मैं ही
तुम सब का अमृत हूँ- Rig-Veda
ओ३म् वायवा याहि दर्शतेमे सोमा अरंकृताः। तेशां पाही श्रुधि हवम्॥ ऋग्वेद सुक्त
2.1
ऋग्वेद के प्रथम सुक्त में प्रभू
स्वयं को अग्नि कह कर सम्बोधित करते है और इस दूसरे सुक्त में वह कहते है कि वह वायु
के समान है, इसके पिछे एक बहुत महत्त्वपूर्ण कारण है उसको समझ ले, जैसा कि हम सब इस सासांर किसी वस्तप को समझने के लिये उदारहरण
को देते है इस संसार के लौकिक वस्तुओं का, वहीं यहाँ पर भी हो रहा है अर्थात परमेंश्वर स्वयं को जिस वस्तु
को जानते है उसी वस्तु से हम सब को समझ रहा है। परमेश्वर को समझाने का तरिक अलौकिक
और अद्भुत है। हम सब अग्नि को और जल को बहुत अच्छि तरह से जानते है और इनको अपने दैनिक
जीवन में प्रयोग भी करते है बिना इनके उपभोग के हमारा जीवन इस पृथ्वी पर बहुत कठीन
और दुस्कर होगा। जैसा कि हम सब जानते है कि यह सब कुछ उर्जा से बना है हम सब भी इस
उर्जा से ही बने है। जैसा कि आज का वैज्ञानिक कहते है। यह बात बहुत पुरानी है और यह
सब वेद के मंत्रो के द्वारा प्रतिपादित हो रहा है। जैसा कि हमने पिछे चर्चा किया था
किस तरह से जल का एक अणु अपने अन्दर दो कणों को मिला कर एक परमाणु बनाता है। जिसमें
एक आक्सिजन है दूसरा हाइड्रोजन के कण है। इसमें जो आक्सिजन है वहीं वायु है,
इस प्रकार से यह जल का जो एक परमाणु है इसमें-इसमें अग्नि,
जल, वायु यह तिन तत्व मुख्य रूप से उपस्थित है।
यह वायु क्या है और किससे निर्मित
है? जैसा कि
हम सब को हमारे आज के विज्ञान ने बताय है कि यह जल और अग्नि एक रासायनिक अभिक्रिया
के कारण ही इस रूप में हम सब को प्राप्त होते है और यह वायु इनमें ही व्याप्त है,
इस तरह से यह मुख्य तिन तत्व हुए जिसको हम सब त्रैत वाद कह सकते
है इन तीन से ही और दूसरे तत्व प्रकट होते है। जिसमें आकाश और पृथ्वी भी है। यह पहले
एक परमाणु के रूप में प्रकट हुये, यह परमाणु कैसे प्रकट हुआ? यह भी एक प्रस्न है तो इसके उत्तर में यह है। ऐतरेय उपनिषद कहता
है।
आत्मा वा इदमेक एवाग्र आसीत्। नान्यत्
किंचन मिषत्। स ईक्षत लोकान्नु सृजा इति॥1.1.1॥
सर्व प्रथम इस श्रृष्ठि के पहले केवल
यह एक आत्मा ही विद्यमान था और इसके अतिरिक्त जीवन की आखं को झपकाने वाला कोई नहीं
था। उस आत्मा ने यह श्रृष्टि उत्पन्न अर्थात श्रृष्टि के सर्जन करने कि इच्छा जागृत
हुई।
स इमाँल्लोकानसृजत। अम्भो मरीचीर्मरमापोऽदोऽम्भः
परेण दिवं द्यौः प्रतिष्ठाऽन्तरिक्षं मरीचयः। पृथिवी मरो या अधस्तात्ता आपः॥1.1.2॥
उस आत्मा ने अम्भ,
मरिचि, मर और आप इन लोको कि रचना की। जो द्युलोक से परे है स्वर्ग लोक
जिसकी प्रतिष्ठा है वह अम्भ है, अन्तरिक्ष (भुवर्लोक) मरिची है पृथ्वी मर लोक है जो पृथ्वी के
निचे है वह आप है।
उसने आत्मा ने विचार किया कीं मैं
लोकों को अर्थात इस संसार विश्वब्रह्मण्ड का सर्जन करु और फिर उसने इस विश्वब्रह्माण्ड
को रचा, इनको रचने के लिये उसने जल का उपयोग किया जो यहाँ मरने वाला विर्य है। जिसके लिये
यहाँ पर मरिची कहा जा रहा है। इस से सभी मरने वाले तत्व जैसे पृथ्वी,
जल, अग्नि, वायु और आकाश इत्यादि अन्तरिक्ष के साथ ही विराट पुरुष को वह
रचा जिसकी शरीर ही यह विश्वब्रह्माणड है।
स ईक्षतेमे नु लोकाः लोकपालान्नु सृजा
इति। सोऽद्भ्य एव पुरूषं समुद्धृत्यामूर्च्छयत्॥1.1.3॥
और इस पुरुष को उसने लोकपाल बनाया
इन सब का स्वामी जो इस मृत्युलोक के सभी जड़ और मरने वाले पदार्थों कि रखवाली कर सके
और इनको अपने नियंत्रण में रख सके.
