Ad Code

यजुर्वेद अध्याय 29 हिन्दी व्याख्या

 


॥ वेद ॥

॥ वेद ॥>॥ यजुर्वेद ॥>॥ अध्याय २९ ॥

समिद्धो अञ्जन् कृदरं मतीनां घृतमग्ने मधुमत्पिन्वमानः.

वाजी वहन् वाजिनं जातवेदो देवानां वक्षि प्रियमा सधस्थम्.. (१)

हे अग्नि ! आप समिधा को प्रज्वलित करें. आप मतिमान के हृदय के प्रिय भावों को भी देवों तक पहुंचाइए. आप मधुर घी का सेवन कीजिए. आप सर्वज्ञ हैं. आप हवि वहन कर के बलशाली देवता को उसे भेंट कीजिए. ( १ )

 

घृतेनाञ्जन्त्सं पथो देवयानान् प्रजानन् वाज्यप्येतु देवान्.

अनु त्वा सप्ते प्रदिशः सचन्ता स्वधामस्मै यजमानाय धेहि.. (२)

हे अग्नि ! आप देवताओं का पथ घी से अभिषिंचित व उन्हें हवि से आप्यायित (प्रसन्न ) कर दीजिए. आप सातों दिशाएं सींच दीजिए. आप यजमान के लिए स्वधा धारिए. (२)

 

ईड्यश्चासि वन्द्यश्च वाजिन्नाशुश्चासि मेध्यश्च सप्ते.

अग्निष्ट्वा देवैर्वसुभिः सजोषाः प्रीतं वह्निं वहतु जातवेदाः.. (३)

हे अग्नि ! आप सर्वज्ञ हैं. आप वसुओं से प्रेम रखते हैं. आप प्रीतिपूर्वक अग्नि को ले जाने व अन्न को पवित्र कीजिए. आप वंदनीय हैं. (३)

 

स्तीर्णं बर्हिः सुष्टरीमा जुषाणोरु पृथु प्रथमानं पृथिव्याम्.

देवेभिर्युक्तमदितिः सजोषाः स्योनं कृण्वाना सुविते दधातु .. (४)

देवताओं से युक्त अदिति देवी प्रसन्नता सहित सविता देव को धारण करें. अदिति देवी का कुश का आसन विस्तृत है. अदिति देवी सुखदायी हैं. अदिति देवी पृथ्वी पर अपनी विशालता से फैली हुई हैं. ( ४ )

 

एता उ वः सुभगा विश्वरूपा वि पक्षोभिः श्रयमाणा ऽ उदातैः.

ऋष्वाः सती: कवषः शुम्भमाना द्वारो देवी: सुप्रायणा भवन्तु .. ( ५ )

देवी के द्वार सौभाग्यदाता, बहुत स्वरूप व पंख के आकार वाले हैं. खोलते और बंद करते समय वे उदात्त ध्वनि करते हैं. ऋषि, सती और कवियों द्वारा खोले जाने पर जाने में सुकर हों. (५)

 

अन्तरा मित्रावरुणा चरन्ती मुखं यज्ञानामभि संविदाने.

उषासा वा सुहिरण्ये सुशिल्पे ऋतस्य योनाविह सादयामि .. (६)

रात्रि और उषा देवी! आप स्वर्णमयी, श्रेष्ठ शिल्पी व ऋत की योनि हैं. हम यहां आप को स्थापित करते हैं. आप मित्र देव और वरुण देव के बीच भ्रमण करती हैं. आप यज्ञ का मुख हैं. आप यज्ञ को ज्योतित ( प्रकाशित ) करने वाली हैं. (६)

 

प्रथमा वा ं सरथिना सुवर्णा देवौ पश्यन्तौ भुवनानि विश्वा.

अपिप्रयं चोदना वां मिमाना होतारा ज्योति: प्रदिशा दिशन्ता.. (७)

दोनों देव प्रथम वंदनीय, सारथी युक्त रथ वाले और श्रेष्ठ वर्ण वाले हैं. आप सभी भुवनों को देखते हुए जाते हैं. आप यजमानों को उन के प्रिय कामों के लिए प्रेरित करते हैं. आप दिशाओं और प्रदिशाओं को प्रकाशित करते हैं. (७)

 

आदित्यैन भारती वष्टु यज्ञ सरस्वती सह रुद्रैर्नऽ आवीत्.

