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ओ३म् ही वह परमाणु है

 

मैं कल्याण कारक अग्नि हूं- 

ओ३म् ही वह परमाणु है जिसमे तीन कण के रूप में क्रमशः ब्रह्मा, विष्णुमहेश कहा गया।

 

ओ३म् अग्निमीळे पुरोहितं यज्ञस्य देवमृत्विजम। होतारं रत्नधातमम्॥ ऋग्वेद 1.1

 

       यह ऋग्वेद का प्रथम मंत्र है, इसमें जो मुख्य उपदेस परमेश्वर कर रहा है, वह परमेंश्वर कह रहा है कि मैं स्वयं अग्नि के समान या फिर जितने प्रकार कि अग्नी है, उन सब का मैं मुल हूं। मुझे तुम जानों मैंने इस जगत में सब कुछ अग्नि से ही बनाया है। जो मेरे गुणों से ओत प्रोत है और जो भयंकर ज्वलन शील है। यह सब दृश्यमय जगत साक्षात अग्निकुण्ड है। जिसमें मैं तुम सब प्राणियों कि आहुति दे रहा हूं, तुम्हारा जन्म और मृत्यु का उद्देस्य केवल एक ही है। भष्म होना मैंने तुम्हारा निर्वाण भष्मों से ही किया है और तुम्हें भष्म में ही मिल जाना है। यही साश्वत सत्य है कालजई ज्ञान है। इसको तुम्हें धारण करना है, तुम्हे भी इस यज्ञ को करते हूए अपने जीवन को व्यतित करना है, अपने जीवन की परवाह ना करके इस यज्ञ की अग्नि को हमेंशा प्रज्वलित ही रखना तुम्हारा परम कर्तव्य है। मैं अग्नि स्वरूप मेरे अनन्त रूप है, एक भौतिक अग्नि, एक दैविक अग्नि, एक आध्यात्मिक अग्नि। यह तिन प्रकार की मुख्य अग्नि को जानों, मैं तुम में हूँ तुम मुझमें हो हम तुम एक है। यह तुम्हारे सामने अग्नि का साक्षात रूप संसार के सत्य को जानने से ही होगा। यह संसार ही तुम्हारी शरीर है। यह शरीर ही यह पृथ्वि है, यह तुम्हारी शरीर ही ज्वलन शील ब्रह्माण्ड के समान है। तुम मेंरी कामना करों मुझे ही चाहों मुझमें ही तुम्हारा ध्यान हो, मेरे अतिरीक्त तुम्हार ध्यान हमेसा तुम्हे केवल अतृप्त करने वाला होगा और तुमको जलाने वाला ही होगा। मैं ही सब प्रकार के श्रेष्ठ सब ऐश्वर्यों का मुख्य केन्द्र बिन्दु ईश्वर हूं। तुमने सब कुछ प्राप्त कर लिया यदि मुझको नहीं प्राप्त किया, तो तुम्हारा सब कुछ पाना ऐसे ही है, जैसे तुमने अपनी आत्मा का तो त्याग कर दिया और अपने शरीर रुपी राख कि भष्म को एकत्रित कर के संजो कर रख लिया है। जागों होश में आओं मैं तुम्हे पुकार रहा मुझे तुम्हारी ज़रूरत है। तुम्हे हमारी ज़रूरत है, हम तुम एक दूसरे के पुरक है। इस संसार रुपी अग्नि कुण्ड में भष्म होने से पहले तुम मुझसे आ मिलो। जिससे ही तुम्हारा और तुम्हारे नगर रूपी देश और शरीर रूपी पुर का कल्याण होना निश्चित है। यह सब यज्ञ के समान कृत्य हमारे द्वारा ही हो रहा किया जा रहा है। इस कृत्य से तुम भाग नहीं सकते हो, इसमें तुमको मेरा सहयोग मेरा साथ देना है। इसके लिये ही मैंने तुमको अग्नि मय बनाया है और अग्निमय ज्वलनसील संसार में तुमको झोक दिया है। जिस प्रकार सोने को आग में डाल देते है, उसे तपा कर शुद्ध करने के लिये, उसी प्रकार से तुम्हारा शुद्ध रूप मैं ही हूं। सबसे बड़ा तपस्वी जिससे कारण ही इस तप से ही इस विश्व ब्रह्ममाणंड को धारण किया है। केवल तुम मेरे सहारे मेरी उंगली पकड़ कर ही तुम इस आग के समुद्र के समान भव सागर को तर सकते हो। जब तुम तपस्वी बनोगें क्योंकि यहा सब कुच तप से ही आच्छादित किया गया है। इसके अतिरीक्त कोई दूसरा मार्ग मैंने तुम्हे निकले का इस संसार रूपी शरीर से बनाया ही नहीं है। इसी हमारे बताये गये मार्ग का अनुसरण करके ही तुमसे पहले जितने भी ज्ञानी, विद्वान, योगी, रहस्यदर्शी, साधु, संत, महात्मा, महापुरुष हुए है और जो तुम्हारे बाद होगें, आगें भी इस भूमंडल पर वह भी मेरे द्वारा नियत मार्ग पर चल कर हि मुझ तक पहूंच सकते है। ऐसा ही सभी देवताओं ने भी किया है और इसी प्रकार यज्ञ के समान कार्य को करते हुए, उन्होंने अपनी मृत्यु को भी जीत लिया है। अर्थात वह सब काल को भी जित लिया है, सब के सब अमर हो चुके है। जिसका प्रमाण यह सूर्य और पृथ्वी आज भी दे रहे है। यह सब उन देवताओं का ही प्रताप है, जिसके कारण ही जगत आज सत्य के अलौकिक अद्भुत आनन्द से भावबिभोर हो रहा है। जिसकी कुछ बुदें ओश कि तरह तुम्हारे जीवन में भी टपक रही है और उनके द्वारा उपार्जित पुरुषार्थ के द्वारा हि तुम सब आज रत्नों को धारण कर रहे हो, इस सारे रत्नों में सर्वश्रेष्ठ रत्न तो मैं ही मुझको छोड़ कर तुम सब कंकड़ पत्थर को ही प्राप्त कर सकते हो। वह तुम्हारें लिये शिवाय भार के और क्या है?

