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मैं गुरुओं का भी गुरु हूं-Rig -Veda

 

मैं गुरुओं का  भी गुरु हूं-Rig -Veda

 

गुकारस्त्वन्धकारस्यात् रुकारस्तन्निरोधकः। अन्धकार विनाशित्याद गुरुरित्य भिधीयते॥

गुकार अर्थात् अन्धकार और रुकार अर्थात् उस अन्धकार को मिटाने वाला प्रकाश, इस प्रकार जो शिष्य में पाये जाने वाले अन्धकार का विनाश करके उसे ज्ञान रूपी प्रकाश देता है वही गुरु कहा जाता है।

      गायत्री को सनातन धर्म में गुरु मंत्र कहा गया है। आज भी देश भर में इसका प्रचार है और प्रायः सभी प्राँतों के पंडित यज्ञोपवीत धारण कराते समय शिष्य को इस मंत्र का उपदेश देते हैं। उनका यह कार्य केवल एक रूढ़ि पूजा के ढंग पर होता है क्योंकि अधिकाँश में न तो वे स्वयं गायत्री की उपासना और साधना करने वाले होते हैं और न शिष्य को उसकी विधिवत शिक्षा देकर उसे साधन-मार्ग में अग्रसर कराने का प्रयत्न करते हैं। यही कारण है कि बहुत समय से लोग गुरु मंत्र का महत्व और उससे लाभ उठाने की विधि को भूल गये हैं। अगर गुरु सच्चे और ज्ञानी हों तो वे इस मंत्र की शिक्षा देकर अपने अनुयाइयों का अपार हित कर सकते हैं। इस विषय में गुरु का महत्व बतलाते हुए अहमदाबाद के प्रज्ञान-मन्दिरके संचालक महात्मा सदाशिव जी के निम्न विचार पाठकों को विशेष उपयोगी प्रतीत होंगे।

     गुरु तीन प्रकार के होते हैं-क्रियाशक्तिप्रधान स्थूल देहधारी लौकिक गुरु-इच्छाशक्तिप्रधान सूक्ष्म देहधारी सिद्धगुरु और ज्ञानशक्तिप्रधान कारण देहधारी ज्ञानी गुरु। कितने ही गुरु ऐसे भी हैं जो वंश परम्परा से मंत्र का प्रयोग कर रहे हैं, पर उन्होंने स्वयं साधन द्वारा उसे चैतन्य शक्ति संपन्न नहीं किया वे हैं लोग शक्तिहीन मंत्र का प्रयोग करते रहते हैं जिससे उसका कोई प्रभाव दिखलाई नहीं पड़ता। ऐसे गुरुओं को सूक्ष्म देहधारी-सिद्ध गुरुओं की सहायता नहीं मिलती, जिससे अपना अथवा अन्य लोगों का विशेष उपकार नहीं कर सकते।

     साधारण रीति से गुरुशब्द का अर्थ भारीहोता है। उसका विपरीत शब्द लघुअर्थात् हलकाहोता है। इस दृष्टि से देखा जाय तो विश्व की समस्त जड़ और चेतन वस्तुएं एक दूसरे के मुकाबले में भारी हलकी सिद्ध होंगी। पर इनमें से किसी भी व्यक्ति या वस्तु के लिये यह नहीं कहा जा सकता कि वह सदैव और प्रत्येक परिस्थिति में गुरु (उपादेय अथवा वन्दनीय) ही है, अथवा कोई व्यक्ति या वस्तु सदैव, प्रत्येक दशा में लघु ही है। इस हिसाब से कोई भी एक व्यक्ति, वह चाहे जितना भी विद्वान, ज्ञानी अथवा बुद्धिमान क्यों न हो, तो भी समस्त जगत का गुरु नहीं बन सकता। इसी प्रकार यदि खास वंश में कोई विशिष्ट पुरुष हो गया हो और बहुत से व्यक्तियों को सत मार्ग दिखलाकर गुरु की वंदनीय पदवी प्राप्त कर गया हो तो उसके आगे वाले शिष्य अथवा पुत्र पौत्रादि भी वंश परम्परा के आधार पर गुरु होने का दावा नहीं कर सकते। जब से हमारे देश में पुत्र-परम्परा अथवा शिष्य-परम्परा से लोग गुरु बनने का दावा करने लगे तभी से उनका आदरमान घटने लग गया और धीरे-धीरे नष्ट प्रायः हो गया। इसके फल से समाज में वास्तविक ज्ञान और ज्ञानी, गुण और गुणी का अभाव होकर भयंकर अंधाधुँधी का साम्राज्य फैल गया।

      अगर प्राइमरी स्कूल का कोई शिक्षक अपने शिष्यों से यह दावा करे कि केवल मैं ही गुरु हूँ और तुम लोग मेरे सिवाय और किसी को गुरु मत बनाना तो इसका परिणाम यह होगा कि उसके शिष्य दो-चार दर्जा पढ़कर ही रह जायेंगे, उनमें से कोई बी.ए., एम.ए. न हो सकेगा। इसलिए जो हमको विद्या, बुद्धि प्राप्त करने में जितने अंश तक सहायता दे सके उसे उतने अंशों में गुरु मानना चाहिये। एम.ए. की डिग्री प्राप्त करने तक जितने शिक्षकों और आचार्यों के पास पढ़ा जाय उन सबको ही गुरु के समान मानना चाहिये। जिस प्रकार हमारे माता-पिता एक ही होते हैं और वे ही इस बात का दावा कर सकते हैं, वैसा नियम गुरु के संबंध में काम नहीं दे सकता। हाँ अगर किसी को संयोगवश या भाग्य से कोई दैवी जगत का ज्ञानी गुरु मिल जाय तो उसकी बात दूसरी है, पर जब तक ऐसा अलौकिक गुरु नहीं मिलता तब तक शिष्य को गुरु बदलने का अधिकार भी होता है। शास्त्रों में लिखा है-