इडोपहूता वसुभिः सजोषा यज्ञं नो देवीरमृतेषु धत्त.. (८)

आदित्य गणों के साथ भारती देवी व रुद्रगणों के साथ सरस्वती देवी हमारे यज्ञ की रक्षा करने की कृपा करें. वसुओं के साथ आमंत्रित इड़ा देवी यज्ञ की रक्षा करने व हमारे लिए अमृत धारने की कृपा करें. (८)

 

त्वष्टा वीरं देवकामं जजान त्वष्टुरर्वा जायत आशुरश्वः.

त्वष्टेदं विश्वं भुवनं जजान बहोः कर्तारमिह यक्षि होत .. ( ९ )

त्वष्टा देव ने देवों को चाहने वाली वीर संतान पैदा की. त्वष्टा देव ने शीघ्र जाने वाले अश्व पैदा किए. त्वष्टा देव ने सारा विश्व पैदा किया. त्वष्टा देव बहुरूपी जगत् के कर्ता हैं. होता यज्ञ करने की कृपा करें. (९)

 

अश्वो घृतेन त्मन्या समक्त उप देवाँ  ऋतुशः पाथ ऽ एतु. 

वनस्पतिर्देवलोकं प्रजानन्नग्निना हव्या स्वदितानि वक्षत् .. (१०)

हे वनस्पति देव! आप अग्नि की कृपा से घी से घोड़े को भलीभांति सींचिए. अन्नमय हवि को देवों और उपदेवों के पास पहुंचाने की कृपा कीजिए. आप हवि को अन्य देवों के पास पहुंचाने की कृपा कीजिए. ( १० )

 

प्रजापतेस्तपसा वावृधानः सद्यो जातो दधिषे यज्ञमग्ने.

स्वाहाकृतेन हविषा पुरोगा याहि साध्या हविरदन्तु देवा:.. (११)

हे अग्नि ! आप तुरंत उत्पन्न होते ही बढ़ोतरी को प्राप्त हो जाते हैं. आप यज्ञ को धारण कर लेते हैं. आप अग्रगामी हैं. स्वाहा कर के हवि समर्पित किए जाने पर आप उसे स्वीकार करते हैं. आप आगे चलिए. आप हमारा कार्य साधिए. आप की कृपा से देवगण शीघ्र हमारी हवि को स्वीकारने की कृपा करें. (११)

 

यदक्रन्दः प्रथमं जायमान ऽ उद्यन्त्समुद्रादुत वा पुरीषात्.

श्येनस्य पक्षा हरिणस्य बाहू उपस्तुत्यं महि जातं ते अर्वन्.. (१२)

हे मेघ देव! आप की गति बाज पक्षी की गति जैसी है. आप हिरण 'बाहु तरह चंचल हैं. आप सर्वप्रथम उत्पन्न हुए. उत्पन्न होते ही आप ने क्रंदन किया. आप समुद्र से उत्पन्न हुए. उत्पन्न होते ही आप स्तुत्य हो गए. आप की महिमा सर्वत्र व्याप्त हो गई. (१२)

 

यमेन दत्तं त्रित एनमायुनगिन्द्र ऽ एणं प्रथमो अध्यतिष्ठत्.

गन्धर्वो अस्य रशनामगृभ्णात् सूरादश्वं वसवो निरतष्ट.. (१३)

वायुदेव ने यम के द्वारा दिए गए घोड़े को रथ में जोता. इंद्र देव सब से पहले इस घोड़े पर बैठे. गंधर्व ने इस की लगाम ग्रहण की. वसुगणों ने इसे सूर्यमंडल से निकाला. (१३)

 

असि यमो अस्यादित्यो अर्वन्नसि त्रितो गुह्येन व्रतेन.

असि सोमेन समया विपृक्त ऽ आहुस्ते त्रीणि दिवि बन्धनानि.. (१४)

हे मेघ देव! गुप्त व्रत के कारण आप यम हैं. गुप्त व्रत के कारण आप आदित्य हैं. गुप्त व्रत के कारण आप तीनों लोकों में व्याप्त हैं. आप सोम के साथ एकमेक हैं. स्वर्गलोक में आप के तीन बंधन बताए गए हैं. (१४)

 

त्रीणि तऽ आहुर्दिवि बन्धनानि त्रीण्यप्सु त्रीण्यन्तः समुद्रे.

उतेव मे वरुणश्छन्त्स्यर्वन् यत्रा त ऽ आहुः परमं जनित्रम् .. (१५)

हे मेघ देव! स्वर्गलोक में तीन बंधन बताए गए हैं. तीन ही बंधन जल में बताए गए हैं. तीन ही बंधन समुद्र में बताए गए हैं. उतने ही बंधन अंतरिक्ष में बताए गए हैं. आप परम जनक हैं. हम वरुण रूप में आप की स्तुति करते हैं. (१५ )

 

इमा ते वाजिन्नवमार्जनानीमा शफाना सनितुर्निधाना.

