मैं हि
सत्य का रक्षक हूं Rig Veda
ओ३म् अग्ने य यज्ञमध्वरं विश्वतः परिभूरसि। स इद्देवेषु गच्छति॥ ऋग्वेद 1.4
जैसा कि परमेश्वर ने प्रथम मंत्र
में कहा कि परमेश्वर अग्निस्वरूप है उसको जान कर हि सभी मानव कल्याण करें। इसमें ब्रह्माण्ड
कि उत्पत्ति जिस अग्नि किया उसका उपेदेस किया है। दूसरें मंत्र में परमेश्वर कहते है
कि अग्नि स्वरूप सभी ऋषियों के पुर्वज है अर्थात परमेश्वर के द्वारा ही जीवन का आभिर्भाव
हुआ यह दूसरू अग्नि का रूप है। तीसरे मंत्र में फिर अग्नि स्वरूप परमेंश्वर उपदेस करते
हुए कहते है कि वह ही सब ऐश्वर्यों का मुल है अर्थात वही आत्मा स्वरुप सब बहुमुल्य
अग्नि का तिसरा रूप है जो सभी जीवों के लिये सबसे अधिक मुल्य वाल या युं कहे कि बहुमुल्य
है। अब इस चौथें मंत्र के द्वारा परमेश्वर उपदेस कर रहे कि इस बहुमुल्य धन का उपयोग
कैसे और कहाँ करना है? यह चौथि प्रकार कि अग्नि है। इसको इस प्रकार से समझते है कि
जैसे बचपन में किसी मनुष्य का श्रेष्ठ कार्य है कि वह इस विश्व ब्रह्माण्ड के सत्य
को जानने का प्रयाश करें, आर्थात ज्ञानार्जन करने के लिये निरंतर पुरुषार्थ करके अपने
लगभग सभी संसाय का समाधान करे। जिसको हम सब ब्रह्मचर्य काल कहते है। यह जीवन के प्रारंभिक
पच्चिस सालों तक माना गया है। उसके बाद गृहस्थ जीवन का प्रारंभ होता है जो पच्चिस से
पचास सालों के मधय को कहते है इस समय में अपने पुर्वजों का ऋण उतारने का कार्य भली
भाति करें संसार में एक श्रेष्ठ गृहस्थ बन कर जीवन का निर्वाह करें और अपनी जीम्मेदारियों
का भली प्रकार से पालन पोषण करें, अपने पुत्र पुत्री और पत्नी के सात अपने माता पिता के प्रति
अपने उत्रदाईत्वों से उरिऋ हो सके. इसके बाद तीसरा चरण जीवन का बानप्रस्थ का पचास कि
उम्र के बाद सुरु हो कर पचहत्तर सालों तक चलता है इस उम्र में सभी प्रकार के ऐश्वर्यों
का विस्तार करके औरअपने ज्ञान को अपनी साधना से दृढ़ करके, इस चौथे और जीवन के अंतिम चरण के लिये परिपूर्ण समर्पित करके
विश्व के कल्याण के लिये संयास लेकर सत्य कि रक्षा, धर्म कि रक्षा, ज्ञान कि रक्षा यज्ञ के विस्तार के लिये कार्य करना चाहिये।
यह चार मंत्र एक प्रकार से चार प्रथम
वर्णो के धर्म और चार आश्रम के धर्म और तिन ऋणों के धर्मों कि बाते क्रमशः करते है
और जहाँ तक मैं समझता हूँ इन्हीं मंत्रों के आधार पर हमारें प्राचिन काल में चार वर्ण
कर्मशः कर्मों के आधार पर नियुक्त कियें गये थे ब्राह्मण जो ब्रह्मचर्य का धारण करने
वाला और ब्रह्म के ज्ञान को प्राप्त करके उसका विस्तार करने वाला जिसको वेद के मंत्रों
में मुख के समान कहा गया है और इनको ही ब्रह्माण्ड का रक्षक कहा गया है। जिस प्रकार
से हमारे शरीर में मुख को सबसे श्रेष्ठ माना गया है। मुख मानव शरीर का वह अंग है जिसके
द्वारा बहुत दिव्य और पवित्र कार्य सिद्ध किये जाते है। जैसे मंत्रों का गायन,