तमभ्यतपत्तस्याभितप्तस्य मुखं निरभिद्यत
यथाऽण्डम्। मुखाद्वाग्वाचोऽग्निर्नासिके निरभिद्येतां नासिकाभ्याँ प्राणः प्राणाद्वायुरक्षिणी
निरभिद्येतामक्षीभ्याँ चक्षुश्चक्षुष आदित्यः कर्णौ निरभिद्येतां कर्णाभ्याँ श्रोत्रं
श्रोत्राद्दिशस्त्वङनिरभिद्यत त्वचो लोमानि लोमभ्य ओषधि वनस्पतयो हृदयं निरभिद्यत हृदयान्मनो
मनसश्चन्द्रमा नाभिर्निरभिद्यत नाभ्या अपानोऽपानान्मृत्युः शिश्नं निरभिद्यत शिश्नाद्रेतो
रेतस आपः॥1.1.4॥
इसके बाद उसने इस पुरुष को तपाया
और जब वह पुरुष तप गया तो उसका मुख खुला। जैसे अण्डा फटता है मुक से वाणी निकली,
वाणी से अग्नि निकली, जिससे उस विराट पुरुष के दोने नाशिकायें खुली और नासिकाओं से
प्राण निकला और प्राण से वायु निकली, जिससे दोनों आखों के गोलक बने और दोनों आखें खुली। आखों से चक्षु
देखने का इन्द्रिय निकला, चक्षु से सूर्य निकला। इसके पश्चात कान खुले और कानो से श्रोत्र
निकले, श्रोत्र से दिशाये निकली, च्वचा खुली और त्वचा से लोम अर्थात रोए आदि निकले,
(स्पर्श इन्द्रिय) और लोमों से औषधिया,
वनस्पत्तियाँ निकली, हृदय खुला और हृदय से मन निकला, मन से चन्द्रमा। नाभी खुली और नाभी से अपान निकला और अपान से
मृत्यु निकली, जिसस शिश्न खुला और शिश्न से विज निकला और विज से जल निकला।
सर्वप्रथम जब कुछ भी नहीं था शिवाय
परमेश्वर के इस परमेश्वर ने शब्द का उच्चारण किया अपने अदृश्य मुख से जिससे यह शब्द
जो ध्वनी रूप थी अनन्त में व्याप्त हो कर उर्जा का सुक्ष्मतर रूप में प्रकट हुई और
यह उर्जा ही परमाणु रूप हुया और इस परमाणु को सर्वप्रथम तिन भागों में जाना गया जिसको
ही हम सब सत, रज, तम के रूप में जानते है और यह तिन तत्व मिल कर ही किसी पदार्थ के परमाणु को उत्पन्न
करते है। जैसा कि हम सबने जाना कि यह परमाणु तिन कणों से मिल कर बना है इसमें ही यह
तीन कण अग्नि, इन तीनों को सात-सात रूपों में भिभक्त किया गया है। पहले अग्नि के सात रूपो के
नाम इस प्रकार से बताये गये है। वेद के प्रधान देवताऔं में से एक। विशेष—ऋगवेद का प्रादुर्भाव इसी से माना जाता है। वेद में अग्नि के
मंत्र बहुत आधिक है। अग्नि की सात जिह्वाएँ मानी गई है जिनके अलग-अलग नाम है,
जैसे—काली, कराली, मनोजवा,
सुलोहिता, धूम्रवर्णा, उग्रा और प्रदीप्ता। इसी प्रकार से वायु भी सात रूप में बताई
गई है।
सात लोक हैं: पहले 3 भूलोक,
भुवर्लोक और स्वर्गलोक। इन तीनों को त्रैलोक्य कहते हैं। ये
त्रैलोक्य नाशवान लोक हैं। दूसरे 3 जनलोक,
तपोलोक तथा सत्यलोक-ये तीनों अनश्वर या नित्य लोक हैं। नित्य
और अनित्य लोकों के बीच में महर्लोक की स्थिति मानी गई है। उक्त 7 में त्रैलोक्य की वायु
का वर्णन है।
आपको यह जानकर आश्चर्य होगा कि वेदों
में वायु की 7 शाखाओं के बारे में विस्तार से वर्णन
मिलता है। अधिकतर लोग यही समझते हैं कि वायु तो एक ही प्रकार की होती है,
लेकिन उसका रूप बदलता रहता है, जैसे कि ठंडी वायु, गर्म वायु और समान वायु, लेकिन ऐसा नहीं है। दरअसल, जल के भीतर जो वायु है उसका वेद-पुराणों में अलग नाम दिया गया
है और आकाश में स्थित जो वायु है उसका नाम अलग है। अंतरिक्ष में जो वायु है उसका नाम