     आमोदार्थो यथा भृंगो पुष्पातपुष्पादन्तरंग गच्छेत्। विज्ञानार्थो तथा शिरुो गुरु गर्वोन्तरं गच्छेत्॥

      अर्थात् जिस प्रकार भौंरा आमोद अर्थात् सुगंधि और मधु के लिए एक फूल से दूसरे, तीसरे फूल में जाता है, उसी प्रकार जब तक शिष्य की जिज्ञासा तृप्त न हो तब तक वह दूसरा, तीसरा गुरु कर सकता है।अगर एक ही गुरु से सब प्रकार के ज्ञान की तृप्ति हो जाय तो फिर गुरु बदलने की आवश्यकता नहीं रहती। पर ऐसे उच्च अधिकारी और अलौकिक गुरु कभी भी शिष्य को ढूँढ़ने नहीं जाते, शिष्य ही आकर्षित होकर उनके पास आते हैं। तब भी वे तत्काल शिष्य को स्वीकार नहीं कर लेते, वरन् उनकी जाँच करके ही स्वीकार करते हैं। स्वीकार करने के बाद वे शिष्य के शरीर में शक्तिपात करते हैं जिससे शिष्य में पहले से पाई जाने वाली वासनाएं दूर होने लगती हैं और वह क्रमशः गुरु की इच्छा और आदेश के अनुसार व्यवहार करने लगता है। यह कार्य प्रायः ऐसे ढंग से होता कि शिष्य को खबर भी नहीं पड़ती वह अपने को स्वतंत्र स्वाधीन समझता रहता है, पर मंत्र उस पर निरन्तर प्रभाव डालकर उसे बदलता जाता है। शिष्य की जितनी इच्छायें और प्रवृत्तियाँ गुरु के विपरीत होती हैं, वे तरह-तरह के उपायों से दूर हो जाती हैं और अन्त में वह पूर्णतया गुरु की आज्ञाधीन उनका अनुवर्ती हो जाता है। इसीलिये कहा गया है कि मनुष्य अगर प्रयत्न करे तो कभी-कभी बाघ के मुँह में से भी छुटकारा पा जाता है पर अलौकिक शक्ति सम्पन्न गुरु जिसको एक बार पकड़ लेते हैं, अर्थात् स्वीकार करके शरण में ले लेते हैं, वे शिष्य हजार प्रयत्न करने पर भी उनसे छूटकर अलग नहीं हो सकते, अर्थात् वे गुरु की कल्याणकारी इच्छा के विपरीत अकल्याणकारी मार्ग पर नहीं चल सकते इसके उद्देश्य की पूर्ति के लिये गुरु तरह-तरह विचित्र उपाय भी करते हैं। इसलिये साधारण मनुष्यों के उचित है कि यदि गुरु का कोई व्यवहार उनकी समझ में न आवे अथवा उलटा जान पड़े, तो वे तुरन्त ही उनके विषय में भली-बुरी कल्पना न कर बैठें। जीवतत्व, ईश्वर तत्व भाग्य तत्व की अपेक्षा भी गुरु और गुरुतत्व अधिक गहन, गंभीर है।

       हिन्दू शास्त्रों के अनुसार मंत्र की महिमा बहुत अधिक है और हमारे पूर्वज अति प्राचीन काल से इसका प्रयोग करके आत्म कल्याण और परमार्थ करते रहे हैं। अब भी करोड़ों व्यक्ति नियमित रूप से मंत्र जपते रहते हैं, परंतु मंत्र-रहस्य और मंत्र-विज्ञान से ठीक-ठीक परिचित न होने से यथोचित फल प्राप्त नहीं कर सकते। इसलिये वे बार-बार मंत्र को बदलते हैं, गुरु को बदलते हैं और अंत में निराश होकर मंत्र को त्याग देते हैं और साथ-साथ मंत्र, शास्त्र तथा मंत्र वेत्ता गुरुओं की मूर्खता पूर्ण निन्दा और चर्चा करने में लग जाते हैं। यह सब इसी कारण होता है कि वे अपने उपयुक्त गुरु प्राप्त करने में सफल नहीं होते। अगर वे सच्चे गुरु द्वारा मंत्र के जप व साधन का ठीक मार्ग जान सकें तो वे भी प्राचीन काल के धर्मात्मा लोगों के समान संसार में सुखपूर्वक रहते हुए भी परमात्मा को प्राप्त कर सकते हैं। हमारे देश के वैदिक काल के ऋषि-मुनि अधिकाँश में गृहस्थी ही थे और लौकिक कार्यों में लगे रहते थे, तो भी वे सत्यंऔर शिवंमें संलग्न रह कर सुन्दरजीवन बनाने का मार्ग बतला गये हैं। अगर अब भी हमारे गुरुओं और शिष्यों द्वारा उस वेद-विज्ञान सम्मत विधि-विधान और अनुशासन को शिरोधार्य करते हुये जीवन निर्माण किया जाये तो इस मायामय संसार और भौतिक पदार्थों का यथावत भोग करते हुए आनन्दमय, कल्याणकारी जीवन को प्राप्त किया जा सकता है।

