मैं तुम्हारें
समिप ही हूं- Rig Veda
ओ३म् उप त्वाग्ने दिवेदिवे दोषावस्तर्धिया वयम्। नमो भरन्त एमसि॥ ऋग्वेद 1.7
इस संसार में हमेंशा ही हम सब ऐसी
वस्तुवों के साथ रहते है। जो प्रायः जड़ और नस्वर है। इसमें कौन जीवित है और कौन नहीं
मृत्यु के समिप है? अर्थात हर व्यक्ती मृत्यु के समिप है और जीवन से दूर है। इसलिये
ही हर व्यक्ती जीवन से बहुत प्रेम करता है और मृत्यु से नफरत करता है। क्योंकि जो वस्तु
हमारे पास होती है उसका उतना आदर या सम्मान नहीं करते है जितना कि किसी और का जो हमसे
दूर रहता है। जिस प्रकार से जो हमारे साथ रहता है उससे हम सब अक्सर उब जाते है और उससे
दूर जाने के लिये रास्ते तलासते है और जो दूर है उसके करिब करना चाहते है। जैसा कि
आज हम सब देख सकते है। कि इस संसार में बहुत अधिक समस्या है। जिसका समाधान आज तक मानव
नहीं कर पाया है। यद्यपी यह मानव को अंतरिक्ष और मंगल ग्रह पर बसाने के लिये उद्दत
हो चुका है।
यहाँ एक तरफ लोगों का पेट नहीं भर
रहा है ना उनके पास सर छुपाने के लिये जगह है, ना पहनने के लिये कपड़े ही है नाही अपने इलाज कराने के लिये
धन ही है। वह मृत्यु की राह देख रहे है कि वह आये और इस असहनिय कष्ट और पिड़ा से उनको
मुक्ति मिले। बहुत कम ही लोग है जो अंतरिक्ष में या मंगल पर जाने के लिये तैयार है।
जो ऐसे लोग है उनको भी यहाँ पृथ्वी पर रहने में कष्ट महसुष हो रहा है। यह कहना बहुत
कठिन है कि कोई यहाँ पर संतुष्ट भी है या सारे असंतुष्टी और अतृप्ती कि ही आग में जल
रहे है। इन दोनों में एक बात कि समानता है कि सभी भविष्य की आशा के साथ जी रहे है।
जो अभी हमारे पास है उससे तृप्त नहीं
है, हम कछ और
भविष्य में होने कि कामना के साथ जीवन व्यतित कर रहे है। जब भी कोई व्यक्ति इस पृथ्वी
पर जन्म लेता है वह समय बहुत कष्ट पूर्ण होता है। लेकिन वह कष्ट आदमी समय के साथ भुल
जाता है। क्योंकि वह सभी स्मृतियाँ हमारें मन मस्तिस्क में अपना स्थान नहीं बना पाती
है। हमें सिर्फ़ वहीं याद रहता है जो तीन या चार साल के बाद कि स्मृतियाँ होती है। इसी
प्रकार से जब कोई व्यक्ति शरीर को छोड़ता है या मरता है तो उसे अत्यधिक कष्ट होता है।
यहाँ पर जन्म भी अत्यन्त कषट पूर्ण होता है और मृत्यु भी भयानक कष्ट पूर्ण होती है।
जो जन्म हो चुका है उसका कष्ट सह चुके है वह सब बित चुका है उसको हम सब भुल चुके है
यहाँ क ठीक है। इस पर हम काम नहीं कर सकते है हम काम जिस पर कर सकते है इसकी बात यहाँ
पर यह मंत्र कर रहा है। मंत्र कह रहा है कि जो आने वाला निश्चित दुःख है उससे छुटने
का उपाय है। उस उपाय कि चर्चा यह मत्र कर रहा उसके लिये इस जीवन के आकर्षण को छोड़ना
होगा यह जैसा है उसको ऐसा ही देखना होगा अभी इसके लिय कोई भविष्य नहीं है। यहाँ वर्तमान
में जीवन इतना आकर्षण क्यों है? इसका वास्तविक स्वरूप देखने के बाद भी हम उसे स्विकार क्यों
नहीं पाते है? हम सब हर समय मृत्यु का साक्षात्कार करते है जीवन तो मात्र कल्पना का नाम है। इसमें