अलग और पाताल में स्थित वायु का नाम अलग है। नाम अलग होने का मतलब यह कि उसका गुण और
व्यवहार भी अलग ही होता है। इस तरह वेदों में 7 प्रकार की वायु का वर्णन
मिलता है।
ये 7 प्रकार हैं-1.प्रवह, 2.आवह, 3.उद्वह, 4. संवह, 5.विवह, 6.परिवह और 7.परावह। 1. प्रवह: पृथ्वी को लांघकर मेघमंडलपर्यंत जो वायु स्थित है,
उसका नाम प्रवह है। इस प्रवह के भी प्रकार हैं। यह वायु अत्यंत
शक्तिमान है और वही बादलों को इधर-उधर उड़ाकर ले जाती है। धूप तथा गर्मी से उत्पन्न
होने वाले मेघों को यह प्रवह वायु ही समुद्र जल से परिपूर्ण करती है जिससे ये मेघ काली
घटा के रूप में परिणत हो जाते हैं और अतिशय वर्षा करने वाले होते हैं। 2.
आवह: आवह सूर्यमंडल में बंधी हुई है। उसी के द्वारा ध्रुव से
आबद्ध होकर सूर्यमंडल घुमाया जाता है। 3. उद्वह: वायु की तीसरी शाखा का नाम उद्वह है,
जो चन्द्रलोक में प्रतिष्ठित है। इसी के द्वारा ध्रुव से सम्बद्ध
होकर यह चन्द्र मंडल घुमाया जाता है। 4. संवह: वायु की चौथी शाखा का नाम संवह है,
जो नक्षत्र मंडल में स्थित है। उसी से ध्रुव से आबद्ध होकर संपूर्ण
नक्षत्र मंडल घूमता रहता है। 5. विवह: पांचवीं शाखा का नाम विवह है और यह ग्रह मंडल में स्थित
है। उसके ही द्वारा यह ग्रह चक्र ध्रुव से सम्बद्ध होकर घूमता रहता है। 6.
परिवह: वायु की छठी शाखा का नाम परिवह है,
जो सप्तर्षिमंडल में स्थित है। इसी के द्वारा ध्रुव से सम्बद्ध
हो सप्तर्षि आकाश में भ्रमण करते हैं। 7. परावह: वायु के सातवें स्कंध का नाम परावह है,
जो ध्रुव में आबद्ध है। इसी के द्वारा ध्रुव चक्र तथा अन्यान्य
मंडल एक स्थान पर स्थापित रहते हैं।
हमारी सफलता का राज क्या है?
यहाँ कौन नहीं चाहता है कि वह अपने जीवन में सफल हो और अपनी
मन चाही मंजिल को इस संसार में उपलब्ध करें। जैसा कि हम सब जानते है लेकिन इस जीवन
में सफल बहुत हि कम व्यक्ती होते है। जो सफलता को उपलब्ध करते है,
इसके पिछे कारण क्या है? आज हम उन सभी मुख्य कारणों पर बिचार करेगें और भरसक प्रयाश करेंगे
उनको किस प्रकार से दूर किया जा सकता है।
पहली बात यह कि जीवन में सफलता का
चाहना हि ज़रूरी नहीं है, मैं ऐसे बहुत लोगों को अच्छी तरह से जानता हूँ कि जो चाहते तो
बहुत कुछ है लेकिन उसको वह अपने जीवन में सफलता उपलब्ध नहीं कर पाते है। वह हमेंशा
समय से पिछे रहते है। समय हमेंशा उनसे आगे रहता है। वह सब कुछ जितना चाहते है लेकिन
स्वयं को हार कर यह कैसे संभव है। सफलता का यह पहला सबक है कि हम सबसे पहले अपने मन
बचन कर्म से स्वयं को संतुलित करें और एक रास्ते पर चलते रहते रहे मंजिल जब तक नहीं
पहूंच जाते है।
माना कठिनाई बहुत बड़ी है यहाँ कोई
कार्य आसान नहीं है सफलता को प्राप्त करने के लिये सिर्फ़ ज़रूरी यह नहीं है कि आप परिश्रम
करते है ज़रूरी यह है कि सही दिशा में लम्बे समय तक परिश्रम करना होगा। हम जब समाज में
नजर दौड़ाते है तो देखते है कि एक से बढ़ कर एक महा पुरुष हो चुके है जिन्होंने बहुत
अधिक कठिन परिस्थियों में अपने दिमाग का संतुलन बनाये रखा। और अपने जजीवन कि कमियों
को दूर करके अपने जीवन कि सफलता को उपलब्ध किया। आज हमारे समाज में सबससे बड़ी कुरिती