   

     मैं ही सब ब्रह्माण्डों को गती देने वाला अग्नि स्वरूप और सभी प्राणियों की उन्नति का साधक, सबसे अग्रणी, सारे ऐश्वर्यों का उत्पादक ईश्वर हूं। तूम अपने कृत्यों के द्वारा जाने अन्जाने में हर प्रकार से मेरी ही संरक्षण में रहते हो। मुझसे ही कामना करते हो और मुझसे ही तुम सब कुछ प्राप्त करते हो, मेरी ही उपासना के द्वारा तुम धारणा ध्यान समाधि में तुम लिन होते हो और अपने जीवन की सारी समस्यायों का समाधान प्राप्त करते हो। मैं ही तुम्हारी सारी मंजीलो का आधार भूत केन्द्र हूं। जो पहले से हि रखे हुए है, अर्थात जो इस श्रृष्टि के बनने से पहले हि विद्यमान है। मैं जो कभी ना बनता हू ना हि बिगड़ता हूं। मैं स्वयं भू अपने आप होने वाला हूँ और तुम सब जीवों का परम आदर्श रूप से तुम सब में अदृश्य रूप से विद्यमान तुम सबका अन्तर्यामी हूं। तुम्हारा परम जीवन उद्देश्य है कि तुम सब हमारे अनुकूल बनों, ऐसा नहीं है कि तुम हमारे प्रतिकुल बन सकते हो, यद्यपि सत्य तो यह कि तुम सब जीव जब प्रकृति के संसर्ग में आते हो तो तुम्हारा अधिकतर साक्षात्कार प्राकृतिक तथ्यों से ही होता है। जिसके कारण ही तुम सब का झुकाव प्रकृति की तरफ अधिक होता है। तुम सब जीवों का मैं परमेश्वर तुम्हारी स्वेच्छा पर ही मैं तुम सब के लिये उपलब्ध होता हूं। मैं तुम्हारे कर्तव्य कर्मों का निर्धारण करने वाला हूं और तुम सब का अग्रणी नेता तुम सब मेरे द्वारा बताये गये मार्ग से चलकर इन वेद वाणियों के साक्षात्कार से ही, तुम मुझ तक पहुच सकते हो और अपने प्रत्येक कर्मों का निर्धारण करके ही उस कर्म के अनुरूप शुभ और अशुभ कर्मों के फलों के भोक्ता तुम बन सकते हो। जिसके फलस्वरूप ही तुम सब आत्मा के लिये बहु उपयोगी मानव शरीर रूपी रत्न या कोई और अशुभ शरीर जो तुम्हारे लिये पिड़ा और दुःख कारण तुम्हारी परतंत्रता पशुआदि शरीर या किड़े मकौणे कि शरीर को धारण करते हो। क्योंकि तुम सब कर्म करने में स्वतंत्र हो फल में तुम्हारी स्वतन्त्रता नहीं है।


