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मैं वायु के समान संसार रूप शरीर में प्राण हूं- Rig-Veda

 

मैं वायु के समान संसार रूप शरीर में प्राण हूं- Rig-Veda

 

ओ३म् द्वाविमौ वातौ वात आसिन्धोरा परावतः।

 दक्षं ते अन्य आवतु परान्यो वातु यद्रपः। । ऋग्वेद १०, १३७-२

    यहाँ पर वायु एक रूपक की तरह प्रयोग किया जा रहा है। वायु का भौतिक उपयोग तो हम सब जानते ही है इस के लिये ऋग्वेद कहता हैः- यहाँ दो प्रकार के वायु बहते है एक वायु भीतर हृदय तक बहता है दूसरा बाहर वायुमंडल में बहता है। उसमें एक तेरे अन्दर तेरे लिये शक्ति बल को बहा कर लाये दूसरा तेरे से बाहर तेरे रोग बिमारी को बाहर बहा कर ले आवे।) वह परमेश्वर आनन्दस्वरूप और आनन्द कारक होने से चन्द्रमा के समान है। वही परमेश्वर शुक्रम शीघ्रकारी अथवा शुद्ध भाव से शुक्र विर्य के कण के समान है। वह महान होने से ब्रह्मा सर्वत्र व्यापक होने से प्रजापति। भी कहलाता है। अर्थात वायु मुख्यतः दो प्रकार की होती है, एक अन्दर जो जाती है यह हमारा जीवन है जिसे हम सब प्राण कहते है और एक वायु जो शरीर से बाहर निकलती है जो अपान है अर्थात यह मृत्यु है। आध्यात्मिक भाषा में इसे प्राणायाम कहते है यह जीवन को विस्तार देने वाला और मृत्यु को दूर करने वाला बताया गया है। प्राणायाम यह बहुत प्राचिन वायु विज्ञान है यहाँ प्राण को स्थित करने की बात की जा रही है। प्राणायाम योग के आठ अंगों में से एक है। प्राणायाम = प्राण + आयाम। इसका का शाब्दिक अर्थ है-'प्राण (श्वसन) को लम्बा करना' या 'प्राण (जीवनीशक्ति) को लम्बा करना'। (प्राणायाम का अर्थ 'स्वास को नियंत्रित करना' या कम करना नहीं है।) हठयोगप्रदीपिका में कहा गया है-

     चले वाते चलं चित्तं निश्चले निश्चलं भवेत्। योगी स्थाणुत्वमाप्नोति ततो वायुं निरोधयेत्॥२॥ अर्थात प्राणों के चलायमान होने पर चित्त भी चलायमान हो जाता है और प्राणों के निश्चल होने पर मन भी स्वत: निश्चल हो जाता है और योगी स्थाणु हो जाता है। अतः योगी को श्वांसों का नियंत्रण करना चाहिये।