के रूप में जो कुछ उभर रहा है वह है निर्धनता बिमारी अपाहिजपना इसके चुगंल में अक्सर
लोग फंस जाते है और इससे पार होने का मार्ग उनके जीवन में उन्हे नहीं दिखाई देता है।
जब आपका समय खराब होता है तो सब आपके खिलाफ हो जाते है। यहाँ तक आपकी प्रकृति भी आपका
साथ नहीं देती है। आपको जीने से अच्छा मरना लगता है और कितने लोग यह रास्ता चुन लेते
है। अर्थात अपनी आत्म हत्या का यह रास्ता आसान नहीं है बहुत किठिन है लेकिन जब आदमी
हर प्रकार से निराश हो जाता है और लड़ते-लड़ते बुरी तरह से थक जाता है उसको अपने जीवन
में कहीं से भी आशा कि रौशनि नहीं दिखाई देती है। तो वह क्या करें वह आदमी बहुत अधिक
मजबुर और निराशा को घनघोर बदलों से अपने आपको घिरा हुआ पाता है।
मैं ऐसे ही एक आदमी को जानता हूँ
जो आत्महत्या के लिये तैयार हो चुका ता और वह प्रयाश कर रहा था स्वयं को समाप्त करने
का, जब मैंने
उससे पूछ कि भाई तुम इतना सुन्दर जीवन को छोड़ कर मरने के लिये क्यों उतावले हो चुके
हो? तो उस आदमी
ने अपने जीवन के सामाप्त करने का कारण मुझसे बताने लगा, वह कोई 40 साल का व्यक्ती था।
उसने कहा कि मैं अब इस संसार से लड़ते-लड़ते बुरी तरह से थक चुका हूआ मुझे किसी प्रकार
कि सफलता नहीं मिली है। आज तक मैं हर क्षेत्र हारा बुरी तरह से पराजित हूआ हूँ मुझे
अब जिने कि इच्छा नहीं है मैं अब मरना चाहता हूं। मेरा इस दुनिया में कोई नहीं है मेरा
पिरवार मेरी सहायता के योग्य नहीं है। मेरी पत्नी और बच्चों कि मृत्यु हो चुकी है इस
तंगी और गरिबी कि मार झेलते हुए. मैं भी बहुत लंबे समय से परेसान चल रहा हूँ मुझे ऐसी
बिमारी ने पकड़ लिया है जिसका इलाज कराते-कराते थक चुका हूं और विमारी ठीक नहीं हो
रही वह मुझे अन्दर ही अन्दर से खोखला करती जा रही है। मैं इस विमारी को झेलते झलते
पुरी तरह से टुट चुका हूँ मेरा सारा धन जो भी मैने कमाया था। इस विमारी के इलाज में
खर्च कर दिया है। मेरे पास रहने खाने के लिये अब कुछ नहीं बचा है। मैं स्वयं को बहुत
असहाय और लाचार महशुस कर रहा हूँ मेरे पास इस आत्म हत्या के शिवाय कोई रास्ता नहीं
है।
मैने उस व्यक्ति कि बातों को बहुत ध्यान सुना और
मैने समझा कि वास्तव में बहुत गंभिर समस्या है, मैंने उससे कहा कि हिम्मत मत हारो, परमेस्वर पर भरोशा करों और पुरुषार्थ करों सफलता अवश्य मिलेगी।
उसने कहा जिस शरीर से पुरुषार्थ करना है। वह ही अब बेकार हो रही है यह किसी कार्य को
पुरी तरह से करने में सफलता नहीं प्राप्त कर रही है। मैंने कहा कि शरीर से काम उतना
ही लो जितना यह करने में समर्थ है। काम अपने मन और अपने आत्मा से लो और उसको द्वारा
ही चिन्तन करो और हिम्मत मत हारो हौशला बनाकर रखो, इस तरह से आत्महत्या करने से तो तुम्हारी आत्मा को और अधिक कष्ट
होगा। यद्यपि यदि तुम पुरुषार्थ करोगों तो हो सकता है कि तुम्हारी समस्या का समाधान
मिल जाये। सबसे बड़ी उस आदमि की समस्या उसकी निर्धनता थी, दूसरी समस्या उसको ऐसे विमारी ने पकड़ लिया था,
जिसका इलाज कराने पर भी वह ठीक नहीं हो रही थी। तीसरी समस्या
उसकी थी कि उसका कोई साथ देने वला नहीं था। चौथी समस्या थी कि उसके पास रहने खाने के
लिये भी पर्याप्त साधन नहीं था। ऐसी स्थिति में उसको मर जाना ही अपनी सारी समस्या का
