श्रवण और कालु किसान
एक समय एक गांव में श्रवण नामक एक मालदार
किसान रहता था। उसके तीन पुत्र थे, सब युवक और
काम करने में चतुर थे। सबसे बड़ा ब्याहा हुआ था, मंझला ब्याहने को था, छोटा क्वांरा था। श्रवण की स्त्री और बहू चतुर और सुशील
थीं। घर के सभी प्राणी अपना-अपना काम करते थे, केवल श्रवण का बूढ़ा बाप दमे के रोग से पीड़ित होने के कारण
कुछ काम-काज न करता था। सात बरसों से वह केवल खाट पर पड़ा रहता था। श्रवण के पास
तीन बैल, एक गाय, एक बछड़ा, पंद्रह भेड़ें
थीं। स्त्रियां खेती के काम में सहायता करती थीं। अनाज बहुत पैदा हो जाता था। श्रवण
और उसके बाल-बच्चे बड़े आराम से रहते; अगर पड़ोसी कमला के लंगड़े पुत्र कालु के साथ इनका एक ऐसा झगड़ा न छिड़ गया
होता जिससे सुखचैन जाता रहा था।
जब तक बूढ़ा कमला जीता रहा और श्रवण का
पिता घर का प्रबंध करता रहा, कोई झगड़ा
नहीं हुआ। वह बड़े प्रेमभाव से, जैसा कि
पड़ोसियों में होना चाहिए, एक-दूसरे की
सहायता करते रहे। लड़कों का घरों को संभालना था कि सबकुछ बदल गया।
अब सुनिए कि झगड़ा किस बात पर छिड़ा। श्रवण
की बहू ने कुछ मुर्गियां पाल रखी थीं। एक मुर्गी नित्य पशु-शाला में जाकर अंडा
दिया करती थी। बहू शाम को वहां जाती और अंडा उठा लाती। एक दिन दैव गति से वह
मुर्गी बालकों से डरकर पड़ोसी के आंगन में चली गयी और वहां अंडा दे आई। शाम को बहू
ने पशु-शाला में जाकर देखा तो अंडा वहां न था। सास से पूछा, उसे क्या मालूम था। देवर बोला कि मुर्गी पड़ोसिन के आंगन
में कुड़-कुड़ा रही थी, शायद वहां
अंडा दे आयी हो।
बहू वहां पहुंचकर अंडा खोजने लगी। भीतर से कालु
की माता निकल कर पूछने लगी - बहू, क्या है?
बहू - मेरी मुर्गी तुम्हारे आंगन में अंडा दे
गई है, उसे खोजती हूं। तुमने देखा हो तो
बता दो।
कालु की मां ने कहा - मैंने नहीं देखा। क्या
हमारी मुर्गियां अंडे नहीं देतीं कि हम तुम्हारे अंडे बटोरती फिरेंगी। दूसरों के
घर जाकर अंडे खोजने की हमारी आदत नहीं।
यह सुनकर बहू आग हो गई, लगी बकने। कालु की मां कुछ कम न थी, एक-एक बात के सौसौ उत्तर दिये। श्रवण की स्त्री पानी लाने
बाहर निकली थी। गाली-गलौच का शोर सुन कर वह भी आ पहुंची। उधर से कालु की स्त्री भी
दौड़ पड़ी। अब सबकी-सब इकट्ठी होकर लगीं गालियां बकने और लड़ने। कालु खेत से आ रहा
था, वह भी आकर मिल गया। इतने में श्रवण भी
आ पहुंचा। पूरा महाभारत हो गया। अब दोनों गुंथ गए। श्रवण ने कालु की दाढ़ी के बाल
उखाड़ डाले। गांव वालों ने आकर बड़ी मुश्किल से उन्हें छुड़ाया। पर कालु ने अपनी
दाढ़ी के बाल उखाड़ लिये और कालु परगना के इजलास में जाकर कहा - मैंने दाढ़ी इसलिए
नहीं रखी थी जो यों उखाड़ी जाये। श्रवण से हरजाना लिया जाए। पर श्रवण के बू़ढ़े