     यह भी कहा गया हैः-यावद्वायुः स्थितो देहे तावज्जीवनमुच्यते। मरणं तस्य निष्क्रान्तिः ततो वायुं निरोधयेत्॥ जब तक शरीर में वायु है तब तक जीवन है। वायु का निष्क्रमण (निकलना) ही मरण है। अतः वायु का निरोध करना चाहिये। प्राणायाम दो शब्दों के योग से बना है- (प्राण+आयाम) पहला शब्द "प्राण" है दूसरा "आयाम" । प्राण का अर्थ जो हमें शक्ति देता है या बल देता है। आयाम का अर्थ जानने के लिये इसका संधि विच्छेद करना होगा क्योंकि यह दो शब्दों के योग (आ+याम) से बना है। इसमें मूल शब्द ' "याम" ' है '' उपसर्ग लगा है। याम का अर्थ 'गमन होता है और' "आ" 'उपसर्ग' उलटा 'के अर्थ में प्रयोग किया गया है अर्थात आयाम का अर्थ उलटा गमन होता है। अतः प्राणायाम में आयाम को' उलटा गमन के अर्थ में प्रयोग किया गया है। इस प्रकार प्राणायाम का अर्थ ' प्राण का उलटा गमन होता है। यहाँ यह ध्यान देने कि बात है कि प्राणायाम प्राण के उलटा गमन के विशेष क्रिया की संज्ञा है न कि उसका परिणाम। अर्थात प्राणायाम शब्द से प्राण के विशेष क्रिया का बोध होना चाहिये। प्राणायाम के बारे में बहुत से ऋषियों ने अपने-अपने ढंग से कहा है लेकिन सभी के भाव एक ही है जैसे पतन्जलि का प्राणायाम सूत्र एवं गीता में जिसमें पतन्जलि का प्राणायाम सूत्र महत्त्वपूर्ण माना जाता है जो इस प्रकार है-तस्मिन सति श्वासप्रश्वासयोर्गतिविच्छेद: प्राणायाम॥ इसका हिन्दी अनुवाद इस प्रकार होगा-श्वास प्रश्वास के गति को अलग करना प्राणायाम है। इस सूत्र के अनुसार प्राणायाम करने के लिये सबसे पहले सूत्र की सम्यक व्याख्या होनी चाहिए लेकिन पतंजलि के प्राणायाम सूत्र की व्याख्या करने से पहले हमे इस बात का ध्यान देना चाहिए कि पतंजलि ने योग की क्रियाओं एवं उपायें को योगसूत्र नामक पुस्तक में सूत्र रूप से संकलित किया है और सूत्र का अर्थ ही होता है-एक निश्चित नियम जो गणितीय एवं विज्ञान सम्मत हो। यदि सूत्र की सही व्याख्या नहीं हुई तो उत्तर सत्य से दूर एवं परिणाम शून्य होगा। यदि पतंजलि के प्राणायाम सूत्र के अनुसार प्राणायाम करना है तो सबसे पहले उनके प्राणायाम सूत्र तस्मिन सति श्वासप्रश्वासयोर्गतिविच्छेद: प्राणायाम॥ की सम्यक व्याख्या होनी चाहिए जो शास्त्रानुसार, विज्ञान सम्मत, तार्किक, एवं गणितीय हो। इसी व्याख्या के अनुसार क्रिया करना होगा। इसके लिये सूत्र में प्रयुक्त शब्दों का अर्थबोध होना चाहिए तथा उसमें दी गयी गति विच्छेद की विशेष युक्ति को जानना होगा। इसके लिये पतंजलि के प्राणायाम सूत्र में प्रयुक्त शब्दो का अर्थ बोध होना चाहिये। प्राणायाम प्राण अर्थात् साँस आयाम याने दो साँसो में दूरी बढ़ाना, श्‍वास और नि: श्‍वास की गति को नियंत्रण कर रोकने व निकालने की क्रिया को कहा जाता है। श्वास को धीमी गति से गहरी खींचकर रोकना व बाहर निकालना प्राणायाम के क्रम में आता है। श्वास खींचने के साथ भावना करें कि प्राण शक्ति, श्रेष्ठता श्वास के द्वारा अंदर खींची जा रही है, छोड़ते समय यह भावना करें कि हमारे दुर्गुण, दुष्प्रवृत्तियाँ, बुरे विचार प्रश्वास के साथ बाहर निकल रहे हैं। हम साँस लेते है तो सिर्फ़ हवा नहीं खीचते तो उसके साथ ब्रह्मान्ड की सारी उर्जा को उसमे खींचते है। अब आपको लगेगा की सिर्फ़ साँस खीचने से ऐसा कैसा होगा। हम जो साँस फेफडो में खीचते है, वह सिर्फ़ साँस नहीं रहती उसमे सारे ब्रह्माण्ड की सारी उर्जा समायी रहती है। मान लो जो साँस आपके पूरे शरीर को चलाना जनती है, वह आपके शरीर को दुरुस्त करने की भी ताकत रखती है। प्राणायाम निम्न मंत्र (गायत्री महामंत्र) के उच्चारण के साथ किया जाना चाहिये। ॐ भूः भुवः ॐ स्वः ॐ महः, ॐ जनः ॐ तपः ॐ सत्यम्। ॐ तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात्। ॐ आपोज्योतीरसोऽमृतं, ब्रह्म भूर्भुवः स्वः ॐ।

      प्राणायाम का योग में बहुत महत्त्व है। सबसे पहले तीन बातों की आवश्यकता है, विश्वास, सत्यभावना, दृढ़ता। प्राणायाम करने से पहले हमारा शरीर अन्दर से और बाहर से शुद्ध होना चाहिए. बैठने के लिए नीचे अर्थात भूमि पर आसन बिछाना चाहिए. बैठते समय हमारी रीढ़ की हड्डियाँ एक पंक्ति में अर्थात सीधी होनी चाहिए. सुखासन, सिद्धासन, पद्मासन, वज्रासन किसी भी आसन में बैठें, मगर जिसमें आप अधिक देर बैठ सकते हैं, उसी आसन में बैठें। प्राणायाम करते समय हमारे हाथों को ज्ञान या किसी अन्य मुद्रा में होनी चाहिए. प्राणायाम करते समय हमारे शरीर में कहीं भी किसी प्रकार का तनाव नहीं होना चाहिए, यदि तनाव में प्राणायाम करेंगे तो उसका लाभ नहीं मिलेगा। प्राणायाम करते समय अपनी शक्ति का अतिक्रमण ना करें। ह्‍र साँस का आना जाना बिलकुल आराम से होना चाहिए. जिन लोगो को उच्च रक्त-चाप की शिकायत है, उन्हें अपना रक्त-चाप साधारण होने के बाद धीमी गति से प्राणायाम करना चाहिये। यदि आँप्रेशन हुआ हो तो, छः महीने बाद ही प्राणायाम का धीरे-धीरे अभ्यास करें। हर साँस के आने जाने के साथ मन ही मन में ओम् का जाप करने से आपको आध्यात्मिक एवं शारीरिक लाभ मिलेगा और प्राणायाम का लाभ दुगुना होगा। साँसे लेते समय किसी एक चक्र पर ध्यान केंन्द्रित होना चाहिए नहीं तो मन कहीं भटक जायेगा, क्योंकि मन बहुत चंचल होता है। साँसे लेते समय मन ही मन भगवान से प्रार्थना करनी है कि "हमारे शरीर के सारे रोग शरीर से बाहर निकाल दें और हमारे शरीर में सारे ब्रह्मांड की सारी ऊर्जा, ओज, तेजस्विता हमारे शरीर में डाल दें"। ऐसा नहीं है कि केवल बीमार लोगों को ही प्राणायाम करना चाहिए, यदि बीमार नहीं भी हैं तो सदा निरोगी रहने की प्रार्थना के साथ प्राणायाम करें।