समाधान ठीक लग रहा था। क्योंकि वह अपनी विमारी से बुरी तरह से टुट चुका था। केवल एक
बात पर मुझको उस पर दया आ रही ही थी। कि उसकी उम्र कोई बहुत अधिक अभी नहीं थी। मैंने
कहा कि तुम बिल्कुल ठीक विचार रहे हो कि तुम्हारी आत्महत्या से ही तुम्हारी समस्या
का समाधान संभव है। क्योकि अब तुम्हारे लिये जब इस दूनिया के सभी दरवाजे बन्द हो चुके
है और जो सबसे बड़ा साधन तुम्हारी शरीर है, वह भी तुम्हार साथ नहीं दे रही है। तो फिर तुम किसके सहारे जि
सकते हो, यहाँ तक तुम्हारे पास अपने रहने के लिये भी कोई स्थान नहीं है,
इसके अतिरिक्त खाने के लिये भी नहीं है। तो मर ही जाओं यही ठीक
है। लेकिन मैं तुमसे केवल एक ही बात कहहना चाहता हूं कि अभी तुम्हारे लिये सारे रास्ते
बन्द नहीं है, यह आत्महत्या करना भी तो एक रास्ता ही है। जैसा कि मैं समझता हूँ कि ऐसी हमारे
समाज में व्यवस्था होनी चाहिए कि जब किसी को इस संसार में जिना इतना अधिक मुस्किल हो
जाये। तो उसके पास यह अधिकार अवस्य हो की वह स्वयं को मार सके और कैसा मोह इस न्सवर
संसार का, मैं नहीं समझता कि क्या ठिक है क्या ग़लत हैं? मैं समझता हूँ कि यही उसके जिवन कि सबसे बड़ी सफलता है। स्वयं
को इस नरक पूर्ण शरीर से मुक्त करने का। यदि आप सब को कोई दूसार रास्ता समय में आये
तो अवस्य सूचित करें क्या मरने के अतिरिक्त कोई दूसरा रास्ता है तो वह कौन-सा है?
हमारी सफलता का एक सबसे बड़ा राज यह मृत्यु भी हो सकता है। यदि
हम इसका प्रयोग करना जानते है तो जैसा कि वह आदमी कर रहा है जो इस दूनिया के सभी रास्ते
बन्द होने पर भी अपने लिये दूसरे दरवाजे को खोलने की बात कर रहा है जहाँ कोई मृत्यु
नहीं है यह मृत्यु भी एस दरवाजे की तरह से जो हमे इस नस्वर शरीर और नस्वर संसार से
मुक्त कर सकता है।
जो कुछ इन आँखों से देखते हैं क्या
यही संसार है? इस प्रश्न का उत्तर हाँ में ही दिया जा सकता है, पर वह वस्तुतः नितान्त बालकों को ही होगा। वस्तुतः जो कुछ हम
देखते हैं वह उन अस्तित्वों का अति स्वल्प अंश है जिसे हम देख नहीं सकते। न केवल खुली
आँखों से वरन् सूक्ष्मदर्शी यन्त्र भी उन्हें देखने में ही नहीं अनुभव करने में भी
असमर्थ रहते हैं।
कई बार दृश्य के अदृश्य में और अदृश्य
के दृश्य में परिणत होने की घटनाएँ घटित होती रहती हैं और वे इतनी विचित्र होती हैं
कि उन्हें भूत-प्रेत, देवी-देवता की करतूत, सिद्धि चमत्कार अथवा अतीन्द्रिय चेतना की अनुमति आदि कहकर मन
समझाना पड़ता है। वास्तविकता क्या है इसका सही पता लगा सकना और उन अद्भुत घटनाओं का
समाधान करण विश्लेषण कर सकना प्रायः सम्भव नहीं हो पाता।
इस संदर्भ में आये दिन जहाँ-तहाँ घटित
होने वाली घटनाओं में से दो इस प्रकार है-
(1) मनीला की यू0पी0 आई नामक प्रामाणिक समाचार एजेन्सी ने
पूरी खोज बीन के पश्चात एक समाचार प्रकाशित कराया था कि-कार्नेलियो क्लोजा नामक एक
बारह वर्षीय छात्र जब तक अनायास ही अदृश्य हो जाता है। स्कूल के क्लास से गायब हो जाना
और दो-दो दिन बाद वापिस लौटना आरम्भ में लड़के की चकमेबाजी समझा गया। किन्तु पौधे उसके
दिये गये ब्यौरे पर ध्यान देना पड़ा। वह कहता था कोई समवयस्क परी जैसी लड़की उसे खेलने
