मैं ही
सभी ऐश्वर्यों का पर ऐश्वर्य रूप परम धन हूं RigVeda
ओ३म् अग्निना रयिम श्र्नवत् पोषमेव दिवेदिवे। यशसं वीरवत्तमम्॥ ऋग्वेद 1.3
जैसा कि परमेंश्वर ने हम सब को बताया
कि वह परम अग्नि रूप पुरुष रूप कल्याण का कारक है। दूसरे मंत्र में कहा कि वह सभि हमारे
ऋषियों का पुर्वज है। इश मंत्र में प्रभु परमेश्वर उपदेश कर के कह रहे है कि मैं सब
से बड़ा धन हूं। यह धन परमेश्वर का प्राप्त करने के लिये भी तिन मार्ग है पहला मार्ग
है अपने अन्दर इस उर्जा मय अग्नि को संचय करो, दूसरा इस संचय उर्जा मय शक्ति का सद उपयोग करके,
अपने जीवन के परम उद्देश्य को प्राप्त करने के लिये इस उर्जा
को खर्च करके धनार्जन करो। यह भौतिक अग्नि नाम कि वस्तु ही सब से बड़ा धनार्जन का प्रमुख
श्रोत है। इसकि स्तुती स्तवन अर्थात साधना के द्वारा इसका सही उपयोग पालन पोषण का परम
साधन करके अपने दिन रात के जीवन को सुख मय ऐश्वर्यशाली यश युक्त करके विरता पुर्वक
अपनी चुनौतियों का समाधान करो।
यह मंत्र बहुत ही गुढ़ और दिव्य
अलौकिक ज्ञान का उपदेश कर रहा है। इसमें मुख्यतः कई बातें है पहली बात है कि यह अग्नि
एक शक्ति है, दुसरी बात इसका उपयोग तरह-तरह से करके अपना पालन पोषण करते हुए. अपने जीवन के हर
दिन और रात के साथ उन्नति और बृद्धि को उपलब्ध हो।
अग्नि रूप परमात्मा कि कर्म रूप
उपासना के द्वारा साधक परम धन को उपलब्ध करता है। यह परम धन सारे धनों में सर्वश्रेष्ठ
धन है जिसे विद्या धन या ज्ञान कहते है और इसी धन का उपयोग करके साधक स्वयं भौतिक धन
सम्पन्न करता है जिस धन के द्वारा ही उसका हर प्रकार से पालन पोषण होता है और वह साधक
अपने जीवन के प्रत्येक दिन रात में नये-नये सिखरों को चढ़ता है,
जिससे उसका नाम प्रसिद्धि प्रतिष्ठा यश संसार में निरंतर बृद्धि
होती है। जिससे वह साधक बहुत अधिक बलवान विर्यवान शक्ति शाली बनता है। हर तरफ उसकी
चर्चा और उसके ही प्रशंश होते है।
इस मंत्र के उपदेस को और बिस्तार
से समझने के लिये हमें इसको और गहराई से चिन्तन करना होगा। जब कोई व्यक्ती इस जगत में
जन्म लेता है तो ज़रूरी नहीं है कि वह जन्म से ही सर्वगुण सम्पन्न हो। यद्यपि उसको स्वयं
को सर्वगुण समपन्न बनाने के लिये पुरुषार्थ करना पड़ता है, यह मंत्र और इसका उपदेस
प्रारंभ में ही विद्यार्थि को दिया जा रहा है कि वह अपने अन्दर विद्ययमान आत्मा रूपी
अग्नि को जाने और उसकी साधना के द्वारा उसके ज्ञान के द्वारा स्वयं को समर्थवान बनाने
के लिये, अपने शरीर कि उर्जा विर्य का निरंतर संचय करके ब्रह्मचर्य के द्वारा ही अपने मन,
वुद्धि, चित्त और अहंकार का पूर्ण हर प्रकार से विकास करें जीवन संग्राम
को लड़ने के लिये। यदि वह विद्यार्थी इसका सही उपयोग करता है तो वह विद्यार्थी आगे
चल कर अपने गृहस्थ जीवन में उसको धन समपन्न होने कि संभावन अधिक बढ़ जाती है। हम आज
के संन्दरेभ में यदि देके तो इस संसार के हर क्षेत्र में हमसे पहले एक से बढ़ कर एक
विद्वान पहले से विद्यमान है। यदि हमे कुछ इस संसार में अपने जीवको पार्जन के लिये
करना है तो हमें उनसे हट कर उनके द्वारा बताये गये मार्ग और ज्ञान के अतिरिक्त कुछ
नयें संसाधनों का और-और नयें मार्गों का खोज करना होगा। क्योंकि यह संसार निरंतर गती
कर रहा है। इस में रोज-रोज नई नई खोजे और आविस्कार हो रहे है। इनको हमें जानने के लिये
इनका अध्ययन करना होगा और वह सब भी एक निश्चित समय में, क्योंकि जिस ज्ञान को हम अपने प्रारंभिक जीवन में प्राप्त करते
है उस ज्ञान का ही हम अपने अग्रणी जीवन में उपयोग करके अपना जीवको पार्जन करते है और
उशी से हम सब अपना पालन पोषण करते है।
हम सब एक प्रकार से विज कि तरह है,
हमारे विकास के लिये हमें उपयुक्त जमिन चाहिये। जिस जमिन में
हम रह कर अपनी जड़े जमा सके जिससे हमारा अंकुरण हो सके, अंकुरण के बाद हम सब एक बृक्ष के रूप में विकसित हो जाते है
जिसमें जड़, तना, शाखा, पत्ते, फुल और फल लगते है। यह एक प्रक्रिया है, विज से फल तक कि माना विज सब हो यदि उनको उपयुक्त जमिन ना मिले
या जमिन मिले भी तो वह बंजर हो रेगिस्तान हो जहाँ पर उस विज का विकास होना या तो बहुत
मुस्किल होता है या असंभव होता है। इस स्थिति में जब विज का अंकुरण ही नहीं होता तो
वह वृक्ष कैसे बनेगे? और जब वृक्ष ही नहीं बनेगे तो उसमें से फल या पुल आने कि सम्बावन
ही कहाँ रह जाती है? इस तरह से हम ईश्वर को दोष देते है कि हमारा नसिब खराब है,
संसार में सभी समपन्न है हमे ही क्यों निर्धन है,
संसार में सभी विद्वान है औप हम क्यों मुर्ख है,
या फिर संसार में बहुत सारे ताकतवर है शक्तीशाली लोग है और हम
कमजोर क्यों है? इन सभी प्रश्नों का उत्तर देने के लिये ही परमेश्वर कहता है कि मैं अग्नि स्वरूप
सारें धनों का प्रमुख श्रोत और परम दन हूँ मुजे जानो। या फिर इस तरह से कहे की यह आत्मा
रूपी अग्नि ही सारे धनों का सबसे श्रेष्ठ धन है, यह धन है जो विज रूप है इसको तुम्हे विकसित करना है इसके लिये
तुम्हें उचित जमिन तैयार करना होगा। यहाँ जमिन का मतलब है हमारी शरीर से है,
हमे अपने शरीर का पूर्ण विकास करना होगा। हमारे समाज में अक्सर
ऐसा होता है कि हमारी शरीर का समग्र विकास नहीं हो पाता है,
उसके पिछे कई कारण है, पहला कारण है सही मात्रा में आहार, विहार, व्यायाम। आज हमारे समाज में सबसे बड़ी महामारी है कि सभी को
परयाप्त मात्रा में उचित भोजन भी नहीं उपलब्ध है।
यहाँ हम अपने समाज में यह प्रायः
देखते है कि हर आदमी असमर्थ क्यों है? अभी हमारे एक लेख पर एक महोदया ने कहाँ कि आप अपनी वर्तनि को
सुधारें जिससे शब्दों को समझने में आसानी होगी। इसमें दो बातें उभर कर आ रही है। पहली
बात कि जिसने भी यह लिखा है कि वर्तनि को सुधारें, चलिये हम मान लेते है कि वर्तनि में कुछ गल्तियाँ अवश्य होगी,
इसमें शब्दों को समझने में कहाँ से समस्या आने लगी,
जो कह रही है कि शब्दों को समझने में आसानि होगी। अर्थात उनके
कहने का मतलब है कि उनको शब्दों को समझने में कठिनाई हो रही है। इसका मतलब यह भी निकलता
है कि उनके पास शब्द ज्ञान नहीं है। हमारा उद्देश्य यहाँ पर यह नहीं है। कि हम शब्दों
का ज्ञान दे और वह शब्द समझने में आसान हो, यद्यपि हमारा उद्देश्य है कि मुझे जो समझ में आता है जिसको मैने
अनुभव किया है उसको मैं बाटता हूं। यह तो उसी प्रकार से हो गया कि जैसे एक आदमी प्यासा
है और उसको पिने के लिये पानी दिया जाता है जो कुयें से निकाला गया है और प्यासा आदमी
कहता है मुझे तुम शुद्ध पानी रिफाइन किया हुआ दो जिससे मुझे ज़्यादा सुख मिलेगा,
क्योंकि यह पानी पचने में दिक्कत दे रहा है?
