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अथ सुभाषितसंग्रहः ॥ यज्ञः (अग्निहोत्रम्)

 


॥ अथ सुभाषितसंग्रहः ॥

यज्ञः (अग्निहोत्रम्)

ओ३म् ज्येष्ठयं च म आधिपत्यं च मे मन्युश्च मे भामश्च मेऽमश्च मे ऽम्भश्च मे जेमा च मे महिमा च मे वरिमा च मे प्रथिमा च मे वर्षिमा च मे द्राधिमा च मे वृद्धं च मे वृद्धिश्च मे यज्ञेन कल्पन्ताम् ।। (यजुर्वेदसंहिता -१८.४)
    यज्ञ (अग्निहोत्रादि) के द्वारा मेरे बड़प्पन, प्रभुत्व, मन्यु, तेज, ज्ञान, शान्ति, विजय, महत्त्व, विशालता, विस्तार, वृद्धि, दीर्घत्व, बढ़े हुए पदार्थ और विकास सिद्ध-सफल होवें ।

मनसे चेतसे धिय आकूतय उत चित्तये ।
मत्यै श्रुताय चक्षसे विधेम हविषा वयम् ।। (अथर्ववेदसंहिता - ६.४१.१)

    हम लोग मननशक्ति के लिये, चिन्तन-शक्ति के लिये, कर्मठता के लिये, सङ्कल्प - शक्ति के लिये, स्मृति के लिये, बुद्धि के लिये, शास्त्रज्ञान के लिये और दर्शन-शक्ति के लिये हविर्दान करें-अग्निहोत्र करें ।

सायंसायं गृहपतिर्नो अग्निः प्रातः प्रातः सौमनसस्य दाता ।
वसोर्वसोर्वसुदान एधि वयं त्वेन्धानास्तन्वं पुषेम ।।

    प्रत्येक सायंकाल आहुति दिया हुआ अग्नि प्रत्येक प्रात:काल तक मानसिक प्रसन्नता प्रदान करता है । ऐसा अग्नि प्रत्येक प्रकार के ऐश्वर्य से सम्बद्ध धन का प्रदाता होता है । हम अग्रिहोत्रीय अग्नि को सुप्रदीप्त करते हुए अपने शरीरों को पुष्ट करें ।

प्रातःप्रातगृहपतिनों अग्निः सायंसायं सौमनसस्य दाता ।
बसोर्वसोर्वसुदान एधीन्धानास्त्वा शतं हिमा ऋधेम ।। (अथर्ववेदसंहिता - १९.५५.३,४)

    प्रत्येक प्रातःकाल आहुति दिया हुआ अग्नि प्रत्येक सायंकाल तक मानसिक शान्ति प्रदान करता है । ऐसा अनि सर्व ऐश्वर्यों का दाता होता है । हम इस अग्नि को घृतादि से सुप्रदीप्त करते हुए, सौ वर्ष तक वृद्धि को प्राप्त होते रहें ।

नौर्ह वा एषा स्वर्या यदग्निहोत्रम् ।। (शप्त. २.३.३.१५)
    यह जो अग्रिहोत्र है, वह वस्तुतः स्वर्ग (अत्यन्त सुख) प्राप्त कराने वाली नौका के समान है ।

अन्नाद्भवन्ति भूतानि, पर्जन्यादन्नसम्भवः ।
यज्ञाद्भवति पर्जन्यो यज्ञः कर्मसमुद्भवः ।। (महाभा.भी. २७.१४)

    अन्न से प्राणियों का जीवन स्थिर रहता है, बादलों से अन्न की उत्पत्ति होती है । यज्ञ से बादल बनते हैं और यज्ञ पुरुषार्थ से किया जा सकता है ।

यज्ञशिष्टाशिनः सन्तो मुच्यन्ते सर्वकिल्विषैः ।
भुञ्जते ते त्वघं पापा ये पचन्त्यात्मकारणात् ।। (महाभा.भी. २७.१३)

    यज्ञ करने से बचे हुए शेष भोज्य पदार्थों को खाने वाले मनुष्य सब प्रकार के पापों से छूट जाते हैं । पर जो मनुष्य केवल अपने खाने मात्र के लिये ही भोजन पकाते हैं, वे तो केवल पाप का ही भक्षण करते हैं ।

अग्निहोत्रं च जुहुयादाद्यन्ते द्युनिशोः सदा ।
दर्शन चार्धमासान्ते, पौर्णमासेन चैव हि ।। (मनुस्मृतिः - ४.२५)

    मनुष्य प्रतिदिन दिन और रात्रि के आदि अन्त में अर्थात् प्रातःकाल और सायंकाल अग्निहोत्र करे। कृष्ण पक्ष के अन्तिम दिन (अमावस्या को) शास्त्रोक्त दर्शविधि से तथा शुक्ल पक्ष के अन्तिम दिन (पौर्णमासी को) पौर्णमासविधि से विशिष्ट हवन करे।

अग्नौ प्रास्ताहुतिः सम्यगादित्यमुपतिष्ठते ।
आदित्याज्जायते वृष्टिर्वृष्टेरन्नं ततः प्रजाः ।। (मनुस्मृतिः - ३.७६)

    विधिपूर्वक उत्तमरीति से अग्नि में डाली हुई आहुति सूर्य किरणों को प्राप्त होती है । ऐसी सूर्यकिरणों से उत्तम वृष्टि होती है, उत्तम वृष्टि से उत्तम अन्न और उत्तम अन्न से उत्तम सन्तान ।

हविराज्यं पुरोडाशः, कुशा यूपाश्च खादिराः ।
नैतानि यातयामानि, कुर्वन्ति पुनरध्वरे ।। (वाल्मीकिरामायणम् (अयोध्याकाण्डम्) -६१.१७)

    अध्वर (यज्ञ) में मोदक आदि हवि, घृत, भात आदि पुरोडाश, दर्भ और खैर आदि से निर्मित यज्ञस्तम्भ ये वस्तुएँ बासी पुरानी नहीं ली जाती हैं ।

यः समिधा य आहुती यो वेदेन ददाश मत्तों अम्नये । यो नमसा स्वध्वरः ।।
तस्येदर्वन्तो रंहयन्त आशवस्तस्य द्युम्नितमं यशः ।
न तमंहो देवकृतं कुतश्चन न मर्त्यकृतं नशत् ।। (ऋग्वेदसंहिता -८.१९.४,५)

    जो मनुष्य अग्नि को उत्तम यज्ञिय इन्धन से प्रदीप्त करके उसमें वेदमन्त्र के उच्चारण के साथ आहुति लगाता है । इस प्रकार जो श्रद्धापूर्वक उत्तम अन्न का होम करता हुआ उत्तम यज्ञ करने वाला बन जाता है, उसको शीघ्र वेगवाले वाहन वहन करते हैं, उसकी तेजपूर्ण कीर्ति फैलती है और उसको कहीं से भी न तो भौतिक पदार्थों से उत्पन्न कष्ट और न मनुष्यों के द्वारा दिये गये कष्ट प्राप्त होते हैं ।

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