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मैं ही अंगो का रस अङ्गिरस हूं-Rig Veda

 

मैं ही अंगो का रस अङ्गिरस हूं-Rig Veda

 

ओ३म यदङ्ग दाशुषे त्वमग्ने भद्रं करिष्यसि। तवेत्तत् सत्यमंङ्गिरः॥ ऋग्वेद 1.6

 

         आदमी मर गया या अभी जीवित है, इसकी घोषित मान्यता यह है-कि मस्तिष्क काम करना बन्द कर दे। इलेक्ट्रॉन से फेलोग्राम (ई॰ ई॰ जी0) मस्तिष्कीय कम्पनों की हरकत अंकित करने से इनकार कर दे तो समझना चाहिए कि आदमी मर गया। ऐसे व्यक्ति को मृतक घोषित करने में कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिए. चिकित्सा जगत की पूर्व मान्यता यही है। फ्राँस की नेशनल मेडिकल एकेडेमी के एक मृत्यु के फैसले को कानूनी मान्यता दिलाने के लिए विधिवत यह घोषणा करनी पड़ी थी कि यदि किसी व्यक्ति का ई॰ ई॰ जी0 48 घण्टे तक लगातार निष्क्रियता प्रकट करता रहे तो उसकी 'कानूनी मृत्यु' घोषित की जा सकती है। मृत्यु की परिभाषा करते हुए मस्तिष्क विशेषज्ञ डा0 हैनीवल, हैषलिन ने भी यही कहा था-मस्तिष्क की मृत्यु को अन्तिम मृत्यु कहा जा सकता है। हारवर्ड मेडिकल कालेज के डा0 राबर्ट एस॰ शवाव ने भी यही मत निर्धारित किया था कि यदि मस्तिष्क जबाब दे गया है तो हृदय का पम्प करके जीवित रखने का प्रयत्न करना बेकार है। इस पूर्व मान्यता को झूठलाने वाली एक घटना अंकारा युनिवर्सिटी के डाक्टर ने स्वयं ही प्रस्तुत कर दी। डा0 रील 30 वर्ष के नवयुवक थे। वे एक मरीज का एक्सरे ले रहे थे कि गलती से बिजली का नंगा तार छू गये। जोर का आघात लगा और उनके दिमाग ने काम करना बन्द कर दिया। ई॰ ई॰ जी0 के हरकत न करने के आधार पर उन्हें मृतक घोषित कर दिया जाना चाहिए था, पर वैसा किया नहीं जा सका। क्योंकि उस हालत में भी उनके चेहरे पर और उंगलियों में हरकत पाई गई. उनकी आँखें खुली हुई थी और कभी-कभी पलक झपकते देखे गये। डाक्टरों ने उनके मुँह में नली डालकर पेट में बेबीफूड, फलों का रस, सीरस आदि पहुँचाया फलतः उनका दिल तक दूसरे अंग काम करते रहे। इस विलक्षण जीवित मृतक को देखने के लिए अमेरिका, जापान, रूस, इंग्लैण्ड, फ्राँस और जर्मनी के डाक्टर हवाई जहाजों से अंकारा पहुँचे और यह देखकर चकित रह गये कि मस्तिष्क के पूर्णतया निष्क्रिय हो जाने पर भी डा0 रील पौधे की तरह जी रहे थे और उन्हें माँस का पौधा कहा जाने लगा। यों रोगी को जीवित तो न किया जा सका, पर आशा से बहुत अधिक दिनों तक वे जिये। इससे इस नये सिद्धान्त की पुष्टि हुई कि मस्तिष्क का वह भाग जो ई॰ ई॰ जी0 की पकड़ में आता है उससे भी भीतर एवं उससे भी गहरी कोई और सत्ता है जो जीवन के लिए मल रूप से उत्तरदायी है। मस्तिष्क तो उस चेतना का एक औजार मात्र है। जापान की कोवे युनिवर्सिटी के प्रो0 स्यूडा डा0 के किटो और डा0 सी0 आदाशी के त्रिगुट्ट ने मृत दिमाग का जीवित और जीवित को मृतक बनाने में एक नई सफलता प्राप्त की है। उन्होंने बिल्ली का दिमाग निकाल कर शून्य से 20 डिग्री नीचे शीत वातावरण में जमा कर रखा और 203 दिन बाद उसे धीरे-धीरे तापमान देकर पुनः सक्रिय किया। भय था कि आक्सीजन के अभाव में मस्तिष्क की कोशिकाएँ मर गई होगी और दिमाग निकम्मा हो गया होगा, पर वैसा हुआ नहीं। 203 दिन तक भी दिमाग जीवित रहा और उसे फिर सक्रिय बनाकर दूसरी बिल्ली में मस्तिष्क में फिट किया जा सका।