   सविता देवः वः श्रेष्ठतमाय कर्मणे प्रार्पयतु= परमेश्वर की प्रार्थना उपाषना उसके सानिद्धय के साथ विद्वानों के सहयोग से यह संभव होगा। मनन करने से जो त्राण करे, उसे मंत्र कहते हैं। मंत्रविद्या का विस्तार असीम है, उसमें अनेकानेक शब्दगुच्छक हैं। अनेक शब्दों में मंत्रों का विस्तार हुआ है। उनके जप तथा सिद्धिपरक अनेकानेक योगाभ्यास भी हैं, कर्मकांड भी, किंतु उन सबके मूल में एक ही ध्वनि आती है-वह है ओंकार। यही शब्दब्रह्म-नादब्रह्म की धुरी है। शब्दब्रह्म यदि मंत्र विज्ञान की पृष्ठभूमि बनाता है तो नादब्रह्म की साधना नादयोग का आधार बनती है। ओंकार के विराट ब्रह्मांड में गुंजन से ही सृष्टि की उत्पत्ति हुई है, यदि यह कहा जाए तो कोई अत्युक्ति नहीं होगी। नाद या शब्द से सृष्टि की उत्पत्ति व ताप, प्रकाश, आदि शक्तियों का आविर्भाव उसके बाद होता चला गया। इस प्रकार सृष्टि का मूल-इस निखिल ब्रह्मांड में संव्याप्त ब्राह्मी चेतना की धुरी यदि कोई है तो वह शब्द का नाद ही है। परमपूज्य गुरुदेव ने इस अनूठे किंतु जटिल विषय पर जिस सरलता से प्रतिपादन प्रस्तुत किया है, वह देखकर उसे पढ़कर आश्चर्यचकित होकर रह जाना पड़ता है। समस्त योगाभ्यासों का मूल ही-यहाँ तक कि परमात्मा तक पहुँचने के मार्ग का द्वार ही शब्दब्रह्म-नादब्रह्म है। इसे समझ कर उसे कैसे आत्मसात् किया जाए कैसे अपने अंदर छिपे पड़े प्रसुप्त के जखीरे को जगाया जाए यह सारा मार्ग दर्शन वाड्मय के इस खंड में है। शब्दब्रह्म-नादब्रह्म की विधा भारतीय अध्यात्म की एक महत्त्वपूर्ण धारा है। जहाँ शब्दब्रह्म में मंत्र-जप, नामोच्चारण, प्रार्थना, समूहिक साधना आदि की महत्ता है, वहाँ नादब्रह्म में नादयोग एवं संगीत की। यह तो मोटा वर्गीकरण हुआ। इस खंड में शब्दब्रह्म की साधना व नादब्रह्म की साधना के जटिल पक्षों को खोला गया है एवं जन-जन के लिए उसे सुगम बनाने का प्रयास किया गया है। पुराणों में एक आख्यायिका आती है। देवर्षि नारद ने एक बार लंबे समय तक यह जानने के लिए प्रव्रज्या की कि सृष्टि में आध्यात्मिक विकास की गति किस तरह चल रही है? वे जहाँ भी गए, प्रायः प्रत्येक स्थान में लोगों ने एक ही शिकायत की भगवान परमात्मा की प्राप्ति अति कठिन है। कोई सरल उपाय बताइये, जिससे उसे प्राप्त करने, उसकी अनुभूति में अधिक कष्ट साध्य तितीक्षा का सामना न करना पड़ता हो। नारद ने इस प्रश्न का उत्तर स्वयं भगवान् से पूछकर देने का आश्वासन दिया और स्वर्ग के लिए चल पड़े। आपको ढूँढ़ने में तप-साधना की प्रणालियाँ बहुत कष्टसाध्य हैं, भगवन्! नारद ने वहाँ पहुँचकर विष्णु से प्रश्न किया-ऐसा कोई सरल उपाय बताइए, जिससे भक्तगण सहज ही में आपकी अनुभूति कर लिया करें?