इसका मतलब यह हुआ कि आदमी का पाचन तंत्र कमजोर है। वह प्राकृतिक
चिजों को पचाने का सामर्थ नहीं रखता है। उसे कृतिम चिजे पचाने में ज़्यादा सुबिधा जनक
प्रतित होती है। इसका मतलब यह भी हुआ कि यह आदमी नकली है। इससे यह ज्ञात होता है कि
सरलता कि तरफ लोगों का झुकाव अत्यधिक हो चुका है। जिससे उनको थोड़ा भी कठिन विषय समझने
में दिक्कत आने लगती है। इस तरह से आदमी अपनी असमर्थता को व्यक्त कर रहा है?
जिसें मैं आसानी से समझ सकता हूँ। इस दुनिया में कोई भी कार्य
आसान कहाँ है? हर कार्य बहुत कठिन और मुस्किल है, आप जिस कार्य को आसान समझते है। उसको एक बार करके देखें,
तो आपकों यह बखुबी ज्ञान हो जायेगा कि जिस कार्य को हम आसान
समझते थे। वह कार्य बहुत कठिन और दुसाध्य है। क्योंकि हर कार्य का जो चरमोंत्कर्ष है।
वहाँ पर उस विषय का एक विशेषज्ञ पहले से विद्यमान है, जिसके पास सारकारी प्रमाण पत्र भी होता है। जो किसी दूसरे के
कार्य को ग़लत या उसमें त्रुटि निकालने के लिये तैयार है। इस तरह से हम किस भी कार्य
को यह नहीं कह सकते है। कि वह पूर्ण रूपेण शुद्ध और ठीक है। जो सबके लिये आसान और फायदे
मंद ही होगा। इसका हमारे पास कोई गारंटी नहीं है। कोई भी कार्य किसी के लिये फायदेमंद
होता है और उसे अच्छा लगता है और वह करता है और वहीं कार्य किसी दूसरे को बुरा लगता
है। जिससे उसको नुकसान समझ में आता है। जिस प्रकार से हम अपने समाज में देख सकते है।
कि हमारी सरकारें हर तरफ से यह प्रयाश करती है। कि लोगों को ज़्यादा से ज़्यादा जागरुक
किया जाये जो नशिली वस्तुयें है, जिससे लोगों का स्वास्थ्य खराब होता है,
जिसके कारण लोग बीमार होते है और अपना बहुत मेहनत से कमाये हुए
धन को अपने स्वास्थ्य के लिये खर्च करते है। जिसमें से अधिकतर लोग मृत्यु के शिकार
होते है, जिसका कारण सिगरेट, बिड़ी, गुटका, तम्बाकु, उत्पाद के अतिरिक्त, गाजां, भांग अफिम, शराब, स्मैक, ब्राउनसुगर, का अत्यधिक उपयोग है। लोग यह जानते है कि यह नुकसान दायक है,
फिर भी लोग खुब इसका उपयोग करते है। इसमें दो बातें है पहली
बात कि लोग कमजोर हैं उनकी इन्द्रिया कमजोर है वह सब लाचार बेवश और असमर्थ है। दूसरी
बात यह कि उनको कमजोर निरंतर बनाया जा रहा है। जिससे उनका भरपुर शोषड़ हो सके जिसको
बेचने के लिये बहुत बड़े-बड़े अभिनेता और व्यापारी लगे है। उसका दिन रात प्रचार करके
जो बेकार और जहर के समान वस्तु है। उसको भी अमृत बता कर बेचा जा रहा है। जिससे वह सब
लोग बहुत चाह कर भी स्वयं को इस लत से मुक्त नहीं रख सकते है। दूसरा कारण है जो व्यक्ति
इस व्यापार में लगे है। वह कभी भी नहीं चाहते है कि उनका यह व्यापार किसी भी सर्त पर
कभी भी बन्द हो। क्योंकि इससे उन सब को बहुत अधिक फायदा होता है?
जिसमे सरकार को भी फायदा होता है, जिससे सरकार भी यह नहीं चाहती कि यह सब बाज़ार में बिकना बन्द
हो। इसी तरह और भी बहुत सि वस्तुये है जो समाज के लिये बहुत अधिक हानिकारक है जो समाज
का सर्वनाश कर रही है। हर तरफ से, जैसे आज हमारे समाज में हर वस्तु में मिलावट हो रही है। ना पानी
शुद्ध मिल रहा है ना हि दुध ही शुद्ध मिल रहा है। जो पानी शुद्ध पानी के रूप में बाज़ार
बेचा जा रहा है वह नुकसान दायक सिद्ध हो रहा है। दुध के नाम पर पाउडर और पानी बेचा
जा रहा है। सब्जीयों में, अनाज में, दवा में सब में मिलावट हो रही है। हर क्षेत्र में आज स्मगलिंग
हो रही है। दवा, के नाम पर भोजन के नाम पर, हथियार के नाम पर, नशा के नाम पर। मैं ऐसा नहीं समझता कि कोई ऐसा क्षेत्र अभी बचा
है कि जिसमें अशुद्धता नहीं हो रही है, मिलावट नहीं हो रही है। हमारे समाज में किसी वस्तु को शुद्ध
वस्तु को प्राप्त करना आज उथना ही मुस्किल है जितने मुस्किल कार्य है मिट्टि में सोना
को निकालना। यह कार्य आसान नहीं है और आज के समय में आदमी कोई भी कार्य में सरलता चाहता
है। आदमी का स्वाभाव बन गया है कि वह कठिनई से भागने का और सरलता कि तरफ हर आदमी का
झुकाव बढ़ गया है। जिस प्रकार से पहाड़ी पर चढ़ना हमेशा कठिन होता है। उसी पहाड़ी से
उतरने में बहुत सरलता होती है। पहाड़ी भी सहायता करना चाहती है। क्योकि वह पहाड़ी नहीं
चाहती है कि कोई आसानी से उसके उपर पतह करें? जो हिमालय के शिखर पर चढ़ते है उनको बहुत कठिनाईयों का समना
करना पड़ता है। लेकिन जो हिमालय के शिखर से निचे उतरते है उनको आसानी होती है। क्योंकि
हिमालय उनकी सहायता करता है उनको निचे उतरने में? जिस प्रकार से पानी को हमेशा निचे यात्रा करने में प्रकृति का
गुरुत्वाकर्षण करता है। उसी प्रकार से यह प्रकृति आग की सहायता करती उपर चढ़ने में।
इस संसार में जो उपर किसी तरह से पहुंच चुके है। वह कभी भी नहीं चाहते है कि कोई उस
स्थान पर दूबारा चढ़े जिससे उनके अहंकार को चोट पहंचती है और वह तरह-तरह से हर प्रकार
से कठिनाईया उपस्थित करते है उपरे चढ़ने वाले के लिये। जिस प्रकार से संसार में सरकारें
और उद्योगपति, अभिनेता इत्यादि संसार में समाज का शोषड़ करते है। क्योंकि इसमें उनके रस आता है।
जैसा कि वेदों मेंआता है समानता के अधिकार के बारे में क्या यहाँ समानता का अधिकार
हम समाज में सब को उपलब्ध करा पाने में कभी सफल हो सकते है?