जिससे मंत्रों का रक्षण होता है और जिसके द्वारा मन को नियंत्रित
किया जाता है। यह बहुत प्राचिन पद्दति है इसके द्वारा ही आत्मा का ज्ञान और आत्मा कि
रक्षा भी संभव है। मन से ही मनुष्य बनता है और मन से ही मंत्र अर्थात विचार शक्ति का
श्रृजन होता है जिसको ही आगे शब्द ब्रह्म कहते है। तो यह मंत्र अपने आप में स्वयं ब्रह्म
ही है जब यह मन से जुण कर आत्मा को प्रकाशित कर देते है। यह एक प्राचिन तकनिकी है।
जिस तकनिकी का विस्तार करने कार कार्य ब्राह्मण को ने हासिल किया जिसको यज्ञ विस्तार
भी कहा गया क्योकि यह कार्य यज्ञ की श्रेणी में ही आता है। दूसरा कार्य क्षत्रिय के
लिये है जो मानव शरीर में सीनें के समान माने गये है। अर्थात यह शक्ति का प्रमुख केन्द्र
है इनके अधिकार में सम्पूर्ण पृथ्वी का अधिकार दिया गया और इनको राजा माना गया है।
तीसरा वर्ण वैश्य माना गाय जिसके जिम्मे व्यापारादि कार्य कृषि कर्म के द्वारा वस्तुओं
का उत्पादन सभी प्राणियों के लिये ज़रूरी वस्तुओं का संग्रह और उनका सब के पास पहुंचाने
कार्य दिया गया और इनको कहा गया कि यह सब मानव शरीर में पेट के समान माना गया जिस प्रकार
से पेट में गया अन्न पट कर पूरे शरीर में खुन बन कर दौणता है उसी प्रकार से मानव में
सब के लिये भोजन और दूसरे संसधन को यथा युक्ती से उपलब्ध जो कराता है उसको वैश्य कहा
गया और अन्तिम वर्ण को शुद्र कहा गया जिसका कार्य सहनशीलता जो पृथ्वी को समान सब के
भार के सहन करते है और सभी की सेवा करते है। इसमें ब्राह्मण ही अपनें ज्ञान के द्वारा
सच्चा ब्रह्मचारी माना गया है जो ब्रह्म के समान आचरण करता है उसका जीवन ब्रह्म को
ही लक्ष्य करकें निस्पादित होता है जिसके कारण ही उसको ब्रह्मज्ञानी कहा गया है। क्षत्रिय
जो क्षात्र के समान है जो सिखता है अपनी प्रत्येक गल्तियों से और अपने सांसारिक जीवन
गृहस्थ के द्वारा उसको आगेम बढ़ाता है और सब की रक्षा करता है एक अच्छा राज्य का कार्य
भार सम्हाल कर एक गृहस्थ राजा कि तरह से जो व्यापारियों कि भी रक्षा करता है उनके वस्तुओं
का सही यथा योग्य मुल्याकंन कर के और शुद्रों के सात होने वाले अत्याचार को नियंत्रित
करता है। वैश्य एक वान प्रस्थी कि तरह से जंगल समन्दर कि यात्रा करके हर प्रकार से
साधन को सभी राज्य की जनता को उपलब्ध कराता है। शुद्र संयासी के समान सबसे अपना राग
द्वेश छोड़ कर मान अपमान का त्याग करके यथा योग्य सब की सेवा करता है बदले में उनसे
बहुत थोड़ा मेहनतान लेकर। जिस प्रकार से संयासी भिक्षा को ग्रहण करके सभी जनों को दिव्य
त्रान का प्रचार प्रसार करता है। इस प्रकार से सबका कल्याण और सबकि रक्षा भी होती है
हमारे समाज की। जबकि अब समय बहुत बदल गया है। लेकिन यह कार्य आज भी हो रहा है। आज जन्म
से वर्णों की मान्यता बढ़ गई है जिसके कारण ही समाज का हराश हो रहा है। यद्यपी हमारे