जीने जैसा कुछ भी तो नहीं है। यह एक दुःख स्वप्न से अधिक नहीं है,
यहाँ तो सब कुछ झुठा है और माया के समान है। इसका अहसाश हमें
30-40 वर्षों के बाद होता है जब हमारा दिमाग बढ़ना बन्द कर देता है।
जब उसको अपनी मृत्यु का आभाष होता है और यह आभास उसे अधिक होता है जो किसी लाईलाज बिमारी
से ग्रसित होता है। उसको यह शरीर हर पल कचोटती रहती उसको हर समय पिड़ा और कष्ट का आभास
होता है। तब वह हर पल मृत्यु को अपने करिब देखता है वह लाख प्रयाश कर दे,
मगर वह उससे कभी भी दूर नहीं हो सकता है। यहाँ का यही रहस्य
है जो जिने का प्रयास करते है वह मर जाते है और जो मरने का प्रयाश करते है। वह यहाँ
पर अमर हो जाते है। उन्ही को यहाँ देवता और भगवान बना कर पुजा जाता है। ऐसी ही कहानि
महात्मा बुद्ध के बारें में आती है।
लोगो को,
जैसे वे दिखाई पड़ते हैं, उनको वैसा ही मत मान लेना। उनके भीतर बहुत कुछ है। एक आदमी मर
जाता है। हमने कहा, आदमी मर गया। जिस आदमी ने इस बात को यही समझ कर छोड़ दिया,
उसके पास अंतर्दृष्टि नहीं है। गौतम बुद्ध एक महोत्सव में भाग
लेने जाते थे। रास्ते पर उनके रथ में उनका सारथी था और वे थे और उन्होंने एक बूढे आदमी
को देखा। वह उन्होंने पहला बूढ़ा देखा। जब गौतम बुद्ध का जन्म हुआ,
तो ज्योतिषियों ने उनके पिता को कहा कि यह व्यक्ति बड़ा होकर
या तो चक्रवर्ती सम्राट होगा और या संन्यासी हो जाएगा। उनके पिता ने पूछा कि मैं इसे
संन्यासी होने से कैसे रोक सकता हूं? तो उस ज्योतिषि ने बडी अद्भूत बात कही थी। वह समझने वाली है।
उस ज्योतिषि ने कहा, अगर इसे संन्यासी होने से रोकना है, तो इसे ऐसे मौंके मत देना जिसमें अंतर्दृष्टि पैदा हो जाए. पिता
बहुत हैरान हुए–यह क्या
बात हुई? उनके पिता ने पूछा। ज्योतिषि ने कहा, इसको ऐसे मौंके मत देना कि अंतर्दृष्टि पैदा हो जाए. तो पिता
ने कहा, यह तो बडा मुश्किल हुआ, क्या करेंगे?
उस ज्योतिषी ने कहा कि इसकी बगिया
में फूल कुम्हलाने के पहले अलग कर देना। यह कभी कुम्हलाया हुआ फूल न देख सके. क्योंकि
यह कुम्हलाया हुआ फूल देखते ही पूछेगा, क्या फूल कुम्हला जाते हैं? और यह पूछेगा, क्या मनुष्य भी कुम्हला जाते हैं? और यह पूछेगा, क्या मैं भी कुम्हला जाऊंगा? और इसमें अंतर्दृष्टि पैदा हो जाएगी। इसके आस-पास बूढे लोगों
को मत आने देना। अन्यथा यह पूछेगा, ये बूढे हो गए, क्या मैं भी बूढा हो जाऊंगा? यह कभी मृत्यु को न देखे। पीले पत्ते गिरते हुए न देखे। अन्यथा
यह पूछेगा, पीले पत्ते गिर जाते है, क्या मनुष्य भी एक दिन पीला होकर गिर जाएगा?
क्या मैं गिर जाऊंगा? और तब इसमें अंतर्दृष्टि पैदा हो जाएगी। पिता ने बडी चेष्टा
की और उन्होंने ऐसी व्यवस्था की कि बुद्ध के युवा होते-होते तक उन्होंने पीला पत्ता
नहीं देखा, कुम्हलाया हुआ फूल नहीं देखा, बूढा आदमी नहीं देखा, मरने की कोई खबर नहीं सुनी। फिर लेकिन यह कब तक हो सकता था?