पतन के और भी अनंत मार्ग है जो समाज में प्रचारित किये जा रहे
है। कि इनसे कल्याण मानव का होता है। जिसकी जाल में यह भोला भाला मानव फस कर अपने जीवन
की दुर्गति करता रहता है। वहुत कम ही मानव है जो यहाँ पर समर्थ है यद्यपि वह भी इस
समाज औऱ मानव के व्यवहार से दुःखी है इसली लिये तो कहते है कि सर्वें विवेकिनः संसार
दुःखः॥ संसार को दुःख पुर्ण बनाया गया है और यहाँ हर आदमी को परतन्त्रता में ही सुख
दिखाई देती है यह माया नहीं तो क्या है? उसे ऐसा दिखाया जाता है जिसके कारण ही आदमी कि समझ में निरंतर
अवनति हो रही है और वह कहता है कि वह विद्वान है क्योंकि सके पास विश्वविद्यालय कि
उपाधी है जो यह सिद्ध करती है।
तमाम योजनाओं के ऐलान और बहुत सारे
वादों के बावजूद देश में भूख व कुपोषण से प्रभावित लोगों की संख्या बढ़ रही है। हम
एक ऐसे देश के निवासी है जहाँ बड़ी संख्या में लोग भूख और कुपोषण के शिकार हैं। हो
सकता है यह बात लोगों को बुरी लगे लेकिन आंकड़े यही हकीकत बयाँ करते हैं। भारत को वैश्विक
महाशक्ति और वैश्विक गुरु बनाए जाने के जुमलों के बीच आई एक रिपोर्ट हमारी पोल खेलती
है। इंटरनेशनल फूड पॉलिसी रिसर्च इंस्टीट्यूट (आईएफपीआरआई) की ओर से वैश्विक भूख सूचकांक
(ग्लोबल हंगर इंडेक्स) पर जारी ताजा रिपोर्ट में कहा गया है कि दुनिया के 119 विकासशील देशों में
भूख के मामले में भारत 100वें स्थान पर है। इससे पहले 2016 की रिपोर्ट में भारत
97वें स्थान
पर था। यानी इस मामले में साल भर के दौरान देश की हालत और बिगड़ी है और भारत को 'गंभीर श्रेणी' में रखा गया है। आईएफपीआरआई के अनुसार समूचे एशिया में सिर्फ़
अफगानिस्तान और पाकिस्तान उससे पीछे हैं। यानी पूरे एशिया में भारत की रैंकिग तीसरे
सबसे खराब स्थान पर है। भूख से निपटने में भारत अपने पड़ोसी देशों से काफी पीछे रह
गया है। रिपोर्ट के मुताबिक चीन (29वें) , नेपाल (72वें) , म्यांमार (77वें) , श्रीलंका (84वें) और बांग्लादेश (88वें) स्थान पर हैं।
वैश्विक भूख सूचकांक चार संकेतकों
को ध्यान में रखते हुए तैयार किया जाता है। ये हैं-आबादी में कुपोषणग्रस्त लोगों की
संख्या, बाल मृत्युदर, अविकसित बच्चों की संख्या और अपनी उम्र की तुलना में छोटे कद
और कम वजन वाले बच्चों की तादाद। आईएफपीआरआई की रिपोर्ट में कहा गया है कि भारत में
पांच साल तक की उम्र के बच्चों की कुल आबादी का पांचवां हिस्सा अपने कद के मुकाबले
बहुत कमजोर है। इसके साथ ही एक-तिहाई से भी ज़्यादा बच्चों की लंबाई अपेक्षित रूप से
कम है। भारतीय महिलाओं का हाल भी बहुत बुरा है। युवा उम्र की 51 फीसदी महिलाएँ एनीमिया
से पीड़ित हैं यानी उनमें खून की कमी है। गौरतलब है कि हमारे सरकारी आंकड़े भी कुछ
इससे इतर बात नहीं करते हैं। इसी साल अप्रैल महीने में केंद्रीय स्वास्थ्य राज्य मंत्री
फग्गन सिंह कुलस्ते ने संसद को बताया था कि देश में 93 लाख से ज़्यादा बच्चे
गंभीर कुपोषण के शिकार हैं। उन्होंने बताया कि भारत सरकार की एजेंसी राष्ट्रीय परिवार
स्वास्थ्य सर्वे (एनपीएसएस) के ताज़ा आंकड़ों के अनुसार, देश में कुल 93.4 लाख बच्चे गंभीर रूप
से कुपोषण (सीवियर एक्यूट मालन्यूट्रिशन-एसएएम) के शिकार हैं। इसमें से 10 प्रतिशत को चिकित्सा
सम्बंधी जटिलताओं के वजह से एनआरसी में भर्ती की ज़रूरत पड़ सकती है। एक आंकड़े के
मुताबिक आज देश में 21 फीसदी से अधिक बच्चे
कुपोषित हैं। दुनिया भर में ऐसे महज तीन देश जिबूती, श्रीलंका और दक्षिण सूडान हैं, जहाँ 20 फीसदी से अधिक बच्चे
कुपोषित हैं। इसका साफ मतलब यह है कि तमाम योजनाओं के ऐलान और बहुत सारे वादों के बावजूद
अगर देश में भूख व कुपोषण के शिकार लोगों की संख्या ये है तो योजनाओं को लागू करने
में कहीं न कहीं भारी गड़बड़ियाँ और अनियमितताएँ हैं। एक बात और 12 साल पहले 2006 में जब पहली बार यह
सूची बनी थी, तब भी हमारा स्थान 119 देशों में 97वां था। जाहिर है, 12 साल बाद भी हम जहाँ
थे, वहीं पर
खड़े हैं। यानी इस बीच भारत में कांग्रेस की सरकार रही हो या भाजपा सच्चाई में कोई भी
बदलाव नहीं आया है। वैसे यह पहली रिपोर्ट नहीं हैं जो भुखमरी को लेकर इस कटु सच्चाई
से रूबरू कर रही है। 2016 में राष्ट्रीय पोषण
निगरानी ब्यूरो (एनएनएमबी) के एक सर्वेक्षण में भी यह बात सामने आई थी। रिपोर्ट में
कहा गया था कि ग्रामीण भारत में जहाँ लगभग 70 फीसदी लोग रहते हैं,
वहाँ लोग स्वस्थ रहने के लिए आवश्यक पोषक का कम उपभोग कर रहे
हैं।
रिपोर्ट में कहा गया कि ग्रामीण भारत
का खान-पान अब उससे भी कम हो गया है, जैसा 40 वर्ष पहले था। इसके
अनुसार, 1975-79 की तुलना में आज औसतन
ग्रामीण भारतीय को 500 कैलोरी,
13 ग्राम प्रोटीन, पांच मिलीग्राम आयरन,
250 मिलीग्राम कैल्शियम व करीब 500 मिलीग्राम विटामिन-ए
कम मिल रहा है। इसमें कहा गया है कि औसतन तीन वर्ष से कम उम्र के बच्चे,
प्रतिदिन 300 मिलीलीटर दूध की बजाय
80 मिलीलीटर दूध का उपभोग करते हैं। यह आंकड़े बताते हैं कि क्यों
इसी सर्वेक्षण में 35 फीसदी ग्रामीण पुरुष
और महिलाएँ कुपोषित और 42 फीसदी बच्चे कम वजन
के पाए गए हैं। ऐसे आंकड़े हमारे आर्थिक चमक-दमक के दावों को भोथरा करते हैं,
शायद इसीलिए इस पर कोई कार्यवाही करने के बजाय सरकार ने 2015 में इस राष्ट्रीय पोषण
निगरानी ब्यूरो को ही भंग कर दिया।
फिलहाल ज़रूरत इस बात है भुखमरी से
लड़ाई में केंद्र सरकार, राज्य सरकारें और वैश्विक संगठन अपने-अपने कार्यक्रमों को बेहतर
स्वरूप और अधिक उत्तरदायित्व के साथ लागू करें। संयुक्त राष्ट्र के अंग खाद्य एवं कृषि
संगठन (एफएओ) में भारतीय प्रतिनिधि श्याम खडका कहते हैं कि भुखमरी से निपटने के लिए
एफएओ ने इस वर्ष विश्व खाद्य दिवस के अवसर पर नारा दिया है,
'प्रवासियों का भविष्य बदलें,
खाद्य सुरक्षा और ग्रामीण विकास में निवेश करें। वे आगे कहते
हैं,' खाद्य सुरक्षा
