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अथ सुभाषितसंग्रहः ॥ परिवार:

 


॥ अथ सुभाषितसंग्रहः ॥

परिवार:


ओ३म् सहृदयं सांमनस्यमविद्वेषं कृणोमि वः ।
अन्यो अन्यमभि हर्यत, वत्सं जातमिवाघ्न्या ।।

हे गृहस्थो ! मैं तुम्हारे जीवन में समान हृदयता, प्रसन्न-मनस्कता और विद्वेष का अभाव (अत्यन्त प्रीति) स्थापित करता हूँ। तुम परस्पर एक-दूसरे को वैसे ही चाहो जैसे गौ नवजात बछड़े को चाहती है ।

अनुव्रतः पितुः पुत्रो, मात्रा भवतु सम्मनाः ।
जाया पत्ये मधुमतीं, वाचं वदतु शन्तिवाम् ।।

    पुत्र पिता के समान शुभ कर्मों को करने वाला और माता के समान प्रसन्न मन वाला बने । पत्नी पति के प्रति मीठे और शान्तिदायक वचन बोले ।

मा भ्राता भ्रातरं द्विक्षन्, मा स्वसारमुत स्वसा ।
सम्यञ्चः सव्रता भूत्वा, वाचं वदत भद्रया ।।

    भाई भाई से द्वेष न करे और बहिन तहिन से द्वेष न करे। हे भाई बहिन आदि सदस्यो ! तुम सभी उत्तम प्रगति करने वाले तथा सत्कार करने वाले और समान गुणकर्म स्वभाव वाले होकर, माङ्गलिक रीति से शुभ वचन बोला करो ।

येन देवा न वियन्ति, नो च विद्विषते मिथः ।
तत् कृण्मो ब्रह्म वो गृहे, संज्ञानं पुरुषेभ्यः ।।

    हे पारिवारिक जनो ! जिस अन्न के सेवन से, जिस धन के उपार्जन से और जिस वेदज्ञान की प्राप्ति से दिव्य विद्वान् लोग एक दूसरे से मनमुटाव नहीं करते और आपस में द्वेष नहीं करते हैं; उसी प्रकार के अन्न, धन और उत्तम ज्ञान को हम लोग तुम्हारे परिवार में प्रतिष्ठित करते हैं ।

ज्यायस्वन्तश्चित्तिनो मा वि यौष्ट, सं राधयन्तः सधुराश्चरन्तः ।
अन्यो अन्यस्मै वल्गु वदन्त एत, सध्रीचीनान् वः संमनसस्कृणोमि ।।

    हे परिवारजनो ! आप लोग बुजुर्गों वाले तथा ज्ञान-सम्पन्न होकर उत्तम प्रयोजनों को सिद्ध करते हुए, परिवार की धुरा वहन करते हुए और प्रगति करते हुए आपस में एक दूसरे से कभी पृथक् मत होओ-मानसिक अलगाव मत रखो । एक दूसरे के प्रति सुन्दर (सत्य तथा मधुर) वाणी बोलते हुए एक दूसरे के पास आओ। मैं तुम्हें परस्पर का सहायक और ऐकमत्यवाला-सहमति वाला बनाता हूँ।

समानी प्रपा सह वोऽन्नभागः, समाने योक्त्रे सह वो युनज्मि ।
सम्यञ्चोऽग्निं सपर्यतारा नाभिमिवाभितः

    तुम्हारा जलपान आदि का स्थान समान हो, तुम्हारा भोजन आदि समान हो । मैं तुम्हें यान वाहन आदि के समान उपकरणों में (उनकी प्राप्ति में) प्रेरित करता हूँ। तुम लोग सम्यक् प्राप्ति वाले संगठित होकर हवनादि के द्वारा अग्नि का वैसे ही सेवन करो जैसे रथचक्र की नाभि में चारों ओर से अरे संगठित रहते हैं ।

सध्रीचीनान्वः संमनसस्कृणोम्येक श्नुष्टीन्त्संवननेन सर्वान् ।
देवा इवामृतं रक्षमाणाः सायं प्रातः सौमनसो वो अस्तु ।। (अथर्ववेदसंहिता - ३.३०.१-७)

    हे गृहस्थो ! मैं तुम्हारे शुभ-कर्म-सेवन रूपी माध्यम से तुम सबको एकसी पूजा वाला, उत्तम प्रसन्न मन वाला और एक ही ईश्वर को तत्परता से प्राप्त करने वाला बनाता हूँ। दिव्य विद्वानों के समान तुम मोक्षवृत्ति के रक्षक बनो । तुम लोगों में परस्पर सायं प्रातः सदा मानसिक श्रेष्ठ भाव बना रहे ।

सन्तुष्टो भार्यया भर्त्ता, भर्ना भार्या तथैव च ।
यस्मिन्नेव कुले नित्यं, कल्याणं तत्र वै ध्रुवम् ।। (मनुस्मृतिः - ३.६०)

    जिस परिवार में पत्नी से पति सन्तुष्ट रहता है और वैसे ही पति से पत्नी सन्तुष्ट रहती है, उस परिवार में निश्चय ही कल्याण का वास होता है ।

कुविवाह: क्रियालोपैर्वेदानध्ययनेन च ।
कुलान्यकुलतां यान्ति, ब्राह्मणातिक्रमेण च ।। (मनुस्मृतिः - ३.६३)

    अनमेल विवाहों से, यज्ञ तथा षोडश संस्कार रूपी उत्तम क्रियाओं के लोप हो जाने से, वेदों के स्वाध्याय न करने से और विद्वानों के उपदेशों के विपरीत चलने से परिवार दुष्ट परिवार बन जाते हैं - बिगड़ जाते हैं ।

शोचन्ति जामयो यत्र, विनश्यत्याशु तत्कुलम् ।
न शोचन्ति तु यत्रैता वर्धते तद्धि सर्वदा ।। (मनुस्मृतिः - ३.५७)
    जहाँ पत्नी, पुत्रवधू तथा बहिन आदि महिलाएँ शोकमग्न रहती हैं, वह परिवार शीघ्र विनष्ट हो जाता है । और जहाँ ये महिलाएँ शोक नहीं करतीं, वह परिवार सदा वृद्धि को प्राप्त होता है ।

न सर्वे भ्रातरस्तात भवन्ति भरतोपमाः ।
मद्विधा वा पितुः पुत्राः सुहृदो वा भवद्विधाः ।। (वाल्मीकिरामायणम् (युद्धकाण्डम्) -१८.१५)
    हे प्रिय सुग्रीव ! सभी भाई भरत जैसे नहीं होते तथा पिता के सभी पुत्र मुझ (राम) जैसे नहीं होते और सभी मित्र आप जैसे नहीं होते ।

मङ्गलाचारयुक्तानां, नित्यं च प्रयतात्मनाम् ।
जपतां जुह्वतां चैव, विनिपातो न विद्यते ।। (मनुस्मृतिः - ४.१४६)
    माङ्गलिक आचरण वाले, सदा अपने आपको वश में रखने वाले, जप करने वाले और नित्य हवन करने वाले गृहस्थ आदि मनुष्यों का पतन नहीं होता । अनिष्ट नहीं होता ।

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