पिता ने उसे समझाया - बेटा, ऐसी तुच्छ बात
पर लड़ाई करना मूर्खता नहीं तो क्या है? जरा विचार तो करो, सारा बखेड़ा सिर्फ एक अंडे से फैला है। कौन जाने शायद किसी
बालक ने उठा लिया हो, और फिर अंडा था कितने
का? परमात्मा सबका पालन-पोषण करता है।
पड़ोसी यदि गाली दे भी दे, तो क्या गाली
के बदले गाली देकर अपनी आत्मा को मलिन करना उचित है? कभी नहीं, खैर! अब तो जो
होना था, वह हो ही गया, उसे मिटाना उचित है, बढ़ाना ठीक नहीं। क्रोध पाप का मूल है। याद रखो, लड़ाई बढ़ाने से तुम्हारी ही हानि होगी।
परन्तु बूढ़े की बात पर किसी ने कान न धरा।
श्रवण कहने लगा कि कालु को धन का घमंड है, मैं क्या किसी का दिया खाता हूं? बड़े घर न भेज दिया तो कहना। उसने भी नालिश ठोंक दी।
यह मुकदमा चल ही रहा था कि कालु की गाड़ी
की एक कील खो गई। उसके परिवार वालों ने श्रवण के बड़े लड़के पर चोरी की नालिश कर
दी।
अब कोई दिन ऐसा न जाता था कि लड़ाई न हो।
बड़ों को देखकर बालक भी आपस में लड़ने लगे। जब कभी वस्त्र धोने के लिए स्त्रियां
नदी पर इकट्ठी होती थीं, तो सिवाय
लड़ाई के कुछ काम न करती थीं।
हले-पहल तो गाली-गलौज पर ही बस हो जाती थी, पर अब वे एक-दूसरे का माल चुराने लगे। जीना दुर्लभ हो गया।
न्याय चुकाते-चुकाते वहां के कर्मचारी थक गए। कभी कालु कभी श्रवण को कैद करा देता, कभी वह उसको बंदीखाने भिजवा देता। कुत्तों की भांति जितना
ही लड़ते थे, उतना ही क्रोध बढ़ता था। छह वर्ष
तक यही हाल रहा। बूढ़े ने बहु तेरा सिर पटका कि 'लड़को, क्या करते हो? बदला लेना छोड़ दो, बैर भाव त्यागकर अपना काम करो। दूसरों को कष्ट देने से
तुम्हारी ही हानि होगी।' परंतु किसी के
कान पर जूं तक न रेंगती थी।
सातवें वर्ष गांव में किसी के घर विवाह था।
स्त्री-पुरुष जमा थे। बातें करते-करते श्रवण की बहू ने कालु पर घोड़ा चुराने का
दोष लगाया। वह आग हो गया, उठ कर बहू को
ऐसा मुक्का मारा कि वह सात दिन चारपाई पर पड़ी रही। वह उस समय गर्भवती थी। श्रवण
बड़ा प्रसन्न हुआ कि अब काम बन गया। गर्भवती स्त्री को मारने के अपराध में इसे
बंदीखाने न भिजवाया तो मेरा नाम श्रवण ही नहीं। झट जाकर नालिश कर दी। तहकीकात होने
पर मालूम हुआ कि बहू को कोई बड़ी चोट नहीं आई, मुकदमा खारिज हो गया। श्रवण कब चुप रहने वाला था। ऊपर की
कचहरी में गया और मुंशी को घूस देकर कालु को बीस कोड़े मारने का हुक्म लिखवा दिया।
उस समय कालु कचहरी से बाहर खड़ा था, हुक्म सुनते ही बोला - कोड़ों से मेरी पीठ तो जलेगी ही, परन्तु श्रवण को भी भस्म किए बिना न छोड़ूँगा।
श्रवण तुरन्त अदालत में गया और बोला - हुजूर, कालु मेरा घर जलाने की धमकी देता है। कई आदमी गवाह हैं।
हाकिम ने कालु को बुलाकर पूछा कि क्या बात है?
