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I Am Ancestor of all Ancestors -Rigved - मैं ऋषियों का पुर्वज हूं

I Am Ancestor of all Ancestors -Rigved -    मैं ऋषियों का पुर्वज हूं

 

ओ३म् अग्निः पुर्वेभिर्ऋषिभिरीड्यो नुतनैरुत। स देवाँ एह वक्षति॥ ऋग्वेद 1.2

 

    जैसा कि प्रथम ऋग्वेद के मंत्र से परमेंश्वर ने उपदेस दिया कि परमेश्वर स्वयं अग्नि का सुक्ष्म से सुक्ष्मतम स्वरूप है और उसने बताया कि वह सब कुछ इस अग्नि से ही बनाया है। इसलिये यह सम्पूर्ण जगत दृश्य मय विश्व ब्रह्माण्ड अग्निवत है। अर्थात बहुत अधिक ज्वलनशील है, इसमें सिर्फ़ वहीं सही मार्ग पर गति कर सकते है जो इस अग्नि का सद्उपयोग करना नियंत्रित रूप से जानते है। यह अग्नि ही दो रूपों में व्यक्त कि गई है। एक दृश्य रूप हो दृश्य ब्रह्माण्ड है और एक अदृश्य ब्रह्माण्ड को धारण करने वाला स्वंय परमेश्वर है। इसको उसी परमेंश्वर कि निश्वास वाणी वेदों के माध्यम से जान कर जब इसका सद्उपयोग करता है। तो इस श्रृष्टि का उदय होता है और जब अनियंत्रित होती है तो यह भयंकर संहारक सिद्ध होती है। उसी अग्नि रूप शक्ति का विस्तार करते हुए परमेश्वर कहते हैं कि मैं ही अग्नि स्वरूप सर्वप्रथम श्रृष्टि के आदि में ब्रह्माण्ड को गती देने वाला आगें चल कर ऋषियों के पुर्वज के रूप में अवतरित हुआ हूं। इस विश्व ब्रह्माण्ड को नविनता प्रदान करन के लिये इस दृश्यमय जगत में और इन ऋषियों से ही सभी देवात और दैत्य आदि उत्पन्न हुए. जिनका आपस में संघर्ष के कारण स्वरूप ही यह जगत निरंतर गति को प्राप्त कर रहा है।

      इस तरह से सर्वप्रथम ऋषियों का उदय परमेंश्वर स्वयं करता है या स्वयं ऋषियों के रूप में अवतरित होता है। जब परमेश्वर ऋषि रूप में अवतरित हुये, वह श्रृष्टी अमैथुन थी। क्योंकि सर्वप्रथम श्रृष्ठि के आदि में अमैथुनि श्रृष्टि ही होती है। ऋषि का मतलब ही होता है (ऋ) अर्थात जो अदृश्य है जो शाश्वत है जो सब का मुख्य कारण है। जिसका कारण कोई नहीं जो अकारण है वह ऋतम्भरा तत्र प्रज्ञा। अर्थात जो शुद्ध ज्ञान है, (ष) अर्थात वह जो दूर दिखाई देने वाला चेतन प्राणि ज्ञान वान है वह ऋषि है। अर्थात ऋषि वह है जो दृष्य और अदृष्य को जोड़ने वाला संगम कि तरह से है। ऋषिरवैः द्रष्टा अर्थात ऋषि द्रष्टा कि तरह साक्षी है वह दोनों को देखने वाला है और दोनों से परे भी है। जैसे गंगा और जमुना को जोड़ने वाली अदृश्य नदी सरस्वती है। जिससे संगम बनता है, सरस्वती नाम ज्ञान के देवी का भी है। ज्ञान को भी तीन रूपों में विभक्त किया है इड़ा, सरस्वति और महि, अर्थात ज्ञान, कर्म, उपासना यह तीन प्रकार है। अर्थात ज्ञान स्वतः अपने आप में पूर्ण परमेश्वर रूप और निर्दोष है, कर्म अर्थात जिसका सम्बंध शरीर से है जो मानव है। तीसरा उपासना आर्थात जो पहले से विद्यमान ज्ञान स्वरूप परमात्मा है। उसके समिप कर्म के द्वारा उपस्थित होने को उपासना कहते है। जिसकी कामना साधक गायत्री मंत्र में करता है। वुद्धि ज्ञान को धारण करने वाली है। साधक आत्मा है वह कामना करता है कि परमेंश्वर कि कृपा से मुझे धि मही, अर्थात मेरी वुद्धि श्रेष्ट ज्ञान को धारण करें जिसकी लोग प्रशंशा करते है। जैसा कि मंत्र में स्वयं परमेश्वर कह रहा है कि वही ऋषियों के पुर्वजों के रूप में अवतरित होता है अग्नि रूप जिसने त्रयी विद्या ऋग, यजु, साम, अर्थात वेद का ज्ञान क्रमशः ब्रह्मा, विष्णु और महेश को दिया इनसे ही आगें चल कर मैथुनि श्रृष्टि का प्रारंम्भ किया गया।

     सर्वप्रथम विश्व ब्रह्माण्ड कि उत्पत्ती से पहले कुछ भी नहीं था, शिवाय परमेस्वर रूप अदृश्य शक्ति के उस परमेंश्वर ने इच्छा कामना कि-कि मैं अनन्त रूपों में हो जाऊ और उसने स्वयं का स्मरण किया अर्थात स्वयं के निज नाम से ओ३म् का जिससे शब्द का उच्चारण किया। इस शब्द से ही परमेश्वर रूप अदृश्य से दृश्य परमाणु रूप हुआ और इस परमाणु रूप अग्नि से धिरे-धिरे समय के साथ अनन्त ब्रह्माण्ड कि उत्पत्ति हुई निरंतर हो रही है क्योंकि इसके पिछ स्वयं परमेश्वर कि अनन्त शक्ति कार्य कर रही है। इस परमाणु रूप अग्नि के तीन कण रूप ही यह ब्रह्मा, विष्णु और महेश हूये। इनसे आगे चल कर चार ऋषि हुए अग्नि, वायु, आदित्य, अङ्गिरा यह ही चार ऋषि प्रथम ऋषि है जिन्होंने सर्वप्रथम क्रमशः चारों वेदों का साक्षात्कार किया था और इनसे ही मैथुनि श्रृष्टि का आभिर्भाव हुआ।

