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अथ सुभाषितसंग्रहः ॥ शिष्टाचार:

 


॥ अथ सुभाषितसंग्रहः ॥

शिष्टाचार:


शय्यासनेऽध्याचरिते, श्रेयसा न समाविशेत् ।
शय्यासनस्थश्चैवैनं, प्रत्युत्थायाभिवादयेत् ।। (मनुस्मृतिः - २.११९)

    अपने से बड़े के द्वारा प्रयोग में लाये जाते हुए बिस्तर और आसन पर छोटा न लेटे न बैठे । छोटा यदि बिस्तर या आसन पर बैठा हो और बड़ा आ जाय, तो उठकर उसको अभिवादन करे ।

अभिवादयेद् वृद्धांश्च, दद्याच्चैवाऽऽसनं स्वकम् ।
कृताञ्जलिरुपासीत, गच्छतः पृष्ठतोऽन्वियात् ।। (मनुस्मृतिः - ४.१५४)

    बड़ों को अभिवादन करे और उनके लिये अपना आसन प्रदान करे । हाथ जोड़ कर उनके पास उपस्थित रहे और यदि वे चलने लगें तो उनके पीछे-पीछे जावे ।

वित्तं बन्धुर्वयः कर्म, विद्या भवति पञ्चमी ।
एतानि मान्यस्थानानि, गरीयो यद्यदुत्तरम् ।। (मनुस्मृतिः -२.१३६)

    धन, बन्धु, आयु, कर्म और पांचवीं विद्या ये पांच पूज्यता के आधार हैं । इनमें से पहिले से बाद वाला अधिक अधिक श्रेष्ठ है ।

तृणानि भूमिरुदकं, वाक्चतुर्थी च सूनृता ।
एतानि तु सतां गेहे, नोच्छिद्यन्ते कदाचन ।। (महाभारतम्, उद्योगपर्व - ३६.३४)

    तृणनिर्मित आसन, स्थान, जल और चौथी सत्यमय प्रिय वाणी; ये चार वस्तुएँ तो सज्जनों के घरों में कभी भी अनुपलब्ध नहीं रहतीं ।

यो नोद्धतं कुरुते जातु वेषं, न पौरुषेणापि विकत्थतेऽन्यान् ।
न मूच्छितः कटुकान्याह किञ्चित् प्रियं सदा तं कुरुते जनो हि ।। (महाभारतम्, उद्योगपर्व - ३३.११६)

    जो मनुष्य कभी भी उद्दण्ड का सा वेष धारण नहीं करता, अन्यों के सामने अपने पराक्रम की डींगे नहीं मारता और क्रोध में बेसुध होकर किसी को कड़वे वचन नहीं कहता; उसे सब लोग अपना प्रिय बना लेते हैं ।

मितं भुङ्क्ते संविभज्याऽऽश्रितेभ्यो, मितं स्वपित्यमितं कर्म कृत्वा ।
ददात्यमित्रेष्वपि याचितः संस्तमात्मवन्तं प्रजहत्यनर्थाः ।। (महाभारतम्, उद्योगपर्व - ३३.१२३)

    जो अपने आश्रितों में पहिले बांटकर तब स्वयं उचित मात्रा में भोजन करता है, खूब कर्म करके तब अल्प मात्रा में शयन करता है और मांगने पर शत्रुओं को भी देता है; उस आत्मतत्त्वशील मनस्वी मनुष्य को सारे अनर्थ-आपत्तियाँ दूर से ही त्याग देती हैं ।

आक्रुश्यमानो नाक्रोशेन्मन्युरेव तितिक्षतः ।
आक्रोष्टारं निर्दहति, सुकृतं चास्य विन्दति ।। (महाभारतम्, उद्योगपर्व - ३६.५)

    दूसरे के द्वारा गाली देने पर भी उसे गाली न दे। सहन करने वाले का अप्रयुक्त क्रोध ही उस गाली देने वाले को जला डालता है और गाली दाता के पुण्य को भी हर लेता है ।