हासिल करने के लिए कृषि उत्पादन महत्त्वपूर्ण है, क्योंकि करीब 99 फीसदी खाद्य की आपूर्ति
कृषि से होती है। टिकाऊ कृषि और ग्रामीण विकास हमें गरीबी, भूख, असमानता, बेरोजगारी, पर्यावरण क्षरण और जलवायु परिवर्तन जैसे प्रवास के मूल कारणों
से निपटने के लिए रास्ता सुझाते हैं। जब तक कृषि का संकट कम नहीं होता,
स्वास्थ्य व पोषण के साथ-साथ अन्य बुनियादी ढांचे से जुड़ी समस्याओं
का समाधान नहीं होता है। '
वैश्विक हालात भी बदतर
हालांकि, वैश्विक स्तर पर भी आंकड़ा बद से बदतर ही हुआ है। संयुक्त राष्ट्र
खाद्य एवं कृषि संगठन का आकलन है कि पिछले 15 वर्षों में पहली बार
भूख का आंकड़ा बढ़ा है। जहाँ एक ओर वैश्विक खाद्य भंडार 72.05 करोड़ टन के साथ रिकॉर्ड
तेजी से बढ़ रहा है, वहीं कुपोषित लोगों की संख्या 2015 में करीब 78 करोड़ थी जो 2016 में बढ़कर साढ़े 98 करोड़ हो गयी है आईएफपीआरआई
की रिपोर्ट में भी कहा गया है कि दुनिया में भुखमरी बढ़ रही है और जिस तरह के हालात
बन रहे हैं उससे 2030 तक भुखमरी मिटाने का
अंतरराष्ट्रीय लक्ष्य भी खतरे में पड़ गया है। कुल आबादी के लिहाज से देखें तो एशिया
महाद्वीप में भुखमरी सबसे ज़्यादा है और उसके बाद अफ्रीका और लैटिन अमेरिका का नंबर
आता है।
इतिहास में पहली बार मानव प्रजाति का भविष्य अनिश्चितता
के दौर से गुजर रहा है। मानव समाज ने धरती को अब तक बहुत घायल कर दिया है। यही स्थिति
बनी रही तो इस सृष्टि से मानव प्रजाति और उसकी संस्कृति निश्चित ही विलुप्त हो जाएगी।
पिछले 200 वर्षों से हमने जीवांश ईंधन का इस कदर
दोहन किया कि ऊर्जा प्रदान करने वाले इस द्रव्य के अकूत भंडार खोखले हो चुके हैं। अब
प्रकृतिक में संतुलन स्थापित करने हेतु एक मात्र विकल्प यह है कि हमने इस धरती को जो
घाव दिये हैं, उनकी भरपाई कर पृथ्वी की आरोग्यता को बढ़ाया जाएँ और सृष्टि के इस ग्रह को चिरायु
बनाए रखने के लिए हर सम्भव प्रयास किए जाएं। ऐसा करने के लिए मानव समाज में एकता का
संचार और भविष्य के प्रति एक सकारात्मक आश बनाए रखना परम आवश्यक है। देश का नागरिक
होने के नाते हमारा कर्तव्य है कि हम अपने प्राकृतिक संसाधनों का संरक्षण कर इस धरती
की रक्षा करें। धरती हमारी माँ है और उसकी रक्षा में ही हम सबकी भलाई और हमारा भविष्य
सुरक्षित है। ग्रहों की सीमा का उलंघन और पारिस्थितिकी पर अतिक्रमण: आज मानव द्वारा
जीवन के लिए आवश्यक पारस्थितिक प्रक्रियाओं को बाधित करने के साथ धरती की सीमाओं का
उलंघन किया-किया जा रहा है। जीवाश्म-ईंधन पर आधारित हावी तकनीक और आर्थिक मॉडल प्राकृतिक
संसाधनों का क्षरण करते जा रहे हैं। यह सब पृथ्वी के लिए विनाशकारी सिद्ध हो रह है।
जलवायु संकट, भुखमरी, गरीबी, बेरोजगारी, अपराध, षणयंत्र, युद्ध, जबरन पलायान तथा शरणार्थी संकट ये सभी लोगों से जीवन, आजीविका तथा भूमि को छीन रहे हैं। कुल मिलाकर धरती पर हमारे
जीवन का प्रमुख आधार 'मिट्टी' और मानवता दोनों संकट की स्थिति से गुजर रहे हैं। जीवाश्म-ईंधन कोई स्थाई विकल्प
नहीं है। इस अस्थाई ऊर्जा स्रोत पर आधारित औद्योगिक कृषि प्रणाली ने अब तक कोई 2 अरब हेक्टेयर कृषि भूमि
को बर्बाद कर दिया है। आंकलन करने से ज्ञात होता है कि संकट में पड़ी यह कृषि भूमि
पूरी धरती के कुल उपजाऊ क्षेत्र से अधिक है। इसी तरह से अफ्रीका के चारागाहों के अकुशल
प्रबंधन से 80 प्रतिशत से अधिक भू-भाग के उत्पादन स्तर
में गिरावट आ गई है। औद्योगिक कृषि भी जी.एम.ओ. बीज जीवाश्म-ईधन तथा रासायनिक खादों
पर आधारित खेती के समान ही जलवायु पर बुरा प्रभाव डालती है। इस तरह की खेती जलवायु
बुरी तरह से प्रभावित करती है। सन् 2000 के बाद समूची दुनिया
ने इस वातावरण में कार्बन की लगभग 100 अरब टन मात्रा छोड़ी
है। वर्तमान में ग्लोबल वार्मिंग की इस बढ़ती दर के कारण बड़े पैमाने पर जमीन बंजर
और फसलें खराब हो रही हैं। एक तरफ जहाँ तटीय क्षेत्रों पर बाढ़ का कहर बरप रहा है तो
हिमनदों से तेजी के साथ बर्फ पिघल रही है। वनस्पतियाँ और जंतु तेजी से विलुप्त होते
जा रहे हैं। लोग बड़ी संख्या में अपनी स्थाई जगहों को छोड़कर पलायन कर रहे हैं,
उनमें भोजन और पानी के लिए संघर्ष तेजी से बढ़ रहे हैं। स्थिति
यह है कई तरह की बीमारियाँ देखने और सुनने को मिल रही हैं और समाज पतन की तरफ जा रहा
है। जीवन पर हावी हो रहे 'जीवाश्म-कार्बन' : जीवाश्म-कार्बन ने हमारे जीवन के प्रत्येक पहलू यथा हवा,
पानी, भोजन, चिकित्सा, ईंधन और कृषि में हर प्रकार से प्रवेश कर लिया है। वायुमंडलीय
उत्सर्जन और पारिस्थितिकी तंत्र में प्लास्टिक प्रदूषण के माध्यम से यह कार्बन हमारी
वनस्पति प्रजातियों से लेकर मानव स्वास्थ्य तक को प्रदूषित कर रहा है। प्रकृति ने जल
को सभी के लिए स्वतंत्र स्रोतों के माध्यम से उपलब्ध किया था,
उसका भी हमने निजीकरण कर दिया है। पीने के पानी को अब बड़ी-बड़ी
कम्पनियाँ प्लास्टिक की बोतलों में भरकर बेच रही हैं। यह प्लास्टिक हमारे पानी के साथ
ही हमारे जल-स्रोतों सहित समुद्र का भी नाश कर रहे है, जिससे जीवन संटक ग्रस्त होता जा रहा है। हमारे खेतों की मिट्टी
पेट्रो-केमिकल्स रसायनों से पट गई है, जिससे इस मिट्टी में उपस्थित सूक्ष्म जीवों का नाश हो रहा है।
जीवाश्म-कार्बन पर हमारी निर्भरता ने हमारे सोचने, समझने, जीने-खाने यहाँ तक कि जैव-विविधता आधारित हरित-कार्बन को भी
आर्थिक रूप से महंगा कर दिया है। कच्चे तेल के प्रति हमारी निर्भरता ने एक तो हमारी
आर्थिक व्यवस्था में जबरन घुसपैठ कर ली है और ऊपर से इसके कारण लाखों लोग काल के ग्रास
बन गये। अब तक कई युद्ध और विस्थापन इस तेल के कारण हो चुके हैं।
शक्ति का केंद्रीकरण: बाजरू शक्तियों
के चलते लोगों ने सज्जनता का परित्याग कर दिया है। शक्ति का विकेंद्रीकरण की बजाय उसका
केंद्रीकरण होता जा रहा है। विश्वभर में भूमि को हथियाने की बातें सामने आ रही हैं।