       पिछले दिनों वैज्ञानिक क्षेत्रों में आत्मा के स्वतन्त्र अस्तित्व को अमान्य ठहराया जाता रहा है और कहा जाता रहा है कि मस्तिष्क ही आत्मा है और उसकी गतिविधियाँ समाप्त होने ही आत्मा का अंत हो जाता है। नास्तिकवादी मान्यता मनुष्य को चलता-फिरता, पेड़-पौधा भर बताती रही है और कहती रही है कि शरीर के साथ ही जीवन का सदा के लिए अन्त हो जाता है। पर विज्ञान की नवीनतम शोधों ने सिद्ध किया है-मस्तिष्क चेतना के प्रकटीकरण का एक उपकरण मात्र है मूल चेतना उससे भिन्न है और मस्तिष्कीय गतिविधियाँ समाप्त हो जाने पर भी वह अपना काम करती रह सकती है। यह आस्तिकवादी सिद्धान्त का प्रकारान्तर से समर्थन ही माना जायगा।

      परमेश्वर प्रत्येक मंत्र के माध्यम से हमारी समस्या का समाधान करने के लिये ही और सरल ढंग से समझाते हुए कहते है। एक कदम और आगे बढ़ कर हमारे हाथ को थामते हुए. जैसे कोई व्यक्ति अंधा है जो खतरनाक अंधकारपूरण जंगल के मार्ग को नहीं जानता है जिसे हम सब संसार कहते है। हमको मार्ग पर लाने के लिये परमेश्वर हमारे हाथों को पकड़ कर कहते है। कि इस तरफ से चलों मेरी उंगली पकड़ कर, जिस तरह से किसी बच्चे को उसकी माँ अपनी उगंली पकड़ा कर उस बच्चे को उसके पैरों पर चलना सिखाती है। क्योंकि उसकी माँ जानती है कि यह गिर सकता है जिससे यह स्वयं को चोट पहूंचा सकता है। जिससे इसके शरीर के अंगों को नुकसान हो सकता है। यह संभावना है जो हमारी इस संभावन को जानता है। क्योंकि वह अनुभवी है हमसे पहले संसार में आई है। उसने संसार कि रुग्ण्ता का साक्षात्कार कर लिया है।

      वह परमेश्वर हम सब कि माँ और पिता के समान जनिता है। वह ही हम सब का भाई के समान है जो हमारे हर प्रकार के भार को वहन करने वाला है। जिसके साथ से हम सब इस अग्निमय ज्वलनशील संसार में एक किनारा एक रास्ता प्राप्त करते है। जिसके साथ चलने से ही हम सब रास्ते से भटकने से बच सकते है। यह भी संभावना मात्र है। क्योंकि यहाँ हर कदम पर एक ऐसी चुनौति है जो हम सब को रास्ते से भटकाने के लिये पर्याप्त है। जिसको ही माया के नाम से जानते है। यह नस्वर संसार है यहाँ जो स्वर है उसकी परवाह हम सब करते ही नहीं है। क्योकि वह हमारे सामने कभी नहीं आता है। जिसके कारण ही हम सब उसकी सत्ता को ही स्विकार नहीं करते है। जिसने शरीर समेत शरीर के सभी अंगों को अपना दास बनाया है वह अग्नि स्वरूप है जो तुम्हारा भद्रं कल्याण करने वली है। वही तत्व रूप सत्य इन शरीर के अंग्ङों स्वामी है।