शास्त्रों में कर्म प्रधान ही माना गया है। इस लिये ही तो कहते है कि कर्मण्येवाधिकाररस्ते
मा फलेशु कदाचन, अथवा कर्म प्रधान विश्व रचि राखा जो जसकरई तो तस फल चाखा।
सत्य का रक्षक और सत्य दो वस्तु है
एक सत्य का रक्षक है दूसरा सत्य है जिस तरह से हमारी आत्मा है यह एक सत्य है लेकिन
ज़रूरी नहीं है कि प्रत्येक आत्मा के द्वारा सत्य कि रक्षा ही कि जाती है क्योंकि सभी
आत्माओं को स्वयं का ज्ञान भी होना पहले संसय है कि बात है। किसी तरह से बड़े पुरुषार्थ
के द्वारा जिसने सत्य का साक्षात्कार कर लिया है वहीं सत्य का रक्षक होता है। यद्यपी
आत्मा सत्य है लेकिन इसके ज्ञान सत्य नहीं है जब तक यह परमेंश्वर का साक्षात्कार नहीं
कर लेती है। क्योंकि परमेंश्वर के ज्ञान में ही किसी प्रकार कि मिलावट नहीं है इस लिये
सर्वश्रेष्ठ ज्ञान का रक्षक परमेश्वर है उसके सान्निध्य के द्वारा ही कोई मानव अपने
वास्तविक और अपने स्वरूप का शुद्ध साक्षात्कार कर पाता है। जिसका वर्णन वेदों के माध्मय
से किया गया है। इस तरह से सत्य तक पहुचने के दो मार्ग है एक तो सिधा-सिधा परमेश्वर
से सम्बंध स्थापित कर लिया जाये जैसा कि योग दर्शनकार पंतजली का योग दर्शन कहता है
और समाधि को उपलब्ध हो। जिससे साधक अपने व्यक्तिगत जीवन का उद्धार कर सकता है। इसके
लिये किसी प्रकार के शब्द ज्ञान कि ज़रूर नहीं है क्योंकि यह सिधा-सिधा मौन शुन्य कि
यात्रा है इसके लिये ही पंतजली कहते है कि शुन्यमिवसमाधि। यह समाधि शुन्य होने के समान
है सम्पूर्ण संसार से एक प्रकार से शुन्य बहोश होने की प्रक्रिया है। इसके द्वार समाज
का कल्याण बहुत कम होता है और यह आज के युग के लिये बहुत कम फायदेमंद है। क्योंकि आज
का मानव बहुत अधिक अपने वुद्धि पर निर्भर करता है जिसके कारण ही यह आधुनिक मानव काफी
तर्क शक्ति का प्रयोग करता है। जिसके लिये न्याय दर्शन और वैशेषिक दर्शन ज़्यादा उपयोगी
सिद्द हो सकते है। क्योकि यह दर्शन मानव मस्तिस्क के उहा पोह को काफी हद तक शान्त करने
में समर्थ है। इस तरह से हमारे दर्शनों का प्रमुख दो मार्ग है एक विचार शक्ति को अत्यधिक
तिब्र करके उस सुक्ष्मतम तत्व को अनुभव किया जाये जो विचारों से परे विचारों का निर्माता
है। परम प्रतापी परमेश्वर है जिससे ही यह विचार जो आकाश रूप है इनका जो मुख्य श्रोत
है। दूसरा मार्ग पंतजली के द्वारा बताया गया है स्वयं को शन्य करने का जिससे समाधि
को उपलब्ध हो सकते है मौन अन्तरयात्रा धारणा ध्यान के द्वारा। यह दूसरों को समझाने
जैसा नहीं है यह प्रयोग करने जैसा है इसमें प्रयोग कर्ता को स्वयं कि शरीर पर ही प्रयोग
करना पड़ता है। यदि सही विधियों का सही उपयुक्त तरह से प्रयोग किया जाये तो यह संभव
है कि समाधि सिद्ध हो जाये अन्यथा अपने अन्तर लोक में यु ही पागलो कि तरह से भटकता
रहे। तीसरा मार्ग भी बता गया जैसे व्यास और जैमिनी के द्वारा यज्ञ कर्म अर्थात पवित्र
