पूर्ववत् लट् प्रत्यय, 'जुहोत्यादिभ्यः श्लुः' (२.४.७५) से शप् को श्लु होता है ।  तत्पश्चात् 'श्लौं' (६.१.१०) से हु धातु को द्विर्वचन होता है ।  यहां शप् प्रत्यय के अदर्शन की 'श्लु' संज्ञा है । 

(३) लुप् । (वरणा:) वरण + अण् + जस् । वरण + अ + अस् । वरण + ० + अस् । वरणाः । यहां 'वरणादिभ्यश्च' (४.२.८२) से 'अण्' प्रत्यय 'लुप्' होता है ।  उसकी 'लुप्' संज्ञा है । 

विशेष - किसी वर्ण के अदर्शन को लोप कहते हैं और किसी प्रत्यय विशेष के अदर्शन को लुकश्लु और लुप कहा जाता है । 

    १.१.६२

सूत्राणि:॥ प्रत्ययलोपे प्रत्ययलक्षणम्

॥ व्याख्या: ॥॥ अष्टाध्यायी प्रवचनम् ॥

विभक्तिः - प्रत्ययलोपे ७।१ प्रत्ययलक्षणम् १।१।

समासः - प्रत्ययस्य लोप इति प्रत्ययलोपः तस्मिन् प्रत्ययलोपे (षष्ठी तत्पुरुषः) प्रत्ययलक्षणं यस्य तत् प्रत्ययलक्षणम्, प्रत्ययहेतुकमित्यर्थः (बहुव्रीहि:) ।

अर्थः - प्रत्ययस्य लोपे सति प्रत्ययलक्षणम् (प्रत्ययहेतुकम्) कार्यं भवति ।

उदाहरणम् - अग्निचित् । सोमसुत् । अधोक ।

आर्यभाषार्थ - (प्रत्ययलोपे) किसी प्रत्यय का लोप हो जाने पर भी (प्रत्ययलक्षणम्) प्रत्ययहेतुक कार्य हो जाता है ।

उदाहरणम् - अग्निचित् । अग्नि का चयन करनेवाला । सोमसुत् । सोम का सवन करनेवाला । अधोक् । उसने दुहा ।

सिद्धिः - (१) अग्निचित् । अग्नि + अम् + चि + क्विप् । अग्नि + चि + वि । अग्नि + चि + तुक् + वि । अग्निचि + त् + वि । अग्निचित् + ० । अग्निचित् + सु । अग्निचित् + ० । अग्निचित्  । यहां 'अग्नौ चे:' (३.२.११) से अग्नि कर्म उपपद होने पर चिञ् चपनें (स्वा.उ.) धातु से 'क्विप्' प्रत्यय, 'ह्रस्वस्य पिति कृति तुक' (६.१.७१) से तुक् आगम, तत्पश्चात् 'हल्ङ्याब्भ्यो दीर्घात्' (६.१.६८) से 'सु' प्रत्यय का लोप हो जाने पर भी 'सुप्तिङन्तं पदम् ' (१.४ .१४) से प्रत्यय लक्षण कार्य पदसंज्ञा हो जाती है ।

(२) सोमसुत्  । यहां 'सोमे सुत्र:' (३.२.९०) से सोम कर्म उपपद बुञ् अभिषवें (स्वा.उ.) धातु से क्विप्' प्रत्यय होता है । शेष कार्य 'अग्निचित्' के समान है ।

(३) अघोक् । दुह + लङ् । अट् + दुह् + तिप् । अ + दुह् + शप् + ति । अ + दुह् + ० + त् । अदोह + तु  । अदोह + ०  ।अदोध् । अधोथ् । अधोग् । अधोक् । यहां 'दादेर्धातोर्घः' (८.१.३२) से हकार को घकार, एकाचो बशो भष्०' (८.२.२७) से दकार को भष् धकार, 'झलां जशोऽन्ते (८.२.३९) से पदान्त में 'घ' को जश् गकार और 'वाऽवसाने' (८.४.५६) से 'ग' को चर् ककार होता है । 'अधोक' यहां 'हल्याङ्याब्भ्यो दीर्घात्' (६.१.६८) से तिप् प्रत्यय का लोप हो जाने पर भी सुप्तिङन्तं पदम् (१.४.१४) से प्रत्यय लक्षण कार्य पदसंज्ञा होती है ।

     १.१.६३

सूत्राणि:॥ न लुमताङ्गस्य

॥ व्याख्या: ॥॥ अष्टाध्यायी प्रवचनम् ॥

विभक्तिः - न अव्ययपदम् । लुमता ३।१ अङ्गस्य ६।१। लु अस्मिन्नस्तीति लुमान्, तेन - लुमता (तद्धितवृत्ति:) । 