      यहाँ पर एक प्रसन्न उठ रहा है क्या हम सब वास्तव में जिन्दा है? क्या हमने कभी सूर्य के प्रकाश में आकाश को देखा है? या रात्री के समय आकाश में विखरे अनन्त तारों देखा है। इससे हमें क्या समझ में आता है? एक सूर्य इतना अधिक ज्वलनशील और उर्जावान है जो सम्पूर्ण इस भुमंडल को इस जगत को प्रकाशित ही नहीं कर रहा है। यद्यपी यहाँ के जीवन का प्रमुख श्रोत है। यह सूर्य इस जगत कि आत्मा है और ऐसी ही आत्मायें हमें दिखाई देती है रात्री के समय में जैसे सारा आकाश ही इन तारों से भरा है। यह सभी प्रकाश करते है लेकिन यह सब उस प्रकार का प्रकाश करने में असमर्थ है जिस प्रकार से हमारा सूर्य हम सब को प्रकाशित करता है और सभी प्राणियों को जीवन के परम आनन्द के अलौकिल भावभिभोर कर देने वाले अद्भुत करुणा से भर देता है। इसी प्रकार से यह संसार में सभी जीव जन्तु प्राणी उस रात्री में फैले आकाश में तारे के समान है और वह हमें उतना ही प्रकाश देते है जितना कि सूर्य के अतिरिक्त आकाश का कोई तारा हमें प्रकाश देता है, रात्री के समय में वह तारा और उसका प्रकाश हमारे जीवन के लिये परयाप्त नहीं है। उसके आधार पर हम सब जीन्दा नहीं रह सकते है इस पृथ्वी पर। हम सब को हमारे सूर्य के उदय होने का इन्तजार रहता है। कि सूर्य उदय हो और हम सब अपने-अपने कामों पर निकले, रात्री कि गहन अंधकार से प्रकाश को उपलब्ध होने के लिये। यह पृथ्वी और कुछ नहीं शिवाय हम सब के शरीर के, अर्थात यह शरीर उसी प्रकार से है जैसे पृथ्वी है। जिस प्रकार से पृथ्वी के लिये सूर्य की परम आवश्यक है। उसी प्रकार से हम सब को अपनी आत्मा के प्रकाश कि ज़रूरत है। जिस प्रकार से सूर्य इस भुमंडल के लिये जीवन का परम श्रोत है। उसी प्रकार से हमारे जीवन का श्रोत है हमारी सब की आत्मा वह हम सब के सूर्य के समान है। जो यह सिद्ध करती है कि हम ही इस शरीर के सूर्य है। हमारे ही प्रकाश से यह प्रकाशित हो रही है। हमारी आत्मा नें ही हमारे सभी अंगों को अपने वश में कर लिया है। हमारी आत्मा के हि यह सब अंग शरीर समेत दास है अर्थात सेवक है और जब सेवक ही स्वामी बन जाते है तो बहुत वड़ा संकट स्वामी के उपर आ जाती है। क्योकि इस संसार में यहाँ सबसे बड़ा यही संकट है कि यहाँ पर सेवक को ही स्वामी बनाया जाता है, क्योंकि स्वामि अयोग्य होता तभी वह सेवको को रखता अपने पास अपना कार्य कराने के लिये। जिस प्रकार से एक राजा सैनिको को रखता है अपने राज्य की रक्षा और उसकी सेवा के लिये और जब राजा अयोग्य होता है तो सेवक अपनी मनमानी करने लगते है। जैसा कि आज हमारे समाज में हो रहा है। जिसके कारण ही आज मुनुष्यों से अधिक हम मसिनों पर भरोषा करते है। क्योंकि किसी मनुष्य का भरोषा नहीं है कि वह किसी दूसरे के साथ क्या कर सकता है? यहाँ तक जिसको हम अपने कहते है वह सब भी स्वार्थ के साथ ही अपने लगते है यहा हर किसी का हर किसी से अपना एक विशेष स्वार्थ है। जैसा कि याज्ञवल्क्य ऋषि कहते है।