अत्र ते भद्रा रशना ऽ अपश्यमृतस्य या ऽ अभिरक्षन्ति गोपा... (१६)

हे बलवान मेघ देव! आप जिनजिन को सींचते हैं, हम उनउन को देखते हैं. आप के खुरों के निशान हम ने देखे हैं. यहां आप की कल्याणकारी रस्सी है, जो वालों व अमरता की रक्षा करती है. (१६)

 

आत्मानं ते मनसारादजानामवो दिवा पतयन्तं पतङ्गम्.

शिरो अपश्यं पथिभिः सुगेभिररेणुभिर्जेहमानं पतत्रि.. (१७)

हम आप को मन से जानते हैं. स्वर्गलोक से नीचे की ओर गिरते हुए सूर्य को जानते हैं. आप जब पथ से जाते हैं, तब आप के सिरे नीचे की ओर आते हैं. हम उन सिरों को भी देखते हैं. आप सुगम हैं. ( १७ )

 

अत्रा ते रूपमुत्तममपश्यं जिगीषमाणमिष ऽ आ पदे गो:.

यदा ते मर्त्तो अनु भोगमानडादिद् ग्रसिष्ठ ऽ ओषधीरजीग:.. (१८)

हे हवि रूपी वायु ! हम यहां आप के यज्ञ करने की इच्छा वाले उत्तम रूप को देखते हैं. आप गो मंडल में जाते हैं. जब आप के लिए हवि का भोग लगाया जाता है तब आप उसे और ओषध रूप हवि को ग्रहण करने की कृपा कीजिए. ( १८ )

 

अनु त्वा रथो अनु मर्यो अर्वन्ननु गावोनु भगः कनीनाम्.

अनु व्रातासस्तव सख्यमीयुरनु देवा ममिरे वीर्यं ते.. (१९)

हे अर्बन देव! हमारे रथ आप का अनुकरण करते हैं. हम आप का अनुकरण करते हैं. हमारी गाएं व हमारी कन्याओं के भाग्य आप का अनुकरण करते हैं. हमारे व्रत आप का अनुकरण करते हैं. हम ने आप की मित्रता पाई. देवताओं ने आप के पराक्रम का वर्णन किया है. (१९)

 

हिरण्यशृङ्गोयो अस्य पादा मनोजवा ऽ अवरऽइन्द्र ऽ आसीत्.

देवा ऽ इदस्य हविरद्यमायन् यो अर्वन्तं प्रथमो अध्यतिष्ठत्.. (२०)

हे अर्वन! यह घोड़ा सोने के सींगों वाला है. इस के पैर लोहे के हैं. इस की गति मन जैसी तीव्र है. देवताओं ने इसे हवि के रूप में ग्रहण किया. इंद्र देव सब से पहले इस घोड़े पर बैठे हुए. (२०)

 

ईर्मान्तासः सिलिकमध्यमासः स शूरणासो दिव्यासो अत्याः.

हं सा ऽ इव श्रेणिशो यतन्ते यदाक्षिषुर्दिव्यमज्ममश्वाः.. (२१)

अश्व पतले मध्यभाग (कमर) वाले, बलवान, पुष्ट जांघों व वक्षस्थल वाले हैं. वे दिव्य और हंसों की तरह एक पांत में चलते हैं. ये घोड़े स्वर्ग में स्वर्गिक आनंद (दिव्यता ) पाते हैं. (२१)

 

तव शरीरं पतयिष्ण्वर्वन्तव चित्तं वात ऽ इव ध्रजीमान्.

तव शृङ्गाणि विष्ठिता पुरुत्रारण्येषु जर्भुराणा चरन्ति.. (२२)

हे अर्वन! आप का शरीर ऊपर की ओर जाने वाला है. चित्त वायु जैसा गतिशील है. आप की पताकाएं जंगलों में दावानल के रूप में विचर रही हैं. (२२)

 

उप प्रागाच्छसनं वाज्यर्वा देवद्रीचा मनसा दीध्यान:.

अजः पुरो नीयते नाभिरस्यानु पश्चात्कवयो यन्ति रेभा:.. (२३)

हे अर्वन! हवि गतिशील है. मन की तरह तेजी से ऊपर की ओर जाती है. इस का धुआं आगे की ओर ले जाया जाता है. नाभि इस का अनुकरण करती है. पीछेपीछे पाठ करते हुए कविगण चलते हैं. ( २३ )

 

उप प्रागात्परमं यत्सधस्थमव  अच्छा पितरं मातरं च.