      भस्त्रिका प्राणायामः-सुखासन सिद्धासन, पद्मासन, वज्रासन में बैठें। नाक से लंबी साँस फेफडो में ही भरे, फिर लंबी साँस फेफडो से ही छोडें। साँस लेते और छोडते समय एकसा दबाव बना रहे। हमें हमारी गलतीयाँ सुधारनी है, एक तो हम पुरी साँस नहीं लेते; और दुसरा हमारी साँस पेट में चाली जाती है। देखिये हमारे शरीर में दो रास्ते है, एक (नाक, श्वसन नलिका, फेफडे) और दूसरा (मुँह्, अन्ननलिका, पेट्) । जैसे फेफडोमें हवा शुद्ध करने की प्रणली है, वैसे पेट में नहीं है। उसीके का‍रण हमारे शरीर में आँक्सीजन की कमी मेहसूस होती है और उसेके कारण हमारे शरीर में रोग जडते है। उसी गलती को हमें सुधारना है। जैसे कि कुछ पाने की खुशि होति है, वैसे हि खुशि हमे प्राणायाम करते समय होनि चाहिए और क्यो न हो सारि जिन्दगि का स्वास्थ्य आपको मील रहा है। आप के पन्चविध प्राण सशक्त हो रहे है, हमारे शरीर की सभि प्रणालिया सशक्त हो रही है।

 

लाभः-हमारा हृदय सशक्त बनाने के लिये हैं। हमारे फेफडों को सशक्त बनाने के लिये हैं। मस्तिष्क से सम्बंधित सभी व्याधिओं को मिटाने के लिये भी यह लाभदायक है। पार्किनसन, पैरालिसिस, लूलापन इत्यादि स्नायुओं से सम्बंधित सभी व्यधिओं को मिटाने के लिये। भगवान से नाता जोडने के लिये।

     कपालभाति प्राणायामः-सुखासन, सिद्धासन, पद्मासन, वज्रासन में बैठें और साँस को बाहर फेंकते समय पेट को अन्दर की तरफ धक्का देना है, इस में सिर्फ् साँस को छोडते रहना है। दो साँसो के बीच अपने आप साँस अन्दर चली जायेगी जान-बूझ कर साँस को अन्दर नहीं लेना है। कपाल कहते है मस्तिष्क के अग्र भाग को, भाती कहते है ज्योति को, कान्ति को, तेज को; कपालभाति प्राणायाम करने लगातार करने से चहरे का लावण्य बढ़ाता है। कपालभाति प्राणायाम धरती की सन्जीवनि कहलाता है। कपालभाती प्राणायाम करते समय मुलाधार चक्र पर ध्यान केन्द्रित करना है। इससे मूलाधार चक्र जाग्रत हो के कुन्डलिनी शक्ति जाग्रत होने में मदद होती है। कपालभाति प्राणायाम करते समय ऐसा सोचना है कि हमारे शरीर के सारे नगेटिव तत्व शरीर से बाहर जा रहे है। खाना मिले ना मिले मगर रोज कम से कम ५ मिनिट कपालभाति प्राणायाम करना ही है, यह द्रिढ संक्लप करना है।

    लाभः- बालों की सारी समस्याओँ का समाधान प्राप्त होता है। चेहरे की झुरियाँ, आँखो के नीचे के डार्क सर्कल मिट जायेंगे। थायराँइड की समस्या मिट जाती है। सभी प्रकार की चर्म समस्या मिट जाती है। आखों की सभी प्रकार की समस्याऐं मिट जाती है और आँखो की रोशनी लौट आती है। दातों की सभी प्रकार की समस्याऐं मिट जाती है और दातों की खतरनाक पायरिया जैसी बीमारी भी ठीक हो जाती है। कपालभाति प्राणायाम से शरीर की बढ़ी चर्बी घटती है, यह इस प्राणायाम का सबसे बड़ा फायदा है। कब्ज, ऐसिडिटी, गैस्टि्क जैसी पेट की सभी समस्याएँ मिट जाती हैं। यूटरस (महिलाओं) की सभी समस्याओँ का समाधान होता है। डायबिटीस संपूर्णतया ठीक होता है। कोलेस्ट्रोल को घटाने में भी सहायक है। सभी प्रकार की ऐलर्जियाँ मिट जाती हैं। सबसे खतरनाक कँन्सर रोग तक ठीक हो जाता है। शरीर में स्वतः हीमोग्लोबिन तैयार होता है। शरीर में स्वतः कैलशियम तैयार होता है। किडनी स्वतः स्वच्छ होती है, डायलेसिस करने की ज़रूरत नहीं पड़ती।