इस दुनिया में किसी आदमी को कैसे रोका जा सकता है?
कि मृत्यु को न देखे? कैसे रोका जा सकता है कि पीले पत्ते न देखे?
कैसे रोका जा सकता है कि कुम्हलाये हुए फूल न देखे?
लेकिन मैं आपसे कहता हूं, आपने कभी मरता हुआ आदमी नहीं देखा होगा और कभी आपने पीला पत्ता
नहीं देखा, अभी आपने कुम्हलाया फूल नहीं देखा। बुद्ध को उनके बाप ने रोका बहुत मुश्किल से,
तब भी एक दिन उन्होंने देख लिया। आपको कोई नहीं रोके हुए है
और आप नहीं देख पा रहे है। अंतर्दृष्टि नहीं है, नहीं तो आप संन्यासी हो जाते। यानी सवाल यह हैं,
क्योंकि उस ज्योतिषि ने कहा था कि अगर अंतर्दृष्टि पैदा हुई
तो यह संन्यासी हो जाएगा। तो जितने लोग संन्यासी नहीं है, मानना चाहिए, उन्हें अंतर्दृष्टि नहीं होगी। खैर, एक दिन बुद्ध को दिखाई पड़ गया। वे यात्रा पर गए एक महोत्सव में
भाग लेने और एक बूढा आदमी दिखाई पड़ा और उन्होंने तत्क्षण अपने साथी को पूछा,
इस मनुष्य को क्या हो गया? उस साथी ने कहा, यह वृद्ध हो गया। बुद्ध ने पूछा, क्या हर मनुष्य वृद्ध हो जाता है? उस साथी ने कहा, हर मनुष्य वृद्ध हो जाता है। बुद्ध ने पूछा,
क्या मैं भी? उस साथी ने कहा, भगवन, कैसे कहूं! लेकिन कोई भी अपवाद नहीं है। आप भी हो जाएंगे। बुद्ध
ने कहा, रथ वापस लौटा लो, रथ वापस ले लो। सारथी बोला, क्यों? बुद्ध ने कहा, मैं बूढा हो गया। यह अंतर्दृष्टि है। बुद्ध ने कहा,
मैं बूढा हो गया। अदभुत बात कही। बहुत अदभुत बात कही और वे लौट
भी नहीं पाए कि उन्होंने एक मृतक को देखा और बुद्ध ने पूछा,
यह क्या हुआ? उस सारथी ने कहा, यह बुढापे के बाद दूसरा चरण है, यह आदमी मर गया। बुद्ध ने पूछा, क्या हर आदमी मर जाता है? सारथी ने कहा, हर आदमी और बुद्ध ने पूछा, क्या मैं भी? और सारथी ने कहा, आप भी। कोई भी अपवाद नहीं है। बुद्ध ने कहा,
अब लौटाओ या न लौटाओ, सब बराबर है।
साथी ने कहा,
क्यों? बुद्ध ने कहा, मैं मर गया।
यह अंतर्दृष्टि है। चीजों को उनके
ओर-छोर तक देख लेना। चीजें जैसी दिखाई पडें, उनको वैसा स्वीकार न कर लेना, उनके अंतिम चरण तक। जिसको अंतर्दृष्टि पैदा होगी,
वह इस भवन की जगह खंडहर भी देखेगा। जिसे अंतर्दृष्टि होगी,
वह यहाँ इतने जिंदा लोगों की जगह इतने मुर्दा लोग भी देखेगा-इन्हीं
के बीच, इन्हीं के साथ। जिसे अंतर्दृष्टि होगी, वह जन्म के साथ ही मृत्यु को भी देख लेगा और सुख के साथ दुःख
को भी और मिलन के साथ विछोह को भी। अंतर्दृष्टि आर-पार देखने की विधि है और जिस व्यक्ति
को सत्य जानना हो, उसे आर-पार देखना सीखना होगा। क्योंकि परमात्मा कहीं और नहीं
है, जिसे आर-पार
देखना आ जाए उसे यहीं परमात्मा उपलब्ध हो जाता है। वह आर-पार देखने के माध्यम से हुआ
दर्शन है।
यहाँ पर इस मंत्र में भी अन्तरदृष्टि
कि बात हो रही है। इस कहानि में जो सारी बातें कही जा रही है वह केवल एक रूपक है। ज़रूरी
नहीं है कि सभी बात इसमें सत्य ही है। किसी को कैसे रोका जा सकता है?