अनुवृत्तिः - प्रत्ययलोपे प्रत्ययलक्षणम्, इत्यनुवर्तते ।

अन्वयः - लुमता प्रत्ययलोपेऽङ्गस्य प्रत्ययलक्षणं न ।

अर्थ: - लुमता शब्देन प्रत्ययलोपे सति अङ्गस्य प्रत्ययलक्षणं कार्यं न भवति ।

उदाहरणम् - (लुक्) मृष्ट: । (श्लुः) जुहुत: । (लुप्) गर्गा: ।

आर्यभाषार्थ - (लुमता) लुमान् । लुक, श्लु और लुप के द्वारा (प्रत्ययलोपे) प्रत्यय का लोप हो जाने पर (अङ्गस्य) जो अङ्ग है उसको (प्रत्ययलक्षणम्) प्रत्ययहेतुक कार्य (न) नहीं होता है ।

उदाहरणम् - (लुक) मृष्ट: । वे दोनों शुद्ध करते हैं । (श्लु) जुहुत: । वे दोनों होम करते हैं । (लुप्) पञ्चालाः । पंचाल जनपद के निवासी ।

सिद्धिः - (१) लुक् । (मृष्ट:) मृज् + लट् । मज् + तस् । मृज् + शप् + तस् । मृज् + अ + तस् । मृज् + ० + तस् । मृष् + तस् । मृष् + टस् । मृष्टः । यहां 'मजूष शुद्धौं (अदा.प.) धातु से 'अदिप्रभृतिभ्यः शप:' (२.४.७२) से शत्रु का लुक हो जाने पर, प्रत्यय लक्षण कार्य 'मृजेर्वृद्धि:' (७.२.११४) से अङ्ग को वृद्धि नहीं होती है ।

(२) श्लु । (जुहुतः) हु + लट् । हु + तस् । हु + शप् + तस् । हु + अ + तस् । हु + ० + तस् । हु + हु + तस् । झु + हु + तस् । जु + हु + तस् । जुहुतः । यहां हु दानादनयो:, आदाने चेत्येकें (जु.प.) धातु से जुहोत्यादिभ्यः श्लुः' (२.४.७५) से शप् का श्लु हो जाने पर, प्रत्यय लक्षण कार्य 'सार्वधातुकार्धधातुकयोः' (७.३.८४) से अङ्ग को गुण नहीं होता है ।

(३) लुप् । (पञ्चालाः) पञ्चाला + अणु + तस् । पञ्चाल + अ + अस् । पञ्चाल + ० + अस् । पञ्चालाः । पञ्चालानां जनपदो निवासः पञ्चालाः । यहां 'तस्य निवास:' (४.२.६८) से 'अण्' प्रत्यय और उसका 'जनपदे लुप्' (४.१.८१) से लुप् हो जाने पर तद्धितेष्वचामादे:' (७.२.११७) से प्राप्त प्रत्यय लक्षण कार्य आदि वृद्धि नहीं होती है ।

    १.१.६४

सूत्राणि:॥ अचोऽन्त्यादि टि

॥ व्याख्या: ॥॥ अष्टाध्यायी प्रवचनम् ॥

विभक्तिः - अचः ६।१अन्त्यादि १।१ टि १।१।

समासः - अन्ते भवोऽन्त्य: । अन्त्य आदिर्यस्य तद् अन्त्यादि (बहुव्रीहि:)

अर्थ: - अचा मध्ये योऽन्त्योऽच्, तदादि शब्दरूपं टिसंज्ञकं भवति । 

उदाहरणम् - अग्निचित् । सोमसुत् । पचेते । पचेये

आर्यभाषार्थ - (अचाम्) अचों के मध्य में (अन्त्यादि) जो अन्त्य अच् है और वह अन्त्य अच् जिस हल्-समुदाय के आदि में है, उस शब्द की (टि) टि संज्ञा होती है ।

उदाहरणम् - अग्निचित् । अग्नि का चयन करनेवाला । सोमसुत् । सोम का सवन करनेवाला । पचेते । वे दोनों पकाते हैं । पवेथे । तुम दोनों पकाते हो ।

सिद्धिः - (१) अग्निचित् । यहां अन्तिम अच् 'इ' है और वह त् हल् के आदि में है, इसलिये यहां 'इत्' शब्द की टि' संज्ञा है । इसी प्रकार 