      इस आग का आभाश तुम अपने जीवन के प्रत्येक दिन में कर सकते हो। यहा संसार में हर आदमी जल रहा है, आदमी चलता फिरता ज्वालामुखि के समान है। कोई काम की अग्नी से जल रहा है, तो कोई क्रोध के अग्नि से जल रहा है, कोई ईर्श्या और द्रोह कि अग्नि में जल रहा है। कोई पाप कि अग्नि में जल रहा है। तो कोई पुण्य कि अग्नि में जल रहा है, हर व्यक्ति यहाँ जल रहा है और वह तब तक जलता रहेगा जब तक कि उसकि शरीर उस अग्नि को बर्दास्त करने के अयोग्य नहीं हो जाती है। यह अग्नि जब सार्थक दिशा में बहती है। तो तुम्हारा कल्याण करती है, जिस प्रकार से गृहों में जब तक आग नियंत्रृत रहती है। तब तक तुम्हारा सबसे श्रेष्ठ दास है और जब यह अनियंत्रित हो जाती है, तो यह बहुत खतरनाक स्वामी बन जाती है। इसमें उस समय हर प्रकार के दोष आ जाते है, जो तुम्हारा हर प्रकार से अकल्याण करने के लिये पर्याप्त होती है। जिस प्रकार से परमाणु से विद्युत प्राप्त कर सकते हो और अपने जीवन के प्रत्येक कार्य को सिद्ध कर उर्जा प्राप्त कर सकते हो और यह परमाणु शक्ति ही है जब यह अनियंत्रित हो जाती है। तब यह तुम्हारे साथ इस भुमंडल का भी तहस नहश कर सकता है। इसलिये ही मैंने तुम्हें वुद्धि और समझ दिया है। किसी भी कार्य को करने से पहले उसके परिणाम के बारें में अवश्य विचार लो अन्यथा यह अग्नि तुमको बहुत तरह से प्रताड़ित भी करेगी, जिससे तुम्हे असहनिय पिड़ा क्लेश और संताप की अनुभूति होगी।

     इस अग्नि रूप सुक्ष्म उर्जा से ही यह परमाणु बना है और इन परमाणुओं से ही यह सम्पूर्ण विश्वब्रह्माण्ड बन रहा है और इस अग्नि से हि सभी जीवों कि शरीर निर्मित हो रही है और इसी अग्नि से ही सभी जीवों की शरीरों का कल्याण संभव है और यह अग्नि ही यज्ञ से रूप हो कर अपने सद्गुणों कि आहुतियों के द्वारा ही सम्पूर्ण विश्व ब्रह्मण्ड के साथ संम्पूर्ण जगत के सभी प्राणियों का हर प्रकार से पालन पोषण और संहार कर के संसार को निरंर गति दे रही है। यही अग्नि तुम्हारी आत्मा स्वरूप है। जो इस अग्नि स्वरूप परमेश्वर यानी मेरी अनुकंपा के द्वारा ही हर प्रकार के सर्वगुणों और हर प्रकार के बहुमुल्य रत्नों को धारण करते हो।


     आज के हमारे आधुनिक वैज्ञानिक भी यह मानते है कि यह संपूर्ण जगत उर्जा रीप अग्नि ले ही बना है। इससे केवल बाहरी जगत अर्थात सूर्य पृथ्वी या ब्रह्माण्ड ही नहीं हम सब की शरीर भी इसी से बनी है। इसी से यह मुख्यतः जो पांच तत्व है अग्नि, वायु, जल, पृथ्वी और आकाश भी बना है।


