अर्जुन और मोहन किसान
एक गांव में अजुर्न और मोहन नाम के दो किसान
रहते थे। अजुर्न धनी था, मोहन साधारण
पुरुष था। उन्होंने चिरकाल से बद्रीनारायण की यात्रा का इरादा कर रखा था।
अजुर्न बड़ा सुशील, सहासी और दृढ़ था। दो बार गांव का चौधरी रह कर उसने बड़ा
अच्छा काम किया था। उसके दो लड़के तथा एक पोता था। उसकी साठ वर्ष की अवस्था थी, परन्तु दाढ़ी अभी तक नहीं पकी थी।
मोहन प्रसन्न बदन, दयालु और मिलनसार था। उसके दो पुत्र थे, एक घर में था, दूसरा बाहर नौकरी पर गया हुआ था। वह खुद घर में बैठा - बैठा बढ़ई का काम करता
था।
बद्रीनारायण की यात्रा का संकल्प किए उन्हें
बहुत दिन हो चुके थे। अजुर्न को छुट्टी ही नहीं मिलती थी। एक काम समाप्त होता था
कि दूसरा आकर घेर लेता था। पहले पोते का ब्याह करना था, फिर छोटे लड़के का गौना आ गया, इसके पीछे मकान बनना प्रारम्भ हो गया। एक दिन बाहर लकड़ी पर
बैठ कर दोनों बूढ़ो में बातें होने लगी।
मोहन—क्यों भाई, अब यात्रा
करने का विचार कब है?
अजुर्न—जरा ठहरो। अब की वर्ष अच्छा नहीं लगा। मैंने यह समझा था कि
सौ रुपये में मकान तैयार हो जाएगा। तीन सौ रुपये लगा चुके हैं अभी दिल्ली दूर है।
अगले वर्ष चलेंगे।
मोहन—शुभ कार्य में देरी करना अच्छा नहीं होता। मेरे विचार में
तो तुरंत चल देना ही उचित है, दिन बहुत
अच्छे हैं।
अजुर्न—दिन तो अच्छे हैं, पर मकान को क्या करुं! इसे किस पर छोडूं?
मोहन—क्या कोई संभालने वाला ही नहीं, बड़े लड़के को सौंप दो?
अजुर्न—उसका क्या भरोसा है?
मोहन—वाह-वाह, भला बताओ तो
कि मरने पर कौन संभालेगा? इससे तो यह
अच्छा है कि जीते जी संभाल लें। और तुम सुख से जीवन व्यतीत करो।
अजुर्न—यह सत्य है, पर किसी काम
में हाथ लगाकर उसे पूरा करने की इच्छा सभी की होती है।
मोहन—तो काम कभी पूरा नहीं होता, कुछ न कुछ कसर रह ही जाती है। कल ही की बात है कि रामनवमी
के लिए स्त्रियां कई दिन से तैयारी कर रही थीं—कहीं लिपाई होती थी, कहीं आटा पीसा जाता था। इतने में रामनवमी आ पहुंची। बहू
बोली, परमेश्वर की बड़ी कृपा है कि
त्योहार बिना बुलाए ही आ जाते हैं, नहीं तो हम
अपनी तैयारी ही करती रहें।
अजुर्न—एक बात और है, इस मकान पर मेरा बहुत रुपया खर्च हो गया है। इस समय रुपये का भी तोड़ा है।
कमसे-कम सौ रुपये तो हों, नहीं तो
यात्रा कैसे होगी।
मोहन—(हंसकर) अहा हा! जो जितना धनवान होता है, वह उतना ही कंगाल होता है तुम और रुपये की चिंता! जाने दो।
मैं सच कहता हूं, इस समय मेरे पास एक
सौ रुपये भी नहीं, परन्तु जब चलने का
निश्चय हो जायेगा, तो रुपया भी कहीं न
कहीं से अवश्य आ ही जाएगा। बस, यह बतलाओ कि
चलना कब है?