अद्या देवाञ्जुष्टतमो हि गम्या ऽ अथा शास्ते दाशुषे वार्याणि.. (२४)

हे अर्वन! आप ऊपर परम स्थान की ओर गमन कीजिए. आप मातापिता से मिलिए. यजमान देवताओं से जुड़े देवगण हमें अपार वैभव प्रदान करने की कृपा करें. (२४)

 

समिद्धो अद्य मनुषो दुरोणे देवो देवान् यजसि जातवेदः.

आ च वह मित्रमहश्चिकित्वान्त्वं दूतः कविरसि प्रचेता:.. (२५)

अग्नि ! आप समिधा युक्त और सर्वज्ञ हैं. आप मनुष्यों के यज्ञ में देवताओं को आमंत्रित करने की कृपा कीजिए. हम आप का आह्वान करते हैं. आप हमारे मित्र, चेतनासंपन्न, कवि व देवताओं के दूत हैं. (२५)

 

तनूनपात्पथ ऽ ऋतस्य यानान्मध्वा समञ्जन्त्स्वदया सुजिह्व. 

मन्मानि धीभिरुत यज्ञमृन्धन् देवत्रा च कृणुह्यध्वरं नः.. (२६)

हे अग्नि ! आप तन के रक्षक हैं. आप ऋत को अच्छी जिह्वा से सींचते हैं. आप बुद्धि और मनन से यज्ञ की बढ़ोतरी करते हैं. आप हमारे यज्ञ को देवताओं तक पहुँचाने की कृपा कीजिए. (२६)

 

नराश सस्य महिमानमेषामुप स्तोषाम यजतस्य यज्ञैः .

ये सुक्रतवः शुचयो धियन्धाः स्वदन्ति देवा ऽ उभयानि हव्या.. (२७)

हे अग्नि ! आप प्रशंसित हैं. हम आप की महिमा गाते हैं. आप श्रेष्ठ यज्ञकर्म वाले, पवित्र, बुद्धिमान हैं. हम दोनों हवियों से आप का गुणगान करते हैं. (२७)

 

आजुह्वान ऽ ईड्यो वन्द्यश्चा याह्यग्ने वसुभिः सजोषाः.

त्वं देवानामसि यह्न होता स एनान्यक्षीषितो यजीयान्.. (२८)

हे अग्नि ! आप देवताओं को बुलाने वाले, प्रार्थनीय, वंदनीय व वसुओं जैसे स्नेहशील हैं. आप आइए. आप देवताओं के होता हैं. आप देवताओं के लिए यज्ञ करने की कृपा कीजिए. ( २८ )

 

प्राचीनं बर्हिः प्रदिशा पृथिव्या वस्तोरस्या वृज्यते अग्रे अह्नाम्.

व्यु प्रथते वितरं वरीयो देवेभ्यो अदितये स्योनम्.. (२९)

ये कुशाएं प्राचीन हैं. पृथ्वी की प्रदिशाओं में फैली हुई हैं. अदिति देवता के विराजमान होने के लिए इन कुशाओं को फैलाया ( बिछाया ) जाता है. कुशाएं बिछा कर सुख से बैठा जा सकता है. ( २९ )

 

व्यचस्वतीरुर्विया वि श्रयन्तां पतिभ्यो न जनयः शुम्भमानाः. 

देवीर्द्वारो बृहतीर्विश्वमिन्वा देवेभ्यो भवत सुप्रायणा:.. (३०)

जैसे स्त्रियां श्रृंगार कर के पति को थकान रहित करती हैं, वैसे ही दिव्य द्वार वाली विशाल देवियां देवताओं के लिए सुगमता से प्रयास करने वाली हों. (३० )

 

आ सुष्वयन्ती यजते उपा के उषासानक्ता सदतां नि योनौ .

दिव्ये योषणे बृहती सुरुक्मे अधि श्रिय  शुक्रपिशं दधाने.. (३१)

यज्ञ में उषा और रात्रि देवी भलीभांति सुशोभित होने की कृपा करें. दोनों देवियां दिव्य कार्य करने वाली, विशाल, आभूषणों से युक्त व कपिश रंग की हैं, वे भलीभांति अधिष्ठित होने की कृपा करें. (३१)

 

दैव्या होतारा प्रथमा सुवाचा मिमाना यज्ञं मनुषो यजध्यै.

