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यजुर्वेद अध्याय 34 हिन्दी व्याख्या

 


॥ वेद ॥

॥ वेद ॥>॥ यजुर्वेद ॥>॥ अध्याय ३४ ॥

यज्जाग्रतो दूरमुदैति दैवं तदु सुप्तस्य तथैवैति.

दूरङ्गमं ज्योतिषां ज्योतिरेकं तन्मे मनः शिवसंकल्पमस्तु.. (१)

मन जैसा दूर विचरता है वैसे जाग्रत अवस्था में ही सोते में भी दूर विचरता है. मन दूरगामी, प्रकाशमान, प्रकाश का प्रवर्तक व अकेला प्रकाशमान है. हमारा मन कल्याणकारी संकल्पों से युक्त हो. ( १ )

 

येन कर्माण्यपसो मनीषिणो यज्ञे कृण्वन्ति विदथेषु धीराः.

यदपूर्वं यक्षमन्तः प्रजानां तन्मे मनः शिवसंकल्पमस्तु .. (२)

मनीषीगण इसी मन से यज्ञ आदि कार्य संपन्न करते हैं. इसी मन से धीर लोग श्रेष्ठ कार्य में लगते हैं. मन अपूर्व व यजमानों में आदरणीय है. हमारा वह मन कल्याणकारी संकल्पों से युक्त हो जाए. (२)

 

यत्प्रज्ञानमुत चेतो धृतिश्च यज्ज्योतिरन्तरमृतं प्रजासु.

यस्मान्न ऽ ऋते किं चन कर्म क्रियते तन्मे मनः शिवसंकल्पमस्तु .. (३)

जो सभी प्राणियों में ज्ञानमय, चैतन्य, धैर्यमय व अमृतस्वरूप है, जिस के बिना कोई कार्य नहीं किया जाता है, हमारा वह मन कल्याणकारी संकल्पों से युक्त हो जाए. (३)

 

येनेदं भूतं भुवनं भविष्यत् परिगृहीतममृतेन सर्वम्.

येन यज्ञस्तायते सप्तहोता तन्मे मनः शिवसंकल्पमस्तु .. (४)

जिस अमर मन से सब कुछ जाना जाता है, जिस से भूतकाल, वर्तमानकाल और भविष्यकाल को ग्रहण किया जाता है, जिस से सात पुरोहित (होता) यज्ञ का विस्तार करते हैं, हमारा वह मन कल्याणकारी संकल्पों से युक्त हो जाए. ( ४ )

 

यस्मिन्नृचः साम यजूषि यस्मिन् प्रतिष्ठिता रथनाभाविवाराः. 

यस्मिंश्चित्तं सर्वमोतं प्रजानां तन्मे मनः शिवसंकल्पमस्तु.. (५)

जैसे रथ के पहिए में अरे होते हैं, वैसे ही जिस मन में ऋग्वेद, सामवेद और यजुर्वेद के मंत्र प्रतिष्ठित हैं, जिस मन में प्रजाओं के चित्त का ज्ञान ओतप्रोत है, हमारा वह मन कल्याणकारी संकल्पों से युक्त हो जाए. (५)

 

सुषारथिरश्वानिव यन्मनुष्यान्नेनीयते भीशुभिर्वाजिन ऽ इव.

हृत्प्रतिष्ठं यदजिरं जविष्ठं तन्मे मनः शिवसंकल्पमस्तु.. (६)

अच्छा सारथी घोड़ों को नियंत्रण में रखता है. निर्धारित स्थान पर ले जाता है. वैसे ही जो मनुष्यों को नियंत्रण में रखता है, उन्हें निर्धारित स्थान पर ले जाता है. जो हृदय में प्रतिष्ठित है, जो अजर है, जो गतिमान है, हमारा वह मन कल्याणकारी संकल्पों से युक्त हो जाए. ( ६ )

 

पितुं नु स्तोषं महो धर्माणं तविषीम्. 

यस्य त्रितो व्योजसा वृत्रं विपर्वमर्दयत्.. (७)

हम अपने पिता इंद्र देव की स्तुति करते हैं. वे महान् और बलवान हैं. उन्होंने वृत्रासुर को मर्दित कर दिया. उन्होंने तीनों लोकों में अपनी शक्ति को प्रतिष्ठित किया. (७)

 

अन्विदनुमते त्वं मन्यासै शं च नस्कृधि.