के लिए अपने पास बुलाती हैं और वह रुई की तरह हलका होकर उसके साथ खेलने,
उड़ने लगता है। पुलिस ने बहुत खोज की उस पर विशेष पहरा बिठाया
गया। यहाँ तक कि उसके पिता ने कमरे में बन्द रखा तो भी उसका गायब होना रुका नहीं। पीछे
किसी पादरी के मंत्रोच्चार से वह संकट दूर हुआ।
(2) फ्राँसीसी वैज्ञानिक सेलारियर जिनकी विश्वासनीयता पर किसी को उंगली उठाने का साहस
नहीं हो सकता। उनने एक घटना का उल्लेख किया है-पैरिस की एक प्राचीन प्रतिमा की जब वैज्ञानिकों
का एक दल परीक्षा कर रहा था तो वह मूर्ति देखते-देखते अदृश्य हो गई और उसके स्थान पर
एक दूसरी विशालकाय मूर्ति आ विराजी जो पहली की तुलना में कही बड़ी थी।
यह घटना अभी बहुत पुरानी नहीं हुई हैं
जिसमें टेनेसी राज्य के गालटिन नगर के एक घनी किसान डेविड लेंग के अचानक गायब हो जाने
के समाचार ने दूर-दूर तक आतंक पैदा कर दिया था और उस सम्बन्ध में भारी जाँच पड़ताल
हुई थी। वह किसी ज़रूरी काम से घर से बाहर जा रहा था कि देखते-देखते आंखों के सामने
से अदृश्य हो गया और फिर कभी नहीं लौटा। कोई ऐसी वजह भी नहीं थी जिससे वह जान-बूझकर
भाग जाता। हँसता-हँसाता यह कहकर घर से निकला था कि "अभी दस मिनट में आता हूँ।"
जिस स्थान से वह गायब हुआ था उसके आस-पास पंद्रह फुट के घेरे की घास बुरी तरह झुलस
गई थी। पुलिस तथा दूसरे खोजी सिर तोड़ प्रयत्न करने पर भी उसका कुछ पता न लगा सकें।
ऐसी घटनाओं की विवेचना करते हुए वैज्ञानिक
क्षेत्रों में कई प्रकार से चर्चा होती रहती है। अब विज्ञान इस निश्चय पर पहुँच चुका
है। कि मनुष्य की इन्द्रिय चेतना के आधार पर विकसित बुद्धि जितना जान पाता है,
दुनिया वस्तुतः उससे कहीं अधिक है। उसे न बुद्धि समझ पाती है
और न मानव निर्मित यन्त्र ही उसे पूरी तरह पकड़ पाते हैं। फिर भी कुछ विशेष सूक्ष्म
सम्वेदना वाले यन्त्र थोड़ी बहुत जानकारी कभी-कभी देते रहते हैं और यह सिद्ध करते हैं
कि प्रत्यक्ष दर्शन न केवल अधूरा वरन् भ्रामक भी है।
हम नित्य ही सूर्य की 'धूप' को देखते हैं। पर सच यह है कि धूप कभी भी नहीं देखी जा सकती।
उसके प्रभाव से प्रभावित पदार्थ विशेष स्तर पर चमकने लगते हैं,
यह पदार्थों की चमक है। सूर्य किरणें जो इस चमक का प्रधान कारण
है हमारी दृश्य शक्ति से सर्वथा परे है। अन्तरिक्ष में प्रायः पूरे सौरमण्डल को प्रकाशित
एवं प्रभावित करने वाली धूप वस्तुतः सोलर स्पेक्ट्रमा-सौरमण्डलीय वर्ण क्रम है। उसे
ऊर्जा की तरंगों एवं स्फुरणाओं की एक सुविस्तृत पट्टी कह सकते हैं। इस पट्टी में प्रायः
10 अरब प्रकार के रंग हैं। पर उनमें से हमारी आँखें लाल से लेकर
बैंगनी तक एक-एक रंग सप्तक की तथा उसके सम्मिश्रणों को ही देख पाती है। बाकी सारे रंग
हमारे लिए सर्वथा अदृश्य अपरिचित और अकल्पनीय है।
अब हम कुछेक सूक्ष्म किरणों की कीन्हीं
विशेष यन्त्रों की सहायता से देख समझ सकने में थोड़ा-थोड़ा समर्थ होते जाते हैं। जैसे
धूप में "इन्फ्रारेड" तरंगें देखी तो नहीं जाती पर जलन के रूप में अनुभव
होती है। इन किरणों का फोटोग्राफी में प्रयोग करके दुनिया का वास्तविक रंग विचित्र
पाया गया है। घास-पात, पेड़-पौधे, वस्तुतः बिल्कुल सफेद हैं, आसमान समुद्र बिल्कुल काले। जबकि पंक्तियाँ हरी और आसमान तथा