कालु - सब झूठ, मैंने कोई धमकी नहीं दी। आप हाकिम हैं। जो चाहें सो करें, पर क्या न्याय इसी को कहते हैं कि सच्चा मारा जाए और झूठा
चैन करे?
कालु की सूरत देखकर हाकिम को निश्चय हो गया
कि वह अवश्य श्रवण को कोई न कोई कष्ट देगा। उसने कालु को समझाते हुए कहा - देखो
भाई, बुद्धि से काम लो। भला कालु, गर्भवती स्त्री को मारना क्या ठीक था? यह तो ईश्वर की बड़ी कृपा हुई कि चोट नहीं आई, नहीं तो क्या जाने, क्या हो जाता। तुम विनय करके श्रवण से अपना अपराध क्षमा करा
लो, मैं हुक्म बदल डालूंगा।
मुंशी - दफा एक सौ सत्तरह के अनुसार हुक्म
नहीं बदला जा सकता।
हाकिम - चुप रहो। परमात्मा को शांति प्रिय
है, उसकी आज्ञा पालन करना सबका मुख्य धर्म
है।
कालु बोला - हुजूर, मेरी अवस्था अब पचास वर्ष की है। मेरे एक ब्याहा हुआ पुत्र
भी है। आज तक मैंने कभी कोड़े नहीं खाए। मैं और उससे क्षमा? कभी नहीं मांग सकता। वह भी मुझे याद करेगा।
यह कहकर कालु बाहर चला गया।
कचहरी गांव से सात मील पर थी। श्रवण को घर
पहुंचते-पहुंचते अंधेरा हो गया। उस समय घर में कोई न था। सब बाहर गए हुए थे। श्रवण
भीतर जाकर बैठ गया और विचार करने लगा। कोड़े लगने का हुक्म सुनकर कालु का मुख कैसा
उतर गया था! बेचारा दीवार की ओर मुंह करके रोने लगा था। हम और वह कितने दिन तक एक
साथ खेले हैं, मुझे उस पर इतना क्रोध न करना
चाहिए था। यदि मुझे कोड़े मारने का हुक्म सुनाया जाता, तो मेरी क्या दशा होती।
इस पर उसे कालु पर दया आई। इतने में बूढ़े
पिता ने आकर पूछा - कालु को क्या दंड मिला?
श्रवण - बीस कोड़े।
बूढ़ा - बुरा हुआ। बेटा, तुम अच्छा नहीं करते। इन बातों में कालु की उतनी ही हानि
होगी जितनी तुम्हारी। भला, मैं यह पूछता
हूं कि कालु पर कोड़े पड़ने से तुम्हें क्या लाभ होगा?
श्रवण - वह फिर ऐसा काम नहीं करेगा।
बूढ़ा - क्या नहीं करेगा, उसने तुमसे बढ़कर कौन-सा बुरा काम किया है?
श्रवण - वाह वाह, आप विचार तो करें कि उसने मुझे कितना कष्ट दिया है। स्त्री
मरने से बची, अब घर जलाने की धमकी देता है, तो क्या मैं उसका जस गाऊं?