(२) सोमसुत्' में 'उत्' शब्द की टि' संज्ञा होती है ।

(३) पचेते । पच् + लट् । पच् + शप् + आताम् । पच् + अ + आताम् । पच् + अ + इयताम् । पच् + अ + इ ० ते । पचेते । यहां 'आताम्' प्रत्यय में 'आम्' भाग की टि' संज्ञा होती है और उसे 'टित आत्मनेपदानां टेरे' (३.४.७९) से 'ए' आदेश हो जाता है । इसी प्रकार 'पचेथे' में 'आधाम्' प्रत्यय के 'आम्' भाग की टि संज्ञा है और उसे पूर्ववत् 'ए' आदेश होता है ।

विशेष - यहां अग्निचित् आदि उदाहरण टि संज्ञा को समझाने के लिए दिये गये हैं । उनमें टि संज्ञा का कोई कार्य नहीं है ।

     १.१.६५

सूत्राणि:॥ अलोऽन्त्यात् पूर्व उपधा

॥ व्याख्या: ॥॥ अष्टाध्यायी प्रवचनम् ॥

विभक्तिः - अल: ५।१ अन्त्यात् ५।१ पूर्व १।१ उपधा १।१ अन्ते भवम् अन्त्यम् तस्मात् अन्त्यात् (तद्धितवृत्ति:) । 

अन्वयः - अन्त्याद् अलः पूर्व उपधा ।

अर्थः - धात्वादिवर्णसमुदायेऽन्त्याद् अल: पूर्वो यो वर्ण: स उपधा संज्ञको भवति भवति ।

उदाहरणम् - (भिद्) भेत्ता । (छिद्) छेत्ता ।

आर्यभाषार्थ - धातु आदि वर्णसमुदाय में (अन्त्यात्) अन्तिम (अल:) अल् से (पूर्व:) पहला जो वर्ण है, उसकी (उपधा) उपधा संज्ञा होती है । जैसे पच् और पठ् यहाँ अकार की उपधा संज्ञा है । भिद् और छिद् यहां इकार की उपधा संज्ञा है । बुध और पृथ् यहां उकार की उपधा संज्ञा है । वृत् और वृध् यहां ऋकार की उपधा संज्ञा है । व्याकरणशास्त्र में उपधा के अनेक कार्य किये जाते हैं । जो यथास्थान उपलब्ध हो जायेंगे ।

    १.१.६६

सूत्राणि:॥ तस्मिन्निति निर्दिष्टे पूर्वस्य

॥ व्याख्या: ॥॥ अष्टाध्यायी प्रवचनम् ॥

विभक्तिः - तस्मिन् ७।१ इति अव्ययपदम्, निर्दिष्टे ७।१ पूर्वस्य ६।१ ।

अर्थ: - तस्मिन्निति सप्तम्या निर्दिष्टे व्यवधानरहितस्य पूर्वस्य कार्यं भवति ।

उदाहरणम् - इको यणचि दध्यत्र । मध्वत्र  ।

आर्यभाषार्थ - (तस्मिन् इति) सप्तमी विभक्ति के द्वारा (निर्दिष्टे) किसी का निर्देश करने पर वहां (पूर्वस्य) पूर्व को कार्य होता है, उत्तर को नहीं । जैसे - 'इको यणचि' (६.१.७७) यहां 'अचि' का सप्तमी विभक्ति से निर्देश किया गया है । अतः यहां अच् के परे होने पर पूर्ववर्ण को कार्य किया जाता है । दधि + अत्र । दध्यत्र । मधु + अत्र । मध्वत्र । इत्यादि ।

विशेष - इस व्याकरणशास्त्र में स्वं रूपं 'शब्दस्याशब्दसंज्ञा' (१.१.६८) से शब्द का अपना रूप ही ग्रहण किया जाता है । यहां तस्मिन्' शब्द का जो सप्तमी अर्थ है, वह ग्रहण किया जाता है, तस्मिन् शब्द नहीं ।

      १.१.६७

सूत्राणि:॥ तस्मादित्युत्तरस्य

॥ व्याख्या: ॥॥ अष्टाध्यायी प्रवचनम् ॥

विभक्तिः - तस्मात् ५।१ इति अव्ययपदम् उत्तरस्य ६।१। 

अर्थ: - तस्मादिति पञ्चम्यानिर्दिष्टे व्यवधानरहितस्योत्तरस्य कार्यं भवति ।

उदाहरणम् - तिङ्ङतिङ: - ओदनं पचति ।

आर्यभाषार्थ - (तस्मात् इति) पञ्चमी विभक्ति के द्वारा (निर्दिष्टे) किसी अर्थ का निर्देश करने पर वहां (उत्तरस्य) उत्तर को कार्य होता है, पूर्व को नहीं । जैसे 'तिङ्ङतिङ' (८.१.२८) तिङ् १।१ अतिङः ५।१ अतिङन्त से उत्तर तिङन्त पद को अनुदात्त होता है । जैसे-ओदनं पचति । वह चावल पकाता है ।