      महर्षि याज्ञवल्क्य की दो पत्नियाँ थीं। पहली पत्नी भारद्वाज ऋषि की पुत्री कात्यायनी और दूसरी मित्र ऋषि की कन्या मैत्रेयी थीं। याज्ञवल्क्य उस दर्शन के प्रखर प्रवक्ता थे, जिसने इस संसार को मिथ्या स्वीकारते हुए भी उसे पूरी तरह नकारा नहीं। उन्होंने व्यावहारिक धरातल पर संसार की सत्ता को स्वीकार किया। एक दिन याज्ञवल्क्य को लगा कि अब उन्हें गृहस्थ आश्रम छोडकर वानप्रस्थ के लिए चले जाना चाहिए. इसलिए उन्होंने दोनों पत्नियों के सामने अपनी संपत्ति को बराबर हिस्से में बांटने का प्रस्ताव रखा। कात्यायनी ने पति का प्रस्ताव स्वीकार कर लिया, पर मैत्रेयी बेहद शांत स्वभाव की थीं। अध्ययन, चिंतन और शास्त्रार्थ में उनकी गहरी दिलचस्पी थी। वह जानती थीं कि धन-संपत्ति से आत्मज्ञान नहीं खरीदा जा सकता। इसलिए उन्होंने पति की संपत्ति लेने से इंकार करते हुए कहा कि मैं भी वन में जाऊंगी और आपके साथ मिलकर ज्ञान और अमरत्व की खोज करूंगी। इस तरह कात्यायनी को ऋषि की सारी संपत्ति मिल गई और मैत्रेयी अपने पति की विचार-संपदा की स्वामिनी बन गई।

       वृहदारण्य को उपनिषद् में मैत्रेयी का अपने पति के साथ बड़े रोचक संवाद का उल्लेख मिलता है। मैत्रेयी ने याज्ञवल्क्य से यह ज्ञान ग्रहण किया कि हमें कोई भी सम्बंध इसलिए प्रिय होता है क्योंकि उससे कहीं न कहीं हमारा स्वार्थ जुडा होता है। मैत्रेयी ने अपने पति से यह जाना कि आत्मज्ञान के लिए ध्यानस्थ, समर्पित और एकाग्र होना कितना ज़रूरी है। याज्ञवल्क्य ने उन्हें उदाहरण देते हुए यह समझाया कि जिस तरह नगाडे की आवाज के सामने हमें कोई दूसरी ध्वनि सुनाई नहीं देती। वैसे ही आत्मज्ञान के लिए सभी इच्छाओं का बलिदान ज़रूरी होता है। याज्ञवल्क्य ने मैत्रेयी से कहा कि जैसे सारे जल का एकमात्र आश्रय समुद्र है उसी तरह हमारे सभी संकल्पों का जन्म मन में होता है। जब तक हम जीवित रहते हैं, हमारी इच्छाएँ भी जीवित रहती हैं। मृत्यु के बाद हमारी चेतना का अंत हो जाता है और इच्छाएँ भी वहीं समाप्त हो जाती हैं। यह सुनकर मैत्रेयी ने पूछा कि क्या मृत्यु ही अंतिम सत्य है? उसके बाद कुछ भी नहीं होता? यह सुनकर याज्ञवल्क्य ने उन्हें समझाया कि हमें अपनी आत्मा को पहचानने की कोशिश करनी चाहिए. शरीर नश्वर है, पर आत्मा अजर-अमर है। यह न तो जन्म लेती है और न ही नष्ट होती है। आत्मा को पहचान लेना अमरता को पा लेने के बराबर है। वैराग्य का जन्म भी अनुराग से ही होता है। चूंकि मोक्ष का जन्म भी बंधनों में से ही होता है, इसलिए मोक्ष की प्राप्ति से पहले हमें जीवन के अनुभवों से भी गुजरना पडेगा। यह सब जानने के बाद भी मैत्रेयी की जिज्ञासा शांत नहीं हुई और वह आजीवन अध्ययन-मनन में लीन रहीं। आज हमारे लिए स्त्री शिक्षा बहुत बडा मुद्दा है, लेकिन हजारों साल पहले मैत्रेयी ने अपनी विद्वत्ता से न केवल स्त्री जाति का मान बढ़ाया, बल्कि उन्होंने यह भी सच साबित कर दिखाया कि पत्नी धर्म का निर्वाह करते हुए भी स्त्री ज्ञान अर्जित कर सकती है।