उपजाऊ भूमि में जैव-ईंधन के नाम पर और पशुओं को चारे के रूप में सोया तथा मक्का उत्पादन
कर एकल खेती और औद्योगिक खेती को अत्यधिक बढ़ावा मिलने के कारण जंगल के जंगल समाप्त
हो रहे हैं। भूमि के उपयोग में लगातार परिवर्तन के चलते पलायन को बहुत अधिक बढ़ावा
मिल रहा है जिस वजह से जलवायु परिवर्तन में संतुलन की सम्भावनाओं पर संकट बढ़ता जा
रहा है। आर्थिक असमानता में वृद्धि: व्यापक विरोध के बावजूद,
वैश्विक आर्थिक असमानता में वृद्धि जारी है। अमीर और गरीब के
बीच असमानता की खाई लगातार बढ़ती जा रही है। पिछले वर्ष दुनिया के सबसे अधिक अमीर 300 व्यक्तियों के पास 524 अरब डॉलर रूपये की दौलत
थी। यह धन दुनिया के सबसे गरीब 29 देशों की संयुक्त आय
से कहीं अधिक है। हमारे समाज में जितनी अधिक आर्थिक असमानता होगी,
हिंसा की दर उसी अनुपात में बढ़ती जाएगी। संघर्ष,
युद्ध और पलायन: आर्थिक असमानता के कारण समाज में हिंसक प्रवृतियों
को बढ़ावा मिलता है, जिसका परिणाम अंततः हमारे पर्यावरण को झेलनी पड़ता है। संयुक्त
राष्ट्र की एक रिर्पोट के अनुसार पिछले 60 वर्षों की अवधि में
होने वाले लगभग 40 प्रतिशत राज्यातंरिक
संघर्ष भूमि और प्राकृतिक संसाधनों के कारण हुए. चाहे 1984 के पंजाब में हुए दंगे
हों या आज के दौर में सीरिया और नाइजीरिया की बात करें ये सभी विनाशकारी संघर्ष भूमि,
मिट्टी-पानी, आजीविका तथा पहचान बनाए रखने की वजह से ही हुए. ऐतिहासिक घटनाएँ
स्पष्ट करती हैं कि भूमि ने संस्कृति और सांस्कृतिक विविधता को निर्मित किया है,
जोकि जैविक विविधता के साथ-साथ विकसित हुई हैं। लेकिन,
इस दौरान विकसित हुए पारिस्थितिक संदर्भों में कहीं भी धार्मिक
संघर्षों ने अपना कोई सकारात्मक योगदान नहीं दिया। आक्रामक अर्थव्यस्था और लोकतंत्र
विरोधी राजनीति ने संस्कृतियों को हिंसक बनाने के लिए आग में घी जैसा कार्य किया। इन
संघर्षों के कारण लाखों लोग बेघर होकर शरणार्थियों जैसी दुष्कर ज़िन्दगी जीने को मजबूर
हो गये। इन संघर्षों के कारण ही कमजोर संस्कृतियों ने अपनी पहचान बनाये रखने के लिए
आतंकवाद, उग्रवाद आदि को जन्म दिया।
संघर्ष के इन परिणामों से बचने
का विकल्प यही है कि हम हिंसा का बहिष्कार कर सांस्कृतिक, राजनीतिक और आर्थिक रूप से इतने प्रबल हों कि सम्पूर्ण समाज
में असमानता और वैमनस्व के लिए कोई स्थान ही न रहे। ऐसा तभी सम्भव है,
जब हम आर्थिक गतिविधियों पर नैतिक और पारस्थितिक रूप से नियंत्रित
करेंगे, जब हम व्यापार में पारदर्शिता लायेंगे और अहिंसा का महत्त्व समझेंगे। भय और घृणा
की राजनीति तथा लोकतंत्र का पतन: सरकार कॉर्पोरेट जगत के दबाव में आकर लोकतंत्र का
मूल मंत्र यानि'जनता का,
जनता के लिए, जनता के द्वारा' को भूल गई है। आज राजनीतिक शक्ति का मुट्ठी भर लोगों के द्वारा
पूरी पृथ्वी और उसकी विभिन्न प्रजातियों पर अधिकार होने की स्थिति दृष्टिगोचर हो रही
है। अब हमारे पास चुनौती यह है कि हम शोषणकारी राजनीति और गैर-टिकाऊ आर्थिक मॉडल का
कायाकल्प कर लें। आज बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के कारण हमारी वसुधा और उसकी जलवायु संकट
के घेरे में है। हमें इन चुनौतियों से शीघ्र उभरने के प्रयास मिलकर करने होंगे। औद्योगिक-कृषि
जलवायु के लिए राक्षस: हम लगातार बढ़ रहे जलवायु परिवर्तन से तब तक नहीं निपट सकते,
जब तक कि विश्व के भोजन-तंत्र और उसकी पद्धतियों में संतुलन
स्थापित नहीं कर देते। औद्योगिक कृषि हमारे पर्यावरण के लिए एक ऐसा राक्षस सिद्ध हो
रही है, जिस पर समय रहते नियंत्रण करना अति आवश्यक है। वनों की कटाई,
जानवरों के लिए चारा उत्पादन के बहाने जैव-विविधताओं के विनाश,
लम्बी दूरी के परिवहन तथा भोजन की बर्बादी के कारण 40 प्रतिशत गीन-हाउस गैसों
का उत्सर्जन होता है, जोकि ओजोन परत के लिए जहर का कार्य करती हंै। हम तब तक जलवायु
परिवर्तन पर नियंत्रण नहीं पा सकते, जब तक छोटे-छोटे पैमाने तक पारस्थितिक कृषि,
जैव-विविधता पर आधारित जैविक बीज, जैविक-मिट्टी, तथा स्थानीय खाद्य-प्रणाली के साथ कम से कम भोजन की बर्बादी,
तथा प्लास्टिक के उपयोग पर नियंत्रण नहीं पा लेते। आज जीवाश्म-ईंधन
आधारित गहन-औद्योगिक कृषि तथा 'मुक्त व्यापार संधि' पृथ्वी पर सामाजिक और पारिस्थितिक नुकसान के लिए सर्वाधिक जिम्मेदार
हैं। यह वस्तु आधारित कृषि 75 प्रतिशत मिट्टी का विनाश;
75 प्रतिशत जल संसाधनों का विनाश और तथाकथित उन्नत-बीज और पोषण-रहित
खोखले तथा विषाक्त खाद्यान से 93 प्रतिशत जैव-विविधता
के ह्रास के साथ ही नदी, झील और महासागरों के जल के विनाश के लिए उत्तरदाई है। बड़ी-बड़ी
बहुदेशीय कम्पनियों द्वारा हर वस्तु को 'क्लाइमेट स्मार्ट यानी' जलवायु सहिष्णु' करार देने की रणनीति एक मात्र छलावा है।
एकमात्र वैकल्पिकः पारिस्थितिक
कृषि: पारिस्थितिकी के आधार पर जैविक-कृषि और स्थानीय खाद्य-प्रणाली से ही कुपोषण एवं
स्वास्थ्य सम्बंधी संकटों के साथ जल तथा जलवायु परिवर्तन जैसी आपदाओं पर नियंत्रण पाया
जा सकता है। स्थानीय खाद्य-अर्थव्यवस्था को निर्मित करने से मानव को स्वास्थ्य सम्पन्न
और पर्यावरण को संकट मुक्त बनाया जा सकता है। स्थानीय खाद्य अर्थव्यवस्था के लिए हमे
स्थानीय भोजन की ज़रूरत है और स्थानीय भोजन के लिए आवश्यक है कि हम स्थानीय बीजों को
उपयोग में लाएँ तथा किसान अपने बीजों को स्वयं उगाएं। प्रत्येक बीज में एक सृष्टि समाहित
होती है। यह प्रकृति अपनी यात्रा को इन बीजों की सृष्टि के बल पर ही आगे बढ़ाती है।
प्रकृति के इस कार्य को सरल बनाने में किसान बहुत बड़ी भूमिका निभाता है। वह अपनी नई
फसल के लिए बीजों को तैयार करता है और बीज प्रजनक कहलाता है। जलवायु परिवर्तन के इस
दौर में किसान के पास कृषि जैव-विविधता को बढ़ाने और उसे बनाए रखने की बहुत बड़ी चुनौती
है। इस चुनौती को छोटे किसान ज़्यादा अच्छे से निभा सकते हैं। छोटे किसानों के द्वारा