बूढ़ा - (आह भरकर) बेटा, मैं घर में पड़ा रहता हूं और तुम सर्वत्र घूमते हो, इसलिए तुम मुझे मूर्ख समझते हो। लेकिन द्रोह ने तुम्हें
अंधा बना रखा है। दूसरों के दोष तुम्हारे नेत्रों के सामने हैं, अपने दोष पीठ पीछे हैं। भला, मैं पूछता हूं कि कालु ने क्या किया? एक के करने से भी कभी लड़ाई हुआ करती है? कभी नहीं, दो बिना लड़ाई
नहीं हो सकती। यदि तुम शान्त स्वभाव के होते, लड़ाई कैसे होती? भला जवाब तो दो, उसकी दाढ़ी के बाल
किसने उखाड़े? उसका भूसा किसने चुराया? उसे अदालत में किसने घसीटा? तिस पर सारे दोष कालु के माथे ही थोप रहे हो! तुम आप बुरे
हो, बस यही सारे झगड़े की जड़ है। क्या मैंने
तुम्हें यही शिक्षा दी है? क्या तुम नहीं
जानते कि मैं और कालु का पिता किस प्रेमभाव से रहते थे। यदि किसी के घर में अन्न
चुक जाता था, तो एक-दूसरे से उधार लेकर काम
चलता था; यदि कोई किसी और काम में लगा होता
था, तो दूसरा उसके पशु चरा लाता था। एक को किसी
वस्तु की जरूरत होती थी, तो दूसरा
तुरन्त दे देता था। न कोई लड़ाई थी न झगड़ा, प्रेम-प्रीतिपूर्वक जीवन व्यतीत करता था। अब? अब तो तुमने महाभारत बना रखा है, क्या इसी का नाम जीवन है? हाय! हाय! यह तुम क्या पाप कर्म कर रहे हो? तुम घर के स्वामी हो, यमराज के सामने तुम्हें उत्तर देना होगा। बालकों और
स्त्रियों को तुम क्या शिक्षा दे रहे हो, गाली बकना और ताने देना! कल तारावती पड़ोसिन धनदेवी को गालियां दे रही थी।
उसकी माता पास बैठी सुन रही थी। क्या यही भलमनसी है? क्या गाली का बदला गाली होना चाहिए? नहीं बेटा, नहीं, महापुरुषों का वचन है कि कोई तुम्हें गाली दे तो सह लो, वह स्वयं पछताएगा। यदि कोई तुम्हारे गाल पर एक चपत मारे, तो दूसरा गाल उसके सामने कर दो, वह लज्जित और नम्र होकर तुम्हारा भक्त हो जाएगा। अभिमान ही
सब दुःख का कारण है - तुम चुप क्यों हो गए! क्या मैं झूठ कहता हूं?
श्रवण चुप रह गया, कुछ नहीं बोला।
बूढ़ा - महात्माओं का वाक्य क्या असत्य है, कभी नहीं। उसका एक-एक अक्षर पत्थर की लकीर है। अच्छा, अब तुम अपने इस जीवन पर विचार करो। जब से यह महाभारत आरम्भ
हुआ है, तुम सुखी हो अथवा दुःखी! जरा
हिसाब तो लगाओ कि इन मुकदमों, वकीलों और
जाने-आने में कितना रुपया खर्च हो चुका है। देखो, तुम्हारे पुत्र कैसे सुन्दर और बलवान हैं, लेकिन तुम्हारी आमदनी घटती जाती है। क्यों? तुम्हारी मूर्खता से। तुम्हें चाहिए कि लड़कों सहित खेती का
काम करो। पर तुम पर तो लड़ाई का भूत सवार है, वह चैन लेने नहीं देता। पिछले साल जई क्यों नहीं उगी, इसलिए कि समय पर नहीं बोई गई। मुकदमे चलाओ कि जई बोओ। बेटा, अपना काम करो, खेती-बारी को सम्हालो। यदि कोई कष्ट दे तो उसे क्षमा करो, परमात्मा इसी से प्रसन्न रहता है। ऐसा करने पर तुम्हारा