कि वह स्वयं को ना देख सके कितना ही आदमी को बाहरी वस्तुओं से
दूर रखा जाये। लेकिन उसको उससे कैसे दूर किया जा सकता है? कोई कितना ही अमिर हो या कितना ही बड़ा राजा या सम्राट हो?
वह शरीर जो सड़ रही है हर समय इसका साक्षात्कार तो करता ही है।
वह यह भली प्रकार से-से जानता है। जैसा कि महात्मा बुद्ध को बैराग्य का कारण जो बताया
जा रहा है। इस कहानी में कि उन्होंने बृद्धा को देखा तो उनमें प्रस्न उठा कि मैं भी
वृद्धा हो जाउगा और रास्ते में वह मृत को देखते है तो कहते है। कि मैं भी मर जाउंगा।
इससे पहले वह यह नहीं जानते थे कि वह मर जायेंगें। यहाँ पर प्रस्न यह उठता है। कि फिर
वह जानते क्या थे? इसका मतलब है कि उनका
दिमाग कार्य ही नहीं करता था। वह पागल किस्म के पुरुष थे। क्योकि जैसा कि कहानी में
बताया जा रहा है। कि उनके पिता को-को ज्योतिषी नें बताया कि यह सन्यासि बन सकता है।
या फिर यह चक्रवर्ती राजा बन सकता है। जैसा कि उनके पिता जी ने कहा कि यह चक्रवर्ति
राजा बनें और उनको चक्रवर्ति राजा बनाने के लिये हि उनके लिये-लिये एक कृतिम संसार
कि रचना कि गई. जहाँ पर कई कली नहीं मुरझाती है। गलती यही पर हो गई जब कोई कली मुरझाती
है तो ही उसमें फल आते है। अन्यथा फल ही नहीं आयेंगा। जहाँ कोई वृद्धा नहीं होता है।
युवा या बच्चा कोई भी हो उसको यदि स्वयं का संसार का ज्ञान है तो वह बृद्ध के समान
है। वहाँ कोई भी ऐसी वस्तु नहीं होती है जिससे उनको मृत्यु का ज्ञान हो सके. फिर उनको
ज्ञान किसका दिया गया? क्योंकि जीवन वहीं रह सकता है जहाँ मृत्यु हो अन्यथा जीवन का
कोई मतलब ही नहीं है। यह मृत्यु कोई जीवन से बाहरी विषय नहीं है। यह जीवन का ही एक
किनारा है। हर शास के साथ जीवन और मृत्यु का आभास हम सब को होता है। यह सभी जीव को
प्रारंभिक ज्ञान के रूप में मिलता है और वह पुरुष आजिवन इसी प्रयाश में रहता है कि
इस मृत्यु से कैसे बचा जाये? क्योंकि इस संसार के सारे गुरु और सारा साहित्य और सारा ज्ञान
विज्ञान ब्रह्मज्ञान का आधार भुत सिद्दान्त इस मृत्यु के आधार पर ही खड़ा किया गया
है। जितने पल यह चेतन पुरुष अपने संकल्पबल और अपने दृढ़इच्छा शक्ति मृत्यु को पिछे
धकेलता है उतने ही पल यह जीवन के स्वाद को प्राप्त करने में सफल होता है। यहाँ यह कहा
जाये कि उनको जिवन को उत्सव भोग विलाश की ही शिक्षा दि गई. यह भी ग़लत है,
क्योकि भोग विलाश भी एक प्रकार कि मृत्यु का ही संकेत देते है।
यहाँ इस जगत में जो भी पशु पक्षी या कोई भी प्राणि क्योंना हो वह कुछ भी नहीं जानता
है। लेकिन यह अवश्य जानता है कि वह मर रहा है। उसका जीवन इसी आधार भुत सिद्धान्त पर
खड़ा है। कि उसको मारना पड़ता है स्वयं को जीन्दा रखने के लिये। जैसा कि कहा गया है
जीव जीवस्य भोजनम् अर्थात जीव का भोजन जीव ही है। वह तिस साल के बाद जान पाये कि मृत्यु
और बृद्धा अवस्था जैसा भी कोई तत्व इस संसार में है। जिसके कारण ही उनकी अंतरदृष्टी
जागृत हुई. जिसके कारण उनहोंने बैराग्य या संयास ले लेलिया। यह बात कुछ पचती नहीं है।
यह विचार करने जैसा है। क्योंकि इस कहानी में बिना सिर पैर कि बात कही जारही है। उनको