ही इस विश्व के 70 प्रतिशत लोगों को भोजन
मात्र 30 प्रतिशत संसाधनों के उपयोग के आधार पर
किया जाता है। वहीं औद्योगिक खेती 70 प्रतिशत संसाधनों का
उपयोग के बदले में 40 प्रतिशत ग्रीन हाउस
गैस उत्सर्जन का उत्सर्जन करती है। जैविक खेती वातावरण से अतिरिक्त कार्बन-डाइऑक्साइड
को प्रकाश संश्लेषण के माध्यम से मिट्टी में वापस भेजती है। ऐसी खेती के माध्यम से
मिट्टी की जलधारण क्षमता में भी वृद्धि होती है, जिससे सूखे की स्थिति से निपटने में सहायता मिलती है। इस तरह
से जैविक खेती ही वह माध्यम है जिससे वातावरण में लगातार बढ़ रही कार्बन डाइआॅक्साइड
की मात्रा पर नियंत्रण कि साथ गिरते हुए भू-जल स्तर में सुधार लाया जा सकता है। दुनिया
भर में सभी छोटे किसान और बागवान भाई-बहन अपने पारम्परिक ज्ञान के माध्यम से मिट्टी
और बीजों का संरक्षण कर रहे है। ऐसे किसान शुद्ध, स्वस्थ एवं पोषण युक्त भोजन पैदाकर जहाँ अपने समुदाय को भोजन
प्रदान कर रहे हैं वहीं पेट्रो-केमिकल्स को चुनौती देकर पृथ्वी-ग्रह को बचाने में अपना
योगदान दे रहे हैं। इस तरह से छोटे किसान अपने अथक प्रयासों से इस धरती पर 'भोजन का गणतंत्र' स्थापित कर-कर रहे हैं।
मानव और पृथ्वी के लिए एक नई संधि:
हमारे लिए धरती पर सभी मानव एक समान हैं। इसलिए हम सम्पूर्ण धरती को एक परिवार (वसुधैव
कुटुम्बकम) मानते हैं। हम इस अखिल विश्व-परिवार के नागरिक हैं और अपने ग्रह यानी इस
धरती को बचाना हम सभी का कर्तव्य और धर्म है। इसीलिए आज हम समूचे मानव समाज के साथ
' पृथ्वी
और उसके सबसे अद्भुत प्राणी यानी मानव को बचाने का समझौता यानी संधि प्रस्तुत करते
हैं। यह सार्वभौमिक सत्य है कि पृथ्वी है तो मानव है और मानव है। यह पृथ्वी चिरायु
रहेगी तो मनुष्य भविष्य में इस भूमि की उर्वरा-शक्ति तथा विविध फसलों के बीजों की अंकुरण-शक्ति
से अपने समुदाय का पालन-पोषण कर सकेगा। हां, मानव नामक इस प्राणी के संरक्षण के लिए इस प्रकृति में सम्पूर्ण
जैव विविधता का सुरक्षति रहना अति आवश्यक है। आज लगातार अपभोगवादी संस्कृति और अति
स्वार्थपूर्ण कार्पोरेट जगत को अपने नजरिये को बदलने की आवश्यकता है। हम सभी को मिलकर
अपने स्वार्थ और लालच को ईमानदारी और जिम्मेदारी में बदलना होगा,
तभी मानवता रूपी बीजों को संरक्षण प्रदान किया जा सकेगा। जलवायु
परिवर्तन पर संयुक्त राष्ट्र सम्मेलन की पूर्व संध्या पर पूरी दुनिया की नजर पेरिस
पर टिकी हुई है। इस ऐतिहासिक अवसर पर सम्पूर्ण विश्व के लोगों को प्राकृतिक संसाधनों
के शोषण और निजीकरण के स्थान पर कृतज्ञतापूर्ण लौटाने की प्रवृति के साथ जल,
वायु, मिट्टी बीज और भोजन पर जनसामान्य का अधिकार हेतु चैतन्य करने
के लिए आमंत्रित किया जाना चाहिए. जलवायु संकट, भोजन संकट और जल संकट का एक दूसरे से घनिष्ठ सम्बंध है तथा इन
संकटों का समाधान इन तत्वों संरक्षण में ही अंतर्निहित है। ये सभी घटक एक-दूसरे से
किसी तरह भी अलग नहीं हैं।
पृथ्वी और मानवता की रक्षा करने
के लिए एक समझौता, देश का नागरिक होने के नाते हमारा कर्तव्य है कि हम अपने प्राकृतिक
संसाधनों का संरक्षण कर इस धरती की रक्षा करें। धरती हमारी माँ है और उसकी रक्षा में
ही हम सबकी भलाई और हमारा भविष्य सुरक्षित है।
1. जैविक मिट्टी में निवास करती है-हमारी सभ्यता,
सुरक्षा और समृद्धि।
हम अपनी मिट्टी और जैव-विविधता की रक्षा
के लिए प्रतिबद्ध हंै। हमारी जैविक मिट्टी कार्बन को ग्रहण करती है और पानी का संग्रह
करती है। पारिस्थितिकीय संतुलन पर आधारित कृषि पुर्नचक्रीकरण के आधार पर कार्बनिक पदार्थों
को पोषक तत्वों में बदलती है। सर अलबर्ट हावर्ड ने कहा था कि इस मिट्टी को कुछ दिये
बिना ही धरती से विभिन्न वस्तुएँ प्राप्त करना डकैती करना जैसा है। हम धरती द्वारा-द्वारा
किये गये उपकारों के आभारी हैं और लौटाने की रीति को ध्यान में रखते हुए अपनी जिम्मेदारी
को मानते हुए हम उसे जैविक कार्बन को जैविक पदार्थ के रूप में वापस लौटायेंगे।
2. हवा-पानी, मिट्टी, वातावरण, जैव-विविधता और बीज हम सबके लिए हैं।
पृथ्वी ने हमें जीवन रूपी महत्त्वपूर्ण
उपहार दिया है। यह उपहार सभी के लिए समान अधिकार, कर्तव्य, आजीविका और रक्षा लिए हुए है। हमारी जैव-विविधता और विभिन्न
तरह के बीज जनसाधारण के लिए है। इनको पेटेंट करने का अर्थ है अपनी जैव-विविधता को विनाश
और किसानों को कर्ज की गर्त में धकेलना। बिना मिट्टी के न तो जीवन और ना ही भोजन की
प्राप्ति सम्भव है। जल भी जनसाधारण के लिए है। यह कोई व्यापार की वस्तु नहीं है। 'जल है तो जीवन' है। वातावरण और उससे मिलने वाली वायु हमें जीवन-शक्ति देती है।
वातावरण जितना स्वस्थ रहेगा हमारी जलवायु उतनी ही स्वस्थ होगी। आज मिट्टी,
हवा और जल का लगातार निजीकरण होता जा रहा है जिसके कारण हमारा
वातावरण लगातार प्रदूषित हो रहा है। हमें इन तत्वों का किसी भी कीमत पर निजीकरण होने
से रोकना होगा। हमें इन जीवन तत्वों को सहयोग, देखभाल और एकजुटता के आधार पर रक्षा करके उन्हें पुनः प्राप्त
होगा।
3. बीज-स्वतंत्रता और जैव-विविधता भोजन की स्वतंत्रता और जलवायु
स्थिरता की नीव है।
हम बीज-स्वतंत्रता के लिए प्रतिबद्ध
हैं। हम सभी मानव समुदायों के साथ मिलकर ईमानदारी पूर्वक संगठनात्क रूप में जैव-विविधता
को बचाकर सभी के लिए बीजों की उपलब्धता निश्चित करेंगे। खुले परागण के आधार पर बढ़ाये
गए गैर-जी.एम.ओ और गैर-पेटेंट बीजों का आदान-प्रदान करना हमारा अभिन्न अधिकार है। किसानों
के अधिकार स्वयं प्रकृति द्वारा संरक्षित हैं। यह धरती हमें आदिकाल से हमारी पीढि़यों
को अपनी जैव-विविधता के माध्यम से पाल-पोष रही है। बीज प्रकृति का अनमोल उपहार है।
यदि कोई भी कानून अथवा प्रौद्योगिकी हमारी बीज-स्वतंत्रता को कमजोर करने का प्रयास
करेगा हम ऐसे प्रयासों का विरोध करेंगे। हम अपने बीजों की रक्षा करने के साथ ही जी.एम.ओ.