     नाहं वसामि वैकुण्ठे योगिनां हृदये न वा। मद्भक्ता: यत्र गायन्ति तत्र तिष्ठामि नारद॥ नारद संहिताः-हे नारद! न तो मैं वैकुंठ में रहता हूँ और न योगियों के हृदय में, मैं तो वहाँ निवास करता हूँ, जहाँ मेरे भक्त-जन कीर्तन करते हैं, अर्थात् संगीतमय भजनों के द्वारा ईश्वर को सरलतापूर्वक प्राप्त किया जा सकता है। इन पंक्तियों को पढ़ने से संगीत की महत्ता और भारतीय इतिहास का वह समय याद आ जाता है, जब यहाँ गाँव-गाँव प्रेरक मनोरंजन के रूप में संगीत का प्रयोग बहुलता से होता था। संगीत में केवल गाना या बजाना ही सम्मिलित नहीं था, नृत्य भी इसी कला का अंग था। कथा, कीर्तन, लोक-गायन और विभिन्न धार्मिक एवं सामाजिक पर्व-त्यौहार एवं उत्सवों पर अन्य कार्यक्रमों के साथ संगीत अनिवार्य रूप से जुड़ा रहता था। उससे व्यक्ति और समाज दोनों के जीवन में शांति और प्रसन्नता, उल्लास और क्रियाशीलता का अभाव नहीं होने पाता था। अक्षर परब्रह्म परमात्मा की अनुभूति के लिए वस्तुतः संगीत साधना से बढ़कर अन्य कोई अच्छा माध्यम नहीं, यही कारण रहा है कि-यहाँ की उपासना पद्धति से लेकर कर्मकांड तक में सर्वत्र स्वर संयोजन अनिवार्य रहा है। मंत्र भी वस्तुतः छंद ही है। वेदों की प्रत्येक ऋचा का कोई ऋषि कोई देवता तो होता ही है, उसका कोई न कोई छंद जैसे ऋयुष्टुप, अनुष्टुप, गायत्री आदि भी होते हैं। इसका अर्थ ही होता है कि उस मंत्र के उच्चारण की ताल, लय और गतियाँ भी निर्धारित हैं। अमुक फ्रीक्वेन्सी पर बजाने से ही अमुक स्टेशन बोलेगा, उसी तरह अमुक गति, लय और ताल के उच्चारण से ही मंत्र सिद्धि होगी-यह उसका विज्ञान है। कोलाहल और समस्याओं से घनीभूत संसार में यदि परमात्मा का कोई उत्तम वरदान मनुष्य को मिला है, तो वह संगीत ही है। संगीत से पीड़ित हृदय को शांति और संतोष मिलता है। संगीत से मनुष्य की सर्जन शक्ति का विकास और आत्मिक प्रफुल्लता मिलती है। जन्म से लेकर मृत्यु तक, शादी विवाहोत्सव से लेकर धार्मिक समारोह तक के लिए उपयुक्त संगीत निधि देकर परमात्मा ने मनुष्य की पीड़ा को कम किया, मानवीय गुणों से प्रेम और प्रसन्नता को बढ़ाया। शास्त्रकार कहते हैं-"स्वरेण संल्लीयते योगी" "स्वर साधना द्वारा योगी अपने को तल्लीन करते हैं" और एकाग्र की हुई, मनःशक्ति को विद्याध्ययन से लेकर किसी भी व्यवसाय में लगाकर चमत्कारिक सफलताएँ प्राप्त की जा सकती हैं, इसलिए वह मानना पड़ेगा कि संगीत दो वर्ष के बच्चे से लेकर विद्यार्थी, व्यवासायी, किसान, मजदूर, स्त्री-पुरुष सबको उपयोगी ही नहीं आवश्यक भी है। उससे मनुष्य की क्रियाशक्ति बढ़ती और आत्मिक आनंद की अनुभूति होती है। यह बात ऋषि मनीषियों ने बहुत पहले अनुभव की थी और कहा था-"अभि स्वरन्ति बहवो मनीषिणो राजानमस्य भुवनस्य निंसते।" ऋग्वेद 6 / 85 / 3 अर्थात्-अनेक मनीषी विश्व के महाराजाधिराज भगवान् की ओर संगीतमय स्वर लगाते हैं और उसी के द्वारा उसे प्राप्त करते हैं। एक अन्य मंत्र में बताया है कि ईश्वर प्राप्ति के लिए ज्ञान और कर्मयोग मनुष्य के लिए कठिन है। भक्ति-भावनाओं से हृदय में उत्पन्न हुई अखिल करुणा ही वह सर्व सरल मार्ग है, जिससे मनुष्य बहुत शीघ्र, परमात्मा की अनुभूति कर सकता है और उस प्रयोजन में भक्ति-भावनाओं के विकास में संगीत का योगदान असाधारण है-स्वरन्ति त्वा सुते नरो वसो निरेक उक्थिनः। ऋग्वेद 8 / 33 / 2 हे शिष्य! तुम अपने आत्मिक उत्थान की इच्छा से मेरे पास आये हो। मैं तुम्हें ईश्वर का उपदेश करता हूँ, तुम उसे प्राप्त करने के लिए संगीत के साथ उसे पुकारोगे तो वह तुम्हारी हृदय गुहा में प्रकट होकर अपना प्यार प्रदान करेगा। पौराणिक उपाख्यान है कि ब्रह्मा जी के हृदय में उल्लास जागृत हुआ तो वह गाने लगे। उसी अवस्था में उनके मुख से गायत्री छंद प्रादुर्भूत हुआ-गायत्री मुखादुदपतदिति च ब्राह्मणम्। -निरुक्त 7 / 12 गान करते समय ब्रह्मा जी के मुख से निकलने के कारण गायत्री नाम पड़ा। संगीत के अदृश्य प्रभाव को खोजते हुए भारतीय योगियों को वह सिद्धियाँ और अध्यात्म का विशाल क्षेत्र उपलब्ध हुआ, जिसे वर्णन करने के लिए एक पृथक वेद की रचना करनी पड़ी। सामवेद में भगवान् की संगीत शक्ति के ऐसे रहस्य प्रतिपादित और पिरोये हुए हैं, जिनका अवगाहन कर मनुष्य अपनी आत्मिक शक्तियों को, कितनी ही तुच्छ हों-भगवान् से मिला सकता है। अब इस सम्बंध में पाश्चात्य विद्वानों की मान्यताएँ भी भारतीय दर्शन की पुष्टि करने लगी हैं। विदेशों में विज्ञान की तरह ही एक शाखा विधिवत संगीत का अनुसंधान कर रही है और अब तक जो निष्कर्ष निकले हैं, वह मनुष्य को इस बात की प्रबल प्रेरणा देते हैं कि यदि मानवीय गुणों और आत्मिक आनंद को जीवित रखना है तो मनुष्य अपने आपको संगीत से जोड़े रहे। संगीत की तुलना प्रेम से की गई है। दोनों ही समान उत्पादक शक्तियाँ हैं, इन दोनों का ही प्रकृति (जड़ तत्त्व) और जीवन (चेतन तत्त्व) दोनों पर ही चमत्कारिक प्रभाव पड़ता है। "संगीत आत्मा की उन्नति का सबसे अच्छा उपाय है, इसलिए हमेशा वाद्य यंत्र के साथ गाना चाहिये।" यह पाइथागोरस की मान्यता थी; पर डॉ। मैकफेडेन ने वाद्य अपेक्षा गायन को ज़्यादा लाभकारी बताया है। मानसिक प्रसन्नता की दृष्टि से पाइथागोरस की बात अधिक सही लगती है। मैकफेडेन ने लगता है, केवल शारीरिक स्वास्थ्य को ध्यान में रखकर ऐसा लिखा है। इससे भी आगे की कक्षा आत्मिक है, उस सम्बंध में कविवर रवींद्रनाथ टैगोर का कथन उल्लेखनीय है। श्री टैगोर के शब्दों में स्वर्गीय सौंदर्य का कोई साकार रूप और सजीव प्रदर्शन है, तो उसे संगीत ही होना चाहिये। रस्किन ने संगीत को आत्मा के उत्थान, चरित्र की दृढ़ता कला और सुरुचि के विकास का महत्त्वपूर्ण साधन माना है। विभिन्न प्रकार की सम्मतियाँ वस्तुतः अपनी-अपनी तरह की विशेष अनुभूतियाँ हैं, अन्यथा संगीत में शरीर, मन और आत्मा तीनों को बलवान् बनाने वाले तत्त्व परिपूर्ण मात्रा में विद्यमान हैं, इसी कारण भारतीय आचार्यों और मनीषियों ने संगीत शास्त्र पर सर्वाधिक जोर दिया। साम वेद की स्वतंत्र रचना उसका प्रणाम है। समस्त स्वर-ताल, लय, छंद, गति, मंत्र, स्वर, चिकित्सा, राग, नृत्य, मुद्रा, भाव आदि साम वेद से ही निकले हैं। किसी समय इस दिशा में भी भारतीयों ने योग सिद्धि प्राप्त करके, यह दिखा दिया था कि स्वर साधना के समक्ष संसार की कोई और दूसरी शक्ति नहीं। उसके चमत्कारिक प्रयोग भी सैकड़ों बार हुए हैं।

