॥ अथ सुभाषितसंग्रहः ॥
सर्वेषामेव शापानां प्रतिघातो हि विद्यते ।
न तु मात्राभिशप्तानां मोक्षः क्वचन विद्यते । महाभारतम् - आदिपर्व - ३७ ।४।
सभी शापों का निवारण किया जा सकता है, पर माता से शप्त (शाप दिये) हुए पुत्रों को कहीं छुटकारा नहीं ।
नाति मातरमाश्रमः । महाभारतम् - शान्तिपर्व - १६१।९।
माता से बढ़कर कोई आश्रम नहीं ।
लभन्ते मातरो गर्भान्मासान् दश च बिभ्रति ।
यदि स्वस्ति प्रजायन्ते जाता जीवन्ति वा यदि ।।महाभारतम् - शान्तिपर्व - ७ ।१४ ॥
संभाविता जातबलास्ते दद्युर्यदि नः सुखम् ।
इह चामुत्र चैवेति....।। महाभारतम् - शान्तिपर्व - ७।१५-१६॥
भाग्य से माताएँ गर्भिणी होती हैं, दस मास पर्यन्त गर्भ को धारण करती हैं इस आशा से कि सुख पूर्वक प्रसव होने पर बच्चे चिरतक जीवें, विधिवत् पालन-पोषण होने पर बलवान् हों और हमें इस लोक और परलोक में सुख पहुंचाएँ ।
नास्ति मातृसमो गुरुः । महाभारतम् - अनुशासनपर्व - १०६ ।६५ ।
यं मातापितरौ क्लेशं, सहेते सम्भवे नृणाम् ।
न तस्य निष्कृतिः शक्या, कत्र्तुं वर्षशतैरपि ।। (मनुस्मृतिः - २.२२७)
सन्तानों को जन्म देने और उनके पालन करने में, माता पिता जितना कष्ट सहन करते हैं, उसका बदला सैंकड़ों वर्षों में भी नहीं चुकाया जा सकता ।
आस्तां तावदियं प्रसूतिसमये दुर्वारशूलव्यथा, नैरुच्ये तनुशोषणं मलमयी शय्या च सांवत्सरी ।
एकस्यापि न कष्टभारभरण-क्लेशस्य यस्याः क्षमो दातुं निष्कृतिमुन्नतोऽपि तनयस्तस्यै जनन्यै नमः ॥
(अहा ! माता के कितने उपकार हैं - ) प्रसव के समय माता को जो दुर्वारणीय वेदनाभरी पीड़ा होती है, उसके वर्णन को तो रहने ही दो। गर्भावस्था में बहुत समय तक जब माता को खाने पीने में अरुचि हो जाती है, तब उसका शरीर सूख जाता है (क्योंकि गर्भ तो तब भी मातृशरीर से पोषण लेता ही रहता है) सन्तान को जन्म देने के बाद (कम से कम) एक वर्ष तक तो बालक के मलमूत्र से युक्त शय्या पर भी माता को सोना पड़ता है । सन्तान कितना भी बड़ा हो जाय, किन्तु जिस माता के (द्वारा झेले गये) भारी कष्टों की पीड़ाओं में से एक का भी बदला वह नहीं चुका सकता, उस माता को प्रणाम है ।
अतोषयन् महाराजमकुर्वन् वा पितुर्वचः ।
मुहूर्तमपि नेच्छेयं, जीवितुं कुपिते नृपे ।।
मेरे पिता महाराज (दशरथ) को बिना सन्तुष्ट किये और उनकी आज्ञा का बिना पालन किये तथा उनके क्रुद्ध रहते, मैं (राम) एक मुहूर्त भी जीवित रहना नहीं चाह सकता ।
यतो मूलं नरः पश्येत्, प्रादुर्भावमिहात्मनः ।
कथं तस्मिन्न वर्तेत, प्रत्यक्षे सति दैवते ।। (वाल्मी. अयो. १८.१५,१६)
मनुष्य जिसको अपने जन्म का मूल कारण समझे उस (पिता-माता रूपी) प्रत्यक्ष देवता के प्रति उत्तम व्यवहार क्यों न करे ।
अहं हि वचनाद्राज्ञः पतेयमपि पावके ।
भक्षयेयं विषं तीक्ष्णं पतेयमपि चार्णवे ।
नियुक्तो गुरुणा पित्रा नृपेण च हितेन च ।। (वाल्मी. अयो. १८.२८,२९)
मैं (राम) राजा (दशरथ) की आज्ञा से अर्थात् अपने गौरवशाली तथा हितैषी पिता (दशरथ) द्वारा आज्ञा दिये जाने पर; अग्नि में कूद सकता हूँ, तीखा जहर खा सकता हूँ और समुद्र में भी कूद सकता हूँ।
न हातो धर्मचरणं, किञ्चिदस्ति महत्तरम् ।
यथा पितरि शुश्रूषा, तस्य च वचन क्रिया ।। (वाल्मी अयो. १९.२२)
इससे बढ़कर बड़ा अन्य कोई धर्माचरण नहीं है, जैसा कि पिता-माता की सेवा करना और उनकी आज्ञा का पालन करना ।
॥ अथ सुभाषितसंग्रहः ॥
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