प्रचोदयन्ता विदथेषु कारू प्राचीनं ज्योतिः प्रदिशा दिशन्ता.. (३२)

विराट् यज्ञ के दो दिव्य होता हैं. वे श्रेष्ठ वाणी बोलने वाले हैं. वे पूर्व दिशा से निकलने वाले सूर्य की किरणों से यज्ञ करते हैं. वे मनुष्यों को यज्ञ आदि श्रेष्ठ कर्म करने की प्रेरणा देते हैं. (३२)

 

आ नो यज्ञं भारती तूयमेत्विडा मनुष्वदिह चेतयन्ती.

तिस्रो देवीर्बर्हिरेद  स्योन सरस्वती स्वपसः सदन्तु.. (३३)

हमारे यज्ञ में भारती देवी, इड़ा देवी और सरस्वती देवी पधारने की कृपा करें. तीनों देवियां मनुष्यों को चेताने और कुश के आसन पर विराजने की कृपा करें. (३३)

 

इमे द्यावापृथिवी जनित्री रूपैरपि शद्भुवनानि विश्वा.

तमद्य होतरिषितो यजीयान् देवं त्वष्टारमिह यक्षि विद्वान्.. (३४)

हे यज्ञकर्ता विद्वान्! आज आप त्वष्टा देव की पूजा करें, जो स्वर्गलोक, पृथ्वीलोक आदि सभी लोकों की रचना करते हैं. (३४)

 

उपावसृज त्मन्या समञ्जन् देवानां पाथऽ ऋतुथा हवींषि . 

वनस्पतिः शमिता देवो अग्निः स्वदन्तु हव्यं मधुना घृतेन.. (३५)

हे यजमानो! आप देवताओं को पाथेय प्रदान कीजिए. आप देवताओं की आहुतियों को मधुर घी से सींचिए. वनस्पति देव, शमिता देव और अग्नि इन हवियों को ग्रहण करने की कृपा करें. (३५)

 

सद्यो जातो व्यमिमीत यज्ञमग्निर्देवानामभवत् पुरोगाः.

अस्य होतुः प्रदिश्यृतस्य वाचि स्वाहाकृतहविरदन्तु देवा:.. (३६)

हे अग्नि ! आप उत्पन्न होते ही देवताओं का नेतृत्व करते हैं. आप देवताओं का आह्वान करते हैं. आप पूर्व दिशा में ज्योति स्वरूप स्थित हैं. देवगण आप के मुख में स्वाहाकार रूप से समर्पित आहुति ग्रहण करते हैं. (३६)

 

केतुं कृण्वन्नकेतवे पेशो मर्या अपेशसे. 

समुषद्भिरजायथाः.. (३७)

हे अग्नि ! आप अज्ञानी को ज्ञानी बनाते हैं. आप अपरूप को सुंदर रूप प्रदान करते हैं. आप उषा देवी के साथ उत्पन्न होते हैं. ( ३७ )

 

जीमूतस्येव भवति प्रतीकं यद्वर्मी याति समदामुपस्थे.

अनाविद्धया तन्वा जय त्व स त्वा वर्मणो महिमा पिपर्तु .. (३८)

युद्ध के लिए जाते हुए कवचधारी बादल की भांति शोभित होते हैं. वीर घायल हुए बिना जीतें. वह आप की कवच की महिमा आप की रक्षा करने की कृपा करें. (३८)

 

धन्वना गा धन्वनाजिं जयेम धन्वना तीव्राः समदो जयेम.

धनुः शत्रोरपकामं कृणोति धन्वना सर्वाः प्रदिशो जयेम... (३९)

धनुष से हम गायों को जीतें. धनुष से हम सदा युद्ध व मार्ग जीतें. धनुष शत्रु का बुरा करने वाला हो. धनुष से हम सारी प्रदिशाओं को जीतें. ( ३९ )

 

वक्ष्यन्तीवेदा गनीगन्ति कर्णं प्रिय सखायं परिषस्वजाना.

योषेव शिङ्क्ते वितताधि धन्वञ्ज्या इय समने पारयन्ती.. (४०)

धनुष की प्रत्यंचा को योद्धा कान तक खींचता है. उस समय ऐसा लगता है, जैसे योद्धा उस का मित्र है. वह उस के कान में कुछ कहना चाहती है. वह प्रत्यंचा युद्ध में विजय दिलाने वाली है. वह प्रत्यंचा धनुष पर चढ़ कर अत्यंत आवाज करती है. बाण उसका मित्र है. वह उस से मिलती है. (४० )

 

ते आचरन्ती समनेव योषा मातेव पुत्रं बिभृतामुपस्थे.