विशेष - यहां भी पूर्ववत् तस्मात्' शब्द के साथ 'इति' शब्द का प्रयोग करने से 'तस्मात्' शब्द का जो पञ्चमी अर्थ है, वह ग्रहण किया जाता है, तस्मात्' शब्द नहीं ।

      १.१.६८

सूत्राणि:॥ स्वं रूपं शब्दस्याशब्दसंज्ञा

॥ व्याख्या: ॥॥ अष्टाध्यायी प्रवचनम् ॥

विभक्तिः - स्वम् १।१ रूपम् १।१ शब्दस्य ६।१अशब्दसंज्ञा १।१ । 

समासः - शब्दस्य संज्ञा इति शब्दसंज्ञा, न शब्दसंज्ञा इति अशब्दसंज्ञा' (षष्ठीतत्पुरुषगर्भितनञ्तत्पुरुषः) ।

अर्थ: - अस्मिन् व्याकरणशास्त्रे शब्दस्य स्वकीयं रूपं ग्राह्यं भवति, व्याकरणसंज्ञां वर्जीयत्वा ।

उदाहरणम् - अग्नेर्दक् । आग्नेयम् । दघ्नष्ठक् दाधिकम् ।

आर्यभाषार्थ - इस व्याकरणशास्त्र में (शब्दस्य) शब्द का (स्वम्) अपना (रूपम्) रूप ग्रहण किया जाता है, उसका अर्थ नहीं (अशब्दसंज्ञा) शब्दशास्त्र की संज्ञा को छोड़कर । शब्दशास्त्र की जो वृद्धि आदि संज्ञायें हैं, वहां वृद्धि आदि शब्दों का ग्रहण नहीं किया जाता अपितु जिसकी ये वृद्धि आदि संज्ञायें की हैं, उनका ही ग्रहण किया जाता है । 'अनेक' (४.२.३३) आग्नेयम् अष्टाकपालं निर्वपेत् । यहां अग्नि शब्द से ढक् प्रत्यय का विधान किया गया है । अतः अग्नि शब्द का ही यहां ग्रहण किया जाता है, उसके अर्थ अङ्गार का नहीं और न ही उसके पर्यायवाची ज्वलन, पावक और धूमकेतु आदि का ग्रहण होता है । आग्नेयम् । अग्नि देवतावाली हवि । दाधिकम् । दही में संस्कृत लवण आदि । 

सिद्धिः - (अग्नेयम्) । अग्नि + ढक् । अग्नि + एय् । अग्न् + एय् । आग्न् + एय । आग्नेय + सु । आग्नेयम् । यहां 'उग्नेर्दक्' (४.२.३३) से ढक् प्रत्यय, 'आयनेय०' (७.१.२) से 'ढ' के स्थान में 'एम्' आदेश, 'यस्येति च' (६.४.१४८) से इकार का लोप और 'किति च' (७.२.११८) से आदिवृद्धि होती है । ऐसे ही दाधिकम् ।

(२) यहां अग्नि शब्द से 'ढक' प्रत्यय कहा गया है वह उसके अर्थ अंगार से तथा उसके पर्यायवाची चलन आदि से नहीं होता है ।

     १.१.६९

सूत्राणि:॥ अणुदित् सवर्णस्य चाप्रत्ययः

॥ व्याख्या: ॥॥ अष्टाध्यायी प्रवचनम् ॥

विभक्तिः - अण्-उदित् १।१ सवर्णस्य ६।१ च अव्ययम्, अप्रत्ययः १ ।१। 

समासः - अ च उदित् च एतयोः समाहारः अणुदित् (समाहारद्वन्द्वः) न प्रत्यय इति अप्रत्ययः (नञ्तत्पुरुषः) ।

अनुवृत्तिः - स्वं रूपम्, इत्यनुवर्तते ।

अन्वयः - अणुदित् सवर्णस्य स्वं रूपं चाप्रत्ययः ।

अर्थ: - अण् उदिच्च वर्ण: सवर्णस्य स्वस्य च रूपस्य ग्राहको भवति,प्रत्ययं वर्जयित्वा ।

उदाहरणम् - (अण्) आद्गुण: - खट्वेन्द्रः । 'क्यचि च' - मालीयति । यस्येति - मालीयः । (उदित्) लश्क्वतद्धिते । चुटू ।