         शब्द को भी ईश्वर कहते है, इस नाम के उच्चारण मात्र से अदृश्य जगत से दृश्य जगत में बहुत सुक्ष्म एक अणु का सर्जन हुआ जिसमें प्रथम ब्रह्म कण, दूसरा विष्णु कण, तीसरा महेश कण कहते है। यह एक परमाणु बन गये और यह ब्रह्म कण निरंतर विस्तार करने लगा। यही तीन कण में से एक से शरीर है दूसरे से मन बना है, तीसरे से आत्मा है। यह तीनों क्रमशः एक दूसरे से सुक्ष्म है। यह मन जिससे आकाश का जन्म हुआ, जिससे मन बना और उसी एक मन को अनन्त ब्रह्माण्डों का गर्भ कह सकते है। यह उस परमेंश्वर के लिये कच्चा पदार्थ की भाती था। जिससे ही वह अनन्त किस्म की इस अद्भुत जगत की रचना की, जैसा कि हमारें प्राचिनतम शास्त्रों में आता है कि अग्नी, वायु, जल और पृथ्वी यह पांच प्राकृतिक भौतिक दृश्य मय पदार्थ है। जिस हम अपनी नग्न आखों से देख सकते है। यही महेश कण है, यह एक ही पदार्थ से अलग-अलग रुपों में बिभक्त हुये है। जैसा कि हम सब जानते है कि जल एक ऐसा पदार्थ है जिसमें आग और हवा भी है। जिस प्रकार से वायु आक्सिजन जीवन के लिये अवश्यक तत्व है। जिसको जल के अन्दर रहने वाले जलिय जीव मछली आदी पानी में से छान लेते है और अपने आप को पानी के अन्दर जीने लायक बनाते है। जैसा की हम सब जानते है कि हाइड्रोजन एक ज्वलनशिल पदार्थ है जो आक्सिजन के परमाणु के साथ अभिक्रिया करके जल के एक परमाणु को बनाता है। यही हाड्रोजन भविष्य के लिये बहुत बड़ा उर्जा को श्रोत है। जिससे भविष्य में सभी वाहन आदि आसानी से चल सकते है। जबकी जैविक इधन जैसे पेट्रोल डीजल आदी खत्म होने के कगार पर है। पानी के एक परमाणु में दो तत्व है आग और हवा तीसरा स्वयं जल है चौथा तत्व आकास है, इनके मध्य में ही विद्यमान है पांचवा तत्व यह पृथ्वी है, जो इन चारों के मेल से बनी है। सर्व प्रथम ज्वलनशिल गैसें थी। जो आगे चल कर अग्नी का रूप धारण किया जिनसे बहुत सारें तारों का उदय हुआ। इन तारों से अनन्त ग्रहों का उद्भव हुआ और फिर इन ग्रहों पर जीवों का उद्भव हुआ क्रमशः समय के साथ जब ग्रह और तारें आकाश गंगा में स्थापित हो गये तो उसके बाद इसमे उपस्थित कुछ ग्रहों पर जैसे शुक्र, वृहस्पती, मंगल, आदि ग्रहों पर जीवन का उद्भव हुआ। इनको व्यवस्थित रूप से उस परमेश्वर ने पैदा किया सबसे पहले शुक्र ग्रह पर आज के अरबो खरबों साल पहले वायु मंडल निर्मित किया गया, उसके बाद उस ग्रह पर वनस्पती युग आया तरह-तरह के वृक्ष लतायें पेड़ पौधों को उत्पन्न किया गया, उसके उपरान्त देव युग, मन फिर मनु युग आया अर्थात मन का सर्जन हुआ जो आकाश का ही एक रूप है। यह विष्णु कण के रूप में है क्योकि मन ही है, जो दोंनों में एक साथ भाषता है। अर्थात मन विशुद्ध रूप से ब्रह्म के स्वरुप को साक्षात्कार करके उनसे एकात्म कर सकता है और यही मन प्रकृती के मुख्य देवता महेश से भी विशुद्ध रूप से जुण कर इस दृश्य मय जगत का सर्जन कर सकता है। जो मन पहले ग्रहों में तारों में रहा फिर वनस्पतियों में रहा फिर इसने एक कदम आगे बढ़ कर चलते फिरते प्राणियों और सुक्ष्म से बृहद जीवों के शरिर का रूप ग्रहण किया सबसे अन्त में मानव को शरीर का उद्भव हुआ। इस मानव को स्वयं का ज्ञान पर्मेश्वर के सामन था। प्रारंभ से इसका झुकाव प्रकृती की तरफ अधिक रहा जिसके कारण ही यह निरंतर अवनती ही करता रहा। जिसको हम यह कह सकते है कि यह मन ही बहुत अधिक शरीरों को धारण किया जिसमें बहुत सारें देवी देवता और अवतार आते है ऋषि महर्षि के शरीर में यह मन उपस्थित हुआ। अवनती के कारण ही यह एक ग्रह को नष्ट करता हुआ दूसरे ग्रह पर अपना निवास बनाता रहा। शुक्र ग्रह के वायुमंडल को और वहाँ क सभी जीवों का अन्त करके, यह बृहस्पती पर अपनी वस्तिया वशा लिया और अरबों सालों तक उस ग्रह के संसाधनों का दोहन किया और उसको भी अधमरा करके जब देखा कि इस पर जीवन का रहना संभव नहीं है। तो वह मंगल ग्रह पर अपना निवास स्थान बनाया। वहाँ पर भी अरबों सालों तक रहा जब उस ग्रह के जैविक संसाधन अंत हो गये, तो वह पृथ्वी पर अपना निवास बनाने के लिये आया। यह मन ही परमेश्वर के साथ एक हो कर ज्ञान वान बन कर अपने ज्ञान से ही सभी जीव जन्तुओं का पुनः सर्जन कर दिया यहाँ पृथ्वी पर। सर्व प्रथम ब्रह्मा, विष्णु, महेश तीन पुरुष हुए इन तीनो के अधिकार में ही यह सम्पूर्ण दृश्य मय जगत हो गया। जैसा की मैंने पहले बताया कि महेश जिनको हम शीव के नाम से भी जानते है यह संहार के रूप में माने जाते है। विष्णु अर्थात जो मन के स्वामी है जिनके अधिकार में दृश्य और अृदृश्य दोनों प्रकार के जगत में संतुलन बनाने का कार्य है। जो इस जगत के पालन करता है। तीसरे ब्रह्मा जिनका मुख्य कार्य है जगत का निरंतर सर्जन करना। ब्रह्मा ने ही सर्व प्रथम अपनी वुद्धि से ब्राह्मणी नाम की स्त्री को जन्म दिया इससे दो पुत्र उत्पन्न हुए. एक यक्ष दूसरा रक्ष अर्थात जैसा की नामों से प्रतित हो रहा है कि यक्ष नाम का जो पुत्र ब्रह्मा के थे। वह सिर्फ़ पवित्र कार्यों को करते थे जिसमें यज्ञ सर्व श्रेष्ठ कर्म है जिससे ही इस विश्व ब्रह्माण्ड की रक्षा संभव है। दूसरे पुत्र रक्ष थे, जिसका कार्य था यज्ञ रूपी श्रेष्ठ कर्मों की निरंतर रक्षा करना। जो आगे चल कर देवता और दैत्य के रूप में विख्यात हुये इस जगत में। जब इस जगत में बहुत समय तक देवता और दैत्यों ने राज्य किया और इस दृश्यम जगत के आकर्षण में आशक्ती के कारण दोनों अपने मुख्य कर्मों से विरक्त होने लगे। जिससे उन दोनों में द्वेश और राग ने अपना स्थाई निवास स्थान बना लिया। जिसके परिणाम स्वरूप काम और क्रोध ने भी अपनी जड़े गहरी जमा ली। इसका परिणाम यह हुआ की यज्ञ रूपी कर्म निरंतर कम होता गया और निकृष्ट कर्मों की मात्रा में इजाफा होने लगा जिसके कारण दोनो में संघर्ष होने लगा। यहाँ भारत भुमि पर उनको आर्य और अनार्य के नाम से जानते है। जैसे राम कृष्ण आदी के पुरखे आर्यों में आते है, रावण आदी के पुरखे राक्षस में आते है। इन्हीं को देवता और दैत्य कहते है, यह दोनो ही ऋषि महर्षियों की संताने थी जिनके पिता स्वयं ब्रह्मा है। इनकी ही वंसज आज ही इस जगत में चल रही है। एक श्रेष्ठ किस्म के मानव है जो देवता के समान है जो दूसरों के दुःख दर्द पिड़ा को समझते है। जिनकी संख्या अत्यधिक कम है। दूसरे राक्षश दैत्य है जिनकी संख्या बहुत अधिक है। जैसा की हम सब जानते है कि जो श्रेष्ठ लोग पहले थे जिनमे से कुछ के बारें हम अच्छी तरह से जानते है। जैसे राम या कृष्ण जिनको भारत का बच्चा-बच्चा जानता है। उनको लोग भगवान और विष्णु का अवतार मानते है। इनके पास इतनी क्षमता थी की यह जिसे हम आज जड़ समझते है जैसे पानी जो सागर में विद्यमान है। जिसने उनको रास्ता दिया था उसके उपर पुल बना कर वह रावण को मारने के लिये लंका गये थे। दूसरा कृष्ण ने गोबर्धन पर्वत को अपनी कानी उगंली से उठ लिया था। अगस्त ऋषि ने सागर को पी लिया था। राम के ही बंसज थे भगिरथ जिन्होंन गंगा को आकाश से जमिन पर लाये थे। इसके पिछे मैं यह बताना चाहते हूँ कि पहले लोग इन पदार्थों के देवता शिव की आरधना करके उनसे अपना मन चाहा कार्य सिद्ध कर लेते थे। दूसरी बात जो मैं बताना चाहता हू। वह है कि पहले जो शुक्र, वृहस्पती, मंगल पर श्रृष्टि कैसे खत्म होगई, उसका कारण यही है कि दैवता और दैत्यों का निरंतर युद्ध संग्राम होता रहा। जब देवताऔं की संख्या कम होने लगी दैत्यों का अधिकार ग्रहों पर हने लगा। हर तरफ त्राही-त्राही मचने लगी हर कोई प्रताणित होने लगा। तब जैसा कि कृष्ण गीता में कहते है यदा-यदा जब जब पृथ्वी पर दुष्टों की संख्या और अत्याचार बढे़गा तब-तब मैं यहाँ जन्म लेकर उस ग्रह का उद्धार करुगा और उन सब का सामराज्य सामाप्त करके धर्म और सत्य के राज्य कि स्थापना करुग। यह एक सिद्धान्त है, इसी पर चल कर परमेश्वर ने मानव शरीर में कुछ समय के लिये अवतरित हो कर संपूर्ण जगत को अधर्म से मुक्त किया जिसमे उस ग्रह के राक्षस बंशों को खत्म करने के लिये खतरनाक युद्ध हुए. जिसमें आज से भी आधुनिक और खतरनाक हथियारों का प्रयोग किया गया था। उनके पास परमाणु बम हाइड्रोजन बम न्युट्रान, बम आदि की श्रेष्ठतम और उत्तम किस्म के खतरनाक अस्त्र शस्त्र थे। इसका नया प्रमाण पृथ्वी पर मिला है सिन्धु घाटी सभ्यता और वैदिक सभ्यता के अन्त का कारण परमाणु बम पृथ्वी पर गिराये गये थे। पहले के समय में अति उत्तम विमान और स्पैसक्राफ्ट थे। जो प्रकाश की गती से यात्रा करके एक ग्रह से दूसरे ग्रह पर आसानी से पहुंच जाते थे। पहले के समय में एक राक्षस राजा शाल्व था जो लाखों साल जिन्दा वाला था, क्योंकि उसने अपनी चिकित्सा की उत्तम विधियों के सर्जन से उसने मृत्यु पर अधिकार कर लिये था। जिसके पास बहुत बड़ी सेना और बहुत अच्छे स्पैस क्राफ्ट थे। जिसने शुक्र ग्रह, वृहस्पती ग्रह और मंगल पर अपना अधिकार कर लिया था और देवताओं को वहाँ से भगा दिया था। देवताओं ने अपनी जान बचा कर यहाँ पृथ्वी पर अपना गुप्त स्थान रहने का बना लिया था। जिसकी खोज उसने करके यहाँ पृथ्वी पर भी हमला करना शुरु कर दिया था। जिसके सम्पर्क में रावण आदि राक्षस भी थे, जिनके राज्य और अत्याचार को राम ने एक बार समाप्त कर दिया था और रामराज्य स्थापित कर दिया था। लेकिन कृष्ण के समय आते-आते राक्षस फिर बढ़त को प्राप्त कर लिया था। जिसमें दुर्योधन आदि प्रथम थे, इस पृथ्वी पर, जिसके लिये कृष्ण नें महाभारत जैसे भयंकर युद्ध को कराया। जिस युद्ध में तीन हिस्सा पुरी पृथ्वी की आबादी के लोग सभी मार दिये गये थे। जब शाल्व को यह को यह ज्ञात हुआ की उसकी योजना कामयाब नहीं हो रही है। उसके सारे जो योद्धा है वह मारे जा रहे है। पृथ्वी पर सत्यता और धर्म का राज्य स्थापित हो रहा है। उसने अपने तिनो ग्रहों से एक साथ कृष्ण जो उस समय द्वारिका में रहते थे। उसपर भंयकर आक्रमण कर दिया और पृथ्वी पर उसने बहुत आतंक मचा दिया था। जिससे कृष्ण बहुत परेशान हो गये थे। उन्होंने भगवान शीव साधना करके उनको प्रसन्न किया और-और उनसे ऐसे अस्त्र शस्त्र लिये जिनकी सहायता से शाल्व के रहने के स्थान शुक्र ग्रह, वृहस्पती ग्रह और मंगल ग्रह के जीवन को हमेशा के पूर्णः नष्ट कर दिया। इस लिये ही शीव का एक नाम त्रीपुरारी है। अर्थात तीनों ग्रहों के शत्रुओं को एक साथ नष्ट करने वाले शक्ति शाली वैज्ञानिक देवता।

      इस तरह से यह बात सिद्ध होती है कि यहाँ इस जगत में जीवन और मृत्यु हमेशा से विद्यमान है और इनका आपस में संघर्ष भी प्राचिन काल से ही चल रहा है। लेकिन इनमे स्वतंत्रता मानव के पास है क्योंकि इसके पास वुद्धि है जिसकी साधना से अपनी इन्दियों को संयमित करके इस शरीर के पार जो परमेंश्वर है उस तक पहूंच सकता है। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता है॥ कि वह मानव देवता है या दैत्य है देवता भी दैत्य बन सकता है यदि वह अपने कर्मों से दैत्यों वाले कृत्यों को करता है और दैत्य भी देवता बन सकता है। यदि वह देवों वाला कर्म करता है। जैसा कि हम देखते है कि दोनो हि ऋषियों के ही पुत्र है। जिस प्रकार से पुलुस्त ऋषि का हा नाती रावण हुआ था।

       आधुनिक वैज्ञानिको ने ब्रह्माण्ड कि उत्पत्ति और तथाकथित गॉडपार्टिकल जेनेवा स्थित यूरोपियन ऑर्गनाइज़ेशन न्यूक्लियर रिसर्च (सर्न) द्वारा दुनिया के सबसे बड़े महाप्रयोग में १०० से ज़्यादा देशों के करीब ८००० वैज्ञानिकों ने हिस्सा लिया और इस पर १० अरब अमेरिकी डॉलर से भी ज़्यादा खर्च हुये जिसके परिणाम में तथाकथित गॉड पार्टिकल (हिग्स बोसोन) की खोज करने का दावा कर रहे वैज्ञानिकों की यह सारी खोज आधी अधूरी अपूर्ण के साथ-साथ अनुमान पर आधारित है।

        वैज्ञानिकों का मानना है कि "हिग्स बोसोन" यानी वस्तु में मिलने वाला वह सूक्ष्म कण जिसके कारण वस्तु में भार है। जिसके कारण ही सभी वस्तुएँ आपस में संघठित हैं, जो अरबों साल पहले हुये एक महाविस्फोट के बाद अस्तित्व में आया जिसे ही आज के वैज्ञानिक हिग्स बोसोन, ईश्वरीय कण, ब्रह्म कण को अलग-अलग नामों से सम्बोधित कर रहे हैं। इस वैज्ञानिक खोज को भारतीय धर्म गुरु धर्माचार्य भी यह कहते हैं। कि कण-कण में भगवान है जिसको विज्ञान ने भी प्रमाणित कर दिया। वैज्ञानिकों का मानना है कि हिग्स बोसोन (ब्रह्म कण) समझ लेने से ब्रह्माण्ड की उत्पत्ति के रहस्य को जानने में बड़ी मदद मिलेगी, यह पता चल सकेगा कि ब्रह्माण्ड जिससे हमारी धरती, चाँद, सूरज सितारे, आकाश गंगायें हैं, कैसे बना? अभी तक विज्ञान मान रहा है कि अरबों साल पहले हुये एक महाविस्फोट जिसे बिग बैंग कहा जाता है, के बाद पदार्थ बने और फिर हमारा ब्रह्माण्ड, लेकिन यह महाप्रयोग उस राज से पर्दा उठा देगा कि ऊर्जा से पदार्थ कैसे बनता है? सर्व प्रथम शब्द से उर्जा और उर्जा से पदार्थ निर्मित हुए.