     जिस तरह से हम किसी व्यकित पर विश्वास और भरोषा करते है तो उससे हमें धोखा खाना पड़ता है, इसी प्रकार से हमारी इन्द्रियाँ भी हमें धोका देने के लिये हमेंसा तैयार रहती है। क्योंकि जिस संसार में शरीर के साथ में रमण करती है। इनकों इसी झुठ के लिये ही तैयार किया जाता है। इनको स्वार्थी और स्वयं कि चेतना को धोखा देना ही सिखाया जाता है। क्योंकि यहा सब कुछ झुठा और नस्वर मृतवत है इसी लिये ही इसको मृत्युलोक कहते है। जो पुरुष या स्त्री जितना अधिक ही संसारी होता है वह उतना ही मृत होता है। जिसको हम जितना ही अधिक संसार में सक्रिय देखते है जिनको यहा पर साधरणतः अपना आदर्श मानते है। वह सब भी उतने ही अधिक मृतवत होते है। किसी भी क्षेत्र का कोई भी व्यक्ती संसार के चर्मउत्कर्ष पर पहुंचा है तो केवल एक साधन से स्वयं को और अधिक मार कर के. यदि हम उसका अनुसरण करते है तो हम भी उसके समान मृत होने कि तरफ बढ़ रहे है। इस लिये ही यहाँ मंत्र में परमेश्वर उपदेस कर रहे है कि तुम स्वयं को केन्द्रित करों और स्वयं को हमेशा अपने दाशों से ताकत वर बना कर उनको अपने बस में रक्खों। अन्यथा तुम्हारा भटकना निश्चित है इस संसार में जहाँ एक से बढ़ कर एक हिंसक जानवर भरे है। जो एक दूसरे पर अधिकार करने के लिये प्रयाशरत है। यह सब हारे हुए लोग है इन्होंने अपने अंगों पर विजय नहीं पाई है। यह सब अपनी चेतना को बेच चुके है। इन्होंने अपनी चेतना को अपने अंगों का दाश बना लिया है। शरीर और शरीर के अंगों में सबसे ताकतवर सुक्ष्म अंग मन है। यह मन संकल्प और विकल्प वाला है। इसके आश्रित ही सभी ज्ञान इन्द्रि होती है। जिसमें से आख, कान, नाक, जीभ्भा और त्वचा है यह ज्ञान इन्द्रि कही जाती है। इनके द्वारा ही आत्मा को अपने से अतिरिक्त विषयों का ज्ञान होता है। इनसे आत्मा को अपना स्वयं का ज्ञान नहीं होता है। जब वह इनसे दूर होता है तो ही वह स्वयं को अनुभव करने में सक्षम होता है और ऐसा बहुत मुस्किल से ही समय मिलता है। जब वह इस शरीर में रहे और मन के साथ इन्द्रियों के सम्पर्क में रहें इनसे दूर रह सके, क्योकि मन तो ऐसा है जो इन्द्रियों के सो जाने पर भी जागता रहता है। जिसके कारण ही स्वप्न आते है और यह स्वप्न देखने वाला कोई और नहीं हमारी सब कि चेतना ही देखती है। जो चित्र ओर धव्नियों के साथ मन के पर्दे पर चलता है और वह उसको ही अपना वास्तविक रूप समझ बैठती है। जिसके कारण ही उसको बहुत अधिक कष्टो और क्लेशों को सहना पड़ता है। क्योंकि वह स्वयं के ज्ञान से अनभिज्ञ होती है। यहाँ पर इस मंत्र के द्वारा परमेश्वर हम सब का ध्यान उसी तरफ खिचने के लिये आकर्षित कर रहा है। एक बार फिर मंत्र को समझते है इन अंगों को जब तुम अपने वश में कर लोगों तो तुम स्वंय अग्नि स्वरूप हो। तो ही तुम जान पाओंगे कि इस संसार रूपी शरीर के सत्य को और इसको जानने के बाद ही तुम इस संसार रूपी शरीर से मुक्त हो सकोगे। यह एक सर्त है कि जब तुम तैरना सिख जावोंगे तो ही तुम सागर को पार करने का संकल्प कर सकोगे और पुरुषार्थ करोगे तो पार भी कर लोंगे।