समुद्र नीले देखते हैं। इन किरणों की सहायता से अमेरिका ने क्यूबा में लगे रूसी प्रक्षेपणास्त्रों
के फोटो हवाई जहाज में खीचते थे। आश्चर्य यह कि उसमें वे उन जलती सिगरेटों के फोटो
भी आ गये जो 24 घण्टे पहले वहाँ के कर्मचारियों ने जलाई
थी और वे तभी बुझ भी गई थी। दृश्य जगत में पदार्थ समाप्त हो जाने पर भी वह अन्तरिक्ष
में अपनी स्थिति बनाये जा सकता है यह अजूबा हमें भूत और वर्तमान के बीच खिंची हुई लक्ष्मण
रेखा से आगे बढ़ा ले जाता है। जो वस्तु अपने अनुभव के अनुसार समाप्त हो गई वह भी अन्तरिक्ष
में 'वर्तमान'
की तरह यथावत मौजूद हैं, यह कैसी विचित्रता है।
ट्रेवर जेम्स ने इन्फ्रारेड मूवी
फ़िल्म के लिए प्रयुक्त होने वाले एक विशेष कैमरे आई॰ आर॰ 135 का उपयोग करके मोजाबें
रेगिस्तान के अन्तरिक्ष की स्थिति चित्रित की है। फ़िल्म में ऐसे पक्षी दिखाई पड़ते
हैं जो अपनी आँखों से कभी भी दिखाई नहीं पड़ते। जीवाणुओं की अपनी अनोखी दुनिया है वे
मिट्टी घास-पात, पानी और प्राणियों के शरीरों में निवास करते और अपने ढर्रे की मजेदार ज़िन्दगी जीते
हैं। पर हम उनमें से कुछ को ही सूक्ष्मदर्शी यन्त्रों से देख पाते हैं। बाकी तो इतने
सूक्ष्म है कि किसी भी यन्त्र की पकड़ में नहीं आते किन्तु अपने क्रिया-कलाप बड़ी शान
के साथ जारी रखते हैं।
शास्त्रकार ने उसे "अणोरणीयान्
महतों महीयान्" कहा है। परमाणु से भी गहरी-उसकी संचालनकर्ती सूक्ष्मता को देखा
और जाना तो नहीं जा सका पर उसका आभास पा लिया गया है। महतो महीयान की बात भी ऐसी ही
है। विशालकाय ग्रहपिण्ड और निहारिका समुच्चय अत्यन्त विशाल है इतना विशाल जिसकी तुलना
में अपना सौरमण्डल बाल बराबर भी नहीं हैं। फिर भी वह सब कुछ अधिक दूरी होने के कारण
दीखता नहीं। रेडियो, दूरबीनें जिन आकाशीय पिंडों का परिचय देती हैं यह आँखों से देखे
जा सकने वाले सितारों की तुलना में अत्यधिक विस्तृत हैं। आश्चर्य यह है कि यह रेडियो,
दूरबीनें भी पूरी धोखेबाज है वे अब से हजारों लाखों वर्ष पुरानी
उस स्थिति का दर्शन करती हैं जो सम्भवतः अब आमूलचूल ही बदल गई होंगी सम्भव है वे तारे
बूढ़े होकर मर भी गये हों जो हमारी रेडियो, दूरबीनों पर जगमगाते दीखते हैं।
अल्ट्रा वायलेट फोटोग्राफी से ऐसे
प्राणियों के अस्तित्व का पता चलता है जो हमारी समझ परख और प्रामाणिकता के लिए काम
में लाई जाने वाली सभी कसौटियों से ऊपर है। इन प्राणियों को 'प्रेत मानव' अथवा 'प्रेत प्राणी' कहा जाय तो कुछ अत्युक्ति न होगी। अब हमारे परिवार में यह अदृश्य
प्राणधारी भी सम्मिलित होने आ रहे हैं। सूक्ष्म जीवाणु की तरह उनकी हरकतें और हलचलें
भी अपने अनुभव की सीमा में आ जायेंगी।
हर्बर्ट गोल्डस्टीन ने अपने शोधर
निबन्ध "प्राँपगेशन ऑफ शार्ट रेडियो वेव्स" में यह सिद्ध करने का प्रयत्न
किये हैं कि वायुमण्डल में संव्याप्त अपवतानाँव प्रवणता के पर्दे से पीछे अदृश्य प्राणियों
की दुनिया है। वह दुनिया हमारे साथ जुड़ी हुई है और दृश्यमान सहचरों से कम प्रभावित
नहीं करती। वर्तमान सूक्ष्मदर्शी साधन अपर्याप्त हैं तो भी हमें निराश न होकर ऐसे साधन
विकसित करने चाहिए जो इस अति महत्त्वपूर्ण अदृश्य संसार के साथ हमारी अनुभव चेतना का