      विज्ञान के इस आधे-अधूरे अप्रमाणित अनुमानित खोज से कई प्रश्न पैदा हो जाते हैं, जैसे कि महाविस्फोट कब और कहाँ हुआ? महाविस्फोट किन-किन पदार्थों के बीच हुआ? महाविस्फोट में प्रयोग होने वाले पदार्थों कि उत्पत्ति कैसे हुई? और कब हुई? ये हिग्स बोसोन के कारण जो वस्तुओं में भार है इसका ओरिजिन कहाँ से है? फिर इस कण से आगे यह ऊर्जा की उत्पत्ति कहाँ से हुई? फिर यह ब्रह्माण्ड जिस विस्फोट से बना आखिर वह महाविस्फोट क्यों हुआ? उसका कारण क्या था? महाविस्फोट में कौन-कौन से पदार्थ थे और पदार्थों की उत्पत्ति कब और कैसे हुई? ब्रह्माण्ड में पदार्थों में पायी जाने वाली ऊर्जा शक्ति की उत्पत्ति कहाँ से हुई? आदि-आदि बहुत प्रश्न हैं। जिसका जवाब न तो इन वैज्ञानिक के पास है, न इन तथाकथित धर्मगुरूओं के पास है। पदार्थ में पाये जाने वाले सूक्ष्म कण हिग्स बोसोन को ही कण-कण में भगवान घोषित करना आधे-अधूरे ज्ञान की पहचान है। कण-कण में उर्जा है जीव भी नहीं है, चेतन भी नहीं है। बल्कि जिस कण में चेतन विहीन शक्ति है, चेतन विहीन शक्ति को ही आजकल के वैज्ञानिक और आध्यात्मिक लोग परमात्मा-परमेश्वर-भगवान कह कर घोषित करने में लगे हैं और परमात्मा-परमेश्वर-भगवान-खुदा-गॉड के पृथक अस्तित्व को मिटाने में लगे हैं जो कि घन घोर भगवद्द्रोही कार्य है। जब-जब धरती पर ऐसा असुरता रूप नास्तिकता फैलता है तब-तब इस धरती पर स्वयं परम प्रभु-परमेश्वर-खुदा-गॉड-भगवान सम्पूर्ण सृष्टि ब्रह्माण्ड के रहस्यों को उजागर करने हेतु तथा विज्ञान और अध्यात्म का भी रहस्य उजागर करने के लिए अवतरित होते हैं। वास्तव में इस सृष्टि ब्रह्माण्ड का रहस्य और भगवान का रहस्य इस संसार से लेकर सम्पूर्ण सृष्टि में कोई जानता ही नहीं है। चाहे वैज्ञानिक लोग महाप्रयोग करें और आध्यात्मिक लोग जितने भी आध्यात्मिक अनुसन्धान करें, पूरा जीवन लगा दें, लाखों करोड़ों वर्ष लगा दें तब भी इस सृष्टि का और परमात्मा का रहस्य कोई नहीं जान पाएगा। यह सम्पूर्ण सृष्टि ब्रह्माण्डों का रचनाकार उत्पत्ति कर्ता स्वयं परमात्मा-परमेश्वर-भगवान हैं, इस सृष्टि के सम्पूर्ण रहस्य मात्र उसी के पास हैं।

      विज्ञान की पहुँच पदार्थ (कण) जड़ तक ही होती है। पदार्थ से पहले शक्ति का रहस्य, इसका उत्पत्ति रहस्य विज्ञान से मिलना कदापि सम्भव नहीं है। ठीक उसी प्रकार किसी भी ध्यान-साधना की अवस्था में दिखाई देने वाले आत्मा ज्योति, दिव्य ज्योति, ब्रह्म ज्योति, शिव शक्ति, अलिमे नूर की उत्पत्ति का रहस्य किसी भी योगी यति आध्यात्मिक के पास नहीं होता। अर्थात वैज्ञानिकों का जड़ पदार्थ और अध्यात्मिकों का चेतन ज्योति का रहस्य केवल अवतार (अर्थात जिसने परमेंश्वर का साक्षात्कार कर लिया है) भगवान के तत्त्वज्ञान में होता है।

      ऋग्वेद का नासदिय सुक्त इसके संदर्भ कुछ इस तरह से कहता है। -:

     " जब कहीं कुछ भी नहीं था, न यह सृष्टि था, न यह ब्रह्माण्ड, न यह ब्रह्माण्ड में दिखाई देने वाला आकाश, वायु, अग्नि, जल, थल, न सूरज, न चाँद, न तारे, न आकाश गंगायें, न पदार्थ, न चेतन न यह हिग्स बोसोन, न यह ब्रह्म कण अर्थात् जब यह सृष्टि थी ही नहीं तब वह परमात्मा-परमेश्वर-भगवान-खुदा-गॉड'शब्द रूप' वचन रूप में परम अदृश्य शुन्य रूप परम धाम में था। उसे ही शब्द ब्रह्म भी कहा जाता है। जिस शब्द वचन रूप परमात्मा के अन्दर सृष्टि रचना का संकल्प हुआ। संकल्प यानी कुछ हो, भव, कुछ यह भाव होते ही उस शब्द रूप परमात्मा से एक शब्द निकल कर अलग हुआ यानी एक शब्द उस परमात्मा से छिटका जो शब्द प्रचण्ड तेज पुञ्ज से युक्त था यानी उस में इतना ज्योति तेज शक्ति से युक्त था। इसको ही आदिशक्ति, मूल प्रकृति, अव्यक्त प्रकृति भी कहा जाता है। उस शब्द रूप परमात्मा से एक शब्द छिटकने के पश्चात्त भी उस परमात्मा वाले शब्द में किसी प्रकार का कोई परिवर्तन नहीं हुआ बल्कि वह एक सम्पूर्ण शब्द ही बना रहा, यही इस परमात्मा की आश्चर्यमय विशेषता थी। शब्द रूप भगवान से जो शब्द निकला, जो प्रचण्ड तेज पुञ्ज अक्षय ज्योति से युक्त था उसको ही सम्पूर्ण सृष्टि का कार्य भार सौपा गया। यानी मूल प्रकृति को ही सृष्टि का कार्यभार परमात्मा ने सौंपा और सृष्टि करने के लिए इच्छा शक्ति दिया। (इसी शब्द रूप भगवान से एक शब्द निकलकर छिटककर प्रचण्ड तेज पुञ्ज हुआ इसको विज्ञान अनुमान के आधार पर महाविस्फोट कहता है) फिर इस प्रचण्ड तेज पुञ्ज शब्द शक्ति से शक्ति उर्जा निकलकर पृथक हुई जो आगे चलकर आकाश, वायु, अग्नि, जल और थल का रूप लिया यानी पदार्थ का रूप लिया फिर इस सृष्टि का संरचना हुआ यानी उस शब्द मय उर्जा शक्ति से ही पदार्थ बनते हुये इस ब्रह्माण्ड की रचना हुई.

      सृष्टि की उत्पत्ति:-

    आदि के पूर्व में जब मात्र "परमतत्त्वम् आत्मतत्त्वम् रूप शब्द ब्रह्म ही थे। उन्हे संकल्प उत्पन्न हुआ कि कुछ हो। चूँकि वे सत्ता सामर्थ्य से युक्त थे और उनके कार्य करने का माध्यम संकल्प ही है। इसलिए कुछ हो संकल्प करते ही उन्ही शब्द ब्रह्म का अंग रूप शब्द शक्ति अदृश्य उर्जा सः (आत्मा) छिटककर अलग हो गयी, जो संकल्प रूपा आदि शक्ति अथवा मूल प्रकृति कहलायी। तत्त्व ज्ञान शब्द ब्रह्म के निर्देशन में (सः आत्मा) रूप शब्द शुन्य उर्जा शक्ति को सृष्टि उत्पत्ति सम्बन्धी कार्य भार मिला अर्थात् सृष्टि (ब्रह्माण्ड) के सम्बन्ध में निर्देशन, आज्ञा एवं आदेश परमतत्त्वम् आत्मतत्त्वम् रूप शब्द ब्रह्म स्वयं अपने पास, उत्पत्ति संचालन और संहार से सम्बंधित क्रिया-कलाप (सः) आत्मा रूप शब्द शक्ति के पास सौंपा परन्तु स्वयं को इन क्रिया कलापों से परे रखा।"

     शब्द शक्ति रूप आदि-शक्ति ही मूल प्रकृति भी कहलायी, क्योंकि प्रकृति की उत्पत्ति इसी आदिशक्ति रूप में हुई इसलिए यह मूल प्रकृति भी कहलायी। पुनः आदिशक्ति ने शब्द उर्जा अदृश्य ब्रह्म के निर्देशन एवं सत्ता-सामर्थ्य के अधीन कार्य प्रारम्भ किया। इन्हे कार्य के निष्पादन हेतु इच्छा शक्ति मिला। तत्पश्चात् आदिशक्ति ने सृष्टि उत्पत्ति की इच्छा की तो इच्छा करते ही शब्द शक्ति रूपा आदिशक्ति का तेज दो प्रकार की ज्योतियों में विभाजित हो पहला भोग प्रकृती दूसरा भोक्ता जीवात्मा हो गये, जिसमें पहली ज्योति तो आत्मा ज्योति अथवा दिव्य ज्योति कहलायी तथा दूसरी ज्योति मात्र ज्योति ही कहलायी अर्थात् पहली ज्योति आत्मा जो चेतनता से युक्त है तथा दूसरी ज्योति शक्ति कहलायी इसी से प्राकृति पदार्थ की उत्पत्ति हुई.