अजुर्न—तुमने रुपये जोड़ रखे होंगे, नहीं तो कहां से आ जाएगा, बताओ तो सही।
मोहन—कुछ घर में से, कुछ माल बेचकर। पड़ोसी कुछ चौखट आदि मोल लेना चाहता है, उसे सस्ती दे दूंगा।
अजुर्न—सस्ती बेचने पर पछतावा होगा।
मोहन—मैं सिवाय पाप के और किसी बात पर नहीं पछताता। आत्मा से कौन
चीज़ प्यारी है!
अजुर्न—यह सब ठीक है, परन्तु घर के कामकाज बिसराना भी उचित नहीं।
मोहन—और आत्मा को बिसारना तो और भी बुरा है। जब कोई बात मन में
ठान ली तो उसे बिना पूरा किए न छोड़ना चाहिए।
अन्त में चलना निश्चय हो गया। चार
दिन पीछे जब विदा होने का समय आया, तो अजुर्न बड़े
लड़के को समझाने लगा कि मकान पर छत इस प्रकार डालना, भूसी बखार में इस भांति जमा कर देना, मंडी में जाकर अनाज इस भाव से बेचना, रुपये संभाल कर रखना, ऐसा न हो खो जावें, घर का प्रबन्ध ऐसा रखना कि किसी प्रकार की हानि न होने
पावे। उसका समझाना समाप्त ही न होता था।
इसके प्रतिकूल मोहन ने अपनी स्त्री से केवल
इतना ही कहा कि तुम चतुर हो, सावधानी से
काम करती रहना।
मोहन तो घर से प्रसन्न मुख बाहर निकला और
गांव छोड़ते ही घर के सारे बखेड़े भूल गया। साथी को प्रसन्न रखना, सुख-पूर्वक यात्रा कर घर लौट आना उसका मन्तव्य था। राह चलता
था तो ईश्वर सम्बन्धी कोई भजन गाता था या किसी महापुरुष की कथा कहता। सड़क पर अथवा
सराय में जिस किसी से भेंट हो जाती, उससे बड़ी नम्रता
से बोलता।
अजुर्न भी चुपके -चुपके चल तो रहा था, परन्तु उसका चित्त व्याकुल था। सदैव घर की चिंता लगी रहती
थी। लड़का अनजान है, कौन जाने क्या कर बैठे? अमुक बात कहना भूल आया। ओहो, देखू, मकान की छत
पड़ती है या नहीं। यही विचार उसे हरदम घेरे रहते थे यहां तक कि कभी-कभी लौट जाने को
तैयार हो जाता था।
चलते-चलते एक महीना पीछे वे पहाड़ पर पहुंच गए।
पहाड़ी बड़े अतिथि-सेवक होते हैं अब तक यह मोल का अन्न खाते रहे थे। अब उनकी
खातिरदारी होने लगी।
आगे चलकर वे ऐसे देश में पहुंचे, जहां दुर्घट अकाल पड़ा हुआ था। खेतियां सब सूख गई थीं, अनाज का एक दाना भी नहीं उगा था। धनवान कंगाल हो गए थे
धनहीन देश को छोड़कर भीख मांगने बाहर भाग गए थे।
यहां उन्हें कुछ कष्ट हुआ, अन्न कम मिलता था और वह भी बड़ा महंगा। रात को उन्होंने एक
जगह विश्राम किया। अगले दिन चलते-चलते एक गांव मिला। गांव के बाहर एक झोंपड़ा था।
मोहन थक गया था, बोला—मुझे प्यास लगी है। तुम चलो, मैं इस झोंपड़े से पानी पीकर अभी तुम्हें आ मिलता हूं।
अजुर्न बोला—अच्छा, पी आओ। मैं धीरे-धीरे चलता हूं।
झोंपड़े के पास जाकर मोहन ने देखा कि उसके आगे
धूप में एक मनुष्य पड़ा है। मोहन ने उससे पानी मांगा, उसने कोई उत्तर नहीं दिया। मोहन ने समझा कि कोई रोगी है।
समीप जाने पर झोंपड़े के भीतर एक बालक के रोने
का शब्द सुनायी दिया। किवाड़ खुले हुए थे। वह भीतर चला गया।
उसने देखा कि नंगे सिर केवल एक चादर ओढ़े एक बुढ़ि
धरती पर बैठी है, पास में भूख का मारा
हुआ एक बालक बैठा रोटी, रोटी, पुकार रहा है। चूल्हे के पास एक स्त्री तड़प रही है, उसकी आंखें बन्द हैं, कंठ रुका हुआ है।
मोहन को देखकर बुयि ने पूछा—तुम कौन हो? क्या मांगते
हो? हमारे पास कुछ नहीं हैं।
मोहन—मुझे प्यास लगी है, पानी मांगता हूं।
बुढ़ि—यहां न बर्तन है, न कोई लाने वाला। यहां कुछ नहीं। जाओ, अपनी राह लो।
मोहन—क्या तुममें से कोई उस स्त्री की सेवा नहीं कर सकता?