कार्य को करके दूसरें के कल्याण के परोपकार परमार्थ विशेष का कार्य ध्यान में रख जीवन
को समर्पित कर दिया जाये। जैसा कि वेदान्त दर्शन में व्यास कहते है कि ब्रह्म कि जिज्ञासा
किया जाये और कल्पना के शिकर पर स्वयं को स्थित कर दिया जाये। जिसका उपयोग आज के युग
में बहुत अधिक हो रहा जैसे ओशो आदि नें इस मार्ग पर चल कर कल्पना के शिखर पर स्वयं
को स्थिर करने का प्रयाश किया आजिवन। जितनी उची से उची कल्पना कर सको और उस स्तर पर
स्वयं कि चेतना को स्थिर करने के कार्य को ही वेदान्त कहता है। वह मात्र एक प्रकार
कि जिज्ञासा है जो जानना चाहता है या होना चाहता है। कि मैं ब्रह्माण्ड के समान हूं,
या मैं आकाश के समान हूं, या मैं समन्दर के समान हूं। जबकि सत्य इन सब से परे है इसकी
बात वेद मंत्र ही करते है वह कहते है कि सत्य से पहले मैं हूँ ज्ञान और मैं ही सत्य
का प्रथम रक्षक हूं। वेद का मतलब ही ज्ञान होता है मंत्र में वही सभी बाते है जिसका
चिन्तन करने में मानव मन समर्थ है। लेकिन मुक्य विषय यहाँ पर यह कि यह मन किस शक्ति
से कार्य करता है और यह शक्ति इसको कहा से मिलती है और यह किसका चिन्तन करता है। यह
तिन बातें है पहली बात कि मन विषयों का चिन्तन करता है, जो मंत्रों में पहले से विद्यमान है जिस विषय का मन को ज्ञान
नहीं है वह भी विषय मंत्रों के अन्दर विद्यमान है। दूसरी बात मन किसकि शक्ति से कार्य
कर्ता है क्योंकि मन एक मसिन कि तरह है। जिसको चार भागों में बिभाजित किया गया है।
पहला मन दूसरा चित्त, तीसरा अंहकार और चौथा वुद्धि है। यही चार प्रकार के मनुष्य है
पहला जो मन है वह संकल्प विकल्प करता है। जो शुद्र के समान है,
दूसरा चित्त के समान है जो संस्कारित है जिसमें सब कुछ रक्षित
किया गया है जिसके कारण ही मन से बनने वाले मानव की रक्षा का कार्य भार इसमें सुरक्षित
किया गया है जो वैश्य के समान है। जिसके आधार पर ही हर प्रकार का व्यापारिक व्यवहार
मानव मन करता है। तीसरा अंहकार है जिसको अपने होने का भा है कि मैं ही सबसे श्रेष्ट
हूँ और शक्तीशाली राजा के समान क्षात्र शक्ति से सम्पन्न हूँ क्योंकि इसके पास व्यापारियों
का भी सहयोग प्राप्त होता है और यह शुद्रों को भी अपने अधिकार में रखता है। चौथा जो
वर्ण है वह ब्राह्मण है जिसके पास मन, चित्त, अहंकार और वुद्धि भी है। अब यब मानवों में सबसे श्रेष्ठ मानव
कहा गया है इसका कारण बस इतना है कि यह अपने वुद्धि के सहारे ही अपना जीवको पार्जन
करता है। इस तरह से यह चौथे प्रकार का जो मानव है जिसे हम ब्राह्मण कहत है यह वुद्धि
प्रधान है। बात यहा समाप्त नहीं हो जाती है वुद्धि को भी आगे विभाजित किया गया है तीन
रूपों में प्रथम वुद्धि जिसको वेदों में इड़ा, कहा गया जो प्रेरणात्म है जो किसी के प्रेरणा से प्राप्त होता
है जिसमें साधरणतः सभी प्राणि आते है। आम बोलचाल कि भाषा में इन्हें ही साधारण मानव