    ब्रह्माण्ड की उत्तपत्ति के विषय में वेदों में ऋग्वेद कहता है कि सर्व प्रथम कुछ भी नहीं था यहाँ तक आकाश भी नहीं था केवल परमेश्वर था जो अपनी अद्वितिय अद्भुत सामर्थ से शांसे ले रहा था। सर्व प्रथम उसमें इच्क्षा उत्तपन्न हुई की वह विश्व ब्रह्माण्ड की उत्पत्ति हों, ऐसी इच्छा परमेश्वर के हृदय में आते ही शब्द रूप ब्रह्म प्रकट हुआ उसके साथ हि भोग और भेक्ता भी शब्द रूप शुन्य उर्जाये प्रकट हुई अदृश्य जगत से दृश्य जगत में, जिससे एक अद्भुत अलौकिक अकल्पनिय अचानक अग्निपिण्ड प्रकट होगया भोग रूप प्रकृति और दूसरा उसका भोग करे वाला जीव उसमें प्रवेश करके उसका विस्तार करने लगा और उसमें निरंन्तर बिस्फोट होने लगा जिसमें अनन्त ब्रह्ममाण्ड, जिसमें से सबसे छोटा ब्रह्माण्ड हमारा है। उसमें भी सबसे छोटी आकाश गंगा हमारी है। उसमें एक किनारें पर हमारा सूर्य अपने सौर्यमंडल उपस्थित है। जो आकाश गंगा के केन्द्र का अपने सम्पूर्ण ग्रहों के साथ चक्कर लगा रहा है। अनन्त आकाश गंगायें, अनन्त सौर्य मंडल के साथ बहुत सारे सूर्य पैदा हो गये छोटे सूर्य हमारे सौर्य मंडल का उत्पन्न हुआ और इसमें भी विस्फोट हुआ जिससे सभी ग्रह उत्तपन्न हुये जिसमें से ही एक हमारी पृथ्वी भी है। हमारी पृथ्वी लग-चार अरब वर्ष पुरानी हो चुकी है।

     जैसा कि पृथ्वी हमें आज दिखाई देती है वह प्रारम्भ में ऐसा बिल्कुल नहीं थी। यह अपने प्रारम्भिक काल में, सूर्य से निकलने के कारण सूर्य के समान भयंकर ज्वलनशील गैसों का अग्निपिण्ड थी। इसको ठंडा किया गया लगातार अरबों सालों तक बारीष के कारण से, उसके बाद एक विशाल धुम केतु आकर अंतरीक्ष से हमारी पृथ्वी से टकरा गया, जिसकी वजह से पृथवी दो टुकड़ों में बिभक्त हो गई और उसके बाद एक छोटा टुकड़ा जिसे हम चंद्रमा कहते वह पृथवी से तीन लाख चौरासी हजार किलोमिटर दूर होकर पृथ्वी का चक्कर लगाने लगा। जैसा की पृथ्वी सूर्य का चक्कर लगाती है। सूर्य आकाशगंगा के केन्द्र का चक्कर लगाता है। आकाशगंगायें ब्रह्माण्ड के केन्द्र का चक्कर लगाती है और यह सारें ब्रह्माण्ड परमेंश्वर जो सम्पूर्ण ब्रह्माण्डों का केन्द्र है अदृश्य केन्द्र बिन्दु ध्वनी रूप शब्द ब्रह्म का चक्कर लगाते है अस्तु। इस ब्रह्माण्ड में तीन प्रकार के मुख्य कार्य कर हो रहा है। पहला कार्य ईश्वर द्रष्टा स्वरूप साक्षी बन कर निष्पक्ष हो कर सभी प्रकार के कृत्यों को देख रहा है जो भोक्ता रूप जीव जिसे आत्मा कहते वह प्रकृती रूप भोग सामग्री का किस प्रकार से उपभोग कर रहा है। दूसरा कार्य जीव नये-नये रूपों में स्वयं को निरंतर बिभक्त कर रहा है। प्रकृती के पदार्थों के आवरण के अन्दर व्यवस्थित होकर। जिसमें से एक सबसे श्रेष्ठ अद्भुत रूप मानव शरीर के रूप में भी विद्यमान है। तीसरा कार्य प्रकृती स्वयं का निष्पक्ष भाव से जीव का हर प्रकार से रक्षात्मक सहोग कवच की भाती बन कर-कर रही है।

  जब पृथ्वी के दो टुकड़े हो गये उसके बाद पृथ्वी पर बहुत सालों तक सूर्य का प्रकाश पृथ्वी की सतह तक नहीं आसका। क्योंकि धुमकेतु के टकराने से इतना भयानक बिस्फोट हुआ जिसकी कल्पना हम नहीं कर सकते है। चन्द्रमा पृथ्वी के जिस हिस्से से अलग हुआ वहाँ पृथवी में बहुत बड़ा गड्ढा बन गया जो करीब बारह किलोमिटर गहरा था। जिसमें पानी जो अन्तरीक्ष से बरसता है। धिरे-धिरे अपने मिट्टी के कड़ों को बहाकर ले जा कर उसमें जमा एकत्रित होने लगा। जो सबसे गहरा महासागर प्रशान्त सागर के रूप में आज पृथ्वी पर विद्यमान है। क्योंकि चन्द्रमा के उपर का जो पर्वत है। वह ठीक उतना ही उचां है जितना गहरा प्रशान्त महासागर है। अर्थात पृथ्वी का वही का टुकड़ा चांद है जहाँ आज प्रशान्त महासागर के रूप में है।

         जब पृथ्वी से चंद्रमा अलग हुआ जिसकी वजह से धुल-धुसर का बवन्डर गुबार पृथ्वी के वायुमंडल में दसों दिशाओं से छा गये और पृथ्वी का सतह बहुत तिब्रता ठंडा होने लगा। जिस प्रकार से एक वाल्टी में बहुत सारे पदार्थों के कुछ बहुत हल्के कचरें को पानी घोल कर कुछ समय के लिये किसी ठंडे स्थान पर रख दे तो जो कचरा का भारी हिस्सा होगा वह तलहटी में जम जायेगा और जो हल्का होगा यह सबसे उपर पानी में तैरने लगेगा, ठीक इसी प्रकार से पृथ्वी के साथ हुआ। एक प्रकार से पृथ्वी जैसे किसी लिफाफे में बन्द हो गई और लाखों वर्षों तक सूर्य के प्रकाश से दूर रही। पृथ्वी में उपस्थित बिभिन्न प्रकार की गैसे पानी को पाकर अपने को वास्पित करके पृथ्वी की सतह से उपर उठने लगी जो गैस ज़्यादा द्रव्यमान घनत्व वाली थी वह निचे रही और जो बहुत अधिक हल्की थी। वह पृथ्वी की सतह से बहुत उपर उठकर अपने चर्मोत्कर्ष पर जाकर जमने लगी जैसे ओजोन की परत है। जिसके कारण सूर्य की पैरा बैगनी खतरनाक किरणें पृथ्वी की सतह पर नहीं आ पाती है। वह ओजन की परत से टकरा कर जिस प्रकार सीसा किसी सूर्य के प्रकाश की किरणों को वापिस उसी दिशा में भेज देता है, ठीक इसी प्रकार से यह पारदर्शी ओजोन की परत पृथ्वी के लिये वह अवस्था पैदा करने लगा जिससे कोई जीव यहाँ पर जीवित रह सके, एक प्रकार से यह ओजोन पर जीवन के लिए पृथ्वी पर किसी प्राणी के लिये सुरछा कवच का कार्य करती है। ओजोन की परत आक्सिजन के दो कणों से मिल कर बनी है। पानी में आक्सिजन का केवल एक अणु है जो दो अणु हाइड्रोजन का लेकर पानी का एक परमाणु बनाता है। यह ओजोन कि परत बनने के बाद जो पानी अन्तरिक्ष से सिधा पृथ्वी की सतह पर वरषता था वह भी बन्द होगया। इस परत के कारण पानी के कणों में विद्यमान आक्सिजन ओजोन के कणों के साथ रासायनिक अभीक्रिया कर ओजोन की परत को और सक्त करने लगा, जिसके कारण पानी का दूसरा कण हाइड्रोज उससे दूर सूर्य कि किरणों के साथ मिल कर वापिस अन्तरिक्ष में जाने लगा। इस प्रकार से पृथ्वी पर पहले से विद्यमान पानी जब पुनः सूर्य प्रकाश का ताप पाकर पृथ्वी की सतह पर आना प्रारम्भ हुआ, तब शुद्ध रूप में यह जीवन के लिये सहयोगी बना और दूसरी तरफ पृथ्वी पर उपस्थित पानी वास्पित हो कर पृथ्वी के वायुमंडल में बादल के रूप में एकत्रीत होने लगा और समय-समय पर जैसे पृथ्वी जब सूर्य के करीब से गुजरती तब यह बादल पानी की बुदों के रूप में बरषने लगे, इस प्रकार से पृथ्वी पर ऋतुए मौसम का प्रारम्भ हो गया। सर्दि, गर्मी, बरसात, बसन्त पतझण इत्यादी।

     अभी भी पृथ्वी काफ़ी गरम थी फर्क सिर्फ़ यह आया था कि लाखों करोणों सालों तक बारिष हुई, जब पृथ्वी से चन्द्रमा अलग नहीं हुआ था। वारिष का पृथिवि पर यह असर पड़ा कि पृथ्वी के सम्पर्क में आने से पहले ही पानी की बुदें वास्प में परीवर्तन होती रही, यह प्रकृया लाखों सालों तक चलता रहा। यह वास्प जब पृथ्वी के सतह पर बहुत सघन हो गये तो स्टिम की एक मोटी परत पृथ्वी के सतह से कुछ किलोमिटर उपर तक बना लिया। इस वास्प स्टिम के कई किलोमिटर उपर ठिक उससे सट कर झाग फाग कोहरे बादलों का कई एक किलोमिटर मोटाई में चारों तरफ लेयर की परत बन गई. ठीक इसके उपर बर्फ की मोटि परत कई एक किलोमिटर मोटी पर बन गई. जिस प्रकार से पृथ्वी का उत्तरिय और दक्षिणी ध्रुव है। जहाँ बीसों किलोमिटर मोटाई में समन्दर के वर्फ की परत है। यहाँ फर्क यह है कि यह बर्फ की मोटी परत समन्दर के ठंडे पानी के उपर है। जबकि पहले जो पृथ्वी के चारों तरफ बर्फ की कई एक कीलोमिटर की जो परत थी वह फाग कोहरें, बादलों और स्टिम, भाप के उपर थी। उसके निचे पृथ्वी ज्वलनशील भयंकर गैसों की पिंड थी। पृथ्वी के केन्द्र से सतह के विच में लग-भग तीस से चालिस किलोमिट अन्दर तक कुछ बिल्कुल तरल बिभिन्न प्रकार की गैसे उसके उपर ठोस और सबसे उपर सतह से कुछ किलो मिटर तक भयंकर गैसों की वास्प की परत थी। जब पृथवी से धुमकेतु टकराया उसके परिणाम स्वरूप पृथ्वी से चन्द्रमा अलग हुआ और जब सूर्य कि कीरणों से पृथ्वी का सिधा सम्पर्क ना होने के कारण। क्योंकि पृथ्वी से धुमकेतु के टक्कर के बाद धुल-धुसर का बवन्डर कई एक सालों तक पृथ्वी के चारों तरफ फैला रहा जिसके परिणाम स्वरूप ही पृथ्वी का वायुमंड बना और पृथ्वी पर मौसम ऋतुवों का अभिर्भाव हुआ। अब तक पृथ्वी पर पानी का बहुत बड़ा भंडार जमा हो चुका था। कई लाखों साल अंतिरीक्ष से बारिष होने के कारण। जब पृथ्वी पर सूर्य का प्रकाश नहीं आ रहा था। उस समय पृथ्वी की सतह ठंडी होने के कारण सारा वास्प जो पृथ्वी के सतह के ठीक उपर जमा था कई एक किलोमिट वह सब जम कर बर्फ का रूप धारण करने लगे और पृथ्वी बहुत अधिक ठंडी होगई कई किलोमिटर अन्दर तक सतह से बिल्कुल ठोस रूप होगई. इस तरह धुमकेतु से जब कई सौ सालों के बाद जब सब धुल-धुसर चन्द्रमा के पृथ्वी के अलग होने के कारण उठ रहे थे। सब शान्त और व्यवस्थित होगये और उजोन की परत के कारण वायुमंडल बन गया पृथ्वी पर, सूर्य का प्रकाश शुद्ध रूप से बिना बैगनी किरणों के पृथ्वी की सतह तक पुनः आने लगे। तब उसके बाद सिर्फ़ बारीष चार महिनों तक होने लगी, चार महिने गर्मि और चार महीने सर्दी पड़ने लगी। जब बारीष होती तो वह पानी रूप तरल बन कर बर्फ के निचे बह कर हर तरफ से उस स्थान पर एकत्रीत होने लगा जो बिशाल गड्ढा पृथवी चन्द्रमा के निकलने के कारण बना था। पानी के साथ बहुत सारे रसायन मिट्टि के कण भी बर्फ की परत के निचे उस गड्ढें में जाकर एकत्रीत होने लगे, लाखों सालों तक यह प्रक्रिया चलने के कारण उस गड्ढे में सबसे उपर बर्फ उसके निचे पानी तरल रूप में खारा कई किलो मिटर निचे पृथ्वी के समकछ सतह तक भर गया। जिसमें कोई लहर नहीं थी ना ही उसमें कोई ज्वार भाटा ही आता था। क्योंकि सारा पानी बर्फ के निचे विद्यमान था। उस पानी के निचे जो पृथ्वी के चारों तरफ से कचड़ा बह कर जाता था। वह सब पानी बर्फ के निचे एकत्रीत होने लगा। जो आगे चल कर लाखों सालों में पर्वत बन कर उभरा पृथ्वी कि सतह से उपर, इसके पिछे कारण है। कि पृथ्वी दोनों ध्रुओं से बंधी एक बिशाल चट्टान रूप है जो फैल तो सकती नहीं और पानी या बर्फ पृथ्वी की सतह से उपर जा नहीं सकते। क्योंकि पृथ्वी इतनी तीब्रता से घुम रही है पुरब से पश्चिम की तरफ इस तरह से एक बैक्युम बन गया है। जो पृथ्वी को फैलने से रोकता है जो समन्दर के अन्दर पर्वत बनने का कारण बना। इस तरह से पृथ्वी पर उपस्थित समन्दर से हिमालय रूपी सर्वप्रथम पर्वत का जन्म हुआ, जो समन्दर की सतह से आज लगभग नौ किलोमिटर उचां है और आज भी वह बढ़ रहा है। जहाँ आज पृथ्वी पर हिमालय पर्वत है। वहाँ कभी बहुत लाखों करोड़ों साल पहले टेनिथ नामक समन्दर हुआ करता था। आज भी हिमालय पर बहुत बड़ी मात्रा में बर्फ के अतिरीक्त उसकी चोटियाँ नमक से ढकी है। जो यह सिद्ध करती है कि यह समन्दर से आई है।