बुढ़ि—कोई नहीं। बाहर मेरा लड़का भूख से मर रहा है, यहां हम भूख से मर रहे हैं।
यह बातें हो ही रही थीं कि बाहर से वह मनुष्य
भी गिरता - पड़ता भीतर आया और बोला—काल और रोग
दोनों ने हमें मार डाला। यह बालक कई दिन से भूखा है क्या करुं—यह कहकर रोने लगा और उसकी हिचकी बंध गई।
मोहन ने तुरन्त अपने थैले में से रोटी
निकालकर उनके आगे रख दी।
बुढ़ि बोली—इनके कंठ सूख गए हैं, बाहर से पानी ले आओ। मोहन बुढ़ि से कुएं का पता पूछकर बाहर
गया और पानी ले आया। सबने रोटी खाकर पानी पिया, परन्तु चूल्हे के पास वाली स्त्री पड़ी तड़पती रही। मोहन गांव
में जाकर कुछ दाल, चावल मोल ले आया और
खिचड़ी पाकर सबको खिलायी।
तब बुढ़ि बोली—भाई, क्या सुनाऊं, निर्धन तो हम पहले ही थे, उस पर पड़ा अकाल। हमारी और भी दुर्गति हो गई। पहले-पहल तो
पड़ोसी अन्न उधार देते रहे, परन्तु वे
क्या करते? वे आप भूखों मरने लगे, हमें कहां से देते।
मनुष्य ने कहा—मैं मजूरी करने निकला, दो-तीन दिन तो कुछ मिला, फिर किसी ने नौकर न रखा बुढ़ि और लड़की भीख मांगने लगीं।
अन्न का अकाल था, कोई भीख भी न देता
था। बहु तेरे यत्न किए, कुछ न बन सका।
भूख के मारे घास खाने लगे, इसी कारण यह
मेरी स्त्री चूल्हे के पास पड़ी तड़प रही है।
बुढ़ि—पहले कई दिनों तक तो मैं चल-फिर कर कुछ धंधा करती रही, परन्तु कहां तक? भूख और रोग ने जान ले ली। जो हाल है, तुम अपने नेत्रों से देख रहे हो।
उनकी बिथा सुनकर मोहन ने विचारा कि आज रात
यहीं रहना उचित हैं साथी से कल मिल लेंगे।
प्रातः काल उठकर वह गांव में गया और खाने-पीने
की जिन्स ले आया। घर में कुछ न था। वह वहां ठहर कर इस तरह काम करने लगा कि मानो
अपना ही घर है। दो-तीन दिन पीछे सब चलने-फिरने लगे और वह स्त्री उठ बैठी।
चौथे दिन एकादशी थी। मोहन ने विचारा कि आज
सन्ध्या को इन सबके साथ बैठकर फला-हार करके कल प्रातःकाल चल दूंगा।
वह गांव में जाकर दूध, फल सब सामग्री लाकर बुढ़ि को दे, आप पूजा-पाठ करने मन्दिर में चला गया। इन लोगों ने अपनी
जमीन एक जमींदार के यहां गिरवी रख-कर अकाल के समय अपना निवार्ह किया था। मोहन जब
मन्दिर गया, तब किसान युवक जमींदार के पास
पहुंचा और विनय पूर्वक बोला—चौधरी जी, इस समय रुपये देकर खेत छुड़ाना मेरे काबू के बाहर है। यदि आप
इस चौमासे में मुझे खेत बोने की आज्ञा दे दें, तो मेहनत -मजदूरी करके आपका ऋण चुका दे सकता हूं।
परन्तु चौधरी कब मानता था? वह बोला—बिना रुपये
दिए खेत नहीं बो सकते जाओ, अपना काम करो।
वह निराश होकर घर लौट आया। इतने में मोहन भी पहुंच गया। जमींदार की बात सुनकर वह
मन में विचार करने लगा कि जब यह जमींदार खेत नहीं बोने देता, तो इन किसानों की प्राण रक्षा क्या करेगा? यदि मैं इन्हें इसी दशा में छोड़कर चल दिया, तो यह सब काल के कौर बन जायेंगे? कल नहीं परसों जाऊंगा।