अंतःकरण शुद्ध होकर तुम्हें आनन्द प्राप्त होगा।
श्रवण कुछ नहीं बोला।
बूढ़ा - बेटा, अपने बूढ़े, मूर्ख पिता का
कहना मानो। जाओ, कचहरी में जाकर आपस में राजीनामा
कर लो। कल शबेरात है, कालु के घर जाकर
नम्रतापूर्वक उसे नेवता दो और घर वालों को भी यही शिक्षा दो कि बैर छोड़कर आपस में
प्रेम बढ़ाएँ।
पिता की बातें सुनकर श्रवण के मन में विचार
हुआ कि पिताजी सच कहते हैं। इस लड़ाई-झगड़े से हम मिट्टी में मिले जाते हैं। लेकिन
इस महाभारत को किस प्रकार समाप्त करूं? बूढ़ा उसके मन की बात जानकर बोला - बेटा, मैं तुम्हारे मन की बात जान गया। लज्जा त्याग जाकर कालु से
मित्रता कर लो। फैलने से पहले ही चिनगारी को बुझा देना उचित है, फैल जाने पर फिर कुछ नहीं बनता।
बूढ़ा कुछ और कहना चाहता था कि स्त्रियां
कोलाहल करती हुई भीतर आ गईं, उन्होंने कालु
के दंड का हाल सुन लिया था। हाल में पड़ोसिन से लड़ाई करके आई थीं, आकर कहने लगीं कि कालु यह भय दिखाता है कि मैंने घूस देकर
हाकिम को अपनी ओर फेर लिया है, श्रवण का सारा
हाल लिखकर महाराज की सेवा में भेजने के लिए विनयपत्र तैयार किया है। देखो, क्या मजा चखाता हूं। आधी जायदाद न छीन ली तो बात ही क्या है? यह सुनना था कि श्रवण के चित्त में फिर आग दहक उठी।
आषाढ़ी बोने की ऋतु थी। करने को काम बहुत था।
श्रवण भुसौल में गया और पशुओं को भूसा डालकर कुछ काम करने लगा। इस समय वह पिता की
बातें और कालु के साथ लड़ाई सब कुछ भूला हुआ था। रात को घर में आकर आराम करना ही
चाहता था कि पास से शब्द सुनाई दिया - वह दुष्ट वध करने ही योग्य है, जीकर क्या बनाएगा? इन शब्दों ने श्रवण को पागल बना
दिया। वह चुपचाप खड़ा कालु को गालियां सुनाता रहा। जब वह चुप हो गया, तो वह घर में चला गया।
भीतर आकर देखा कि बहू बैठी ताक रही है, स्त्री भोजन बना रही है, बड़ा लड़का दूध गर्म कर रहा है, मंझला झाड़ू लगा रहा है, छोटा भैंस चराने बाहर जाने को तैयार है। सुख की यह सब
सामग्री थी, परन्तु पड़ोसी के साथ लड़ाई का
दुःख सहा न जाता था।
वह जला-भुना भीतर आया। उसके कान में पड़ोसी
के शब्द गूंज रहे थे, उसने सबसे लड़ना
आरम्भ किया। इतने में छोटा लड़का भैंस चराने बाहर जाने लगा। श्रवण भी उसके साथ
बाहर चला आया। लड़का तो चल दिया, वह अकेला रह
गया। श्रवण मन में सोचने लगा - कालु बड़ा दुष्ट है, हवा चल रही है, ऐसा न हो पीछे से आकर मकान में आग लगाकर भाग जाए। क्या अच्छा हो कि जब वह आग
लगाने आए, तब उसे मैं पकड़ लूं। बस फिर कभी
नहीं बच सकता, अवश्य उसे बन्दीखाने जाना पड़े।
यह विचार करके वह गली में पहुंच गया। सामने
उसे कोई चीज़ हिलती दिखाई दी। पहले तो वह समझा कि कालु है, पर वहां कुछ न था - चारों ओर सन्नाटा था।
थोड़ी दूर आगे जाकर देखता क्या है कि पशुशाला