क्रत्वे दक्षाय नो हिनु प्र ण आयू षि तारिषः.. (८)

हे अनुमते! आप हमारी इच्छाओं का अनुमोदन व हमारा कल्याण करने की कृपा कीजिए. आप हमारे यज्ञ व हमारी आयु की बढ़ोतरी कीजिए. आप हमें तारिए. (८)

 

अनु नोद्यानुमतिर्यज्ञं देवेषु मन्यताम् अग्निश्च हव्यवाहनो भवतं दाशुषे मय:.. (९)

हे अनुमते! आज आप हमारे यज्ञ को देवताओं में मान्यता प्राप्त कराइए. हवि वहन करने वाले अग्नि हमारे प्रति दानशील होने की कृपा करें. (९ )

 

सिनीवालि पृथुष्टुके या देवानामसि स्वसा.

जुषस्व हव्यमाहुतं प्रजां देवि दिदिड्डि न.. (१०)

हे सिनीवाली देवी! आप देवताओं की बहन, बहुत केशों वाली व प्रजा का पालन करने वाली हैं. हम ने हवि ग्रहण करने के लिए आप को आमंत्रित किया है. आप हवि ग्रहण करने व हमें संतान प्रदान करने की कृपा करें. (१०)

 

पञ्च नद्यः सरस्वतीमपि यन्ति सस्रोतसः.

सरस्वती तु पञ्चधा सो देशेभवत्सरित्.. (११)

पांच नदियां एक जैसी स्रोत वाली सहित सरस्वती नदी में मिल जाती हैं. वही सरस्वती देश में पांच प्रकार से प्रसिद्ध हुईं. (११)

 

त्वमग्ने प्रथमो अङ्गिराऽ ऋषिर्देवो देवानामभवः शिवः सखा. 

तव व्रते कवयो विद्मनापसोजायन्त मरुतो भ्राजदृष्टयः.. (१२)

हे अग्नि ! आप प्रथम पूजनीय हैं. अंगिरा ऋषि ने आप को प्रकट किया है. आप देवों के देव हैं. आप हमारे लिए कल्याणकारी हों. आप के व्रत से मरुद्गण कवि और विद्वान् हुए हैं. आप हमारे लिए मित्र हों. आप के व्रत से मरुद्गण ज्ञाता हुए हैं. आप के व्रत से मरुद्गण सर्वद्रष्टा हुए हैं. आप के व्रत से मरुद्गण उत्तम आयुधों से युक्त हुए हैं. (१२)

 

त्वं नो अग्ने तव देव पायुभिर्मघोनो रक्ष तन्वश्च वन्द्य. 

त्राता तोकस्य तनये गवामस्यनिमेषरक्षमाणस्तव व्रते .. (१३)

हे अग्नि ! आप हमारे हैं. आप हमारी रक्षा करने व हमें धनवान बनाने की कृपा कीजिए. आप हमारे शरीर को पुष्ट बनाने की कृपा कीजिए. आप वंदनीय व रक्षक हैं. आप हमारी संतान की रक्षा करने की कृपा कीजिए. हमारी गायों की व लगातार हमारी रक्षा करने की कृपा कीजिए. (१३)

 

उत्तानायामव भरा चिकित्वान्त्सद्य: प्रवीता वृषणं जजान.

अरुषस्तूपो रुशदस्य पाज ऽ इडायास्पुत्रो वयुनेजनिष्ट.. (१४)

हे अग्नि! आप पृथ्वी से उत्पन्न हैं. ज्ञान पूर्ण कर्म से अग्नि का प्रादुर्भाव हुआ है. वे शीघ्र ही अरणि मंथन से प्रज्वलित होते हैं. वे तेजोमय व अद्भुत हैं. वे वायु से और अधिक प्रसार पाते हैं. (१४)

 

इडायास्त्वा पदे वयं नाभा पृथिव्या ऽ अधि.

जातवेदो निधीमह्यग्ने हव्याय वोढवे.. (१५)

हे अग्नि ! आप सर्वज्ञ हैं. हम पृथ्वी के मध्य नाभि में आप की स्थापना करते हैं. हम हवि रूप निधि आप को समर्पित करते हैं. आप उसे वहन करने की कृपा कीजिए. ( १५ )

 

प्र मन्महे शवसानाय शूषमाषं गिर्वणसे अङ्गिरस्वत्.