     अकबर की राज्य- सभा में संगीत प्रतियोगिता रखी गई। प्रमुख प्रतिद्वंद्वी थे तानसेन और बैजूबावरा। यह आयोजन आगरे के पास वन में किया गया। तानसेन ने टोड़ी राग गाया और कहा जाता है कि उसकी स्वर लहरियां जैसे ही वन खंड में गुंजित हुईं, मृगों का एक झुंड वहाँ दौड़ता हुआ चला आया। भाव-विभोर तानसेन ने अपने गले पड़ी माला एक हरिण के गले में डाल दी। इस क्रिया से संगीत प्रवाह रुक गया और तभी सब के सब सम्मोहित हरिण जंगल में भाग गये। टोड़ी राग गाकर तानसेन ने यह सिद्ध कर दिया कि संगीत मनुष्यों की ही नहीं, प्राणिमात्र की आत्मिक-प्यास है, उसे सभी लोग पसंद करते हैं। इसके बाद बैजूबाबरा ने मृग रंजनी टोड़ी राग का अलाप किया। तब केवल एक वह मृग दौड़ता हुआ राज्य-सभा में आ गया, जिसे तानसेन ने माला पहनाई थी। इस प्रयोग से बैजूबावरा ने यह सिद्ध कर दिया कि शब्द के सूक्ष्मतम कंपनों में कुछ ऐसी शक्ति और सम्मोहन भरा पड़ा है कि उससे किसी भी दिशा के कितनी ही दूरस्थ किसी भी प्राणी तक अपना संदेश भेजा जा सकता है।

      शब्द को ब्रह्म कहा गया है। शब्द ब्रह्म-नाद ब्रह्मशब्दों का उपयोग शास्त्र में अनेक स्थानों पर आया है। यह उक्ति अलंकार नहीं-वरन् यथार्थ है। हाँ, यदि ध्वनि मात्र को यह उपमा दी जाएगी तो उसे उपहासास्पद समझा जाएगा । जिह्वा स्वर यन्त्र है। वाद्य यन्त्र पर उलटी सीधी अंगुली से आघात लगाये जाएँ तो आवाज भर होगी। क्रमबद्ध, तालबद्ध, राग-रागिनी निकालनी हो तो उसके लिए सधे हाथ एवं प्रशिक्षित मस्तिष्क का भी योगदान आवश्यक है। जिव्हा से बोले गये मन्त्र वाद्य-यन्त्र पर जैसे जैसे अंगुली चलाने की तरह है, उतने भर से दीपक राग या मेघ मल्हार जैसे प्रभावोत्पादक परिणामों की अपेक्षा नहीं की जा सकती । जिव्हा से उच्चरित शब्द सामान्यतया जानकारियों के आदान प्रदान का उद्देश्य पूरा करते हैं। एक व्यक्ति शब्द माध्यम से अपनी अनुभूति एवं जानकारी दूसरे तक पहुँचा सकता है। इसमें भी आवश्यक नहीं कि जिससे जो कहा गया है वह उसे उसी रूप में स्वीकार कर ले। कारण कि आजकल वचन छल का दौर दौरा है। लोग एक दूसरे को ठगने की दृष्टि से कपट वचन बोलने की कला में प्रवीण हो चले है। अस्तु सुनने वाले को फूँक-फूँक कर कदम रखना होता है और देखना पड़ता है कि कथन में छल, प्रपंच की दुरभिसंधियाँ तो घुसी हुई नहीं है। कितना कथन संदिग्ध हो सकता है, इसकी खोज करने में सुनने वाला लगता है। जितना अंश गले उतरता है, उतने पर ध्यान देकर शेष को उपेक्षा के गर्त में फेंक देता है। जब सामान्य व्यवहार तक में वाणी की यह दुर्गति हो रही हो। उच्चारण को अविश्वस्त और अप्रमाणिक मानने की परम्परा चल रही हो तो उससे व्यावहारिक आदान प्रदान तक की आवश्यकताएँ पूरी नहीं होती। फिर आध्यात्मिक प्रयोजन तो पूरे हो ही कैसे सकेंगे । इस कठिनाई को ध्यान में रखते हुए ही मन्त्राराधन में वाणीमात्र से सम्भव हो सकने वाले क्रिया-काण्डों को महत्त्व नहीं दिया गया है। जीभ से तो लोग आये दिन कथा, कीर्तन, भजन, पाठ, जप आदि के माध्यम से तरह तरह के चित्र विचित्र वचन बोलते रहते हैं। यदि उतने भर से धर्मचर्या के उद्देश्य पूरे हो जाया करते तो फिर सरलता की अति ही कही जाती। छोटे छोटे लाभ प्राप्त करने के लिए मनुष्य को कठोर श्रम करने, साधन जुटाने एवं मनोयोग लगाने की आवश्यकता पड़ती है तब कहीं आधी अधूरी सफलता का योग बनता है। अध्यात्म क्षेत्र जितना उच्चस्तरीय है उतनी ही उसकी विभूतियाँ भी बहुमूल्य है। निश्चित रूप से उसके लिए प्रयास भी अपेक्षाकृत अधिक कष्ट साध्य ही होते हैं। यदि उतने बड़े लाभ मात्र जिव्हा से अमुक शब्दावली दुहरा देने भर से प्राप्त हो जाया करते तो उन्हें पाने से कोई भी वंचित न रहता, पर इतना सस्तापन है कहाँ ? महत्त्व की दृष्टि से हर वस्तु का मूल्य निर्धारित है। अध्यात्म उपलब्धियों में शब्द शक्ति की महत्ता बताई और महिमा गाई गई है। मन्त्राराधन के फलस्वरूप मिलने वाले लाभों का वर्णन विस्तारपूर्वक शास्त्रों में भरा पड़ा है, पर उसे शब्द चमत्कार भर नहीं मान लिया जाना चाहिए। यदि उच्चारण ही सब कुछ रहा होता तो साधन ग्रन्थ पढ़ने वाली से प्रेस कर्मचारी और, पुस्तक विक्रेता पहले ही लाभान्वित हो लेते। पाठक को उनका बचा-खुचा ही शायद कुछ हाथ लगता। शब्दोच्चारण में जप के अति सरल कर्मकाण्ड के लिए थोड़ा-सा संयम लगा देने में किसी को क्या कुछ असुविधा होगी ? उतना तो कोई बालक नासमझ या वृद्ध अशक्त भी कर सकता है, फिर समर्थ व्यक्ति तो उसे उत्साहपूर्वक करते और भरपूर लाभ उठाते। ऐसा कहाँ होता है ? लाभों का महात्म्य विस्तार पढ़ते हुए भी कुछ करने के लिए कहाँ किसी का उत्साह होता है। शब्द ब्रह्म-शब्दों में जो गहन रहस्य छिपा है वह यह है कि अध्यात्म प्रयोजनों में प्रयुक्त होने वाली शब्दावली को उच्चस्तरीय होना चाहिए। वह इतनी परिष्कृत हो कि उसकी पवित्रता, प्रामाणिकता एवं क्षमता को ईश्वर के समतुल्य ठहराया जा सके। इसके लिए कई लोग स्वर विन्यास की बात सोचते हैं और अनुमान लगाते हैं कि मन्त्रों में उच्चारण का जो स्वर क्रम बताया गया है, उसे जान लेने से काम बन जाएगा । यह मान्यता भी तथ्य की दिशा में एक छोटा कदम भर ही है। इस चिन्तन में इतनी सी जानकारी है कि हमारे क्रिया कृत्यों को अनगढ़ नहीं-सुव्यवस्थित होना चाहिए। भले ही वह उच्चारण ही क्यों न हो? वाणी को शिष्टाचार-सन्तुलन सभ्यता का अंग माना जाता है। जो ऐसे ही अण्ड-बण्ड बोलते रहते हैं वे असभ्य कहलाते और तिरस्कार के पात्र बनते हैं। ऐसी दशा में मन्त्र प्रयोजनों में यदि उसके साथ जुड़े हुए व्यवस्था नियमों का पालन किये जाने का निर्देश है तो उसका पालन होना ही चाहिए। इसमें सतर्कता एवं जागरूकता अपनाये जाने की बात दृष्टिगोचर होती है। यह दिशा उत्साहवर्धक है। इससे प्रमाद पर अंकुश लगने और व्यवस्था अपनाने में उत्साह उत्पन्न होने का बोध होता है, यह उचित भी है और आशाजनक भी। मन्त्रों का उच्चारण शुद्ध हो। सही हो। गति का ध्यान रहे। स्वर, लय, क्रम, विराम आदि को जाना माना जाय। यह अनगढ़पन से मन्त्र चार की सभ्यता में प्रवेश करने का कदम है। पूजा, उपचार के अन्य कर्मकाण्डों में भी यह सतर्कता बरती जानी चाहिए। आलसी प्रमादियों की तरह आधी-अधूरी चिह्न पूजा करने की बेगार भुगत लेने से तो अश्रद्धा ही टपकती है। अन्य मनस्कता एवं उपेक्षापूर्वक किये गये नित्य कर्म तक बेतुके बेढंगे होते हैं, इस स्वभाव से तो आजीविका उपार्जन जैसे काम तक असफल जैसे बने रहते हैं, फिर अध्यात्म मार्ग की उपलब्धियों में तो उसका परिणाम अवरोध उत्पन्न करने के अतिरिक्त और कुछ हो ही क्या सकता है ?