सम्बन्ध जोड़ सकें।
साधारणतया हमारी जानकारी पदार्थ के
तीन आयामों तक सीमित है-लम्बाई चौड़ाई और ऊँचाई. अब इसमें "काल" को चौथे
आयाम के रूप में सम्मिलित कर लिया गया है। आइंस्टीन ने अपने सापेक्षवाद सिद्धान्त की
विवेचना करते हुए यह समझाने का प्रयत्न किया है कि यह भौतिक संसार वस्तुतः "संयुक्त
चतुर्विस्तारीय दिक्−काल जगत" है। वे देश और काल की वर्तमान मान्यताओं को एक प्रकार
से सापेक्ष और दूसरे प्रकार से अपूर्व अवास्तविक मानते हैं।
कैलीफोर्निया विश्वविद्यालय के डा।
राबर्ट सिरगी अपने दल के साथ ऐसे उपकरण बनाने में संलग्न है जिनसे पदार्थ के चौथे आयाम
को समझ सकना सम्भव हो सकें। वे कहते हैं जो हम जानते और देखते हैं उनसे आगे की गतियाँ
और दिशाएँ मौजूद है, हम केवल तीन आयामों की परिधि में आने वाले पदार्थों का ही अनुभव
कर पाते हैं जबकि इससे आगे भी एक विचित्र दुनिया मौजूद है। उस विचित्रता को समझे बिना
हमारी वर्तमान जानकारियाँ बाल बुद्धि स्तर की ही बनी रहेगी। दृश्य का अदृश्य बन जाना
और अदृश्य का दिखाई देने लगना मोटी बुद्धि से बुद्धि भ्रम अथवा कोई दैवी चमत्कार ही
कहा जा सकता है। इतना होते हुए भी एक ऐसे सूक्ष्म जगत का अस्तित्व मौजूद हैं जो अपने
इस ज्ञात जगत की तुलना में न केवल अधिक विस्तृत वरन् अधिक शक्तिशाली भी है। भूतकाल
में उसे सूक्ष्म जगत एवं दिव्य लोक कहा जाता रहा हैं। उसमें पदार्थों का ही नहीं प्राणियों
का भी अस्तित्व मौजूद है। वे प्राणी मनुष्य की तुलना में बहुत छोटे भी हो सकते हैं
और बहुत बड़े भी। आवश्यकता एवं परिस्थितियाँ उनकी भी हो सकती है और जिस प्रकार हम उस
सूक्ष्म जगत के साथ सम्बद्ध जोड़ने को उत्सुक है उसी प्रकार वे भी हमारे सहचरत्व के
लिए इच्छुक हो सकते हैं। प्राणियों और पदार्थ का लुप्त एवं प्रकट होते रहना इन स्थूल
और सूक्ष्म जगत के बीच होते रहने वाले आदान प्रदान का एक प्रमाण हो सकता है।
सुप्रसिद्ध विज्ञान काथा लेखन एच0जी0वेल्स ने अपनी एक पुस्तक "दि इन विजिविल मौन" अदृश्य
मानव में उन सम्भावनाओं पर प्रकाश डाला है, जिनके अनुसार कोई अदृश्य वस्तुएँ दृष्टिगोचर होने लग सकती है।
इन विज्ञान की उन्होंने अपर्वतनाँक-रिफ्रैक्टिव इण्डिसेन्स-नाम देकर उसके स्वरूप एवं
क्षेत्र का विस्तृत वर्णन किया है।
हम ज्ञात को ही पर्याप्त न माने। प्रत्यक्ष
को ही सब कुछ न कहें। प्रस्तुत मस्तिष्कीय और यान्त्रिक साधनों को सीमित मानकर न चलें
और जो अविज्ञात है उसकी शोध में बिना किसी पूर्वाग्रह के लगे रहें तो इस अणोरणीयान
महतो महीयान जगत के वे रहस्य जानने की दिशा में अग्रसर हो सकते हैं जो अभी तक नहीं
जाने जा सकें।
मैं ही
तुम सब का पिता हूं- Rig-Veda
मैं
तुम्हारा शासक हूं- Rig Veda
मैं तुम्हारे
समीप ही हूं- Rig Veda
मैं ही
अंगों का रस अङ्गिरस हूं-Rig Veda
मैं ही
सत्या का रक्षक हूं- Rig Veda
मैं ही सभी
ऐश्वर्यों का पर ऐश्वर्य रूप परम धन हूं Rigved
I Am Ancestor
of all Ancestors -Rigved - मैं
ऋषियों का पुर्वज हूं
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S’rimad
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