     बाह्य प्राणायामः-सुखासन, सिद्धासन, पद्मासन, वज्रासन में बैठें। साँस को पूरी तरह बाहर निकालने के बाद साँस बाहर ही रोके रखने के बाद तीन बन्ध लगाते है। १) जालंधर बन्ध:-गले को पूरा सिकोड कर ठोडी को छाती से सटा कर रखना है। २) उड़ड्यान बन्ध:-पेट को पूरी तरह अन्दर पीठ की तरफ खीचना है। ३) मूल बन्ध:-हमारी मल विसर्जन करने की जगह को पूरी तरह ऊपर की तरफ खींचना है।

     लाभः-कब्ज, ऐसिडिटी, गँसस्टीक, जैसी पेट की सभी समस्याऐं मिट जाती हैं। हर्निया पूरी तरह ठीक हो जाता है। धातु और पेशाब से सम्बंधित सभी समस्याएँ मिट जाती हैं। मन की एकाग्रता बढ़ती है। व्यंधत्व (संतान हीनता) से छुटकारा मिलने में भी सहायक है।

     अनुलोम-विलोम प्राणायामः-सुखासन, सिद्धासन, पद्मासन, वज्रासन में बैठें। शुरुवात और अन्त भी हमेशा बाये नथुने (नोस्टिरल) से ही करनी है, नाक का दाँया नथुना बंद करें व बाये से लंबी साँस लें, फिर बाये को बंद करके, दाँया वाले से लंबी साँस छोडें...अब दाँये से लंबी साँस लें और बाये वाले से छोडें...यानि यह दाँया-दाँया बाँया-बाँया यह क्रम रखना, यह प्रक्रिया १०-१५ मिनट तक दुहराएं। साँस लेते समय अपना ध्यान दोंनों आँखो के बीच में स्थित आज्ञा चक्र पर ध्यान एकत्रित करना चाहिए और मन ही मन में साँस लेते समय ओउम-ओउम का जाप करते रहना चाहिए. हमारे शरीर की ७२, ७२, १०, २१० सुक्ष्मादी सूक्ष्म नाड़ी शुद्ध हो जाती है। बायी नाड़ी को चन्द्र (इड़ा, गन्गा) नाड़ी और बायी नाडी को सूर्य (पीन्गला, यमुना) नाड़ी कहते है। चन्द्र नाड़ी से ठण्डी हवा अन्दर जाती है और सूर्य नाड़ी से गरम नाड़ी हवा अन्दर जाती है। ठण्डी और गरम हवा के उपयोग से हमारे शरीर का तापमान संतुलित रहता है। इससे हमारी रोग-प्रतिकारक शक्ति बढ़ जाती है। इनके अतिरीक्त एक और नाड़ी अन दोनो के मध्य में होती है जिसको सुशूम्ड़ा सरस्वती कहते है। जिसकी चर्चा ऋग्वेद के एक मंत्र में करते है वह मंत्र इस प्रकार से हैः-येभ्यो माता मधुमत्पिन्वते पयः पियूषं द्योदिरतिरद्रिबर्हाः। उक्तशुष्मान् वृषभरान्त्स्वप्नसस्ताँ आदित्याँ अनु मदा स्वस्तये॥ 10, 63, 3 अर्थात यह सब की माता माँ के सामन है मधु अमृत रूप मती ज्ञान रस को पिलाने पयः जो प्राण रूप तत्व पिने योग्य पदार्थ है सूर्य पृथिवी और ब्रह्माण्ड को धारण करने वाले अद्रिश्य ब्रह्मा जैसा की पहले बताया गया है शुष्मड़ा नाड़ी में स्थित वही सब में प्राण जो प्रण से बना है संकल्प को पैदा करने वाला सामर्थ का श्रोत है जिसे पाकर लोग परमआनन्द को प्राप्त करते है। जिससे ही सभी जीव जन्तुओं का कल्याण होता है। जैसा की अथर्वेद का एक मंत्र कहता है अष्टसिद्धि नवद्वारा पूरीअयोद्धा॥ अर्थात अष्ट सिद्धि आठ चक्रों को जागृत करने से मिलती है। आठ चक्र क्रमशः मूलाधार, स्वाधिष्ठान, मणिपूर, अनाहत, विशुद्ध, आज्ञा, सहस्रार, ब्रह्मरन्ध्र यह आठ चक्र जो इसी शुष्मड़ा नाड़ी में ही स्थित है।