मोहन अब बड़ी दुविधा में पड़ा था। न रहते ही
बनता था, न जाते ही बनता था। रात को पड़ा-पड़ा
सोचने लगा, यह तो अच्छा बखेड़ा फैला। पहले
अन्न-पानी, अब खेत छुड़ाना, फिर गाय और बैलों की जोड़ी मोल लेना। मोहन तुम किस जंजाल में
फंस गए?
जी चाहता था कि वह उन्हें ऐसे ही छोड़कर चल
दे, परन्तु दया जाने न देती थी। सोचते-सोचते
आंख लग गई। स्वप्न में देखता क्या है कि वह जाना चाहता है, किसी ने उसे पकड़ लिया है। लौट कर देखा तो बालक रोटी मांग
रहा है। वह तुरन्त उठ बैठा और मन में कहने लगा—नहीं, अब मैं नहीं
जाता। यह स्वप्न शिक्षा देता है कि मुझे इनका खेत छुड़ाना, गाय-बैल मोल लेना और सारा प्रबन्ध करके जाना उचित है।
प्रातःकाल उठकर जमींदार के पास गया और
रुपया देकर उनका खेत छुड़ा दिया। जब एक किसान से एक गाय और दो बैल मोल लेकर लौट रहा
था कि राह में स्त्रियों को बातें करते सुना।
‘बहन, पहले तो हम उसे साधारण मनुष्य
जानते थे। वह केवल पानी पीने आया था, पर अब सुना है कि खेत छुड़ाने और गाय-बैल मोल लेने गया है। ऐसे महात्मा के
दर्शन करने चाहिए।’ मोहन अपनी स्तुति
सुनकर वहां से टल गया। गाय-बैल लेकर जब झोंपड़े पर पहुंचा तो किसान ने पूछा—पिताजी, यह कहां से
लाये?
मोहन—अमुक किसान से यह बड़े सस्ते मिल गए हैं। जाओ, पशु-शाला में बांधकर इनके आगे कुछ भूसा डाल दो।
उसी रात जब सब सो गए, तो मोहन चुपके से उठकर घर से बाहर निकल बद्रीनारायण की राह
ली।
तीन मील चलकर मोहन एक वृक्ष के नीचे बैठकर
बटुआ निकाल, रुपये गिनने लगा तो थोड़े ही रुपये
बाकी थे। उसने सोचा—
इतने रुपयों में बद्रीनाराण पहुंचना असम्भव है, भीख मांगना पाप है। अजुर्न वहां अवश्य पहुंचेगा और आशा है
कि मेरे नाम पर कुछ चढ़ावा भी चढ़ा ही देगा। मैं तो अब इस जीवन में यह यात्रा करने
का संकल्प पूरा नहीं कर सकता। अच्छा, परमात्मा की इच्छा, वह बड़ा दयालु
है। मुझ जैसे पापियों को निस्संदेह क्षमा कर देगा।
यह विचार करके गांव का चक्कर काट कर कि कोई
देख न ले, वह घर की ओर लौट पड़ा।
गांव में पहुंचा जाने पर घर वाले उसे देखकर
अति प्रसन्न हुए और पूछने लगे कि लौट क्यों आये? मोहन ने यही उत्तर दिया कि अजुर्न से साथ छूट गया और रुपये
चोरी हो गए, इस कारण लौट आना पड़ा। घर में कुशल
क्षेम थी। कोई कष्ट न था।
मोहन का आना सुनकर अजुर्न के घर वाले उससे
पूछने लगे कि अजुर्न को कहां छोड़ा उनसे भी उसने यही कहा कि बद्रीनारायण पहुंचने से
तीन दिन पहले मैं अजुर्न से पिछड़ गया, रुपया किसी ने चुरा लिया, बद्रीनारायण
जाना असम्भव था, मुझे लौटना ही पड़ा।
सब लोग मोहन की बुद्धि पर हंसने लगे कि
बद्रीनारायण पहुंचा ही नहीं, रास्ते में