सुवृक्तिभि: स्तुवतऽ ऋग्मियायार्चामार्कं नरे विश्रुताय.. (१६)

इंद्र देव शक्ति की चाह रखते हैं. वे श्रेष्ठ वाणी वाले हैं. वे विद्वान् हैं. हम अंगिरा ऋषि की ही तरह उन की स्तुति करते हैं. अच्छी स्तुतियों से हम उन की स्तुति करते हैं. मनुष्यों के नेतृत्व के लिए प्रख्यात उन की ऋग्वेद के मंत्रों से अर्चना करते हैं. (१६)

 

प्र वो महे महि नमो भरध्वमाङ्गुष्य शवसानाय साम.

येना नः पूर्वे पितरः पदज्ञा अर्चन्तो अङ्गिरसोगाऽ अविन्दन्.. (१७)

हे यजमानो! आप महा महिमाशाली इंद्र देव को नमस्कार कीजिए. यजमानो ! आप महा महिमाशाली इंद्र देव की प्रसन्नता के लिए हवि भेंट कीजिए, जिस से हमारे पूर्वजों और पितरों ने अर्चना की. पद जान कर अंगिरस ऋषि की तरह मंत्र गाए और मार्ग दर्शन प्राप्त किया. ( १७ )

 

इच्छन्ति त्वा सोम्यासः सखायः सुन्वन्ति सोमं दधति प्रयासि. 

तितिक्षन्ते अभिशस्तिं जनानामिन्द्र त्वदा कश्चन हि प्रकेत:.. (१८)

हे इंद्र देव ! आप सोम जैसा सखाभाव चाहते हैं. आप सोमरस निचोड़ते हैं. आप सोमरस धारण करते हैं. सोम मनुष्यों का कठोर व्यवहार सहते हुए भी सोमरस प्रदान करते हैं. अन्न बल को धारते हैं. (१८)

 

न ते दूरे परमा चिद्रजा  स्या तु प्र याहि हरिवो हरिभ्याम् .

स्थिराय वृष्णे सवना कृतेमा युक्ता ग्रावाणः समिधाने अग्नौ .. (१९)

हे इंद्र देव ! आप के लिए परम (अतीव ) दूर स्थान भी दूर नहीं है. आप हरि नामक घोड़ों को जोतिए और हरि की ( घोड़े की ) तरह आने की कृपा कीजिए. हम आप से अपनी स्थिरता व बल की कामना करते हैं. प्रातः संध्या सवन में यज्ञ किया जा रहा है. यह पत्थर सोम निचोड़ने के लिए है. यह समिधा अग्नि प्रज्वलित करने के लिए है. (१९)

 

अषाढं युत्सु पृतनासु पनि १ स्वर्षामप्सां वृजनस्य गोपाम्.

भरेषुजा  सुक्षिति सुश्रवसं जयन्तं त्वामनु मदेम सोम.. (२०)

हे सोम! आप युद्धों में बहुत अधिक पराक्रम प्रदर्शित करते हैं. आप शत्रुजयी, सेना, गोपालक, बल रक्षक व उत्तम वास स्थान वाले हैं. आप विजेता, यशस्वी हैं. हे सोम! आप हमें आनंदित करते हैं. हम आप का अनुकरण करते हैं. ( २० )

 

 

सोमो धेन सोमो अर्वन्तमाशु सोमो वीरं कर्मण्यं ददाति.

सादन्यं विदथ्य सभेयं पितृश्रवणं यो ददाशदस्मै.. (२१)

सोम उन यजमानों को दुधारू गाएं प्रदान करते हैं, जो उन्हें आहुति प्रदान करते हैं. ऐसे यजमानों को वेगवान घोड़े प्रदान करते हैं. वे यजमानों को वीर पुत्र प्रदान करते हैं. सोम घरेलू पुत्र प्रदान करते हैं. वे कर्मशील पुत्र प्रदान करते हैं. वे पितृकर्म में दक्ष व आज्ञापालक पुत्र प्रदान करते हैं. ( २१ )

 

त्वमिमा ओषधीः सोम विश्वास्त्वमपो अजनयस्त्वं गाः. 

त्वमा ततन्थोर्वन्तरिक्षं त्वं ज्योतिषा वि तमो ववर्थ.. (२२)

हे सोम! आप इन सभी ओषधियों को उपजाते हैं. आप ने जल को उपजाया. आप ने गायों को उपजाया. आप ने अंतरिक्ष का विस्तार किया. आप ने संसार को ज्योतिष्मान बनाया. आप ने अंधकार दूर करने की कृपा की. (२२)

 

देवेन नो मनसा देव सोम रायो भाग १ सहसावन्नभि युध्य.