       जैसा की ध्रूओं पर है ऐसा ही पृथ्वी के चारों तरफ बर्फ था। पहले जब हिमालय नहीं था ना ही कोई समन्दर ही था। जो अभी पृथ्वी के वायुमंडल गरम होने के कारण बहुत तिब्रता से ध्रुओं की बर्फ गल कर समन्दर के पानी में मिल कर समन्दर की सतह को उचां कर रहा है। ऐसा ही चलता रहा तो कुछ एक सौ सालों के अन्दर ही समन्दर के किनारे जो बड़े-बडे़ देश बशायें गयें है वह सब समन्दर में डुब जायेगें। ऐसा पहले भी हो चुका है। समन्दर में महाभारत कालिन कृष्ण की द्वारिका नगरी जो अहमदाबाद के पास थी वह समन्दर में समा गई है। समन्दर के एक या दो किलोमिटर अन्दर आज भी कृष्ण की नगरी द्वारीका का अवषेश विद्यमान है।

    मनुष्य वह है जो चिन्तन मनन विचार और सत्य का निर्णय करने में सक्षम हो जिसके पास यह सामर्थ नहीं वह मानव कहलाने के योग्य नहीं है। हम प्रायः दूसरे को बदलना चाहते है, दूसरे को सुन्दर समझते है दूसरे से प्रेम करते है दूसरे जैसा बनना चाहते है। हर वस्तु को अपने इच्छा, राग, द्वेश से देखते है। यहाँ तक हम स्वयं को भी हम पूर्णतः नहीं स्विकारते हमेशा हम दूसरे का ही अनुसरण करते है। क्योंकि यह तरिका बहुत परिश्रम से तैयार किया गया है। जिससे मानव का शोशण भरपुर करने में सफलता निरंतर मिलती रहे। आज दुनिया एक अजायब घर या यातना गृह बन कर रह गई है, इसको बनाने वाला कोई और नहीं वही लोग है, जो दूसरे जैसा बनने में लगे है। यह हम नहीं जानते की हम कौन है? जब हम स्वयं को जान जायेगे तो हमारे जैसा कोई दूसरा नहीं है, हम अद्वित और अद्भुत शक्ति समपन्न है। हम हमेशा दूनिया को समझना चाहते है। दूनिया को बदलना चाहते या फिर दूनिया के साथ चलना चाहते है। जबकी दूनिया बहरी, लुली, लंगड़ी, अपाहिज और ब्यर्थ है। यहाँ सब कुछ जण नश्वर है। हम स्वयं को प्रेम करें स्वयं को बदले स्वयं के लिये जिवन को जीये हमारे लिये सब कुछ संभव है, जब हमारा ध्यान स्वयं पर होगा। तभी हमें स्वयं का ज्ञान होगा। हम सबसे पहले भारतीय है। हमारा पहला धर्म है, भारत को जानना भारत कोई व्यक्ति नहीं भारत एक आत्मा है जिस प्रकार बिना आत्मा के शरिर रुपी पृथ्वी बेकार उसी प्रकार बिना भारत के दुनिया का अस्तित्व संभव नहीं है। क्योंकि दुनिया का प्रारम्भ या श्रृष्टि का प्रथम अवतण भारतिय उप महाद्विप तिब्बत के हिमशिखर पर हुआ, यह श्रृष्ठि अमैथुन श्रृष्टि थी। अर्थात बिना किसी गर्भ की सहायता के यहाँ पृथ्वी पर उपस्थित सभी जीवों को युवा ज्वान रूप में पैदा किया गया था। इसके पिछे बहुत बड़ा कारण था कि बच्चों को पैदा किया जाता तो उनका पालन कौन करता? यदि वृद्धों को पैदा किया जाता तो उनकी सेवा कौन करता? इस कारण से सभी जीवों को युवा रूप में उत्तपन्न किया गया या दूसरे शब्दों में क्लोनिगं के रूप उत्पन्न किया गया। यह क्लोनिगं करने वाले कौन थे? वह मनु और सप्तऋषि थे। यह मंगल ग्रह पर से आये थे क्योंकि वहाँ पर जब भयानक परमाणु युद्ध होना शुरु हुआ देवता और दैत्य में अर्थात आर्य और अनार्य में जिसके कारण वहाँ की मानवता संस्कृत सभ्यता बहुत तिब्रता से नष्ट होने लगी। इसके साथ वहाँ का वायुमंडल अत्यधिक गर्म होने लगा और वायुमंडल लगभग समाप्त होने के कगार पर पहुंच गया, जिसके कारण मंगल ग्रह के चनंद्रमा का गुरुत्वाकर्षण कम होगया और वह मंगल के सतह से टकराने के लिये उसके तरफ बढ़ने लगा।

       यह ज्ञान वहा के वैज्ञानिक और सप्तऋषि मनु जो वहाँ के प्रमुख थे उनको हुआ तो वह जीवन और श्रृष्टि को आगे बढ़ाने के लिये सभी जीवों के जीन डि। एन. ए. जो पहले से एकत्रित वैज्ञानिक ऋषियों के द्वारा किये गये थे। वह सब लिया एक बड़े स्पैशविमान कि सहायता से हिमालय के शिखर पर आये यहाँ एक बिशाल लैब अस्थापित की और उसमें सभी प्रकार के जीवों की मानव समेत क्लोनिगं की। मंगल ग्रह पर उसका उप ग्रह चंद्रमा कुछ समय पश्चात टकरा गया वहाँ का सब कुछ सर्वनाश होगया। क्योंकि बिशाल ग्रहों के टक्कर के कारण कई वर्षों तक सूर्य का प्रकाश नहीं पहुंच पाया उस ग्रह पर जिसके कारण किसी जीव का जीवित रहना संभव नहीं रह सका सिवाय कुछ सुक्ष्म वैक्टेरिया के जो अब भी वहाँ विद्यमान है। आज भी वैज्ञानिक अपने यंत्रों कि सहायता से यह जानने में समर्थ हो चुकें है कि वहाँ मंगल ग्रह के जीवन के नष्ट होने के पिछे कारण भयंकर परमाणु युद्ध ही था। दूसरी बात वहाँ पर आज भी बहुत प्रकार के किड़े मकोणें और छोटे जीव पाये जाते है और आज के वैज्ञानिको नें यह सिद्ध कर दिया है कि हमारे प्राचिन काल के ऋषि वैज्ञानिक आज के समान ही जानकार और संसाधन संपन्न थे। उनके पास हमसे भी आधुनिक वैज्ञानिक सभ्यता और वैज्ञानिक संसाधन थे।

      इस तरह से सर्वप्रथम मानव समेत सभी जीव जन्तु प्राणी का उदय पृथ्वी पर हुया। हिमालय के शिखर पर जो अब तिब्बत में है। पहले वहाँ पर स्वर्ग बनाया गया था। इससे पहले स्वर्ग उत्तरिय ध्रुव पर वसाया गया था यह रामायण कालिन युद्ध के बाद खत्म होगया था, क्योंकि रावण का एक भाई था कुम्भकरण जिसने दक्षिणी ध्रुव पर अपना अधिकार कर लिया था और वह देवताओ के स्वर्ग पर आक्रमण करने के लिये उद्दत अपने भाईयों और रावण के साथ था। जिसके कारण ही देवताओं ने योजनाबद्ध तरिके से राम रावण का युद्ध करा के स्वर्ग को बचाया था कुछ समय के लिये ही। क्योंकि इस पृथ्वी हमेंशा से देव और दैत्य का युद्ध निरंतर चलता रहता था। जिसमें स्वर्ग भी समय के साथ यहाँ स्वर्ग भी बदलता रहा है। तिब्बत का यह स्वर्ग महाभारत काल तक विद्ययमान था, देवता अत्यधिक श्रेष्ठ स्त्री पुरुष रहते तो जो हजारो सालों लाखों सालों तक जीदां रहते थे। यहाँ साधरण जो जीव मैथुनी श्रृष्टि से पैदा होते उनको रहने की अनुमती नहीं थी। इसलिये यहाँ रहने के लिये प्रायः युद्ध होते जिसमें वहाँ स्वर्ग में रहने वाले हमेंशा अपने योग बल से बिश पड़ते थे और साधरण जन जो मैथुनी श्रृष्टि से पैदा हुये थे। वह देवतावों से कमजोर और उस वातावरण में जीने के योग्य भी नहीं थे। जब उनकी संख्या बहुत तेजी से बढ़ने लगी तो इन सब के लिये हिमालय के निचे घाटियों में बड़े नगर बशाये गये। जैसा की हम जानते है कि काशी को शीव ने बशाया था जहाँ पर राजा हरिश्चन्द कि निलामी हुई थी और एक घटना महाभारत में आती है जब अर्जुन स्वर्ग में जाकर अपने सगे पिता इन्द्र के यहाँ रहता है और वहाँ से कई प्रकार की कला और अश्त्र शश्त्र ले कर आता है। यहाँ हिमालय पर साधना करके शिव को प्रशन्न करके उनसे भी अश्त्र प्राप्त करता है। शीव और हनुमान महाभारत और रामायण दोनों समय में विद्यमान थे। जिससे सिद्ध होता है कि वह लोग जो स्वर्ग में रहते थे लाखों सालों तक जीन्दा रहते थे।