रुपये खो दिए। मोहन घर के धंधे में लग गया, बात बीत गई।
अब उधर का हाल
सुनिए—
मोहन जब पानी पीने चला गया तब थोड़ी दूर जाकर
अजुर्न बैठ गया और साथी की बाट देखने लगा।
सन्ध्या हो गई, पर मोहन न आया।
अजुर्न सोचने लगा—क्या हुआ, साथी क्यों
नहीं आया? मेरी आंखें लग गई थीं। कहीं आगे न
निकल गया हो। पर यहां से जाता तो क्या दिखायी नहीं देता? पीछे लौटकर देखूं, कहीं आगे न चला गया हो, फिर तो मिलना
ही असम्भव है। आगे ही चलो, रात को चट्टी
पर अवश्य भेंट हो जाएगी।
रास्ते में अजुर्न ने कई मनुष्यों से पूछा कि
तुमने कोई नाटा, सांवले रंग का आदमी देखा है? परन्तु कुछ पता न चला। रात चट्टी पर भी मोहन से भेंट न हुई।
अगले दिन यह विचार कर कि वह देवप्रयाग पर अवश्य मिल जाएगा, वह आगे चल दिया।
रास्ते में अजुर्न को एक साधु मिल गया। वह
जगन्नाथ की यात्रा करके आया था। अब दूसरी बार बद्रीनारायण के दर्शन को जा रहा था।
रात को चट्टी में वे दोनों इकट्ठे ही रहे और फिर एक साथ यात्रा करने लगे।
देवप्रयाग में पहुंचकर अजुर्न ने मोहन के विषय
में पंडे से बहुत पूछताछ की, कुछ पता न
चला। यहां सब यात्री एकत्र हो गए। देवप्रयाग से आगे चल कर सब लोग रात को एक चट्टी
में ठहरे। वहां मूसलाधार मेंघ बरसने लगा। बिजली की कड़कने लगी, बादल की गरज से सब कांप गए। सारी रात जागते कटी। त्राहि-त्राहि
करते दिन निकला।
अन्त को दोपहर के समय सब लोग बद्रीनारायण
पहुंच गए। पंडे देवप्रयाग से ही साथ हो लिये थे। बद्रीनारायण में यही रीति है कि
पहले दिन यात्रियों को मन्दिर की ओर से भोजन कराया जाता है और उसी दिन यात्रियों
को अटका अथवा च़ावा बतला देना पड़ता है कि कौन कितना च़ाएगा, कम से कम सवा रुपया नियत है। उस समय तो सबने पंडों के घरों
में जाकर विश्राम किया। दूसरे दिन प्रातःकाल उठकर दर्शनप्रसन में लग गए। अजुर्न और
साधु एक ही स्थान में टिके थे। सांझ की आरती के दर्शन करके लौटकर जब घर आये, तब साधु बोला कि मेरा तो किसी ने रुपये का बटुआ निकाल लिया।
अजुर्न के मन में यह पाप उत्पन्न हुआ कि यह
साधु झूठा है। किसी ने इसका रुपया नहीं चुराया। इसके पास रुपया था ही नहीं।
लेकिन तुरन्त ही उसको पश्चाताप हुआ कि किसी
पुरुष के विषय में ऐसी कल्पना करना महापाप है। उसने मन को बहुतेरा समझाया, परंतु उसका ध्यान साधु में ही लगा रहा। पवित्र स्थान में
रहने पर भी चित्त की मलिनता दूर नहीं हुई। इतने में शयन की आरती का घंटा बजा।
दोनों दर्शनार्थ मन्दिर में चले गए। भीड़ बहुत थी, अजुर्न नेत्र मूंदकर भगवान की स्तुति करने लगा, परंतु हाथ बटुए पर था, क्योंकि साधु के रुपये खो जाने से संस्कार चित्त में पड़े
हुए थे। अन्तःकरण का शुद्ध हो जाना क्या कोई सहज बात है!