आर्यभाषार्थ - (अण्-उदित्) अणु और उदित् (सवर्णस्य) सवर्णों का और (स्वम्) अपने (रूपम्) रूप का (च) भी ग्राहक होता है (अप्रत्ययः) प्रत्यय को छोड़कर । 

उदाहरणम् - (अण) 'आद्गुण:' खट्वेन्द्रः । खाट का राजा । 'क्यचि च' मालीयति । किसी वस्तु को माला के समान धारण करता है । 'यस्येति च मालीयः । माला में रहनेवाला पुष्प आदि । इत्यादि स्थानों पर अकार आदि को कार्य कहने पर वहां ह्रस्व, दीर्घ, प्लुत, उदात्त, अनुदात्त, स्वरित और निरनुनासिक तथा सानुनासिक भेद से युक्त १८ अठारह प्रकार के अकार आदि का ग्रहण किया जाता है । अकार के १८ भेद 'वृद्धिरादैच्' (१.१.१) सूत्र के प्रवचन में दिखा दिये हैं, वहां देख लेवें । (उदित्) 'लश्क्वतद्धितें (१.३.८) यहां 'कु' से कवर्ग और 'चुटू' (१.३.७) यहां चु से चवर्ग और टु से टवर्ग का ग्रहण किया जाता है ।

विशेष - प्रत्याहार सूत्रों में दो (अणु) प्रत्याहार बनाये गये हैं, एक 'अइउण् (६.१.८७) में तथा दूसरा 'लग्' सूत्र में । 'लण्' सूत्र में जो अणु प्रत्याहार बनाया गया है उसका प्रयोग केवल इसी सूत्र में किया गया है । अन्यत्र सर्वत्र 'अ इ उ ण्' के अणु प्रत्याहार का ही प्रयोग किया गया है ।

सिद्धिः - (१) खट्वेन्द्रः । खट्वा + इन्द्र: । खट्वेन्द्रः । यहां 'आदाण' से 'अ' से परे 'अच्' को कहा गुणरूप एकादेश सवर्ण ग्रहण से 'आ' से परे भी अच् को गुणरूप एकादेश हो जाता है ।

(२) मालीयति । माला + क्यच् । माली + य । मालीय + लट् । मालीय + शप् + तिप् । मालीय + अ + ति । मालीयति । यहां 'क्यचि च' (७.४.३३) से 'अ' के कहा ईकार - आदेश सवर्ण ग्रहण से 'आ' के स्थान में भी हो जाता  ।

(३) मालीयः । माला + छ । माल् + ईय । मालीय + सु । मालीय । यहां 'यस्येति च' (६.४.१४८) से 'अ' का लोप होता है किन्तु सवर्ण ग्रहण से 'आ' का लोप हो जाता है ।

     १.१.७०

सूत्राणि:॥ तपरस्तत्कालस्य

॥ व्याख्या: ॥॥ अष्टाध्यायी प्रवचनम् ॥

विभक्तिः - तपरः १।१ तत्कालस्य ६।१।

समासः - तः परो यस्मात् सः - तपरः (बहुव्रीहिः) । तदपि परस्तपरः (पञ्चमीतत्पुरुषः) । तस्य कालस्तत्काल:, तत्काल इव कालो यस्य स: -तत्काल:, तस्य तत्कालस्य (बहुव्रीहि:) ।

अनुवृत्तिः - 'स्वं रूपम्' इत्यनुवर्तते ।

अन्वयः - तपरस्तत्कालस्य स्वं रूपम् ।

अर्थ: - तपरो वर्णस्तत्कालस्य स्वस्य च रूपस्य ग्राहको भवति ।

उदाहरणम् - 'अतो भिस ऐस्' - वृक्षैः । प्लक्षैः ।

आर्यभाषार्थ - (तपरः) तपर वर्ण (तत्कालस्य) अपने तुल्यकालवाले वर्ण का (सवर्णस्य) और गुणान्तर से युक्त सवर्ण का तथा (स्वम्) अपने (रूपम्) रूप का ग्राहक होता है । 

उदाहरणम् - 'अतो भिस ऐस्' (७.१.९) वृक्षैः । वृक्षों के द्वारा । प्लक्षैः । प्लक्षों के द्वारा । 

सिद्धिः - (१) वृक्षैः । वृक्ष + भिस् । वृक्ष + ऐस् । वृक्षैस् । वृक्षै: । यहां 'अतो भिस ऐस सूत्र में 'अ' को तपर करके निर्देश किया गया है कि उससे उत्तर 'भिस्' प्रत्यय को ऐस' आदेश हो जाये । अतः उसके तुल्य कालवाले 'अ' से उत्तर ही 'भिस्' को ऐस्' आदेश होता है, उससे भिन्न कालवाले 'आ' से उत्तर नहीं, जैसे रमाभिः ।