     इस शरीर रूपी संसार में जब तक रहते हो, तब तक इस चेतन अग्नि को द्वारा ही तुम सब मानव के साथ सभी जीव जन्तु प्राणी जैसा कर्म करते हो। उसी प्रकार उसके परिणाम स्वरूप फलों को उपलब्ध होते है। जिसके कारण ही देवता और दैत्य में अग्नि विभाजित हो जाती है और जब इस संसार रूप शरीर को छोड़ने के बाद, तुम सब कि चेतना के द्वारा जैसा कर्म किया जाता है। उसके कर्म के आधार पर ही यह देवो के मार्ग का अनुसरण करती है या फिर दैत्यों के मार्गों का अनुसर्ण करते हुए अपने और लोकों का विचरण करती है। इसी को उपनिषदों में देवयान और पितृयान मार्ग से अभियक्त किया गया है।

   अग्नि रूप परमेश्वर कि उपासना तथा देवयान और पितृयान मार्गः-


      इन खण्डों में अग्नि रूप परमेश्वर की उपासना के महत्त्व को प्रतिपादित किया गया है और देवयान मार्ग तथा पितृयान मार्ग के मर्म को समझाया गया है। ये दोनों मार्ग, मृत्यु, के पश्चात् जीव (आत्मा) जिन मार्गों से ब्रह्मलोक जाता है, उन्हीं के विषय को दर्शाते हैं। ये दोनों मार्ग भारतीय उपनिषदक दर्शन की विशिष्ट संकल्पनाएँ हैं। इनका उल्लेख 'कौषीतकि' और 'बृहदारण्यक' उपनिषदों में भी विस्तार से किया गया है।


      एक बार आरुणि-पुत्र श्वेतकेतु पांचाल नरेश जीवल की राजसभा में पहुंचा। जीवल के पुत्र प्रवाहण ने उससे पूछा कि क्या उसने अपने पिता से शिक्षा ग्रहण की है? इस पर श्वेतकेतु ने 'हां' कहाँ तब प्रवाहण ने उससे कुछ प्रश्न किये-प्रवाहण-'क्या तुम्हें पता है कि मृत्यु के बाद मनुष्य की आत्मा कहाँ जाती है? क्या तुम्हें पता है कि वह आत्मा इस लोक में किस प्रकार आती है? क्या तुम्हें देवयान और पितृयान मार्गों के अलग होने का स्थान पता है? क्या तुम्हें पता है कि पितृलोक क्यों नहीं मरता? क्या तुम्हें पता है कि पांचवीं आहुति के यजन कर दिये जाने पर घृत सहित सोमादि रस' पुरुष'संज्ञा को कैसे प्राप्त करते हैं?'


