॥ अथ नीतिवाक्यसंग्रहः ॥
“ शुक्रनीति ” से संकलित शिक्षायें
काले हितं मितं ब्रूयात् । ३-१०
सामयिक, हितकर तथा परिमित वचन बोलना चाहिये ।
न स्पर्धेत बलीयसा । ३-५१
अपने से अधिक बलवान् लोगों का मुकाबला नहीं करना चाहिये ।
एकोऽर्थान् न विचिन्तयेत् । ३-५२
किसी गम्भीर विषय पर विचार-विमर्श और उसका निश्चय अकेले नहीं करना चाहिये । दो-चार और सुयोग्य पुरुषों से सम्मति ले लेनी चाहिये ।
नैकः सुप्तेषु जागृयात् । ३-५२
जहाँ सब लोग सो गये हों वहाँ किसी व्यक्ति को अकेले नहीं जागना चाहिये । क्योंकि ऐसा करने से उस व्यक्तिपर चोरी आदि करने की शंका हो सकती है ।
प्रविचार्योत्तर देयम् सहसा न वदेत् क्वचित् । ३-६४
सोच समझकर उत्तर देना चाहिये । सहसा मुँह से कोई बात नहीं निकाल देनी चाहिये । अन्यथा पीछे पछताना पड़ता है और दुःख भी उठाना पड़ता है ।
शत्रोरपि गुणा ग्राह्याः गुरोः त्याज्यास्तु दुर्गुणाः । ३-६५
शत्रु में भी यदि सद्गुण हों तो उनका ग्रहण करना चाहिये और गुरु में भी यदि दृगुण हों तो उनका परित्याग कर देना चाहिये ।
दीर्घदर्शी सदा च स्यात् । ३-६७
सदा दूरदर्शी होना चाहिये । किसी भी बात के परिणाम आदि का दूर तक विचार करना चाहिये और दूर की बातों को भी सोचने-समझने की शक्ति रखनी चाहिये ।
नाऽत्यन्तं विश्वसेत् कञ्चित् । ३-७७
किसी भी व्यक्ति पर अत्यन्त विश्वास नहीं करना चाहिये । साधारणतया सबपर विश्वास रखते हुए भी इससे सतर्क भी रहना चाहिये ।
प्रामाणिकं चानुभृतम् आप्तं सर्वत्र विश्वसेत् । ३-७८
जो व्यक्ति प्रामाणिक हों, जिनकी एक दो बार परीक्षा कर ली गई हो तथा जो यथार्थवादी हों उनपर सदा विश्वास करना चाहिये ।
कदापि नोग्रदण्डः स्यात् कटुभाषणतत्परः । ३-८१
किसी को भी बहुत कठोर दण्ड नहीं देना चाहिये और न सदा कटु वचन ही बोलते रहना चाहिये ।
उपेक्षेत प्रनष्टं यत् । ३-९४
जो वस्तु नष्ट हो गई हो उसकी चिन्ता नहीं करनी चाहिये ।
प्राप्तं यत् तदुपाहरेत् । ३-९४
जो वस्तु उचित मार्ग से मिल जाय उसे ले लेना चाहिये ।
परद्रव्यं क्षुद्रमपि नाऽदत्तं संहरेदणु । ३-९५
दूसरे का कोई द्रव्य, चाहे बहुत छोटा और थोड़ा ही क्यों न हो, बिना दिये नहीं लेना चाहिये ।
ऋणशेषं रोगशेषं शत्रुशेषं न रक्षयेत् । ३-१०४
ऋण रोग, और शत्रु इन तीनों को बिलकुल समाप्त कर देना चाहिये । इनमें से किसी में से कुछ बाकी नहीं रखना चाहिये । नहीं तो वह पुनः बढ़कर भयंकर हो जाता है ।
नाऽकार्ये तु मतिं कुर्यात् । ३-११२
निन्दित और निरर्थक काम करने की बात मन में नहीं ले आनी चाहिये ।
कृत्वा स्वतन्त्रां तरुणीं स्त्रियं गच्छेत् न वै क्वचित् । ३-११५
युवती स्त्री को स्वतन्त्र छोड़कर कहीं परदेश आदि में नहीं जाना चाहिये । उसे किसी की देख-रेख में रखकर ही कहीं अधिक दिनों तक रहना चाहिए ।
न प्रमाद्य त् मदद्रव्यैः । ३-११६
मादक द्रव्यों का सेवन कर प्रमादी नहीं बनना चाहिये ।
सशंकितानां सामीप्यं त्यजेद्वै नीचसेवनम् । ३-१३९
जो लोग अपनी दुश्चरित्रता के कारण शंकित रहते हैं तथा जो नीच लोग हैं उनका साथ नही करना चाहिये । क्योंकि ऐसे लोगोंका साथ करने से सज्जन पुरुष भी कलंकित हो जाते हैं ।
संलापं नैव शृणुयात् गुप्तः कस्यापि सर्वदा । ३-१३९
किसी के भी गुप्त वार्तालाप को कभी छिपकर नहीं सुनना चाहिये ।
अत्यावश्यम् अनावश्यम् क्रमात् कार्यों विचिन्तयेत् । ३-१४४
कौन काम अत्यावश्यक है और कौन काम कम आवश्यक, इस बात का विचार कर उनका क्रमशः सम्पादन करना चाहिये ।
नैको गच्छेद् व्याल-व्याघ्र-चोरेषु च प्रबाधितुम् । ३-१५७
साँप, बाघ तथा चोर आदि भयंकर जीवों को मारने के लिये अकेले नहीं जाना चाहिये ।
कलहे न सहायः स्यात् । ३-१५८
किसीके लड़ाई-झगड़ेके बढ़ाने में मददगार नहीं होना चाहिये । जहाँ तक हो सके किसीके भी वैर-विरोध और लड़ाई-झगड़ेको शान्त करनेका ही प्रयत्न करना चाहिये ।
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