      उच्चारण से लेकर विधि-विधान तक में सुव्यवस्था एवं सतर्कता बरती जानी चाहिए किन्तु इतने भर से ही यह नहीं मान लेना चाहिए कि हमारे उच्चारण मन्त्रबन गये और उन्हें शब्द ब्रह्म की संज्ञा मिल गई। इसके लिए वाणी को वाक्के रूप में परिष्कृत करना होगा। यह स्वर साधना नहीं वरन् जीवन साधना के क्षेत्र में होने वाला प्रयोग है। इसके लिए समूचे व्यक्तित्व को मन, वचन, कर्म को, गुण कर्म स्वभाव को, चिन्तन एवं चरित्र को, उच्चस्तरीय बनाने के भागीरथ प्रयत्न में जुटना होता है। मन्त्रोच्चारण की विधि-व्यवस्था कुछ घण्टों में सीखी जा सकती है। उसका परिपूर्ण अभ्यास कुछ दिनों में हो सकता है। किन्तु व्यक्तित्व की मूल सत्ता का स्तर ऊँचा उठाना काफी कठिन है। उसके लिए प्रबल पुरुषार्थ की आवश्यकता पड़ती है। दूसरों को सुधारने में जितनी कठिनाई पड़ती है, अपने को सुधारना उससे भी अधिक कष्ट साध्य और श्रम साध्य है। जिव्हा उच्चारण तन्त्र है। अन्य वाद्य यन्त्रों की तरह उसका सही होना तो प्राथमिक आवश्यकता है। मन्त्र की शब्दावली शुद्ध हो। भाषा की अशुद्धियाँ न हों। प्रवाह एवं स्वर ठीक हो। इसके अतिरिक्त जिव्हा साधना की दृष्टि से सामान्य व्यवहार में उसके रसना प्रयोजन एवं वार्ताक्रम में साधकों जैसी रीति नीति का समावेश किया जाय। अति की, हराम की कमाई न खाई जाय। परिश्रम और न्याय के सहारे जितना कुछ कमाया जा सके उतने में ही मितव्ययितापूर्वक गुजारा किया जाय। चटोरेपन की बुरी आदत से लड़ा जाय और सात्विक सुपाच्य पदार्थों को औषधि भाव से उतनी ही मात्रा में लिया जाय जितनी कि पेट की आवश्यकता एवं क्षमता है। इस दृष्टिकोण को अपनाने वाले के लिए मद्य, माँस जैसे अभक्ष्य को ग्रहण करने की तो बात ही क्या-उत्तेजक मसाले और नशीले पदार्थों-मिष्ठान्न पकवानों तक से परहेज करने की जरूरत स्पष्ट है। सात्विक आहार से मनः क्षेत्र में सात्विकता बढ़ती है और उससे अनेकों दोष−दुर्गुण जो अभक्ष्य खाते रहने पर छुट नहीं सकते थे, अनायास ही घटते-मिटते चले जाते हैं। अस्वाद व्रत पालन करने वाले के लिए अन्य इन्द्रियों पर काबू रख सकना सरल हो जाता है।