      प्रवाहण के इन प्रश्नों का उत्तर श्वेतकेतु ने नकारात्मक दियाँ तब प्रवाहण ने कहा-'फिर तुमने क्यों कहा कि तुम्हें शिक्षा प्रदान की गयी है?' श्वेतकेतु इस प्रश्न का उत्तर भी नहीं दे सका। वह त्रस्त होकर अपने पिता के पास आया और उन्हें सारा वार्तालाप सुनाया। आरुणि ने भी उन प्रश्नों का उत्तर न जानने के बारे में कहा। तब दोनों पिता-पुत्र पांचाल नरेश जीवल के दरबार में पुन: आये और प्रश्नों के उत्तर जानने की जिज्ञासा प्रकट की। राजा ने दोनों का स्वागत किया और कुछ काल अपने यहाँ रखकर एक दिन कहा-'हे गौतम! प्राचीनकाल में यह अग्नि-विद्या ब्राह्मणों के पास नहीं थी। इसी कारण यह विद्या क्षत्रियों के पास रही।' राजा ने आगे कहा-'हे गौतम! यह प्रसिद्ध द्युलोक ही अग्नि है। आदित्य अग्नि का ईधन है, किरणें धुआं हैं, शदिन ज्वाला है, चन्द्रमा अंगार है और नक्षत्र चिनगारियाँ हैं इस द्युलोक अग्नि में देवगण श्रद्धा से यजन करते हैं। वे जो आहुति डालते हैं, उससे' सोम'राजा का प्रादुर्भाव होता है।' राजा ने आगे कहा-'हे गौतम! इस अग्नि-विद्या में पर्जन्य ही अग्नि है। वायु समिधाएँ हैं, बादल धूम्र हैं, विद्युत ज्वालाएँ है, वज्र अंगार है और गर्जन चिनगारियाँ हैं। इस देवाग्नि में सोम की आहुति डालने से वर्षा प्रकट होती है।' राजा ने फिर कहा-'हे गौतम! पृथ्वी ही अग्नि है, संवत्सर समिधाएँ हैं, आकाश धूम्र है, रात्रि ज्वालाएँ हैं, दिशाएँ अंगारे हैं और उनके कोने चिनगारियाँ हैं। उस श्रेष्ठ दिव्याग्नि में वर्षा की आहुति पड़ने से अन्न् का प्रादुर्भाव होता है।' राजा ने चौथे प्रश्न का उत्तर दिया-'हे गौतम! यह पुरुष ही दिव्याग्नि है, वाणी समिधाएँ हैं, प्राण धूम्र है, जिह्वा ज्वाला है, नेत्र अंगारे हैं और कान चिनगारियाँ हैं। इस दिव्याग्नि में सभी देवता मिलकर जब अन्न की आहुति देते हैं, तो वीर्य, अर्थात् पुरुषार्थ की उत्पत्ति होती है।' पांचवें प्रश्न का उत्तर देते हुए राजा ने कहा-'हे गौतम! उस अग्नि-विद्या की स्त्री ही दिव्याग्नि है, उसका गर्भाशय समिधा है, विचारों का आवेग धुआं है, उसकी योनि ज्वाला है, स्त्री-पुरुष के सहवास से उत्पन्न दिव्याग्नि अंगारे हैं और आनन्दानुभूति चिनगारियाँ हैं उस दिव्याग्नि में देवगण जब वीर्य की आहुति डालते हैं, तब श्रेष्ठ गर्भ का अवतरण होता है। इस पांचवीं आहुति के उपरान्त प्रथम आहुति में होमा गया' आप: '(जल-मूल जीवन) काया में स्थित पुरुषवाचक' जीव या प्राणी' के रूप में विकसित हो जाता है।


      'समय आने पर यही जीव, जीवन-प्रवाह में पड़कर नया जन्म ले लेता है और निश्चित आयु तक जीवित रहता है। इसके बाद शरीर त्यागने पर कर्मवश परलोक को गमन करते हुए वह वहीं चला जाता है, जहाँ से वह आया था। जो साधक इस पंचग्नि-विद्या को जानकर श्रद्धापूर्वक उपासना करते हैं, वे सभी प्राणी, प्रयाण के उपरान्त' देवयान मार्ग 'और' पितृयान मार्ग'से पुन: द्युलोक में चले जाते हैं।'

       देवयान और पितृयान मार्ग-देवयान मार्ग'के अन्तर्गत प्राणी मृत्यु के उपरान्त अग्निलोक या प्रकाश पुंज रूप से दिन के प्रकाश में समाहित हो जाते हैं। चन्द्रमा के शुक्ल पक्ष से वे उत्तरायण सूर्य में आ जाते हैं। छह माह के इस संवत्सर को आदित्य में, आदित्य को चन्द्रमा में, चन्द्रमा को विद्युत में, विद्युत को ब्रह्म में पुन: समाहित होने का अवसर प्राप्त होता है। इसे ही आत्मा के प्रयाण का' देवयान मार्ग'कहा जाता है। इस मार्ग से जाने वाले जीव का पुनर्जन्म नहीं होता।' पितृयान मार्ग' से वे प्राणी मृत्यु के उपरान्त जाते हैं, जिन्हें ब्रह्मज्ञान किंचित मात्रा में भी नहीं होता। वे लोग धुएँ के रूप में परिवर्तित हो जाते हैं। धुएँ के रूप में वे रात्रि में गमन करते हैं। रात्रि से कृष्ण पक्ष में और कृष्ण पक्ष से दक्षिणायन सूर्य में समाहित हो जाते हैं। ये लोग देवयान मार्ग से जाने वाले जीवों की भांति संवत्सर को प्राप्त नहीं होते। ये दक्षिणायन से पितृलोक आकाश में और आकाश से चन्द्रमा में चले जाते हैं। इससे आगे वे ब्रह्म को प्राप्त नहीं होते। अपने कर्मों का पुण्य क्षय होने पर ये आत्माएँ पुन: वर्षा के रूप में मृत्युलोक में लौट आती है। ये उसी मार्ग से वापस आती हैं, जिस मार्ग से ये चन्द्रमा में गयी थीं। वर्षा की बूंदों के रूप में जब ये पृथ्वी पर आती हैं, तो अन्न और वनस्पति-औषधियों के रूप में प्रकट होती हैं। तब उस अन्न और वनस्पति का जो-जो प्राणी भक्षण करता है, ये उसी के वीर्य में जीवाणु के रूप में पहुंच जाती हैं पुन: मातृयोनि के द्वारा जन्म लेती हैं। पितृयान से जाने वाले जीव पुन: जन्म लेते हैं। फिर वह चाहे पशु योनि में आयें, चाहे मनुष्य योनि में। जीवन और मरण का यही रहस्य है।