स्तुति समाप्त करके नेत्र खोलकर अजुर्न जब
भगवान के दर्शन करने लगा, तब देखता क्या
है कि मूर्ति के अति समीप मोहन खड़ा है। ऐ—मोहन! नहीं नहीं, मोहन यहां कैसे पहुंच सकता है? सारे रास्ते
तो ढूँढता आया हूं।
मोहन को साष्टांग दण्डवत करते देखकर अजुर्न
को निश्चय हो गया कि मोहन ही है। सायद किसी दूसरी राह से यहां आ पहुंचा है। चलो, अच्छा हुआ, साथी तो मिल
गया।
आरती हो गई। यात्री बाहर निकलने लगे।
अजुर्न का हाथ बटुए पर था कि कोई रुपये न चुरा ले। वह मोहन को खोजने लगा, पर उसका कहीं पता नहीं चला।
दूसरे दिन प्रातःकाल मन्दिर में जाने पर
अजुर्न ने फिर देखा कि मोहन हाथ जोड़े भगवान के सम्मुख खड़ा है। वह चाहता था कि आगे बढ़कर
मोहन को पकड़ ले, परन्तु ज्योंही वह आगे बढ़ा, मोहन लोप हो गया।
तीसरे दिन भी अजुर्न को वही दृश्य दिखाई
दिया। उसने विचारा कि चल कर द्वार पर खड़े हो जाओ। सब यात्री वहीं से निकलेंगे, वहीं मोहन को पकड़ लूंगा। अत एव उसने ऐसा ही किया, लेकिन सब यात्री निकल गए, मोहन का कहीं पता ही नहीं।
एक सप्ताह बद्रीनारायण में निवास करके अजुर्न
घर लौट पड़ा।
राह चलते अजुर्न के चित्त में वही पुराने घर
के झमेले बार-बार आने लगे। साल-भर बहुत होता है। इतने दिनों में घर की दशा न जाने
क्या हुई हो। कहावत है—छाते लगे छः
मास और छिन में होय उजाड़। कौन जाने लड़के ने क्या कर छोड़ा हो? फसल कैसी हो? पशुओं का पालन-पोषण
हुआ है कि नहीं?
