॥ अथ सुभाषितसंग्रहः ॥
आहूताध्यायी गुरुकर्मस्वचोद्यः, पूर्वोत्थायी चरमं चोपशावी ।
मृदुर्दान्तो धृतिमानप्रमत्तः स्वाध्यायशीलः सिध्यति ब्रह्मचारी ।। (महाभा. आदि.९१.२)
गुरु के द्वारा बुलाये जाने पर अध्ययन में लग जाने वाला, गुरु के कार्यों में बिना प्रेरणा किये तत्पर रहने वाला, गुरु से पूर्व जागने वाला और पीछे सोने वाला, कोमल स्वभाव वाला, मन को वश में रखने वाला, धैर्यशाली, प्रमाद न करने वाला तथा नशा न करने वाला और स्वाध्याय में लीन रहने वाला ब्रह्मचारी (छात्र) ही अपने लक्ष्य में सफल होता है ।
ब्रह्मारम्भेऽवसाने च, पादौ ग्राह्यौ गुरोः सदा ।
संहत्य हस्तावध्येयं, स हि ब्रह्माञ्जलिः स्मृतः । (मनुस्मृतिः -२.७१)
विद्याभ्यास के आरम्भ में तथा समाप्ति पर सदा गुरु के चरणों का स्पर्श करना चाहिये। (केवल श्रवण करना हो तब) दोनों हाथ जोड़कर अध्ययन करना चाहिये । दोनों हाथों को जोड़कर रखना ही ब्रह्माञ्जलि कहलाता है ।
व्यत्यस्तषाणिना कार्यमुपसङ्ग्रहणं गुरोः ।
सव्येन सव्यः स्प्रष्टव्यो, दक्षिणेन च दक्षिणः ॥ (मनुस्मृतिः -२.७२)
गुरु के चरणों का स्पर्श करते समय (गुरु के समक्ष स्थित होने पर शिष्य के दोनों हाथों की जो स्थिति बने उससे) उलटी स्थिति वाले हाथों से चरण स्पर्श करना चाहिये अर्थात् शिष्य को अपने बायें हाथ से गुरु के बायें चरण का और दाहिने हाथ से गुरु के दाहिने चरण का स्पर्श करना चाहिये ।
य आतृणत्यवितथेन कर्णावदुःखं कुर्वन्त्रमृतं सम्प्रयच्छन् ।
तं मन्येत पितरं मातरं च, तस्मै न डुहोत् कतमच्चनाह ।। (निरु.२.४)
जो गुरु ज्ञान रूपी अमृत प्रदान करता हुआ बिना कष्ट पहुंचाये शिष्य के कानों को सत्यविद्या से परिपूर्ण कर देता है; उस गुरु को शिष्य पिता और माता के समान समझे और उसके प्रति किसी भी स्थिति में द्रोह न करे ।
वर्जयेन्मधु मांसं च, गन्धं माल्यं रसान् स्त्रियः ।
शुक्तानि यानि सर्वाणि, प्राणिनां चैव हिंसनम् ॥
अभ्यङ्गमञ्जनं चाक्ष्णोरुपानच्छत्र-धारणम् ।
कामं क्रोधं च लोभं च, नत्र्त्तनं गीतवादनम् ॥
द्यूतं च जनवादं च, परिवादं तथाऽनृतम् ।
स्त्रीणां च प्रेक्षणालम्भमुपघातं परस्य च ।। (मनुस्मृतिः - २.१७७-१७९)
ब्रह्मचारी (छात्र) निम्नलिखित वस्तुओं का परित्याग कर देवे-मद्या, मांस, गन्ध, माला, उत्तेजक रसीले पदार्थ, स्त्रीस, सम्पूर्ण अतिखट्टे पदार्थ, प्राणियों की हिंसा, तैलमालिश तथा उपस्थेोन्द्रिव का मर्दन, आँखों में अञ्जन, छाते और जूते का धारगण, काम, क्रोध, लोभ, नाचना, गाना-बजाना, कुआ, गप्पें लगाना तथा पराई चर्चा करते रहना, दूलों की निन्दा, झूठ, स्त्रियों को कुदृष्टि से देखना तथा स्पर्श करना और दूसरों का बुरा करना ।