उस महल के भोग विलाश में ही मृत्यु का साक्षात्कार हो गया था जिसके कारण ही वह उससे
उब कर वहाँ बाहर भाग गये। क्योंकि उनके पिता ने ही उनको अपना कैदि बना लिया था और उनकों
वहाँ भोग विलास के आड़ में भयानक कष्टों को दिया जारहा था। जैसा कि हम सब जानते है
कि जितने अधिक सुरमा विर योद्दा किस्म के राजा होते है वह उतने ही क्रुर होते है। क्योंकि
इस संसार में अपनी क्रुरता के कारण ही अपने राज्य के विस्तार को बढ़ाने में समर्थ होते
है। यह महात्मा बुद्ध कैसे महाभारत के विनास कालिन युद्ध के बारे में नहीं जान पाये।
क्या यह संभव है वैचारिक दृष्टि से मैं नहीं मानता कि वह कुछ नहीं जानते थे। यद्यपी
सत्य तो यह है कि वह इस संसार के बारें में सब कुछ जानते थे। उनको यह सब देख कर ही
यहाँ का खुन खराब और यहाँ का हर प्राणी एक दूसरे का खुन पिने के लिये ही जीन्दा है।
वितृष्णा पैदा होगई कोई भी वुद्धिमान होगा उसको यही होगा। जब उन्होने यह सब देखा तो
उनको यह सब राज्य काज अच्छा नहीं लगा क्योंकि वह सरल हृदय के व्यक्ति थे। उनमें प्रेम
और करुणा था और सभी जीवों के प्रती, जिसके कारण ही वह संयास को ग्रहण करलिया। यहाँ यह प्रश्न उठता
है कि आज ऐसा क्यों हो रहा है कि यहा का कोई वुद्धिमान व्यक्ति यहा संसार का सत्य क्यों
नहीं देक पारहा है। इसका मुक्य कारण है कि आज के प्रत्येक मनुष्य को हम मौका हि नहीं
देते कि उसके वुद्धि का विकास हो सके. यह दुनिया वुद्धइ के विकास की विरोधी है। यह
दुनिया उनके सहयोग में आगे बढ़ती है जो अज्ञान के प्रचार प्रसार में बढ़ चढ़ कर हिस्सा
लेते है उन्ही को हमारा नेता अभिनेता और हर क्षेत्र का अग्रणी बनाया जाता है। यहाँ
जिस वुद्दि कि बात कि जा रही है उसके लिये एक सुरमा क्रान्तिकारी योद्धा किस्म के व्यक्ति
की ज़रूरत होती है। जो कष्टों को सहने के लिये तैयार हो जो अपनी मृत्यु के साथ कदम-कदम
से मिला कर चल सके. यहाँ प्राय कायर किस्म के ही व्यक्ती देखने को मिलते है। जिनको
अपना आदर्श मानते है वह सारे नकली आदमी है जो वरिजनल अदामी है उनका कोई साथ ही नहीं
देता है। उनको ही यह सब मिल कर जहर पिलाते है, फासी पर चढ़ाते है, सर कलम करते है। फिर भी कभी कभार कोई एकाक पैदा हो ही जाता है।
यहाँ मंत्र में जैसा कि परमेश्वर
स्वयं कह रहे है कि तुम आत्मा को पहले ही दिन से जब से तुम संसार में इस शरिर को धारण
किया है। तभी से इस शरीर में दोष है जिसको तुम धिरता पूर्वक देखकर अपनी वुद्धि से जानकर
हमें सर्वथा सम्मान पुर्वक प्राप्त होते हो। यहाँ किसी बाहरी संसार कि बात नहीं कि
जा रही है। ज्ञान पूर्ण जीवन का आनन्द जीवन का रस इस प्रभु के द्वारा ही हम सब को हर
पल मिलता है। जिसके पास बुद्धि है वह यह सब कुब समझता है। कि यहाँ संसार का सत्य क्या
है? इसका साक्षात्कार
अपनी शरीर के माध्म से ही यह जीव करता है। हम कभी भी इस शरीर रूप संसार से मुक्त नहीं
हो सकते है जब तक कि हमको अपना स्वयं का ज्ञान ना हो। आज तक जितने भी ऋषि महर्षि हुए
है वह बहुत अधिक एकान्त और बहुत अधिक शान्त किस्म के राजा प्रकृति के लोग ही हूये है।