चलते-चलते अजुर्न जब उस झोपड़े के पास पहुंचा, जहां मोहन पानी पीने गया था, तो भीतर से एक लड़की ने आकर उसका कुरता पकड़ लिया और बोली—बाबा, बाबा भीतर
चलो।
अजुर्न कुरता छुड़ाकर जाना चाहता था कि भीतर
से एक स्त्री बोली—महाशय! भोजन करके
रात्रि को यहीं विश्राम कीजिए। कल चले जाना। वह अंदर चला गया और सोचने लगा कि मोहन
यहीं पानी पीने आया था। सायद इन लोगों से उसका कुछ पता चल जाए।
स्त्री ने अजुर्न के हाथ-पैर धुलाकर भोजन
परस दिया। अजुर्न उसको आशीष देने लगा।
स्त्री बोली—दादा, हम अतिथि सेवा
करना क्या जानें? यह सब कुछ हमें एक
यात्री ने सिखाया है। हम परमात्मा को भूल गए थे। हमारी यह दशा हो गई थी कि यदि वह बूढ़ा
यात्री न आता तो हम सबके-सब मर जाते। वह यहां पानी पीने आया था। हमारी दुर्दशा
देखकर यहीं ठहर गया। हमारा खेत रेहन पड़ा था, वह छुड़ा दिया। गाय-बैल मोल ले दिए और सामग्री जुटाकर एक दिन
न जाने कहां चला गया।
इतने में एक बुढ़ि आ गई और यह बात सुनकर बोल
उठी—वह मनुष्य नहीं था, साक्षात देवता था। उसने हमारे ऊपर दया की, हमारा उद्धार कर दिया, नहीं तो हम मर गए होते वह पानी मांगने आया। मैंने कहा, जाओ, यहां पानी
नहीं। जब मैं वह बात स्मरण करती हूं, तो मेरा शरीर कांप उठता है।
छोटी लड़की बोल उठी—उसने अपनी कांवर खोली और उसमें से लोटा निकाला कुएं की ओर
चला।
इस तरह सबके-सब मोहन की विचार करने लगे।
रात को किसान भी आ पहुंचा और वही विचार करने लगा—निस्संदेह उस यात्री ने हमें जीवन दान दिया। हम जान गए कि
परमेश्वर क्या है? और परोपकार क्या? वह हमें पशुओं से मनुष्य बना गया।
अजुर्न ने अब समझा कि बद्रीनारायण के
मंदिर में मोहन के दिखायी देने का कारण क्या था? उसे निश्चय हो गया कि मोहन की यात्रा सफल हुई।
कुछ दिनों पीछे अजुर्न घर पहुंच गया। लड़का
शराब पीकर मस्त पड़ा था। घर का हाल सब गड़बड़ था। अजुर्न लड़के को डांटने लगा। लड़के ने
कहा—तो यात्रा पर जाने को किसने कहा था? न जाते। इस पर अजुर्न ने उसके मुंह पर तमाचा मारा।
दूसरे दिन अजुर्न जब चौधरी से मिलने जा रहा
था, तो राह में मोहन की स्त्री मिल गई।
स्त्री—भाई जी, कुशल से तो हो? बद्रीनारायण हो आये?
अजुर्न—हां, हो आया। मोहन
मुझसे रास्ते में बिछुड़ गए थे। कहो, वह कुशल से घर
तो पहुंच गए?
स्त्री—उन्हें आये तो कई महीने हो गए। उनके बिना हम सब उदास रहा
करते थे। लड़के को तो घर काटे खाता था। स्वामी बिना घर सूना होता है।
अजुर्न—घर में हैं कि कहीं बाहर गये हैं?
स्त्री—नहीं, घर में हैं।
अजुर्न भीतर चला गया और मोहन से बोला—राम-राम, भैया मोहन, राम-राम!
मोहन—राम-राम! आओ भाई! कहो, दर्शन कर आये!
अजुर्न—हां, कर तो आया, पर मैं यह नहीं कह सकता कि यात्रा सफल हुई अथवा नहीं। लौटते
समय मैं उस झोंपड़े में ठहरा था, जहां तुम पानी
पीने गये थे।
मोहन ने बात टाल दी और अजुर्न भी चुप हो
गया, परंतु उसे दृढ़ विश्वास हो गया कि
उत्तम तीर्थ-यात्रा यही है कि पुरुष जीवन पर्यन्त प्रत्येक प्राणी के साथ प्रेमभाव
रख कर सदैव उपकार में तत्पर रहे।
रीक्ष का शिकार story
of Leo-Tolstoy Hindi
परमेश्वर ने दर्शन देने का वादा किया
कृष्ण और पांडव के स्वर्गारोहण की कथा
सृष्टि के प्रारंभ में मानव एवं सृष्टि उत्पत्ति
अभिज्ञानशाकुन्तल संक्षिप्त कथावस्तु
महाकविकालिदासप्रणीतम् - अभिज्ञानशाकुन्तलम् `- भूमिका
वैराग्य
संदीपनी गोस्वामितुलसीदासकृत हिंदी
अग्नि
सुक्तम् - अग्निमीळे पुरोहितं यज्ञस्य देवमृत्विजम्
S’rimad
Devî Bhâgavatam THE FIRST BOOK
Chapter
XV-XVI-XVII-XVIII-XIX-XX-XXI-XII
S’rimad Devî
Bhâgavatam THE FIRST BOOK Chapter XIII-XIV
S’rimad Devî
Bhâgavatam THE FIRST BOOK Chapter XI-XII
S’rimad Devî
Bhâgavatam THE FIRST BOOK Chapter IX-X
S’rimad Devî
Bhâgavatam THE FIRST BOOK Chapter VII-VIII
S’rimad Devî
Bhâgavatam THE FIRST BOOK Chapter V-VI
S’rimad Devî
Bhâgavatam THE FIRST BOOK Chapter III-IV
S’rimad Devî
Bhâgavatam THE FIRST BOOK Chapter I-II
VISHNU PURANA. -
BOOK III. CHAP -16,17,18
VISHNU PURANA. -
BOOK III. CHAP. XV.