अप शत्रून् विध्यता संविदाने आर्ली इमे विष्फुरन्ती अमित्रान्.. (४१)

जैसे मां बेटे को गोद में लेती है, वैसे ही प्रत्यंचा बाण को धारण करती है. यह प्रत्यंचा समान मन वाली स्त्री जैसा आचरण करती है. यह डोरी शत्रुओं का संहार करे. यह डोरी झनझनाती हुई अमित्रों का विनाश करने की कृपा करे. ( ४१ )

 

बह्वीनां पिता बहुरस्य पुत्रश्चिश्चा कृणोति समनावगत्य.

इषुधिः सङ्काः पृतनाश्च सर्वाः पृष्ठे निनद्धो जयति प्रसूतः.. (४२)

यह तरकस बहुतों का पिता है. बहुत से इस के पुत्र हैं. इस के संरक्षण में रहते हैं. तरकस पीठ पर बंधता है. यह सेना के सभी योद्धाओं पर विजय पाता है. (४२)

 

रथे तिष्ठन् नयति वाजिनः पुरो यत्र यत्र कामयते सुषारथिः .

अभीशूनां महिमानं पनायत मनः पश्चादनु यच्छन्ति रश्मयः.. (४३)

रथ पर बैठा हुआ अच्छा सारथी जहांजहां चाहता है, वहांवहां अश्वों को ले जाता है. लगाम की भी प्रशंसा की जानी चाहिए. वे घोड़ों के मन को अपने नियंत्रण में रखती हैं, जहां चाहती हैं, वही उन्हें ले कर जाती हैं. (४३)

 

तीव्रान् घोषान् कृण्वते वृषपाणयोश्वा रथेभिः सह वाजयन्तः.

अवक्रामन्तः प्रपदैरमित्रान् क्षिणन्ति शत्रू १ रनपव्ययन्त:.. (४४)

घोड़ों की लगाम जिन के हाथ में है, वे लोग तीव्र घोष करते हैं. घोड़े रथ के साथ जाते हैं. वे अपने पैरों से शत्रुओं को रौंदें. अश्व शत्रुओं का नाश करते हैं. (४४) 

 

रथवाहण हविरस्य नाम यत्रायुधं निहितमस्य वर्म.

तत्रा रथमुप शग्म सदेम विश्वाहा वय सुमनस्यमाना:.. (४५)

रथ वाहन इस का नाम है, जहां आयुध रखे हैं, जहां कवच रखे हैं, अच्छे मन वाले होते हुए हम सभी इस रथ में बैठें. (४५)

 

स्वादुषं सदः पितरो वयोधाः कृच्छ्रेश्रितः शक्तीवन्तो गभीरा:.

चित्रसेनाऽइषुबला ऽ अमृध्राः सतोवीरा ऽ उरवो व्रातसाहा:.. (४६)

हमारे रथ सदन में रहने वाले, पालक, आयुधारी, संरक्षी, सहनशील, शक्तिमान, गंभीर, अच्छी सेना से संपन्न व अतीव बलशाली हैं. वे संकल्पशील और शत्रुओं का मुकाबला करने वाले हैं. (४६)

 

ब्राह्मणासः पितरः सोम्यासः शिवे नो द्यावापृथिवी अनेहसा.

पूषा नः पातु दुरितादृतावृधो रक्षा माकिर्नो अघश १ स ईशत.. (४७)

ब्राह्मणगण, पितरगण, व सोमरस पीने वाले हमारी रक्षा करें. कल्याणकारी देव हमारी रक्षा करें. स्वर्गलोक और पृथ्वीलोक हमें पापों से रोकें. पूषा देव हमारी रक्षा करें, अवरोधों व पापों को हम से दूर करें. कोई पापी हम पर शासन न कर पाए. (४७)

 

सुपर्णं वस्ते मृगो अस्या दन्तो गोभिः सन्नद्धा पतति प्रसूता.

यत्रा नरः सं च वि च द्रवन्ति तत्रास्मभ्यमिषवः शर्म यसन्.. (४८)

बाण अच्छा पंख धारता है. इस के दांत शत्रुओं को ढूंढ़ लेते हैं. यह शत्रुओं पर गिरता है. जहां कहीं शत्रु जाते हैं, वहां यह शत्रुओं पर गिरता है. बाण हमारे लिए अहानिकर व कल्याणकारी हों. (४८ )

 

ऋजीते परि वृङ्धि नोश्मा भवतु नस्तनूः.

सोमो अधि ब्रवीतु नोदितिः शर्म यच्छतु .. (४९)

हे बाण! आप सरल रहिए. आप हम पर मत गिरिए. हमारे तन पत्थर की तरह सख्त हो जाएं. सोम देव हमारी ओर बोलें. अदिति देव हमें सुख देने की कृपा करें. (४९)

 

आ जङ्घन्ति सान्वेषां जघनाँ  उप जिघ्नते.