     विद्वान वैज्ञानिक विश्वामित्र के द्वारा अन्तरिक्ष में स्वर्ग की स्थापनाः-

     राजा हिरिश्चन्द राम के पुर्वज थे, राम के पिता दसरथ, दसरथ के पिता रघु और रघु के पिता अज थे। राम जिस धनुश को धारण करते थे वह अज नाम से ही जाना जाता है। राम के इनसे कई पिढ़ी पहले हरिश्चन्द हुये उनके पिता त्रिशंकु थे। जो महर्षि वैज्ञानिक विश्वामित्र के बहुत बड़े भक्त थे। एक बार महर्षि को भी किसी कारण बश वहा स्वर्ग से निस्काशित कर दिया गया था। क्योंकि वह त्रीशंकु अपने भक्त को भी वहाँ स्वर्ग में स्थान दिलान या रखना चाहते थे। देवतावों ने यह प्रस्ताव ऋषी विश्वामित्र का अस्विकार कर दिया और कारण बताया की वह त्रिशंकु बिलाशी राजा है। जो यहाँ स्वर्ग में रहने योग्य नहीं है। यह देवतावों की बात सुन कर ऋषि बिश्वामित्र को अपना अपमान समझ में आया। इसलिये उन्होने स्वर्ग का त्याग कर दिया और निचे संसार में रहने लगे, देवतावों से अपने अपमान का बदला लेने के लिये उन्होंने एक बहुत बड़ी योजना बनाई त्रीशंकु के साथ मिल कर जो पृथ्वी का चक्रवर्ति सम्राट था। उसके लिये अंतरिक्ष में एक नया स्वर्ग बनाने की।

      विश्वामित्र भी पहले एक सम्राट थे वह भी राज्य कर चुके थे। पृथ्वी पर वह त्रीशंकु के पुर्वज थे।

       ऋषि विश्वामित्र के संदर्भ में एक बहुत प्रसिद्ध आख्यान प्रचलित है। एक वार ऋषि विश्वामित्र जब सम्राट हुआ करते थे, उस समय एक युद्ध इनका दैत्यों से हुवा था। उसको जित कर विश्वामित्र अपनी लाखों की सेना के साथ वापिस अपने राज्य की तरफ लौट रहे थे। उनकी सेना और वह बहुत थके हुये थे, वह आराम चाहते थे कुछ समय के लिये, उस समय उनके पास कुछ रसद सामान शेष नहीं बचा हुआ था। तभी उनको उन्हें अपने गुप्तचरों के द्वारा ज्ञात हुआ की यहाँ कुछ दूर पर ब्रह्मऋषि वषिष्ट का आश्रम है। तो विश्वामित्र अपने एक सेवक को भेजा वषिष्ट के आश्रम में भेज कर याचना कि उनके लिये और उनके सेना के लिये कुछ रसद खाने पिने का सामान उपलब्ध करायें, वषिष्ट ने उत्तर में कहलवाया की ठीक है। आप सब आराम करें, कुछ समय में सभी सामग्री आप सब के पास पहुंच जायेगी।

      इस तरह से विश्वामित्र कि सेना और वह स्वयं आश्रम के समिप एक नदी किनार अपना पड़ाव डाल दिया। जैसा की उनको बताया गया था कि कुछ समय में सभी वस्तु उनके पास पहुंच जायेगी। ठीक वैसा हुवा थोड़े ही समय में सभी सेना के लिये खाने पिने रहने के लिये सभी प्रकार का पर्याप्त सामान पहुचा दिया गया, यह जान कर विश्वामित्र को बहुत आश्चर्य हुआ। जो कार्य मैं पूर्ण करने में बिवश हो रहा हुं इस जंगल में वह कार्य एक साधु ने इतना जल्दि कैसे संभव कर दिया? इस कारण को जानने के लिये वह स्वयं वषिष्ट से मिलने के लिये उनके आश्रम में गये और ब्रह्म ऋषि वषिष्ट से विश्वामित्र ने पुछा की आप ने यह सब कैसे किया? इतने बड़े लाव लस्कर सेना को तृप्त कर दिया। तब ब्रह्म ऋषि वषिष्ट ने अपने पास विद्यमान एक गाय काम धेनु के बारे में बताया कि यह सब इस तो काम धेनु गाय ने किया है। यह वहीं कामधेनु थी जो देवता और दैत्य के समन्दर मंथन के समय मिली थी। यह समन्दर मंतन का मतलब हो कि देवता और दैत्यों दोनों ने एक साथ मिल कर अंतिरक्ष की खोज कि थी जिसमें से उन सब को कई ऐसे ग्रह मिले थे जहाँ पर जिवन उपलब्ध था और वह सब इन सब से भी अधिक विकसित थे। उनकों प्रसन्न करके ही उनसें बहुत सि वस्तुओं को देवता और दैत्यों ने प्राप्त किया था। जिसमें से ही एक यह कामधेनु गाय भी थी। यह जानकर विश्वामित्र काम धेनु को देखना चाहा। जब ब्रह्मॠषि ने, विश्वामित्र को काम धेनु गाय का दर्शन कराया तो उसको देखकर विश्वामित्र बहुत मोहित हो गये और उन्होंने वह कामधेनु को अपने महल में ले जाने की इच्छा जाहिर कर दी। यह काम धेनु जो सागर मंथन से निकली थी जिसको देवता और दैत्यों ने मिल कर किया था। ब्रह्मऋषि वषिष्ट ने कहा यह तो कामधेनु स्वयं निश्चय करती है। की इसे कहा रहना है। कामधेनु ने विश्वामित्र के महल में जाने से मना कर दिया। विश्वामित्र ने अपनी सभी प्रकार की नितियों का प्रयोग किया कामधेनु को अपने महल में लाने के लिये। साम, दाम, दण्ड, भेद लेकिन वह किसी प्रकार से सफल नहीं हुये। अन्त में उन्हें अपनी पराजय स्विकार करनी पड़ी। फिर उन्होंने अपने पास के सभी विद्वान मंत्री से मंत्रणा की यह कैसे संभव हो गया? की कामधेनु एक सम्राट को छोड़ कर आश्रम में क्यों रहना चाहती है? तब उनके सभी विद्वान मंत्री सहयोगीयों ने बताया की वषिष्ट कोई साधारण मानव नहीं ब्रह्मऋषि है। विश्वामित्र ने कहा कि क्या वह सम्राट से बड़े है? उनको उत्तर मिला हाँ महाराज इस तरह से विश्वामित्र ब्रह्मऋषि वषिष्ट के सरण में आकर राज्य का त्याग कर दिया और ब्रह्मऋषि के साधना में तल्लिन हो गये काफी समय के बाद वह ब्रह्मऋषि की उपाधी से ब्रह्मऋषि वषिष्ट द्वारा सम्बोधित किये गये और उनको स्वर्ग में अस्थान मिल गया वहाँ बहुत समय रहने के बाद जब त्रीशंकु को बचन देने के कारण स्वर्ग का त्याग कर दिया और एक नया स्वर्ग बनाने में जुट गये। इन्ही विस्वामित्र ने आगे चल कर आई हुई मेनका नाम कि अप्सरा से विवाह किया जो इनकी तपस्य़ा को भंग करने के लिये स्वर्ग से आई थी। जिसको देवताओं के राजा इन्द्र नें भेजा था। क्योंकि उनको अपने स्वर्ग के सिंहासन को खतरा विस्वामित्र की तपस्या से मुहशुष हो चुका था। जिस मेनका से ही शकुन्तला का जन्म हुआ। जो महर्षि कणाद के आश्रम में रहती थी। जहाँ पर उसकी मुलाकात राजा दुष्यन्त से होती है जिससे वह गन्धर्व विवाह करती है और उन दोनो से ही राजा भरत का जन्म होता है। जिससे कौरव और पांडव वंश का उदय होता है। जिसका महाभारत में उल्लेक मिलता है। यह विश्वामित्र काफी लम्बे समय तक इस पृथ्वी पर जीवित रहे थे।

      महर्षि विश्वामित्र जो एक महान वैज्ञानिक थे अपने शिष्यों के साथ मिलकर त्रीशंकु को जीवित स्वर्ग में पहुंचाने के लिये, उन्होंने एक नये उपग्रह स्वर्ग के नाम से अंतरिक्ष में निर्वाण किया और उसे पृथ्वी और चंद्रमा के मध्य में स्थापित कर दिया, वह पुरी तरह से मानव निर्मित एक उपग्रह था। वहाँ मानव को रहने की सभी सुबिधायें थी, वह एक कृतिम उपग्रह था। जैसा कि आज के समय में अमेरिका, चाईना, रुश आदि देशों ने अपना एक स्पैश स्टेशन अंतरिक्ष में बना रखा है, यद्यपि यह बहुत छोटे है। यहाँ पर कुछ एक मानव वैज्ञानिक सोध करने के लिये रहते है, भविष्य में मानव यहाँ पर घुमने जा सकता है। जहाँ पर कल्पना चावला जा कर जब वापिस आ रही थी, उसका स्पैश क्राफ्ट रास्ते में ब्लास्ट कर गया, जिससे उस स्पैशक्राफ्ट के सभी सात सदस्य कल्पना चावला समेत मारे गये थे। वहाँ भारतिय मुल की सुनिता बिलियम्स भी जा कर आ चुकी है।