      भारतीय पारंपरिक औषधि विज्ञान के अनुसार, चक्र की अवधारणा का सम्बंध पहिए-से चक्कर से हैं, माना जाता है इसका अस्तित्व आकाशीय सतह में मनुष्य का दोगुना होता है। कहते हैं कि चक्र शक्ति केंद्र या ऊर्जा की कुंडली है जो कायिक शरीर के एक बिंदु से निरंतर वृद्धि को प्राप्त होनेवाले फिरकी के आकार की संरचना (पंखे प्रेम हृदय का आकार बनाते हैं) सूक्ष्म देह की परतों में प्रवेश करती है। सूक्ष्म तत्व का घूमता हुआ भंवर ऊर्जा को ग्रहण करने या इसके प्रसार का केंद्र बिंदु है। ऐसा माना जाता है कि सूक्ष्म देह के अंतर्गत सात प्रमुख चक्र या ऊर्जा केंद्र (जिसे प्रकाश चक्र भी माना गया) स्थित होते हैं। ब्रह्मांड से अधिक मजबूती के साथ ऊर्जा खींचकर इन बिंदुओं में डालता है, इस मायने में यह ऊर्जा केंद्र है कि यह ऊर्जा उत्पन्न और उसका भंडारण करता है। मुख्य नाडि़याँ इड़ा, पिंगला और सुषुन्ना (संवेदी, सहसंवेदी और केंद्रीय तंत्रिका तंथ) एक वक्र पथ से मेरूदंड से होकर जाती है और कई बार एक-दूसरे को पार करती हैं। प्रतिच्छेदन के बिंदु पर ये बहुत ही शक्तिशाली ऊर्जा केंद्र बनाती है जो चक्र कहलाता है। मानव देह में तीन प्रकार के ऊर्जा केंद्र हैं। अवर अथवा पशु चक्र की अवस्थिति खुर और श्रोणि के बीच के क्षेत्र में होती है जो प्राणी जगत में हमारे विकासवादी मूल की ओर इशारा करता है। मानव चक्र मेरूदंड में होते हैं। अंत में, श्रेष्ठ या दिव्य चक्र मेरूदंड के शिखर और मस्तिष्क के शीर्ष पर होता है।

      एनोडा जूडिथ (1996, पृ। 5) ने चक्र की आधुनिक व्याख्या दी है: चक्र को क्रियाकलापों का केंद्र माना जाता है जो जीवन शक्ति ऊर्जा को ग्रहण करता है, आत्मसात करता है और अभिव्यक्त करता है। चक्र का शाब्दिक अनुवाद चक्का या कुंडल है और यह चक्कर काटते जैविक ऊर्जा क्रियाकलापों का वृत्त है जो प्रमुख तंत्रिका गैंगलिया से निकलकर मेरूदंड में शाखाओं में बंट कर आगे बढ़ता है। सामान्य तौर पर इनमें से छह चक्रों के लिए कहा जाता है कि यह ऊर्जा के एक स्तंभ की तरह खड़ा होता है जो मेरूदंड के आधार से उठता हुआ माथे के मध्य तक विस्तृत होता है और सातवां कायिक क्षेत्र से बाहर होता है। छह प्रमुख चक्र हैं जो चेतना के मूल अवस्थाओं से परस्पर जुड़े होते हैं ...

      सुजैन शुमस्की (2003, पृ। 24) इस विचार का समर्थन करती हैं: ऐसा माना जाता है कि आपके मेरूदंड का हरेक चक्र शारीरिक कार्यकलापों को मेरूदंड के निकट क्षेत्र को प्रभावित और यहाँ तक कि नियंत्रित करता हैं। शव-परीक्षण में चक्रों का खुलासा नहीं होता, इसलिए अधिकांश लोग यह सोचते हैं कि वे अनोखी उर्वर कल्पना कर रहे हैं। लेकिन सुदूर पूर्व की परंपराओं में इसके अस्तित्व को अच्छी तरह प्रमाणित किया गया है। जैसा कि ऊपर बताया गया है, चक्र एक ऊर्जा केंद्र हैं जो मेरूदंड में अवस्थित होता है और मेरूदंड के आधार से ऊपर उठकर खोपड़ी के मध्य तक मानव तंत्रिका तंत्र के विभिन्न हिस्सों में बंट जाता है। चक्र को मानव देह का प्राण या कायिक-जैविक ऊर्जा का बिंदु या बंधन माना गया है। शुमस्की कहती हैं कि "आपके सूक्ष्म देह, आपकी ऊर्जा क्षेत्र और संपूर्ण चक्र तंत्र का आधार प्राण है। ... जो कि ब्रह्मांड में जीवन और ऊर्जा का प्रमुख स्रोत है।" चक्र का अध्ययन कई प्रकार की चिकित्सा और शिक्षण के लिए केन्द्रिक है। अरोमाथेरापी, मंत्र, रेकी, प्रायोगिक उपचार, पुष्प अर्क, विकिरण चिकित्सा, ध्वनि चिकित्सा, रंग / प्रकाश चिकित्सा और मणिभ / रत्न चिकित्सा जैसे कुछ अभ्यास हैं जिनके माध्यम से सूक्ष्म ऊर्जा का पता लगाया गया है। वज्रयान और तांत्रिक शक्त सिद्धांत के अनुसार एक्यूपंक्चर, शिअत्सू, ताई ची और ची कुंग ऊर्जावान पराकाष्ठा के संतुलन पर ध्यान देता है, जो कि चक्र प्रणाली का एक अभिन्न अंग हैं।