मा त्वा तनदीशिषे वीर्यस्योभयेभ्यः प्रचिकित्सा गविष्टौ .. (२३)

हे सोम ! आप दिव्य हैं. आप हमें मन से धन प्रदान कीजिए व सौभाग्यवान बनाइए. आप हमें युद्ध में जिताइए. आप को दान देने से कोई नहीं रोक सकता. आप अतीव बलशाली व अतीव अभययुक्त हैं. हे सोम! आप हमें दोनों लोकों (पृथ्वीलोक और स्वर्गलोक ) का सुख प्रदान कीजिए. ( २३ )

 

अष्टौ व्यख्यत् ककुभः पृथिव्यास्त्री धन्व योजना सप्त सिन्धून्. 

हिरण्याक्षः सविता देव ऽ आगाद्दधद्रत्ना दाशुषे वार्याणि.. (२४)

सविता देव आठों लोकों को व्याख्यायित व पृथ्वी को प्रकाशित करते हैं. वे सातों समुद्रों को व तीनों लोकों को प्रकाशित करते हैं. वे विभिन्न योजनाओं को प्रकाशित करते हैं. वे स्वर्णमयी आंखों वाले और यजमानों के लिए अगाध रत्न धारने वाले हैं. वे यजमानों को बहुत धन देने वाले हैं. (२४)

 

हिरण्यपाणिः सविता विचर्षणिरुभे द्यावापृथिवी अन्तरीयते.

अपामीवां बाधते वेति सूर्यमभि कृष्णेन रजसा द्यामृणोति.. (२५)

सविता देव सोने के हाथों वाले व विलक्षण हैं. वे स्वर्गलोक और पृथ्वीलोक दोनों लोकों के बीच सूर्य को प्रेरित करते हैं. वे रोगों व अंधकार को नष्ट करते हैं. सूर्य अपनी शोभा से दोनों लोकों को आलोकित करते हैं. (२५)

 

हिरण्यहस्तो असुरः सुनीथः सुमृडीकः स्ववां यात्वर्वाङ्.. 

अपसेधन् रक्षसो यातुधानानस्थाद्देव: प्रतिदोषं गुणान:.. (२६)

सूर्य सोने के हाथों (सुनहरे ) वाले हैं. वे प्राणदाता, कल्याणदाता, उत्तम सुखदाता व प्रकाशवान हैं. वे दोषहारक राक्षसों व दुष्टों के नाशक हैं. वे हमारे अनुकूल होने की कृपा करें. (२६)

 

ये ते पन्थाः सवितः पूर्व्यासोरेणवः सुकृता ऽ अन्तरिक्षे.

तेभिर्नो अद्य पथिभिः सुगेभी रक्षा च नो अधि च ब्रूहि देव.. (२७)

हे सविता देव! अंतरिक्षलोक में जो आप के धूल रहित उत्तम पथ हैं, आप की कृपा से हम उन पथों पर चलें. हम आप के उन पथों पर चलते हुए सौभाग्यशाली हों. हम आप के उन पथों पर सुरक्षापूर्वक चल सकें. आप उन पथों पर हमारे लिए संदेश कहने की कृपा करें. (२७)

 

उभा पिबतमश्विनोभा नः शर्म यच्छतम्. 

अविद्रियाभिरूतिभिः.. (२८)

हे दोनों अश्विनीकुमारो ! आप यज्ञ स्थल में पधारने व सोमपान की कृपा करें. आप हमें सुख प्रदान करने की कृपा करें. आप अपने रक्षा साधनों से हमारी रक्षा  कीजिए व सुख प्रदान कीजिए. ( २८ )

 

अप्नस्वतीमश्विना वाचमस्मे कृतं नो दस्स्रा वृषणा मनीषाम्. 

अद्यूत्येवसे नि ह्वये वां वृधे च नो भवतं वाजसातौ.. (२९)

हे अश्विनीकुमारो ! आप दर्शनीय व शक्तिमान हैं. आप हमारी वाणी को अच्छे कार्य में लगाइए. हे अश्विनीकुमारो ! आप हमारी मनीषा (बुद्धि) को अच्छे कार्य में लगाइए. ( २९ )

 

भिरक्तुभिः परि पातमस्मानरिष्टेभिरश्विना सौभगेभिः.