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PART-2- BRAHM KOWLEDGE

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S’rimad Devî Bhâgavatam THE FIRST BOOK Chapter XI-XII

S’rimad Devî Bhâgavatam THE FIRST BOOK Chapter IX-X

S’rimad Devî Bhâgavatam THE FIRST BOOK Chapter VII-VIII

S’rimad Devî Bhâgavatam THE FIRST BOOK Chapter V-VI

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S’rimad Devî Bhâgavatam THE FIRST BOOK Chapter I-II

VISHNU PURANA. - BOOK III. CHAP -16,17,18

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Self – Suggestion- Chapter 8

Self-Suggestion Chapter 7

Self-Suggestion- Chapter 6

चंद्रकांता (उपन्यास) पहला अध्याय : देवकीनन्दन खत्री

खूनी औरत का सात खून (उपन्यास) : किशोरी लाल गोस्वामी

ब्राह्मण की बेटी : शरतचंद्र चट्टोपाध्याय (बांग्ला उपन्यास)

Self – Suggestion -Chapter 5

Self - Suggestion - Chapter 4

Self-Suggestion -- Chapter 3

SELF SUGGESTION Chapter 2

SELF-SUGGESTION AND THE NEW HUNA THEORY OF MESMERISM AND HYPNOSIS – chapter-1, BY- MAX FREEDOM LONG

VISHNU PURAN - BOOK II.

VISHNU PURAN-BOOK I - CHAPTER 11-22

VISHNU PURANA. - BOOK I. CHAP. 1. to 10

Synopsis of the Vishnu Purana

Introduction of All Puranas

CHARACTER-BUILDING.

SELF-DE-HYPNOTISATION.

THE ROLE OF PRAYER. = THOUGHT: CREATIVE AND EXHAUSTIVE. MEDITATION EXERCISE.  

HIGHER REASON AND JUDGMENT= CONQUEST OF FEAR.

THE GREAT EGOIST--BALI

QUEEN CHUNDALAI, THE GREAT YOGIN

CREATION OF THE UNIVERSE

THE WAY TO BLESSED LIBERATION

MUDRAS MOVE THE KUNDALINI

LOCATION OF KUNDALINI

SAMADHI YOGA

THE POWER OF DHARANA, DHIYANA, AND SAMYAMA YOGA.

THE POWER OF THE PRANAYAMA YOGA.

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TO THE KUNDALINI—THE MOTHER OF THE UNIVERSE.

Yoga Vashist part-1 -or- Heaven Found   by   Rishi Singh Gherwal   

Shakti and Shâkta -by Arthur Avalon (Sir John Woodroffe),

Mahanirvana Tantra- All- Chapter  -1 Questions relating to the Liberation of Beings

Mahanirvana Tantra

Tantra of the Great Liberation

Translated by Arthur Avalon

(Sir John Woodroffe)

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CONCLUSION.

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