VISHNU PURANA. -
BOOK III. CHAP. XIV.
VISHNU PURANA. -
BOOK III. CHAP. XIII.
VISHNU PURANA. -
BOOK III. CHAP. XII.
VISHNU PURANA. -
BOOK III. CHAP. XI.
VISHNU PURANA. -
BOOK III. CHAP. X
VISHNU PURANA. -
BOOK III. CHAP. IX
VISHNU PURANA. - BOOK
III. CHAP. VIII
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BOOK III. CHAP. VII.
VISHNU PURANA. -
BOOK III. CHAP. VI
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BOOK III. CHAP. V
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BOOK III. CHAP. IV
VISHNU PURANA. - BOOK
III.- CHAP. III
VISHNU PURANA. -
BOOK III.- CHAP. II.
चंद्रकांता
(उपन्यास) पहला अध्याय : देवकीनन्दन खत्री
खूनी औरत का
सात खून (उपन्यास) : किशोरी लाल गोस्वामी
ब्राह्मण की
बेटी : शरतचंद्र चट्टोपाध्याय (बांग्ला उपन्यास)
SELF-SUGGESTION AND
THE NEW HUNA THEORY OF MESMERISM AND HYPNOSIS – chapter-1, BY- MAX FREEDOM LONG
VISHNU PURAN-BOOK I
- CHAPTER 11-22
VISHNU PURANA. -
BOOK I. CHAP. 1. to 10
THE ROLE OF PRAYER.
= THOUGHT: CREATIVE AND EXHAUSTIVE. MEDITATION EXERCISE.
HIGHER REASON AND
JUDGMENT= CONQUEST OF FEAR.
QUEEN CHUNDALAI, THE
GREAT YOGIN
THE POWER OF
DHARANA, DHIYANA, AND SAMYAMA YOGA.
THE POWER OF THE
PRANAYAMA YOGA.
KUNDALINI,
THE MOTHER OF THE UNIVERSE.
TO THE KUNDALINI—THE
MOTHER OF THE UNIVERSE.
Yoga Vashist part-1
-or- Heaven Found by Rishi Singh Gherwal
Shakti and Shâkta
-by Arthur Avalon (Sir John Woodroffe),
Mahanirvana Tantra-
All- Chapter -1 Questions relating to
the Liberation of Beings
Tantra
of the Great Liberation
श्वेतकेतु और
उद्दालक, उपनिषद की कहानी, छान्द्योग्यापनिषद,
GVB THE UNIVERSITY OF VEDA
यजुर्वेद
मंत्रा हिन्दी व्याख्या सहित, प्रथम अध्याय 1-10,
GVB THE UIVERSITY OF VEDA
उषस्ति की
कठिनाई, उपनिषद की कहानी, आपदकालेमर्यादानास्ति,
_4 -GVB the uiversity of veda
वैराग्यशतकम्, योगी
भर्तृहरिकृत, संस्कृत काव्य, हिन्दी
व्याख्या, भाग-1, gvb the university of Veda
G.V.B. THE
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पर्मार्थ कि यात्रा के सुक्ष्म सोपान
जीवन संग्राम -1, मिर्जापुर का परिचय
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