तन्नो मित्रो वरुणो मामहन्तामदिति: सिन्धुः पृथिवी उत द्यौ: ... (३०)

हे अश्विनीकुमारो ! आप आज ही अपने रक्षा साधनों सहित इस यज्ञ में पधारने व उस की बढ़ोतरी करने की कृपा कीजिए. आप द्वारा प्रदान किए गए धन की रक्षा में मित्र देव, वरुण देव, अदिति देव, सिंधु देव, पृथ्वीलोक हमारी सहायता करें. आप द्वारा प्रदान किए गए धन की रक्षा में स्वर्गलोक हमारी सहायता करें. (३०) 

 

आ कृष्णेन रजसा वर्त्तमानो निवेशयन्नमृतं मर्त्यं च.

हिरण्ययेन सविता रथेना देवो याति भुवनानि पश्यन्.. (३१)

सविता देव सुनहरे रथ पर सवार हो कर लोकों को देखते हुए प्रयाण करते हैं. वे पृथ्वी को अंधकार से मुक्त करते हैं, वे मनुष्य व देव आदि सभी को कर्म में व मनुष्य आदि सभी को प्रेरित करते हैं. (३१)

 

आ रात्रि पार्थिव रजः पितुरप्रायि धामभिः.

दिवः सदा सि बृहती वि तिष्ठस ऽ आ त्वेषं वर्त्तते तम:.. (३२)

रात्रि देवी पृथ्वीलोक को अंधकार से पूरा करती हैं. वे अंतरिक्षलोक को अंधकार से पूरा करती हैं और स्वर्ग को व्याप्त करती है. इस प्रकार रात्रि देवी सब को अंधकार से व्याप्त हैं. (३२)

 

उषस्तच्चित्रमा भरास्मभ्यं वाजिनीवति येन तोकं च तनयं च धामहे ... (३३)

उषा देवी अद्भुत हैं. वे हमारे लिए धनवती हों. वे अद्भुत धन हमारे लिए धारें. उस धन से हम अपनी संतान का उपयुक्त रीति से भरणपोषण कर सकें. (३३) 

 

प्रातरग्निं प्रातरिन्द्रहवामहे प्रातर्मित्रावरुणा प्रातरश्विना.

प्रातर्भगं पूषणं ब्रह्मणस्पतिं प्रातः सोममुत रुद्र हुवेम .. (३४)

हम प्रातःकाल अग्नि, इंद्र देव, मित्र देव, वरुण देव व अश्विनीकुमारों का आह्वान करते हैं. हम प्रातः काल वनस्पति देव, भग देव, पूषण और रुद्र देव का आह्वान करते हैं. (३४ )

 

प्रातर्जितं भगमुग्रं हुवेम वयं पुत्रमदितेर्यो विधर्त्ता.

आध्रश्चिद्यं मन्यमानस्तुरश्चिद्राजा चिद्यं भगं भक्षीत्याह...(३५)

हम प्रात:काल में अदिति देव का आह्वान करते हैं. वे विजेता, सौभाग्यवान, उग्र व संसार के धारक हैं. यह कहा गया है कि धनवान, गरीब, रोगी, राजा कोई भी हो वे अभीष्ट मनोकामना सिद्धि हेतु सूर्य की उपासना ( आराधना ) करते हैं. (३५) 

 

भग प्रणेतर्भग सत्यराधो भगेमां धियमुदवा ददन्नः

भग प्र नो जनय गोभिरश्वैभंग प्र नृभिर्नृवन्तः स्याम .. ( ३६ )

हे भग देव! आप हमारे पथ के प्रणेता हैं. हे भग देव! आप सत्य रूपी धन के प्रदाता हैं. हे भग देव! आप उन्नतिदायी बुद्धि के प्रदाता हैं. हे भग देव ! आप हमारे लिए गाएं उत्पन्न करें. हे भग देव! आप हमारे लिए घोड़े उत्पन्न करें. हे भग देव ! आप की कृपा से हम नेतृत्व करने वाली संतान वाले हो जाएं. ( ३६ )

 

उतेदानीं भगवन्तः स्यामोत प्रपित्वऽ उत मध्ये अह्नाम्.

उतोदिता मघवन्त्सूर्यस्य वयं देवाना सुमतौ स्याम.. (३७)

हम सूर्य की कृपा से सद्बुद्धि वाले व धनवान हो जाएं. हम उन की कृपा से सूर्योदय में धन प्राप्त करें. हम उन की कृपा से मध्याह्न और सूर्यास्त में धन संपन्न हों. ( ३७ ) 

 

भगव भगवाँ  अस्तु देवास्तेन वयं भगवन्तः स्याम.

