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अथ सुभाषितसंग्रहः ॥ सन्ध्या, जपः

 


॥ अथ सुभाषितसंग्रहः ॥

सन्ध्या, जपः

ओ३म् वार्त्रहत्याय शवसे पृतनाषाह्याय च ।
इन्द्र त्वाऽऽवर्त्तयामसि ।। (यजुर्वेदसंहिता -१८.६८)

    हे दुर्गुणों दुःखों के नाशक परमेश्वर ! काम क्रोधादि के नाश करने वाले और सांसारिक नाना आकर्षण रूपी सेनाओं का प्रतिरोध करने वाले बल की प्राप्ति के लिये, हम तुझे बारम्बार अपने ध्यान में लाते हैं - बारम्बार तेरा जप करते हैं ।

वायुरनिलममृतमथेदं भस्मान्तं शरीरम् ।
ओ३म् क्रतो स्मर । क्लिबे स्मर । कृतं स्मर ।। (यजुर्वेदसंहिता - ४०.१५)

    देहदेहान्तर में गतिशील आत्मा अभौतिक है-अमरणधर्मा है जबकि यह भौतिक देह अन्त में भस्म रूप में परिणत होने वाला है । हे कर्मशील जीवात्मन् ? तू ओ३म् (सर्वरक्षक ईश्वर) को स्मरण कर-उसका जप कर, सामर्थ्य की प्राप्ति के लिये उसे स्मरण कर और अपने कर्मों को स्मरण कर-उनका निरीक्षण कर ।

ऋषयो दीर्घसन्ध्यत्वाद्, दीर्घमायुरवाप्नुवन् ।
प्रज्ञां यशश्च कीर्त्तिच, ब्रह्मवर्चसमेव च ।। (मनुस्मृतिः - ४.९४)

    ऋषियों ने लम्बे-लम्बे समय तक सन्ध्या करके दीर्घ आयु, बुद्धि, यश, प्रसिद्धि और ब्रह्मतेज को प्राप्त किया था ।

पूर्वी सन्ध्यां जपंस्तिष्ठेत्, सावित्रीमाऽर्कदर्शनात् ।
पश्चिमां तु समासीनः, सम्यगृक्षविभावनात् ।।

    मनुष्य प्रतिदिन प्रातःकालीन सन्ध्यावेला में सूर्योदय तक सावित्री (गायत्री) जप करता रहे । और सायंकालीन सन्ध्याकाल में भली प्रकार तारों के दिखने तक सावित्री-जप करता रहे ।

पूर्वी सन्ध्यां जपंस्तिष्ठन्नैशमेनो व्यपोहति ।
पश्चिमां तु समासीनो मलं हन्ति दिवाकृतम् ।। (मनुस्मृतिः - २.१०१,१०२)

    प्रात:कालीन सन्ध्याकाल में जप करता हुआ मनुष्य रात्रि में किये गये पापों को पुनः न करने का सामर्थ्य जुटाता है और सायं सन्ध्यावेला में जप करता हुआ दिन में किये गये दुष्कर्मों से निवृत्त होने का बल प्राप्त करता है ।

अपां समीपे नियतो, नैत्यकं विधिमास्थितः ।
सावित्रीमप्यधीयीत, गत्वाऽरण्यं समाहितः ।। (मनुस्मृतिः - २.१०४)

    मनुष्य प्रतिदिन वन में जाकर, नदी सरोवर आदि के तट पर बैठ कर, दैनिक नित्यकर्तव्य प्राणायामादि करके सावित्री मन्त्र का अर्थ-चिन्तन-पूर्वक जप करे ।

आचम्य प्रयतो नित्यमुभे सन्ध्ये समाहितः ।
शुची देशे जपञ्जप्यमुपासीत यथाविधि ।। (मनुस्मृतिः - ४.२२२)

    मनुष्य प्रतिदिन दोनों सन्ध्यावेलाओं में शुद्ध स्थान पर बैठकर, आचमन करके एकाग्र होकर विधिपूर्वक, प्रणव (ओ३म्) का अर्थ-चिन्तनपूर्वक जप करता हुआ ईश्वरोपासना करे ।

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