तथा पेटेंट के विरोध में एक साथ खडे़ रहेंगे।
4. औद्योगिक कृषि है जलवायु संकट के लिए सबसे अधिक जिम्मेदार।
हरित-गृह गैसों को बढ़ावा देने
में विश्व भर में की जा रही औद्योगिक खेती 40 प्रतिशत से अधिक का
योगदान है। हरित-गृह गैसे हमारी जलवायु के संतुलन को बिगाड़ रही हैं। ये गैसे वनों
के कटाव, जीवाश्म-ईंधन पर आधारित खादों, पैकेजिंग, प्रसंस्करण, रिफ्रिजरेटर और लंबी दूरी के परिवहन के कारण अधिक उत्सर्जित
हो रही हैं। ज्ञात हो कि औद्योगिक खेती जलवायु परिवर्तन का सबसे बड़ा कारण है ऐसी खेती
से कभी भी भुखमरी और जलवायु परिवर्तन की समस्या का हल नहीं मिल सकता। हम जलवायु परिवर्तन
को भू-प्रौद्योगिकी, 'स्मार्ट क्लाइमेट' एग्रीकल्चर, जैव यांत्रिकी के आधार
पर शोधित बीज और सतत सघनता जैसे समाधानों में कभी विश्वास नहीं रखते।
5. पारिस्थितिकी पर आधारित छोटी कृषि जोत और स्थानीय खाद्य प्रणाली
से मिलेगा तापमान पर नियंत्रण और भरपूर पोषण।
हम पारस्थितिकी पर आधारित छोटी जोत
की खेती करने के लिए सदैव तत्पर हैं। ऐसी कृषि-भूमि से जहाँ हमें अपने भोजन का 70 प्रतिशत भाग मिलता हैं,
वहीं जैव-विविधता और जल-तंत्र के साथ जलवायु को स्थिरता भी मिलती
है। हम ऐसे स्थानीय भोजन-तंत्र स्थापित करने में सहयोग देंगे,
जिनसे भोजन और पोषण की प्राप्ति के साथ ही जलवायु संकट का समाधान
भी सम्भव हो सके. जैव-पारस्थितिकी, छोटी-कृषि जोत तथा स्थानीय भोजन-तंत्र सम्पूर्ण विश्व को पोषण
के साथ जलवायु संतुलन देने मंे सक्षम है।
6. मुक्त व्यापार और कॉर्पोरेट जगत की बेलगाम स्वतंत्रता पृथ्वी
और मानव स्वतंत्रता के लिए खतरा है।
प्रकृति हमें जीवन जीने के लिए स्वतंत्र
और अबाध रूप से वायु, जल और अन्न प्रदान करती है। इन तत्वों के अतिरिक्त सम्मान जनक
जीवन जीने के लिए स्वतंत्रता की आवश्यकता होती है, लेकिन आज कार्पोरेट जगत ने 'मुक्त व्यापार' के माध्यम से हमारी स्वतंत्रता को छीन लिया है। कार्पोरेट जगत
अपने लाभ के लिए लगातार जैव-विविधता को अपना बंधक बना रहा है। कार्पोरेट जगत प्रकृति
द्वारा प्राप्त प्रत्येक का तत्व का बालात ब्यापार करने पर लगा हुआ है। इसके चलते हमारी
धरती कई संकटों की शिकार हो रही है और जनसामान्य की आर्थिक स्थिति भी बिगड़ती जा रही
है। पिछले दो-दशक यानी जबसे कि विश्व व्यापार संघ ने कार्पोरेट जगत के द्वारा लाये
गये 'मुक्त व्यापार'
समझोते पर हस्ताक्षर किये, तब से व्यापार में ढील के चलते पारस्थितिक एवं सामाजिक अस्थिरता
में बढोंत्तरी हुई है। हम पारदर्शी व्यापार में विश्वास रखते हैं और टी.टी.आई.पी. तथा
टी.पी.पी. जैसे कार्पोरेट्स के अधिकारों को बढ़ाने वाले किसी भी समझोते का विराध करते
हैं। कार्पोरेट जगत को जलवायु परिवर्तन को बढ़ावा देने और पर्यावरण को अत्यधिक मात्रा
में प्रदूषण फैलाने के एवज में हर्जाना भरना होगा।
7. अर्थव्यवस्था को सुदृढ़ करने वाले स्थानीय तंत्र ही वास्तव में
सार्थक कार्य कर रहे हैं और इन्हीं से पृथ्वी और अन्य सभी की भलाई हो सकती है।
प्रकृति से हमें 'प्राप्त करने की अपेक्षा देने' में विश्वास करने की शिक्षा मिलती है। स्थानीय और जीवंत अर्थव्यवस्था
भी इसी आधार पर फलूभूत होती है। विशेष वर्ग को लाभ पहुंचाने की अपेक्षा जनसामान्य का
जीवन संवारने और कल्याण के भाव से आगे बढ़ रही अर्थव्यवस्था पर भविष्य निर्भर करता
है। औद्योगिक कृषि का ध्येय मात्र और मात्र उत्पादन और उपभोग है,
इसीके चलते ऐसे कृषि-तंत्र ने जैव-विविधता का विनाश कर धरती
की पारस्थितिक प्रक्रिया में बहुत बड़ी बाधा पहुंचाई है और लाखों लोगों को खेती-विहीन
कर दिया है। जैविक अर्थव्यवस्था में बर्बादी के लिए कोई स्थान नहीं है।
8.