तं त्वा भग सर्व ऽ इज्जोहवीति स नो भग पुर एता भवेह.. (३८)

हे भग देव! आप धनवान व भाग्यवान हैं, आप की कृपा से हम यजमान भी धनवान और भाग्यवान हो जाएं. यजमान भग देव का आह्वान करते हैं. आप हमारे यहाँ पधार कर हमारे यज्ञ और सभी इष्ट कार्यों को सफल बनाने की कृपा कीजिए. (३८)

 

समध्वरायोषसो नमन्त दधिक्रावेव शुचये पदाय.

अर्वाचीनं वसुविदं भगं नो रथमिवाश्वा वाजिन ऽ आ वहन्तु.. (३९)

हम उषाकाल में यज्ञ व नमन करते हैं. हम उषाकाल में पवित्र गतिविधियां संपन्न करते हैं. जैसे अश्ववान रथ गतिशील रहते हैं, वैसे ही भग देव हमें प्राचीन और श्रेष्ठ धन वाला बनाने की कृपा करें. ( ३९ )

 

अश्वावतीर्गोमतीर्नऽ उषासो वीरवती: सदमुच्छन्तु भद्राः

घृतं दुहाना विश्वतः प्रपीता यूयं पात स्वस्तिभिः सदा नः.. (४०)

जैसे अश्वमयी वीरवती व कल्याणी उषा देवी घी व दूध देती हैं, वैसे ही प्रभात वेला हमारा कल्याण करने की कृपा करें. हमारे लिए घी व दूध दुहें. अज्ञान अंधकारमय बाधाएं सब ओर से दूर करें. आप सभी देवगण सदैव हमारा कल्याण करने की कृपा करें. (४० )

 

पूषन् तव व्रते वयं न रिष्येम कदा चन. 

स्तोतारस्त ऽ इह स्मसि.. (४१)

हे पूषा देव! हम स्तोता आप के व्रत में लगें. हम कभी नष्ट न हों. हम यज्ञ में आप की स्तुति करते हैं तथा आप की चाह रखते हैं. (४१)

 

पथस्पथः परिपतिं वचस्या कामेन कृतो अभ्यानडर्कम्.

स नो रासच्छुरुधश्चन्द्राग्रा धियंधिय सीषधाति प्र पूषा.. (४२)

पूषा देव हमारे पथ प्रदर्शक हैं. मंत्र से कामना किए जाने पर वे राक्षसों का नाश करते हैं और शत्रुनाशक साधन प्रदान करते हैं. वे हमारी बुद्धि को श्रेष्ठ कार्यों में साधने की कृपा करें. (४२)

 

त्रीणि पदा विचक्रमे विष्णुर्गोपाऽ अदाभ्यः. 

अतो धर्माणि धारयन्.. (४३)

विष्णु ने अपने तीन पैरों में ही संपूर्ण विश्व को धारण कर लिया. वे उस सामर्थ्य से लोकों को धारते हुए विराजमान हैं. (४३)

 

तद्विप्रासो विपन्यवो जागृवा सः 

समिन्धते. विष्णोर्यत्परमं पदम्.. (४४)

जो ब्राह्मण जाग्रत हो कर यज्ञ विधान करते हुए जीवन यापन करते हैं, वे ब्राह्मण विष्णु देव के परम धाम को प्राप्त करते हैं. (४४ )

 

घृतवती भुवनानामभिश्रियोर्वी पृथ्वी मधुदुघे सुपेशसा.

द्यावापृथिवी वरुणस्य धर्मणा विष्कभिते अजरे भूरिरेतसा.. (४५)

स्वर्गलोक और पृथ्वीलोक वरुण देव की शक्ति से सुदृढ़ हुए हैं. स्वर्गलोक और पृथ्वीलोक श्रेष्ठ रूप वाले हैं और वृद्धावस्था रहित हैं. प्रभूत (अत्यंत ) सामर्थ्य का मूल स्रोत हैं. पृथ्वी घीमयी, लोकों का आश्रय स्थली, व्यापक व विशेष मधुर रसों के दोहन की सामर्थ्य रखती है. (४५ )

 

 

ये नः सपत्नाऽअप ते भवन्त्विन्द्राग्निभ्यामव बाधामहे तान्.