एकः शयीत सर्वत्र, न रेतः स्कन्दयेत् क्वचित् ।
कामाद्धि स्कन्दयन् रेतो, हिनस्ति व्रतमात्मनः ।। (मनुस्मृतिः - २.१७७)
ब्रह्मचारी (छात्र) सर्वत्र अकेला ही सोवे, कहीं भी बीवी को न गिरावे । जान बूझकर कामनावश वीर्यपात करने वाला अपने व्रत को विनष्ट करता है ।
दूरादाहृत्य समिधः, सन्निदध्याद् विहायसि ।
सायं प्रातश्च जुहुयात्ताभिरग्निमतन्द्रितः ॥ (मनुस्मृतिः -२.१८६)
दूर (स्थित शुद्ध) स्थान से समिधाएँ लाकर उन्हें ऊँचे स्थान पर रखे और उनसे सांयकाल ताथा प्रातःकाल निरालस होकर हवन करे ।
चोदितो गुरुणा नित्यमप्रचोदित एव वा ।
कुर्यादध्ययने यत्नमाचार्यस्य हितेषु च ।। (मनुस्मृतिः -२.१९१)
गुरु के प्रेरणा करने पर और विना प्रेरणा किये भी शिष्य अध्ययन में तथा गुरु के हितसाधक कार्यों में प्रयत्न करता रहे ।
नौचः शय्यासनं चास्य, सर्वदा गुरुसत्रिधी ।
गुरोस्तु चक्षुर्विषये, न यथेष्टासनो भवेत् ।।
गुरु के समीप शिष्य का बिस्तर तथा बैठने का आसन सदा गुरु के बिस्तर तथा आसन से नीचा रहना चाहिये और शिष्य, गुरु की आँखों के सामने मनचाहे ढंग से न बैठे ।
नोदाहरेदस्य नाम, परोक्षमपि केवलम् ।
न चैवास्यानुकुर्वीत, गतिभाषितचेष्टितम् ।।
शिष्य, गुरु की अनुपस्थिति में भी उसका (बिना आदरसूचक विशेषण लगाये) केवल नाम का उच्चारण न करे और गुरु की चाल, बोली और चेष्टाओं की नकल न निकाले ।
गुरोयंत्र परीवादो, निन्दा वाऽपि प्रवर्त्तते ।
कर्णौ तत्र पिधातव्यौ, गन्तव्यं वा ततोऽन्यतः ।। (मनुस्मृतिः - २.१९८-२००)
जहाँ गुरु के किसी अवगुण का कथन हो रहा हो अथवा व्यर्थ की निन्दा हो रही हो वहाँ शिष्य को अपने कान ढक लेने चाहियें अथवा उस स्थान से दूर चले जाना चाहिये ।
यथा खनन् खनित्रेण, नरो वार्यधिगच्छति ।
तथा गुरुगतां विद्यां, शुश्रूषुरधिगच्छति ।। (मनुस्मृतिः -२.२१८)
जैसे मनुष्य कुद्दालादि से भूमि को खोदता-खोदता अन्त में जल को प्राप्त कर लेता है; वैसे ही श्रवण की लालसा वाला और सेवा करने वाला शिष्य गुरु में विद्यमान विद्या को प्राप्त कर लेता है ।
आलस्यं मदमोही च, चापलं गोष्ठिरेव च ।
स्तब्धता चाभिमानित्वं तथाऽत्यागित्वमेव च ॥ एते वा अष्ट दोषाः स्युः, सदा विद्यार्थिनां मताः ।।
आलस्य, नशा करना, मोह, चञ्चलता, गपशप करना, जड़ता, अभिमान और त्याग का अभाव (संग्रहवृत्ति एवं स्वार्थ-परायणता) ये आठ प्रकार के दोष प्रायः विद्यार्थियों के माने गये हैं ।
सुखार्थिनः कुतो, विद्या, नास्ति विद्यार्थिनः सुखम् ।
सुखार्थी वा त्यजेद् विद्यां, विद्यार्थी वा त्यजेत् सुखम् ।। (महाभारतम्, उद्योगपर्व - ४०.५,६)