विशेष - तपर की व्याख्या 'वृद्धिरादैच्' (१.१.१) के प्रवचन में लिख दी है, वहां देख लेवें ।

      १.१.७१

सूत्राणि:॥ आदिरन्त्येन सहेता

॥ व्याख्या: ॥॥ अष्टाध्यायी प्रवचनम् ॥

विभक्तिः - आदिः १।१ अन्त्येन ३।१ सह अव्ययम्, इता ३।१। अन्ते भवम् अन्त्यम् तेन - अन्त्येन (तद्धितवृत्ति:) ।

अनुवृत्तिः - स्वं रूपम् इत्यनुवर्तते ।

अन्वयः - आदिरन्त्येन इता सह स्वं रूपम् ।

अर्थ: - आदिर्वर्णोऽन्त्येन इता वर्णेन सह, तन्मध्ये पतितानां स्वस्य च रूपस्य ग्राहको भवति ।

उदाहरणम् - अण् । अक् । अच् । हल् । सुप् । तिङ् ।

आर्यभाषार्थ - (आदिः) आदिमवर्ण (अन्त्येन) अन्तिम (इता) इत् संज्ञावाले वर्ण के (सह) साथ ग्रहण किया जाता हुआ उसके मध्य में पतित वर्णों का तथा (स्वम्) अपने (रूपम्) रूप का भी ग्राहक होता है ।

उदाहरणम् - अण्  ।अक् । अच् । हल् । सुप् । तिङ् । इत्यादि ।

सिद्धिः - (१) अण्  ।यह 'अ इ उ ण्' सूत्र में प्रत्याहार है 'अणु' कहने से अ, इ, उ, वर्णों का ग्रहण किया जाता  । इसी प्रकार अकू, अच् और हल को समझ लेवें ।

(२) सुप् । सु, औ, जस्, अम्, और, शस्, टा, भ्याम्, भिस्, ङे, भ्याम्, भ्यस्, ङसि, भ्याम्, भ्यस्, ङस्, ओस्, आम्, डि, ओस्, सुप् । यहां सु से लेकर प् तक एक सुप्' प्रत्याहार बनाया गया है । सु अन्तिम इत् प् वर्ण के साथ उसके मध्य में पतित प्रत्ययों का और अपने रूप का भी ग्राहक होता है । अतः 'सुप्' कहने से सु आदि २१ इक्कीस प्रत्ययों का ग्रहण किया जाता है ।

(३) तिङ् । तिप्, तस्, झि, सिप् थस्, थ, मिप् वस्, मस् त, आतमि, झ, थास्, आधाम्, ध्वम् इद् वहि महिङ् । यहां 'ति' से लेकर 'ड' तक एक तिङ्' प्रत्याहार बनाया गया है । ति अन्तिम वर्ण ङ् के साथ उसके मध्य में पतित प्रत्ययों का और अपने रूप का भी ग्राहक होता है । अतः 'तिङ्' कहने से तिप् आदि १८ अठारह प्रत्ययों का ग्रहण किया जाता है ।

      १.१.७२

सूत्राणि:॥ येन विधिस्तदन्तस्य

॥ व्याख्या: ॥॥ अष्टाध्यायी प्रवचनम् ॥

विभक्तिः - येन ३।१ विधि: १।१ तदन्तस्य ६।१। 

समासः - सोऽन्ते यस्य सः - तदन्तः, तस्य तदन्तस्य (बहुव्रीहि:) ।  

अनुवृत्तिः - स्वं रूपम् इत्यनुवर्तते ।  

अन्वयः - येन विधिः स तदन्तस्य स्वं रूपम् ।  

अर्थ: - येन विशेषणेन विधिर्विधीयते स तदन्तस्य (आत्मान्तस्य समुदायस्य) स्वस्य च रूपस्य ग्राहको भवति ।  

उदाहरणम् - एरच् ।  जय: ।  चय: ।  अय: ।  ओरावश्यके- अवश्यलाव्यम् ।  अवश्यपाव्यम् ।  

आर्यभाषार्थ - (पेन) जिस विशेषण से (विधि) कोई विधि की जाती है वह (तदन्तस्य) आत्मान्त समुदाय की और (स्वम्) अपने (रूपम्) रूप की भी ग्राहक होती है ।  

उदाहरणम् - एरच् ।  जयः ।  जीतना ।  चयः । चुनना ।  अयः ।  गति करना ।   ओरावश्यके ।  अवश्यलाव्यम् ।  अवश्य काटने योग्य ।  अवश्यपाव्यम् ।  अवश्य पवित्र करने योग्य ।  