वसवो रुद्रा ऽ आदित्या ऽ उपरिस्पृशं मोग्रं चेत्तारमधिराजमक्रन्.. (४६)

जो हमारे शत्रु हैं, वे हार जाएं. हम उन शत्रुओं को इंद्र देव और अग्नि की क्षमता से बाधित करें. वसुगण हमारे चित्त को उग्र, पराक्रमी व अधिपति बनाने की कृपा करें. रुद्रगण और आदित्यगण हमारे चित्त को उग्र व पराक्रमी और अधिपति बनाने की कृपा करें. (४६ )

 

आ नासत्या त्रिभिरेकादशैरिह देवेभिर्यातं मधुपेयमश्विना.

प्रायुस्तारिष्टं नी रपां सि मृक्षत सेधतं द्वेषो भवत सचाभुवा.. (४७)

अश्विनीकुमार नाशरहित ( अविनाशी ) हैं. आप दोनों ग्यारह से तिगुने ( ११ × ३ = ३३ ) देवताओं सहित पधारिए, आप दोनों ग्यारह से तिगुने देवताओं सहित मधुर पेय पीजिए. आप हमारी रक्षा कीजिए और हमारी आयु बढ़ाइए. आप हमारे पापों व द्वेषियों का नाश कीजिए. आप हमारे सहायक ही रहिए. (४७)

 

एष व स्तोमो मरुत ऽ इयं गीर्मान्दार्यस्य मान्यस्य कारो:.

एषा यासीष्ट तन्वे वयां विद्यामेषं वृजनं जीरदानुम्.. (४८)

हे मरुद्गणो! ये स्तोत्र आप के लिए समर्पित हैं. ये वाणीमयी स्तुतियां आप को आनंदित करने की कृपा करें. ये स्तुतियां माननीय व श्रेष्ठ फलदायी है. आप पधारिए. हमें इष्ट सुख, विद्या, अन्न व आयु प्रदान कीजिए. ( ४८ )

 

सहस्तोमाः सहच्छन्दस ऽ आवृतः सहप्रमाऽ ऋषयः सप्त दैव्याः. 

पूर्वेषां पन्थामनुदृश्य धीरा ऽ अन्वालेभिरे रथ्यो न रश्मीन्.. (४९)

सात ऋषियों ने स्तुतियों के साथ, छंदों के साथ, प्रमाण के साथ दिव्य सृष्टि का प्रादुर्भाव किया. इन ऋषियों ने पूर्व ऋषियों का अनुसरण किया. इन धीर ऋषियों ने वैसे ही इष्ट गंतव्य तक पहुंचाया जैसे लगाम घोड़ों को अपने इष्ट गंतव्य तक पहुंचाती हैं. (४९ )

 

आयुष्यं वर्चस्यरायस्पोषमौद्भिदम्.

इदं हिरण्यं वर्चस्वज्जैत्रायाविशतादु माम्.. (५०)

यह स्वर्णमय धन आयु, वर्चस्व, धन व पुष्टिवर्द्धक है. यह स्वर्णमय धन भूमि से उत्पन्न है. यह स्वर्णमय धन वर्चस्वदायी है. यह स्वर्णमय धन तेजमय है. यह स्वर्णमय धन हमें विजयश्री दिलाने की कृपा करें. (५०)

 

न तद्रक्षा  सि न पिशाचास्तरन्ति देवानामोजः प्रथमज : ह्येतत्.

यो बिभर्ति दाक्षायण हिरण्य स देवेषु कृणुते दीर्घमायुः स मनुष्येषु कृणुते  दीर्घमायुः.. (५१)

इस स्वर्णमय धन को राक्षस हिंसित नहीं करते. इस स्वर्णमय धन को पिशाच भी हिंसित नहीं करते. यह स्वर्णमय प्रथम उत्पन्न देवताओं का ओज है, जो दक्षवंशीय ब्राह्मण इसे स्वर्णधन आभूषण के रूप में धारते हैं, उन्हें भी देवता मनुष्यों में दीर्घायु प्रदान करते हैं. (५१)

 

यदाबध्नन् दाक्षायणा हिरण्य शतानीकाय सुमनस्यमानाः.