        विश्वामित्र का बनाया गया उपग्रह काफ़ी बड़ा और सब प्रकार की सुख सुबिधा समपन्न था वहाँ पर त्रीशंकु अपने काफी आदमियों के साथ रहने लगे। लेकिन यह बात और दूसरे देवता वैज्ञानिक ऋषि जो हिमालय के स्वर्ग पर रहते थे उन्हें अच्छी नहीं लगी कि कोई उनसे श्रेष्ठ अस्थान पर रहे और उनसे अच्छा जीवन जीये। क्योंकि जो स्वर्ग महर्षि विश्वामित्र ने बनाया था। वहाँ रहने वाले की उम्र भी बढ़ जाती थी और बहुत प्रकार कि सुबिधा थी, जो पृथ्वी पर विद्यमान स्वर्ग था वहाँ के लोगों को गवारा नहीं था। उन सब ने विश्वामित्र को निचा दिखाने के लिये बहुत प्रकार के सणयंत्र रचने लगे। जिसमे सबसे पहले विश्वामित्र को जहाँ से सबसे अधिक धन मिलता था। अर्थात त्रीशंकु के राज्य से जो अब उनके पुत्र राजा हरिश्चंद के अधिपत्य में चलता था। सभी देवता गण राजा हरिश्चंद को झुठा और असत्य सिद्ध करने के लिये संसार में प्रचारित करने लगे, गुप्त रूप से यह हरिश्चन्द को बहुत बुरा लगा। उन्होंने सम्पूर्ण संसार में अपनी प्रतिष्ठा को सिद्ध करने के लिये, यह घोषणा कर दि की जो कोई उनको झुठा सिद्ध कर देगा वह उन्हें अपना सर्वश्व दान कर देगें, यहाँ तक राजा हरिश्चंद ने स्वप्न में भी झुठ नहीं बोलने की कसम खा रखी थी। विश्वामित्र को अपने कार्यक्रम अंतरिक्ष में बनाये स्वर्ग के लिये निरनंतर धन की आवश्यक्ता थी वह जानते थे देवता गड़ राजा हरिश्चंद को यदी झुठा सिद्ध कर दिया। अपने सणयंत्र के द्वारा और उनसे राज्य और उनका धन छिन लिया तो स्वर्ग का उनका कार्यक्रम रुक सकता है। या कोई भयानक विध्न पड़ सकता है। यह बिचार कर करके उन्होंने एक योजना बनाई कि राजा हरिश्चंद को भी उनके साम्राज्य समेत स्वर्ग में स्थापित किया जाये और पृथ्वी का त्याग कर दिया जाये, जिससे यहाँ पृथ्वी के दैत्य हिमालय के स्वर्ग के देवता में संघर्ष होगा और हम देवता के सणयंत्र से बच जायेगे और हमारा अंतरिक्ष का स्वर्ग सामाराज्य के साथ सुरक्षित हो जायेगा। यह बात जब राजा हरिश्चंद को महर्षि विश्वामित्र ने उनके स्वप्न में आ कर बताया और कहा कि यह इच्छा उनके पिता की भी है। लेकिन राजा हरिश्चंद को अपनी सत्य के प्रति निष्ठा और संसार में अपनी प्रतिष्ठा अपने पिता त्रीशंकु की इच्छा से बहुत अधिक बहुमूल्य था। वह किसी किमत पर पृथ्वी को छोड़ना नहीं चाहते थे। भले हि इसके लिये उनको अपना सर्वस्व राज्य पाठ धन, सम्पदा, मान, मर्यादा सब कुछ दाव पर लगाना पड़े। वह बिल्कुल तैयार थे। उनके साथ उनकी पत्नी और उनका बेटा भी तैयार था। जब महर्षि विश्वामित्र और त्रीशंकु को यह ज्ञात हो गया कि किसी भी प्रकार से राजा हरिश्चंद अपने बचन से अडिग नहीं होने वाला है। सत्य मार्ग से जो इसके सर पर चढ़ गया है। इससे इसका सब कुछ छिन लिया जाये तो सायद दुःखों के थपेड़ों और कष्ट पूर्ण क्लेशों कि आधियों से बौखला कर हमारी सरण में आ जाये। त्रिशंकु की सहमति से महर्षि विश्वामित्र ने राजा हरिश्चंद से कहा कि मैं अगले दिन सुबह तुम्हारे दरबार में आउंगा और तुम अपना सब कुछ जो राज्य पाठ तुम्हारे पिता के द्वारा तुम्हे मिला है। उनकी आज्ञा का पालन न करने के कारण मुझे दान कर देना, जिसके लिये राजा हरिश्चंद तैयार हो गये। सुबह होने पर जैसे ही दरबार लगा राजा हरिश्चंद सिंहाषन पर बिराजमान हुये तभी महर्षि विश्वामित्र उनके सामने उपस्थित हो गये और अपना स्वप्न में आने की बात का याद दिला राज्य को लेने कि बात की, जिसके लिये राजा हरिश्चंद सहर्ष तैयार हो गये और वह अपनी पत्नी और पुत्र को साथ लेकर भिखारी के भेष में राज्य से बाहर जाने के लिये तैयार हुये। तब महर्षि विश्वामित्र ने कहा कि यह दान जो तुमने दिया है। यह सब तुम्हारे पिता कि बिराषत है। तुम्हारी स्वयं की नहीं है, इसके अतिरीक्त तुम्हें दक्षिणा देना होगा पांच सहस्र जो तुम्हें कही और से पांच दिन में व्यवस्था करना होगा, इसके लिय भी राजा हरिश्चंद तैयार होगये और राज्य से प्रस्थान किया। बहुत दुःखों कष्टों पिड़ावों को सह-सह कर चुर हो गयें भुखे प्यासे, उनकी कोई सहायता करने वाला नहीं खड़ा हुआ। क्योंकि जो उनकी सहायता करने का प्रयाश करता वह देवताओं और महर्षि विश्वामित्र के कोप का भाजन बनता था। जिससे किसी कि हिम्मत ही नहीं हुई, की वह राजा हरिश्चंद और उनके परिवार की किसी प्रकार से सहायता कर सके. इसके अतिरिक्त रोज महर्षि विश्वामित्र अपने दक्षिणा को लेने के लिये निरंतर दबाव बनाते रहते थे। क्योंकि महर्षि विश्वामित्र नहीं चाहते थे कि यह राजा हरिश्चंद केवल सत्य और अपने बचन कि रक्षा के लिये महान अशहनिय कष्टों को सहे। वह समझते थे राजा हरिश्चंद झुक जायेगें और अपने बचन से बिमुख हो जायेंगे। लेकिन यह नहीं हो सका राजा हरिश्चंद ने भयानक कष्टों को सहा और अंत में कई दिनों में अयोद्धा से काशी शिव की नगरी पहुचें गये। जहाँ उनको कोई पहचानता नहीं था वहाँ एक चौराहे पर खड़े हो गये जहाँ दाश-दाशियाँ बिकते थे वहाँ पर वह अपने पत्नी और बच्चे को एक व्यापारी के हाथों में बेच दिया और स्वयं को एक डोम (धैइकार) को बेच दिया। जिससे उन्हे पांच शहश्त्र स्वर्ण मुद्रायें मिली जिसे उन्होंने प्रेम से महर्षि विश्वामित्र का दक्षिणा रूप ॠण दे कर उऋण हुये। स्वयं को डोम के सम्सान घाट पर मुर्दा फुंक-फुंक कर जीवको पार्जन करने में लगा लिया और पत्नी बच्चा उस ब्यापारी के घर की दाशी बन कर जीवको पार्जन करने लगे।

      विश्वामित्र अपने साथ अपना सारा धन सामराज्य और स्त्री-पुरष, पशु, धन इत्यादि सामग्री को लेक कर अपने बनायें स्वर्ग में चले गयें और वहाँ उसका बिस्तार करने लगें।

       जब हिमालय के देवताओं को अपनी योजना सफल होती नजर नहीं आई महर्षि विश्वामित्र के स्वर्ग का विस्तार उनकी आंखों तिनके की तरह दुखने लगा। वह सब यह बर्दास्त नहीं कर पा रहे थे। कि उनके स्वर्ग से निस्कासित किया गया कोई महर्षि या राजा कैसे अपने लिये अन्तरिक्ष में स्वर्ग बनाकर रह सकता है? यह उनके सम्मान और साधारण जनों में उनके प्रति लोगों की आस्था भी बहुत कम होने लगी थी और ज़्यादा से ज़्यादा लोग अब महर्षि विश्वामित्र के द्वारा बनाये हुये स्वर्ग में राजा त्रिशंकु के साथ रहना चाहते थे। यह सब पृथ्वी पर उपस्थित स्वर्ग के देवताओं को कदापि गवारां नहीं था। कि उनके प्रति लोगों कि आस्था कम हो, यह उन सब के अस्तित्व को लेकर बहुत बड़ा खतरे का संकेत था और दूसरा कारण था कि पृथ्वी और चंद्रमा के मध्य में स्थित बनाये गये, महर्षि विश्वामित्र का स्वर्ग अपना सारा कार्य सौर्य उर्जा से करता था। जिसके कारण पृथ्वी पर पर्याप्त मात्रा में सूर्य का प्रकाश भी ना मिलने से पृथ्वी ठंडी होने लगी थी और यहाँ पर जीवन के लिये खतरा मंडराने लगा। यदि ऐसा ही चलता रहा कुछ हजार या लाख साल में पृथ्वी पर कोई मानव जीव जन्तु प्राणी जीवित ना बचे और दूसरा कारण बताया गया कि चन्द्रमा का गुरुत्त्वाकर्षण आकर्षण बल कम होगया। क्योंकि उस गुरुत्वाकर्षण बल का उपयोग महर्षि विश्वामित्र नें अपने स्वर्ग को व्यवस्थित रखने में बहु ज़्यादा मात्रा में करने लगे थे। जिसके कारण पृथ्वी पर उपस्थित समंदर में ज्वारभाटा के समय में परि वर्तन आने लगा। सूर्य कि गर्मि कम पड़ने के कारण समंदर का पानी वास्प बहुत कम बनता था और जिसके कारण बारिष की मात्रा पृथ्वी पर कम होगई और इस वजह से पृथ्वी अनाज, फल, सब्जियाँ की पैदावार कम होने लगी थी। लोग हिंसक होने लगे जानवरों प्राणियों को मार-मार कर उनका भोजन के रूप में उपयोग करने लगे। जिसके कारण हिंसक दैत्यों की संख्या में इजाफा होने लगा। हर प्रकार से देवताओं के साथ सभी मानवों पर ग़लत प्रभाव पड़ने लगा। इन सब जानकारियों से महर्षि विश्वामित्र को परिचित कराया गया और सिफारिश की गई की वह अपने बनाये अन्तरिक्ष को नष्ट करके पृथ्वी वापस आकर बश जायें। लेकिन महर्षि विश्वामित्र ने जबाब में देवतावों को बहुत तिखा उत्तर दिया की जब देवता हमारे उपर ध्यान नहीं दिये जब हम पृथ्वि पर रहते थे। अब जब कि हम अपना सर्वस्व लगाकर बहुत आगें निकल आये है। तो हमे वापिस आने कि बात करके हमे नष्ट करना चाहते है। यह कदापि संभव नहीं है हमारे लिये। यहाँ हमे कोई नुकसान नहीं है। आप अपनी रक्षा किजीये और मेरे से किसी प्रकार के सहयोग कि कामना ना करें।

       पृथ्वी के स्वर्ग के देवतावों को जब सकारात्मक परिणाम नहीं मिला। तब उन्हेंने एक बहुत बुरा दूसरा सणयंत्र रचा पहले तो देवतावों का राजा इन्द्र ने त्रीशंकु के पुत्र राजा हरिश्चंद को अपनी तरफ मिलाने कि योजना बनाई।

      आगे चलकर गुप्त रूप से सिधा-सिधा राजा हरिश्चंद्र से ना मिल कर इनके परिवार अर्थात इनकी पत्नी शैब्या और पुत्र रोहताश्च को भी इसमें एकत्रित रूप से मिला जाये। जब शैब्या राजा हरिश्चंद्र की पत्नी अपने बेटे रोहताश्च के साथ जिस व्यापारी के यहाँ दासी थी। उसकी पत्नी बहुत दुष्ट और निक्रिष्ट स्वभाव की थी वह शैब्या से बहुत अधिक काम लेती बदले में उसे बहुत थोड़ा भोजन देती थी फिर भी सभी शारिरीक मानसिक। पिड़ाओं को सहकर शाब्या अपनी मालकिन को प्रशन्न रखने का हमेंशा प्रयाश करती रहती थी। फिर भी उसकी मालकिन बहुत नाराज रहती और तरह-तरह के उलाहने निरंतर शाब्या को दिया करती थी। यहाँ तक रोहताश्च से भी वह काम लेती, ऐसा ही चल रहा था, एक दिन रोहताश्च को जंगल में लकड़ीयों को लेने भेज दिया वह लकड़ी लेकर आरहा था। तभी देवताएँ का राजा इन्द्र उसे काटने के लिये एक सांप भेज दिया जिसने रोहताश्च को काट लिया। जिसके कारण रोहताश्च की हालत बिगड़ गई, यह बात जब शैब्या को मालुम हुई, जब बहुत समय तक रोहताश्च लकड़ी लेकर नहीं आया। तब शाब्या उसकी तलाश में जंगल में गई जहाँ उसने उसे रास्ते में मृत पड़ा पया। तब उसे पता चला कि वह अपने प्रिय पुत्र को खो चुकी है। वह बहुत रोई बिलखी और उसे मरा हुआ मान कर उसके अंतिम संस्कार के लिये अपने गोद में लेकर नदी किनारे रात्री के समय उसी सम्शान घाट पर पहुंची जहाँ पर राजा हरिश्चंद्र पहरा देते थे और मुर्दा जलाने से पहले सभी मुर्दा फुंकने वाले से कर लेते थे। रात्री का समय सायं-सायं करती रात चारों तरफ जलती लाशें इधर-उधरी बिखरी थी। चारों तरफ के वायुमंडल में मांस के जलने की भयानक बदबु से भर रहा था। जहाँ कुत्ते भौक रहें थे वह उस स्थान को और भयानक बना रहे थे। आज भी वह राजा हरिश्चंद्र का मुर्दा फुकने वाला घाट काशी (वाराणसी) में प्रशिद्ध है। जब राजा हरिश्चंद ने देखा कि शब्या को और उसके गोद में उनके बेटे रोहताश्च की लाश है, वह पहचान गये लेकिन अपने सत्य धर्म की रक्षा के लिये उन्हेंने ऐसा व्यवहार किया की दोनो अपरचित है। उन्होंने शब्या से कहा यहाँ किसी शरीर का दाह संस्कार करने से पहले मुझे कर देना होगा। उसके बाद हि तुम कोई दाह संस्कार कर सकती हो। शब्या बिलख-बिलख रोते हुये कहा मेरे पास कुछ नहीं है। शिवाय यह वस्त्र जिससे मैंने अपने शरिर को ढक रखा है। उसमें आधा ले सकते तुम दाह संस्कार करने के बदले में। जिसके लिये रजा हरिश्चंद्र तैयार हो गये। शैब्या अपनी साड़ी को फाड़ने के लिये हाथ बढ़ाया तभी देवतावों का राजा इन्द्र उन दोनो के मध्य प्रकट हुआ और कहा कि अब बहुत हो गया तुम जीत गये राजा हरिश्चंद सत्यवादी हो धर्मात्मा हो। मैं तुम्हें इस कृत्य से मुक्त करता हूँ और तुम्हारे पुत्र को जीवित करता तुम सब अब हमारे साथ रहो हम तुम्हे अपने साथ रखते है। इस तरह से हरिश्चंद्र देवतावों के साथ हो लिये।