के पास एक मनुष्य जलता हुआ फूस का पूला हाथ में लिए खड़ा है। ध्यान से देखने पर
मालूम हुआ कि कालु है। फिर क्या था, जोर से दौड़ा
कि उसे जाकर पकड़ ले।
श्रवण अभी वहां पहुंचने न पाया था कि छप्पर
में आग लगी, उजाला होने पर कालु प्रत्यक्ष
दिखाई देने लगा। श्रवण बाज की तरह झपटा, लेकिन कालु उसकी आहट पाकर चम्पत हो गया।
श्रवण उसके पीछे दौड़ा। उसके कुरते का पल्ला
हाथ में आया ही था कि वह छुड़ाकर फिर भागा। श्रवण धड़ाम से पृथ्वी पर गिर पड़ा, उठकर फिर दौड़ा। इतने में कालु अपने घर पहुंच गया। श्रवण
वहां जाकर उसे पकड़ना चाहता था कि उसने ऐसा लट्ठ मारा कि श्रवण चक्कर खाकर बेसुध
हो धरती पर गिर पड़ा। सुध आने पर उसने देखा कि कालु वहां नहीं है, फिरकर देखता है तो पशुशाला का छप्पर जल रहा है, ज्वाला प्रचंड हो रही है और लपटें निकल रही हैं।
श्रवण सिर पीटकर पुकराने लगा - भाइयो, यह क्या हुआ! हाय, मेरा सत्यानाश हो गया! चिल्लाते-चिल्लाते उसका कंठ बैठ गया। वह दौड़ना चाहता
था, परन्तु उसकी टांगें लड़-खड़ा गईं। वह
धम से धरती पर गिर पड़ा, फिर उठा, घर के पास पहुंचते-पहुंचते आग चारों ओर फैल गई। अब क्या बन
सकता है? भय से पड़ोसी भी अपना असबाब बाहर
फेंकने लगे। वायु के वेग से कालु के घर में भी आग जा लगी, यहां तक कि आधा गांव जलकर राख का ढेर हो गया। श्रवण और कालु
दोनों का कुछ न बचा। मुर्गियां, हल, गाड़ी, पशु, वस्त्र, अन्न, भूसा आदि सब कुछ स्वाहा हो गया। इतना अच्छा हुआ कि किसी की
जान नहीं गई।
आग रात भर जलती रही। वह कुछ असबाब उठाने
भीतर गया, परन्तु ज्वाला ऐसी प्रचंड थी कि
जा न सका। उसके कपड़े और दाढ़ी के बाल झुलस गए।
प्रातःकाल गांव के चौधरी का बेटा उसके पास आया
और बोला - श्रवण, तुम्हारे पिता की दशा
अच्छी नहीं है। वह तुम्हें बुला रहे हैं। श्रवण तो पागल हो रहा था, बोला - कौन पिता जी ?
चौधरी का बेटा - तुम्हारे पिता। इसी आग ने
उनका काम तमाम कर दिया है। हम उन्हें यहां से उठाकर अपने घर ले गए थे। अब वह बच
नहीं सकते। चलो, अंतिम भेंट कर लो।
श्रवण उसके साथ हो लिया। वहां पहुंचने पर
चौधरी ने बू़ढ़े को खबर दी कि श्रवण आ गया है।
बूढ़े ने श्रवण को अपने निकट बुलाकर कहा -
बेटा, मैंने तुमसे क्या कहा था। गांव
किसने जलाया?
श्रवण - कालु ने। मैंने आप उसे छप्पर में आग
लगाते देखा था। यदि मैं उसी समय उसे पकड़ कर पूले को पैरों तले मल देता, तो आग कभी न लगती।
बूढ़ा - श्रवण, मेरा अन्त समय आ गया। तुमको भी एक दिन अवश्य मरना है, पर सच बतलाओ कि दोष किसका है?
श्रवण चुप हो गया।
बूढ़ा - बताओ, कुछ बोलो तो, फिर यह सब
किसकी करतूत है, किसका दोष है?
श्रवण - (आंखों में आंसू भरकर) मेरा! पिताजी, क्षमा कीजिए, मैं खुद और आप
दोनों का अपराधी हूं।
बूढ़ा - श्रवण!
श्रवण - हां, पिताजी।
बूढ़ा - जानते हो अब क्या करना उचित है?