अश्वाजनि प्रचेतसोश्वान्त्समत्सु चोदय.. (५०)

हे अश्व प्रेरक ! चाबुक आप घोड़ों को आगे बढ़ने की प्रेरणा दें. चेते हुए मन वाले घुड़सवार घोड़ों के उभरे अंग पर चोट करते हैं. उन के पुट्ठों पर चाबुक चलाते हैं. चाबुक घोड़ों को प्रेरित करने वाले हों. (५०)

 

 

अहिरिव भोगैः पर्येति बाहुं ज्याया हेतिं परिबाधमानः.

स्तनो विश्वा वयुनानि विद्वान् पुमान् पुमा सं परि पातु विश्वतः .. (५१)

सांप की तरह बाहु से लिपटता है. प्रत्यंचा के प्रहार को हटाता है. विद्वान् वीर पुरुष सब की सब ओर से रक्षा करता है. वीर सभी शत्रुओं को मार कर रक्षा करता है. (५१ )

 

वनस्पते वीड्वङ्गो हि भूयाऽ अस्मत्सखा प्रतरणः सुवीर : .

गोभिः सन्नद्धो असि वीडयस्वास्थाता ते जयतु जेत्वानि.. (५२)

रथ वनस्पति ( लकड़ी) से बना हुआ है. रथ हमारा मित्र हो. सुवीर इस के द्वारा युद्ध में पार पाए. हम गायों से जुड़े रहें. हम वीरतापूर्वक स्थित रहें. वीर सभी को जीत सकें. (५२)

 

दिवः पृथिव्याः पर्योज उद्धृतं वनस्पतिभ्यः पर्याभृत  सह:.

अपामोज्मानं परि गोभिरावृतमिन्द्रस्य वज्रहविषा रथं यज.. (५३)

हे पुरोहितो! आप स्वर्ग और पृथ्वी के तेज को सर्वत्र फैलाइए. वनस्पति से उगे प्राप्त हुए तेज को सर्वत्र फैलाइए. जल के साथ प्राप्त हुए तेज को सर्वत्र फैलाइए. इंद्र के वज्र की तरह हम रथ को यज्ञीय कार्य में लगाएं. रथ सूर्य की किरणों के समान चमकता है. (५३)

 

इन्द्रस्य वज्रो मरुतामनीकं मित्रस्य गर्भो वरुणस्य नाभिः.

सेमां नो हव्यदातिं जुषाणो देव रथ प्रति हव्या गृभाय.. (५४)

हे रथ! आप दिव्य, इंद्र के वज्र जैसे व मरुतों की सैन्यशक्ति की भांति दृढ़ हैं. आप मित्र देव के गर्भ व वरुण देव की नाभि हैं. रथ में बैठे देवता हमारे द्वारा भेंट किए गए हवि को ग्रहण कर के तृप्त होने की कृपा करें. (५४)

 

उप श्वासय पृथिवीमु॒त द्यां पुरुत्रा ते मनुतां विष्ठितं जगत्. 

स दुन्दुभे सजूरिन्द्रेण देवैर्दूराद्दवीयो अप सेध शत्रून्.. (५५) 

हे दुंदुभि! आप पृथ्वी व स्वर्गलोक को गुंजाइए. आप को पूरा जगत् जान व मान सके. आप देवों व इंद्र देव से प्रेम रखते हैं. आप शत्रुओं को हम से दूर रखने की कृपा करें. (५५)

 

आ क्रन्दय बलमोजो न ऽ आधा निष्टनिहि दुरिता बाधमान:.

अप प्रोथ दुन्दुभे दुच्छुना ऽ इतऽ इन्द्रस्य मुष्टिरसि वीडयस्व.. (५६)

हे दुंदुभि ! आप की आवाज सुन कर ही शत्रु क्रंदन करने लगे. आप हमें तेजस्वी बनाइए. आप हमें पापों से दूर कीजिए. आप इंद्र देव की मुट्ठी जैसे मजबूत होइए. हमारी सेना के पास जो शत्रु आए. आप पूरी तरह उन का नाश कीजिए. (५६) 

 

आमूरज प्रत्यावर्तयेमाः केतुमद्दुन्दुभिर्वावदीति.