चक्रिणो दशमीस्थस्य, रोगिणो भारिणः स्त्रियाः ।
स्नातकस्य च राज्ञश्च, पन्था देयो वरस्य च ।। (मनुस्मृतिः - २.१३८)

    रथादि वाहन, नब्बे वर्ष से अधिक आयु वाले मनुष्य, रोगी, भार उठाये हुए, स्त्री, स्नातक, राजा और वर (विवाहार्थ जाता हुआ या लौटता हुआ) इन सबके लिये पहिले मार्ग देवे ।

ऋत्विक्पुरोहिताचार्यैर् मातुलातिथिसंश्रितः ।
बालवृद्धातुरेवैधैर् ज्ञातिसम्बन्धिबान्धवैः ।।
मातापितृभ्यां जामीभिर्धात्रा पुत्रेण भार्यया ।
दुहित्रा दासवर्गेण, विवादं न समाचरेत् ।। (मनुस्मृतिः - ४.१७९-१८०)

    ऋत्विक्, पुरोहित, आचार्य, मामा, अतिथि, आश्रित, बालक, वृद्ध, रोगी, वैद्य, ज्ञाति (चाचा आदि पितृपक्षीय), सम्बन्धी (साला तथा जंवाई आदि), बान्धव (नाना आदि मातृपक्षीय), माता, पिता, बहिन तथा पुत्रवधू, भाई, पुत्र, पत्नी, पुत्री और भृत्यवर्ग इन सबके साथ वादविवाद न करे ।

भई भद्रमिति ब्रूयाद, भद्रमित्येव वा वदेत् ।
शुष्कवैरं विवादं च, न कुर्यात् केनचित्सह ।। (मनुस्मृतिः -४.१३९)

    वार्तालाप के समय 'भद्रं भद्रं' (अच्छा, अच्छा) ऐसे दो बार 'भद्र' पद का प्रयोग करे, अथवा एक बार ही 'भद्रम्' (अच्छा है) पद का प्रयोग करे। किसी के साथ निष्प्रयोजन व्यर्थ की शत्रुता न बांधे और वाद-विवाद भी न करे ।

मङ्गलाचारयुक्तः स्यात्, प्रयतात्मा जितेन्द्रियः ।
जपेच्च जुहुयाच्चैव, नित्यमप्रिमतन्द्रितः ।। (मनुस्मृतिः - ४.१४५)

    माङ्गलिक आचरण करे, अपने को वश में रखता हुआ जितेन्द्रिय बने, जप करे और निरालस होकर नित्य अग्रिहोत्र करे ।

हीनाङ्गान्नतिरिक्ताङ्गान्, विद्याहीनान् वयोऽधिकान् ।
रूपद्रव्यविहीनांश्च, जातिहीनांश्च नाऽऽक्षिपेत् ।। (मनुस्मृतिः - ४.१४१)
    शारीरिक अनों में कमी वाले, अधिक अन्नों वाले, विद्याहीन, अधिक आयु वाले, कुरूप, दरिद्र और छोटी जाति वाले; इन को न चिढ़ावे न निन्दा करे ।

न विश्वसेदविश्वस्ते, विश्वस्ते नाऽतिविश्वसेत् ।
विश्वासाद् भयमुत्पन्नमपि मूलं निकृन्तति ।। (महाभा.शा. १३९.२९)

    अविश्वसनीय पर विश्वास न करें, विश्वसनीय पर भी अति विश्वास न करे । विश्वास किये हुए मनुष्य से उत्पन्न भय विश्वासकर्ता की जड़ को ही काट देता है ।

मात्रा स्वस्रा दुहित्रा वा, न विविक्तासनो भवेत्
बलवानिन्द्रियग्रामो, विद्वांसमपि कर्षति ।। (मनुस्मृतिः -२.२१५)

    माता, बहिन अथवा पुत्री के साथ एकान्त स्थान में एक ही आसन पर न बैठे । क्योंकि अतीव बलवान् इन्द्रियाँ ज्ञानवान् मनुष्य को भी कुपथ पर खींच ले जाती हैं ।

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