क्योंकि यह संसार और संयास और मुक्ती का जो विषय है वह किसी निर्धन के लिये है हि नहीं।
इसके लिये ज़रूरी नहीं है कि वह संसार को छोड़ कर भाग जायें। क्योंकि किससे भागेगा,
यह मन शरीर और इसकी इन्द्रिया ही तो समस्या है यही हमें संसार
में उलझाती है और यही हमें इस संसार से सुलझाती भी है। जब तक यह-यह बाहर विषय का हि
चिंतन करती है तब तक यह स्वयं से दूर होती है। लेकिन जब इनको उपयोग करने वाली जीवात्मा
यह जानती है कि इनके द्वारा जो भी सुख हमें मिल रहा है उससे हमारा दुःख कम नहीं हो
रहा है। यद्यपी वह निरंतर बढ़ रहा है। तो वह स्वयं में ही लिन हो जाती है और बाहरी
विषयों से वितृष्णा को प्राप्त हो जाती है।
मैं ही
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संदीपनी गोस्वामितुलसीदासकृत हिंदी
अग्नि
सुक्तम् - अग्निमीळे पुरोहितं यज्ञस्य देवमृत्विजम्
S’rimad
Devî Bhâgavatam THE FIRST BOOK
Chapter
XV-XVI-XVII-XVIII-XIX-XX-XXI-XII
S’rimad Devî
Bhâgavatam THE FIRST BOOK Chapter XIII-XIV
S’rimad Devî
Bhâgavatam THE FIRST BOOK Chapter XI-XII
S’rimad Devî
Bhâgavatam THE FIRST BOOK Chapter IX-X
S’rimad Devî
Bhâgavatam THE FIRST BOOK Chapter VII-VIII
S’rimad Devî
Bhâgavatam THE FIRST BOOK Chapter V-VI
S’rimad Devî
Bhâgavatam THE FIRST BOOK Chapter III-IV
S’rimad Devî
Bhâgavatam THE FIRST BOOK Chapter I-II
VISHNU PURANA. -
BOOK III. CHAP -16,17,18
VISHNU PURANA. -
BOOK III. CHAP. XV.
VISHNU PURANA. -
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VISHNU PURANA. -
BOOK III. CHAP. XIII.
VISHNU PURANA. -
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VISHNU PURANA. -
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VISHNU PURANA. - BOOK
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BOOK III. CHAP. VII.
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BOOK III. CHAP. V
VISHNU PURANA. -
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VISHNU PURANA. - BOOK
III.- CHAP. III
VISHNU PURANA. -
BOOK III.- CHAP. II.
चंद्रकांता
(उपन्यास) पहला अध्याय : देवकीनन्दन खत्री
खूनी औरत का
सात खून (उपन्यास) : किशोरी लाल गोस्वामी
ब्राह्मण की
बेटी : शरतचंद्र चट्टोपाध्याय (बांग्ला उपन्यास)
SELF-SUGGESTION AND
THE NEW HUNA THEORY OF MESMERISM AND HYPNOSIS – chapter-1, BY- MAX FREEDOM LONG
VISHNU PURAN-BOOK I
- CHAPTER 11-22
VISHNU PURANA. -
BOOK I. CHAP. 1. to 10
THE ROLE OF PRAYER.
= THOUGHT: CREATIVE AND EXHAUSTIVE. MEDITATION EXERCISE.
HIGHER REASON AND
JUDGMENT= CONQUEST OF FEAR.
QUEEN CHUNDALAI, THE
GREAT YOGIN
THE POWER OF
DHARANA, DHIYANA, AND SAMYAMA YOGA.
THE POWER OF THE
PRANAYAMA YOGA.
KUNDALINI,
THE MOTHER OF THE UNIVERSE.
TO THE KUNDALINI—THE
MOTHER OF THE UNIVERSE.
Yoga Vashist part-1
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Tantra
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