या आम आदमी कहते है। दूसरे वह जन होते है जिनको किसी भाषा और उसके व्याकरण पर महारत
हाशिल है जिनको अक्सर हम सब विद्वान पंडित या उस विषय का विशेष यज्ञ कहते है जिनके
पास तर्क कि शक्ति का उपयोग करके यह सरस्वती नामक बुद्धि को अर्जन किया है। तीसरे वह
जन है जिन्होंने सर्वप्रथम प्रेरणात्मक वुद्धि इड़ा को प्राप्त करने के पश्चात सरस्वती
को तर्क के द्वारा सोध करके प्राप्त किया और इसके अतिरीक्त उन्होने महि वुद्धि को उपासना
के द्वारा प्राप्त किया जिससे यह सबसे श्रेष्ठ मानव देवता के तुल्य माने जाते है और
यह सत्य की रक्षा करने में सक्षम होते है। इस प्राकार से यहीं सत्य के सच्चे रक्षक
है और यह इस जगत में अपने श्रेष्ठ कार्यों के माध्यम से जो यज्ञ के समान है उसको करते
हुए सम्पूर्ण जन मानस के समेत सभी जीव जंतु के कल्याण के लिये कार्य करते है।
जैसा कि मैने अनुभव किया है आज
का मानव पुरी तरह से भ्रस्ट हो चुका है इसने अपने सारे रास्तों को बारी-बारी करके नष्ट
कर दिया जो मार्ग इसको सत्य को साक्षात्कार कराने में सहायता प्रदान करते थे। जिसमें
सबसे बड़ा योग दान आज के युग में विज्ञान ने मानव को दिया उसे कृतिम और झुटा बनाने
में, जिसके कारण
यह मानव जिसे हम आधुनिक कहते है यह झुट को ही सत्य समझने कि भुल को पाल रखा है। यह
उसी बात को मानता है जिसको विज्ञान कि कसौटि पर खरा उतारा जाता है। इस विज्ञान के अनुसार
यह मानव भी एक प्रकार कि जड़ वस्तु है जिसका उपयोग हम एक जण वस्तु की तरह करते। इसके
लिये काफी हद तक मानव को तैयार भी कर लिया गया है। इससे यह कदापि सिद्ध नहीं होता है
कि सत्य कि सत्ता समाप्त हो गई है और इस संसार केवल झठ ही झुठ विद्यमान है। इससे यह
अवश्य सिद्ध होता है कि असत्य कि मात्रा बढ़ गई है और सत्य कि मात्रा न्युन हो चुकी
है। सत्य का सम्बंध मानव अस्तित्व के साथ है और मानव अस्तित्व एक बहुत सुक्ष्म तत्व
है जिसे आत्मा कहते है जो विज्ञान कि पकड़ में नहीं आता है लेकिन वह मानव मस्तिस्क
में अवश्य आता है जब मानव मन को उसका साक्षात्कार होता है। यह साक्षात्कार के लिये
ही रास्ते मानव मन को बताया जा रहा है। मानव मन को इन वेद मंत्रों का सिधा-सिधा हृदयंगम
करना होगा। इन मंत्रों में अद्भुत शक्ति है बार-बार इनका चिन्तन करने से इनमें जो विषय
है उसका साक्षात्कार हो जाता है जो अद्भुत और औलौकिक आश्चर्य चकित करने वाला है और
इस मार्ग के द्वारा किसी को भी सत्य का साक्षात्कार कराया जा सकता है। क्योंकि यह मंत्र
एक प्रकार कि गुप्त और सुक्ष्म चाभी कि तरह से है जो मन के गुप्त दरवाजों को खोलने
का सामर्थ रखते है। जिस प्रकार से जब तक एक सेना का ज्वान युद्ध में नहीं जाता है तब
तक उसको वास्तविक ज्ञान युद्ध का नहीं होता है। उस समय उसको केवल कृतिम तरह से युद्ध
का ही ज्ञान होता है। जिसके द्वारा वह किसी देश के सत्य की रक्षा करने में पूर्णतः