     आहार की सात्विकता का वाणी की पवित्रता पर गहरा असर पड़ता है। अभक्ष्य आहार से जिव्हा की सूक्ष्म शक्ति नष्ट होती है और उसके द्वारा उच्चरित शब्द आध्यात्मिक प्रयोजन पूरे कर सकने की क्षमता से रहित ही बने रहते हैं। वाणी का दूसरा कार्य है वार्त्तालाप। हमारे दैनिक जीवन में वार्तालाप का स्तर उच्चस्तरीय एवं आदर्श परम्पराओं से युक्त होना चाहिए। कटुता घृणा, तिरस्कार, छल, असत्य का पुट उसमें न रहे। दूसरों को भ्रम में डालने, कुमार्ग पर चलने की प्रेरणा देने वाले, हिम्मत तोड़ने वाले शब्द न बोले। यह नियंत्रण मात्र सतर्कता बरतने से नहीं हो सकता है। उपचार में भी बार-बार भूल होती रहती है। वस्तुतः हमारे भीतर सद्भावों का इतना गहरा पुट हो कि वाणी पर नियन्त्रण करने की आवश्यकता ही न पड़े। जो भीतर होता है वही बाहर निकलता है। यदि हमारे अन्तःकरण में सद्भावनाएँ भरी होंगी दृष्टिकोण आदर्शवादी होगा तो स्वभावतः वार्तालाप में उच्चस्तरीय श्रेष्ठता भरी होगी। सद्भाव सम्पन्न मनुष्यों का सामान्य वार्तालाप भी शास्त्र वचन के स्तर का होता है उनके मुख से निकलने वाले वाक्य आप्त वाक्यकहलाने योग्य होते हैं। इस प्रकार का वार्ता-अभ्यास जिव्हा को दैवी प्रयोजनों के उपयुक्त बनाता चला जाता है। उसके द्वारा जिन मन्त्रों की आराधना की जाती है वे सफल ही होते चले जाते हैं। मन्त्र को धीमे जपा जाता है। शब्दावली अस्पष्ट एवं धीमी रहती है। बहुत बार तो वाचिक से भी अधिक महत्त्व मानसिक और उपाँशु का होता है। उनमें तो वाणी नाम मात्र को ही होती है। किन्तु इन मौन जपों में भी मध्यमा, परा, पश्यन्ती, वाणियाँ काम करती रहती है। यह तीनों वाणियाँ मनुष्य के दृष्टिकोण, चरित्र एवं आकांक्षा से सम्बन्धित रहती है। यदि व्यक्ति ओछा, घटिया और दुष्ट है। उसकी आकांक्षाएँ निकृष्ट, दृष्टिकोण विकृत एवं चरित्र भ्रष्ट है तो तीनों सूक्ष्म वाणियाँ निम्नस्तरीय ही बनी रहेंगी और उनका समन्वय रहने में बैखरी वाणी तक प्रभावहीन संदिग्ध एवं अप्रामाणिक बनी रहेगी उसका साँसारिक उपयोग कोई महत्त्वपूर्ण परिणाम उत्पन्न न कर सकेगा फिर उसके द्वारा की गई मन्त्र साधना तो सफल हो ही कैसे सकती है ? मन्त्र जप की सरल विधि के साथ कठिन साधना यह है कि उसके लिए जिव्हा समेत समस्त उपकरणों का परिशोधन करना पड़ता है। जो तथ्य को समझते हैं वे साधनाओं के विधि-विधान तक सीमित न रह कर जीवन-प्रक्रिया को उच्चस्तरीय बनाने की सुविस्तृत रूपरेखा तैयार करते हैं। उस प्रयास में जिसे जितनी सफलता मिलेगी उसके जप तप उसी अनुपात में सफल होते देखे जा सकेंगे । शब्द ब्रह्म का साक्षात्कार इसी मार्ग पर चलने से सम्भव होता है। समूची आत्मसत्ता को परिष्कृत बनाने से वाणी की परिणित वाक्शक्ति में होती है। वाक् शक्ति का प्रभाव असीम है। उसकी सहायता से असम्भव को भी सम्भव किया जा सकता है।

     शतपथ ब्राह्मण में शब्द ब्रह्म का विवेचन करते हुए कहा गया है। परा वाक् उसका मर्मस्थल है। परा वाक् का रहस्योद्घाटन करते हुए बताया है-वह हृदयस्पर्शी है प्रसुप्त को जगाती है। स्वर्ग, मुक्ति और सिद्धि का आधार वही है। देवताओं के अनुग्रह वरदान का केन्द्र उसी में है। इस विश्व में जो कुछ श्रेष्ठता है वह वाक् की प्रतिध्वनि एवं प्रतिक्रिया ही समझी जानी चाहिए। वैखरी वाणी जब साधना सम्पन्न होकर वाक्बनती है तो उसका विस्तार श्रवण क्षेत्र तक सीमित न रह कर तीनों लोकों की परिधि तक व्यापक होता है। वाणी में ध्वनि है ध्वनि में अर्थ। किन्तु वाक् शक्ति रूपा है। उसकी क्षमता का उपयोग करने पर वह सब जीता जा सकता है। जो जीतने योग्य है। कौत्स मुनि ने मन्त्र अक्षरों के अर्थ की उपेक्षा होती है और कहा है कि उनकी क्षमता शब्द गुँथन के आधार पर समझी जानी चाहिए। उसमें वाक्तत्त्व ही प्रधान रूप से काम करता है। इस परावाक्का स्तवन करते हुए श्रुति कहती है।