     "नाभि" शब्द पहली बार हिंदू धर्म के पवित्र ग्रंथ अथर्व वेद में आया और इसका उपयोग यह परिभाषित करने के लिए किया गया कि देह की सभी नाड़ियाँ किस तरह यहाँ आबद्ध होती हैं और इसे यह नाभि चक्र के रूप में जाना जाता है और इसके अलावा मूलाधार चक्र शब्द भी पहली बार अथर्ववेद [जिस वेद से आयुर्वेद की उत्पत्ति हुई] में वर्णित किया गया। उपनिषद में चक्रों के वर्णन अधिक विस्तार से हैं, ब्रह्मोपनिषद में नाभि चक्र को अग्नि और सूर्य के निवास के रूप में वर्णित किया गया है। योगराज उपनिषद में नौ प्रकार के चक्रों-ब्रह्म, स्वाधिष्ठान, नाभि, हृदय, कंठ, तालुका, भ्रू, ब्रह्म रंध्र, व्योम चक्र का वर्णन है योग चूड़ामणिउपनिषद में षड चक्र का वर्णन है, पतंजलि योग दर्शन के विभूतिपाद में षड चक्र का वर्णन है और जब पहले सूत्र में इसे समझाया जाता है तब 12 चक्र के वर्णन पाए जाते हैं।

      यह आठ चक्र को जागृत करने से ही आठ सिद्धिया उपलब्ध होती है वह आठ सिद्धिया इस प्रकार से है। सिद्धि अर्थात पूर्णता की प्राप्ति होना व सफलता की अनुभूति मिलना। सिद्धि को प्राप्त करने का मार्ग एक कठिन मार्ग हो ओर जो इन सिद्धियों को प्राप्त कर लेता है वह जीवन की पूर्णता को पा लेता है। असामान्य कौशल या क्षमता अर्जित करने को 'सिद्धि' कहा गया है। चमत्कारिक साधनों द्वारा 'अलौकिक शक्तियों को पाना जैसे-दिव्यदृष्टि, अपना आकार छोटा कर लेना, घटनाओं की स्मृति प्राप्त कर लेना इत्यादि,' सिद्धि' इसी अर्थ में प्रयुक्त होती है। शास्त्रों में अनेक सिद्धियों की चर्चा की गई है और इन सिद्धियों को यदि नियमित और अनुशासनबद्ध रहकर किया जाए तो अनेक प्रकार की परा और अपरा सिद्धियाँ प्राप्त कि जा सकती है। सिद्धियाँ दो प्रकार की होती हैं, एक परा और दूसरी अपरा। यह सिद्धियाँ इंद्रियों के नियंत्रण और व्यापकता को दर्शाती हैं। सब प्रकार की उत्तम, मध्यम और अधम सिद्धियाँ अपरा सिद्धियाँ कहलाती है। मुख्य सिद्धियाँ आठ प्रकार की कही गई हैं। इन सिद्धियों को पाने के उपरांत साधक के लिए संसार में कुछ भी असंभव नहीं रह जाता। सिद्धियाँ क्या हैं व इनसे क्या हो सकता है इन सभी का उल्लेख मार्कंडेय पुराण तथा ब्रह्मवैवर्तपुराण में प्राप्त होता है जो इस प्रकार है:-अणिमा लघिमा गरिमा प्राप्ति: प्राकाम्यंमहिमा तथा। ईशित्वं च वशित्वंच सर्वकामावशायिता:॥