(क्षणिक) सुख चाहने वाले को विद्या कैसे प्राप्त हो सकती है और विद्यार्थी (विद्या चाहने वाले) को क्षणिक सुख नहीं मिल सकता है । क्षणिक सुख की कामना वाला विद्या को त्याग दे अथवा विद्या की कामना वाला क्षणिक सुख को त्याग दे ।
काकचेष्टो बकध्यानी, बुक्कनिद्रस्तथैव च ।
अल्पाहारी गृहत्यागी, विद्यार्थी पञ्चलक्षणः ।।
कौए के समान चेष्टा वाला अर्थात् स्फूर्तिमान्, बगुले के समान ध्यान वाला (एकाग्रचित्त), कुत्ते के समान निद्रा वाला, कम भोजन करने वाला और घर (के मोह) को त्यागने वाला-इन पांच लक्षणों वाला विद्यार्थी होता है ।
इमां धियं शिक्षमाणस्य देव, क्रतुं दक्षं वरुण सं शिशाधि ।
ययाति विश्वा दुरिता तरेम सुतर्माणमधि नावं रुहेम ॥ (ऋग्वेदसंहिता -८.४२.३)
हे सतत ईक्षण करने वाले आचार्य ! आप इस विद्यार्थी-समूह की बुद्धि, कर्म-शक्ति और निपुणता को सम्पूर्ण और अनुशासनयुक्त बनाइये। जिससे हम लोग ज्ञान तथा अनुशासन रूपी नौका पर चढ़कर अज्ञान आदि दुर्गुणों तथा दुःखों को पार कर लें।
पुत्रादनन्तरं शिष्य इति धर्मविदो विदुः । महाभारतम् - विराटपर्व - ५०/२१ ।
शिष्य पुत्र से दूसरे दर्जे पर है ऐसा धर्म जानने वाले जानते हैं ।
सूर्योणाभ्युदितो यश्च ब्रह्मचारी भवत्युत ।
तथा सूर्याभिनिर्मुक्तः (स गर्हितः) । महाभारतम् - शान्तिपर्व -३४ ।३ ।
जिस ब्रह्मचारी के सोते हुए (शय्या त्यागने से पहले) सूर्य निकल आये और सो जाने के पीछे सूर्य छिपे वह गर्हित (निन्दित) होता है ॥
खादन्नेको जपन्नेको सर्पन्नेको युधिष्ठिर ।
एकस्मिन्नेव चाचार्ये शुश्रूषुर्मलपङ्कवान् ।। महाभारतम् - शान्तिपर्व - ६१ ॥ १८ ॥
ब्रह्मचारी अकेला (= एकान्त में) खाये, अकेला मन्त्र जप करे, अकेला ही सर के (झुक कर निःशब्द गति से चले), एक ही आचार्य की सेवा- शुश्रूषा करे और कुचैल को धारण करे ॥
कर्मातिशेषेण गुरावध्येतव्यं बुभूषता । महाभारतम् - शान्तिपर्व - २४२।१९।
बढ़ना चाहते हुए ब्रह्मचारी को गुरु की सेवा से बचे हुए समय में गुरु से पढ़ना चाहिये ।
नाभुक्तवति चाश्नीयादपीतवति नो पिबेत् ।
न तिष्ठति तथासीत नासुप्ते प्रस्वपेत च ।। महाभारतम् - शान्तिपर्व -२४२ । २१ ।।
(गुरु) जब तक न खाये, शिष्य न खाये, गुरु जब तक जल न पीये, स्वयम् भी जल न ग्रहण करे, जब गुरु खड़ा हो तब बैठे नहीं, और जब तक सो नहीं जाता तब तक न सोये ॥
यथा हि कनकं शुद्धं तापच्छेदनिकर्षणैः ।
परीक्षेत तथा शिष्यानीक्षेत कुलगुणादिभिः ॥महाभारतम् - शान्तिपर्व - ३२७।४६-४७ ।।
जैसे सोने की शुद्धि की परीक्षा तपाने, काटने तथा कसौटी पर रगड़ने से की जाती है वैसे ही शिष्य की योग्यता (पात्रता) की परीक्षा उसके कुल और गुणों (प्रज्ञा, मेधा, वृत्त, शील) को देख कर करे ।
॥ अथ सुभाषितसंग्रहः ॥
0 Comments
If you have any Misunderstanding Please let me know