श्रवण - मैं क्या जानूं, मेरा तो अब गांव में रहना कठिन है।
बूढ़ा - यदि तू परमेश्वर की आज्ञा मानेगा तो
तुझे कोई कष्ट न होगा। देख, याद रख, अब किसी से न कहना कि आग किसने लगाई थी। जो पुरुष किसी का
एक दोष क्षमा करता है, परमात्मा उसके दो दोष
क्षमा करता है।
यह कहकर परमेश्वर को याद करते हुए बूढ़े ने
प्राण त्याग दिए।
श्रवण का क्रोध शांत हो गया। उसने किसी को
न बतलाया कि आग किसने लगाई थी। पहले- पहल तो कालु डरता रहा कि श्रवण के चुप रह
जाने में भी कोई भेद है, फिर कुछ दिनों
पीछे उसे विश्वास हो गया कि श्रवण के चित्त में अब कोई बैरभाव नहीं रहा।
बस, फिर क्या था - प्रेम में शत्रु भी मित्र हो जाते हैं। वे
पास-पास घर बना कर पड़ोसियों की भांति रहने लगे।
श्रवण अपने पिता का उपदेश कभी न भूलता था
कि फैलने से पहले ही चिन्गारी को बुझा देना उचित है। अब यदि कोई कष्ट देता, तो वह बदला लेने की इच्छा नहीं करता। यदि कोई उसे गाली देता, तो सहन करके वह यह उपदेश करता कि कुवचन बोलना अच्छा नहीं।
अपने घर के प्राणियों को भी वह यही उपदेश दिया करता। पहले की अपेक्षा अब उसका जीवन
बड़े आनन्द पूर्वक कटता है।
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Chapter
XV-XVI-XVII-XVIII-XIX-XX-XXI-XII
S’rimad Devî
Bhâgavatam THE FIRST BOOK Chapter XIII-XIV
S’rimad Devî
Bhâgavatam THE FIRST BOOK Chapter XI-XII
S’rimad Devî
Bhâgavatam THE FIRST BOOK Chapter IX-X
S’rimad Devî
Bhâgavatam THE FIRST BOOK Chapter VII-VIII
S’rimad Devî
Bhâgavatam THE FIRST BOOK Chapter V-VI
S’rimad Devî
Bhâgavatam THE FIRST BOOK Chapter III-IV
S’rimad Devî
Bhâgavatam THE FIRST BOOK Chapter I-II
VISHNU PURANA. -
BOOK III. CHAP -16,17,18
VISHNU PURANA. -
BOOK III. CHAP. XV.
VISHNU PURANA. -
BOOK III. CHAP. XIV.
VISHNU PURANA. -
BOOK III. CHAP. XIII.
VISHNU PURANA. -
BOOK III. CHAP. XII.
VISHNU PURANA. -
BOOK III. CHAP. XI.
VISHNU PURANA. -
BOOK III. CHAP. X
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VISHNU PURANA. - BOOK
III. CHAP. VIII
VISHNU PURANA. -
BOOK III. CHAP. VII.
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BOOK III. CHAP. VI
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BOOK III. CHAP. V
VISHNU PURANA. -
BOOK III. CHAP. IV
VISHNU PURANA. - BOOK
III.- CHAP. III
VISHNU PURANA. -
BOOK III.- CHAP. II.
चंद्रकांता
(उपन्यास) पहला अध्याय : देवकीनन्दन खत्री
खूनी औरत का
सात खून (उपन्यास) : किशोरी लाल गोस्वामी
ब्राह्मण की
बेटी : शरतचंद्र चट्टोपाध्याय (बांग्ला उपन्यास)
SELF-SUGGESTION AND
THE NEW HUNA THEORY OF MESMERISM AND HYPNOSIS – chapter-1, BY- MAX FREEDOM LONG
VISHNU PURAN-BOOK I
- CHAPTER 11-22
VISHNU PURANA. -
BOOK I. CHAP. 1. to 10
THE ROLE OF PRAYER.
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