सफल नहीं होता है। इसी प्रकार से यह हमारी शरीर एक देश के समान है और मन इसका मंत्री
है वुद्धि सेना पति है आत्मा इसका राजा है। जो स्वयं सत्य है। चाहे किसी भी कारण से
हार को उपलब्ध हो सबसे अधिक कष्ट उस सत्य स्वरूप राजा को ही होता है। जो इस शरीर रूपी
रथ में बैठा हुआ है। मंत्र एक विशेष प्रकार के सामर्थ मानव मन में उत्पन्न करते है
जिससे वह विषय के परे जो तत्व है उसका साक्षात्कार करने में सक्षम बन जाता है और अपने
आपे पूर्णतः उसमे ही विलिन हो जाता है या उसी के लिये अपने सर्वस्व समर्पित कर देता
है। जिससे वह मन सिर्फ़ मानव सरिर कि सिमा का उलंघन करके उसके परे देवता रूप परमात्मा
तत्व को भाषने लगता है। जिस प्रकार से जब शुद्ध जल होता है तो उसमें से किसी भी वस्तु
का प्रतिबिंब बहुत साफ और सपष्ठ दिखाई देता है। इसी प्रकार से इन मंत्रों के द्वारा
शुद्ध हुआ मानव मन अपना ही प्रतिबिम्ब आत्मा रूपी सागर में परमात्मा रूपी दिव्य चैतन्यता
को देखता है।
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S’rimad
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Chapter
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S’rimad Devî
Bhâgavatam THE FIRST BOOK Chapter XIII-XIV
S’rimad Devî
Bhâgavatam THE FIRST BOOK Chapter XI-XII
S’rimad Devî
Bhâgavatam THE FIRST BOOK Chapter IX-X
S’rimad Devî
Bhâgavatam THE FIRST BOOK Chapter VII-VIII
S’rimad Devî
Bhâgavatam THE FIRST BOOK Chapter V-VI
S’rimad Devî
Bhâgavatam THE FIRST BOOK Chapter III-IV
S’rimad Devî
Bhâgavatam THE FIRST BOOK Chapter I-II
VISHNU PURANA. -
BOOK III. CHAP -16,17,18
VISHNU PURANA. -
BOOK III. CHAP. XV.
VISHNU PURANA. -
BOOK III. CHAP. XIV.
VISHNU PURANA. -
BOOK III. CHAP. XIII.
VISHNU PURANA. -
BOOK III. CHAP. XII.
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BOOK III. CHAP. VII.
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VISHNU PURANA. -
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VISHNU PURANA. - BOOK
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चंद्रकांता
(उपन्यास) पहला अध्याय : देवकीनन्दन खत्री
खूनी औरत का
सात खून (उपन्यास) : किशोरी लाल गोस्वामी
ब्राह्मण की
बेटी : शरतचंद्र चट्टोपाध्याय (बांग्ला उपन्यास)
SELF-SUGGESTION AND
THE NEW HUNA THEORY OF MESMERISM AND HYPNOSIS – chapter-1, BY- MAX FREEDOM LONG
VISHNU PURAN-BOOK I
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VISHNU PURANA. -
BOOK I. CHAP. 1. to 10
THE ROLE OF PRAYER.
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THE POWER OF
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