तन्म ऽ आ बध्नामि शतशारदायायुष्माञ्जरदष्टिर्यथासम्.. (५२)

दक्षवंशीय ( दक्षवंश के ब्राह्मणों) ने अच्छे मन से जिस सोने के धागे को सैकड़ों सेना वाले राजा को बांधा उसे ही हम सौ वर्ष की आयु प्राप्त करने के लिए अपने शरीर पर बांधते हैं. हम वृद्ध व चिरायु हों. (५२)

 

उत नोहिर्बुध्न्यः शृणोत्वज ऽ एकपात्पृथिवी समुद्रः.

विश्वे देवाऽऋतावृधो हुवानाः स्तुता मन्त्राः कविशस्ता अवन्तु.. (५३)

अहिर्बुध्न्य, अज, एकपात, पृथ्वी, समुद्र व सभी देवता हमारी स्तुतियां सुनने की कृपा करें. ये सभी देव सच की बढ़ोतरी करने की कृपा करें. हम सभी देव का आह्वान करते हैं. हम सभी देव की स्तुति करते हैं. कवि यजमान के ये सभी देवगण रक्षक हों. (५३)

 

इमा गिरऽ आदित्येभ्यो घृतस्नूः सनाद्राजभ्यो जुह्वा जुहोमि.

शृणोतु मित्रो अर्यमा भगो नस्तुविजातो वरुणो दक्षो अंशः.. (५४)

हम यह वाणीमय व घीमय आहुति आदित्य गणों के लिए अर्पित करते हैं. हम बुद्धि के जुहू ( पलाश की लकड़ी से बना हुआ एक यज्ञपात्र ) से आहुति आदित्य गणों के लिए अर्पित करते हैं. आदित्य देव चिर प्रकाशक हैं. मित्र देव, अर्यमा देव, भगदेव, वरुण देव, दक्ष देव हमारी विशिष्ट स्तुति सुनने की कृपा करें. (५४) 

 

सप्त ऋषयः प्रतिहिताः शरीरे सप्त रक्षन्ति सदमप्रमादम्.

सप्तापः स्वपतो लोकमीयुस्तत्र जागृतो अस्वप्नजौ सत्रसदौ च देवौ.. (५५)

शरीर में विद्यमान सात प्राण सात ऋषि हैं. ये सातों ऋषि आलस्यरहित हो कर शरीर की रक्षा करते हैं. सोते हुए भी ये सातों लोक में जाग्रत आत्मा को प्राप्त होते हैं. इस स्थिति में भी ये निरंतर प्राणियों की रक्षा में लगे रहते हैं. (५५)

 

उत्तिष्ठ ब्रह्मणस्पते देवयन्तस्त्वेमहे.

उप प्र यन्तु मरुतः सुदानव इन्द्र प्राशूर्भवा सचा.. (५६)

हे ब्रह्मणस्पति! आप उठिए. हम देवत्व धारण करना व आप का आगमन चाहते हैं. हे मरुद्गण! आप अच्छे दानकर्ता हैं. आप हमारे समीप पधारने की कृपा कीजिए. हे इंद्र देव ! आप भी शीघ्र ही इन के साथ पधारने व हमारे साथ निवास करने की कृपा कीजिए. (५६ )

 

प्र नूनं ब्रह्मणस्पतिर्मन्त्रं वदत्युक्थ्यम्.

यस्मिन्निन्द्रो वरुणो मित्रो अर्यमा देवा ऽ ओका सि चक्रिरे.. (५७)

निश्चित रूप से ब्रह्मणस्पति विधिविधान के साथ उक्थों को (वैदिक मंत्रों को) उचारते हैं. इन मंत्रों में इंद्र देव, वरुण देव, मित्र देव, अर्यमा देव व अन्य देव वास करते हैं. (५७ )

 

ब्रह्मणस्पते त्वमस्य यन्ता सूक्तस्य बोधि तनयं च जिन्व.

विश्वं तद्भद्रं यदवन्ति देवा बृहद्वदेम विदथे सुवीराः.

यऽइमा विश्वा विश्वकर्मा यो नः पितान्नपतेन्नस्य नो देहि.. (५८)

हे देवगण! आप संसार के नियंत्रक हैं. आप भलीभांति हमारी आकांक्षा को जानते हैं. आप भलीभांति हमारी प्रार्थना को जानते हैं. आप हमें और हमारी संतानों को पोसते हैं. आप हमें सभी प्रकार के कल्याण उपलब्ध कराइए. आप की कृपा से हमारी संतान वीर व महिमावान हो. आप सब कार्यों के कर्ता, पालक व अन्नपति हैं. (५८)

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