      यहाँ तक दो प्रकार कि अग्नि कि बात कही गई है, पहली एक सर्व प्रथम परमेंश्वर नाम कि अग्नि दूसरी जीवात्मा रूप अग्नि है जिसको ही यहाँ पर एक देवता दूसरा दैत्य के नाम कि चेतना कहा गया है। जिसका कर्म श्रेष्ठ होते है वह परमेश्वर के सद्गुणों को धारण करके वह देवता के समान हो जाता है। दूसरा जो कर्म से गिर जाता है जिससे ही उसका पतन होता है। प्रायः ऐसा देखा गया इस जगत में कि देवता किस्म को लोग बहुत हि कम होते है। जबकि दैत्यों कि ज़्यादा संख्या असिमित है। इसी को आज के वैज्ञानिक दो नामों से पुकारते है एक तत्व है जो विश्व ब्रह्माण्ड का समर्थन करता है दूसरा तत्व है जो इस ब्रह्माण्ड के पतन का कारण है। इसी को हम सुक्ष्म जीव वैक्ट्रिया और फंजाई (फफुंद) कहते है। यह दो प्रकार के सुक्ष्म जीव है जो एक दूसरे से भिन्न कार्य करते है एक जीवन के विकास का कारक है तो दूसरा मृत्यु का कारक है। एक तीसरा भी है जिसे परमेश्वर कहते है जो इनको इनके नियत कर्मों के लिये इनको नियत करता है। जिसको ही त्रिदेव कहते है, इसको ही ज्ञान विज्ञान ब्रह्मज्ञान कहते है। ज्ञान मतलब जो जीवाणु है, विज्ञान का मतलब है, फंफुद से है जो जीवन के संहार का कारय करता है। जो सबको को मृत सिद्ध करता है। ब्रह्मज्ञान का मतलब उस अदृश्य ब्रह्मा से है जो दोनों के कर्मों को निश्चित करता है।


    इनको समय के साथ नये नामों से परिभाषित किया गया है। जिस प्रकार से एक परमाणु में तिन कण होते है। जो जिसको सत, रज, तम कहते है। इनको ही सर्व प्रथम परमेश्वर का मुख्य निज नाम ओ३म् कहा गया है। अर्थात यह ओ३म् ही वह परमाणु है जिसमे तीन कण के रूप में क्रमशः ब्रह्मा, विष्णु, महेश कहा गया। यही तीन प्रथम में मुख्य दोवता है जिनके द्वारा हि आगे अमैथुन श्रृष्टि का प्रारंम्भ होता है जिसका उपदेस अगले मंत्र में परमेश्वर स्वयं कर रहा है।

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अग्नि सुक्तम् - अग्निमीळे पुरोहितं यज्ञस्य देवमृत्विजम्

PART-2- BRAHM KOWLEDGE

BRAHMA-KNOWLEDGE-PART-1

S’rimad Devî Bhâgavatam THE FIRST BOOK

Chapter XV-XVI-XVII-XVIII-XIX-XX-XXI-XII

S’rimad Devî Bhâgavatam THE FIRST BOOK Chapter XIII-XIV

S’rimad Devî Bhâgavatam THE FIRST BOOK Chapter XI-XII

S’rimad Devî Bhâgavatam THE FIRST BOOK Chapter IX-X

S’rimad Devî Bhâgavatam THE FIRST BOOK Chapter VII-VIII

S’rimad Devî Bhâgavatam THE FIRST BOOK Chapter V-VI

S’rimad Devî Bhâgavatam THE FIRST BOOK Chapter III-IV

S’rimad Devî Bhâgavatam THE FIRST BOOK Chapter I-II

VISHNU PURANA. - BOOK III. CHAP -16,17,18

VISHNU PURANA. - BOOK III. CHAP. XV.