     देवी वाचमजनयन्त देवास्ताँ, विश्वरूपाः पशवो वदन्ति। सा नो मंद्रेष्षमूर्ग दुहाना, धेनुर्वागस्मानुपसुष्टुवैतु॥ प्रा वाक् देवी है। विश्व रूपिणी है। देवताओं की जननी है। देवता मन्त्रात्मक ही है। यही विज्ञान है। इसे कामधेनु हम बोलते और जानते हैं।

 मैं वायु के समान संसार रूप शरीर में प्राण हूं- Rig-Veda

मैं तुम सब का अमृत हूं- Rig -Veda

मैं ही तुम सब का पिता हूं- Rig-Veda

मैं तुम्हारा शासक हूं- Rig Veda

मैं तुम्हारे समीप ही हूं- Rig Veda

मैं ही अंगों का रस अङ्गिरस हूं-Rig Veda

मैं ही सत्या का रक्षक हूं- Rig Veda

मैं ही सभी ऐश्वर्यों का पर ऐश्वर्य रूप परम धन हूं Rigved

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अग्नि सुक्तम् - अग्निमीळे पुरोहितं यज्ञस्य देवमृत्विजम्

PART-2- BRAHM KOWLEDGE

BRAHMA-KNOWLEDGE-PART-1

S’rimad Devî Bhâgavatam THE FIRST BOOK

Chapter XV-XVI-XVII-XVIII-XIX-XX-XXI-XII

S’rimad Devî Bhâgavatam THE FIRST BOOK Chapter XIII-XIV

S’rimad Devî Bhâgavatam THE FIRST BOOK Chapter XI-XII

S’rimad Devî Bhâgavatam THE FIRST BOOK Chapter IX-X

S’rimad Devî Bhâgavatam THE FIRST BOOK Chapter VII-VIII

S’rimad Devî Bhâgavatam THE FIRST BOOK Chapter V-VI

S’rimad Devî Bhâgavatam THE FIRST BOOK Chapter III-IV

S’rimad Devî Bhâgavatam THE FIRST BOOK Chapter I-II

VISHNU PURANA. - BOOK III. CHAP -16,17,18

VISHNU PURANA. - BOOK III. CHAP. XV.

VISHNU PURANA. - BOOK III.  CHAP. XIV.

VISHNU PURANA. - BOOK III.  CHAP. XIII.

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VISHNU PURAN BOOK III.CHP-1

Self – Suggestion- Chapter 8

Self-Suggestion Chapter 7

Self-Suggestion- Chapter 6

चंद्रकांता (उपन्यास) पहला अध्याय : देवकीनन्दन खत्री

खूनी औरत का सात खून (उपन्यास) : किशोरी लाल गोस्वामी

ब्राह्मण की बेटी : शरतचंद्र चट्टोपाध्याय (बांग्ला उपन्यास)

Self – Suggestion -Chapter 5

Self - Suggestion - Chapter 4

Self-Suggestion -- Chapter 3

SELF SUGGESTION Chapter 2

SELF-SUGGESTION AND THE NEW HUNA THEORY OF MESMERISM AND HYPNOSIS – chapter-1, BY- MAX FREEDOM LONG

VISHNU PURAN - BOOK II.

VISHNU PURAN-BOOK I - CHAPTER 11-22

VISHNU PURANA. - BOOK I. CHAP. 1. to 10

Synopsis of the Vishnu Purana

Introduction of All Puranas

CHARACTER-BUILDING.

SELF-DE-HYPNOTISATION.

THE ROLE OF PRAYER. = THOUGHT: CREATIVE AND EXHAUSTIVE. MEDITATION EXERCISE.  

HIGHER REASON AND JUDGMENT= CONQUEST OF FEAR.

THE GREAT EGOIST--BALI

QUEEN CHUNDALAI, THE GREAT YOGIN

CREATION OF THE UNIVERSE

THE WAY TO BLESSED LIBERATION

MUDRAS MOVE THE KUNDALINI

LOCATION OF KUNDALINI

SAMADHI YOGA

THE POWER OF DHARANA, DHIYANA, AND SAMYAMA YOGA.

THE POWER OF THE PRANAYAMA YOGA.

INTRODUCTION

KUNDALINI, THE MOTHER OF THE UNIVERSE.

TO THE KUNDALINI—THE MOTHER OF THE UNIVERSE.

Yoga Vashist part-1 -or- Heaven Found   by   Rishi Singh Gherwal   

Shakti and Shâkta -by Arthur Avalon (Sir John Woodroffe),

Mahanirvana Tantra- All- Chapter  -1 Questions relating to the Liberation of Beings

Mahanirvana Tantra

Tantra of the Great Liberation

Translated by Arthur Avalon

(Sir John Woodroffe)

Introduction and Preface

CONCLUSION.

THE VAMPIRE'S ELEVENTH STORY.

THE VAMPIRE'S TENTH STORY.

THE VAMPIRE'S NINTH STORY.

THE VAMPIRE'S EIGHTH STORY.

THE VAMPIRE'S SEVENTH STORY.

THE VAMPIRE'S SIXTH STORY.

THE VAMPIRE'S FIFTH STORY.

THE VAMPIRE'S FOURTH STORY.

THE VAMPIRE'S THIRD STORY.

THE VAMPIRE'S SECOND STORY.

THE VAMPIRE'S FIRST STORY.

श्वेतकेतु और उद्दालक, उपनिषद की कहानी, छान्द्योग्यापनिषद, GVB THE UNIVERSITY OF VEDA

यजुर्वेद मंत्रा हिन्दी व्याख्या सहित, प्रथम अध्याय 1-10, GVB THE UIVERSITY OF VEDA

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