समश्वपर्णाश्चरन्ति नो नरोस्माकमिन्द्र रथिनो जयन्तु .. (५७)

हे इंद्र देव! हमारे रथों की विजय पताका फहराइए. हम दुंदुभि बजाते हुए लौटें. हमारे समर्पित योद्धा घोड़े घूमते हैं. हमारे रथी जीतें, हमारे लोग जीतें. (५७)

 

आग्नेयः कृष्णग्रीवः सारस्वती मेषी बभ्रुः सौम्यः पौष्णः श्यामः शितिपृष्ठो  बार्हस्पत्यः शिल्पो वैश्वदेव ऽ ऐन्द्रोरुणो मारुतः कल्माष ऽ ऐन्द्राग्नः सहितो  धोरामः सावित्रो वारुणः कृष्ण ऽ एकशितिपात्पेत्व:.. (५८)

काली गरदन वाला पशु अग्नि, मेषी सरस्वती देवी, भूरे रंग का पशु सोम से, श्याम रंग का पूषा देव से संबंधित है. काली पीठ वाला पशु बृहस्पति देव व शिल्प बहुत से देवों से लाल रंग का पशु इंद्र देव व चितकबरे पशु मरुद् देव, बलवान पशु इंद्र और अग्नि, नीचे सफेद रंग वाले सूर्य देव व एक पैर सफेद और शेष काले अंगों वाले वेगशील पशु वरुण देव से संबंधित हैं. (५८)

 

 

अग्नयेनीकवते रोहिताञ्जिरनड्वानधोरामौ सावित्री पौष्णौ रजतनाभी वैश्वदेवौ  पिशङ्गौ तूप मारुतः कल्माष आग्नेयः कृष्णोजः सारस्वती मेषी वारुण: पेत्व:.. (५९)

लाल चिह्न वाला वृषभ ज्वाला वाले अग्नि, नीचे स्थान से सफेद रंग वाले दो पशु सविता देव, चांदी जैसे रंग की नाभि वाले दो पशु पूषा देव, ऊपर पीले रंग के  सींग वाले दो पशु विश्व से व चितकबरा पशु मरुत् देव से संबंधित है. काला अज  अग्नि, मेषी सरस्वती व पतनशील पशु वरुण देव से संबंधित हैं. (५९ )

 

अग्नये गायत्राय त्रिवृते राथन्तरायाष्टकपाल ऽ इन्द्राय त्रैष्टुभाय पञ्चदशाय  बार्हतायैकादशकपालो विश्वेभ्यो देवेभ्यो जागतेभ्यः सप्तदशेभ्यो वैरूपेभ्यो  द्वादशकपालो मित्रावरुणाभ्यामानुष्टुभाभ्यामेकवि शाभ्यां वैराजाभ्यांपयस्या  बृहस्पतये पाङ्क्ताय त्रिणवाय शाक्वराय चरुः सवित्रऽऔष्णिहाय त्रयस्त्रि शाय  रैवताय द्वादशकपालः प्राजापत्यश्चरुरदित्यै विष्णुपत्नयै चरुरग्नये वैश्वानराय  द्वादशकपालोनुमत्या ऽ अष्टाकपाल:.. (६०)

गायत्री छंद अग्नि से संबंधित है. त्रिवृत और रथांतर साम से स्तुत है. अष्टाकपाल, पंचदेश, बृहत्साम वाली स्तुति व ग्यारह कपालों वाली हवि इंद्र देव के लिए है. जगती छंद और सत्रह स्तोत्र विश्वों से संबंधित हैं. वैरूप साम वाली स्तुति, बारह कपालों में सुसंस्कृत कर के रखी हुई हवि, अनुष्टुप् छंद वाली स्तुति मित्रावरुण व इक्कीस स्तोत्र वाली स्तुति मित्रावरुण के लिए है. वैरूप साम से मित्रावरुण देव स्तुत है. पंक्तिछंद बृहस्पति देव से संबंधित है. बृहस्पति देव त्रिणव से स्तुत हैं. बृहस्पति शाक्वर साम से स्तुत है. चरु बृहस्पति देव के लिए है. उष्णिक् छंद सविता देव से संबंधित है. सविता देव प्रायश्चित्त व रैवत साम से स्तुत है. बारह कपालों से परिष्कृत हवि सविता देव के लिए रखी है. चरु प्रजापति से संबंधित है. विष्णु की पत्नी और अदिति देव के लिए यज्ञ से संबंधित पदार्थ समर्पित है. वैश्वानर देव के लिए बारह कपालों में परिष्कृत हवि है. अग्नि के लिए बारह कपालों में परिष्कृत और अनुमति देव के लिए आठ कपालों में परिष्कृत हवि है. (६०)

Post a Comment

0 Comments

Ad Code