      यह आठ मुख्य सिद्धियाँ इस प्रकार हैं:-अणिमा सिद्धि अपने को सूक्ष्म बना लेने की क्षमता ही अणिमा है। यह सिद्धि यह वह सिद्धि है, जिससे युक्त हो कर व्यक्ति सूक्ष्म रूप धर कर एक प्रकार से दूसरों के लिए अदृश्य हो जाता है। इसके द्वारा आकार में लघु होकर एक अणु रूप में परिवर्तित हो सकता है। अणु एवं परमाणुओं की शक्ति से सम्पन्न हो साधक वीर व बलवान हो जाता है। अणिमा की सिद्धि से सम्पन्न योगी अपनी शक्ति द्वारा अपार बल पाता है। महिमा सिद्धिः-अपने को बड़ा एवं विशाल बना लेने की क्षमता को महिमा कहा जाता है। यह आकार को विस्तार देती है विशालकाय स्वरुप को जन्म देने में सहायक है। इस सिद्धि से सम्पन्न होकर साधक प्रकृति को विस्तारित करने में सक्षम होता है। जिस प्रकार केवल ईश्वर ही अपनी इसी सिद्धि से ब्रह्माण्ड का विस्तार करते हैं उसी प्रकार साधक भी इसे पाकर उन्हें जैसी शक्ति भी पाता है। गरिमा सिद्धिः-इस सिद्धि से मनुष्य अपने शरीर को जितना चाहे, उतना भारी बना सकता है। यह सिद्धि साधक को अनुभव कराती है कि उसका वजन या भार उसके अनुसार बहुत अधिक बढ़ सकता है जिसके द्वारा वह किसी के हटाए या हिलाए जाने पर भी नहीं हिल सकता। लघिमा सिद्धिः-स्वयं को हल्का बना लेने की क्षमता ही लघिमा सिद्धि होती है। लघिमा सिद्धि में साधक स्वयं को अत्यंत हल्का अनुभव करता है। इस दिव्य महासिद्धि के प्रभाव से योगी सुदूर अनन्त तक फैले हुए ब्रह्माण्ड के किसी भी पदार्थ को अपने पास बुलाकर उसको लघु करके अपने हिसाब से उसमें परिवर्तन कर सकता है। प्राप्ति सिद्धिः-कुछ भी निर्माण कर लेने की क्षमता इस सिद्धि के बल पर जो कुछ भी पाना चाहें उसे प्राप्त किया जा सकता है। इस सिद्धि को प्राप्त करके साधक जिस भी किसी वस्तु की इच्छा करता है, वह असंभव होने पर भी उसे प्राप्त हो जाती है। जैसे रेगिस्तान में प्यासे को पानी प्राप्त हो सकता है या अमृत की चाह को भी पूरा कर पाने में वह सक्षम हो जाता है केवल इसी सिद्धि द्वारा ही वह असंभव को भी संभव कर सकता है। प्राकाम्य सिद्धिः-कोई भी रूप धारण कर लेने की क्षमता प्राकाम्य सिद्धि की प्राप्ति है। इसके सिद्ध हो जाने पर मन के विचार आपके अनुरुप परिवर्तित होने लगते हैं। इस सिद्धि में साधक अत्यंत शक्तिशाली शक्ति का अनुभव करता है। इस सिद्धि को पाने के बाद मनुष्य जिस वस्तु कि इच्छा करता है उसे पाने में कामयाब रहता है। व्यक्ति चाहे तो आसमान में उड़ सकता है और यदि चाहे तो पानी पर चल सकता है। ईशिता सिद्धिः-हर सत्ता को जान लेना और उस पर नियंत्रण करना ही इस सिद्धि का अर्थ है। इस सिद्धि को प्राप्त करके साधक समस्त प्रभुत्व और अधिकार प्राप्त करने में सक्षम हो जाता है। सिद्धि प्राप्त होने पर अपने आदेश के अनुसार किसी पर भी अधिकार जमाय जा सकता है। वह चाहे राज्यों से लेकर साम्राज्य ही क्यों न हो। इस सिद्धि को पाने पर साधक ईश रूप में परिवर्तित हो जाता है। वशिता सिद्धिः-जीवन और मृत्यु पर नियंत्रण पा लेने की क्षमता को वशिता या वशिकरण कही जाती है। इस सिद्धि के द्वारा जड़, चेतन, जीव-जन्तु, पदार्थ-प्रकृति, सभी को स्वयं के वश में किया जा सकता है। इस सिद्धि से संपन्न होने पर किसी भी प्राणी को अपने वश में किया जा सकता है। शरीर में नव द्वार हैं। दशम द्वार ब्रह्मरन्ध्र का है। इड़ा पिंगला और सुषुम्ना के मेल होने पर ब्रह्मरन्ध्र के द्वार से जीव के प्रयाण करने पर जीव मोक्ष को प्राप्त हो जाता है। दो नाक के छिद्र, दो कान के छिद्र, दो आँख के छिद्र, एक मुख का एक गुदा का और एक लिंग का छिद्र है।

मैं तुम सब का अमृत हूं- Rig -Veda

मैं ही तुम सब का पिता हूं- Rig-Veda

मैं तुम्हारा शासक हूं- Rig Veda

मैं तुम्हारे समीप ही हूं- Rig Veda

मैं ही अंगों का रस अङ्गिरस हूं-Rig Veda

मैं ही सत्या का रक्षक हूं- Rig Veda

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VISHNU PURANA. - BOOK III.  CHAP. XIV.

VISHNU PURANA. - BOOK III.  CHAP. XIII.

VISHNU PURANA. - BOOK III.  CHAP. XII.

VISHNU PURANA. - BOOK III.  CHAP. XI.

VISHNU PURANA. - BOOK III. CHAP. X

VISHNU PURANA. - BOOK III. CHAP. IX

VISHNU PURANA. - BOOK III. CHAP. VIII

VISHNU PURANA. - BOOK III. CHAP. VII.

VISHNU PURANA. - BOOK III. CHAP. VI

VISHNU PURANA. - BOOK III. CHAP. V

VISHNU PURANA. - BOOK III. CHAP. IV

VISHNU PURANA. - BOOK III.- CHAP. III

VISHNU PURANA. - BOOK III.- CHAP. II.