VISHNU PURANA. - BOOK III.  CHAP. XIV.

VISHNU PURANA. - BOOK III.  CHAP. XIII.

VISHNU PURANA. - BOOK III.  CHAP. XII.

VISHNU PURANA. - BOOK III.  CHAP. XI.

VISHNU PURANA. - BOOK III. CHAP. X

VISHNU PURANA. - BOOK III. CHAP. IX

VISHNU PURANA. - BOOK III. CHAP. VIII

VISHNU PURANA. - BOOK III. CHAP. VII.

VISHNU PURANA. - BOOK III. CHAP. VI

VISHNU PURANA. - BOOK III. CHAP. V

VISHNU PURANA. - BOOK III. CHAP. IV

VISHNU PURANA. - BOOK III.- CHAP. III

VISHNU PURANA. - BOOK III.- CHAP. II.

VISHNU PURAN BOOK III.CHP-1

Self – Suggestion- Chapter 8

Self-Suggestion Chapter 7

Self-Suggestion- Chapter 6

चंद्रकांता (उपन्यास) पहला अध्याय : देवकीनन्दन खत्री

खूनी औरत का सात खून (उपन्यास) : किशोरी लाल गोस्वामी

ब्राह्मण की बेटी : शरतचंद्र चट्टोपाध्याय (बांग्ला उपन्यास)

Self – Suggestion -Chapter 5

Self - Suggestion - Chapter 4

Self-Suggestion -- Chapter 3

SELF SUGGESTION Chapter 2

SELF-SUGGESTION AND THE NEW HUNA THEORY OF MESMERISM AND HYPNOSIS – chapter-1, BY- MAX FREEDOM LONG

VISHNU PURAN - BOOK II.

VISHNU PURAN-BOOK I - CHAPTER 11-22

VISHNU PURANA. - BOOK I. CHAP. 1. to 10

Synopsis of the Vishnu Purana

Introduction of All Puranas

CHARACTER-BUILDING.

SELF-DE-HYPNOTISATION.

THE ROLE OF PRAYER. = THOUGHT: CREATIVE AND EXHAUSTIVE. MEDITATION EXERCISE.  

HIGHER REASON AND JUDGMENT= CONQUEST OF FEAR.

THE GREAT EGOIST--BALI

QUEEN CHUNDALAI, THE GREAT YOGIN

CREATION OF THE UNIVERSE

THE WAY TO BLESSED LIBERATION

MUDRAS MOVE THE KUNDALINI

LOCATION OF KUNDALINI

SAMADHI YOGA

THE POWER OF DHARANA, DHIYANA, AND SAMYAMA YOGA.

THE POWER OF THE PRANAYAMA YOGA.

INTRODUCTION

KUNDALINI, THE MOTHER OF THE UNIVERSE.

TO THE KUNDALINI—THE MOTHER OF THE UNIVERSE.

Yoga Vashist part-1 -or- Heaven Found   by   Rishi Singh Gherwal   

Shakti and Shâkta -by Arthur Avalon (Sir John Woodroffe),

Mahanirvana Tantra- All- Chapter  -1 Questions relating to the Liberation of Beings

Mahanirvana Tantra

Tantra of the Great Liberation

Translated by Arthur Avalon

(Sir John Woodroffe)

Introduction and Preface

CONCLUSION.

THE VAMPIRE'S ELEVENTH STORY.

THE VAMPIRE'S TENTH STORY.

THE VAMPIRE'S NINTH STORY.

THE VAMPIRE'S EIGHTH STORY.

THE VAMPIRE'S SEVENTH STORY.

THE VAMPIRE'S SIXTH STORY.

THE VAMPIRE'S FIFTH STORY.

THE VAMPIRE'S FOURTH STORY.

THE VAMPIRE'S THIRD STORY.

THE VAMPIRE'S SECOND STORY.

THE VAMPIRE'S FIRST STORY.

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