सिद्धिः - (१) जय: ।  जि + अच् ।  जे + अ + ।  ज् अय् + अ ।  जय + सु ।  जयः ।  यहां जि जये (वा.प.) धातु से 'एरच्' (३.३.५६) इकारान्त धातु से अच् प्रत्यय होता है ।  यहां 'इ' कहने से इकारान्त का ग्रहण किया जाता है ।   चिञ् चयने (स्वा०उ०) धातु से 'चयः ' ।  

(२) अयः ।  इ + अच् ।  ए + अ ।  अय् + अ ।  अय + सु ।  अय: ।  यहां 'इण् गतौं (अदा.प.) धातु से 'एरच' (३.३.५६) से 'अच्' प्रत्यय होता है ।   यह धातु 'इ' स्वरूप है अत: स्वरूप ग्रहण से 'इ' धातु से भी अच् प्रत्यय हो जाता  । 

(३) अवश्यलाव्यम् ।  अवश्य + लू + ण्यत् ।  अवश्य + लौ + य । अवश्य + लाव् + य ।  अवश्यलाव्य + सु ।  अवश्यलाव्यम् ।   यहां 'ओरावश्यकें' (३.१.१२५) से आवश्यकता द्योतित होने पर 'लूञ् लवने (क्रया.उ.) धातु से ण्यत् प्रत्यय का विधान किया है ।   यहां 'ओ' कहने से ओकारान्त का ग्रहण किया जाता है ।   इसी प्रकार 'पुत्र पवनें' (क्रयादि) धातु से अवश्यपाव्यम् ।  

     १.१.७३

सूत्राणि:॥ वृद्धिर्यस्याचामादिस्तद् वृद्धम्

॥ व्याख्या: ॥॥ अष्टाध्यायी प्रवचनम् ॥

विभक्तिः - वृद्धिः १।१ यस्य ६।१अचाम् ६।३ आदि: ९।१ तद् १।१ वृद्धम् १।१।

अन्वयः - यस्याचामादिर्वृद्धिस्तद् वृद्धम् ।

अर्थ: - यस्य वर्णसमुदायस्याचां मध्ये आदिमोऽच् वृद्धिसंज्ञको भवति, सवर्णसमुदायो वृद्धसंज्ञको भवति ।

उदाहरणम् - वृद्धाच्छ: - शालीयः । मालीयः ।

आर्यभाषार्थ - (यस्य) जिस वर्णसमुदाय के (अचाम्) अचों में (आदिः) आदिम अच् (वृद्धि:) वृद्धि संज्ञावाला होता है (तत्) उस वर्ण समुदाय की (वृद्धम्) वृद्ध संज्ञा होती है ।

उदाहरणम् - वृद्धाच्छ-शालीयः । मालीयः ।

सिद्धिः - (१) शालीय: । शाला + छ। शाला + ईय । शाल् + ईय । शालीय + सु । शातीयः । यहां शाला शब्द का आदिम अच् 'आ' वृद्धि संज्ञावाला है, अतः इसकी वृद्ध संज्ञा होने से 'वृद्धाच्छः' (४.२.११४) से 'छ' को 'ईय' आदेश हो जाता है । इसी प्रकार माला शब्द से - मालीय: ।

      १.१.७३

सूत्राणि:॥ वृद्धिर्यस्याचामादिस्तद् वृद्धम्

॥ व्याख्या: ॥॥ अष्टाध्यायी प्रवचनम् ॥

विभक्तिः - वृद्धिः १।१ यस्य ६।१अचाम् ६।३ आदि: ९।१ तद् १।१ वृद्धम् १।१।

अन्वयः - यस्याचामादिर्वृद्धिस्तद् वृद्धम् ।

अर्थ: - यस्य वर्णसमुदायस्याचां मध्ये आदिमोऽच् वृद्धिसंज्ञको भवति, सवर्णसमुदायो वृद्धसंज्ञको भवति ।

उदाहरणम् - वृद्धाच्छ: - शालीयः । मालीयः ।

आर्यभाषार्थ - (यस्य) जिस वर्णसमुदाय के (अचाम्) अचों में (आदिः) आदिम अच् (वृद्धि:) वृद्धि संज्ञावाला होता है (तत्) उस वर्ण समुदाय की (वृद्धम्) वृद्ध संज्ञा होती है ।

उदाहरणम् - वृद्धाच्छ-शालीयः । मालीयः ।

सिद्धिः - (१) शालीय: । शाला + छ। शाला + ईय । शाल् + ईय । शालीय + सु । शातीयः । यहां शाला शब्द का आदिम अच् 'आ' वृद्धि संज्ञावाला है, अतः इसकी वृद्ध संज्ञा होने से 'वृद्धाच्छः' (४.२.११४) से 'छ' को 'ईय' आदेश हो जाता है । इसी प्रकार माला शब्द से - मालीय: ।