VISHNU PURAN BOOK III.CHP-1

Self – Suggestion- Chapter 8

Self-Suggestion Chapter 7

Self-Suggestion- Chapter 6

चंद्रकांता (उपन्यास) पहला अध्याय : देवकीनन्दन खत्री

खूनी औरत का सात खून (उपन्यास) : किशोरी लाल गोस्वामी

ब्राह्मण की बेटी : शरतचंद्र चट्टोपाध्याय (बांग्ला उपन्यास)

Self – Suggestion -Chapter 5

Self - Suggestion - Chapter 4

Self-Suggestion -- Chapter 3

SELF SUGGESTION Chapter 2

SELF-SUGGESTION AND THE NEW HUNA THEORY OF MESMERISM AND HYPNOSIS – chapter-1, BY- MAX FREEDOM LONG

VISHNU PURAN - BOOK II.

VISHNU PURAN-BOOK I - CHAPTER 11-22

VISHNU PURANA. - BOOK I. CHAP. 1. to 10

Synopsis of the Vishnu Purana

Introduction of All Puranas

CHARACTER-BUILDING.

SELF-DE-HYPNOTISATION.

THE ROLE OF PRAYER. = THOUGHT: CREATIVE AND EXHAUSTIVE. MEDITATION EXERCISE.  

HIGHER REASON AND JUDGMENT= CONQUEST OF FEAR.

THE GREAT EGOIST--BALI

QUEEN CHUNDALAI, THE GREAT YOGIN

CREATION OF THE UNIVERSE

THE WAY TO BLESSED LIBERATION

MUDRAS MOVE THE KUNDALINI

LOCATION OF KUNDALINI

SAMADHI YOGA

THE POWER OF DHARANA, DHIYANA, AND SAMYAMA YOGA.

THE POWER OF THE PRANAYAMA YOGA.

INTRODUCTION

KUNDALINI, THE MOTHER OF THE UNIVERSE.

TO THE KUNDALINI—THE MOTHER OF THE UNIVERSE.

Yoga Vashist part-1 -or- Heaven Found   by   Rishi Singh Gherwal   

Shakti and Shâkta -by Arthur Avalon (Sir John Woodroffe),

Mahanirvana Tantra- All- Chapter  -1 Questions relating to the Liberation of Beings

Mahanirvana Tantra

Tantra of the Great Liberation

Translated by Arthur Avalon

(Sir John Woodroffe)

Introduction and Preface

CONCLUSION.

THE VAMPIRE'S ELEVENTH STORY.

THE VAMPIRE'S TENTH STORY.

THE VAMPIRE'S NINTH STORY.

THE VAMPIRE'S EIGHTH STORY.

THE VAMPIRE'S SEVENTH STORY.

THE VAMPIRE'S SIXTH STORY.

THE VAMPIRE'S FIFTH STORY.

THE VAMPIRE'S FOURTH STORY.

THE VAMPIRE'S THIRD STORY.

THE VAMPIRE'S SECOND STORY.

THE VAMPIRE'S FIRST STORY.

श्वेतकेतु और उद्दालक, उपनिषद की कहानी, छान्द्योग्यापनिषद, GVB THE UNIVERSITY OF VEDA

यजुर्वेद मंत्रा हिन्दी व्याख्या सहित, प्रथम अध्याय 1-10, GVB THE UIVERSITY OF VEDA

उषस्ति की कठिनाई, उपनिषद की कहानी, आपदकालेमर्यादानास्ति, _4 -GVB the uiversity of veda

वैराग्यशतकम्, योगी भर्तृहरिकृत, संस्कृत काव्य, हिन्दी व्याख्या, भाग-1, gvb the university of Veda

G.V.B. THE UNIVERSITY OF VEDA ON YOU TUBE

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इसे भी पढ़े - भाग- ब्रह्मचर्य वैभव

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जीवन बदलने की अद्भुत कहानियां

भारत का प्राचीन स्वरुप

वैदिक इतिहास संक्षीप्त रामायण की कहानीः-

वैदिक ऋषियों का सामान्य परिचय-1

वैदिक इतिहास महाभारत की सुक्ष्म कथाः-

वैदिक ऋषियों का सामान्य परिचय-2 –वैदिक ऋषि अंगिरस

वैदिक विद्वान वैज्ञानिक विश्वामित्र के द्वारा अन्तरिक्ष में स्वर्ग की स्थापना

राजकुमार और उसके पुत्र के बलिदान की कहानीः-

कहानी ब्रह्मचर्य महिमा

पंचतन्त्र की कहानी पिग्लक

पुरुषार्थ और विद्या- ब्रह्मज्ञान

संस्कृत के अद्भुत सार गर्भित विद्या श्लोक हिन्दी अर्थ सहित

पंचतन्त्र कि कहानी मित्र लाभ

श्रेष्ट मनुष्य समझ बूझकर चलता है"

पंचतंत्र- कहानि क्षुद्रवुद्धि गिदण की

दयालु हृदय रुरु कथा

कनफ्यूशियस के शिष्‍य चीनी विद्वान के शब्‍द। लियोटालस्टा

तीन भिक्षु - लियोटलस्टाय

कहानी माधो चमार की-लियोटलस्टाय

पर्मार्थ कि यात्रा के सुक्ष्म सोपान

शब्द ब्रह्म- आचार्य मनोज

जीवन संग्राम -1, मिर्जापुर का परिचय

एक मैं हूं दूसरा कोई नहीं

संघर्ष ही जीवन है-

 


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