'वसुधैव कुटुम्बकम'
का मतलब 'विविधता में एकता'।
हम परस्पर सहभागिता और स्वस्थ लोकतंत्र
में विश्वास करते हैं और अपने लाभ के लिए लोकतंत्र से छेड़खानी का हम प्रबल विरोध करते
हैं। हम पृथ्वी तथा उसके प्राणियों के कल्याण हेतु साझेदारी और विविधता में एकता के
सिद्धांत को अपना आदर्श मानते हैं। हम हिंसा और अधःपतन के दुष्चक्र को तोड़ने और सभी
लोगों और सभी प्रजातियों की भलाई के लिए अहिंसा और उत्थान के आधार पर सद्भाव बढ़ाने
हेतु प्रतिबद्ध हैं। हम घृणा और द्वेष के आधार पर बंटने की अपेक्षा एक धरती और एक मानवता
के रूप में बंधने में विश्वास रखते हैं। हम गांधी जी की उस शिक्षा में विश्वास रखते
हैं जो कहती है, 'जब नियम और कानून मानवता के प्रति नैसर्गिक नियमों का उलंघन करने लगे तब एकजुट
होकर असहयोग प्रारम्भ कर दीजिए.'
9. हम इस धरती के विशिष्ट समुदाय हैं।
हम पुनः 'वसुधैव कुटुम्बक' यानी धरती में लोकतंत्र स्थापित करेंगे। ऐसा करने से मनुष्य
में सभी प्राणियों के प्रति सद्भावना जगेगी और हमारी धरती चिरायु रहेगी। जब मानव में
सभी के प्रति सद्भावना प्रकट होगी तभी मानवता से भरा-पूरा संसार खिल उठेगा और हमारे
द्वारा अपनी माँ यानी इस भूमि को कोई भी कष्ट नहीं मिलेगा और सच्चे अर्थों में धरती
चिरायु हो सकेगी। तब सभी को भोजन, हवा, पानी और सम्मान पूर्वक जीने का अधिकार मिलेगा। सही मायने में
यही वास्तविक स्वतंत्रता है।
हम धरती और मानवता को बचाने के लिए
एक समझौता-पत्र प्रस्तुत कर रहे हैं।
मनुष्य होने के नाते हमें पूरी-पूरी समझ है कि मनुष्य सहित सभी प्राणी और उनकी
प्रजातियों को धरती पर उत्साह पूर्वक जीवन जीने का पूरा अधिकार है।
कि धरती माँ के अधिकार और मानव अधिकार किसी भी तरह से एक दूसरे से अलग नहीं हैं।
कि धरती के साथ हिंसा और मानवता के प्रति अन्याय में कोई अंतर नहीं है।
कि न्याय, शांति मानवता और मानव अधिकार की निरंतरता को एक दूसरे से अलग नहीं किया जा सकता।
10.
हम यत्र-तत्र-सर्वत्र हम 'आशा के बाग' के बाग लगाएंगे।
हम अपने खेत में,
उद्यान में, बालकनी में, छतों में जैविक-अन्न उत्पन्न करेंगे।
हम पृथ्वी को स्वस्थ और प्रदूषण मुक्त
करने हेतु एक ठोस समझोते के प्रतीक के रूप में-में आशा के बाग लगाएंगे।
इस एक छोटे से कदम के द्वारा हम लाखों
लोगों में निहित उस शक्ति को जागृत करने का कार्य करेंगे, जिससे उत्पन्न एकता और सद्भावना से पृथ्वी की सेवा के साथ मानुष्यों
के लिए स्वस्थ अर्थव्यस्था और जीवंत लोकतंत्र पोषित हो सकेंगे। इस तरह से अपनी पृथ्वी
और उसके सद्भावना युक्त नागरिकों के लिए परिवर्तन के नए बीज बोएंगे।
I Am Ancestor
of all Ancestors -Rigved - मैं
ऋषियों का पुर्वज हूं
6
Feet land A Hindi Story of Leo Tolstoy- Hindi दो बहनों कि कथा
श्रवण
और कालु किसान -story in Hindi
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अभिज्ञानशाकुन्तल संक्षिप्त कथावस्तु
महाकविकालिदासप्रणीतम् - अभिज्ञानशाकुन्तलम् `- भूमिका
वैराग्य
संदीपनी गोस्वामितुलसीदासकृत हिंदी
अग्नि
सुक्तम् - अग्निमीळे पुरोहितं यज्ञस्य देवमृत्विजम्
S’rimad
Devî Bhâgavatam THE FIRST BOOK
Chapter
XV-XVI-XVII-XVIII-XIX-XX-XXI-XII
S’rimad Devî
Bhâgavatam THE FIRST BOOK Chapter XIII-XIV
S’rimad Devî
Bhâgavatam THE FIRST BOOK Chapter XI-XII
S’rimad Devî
Bhâgavatam THE FIRST BOOK Chapter IX-X
S’rimad Devî
Bhâgavatam THE FIRST BOOK Chapter VII-VIII
S’rimad Devî
Bhâgavatam THE FIRST BOOK Chapter V-VI
S’rimad Devî
Bhâgavatam THE FIRST BOOK Chapter III-IV
S’rimad Devî
Bhâgavatam THE FIRST BOOK Chapter I-II
VISHNU PURANA. -
BOOK III. CHAP -16,17,18
VISHNU PURANA. -
BOOK III. CHAP. XV.
VISHNU PURANA. -
BOOK III. CHAP. XIV.
VISHNU PURANA. -
BOOK III. CHAP. XIII.
VISHNU PURANA. -
BOOK III. CHAP. XII.
VISHNU PURANA. -
BOOK III. CHAP. XI.
VISHNU PURANA. -
BOOK III. CHAP. X
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BOOK III. CHAP. IX
VISHNU PURANA. - BOOK
III. CHAP. VIII
VISHNU PURANA. -
BOOK III. CHAP. VII.
VISHNU PURANA. -
BOOK III. CHAP. VI
VISHNU PURANA. -
BOOK III. CHAP. V
VISHNU PURANA. -
BOOK III. CHAP. IV
VISHNU PURANA. - BOOK
III.- CHAP. III
VISHNU PURANA. -
BOOK III.- CHAP. II.
चंद्रकांता
(उपन्यास) पहला अध्याय : देवकीनन्दन खत्री
खूनी औरत का
सात खून (उपन्यास) : किशोरी लाल गोस्वामी
ब्राह्मण की
बेटी : शरतचंद्र चट्टोपाध्याय (बांग्ला उपन्यास)
SELF-SUGGESTION AND
THE NEW HUNA THEORY OF MESMERISM AND HYPNOSIS – chapter-1, BY- MAX FREEDOM LONG
VISHNU PURAN-BOOK I
- CHAPTER 11-22
VISHNU PURANA. -
BOOK I. CHAP. 1. to 10
THE ROLE OF PRAYER.
= THOUGHT: CREATIVE AND EXHAUSTIVE. MEDITATION EXERCISE.
HIGHER REASON AND
JUDGMENT= CONQUEST OF FEAR.
QUEEN CHUNDALAI, THE
GREAT YOGIN
THE POWER OF
DHARANA, DHIYANA, AND SAMYAMA YOGA.
THE POWER OF THE
PRANAYAMA YOGA.
KUNDALINI,
THE MOTHER OF THE UNIVERSE.
TO THE KUNDALINI—THE
MOTHER OF THE UNIVERSE.
Yoga Vashist part-1
-or- Heaven Found by Rishi Singh Gherwal
Shakti and Shâkta
-by Arthur Avalon (Sir John Woodroffe),
Mahanirvana Tantra-
All- Chapter -1 Questions relating to
the Liberation of Beings
Tantra
of the Great Liberation
श्वेतकेतु और
उद्दालक, उपनिषद की कहानी, छान्द्योग्यापनिषद,
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यजुर्वेद
मंत्रा हिन्दी व्याख्या सहित, प्रथम अध्याय 1-10,
GVB THE UIVERSITY OF VEDA
उषस्ति की
कठिनाई, उपनिषद की कहानी, आपदकालेमर्यादानास्ति,
_4 -GVB the uiversity of veda
वैराग्यशतकम्, योगी
भर्तृहरिकृत, संस्कृत काव्य, हिन्दी
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