       राजा हरिश्चंद्र की सत्यनिष्ठा और धार्मिक्ता के प्रति समर्पण से प्रशन्न हो कर महर्षि विश्वामित्र ने उनका राज्य पुनः हरिश्चंद्र को वापिस दे दिया। त्रीशंकु राजा हरिश्चंद्र के पिता सत्यब्रत अपना सब कुछ यहाँ तक स्वर्ग को भी जो महर्षि विश्वामित्र ने उनके लिये बनाया था। उसे भी राजा हरिश्चचंद्र को दे दिया जिसको राजा हरिश्चन्द्र ने देवताओं के हवाले कर दिया।

       इस स्वर्ग को नष्ट करने के लिये महर्षि अगस्त ने भयानक अश्त्रों का उपयोग करके उसको वहीं पर गला दिया। अर्थात उसको धिरे-धिरे गला कर एसिड के रूप में करके वारिस के पानी के साथ पृथ्वी पर वरसा कर समन्दर के पानी में मिला दिया। जिसके कारण ही समन्दर के पानी में एसिड कि मात्रा अधिक हो गई और समुद्र का पानी अत्यधिक खारा हो गया। आज भी आकाश से तेजाब कि वर्षा होती है इसका कारण है कि समन्दर के पानी के साथ ज्वलनशील एसिड भी वास्प बन कर आकाश में जाती है और वह पानी के साथ वरसता है इस पृथ्वी पर। लेकिन जब लोहा और स्टिलादि पदार्थ जैसे सिसा इत्यादि को अत्यिधिक गर्म किया जाता है यह कार्बन बनता है। कार्बन को भी जलाया जाये तो यह तेजाब के रूप में बनता है। यह प्रकृत से तेलिय होता है जिससे यह पानी के साथ अभिकृया कर सकता है। यह हाईड्रोजन के अणु को बनाता है। जिस प्रकार से पेट्रोल, डिजल इत्यादि होते है। यह स्वभाव से ज्वलनशील होते है। लेकिन एसिड की तरह नहीं होते है जो मानव अंगों को गला दे। एसिड हि एक ऐसा पदार्थ है जो लोहें को भी गला सकता है। जो हमारे शरिर में भी पाया जाता है जिसे अम्ल कहते है। अम्ल एक रासायनिक यौगिक है, जो जल में घुलकर हाइड्रोजन आयन (H+) देता है। इसका pH मान 7.0 से कम होता है। जोहान्स निकोलस ब्रोंसटेड और मार्टिन लॉरी द्वारा दी गई आधुनिक परिभाषा के अनुसार, अम्ल वह रासायनिक यौगिक है जो प्रतिकारक यौगिक (क्षार) को हाइड्रोजन आयन (H+) प्रदान करता है। जैसे-एसीटिक अम्ल (सिरका में) और सल्फ्यूरिक अम्ल (बैटरी में) । अम्ल, ठोस, द्रव या गैस, किसी भी भौतिक अवस्था में पाए जा सकते हैं। वे शुद्ध रूप में या घोल के रूप में रह सकते हैं। जिस पदार्थ या यौगिक में अम्ल के गुण पाए जाते हैं वे (अम्लीय) कहलाते हैं। मानव आंत्र में हाइड्रोक्लोरिक अम्ल की अधिकता से होने वाली बीमारी को अम्लता या एसीडिटी कहते हैं।

        यह अगस्त ऋषि कोई और नहीं पुलस्त के ऋषि के दो पुत्रों में से एक पुत्र थे। पुलुस्त ऋषि का दूसरा पुत्र विश्वश्रवा ऋषि थे जिन्होंने दो विवाह किया था। पहली पत्नी से कुबेर और ताड़का उत्पन्न हुए थे। दूसरी पत्नी से रावण आदि पैदा हुए थे। इस तरह से देवतावों ने अगस्त ऋषि के साथ मिल कर स्वर्ग को पृथ्वी को बचाया। आगे चल कर अगस्त ऋषि को समझ में आया कि उन्होने ग़लत कार्य किया जिसके कारण रावणादि राक्षसों का उत्पात पृथ्वी पर बढ़ गया था। जिसके लिये राम कि सहायता रावण को मारने में कि और उनको अपने द्वारा निर्मित दिव्य अस्त्रों को दिया और महर्षि विश्वामित्र के बनाये महर्षि विश्वामित्र नें भी राम कि सहायता कि थी कुबेर कि बहन ताड़को को मारने में, इस तरह से यह सिद्ध होता है। ऋषि अगस्त और विश्वामित्र देवता से भी श्रेष्ठ थे। अर्थात यह वैज्ञानिक प्रकार के ऋषि थे। जैसा कि मंत्र में परमेश्वर नें कहा कि वह हमारें पुर्वज ऋषियों का भी पुर्वज है।


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PART-2- BRAHM KOWLEDGE

BRAHMA-KNOWLEDGE-PART-1

S’rimad Devî Bhâgavatam THE FIRST BOOK

Chapter XV-XVI-XVII-XVIII-XIX-XX-XXI-XII

S’rimad Devî Bhâgavatam THE FIRST BOOK Chapter XIII-XIV

S’rimad Devî Bhâgavatam THE FIRST BOOK Chapter XI-XII

S’rimad Devî Bhâgavatam THE FIRST BOOK Chapter IX-X

S’rimad Devî Bhâgavatam THE FIRST BOOK Chapter VII-VIII

S’rimad Devî Bhâgavatam THE FIRST BOOK Chapter V-VI

S’rimad Devî Bhâgavatam THE FIRST BOOK Chapter III-IV

S’rimad Devî Bhâgavatam THE FIRST BOOK Chapter I-II

VISHNU PURANA. - BOOK III. CHAP -16,17,18

VISHNU PURANA. - BOOK III. CHAP. XV.

VISHNU PURANA. - BOOK III.  CHAP. XIV.

VISHNU PURANA. - BOOK III.  CHAP. XIII.

VISHNU PURANA. - BOOK III.  CHAP. XII.

VISHNU PURANA. - BOOK III.  CHAP. XI.

VISHNU PURANA. - BOOK III. CHAP. X

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VISHNU PURANA. - BOOK III. CHAP. VI

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VISHNU PURANA. - BOOK III.- CHAP. II.

VISHNU PURAN BOOK III.CHP-1

Self – Suggestion- Chapter 8

Self-Suggestion Chapter 7

Self-Suggestion- Chapter 6

चंद्रकांता (उपन्यास) पहला अध्याय : देवकीनन्दन खत्री

खूनी औरत का सात खून (उपन्यास) : किशोरी लाल गोस्वामी

ब्राह्मण की बेटी : शरतचंद्र चट्टोपाध्याय (बांग्ला उपन्यास)

Self – Suggestion -Chapter 5

Self - Suggestion - Chapter 4

Self-Suggestion -- Chapter 3

SELF SUGGESTION Chapter 2

SELF-SUGGESTION AND THE NEW HUNA THEORY OF MESMERISM AND HYPNOSIS – chapter-1, BY- MAX FREEDOM LONG

VISHNU PURAN - BOOK II.

VISHNU PURAN-BOOK I - CHAPTER 11-22

VISHNU PURANA. - BOOK I. CHAP. 1. to 10

Synopsis of the Vishnu Purana

Introduction of All Puranas

CHARACTER-BUILDING.

SELF-DE-HYPNOTISATION.

THE ROLE OF PRAYER. = THOUGHT: CREATIVE AND EXHAUSTIVE. MEDITATION EXERCISE.  

HIGHER REASON AND JUDGMENT= CONQUEST OF FEAR.

THE GREAT EGOIST--BALI

QUEEN CHUNDALAI, THE GREAT YOGIN

CREATION OF THE UNIVERSE

THE WAY TO BLESSED LIBERATION

MUDRAS MOVE THE KUNDALINI

LOCATION OF KUNDALINI

SAMADHI YOGA

THE POWER OF DHARANA, DHIYANA, AND SAMYAMA YOGA.

THE POWER OF THE PRANAYAMA YOGA.

INTRODUCTION

KUNDALINI, THE MOTHER OF THE UNIVERSE.

TO THE KUNDALINI—THE MOTHER OF THE UNIVERSE.

Yoga Vashist part-1 -or- Heaven Found   by   Rishi Singh Gherwal   

Shakti and Shâkta -by Arthur Avalon (Sir John Woodroffe),

Mahanirvana Tantra- All- Chapter  -1 Questions relating to the Liberation of Beings

Mahanirvana Tantra

Tantra of the Great Liberation

Translated by Arthur Avalon

(Sir John Woodroffe)

Introduction and Preface

CONCLUSION.

THE VAMPIRE'S ELEVENTH STORY.

THE VAMPIRE'S TENTH STORY.

THE VAMPIRE'S NINTH STORY.

THE VAMPIRE'S EIGHTH STORY.

THE VAMPIRE'S SEVENTH STORY.

THE VAMPIRE'S SIXTH STORY.

THE VAMPIRE'S FIFTH STORY.

THE VAMPIRE'S FOURTH STORY.

THE VAMPIRE'S THIRD STORY.

THE VAMPIRE'S SECOND STORY.

THE VAMPIRE'S FIRST STORY.

श्वेतकेतु और उद्दालक, उपनिषद की कहानी, छान्द्योग्यापनिषद, GVB THE UNIVERSITY OF VEDA

यजुर्वेद मंत्रा हिन्दी व्याख्या सहित, प्रथम अध्याय 1-10, GVB THE UIVERSITY OF VEDA

उषस्ति की कठिनाई, उपनिषद की कहानी, आपदकालेमर्यादानास्ति, _4 -GVB the uiversity of veda

वैराग्यशतकम्, योगी भर्तृहरिकृत, संस्कृत काव्य, हिन्दी व्याख्या, भाग-1, gvb the university of Veda

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