      १.१.७४

सूत्राणि:॥ त्यदादीनि च ॥

॥ व्याख्या: ॥॥ अष्टाध्यायी प्रवचनम् ॥

विभक्तिः - त्यद् - आदीनि १।३ च अव्ययम् । 

समासः - त्यद् आदिर्येषां तानीमानि त्यदादीनि (बहुव्रीहिः) । 

अनुवृत्तिः - 'वृद्धम्' इत्युनवर्तते । 

अन्वयः - त्यदादीनि च वृद्धम् । 

अर्थः - त्यदादीनि शब्दरूपाणि च वृद्धसंज्ञकानि भवन्ति ।

उदाहरणम् - त्यद्-त्यदीयम् । तद्- तदीयम् । एतद्-एतदीयम् । 

आर्यभाषार्थ - (त्यद्-आदीनि) त्यद् आदि शब्दों की (च) भी (वृद्धम्) वृद्ध संज्ञा होती है । त्यदीयम् । तदीयम् । एतदीयम् । 

सिद्धिः - (१) त्यदीयम् । त्यद् + छ । त्यद् + ईय् अ । त्यदीय + सु । त्यदीयम् ।  यहां 'त्यद्' शब्द की वृद्ध संज्ञा होने से 'वृद्धाच्छ: ' (४.२.११४) से 'छ' प्रत्यय होता है और 'छ' को पूर्ववत् 'ईय्' आदेश हो जाता है ।  इसी प्रकार 'तद्' शब्द से 'तदीयम्' और 'एतद्' शब्द से 'एतदीयम्' समझें । 

विशेष - त्यद् आदि शब्दों का सर्वादिगण में पाठ किया गया है । त्यद् आदि शब्द ये हैं - त्यद् । तद् । यद् । एतद् । इदम् । अदस् । एक । द्वि । युष्मद् । अस्मद् । भवतु । किम् । 

      १.१.७५

सूत्राणि:॥ एङ् प्राचां देशे

॥ व्याख्या: ॥॥ अष्टाध्यायी प्रवचनम् ॥

विभक्तिः - एङ् १।१ प्राचाम् ६।३ देशे ७।१। 

अनुवृत्तिः - 'यस्याचामादिस्तद् वृद्धम्' इत्यनुवर्तते ।      

अन्वयः - यस्याचामादिरेङ् प्राचां देशे वृद्धम् ।

अर्थ: - यस्य वर्णसमुदायस्यादिमोऽच् एङ् भवति स वर्णसमुदायःप्राचां देशेऽभिधेये वृद्धसंज्ञको भवति ।

उदाहरणम् - एणीपचनीय: । भोजकटीयः । गोनर्दीयः ।

आर्यभाषार्थ - (यस्य) जिस वर्णसमुदाय के (अचाम्) अचों में (आदिः) आदिम अच् (ए) एङ् हो, उसकी (प्राचाम्) पूर्व दिशा के (दिशे) देश के कथन में (वृद्धम्) वृद्ध संज्ञा होती है ।

उदाहरणम् - एणीपचनीय: । भोजकटीयः । गोनर्दीयः ।

सिद्धिः - एणीपचनीयः । एणीपचन + छ । एणीपचन + इय् अ । एणीपचनीय + सु । एणीपचनीय: । यहां एणीपचन शब्द की वृद्ध संज्ञा होने से 'वृद्धाच्छ' (४.२.११४) से 'छ' प्रत्यय होता है और उसको पूर्ववत् 'ईय्' आदेश हो जाता है । इसी प्रकार 'भोजकट' शब्द से 'भोजकटीय:' और गोनर्द शब्द से 'गोनर्दीय:' समझें ।

प्राची और उदीची का विभाजन -

प्रागुदञ्चौ विभजते हंसः क्षीरोदके यथा ।

विदुषां शब्दसिद्ध्यर्थं सा नः पातु शरावती ॥

अर्थ - जैसे हंस नीर और क्षीर को पृथक-पृथक कर देता है, वैसे वैयाकरण विद्वानों की शब्द-सिद्धिः के लिये पूर्व और उत्तर देश का शरावती (साबरमती) नदी विभाग कर देती है । 

इति पण्डितसुदर्शनदेवाचार्यविरचिते पाणिनीयाष्टाध्यायी प्रवचनेसमाप्तः । प्रथमाध्यायस्य प्रथमः पादः समाप्तः ।


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