मैं अहिंशा हूं- Yjur -Veda
अघ्न्याः= तुम अहिंसक बनोः- अहिंसक बनने से पहले हमें यह जानना होगा की अहिंसा
है क्या? “अहिंसा
परमो धर्मः धर्म हिंसा तथैव च: l (अर्थात् यदि अहिंसा मनुष्य का परम धर्म है और धर्म की रक्षा
के लिए हिंसा करना उस से भी श्रेष्ठ है) "अहिंसा" का अर्थ है सर्वदा तथा
सर्वदा (मनसा, वाचा और कर्मणा) सब प्राणियों के साथ द्रोह का अभाव। (अंहिसा
सर्वथा सर्वदा सर्वभूतानामनभिद्रोह: - व्यासभाष्य, योगसूत्र
2। 30)। अहिंसा के भीतर इस प्रकार सर्वकाल में केवल कर्म या वचन से ही सब जीवों के
साथ द्रोह न करने की बात समाविष्ट नहीं होती, प्रत्युत
मन के द्वारा भी द्रोह के अभाव का संबंध रहता है। योगशास्त्र में निर्दिष्ट यम तथा
नियम अहिंसामूलक ही माने जाते हैं। यदि उनके द्वारा किसी प्रकार की हिंसावृत्ति का
उदय होता है तो वे साधना की सिद्धि में उपादेय तथा उपकार नहीं माने जाते। "सत्य"
की महिमा तथा श्रेष्ठता सर्वत्र प्रतिपादित की गई है, परंतु यदि
कहीं अहिंसा के साथ सत्य का संघर्ष घटित हाता है तो वहाँ सत्य वस्तुत: सत्य न होकर
सत्याभास ही माना जाता है। कोई वस्तु जैसी देखी गई हो तथा जैसी अनुमित हो उसका उसी
रूप में वचन के द्वारा प्रकट करना तथा मन के द्वारा संकल्प करना "सत्य" कहलाता
है, परंतु यह वाणी भी सब भूतों के उपकार के लिए प्रवृत्त होती है, भूतों के
उपघात के लिए नहीं। इस प्रकार सत्य की भी कसौटी अहिंसा ही है। इस प्रसंग में वाचस्पति
मिश्र ने "सत्यतपा" नामक तपस्वी के सत्यवचन को भी सत्याभास ही माना है, क्योंकि
उसने चोरों के द्वारा पूछे जाने पर उस मार्ग से जानेवाले सार्थ (व्यापारियों का समूह)
का सच्चा परिचय दिया था। हिंदू शास्त्रों में अहिंसा, सत्य, अस्तेय
(न चुराना), ब्रह्मचर्य तथा अपरिग्रह, इन पाँचों
यमों को जाति, देश, काल तथा समय से अनवच्छिन्न होने के कारण समभावेन सार्वभौम तथा
महाव्रत कहा गया है (योगवूत्र 2। 31) और इनमें भी, सबका आधारा
होने से, "अहिंसा" ही सबसे अधिक महाव्रत कहलाने की योग्यता रखती है।
अंतर्ध्यान – अंहिंसा क्या है ? अहिंसा का एक साधारण अर्थ जो हमें बताया
जाता है – “हिंसा न करना” ही अहिंसा है । हिंसा नहीं करनी चाहिए
क्योंकि हिंसा करना पाप है जबकि अहिंसा परम धर्म है । क्या सही में अहिंसा का वही अर्थ
है जो हमें बताया जा रहा है, जो हमें सिखाया जा रहा है, जो हम सुनते
आ रहे हैं । ये विचार मेरे दिमाग में इसलिए आया क्योंकि अगर अहिंसा ही परम धर्मं होता
तो क्या कृष्ण जी ने पूरी गीता में अर्जुन को हथियार उठाने और युद्ध के लिए प्रेरित
करके अधर्म किया था ? वो गलत था या हमारे समझने में कुछ फेर है ? क्योंकि
अगर अहिंसा का अर्थ हिंसा न करना होता और अहिंसा ही परम धर्म होता तो क्या महाराणा
प्रताप, महाराणा सांगा, शिवा जी, रानी लक्ष्मीबाई, ये सब अधर्मी
थे क्या ? क्या अपनी मातृभूमि की रक्षा के लिए इन्होने जो युद्ध किये वो
केवल अधर्म का ही अनुसरण था ? रामायण में कहा गया है –“जननी धर्म
भूमिश्च, स्वर्गादपि गरीयसी”, तो उस मातृभूमि
की रक्षा के लिए जो हिंसा की जाए, वो अधर्म कैसे हो सकती है । जरूर कहीं कुछ गड़बड़ है, या तो गीता
और रामायण गलत बता रहे हैं या फिर “अहिंसा परमो धर्मः” को समझने
में कुछ भूल है । स्कन्द पुराण में लिखा है कि एक ब्राहमण भी यदि स्त्री रक्षा, गौ रक्षा
और कुटुंब की रक्षा के लिए शस्त्र उठा ले और लड़ते लड़ते मारा जाए तो उसकी गति उन परम
तपस्विओं के फल से भी कहीं अधिक होती हैं जो हजारों वर्षों से तपस्या कर रहे हैं ।
मैंने जब और ढूँढा तो मैंने मनुस्मृति का वो श्लोक पढ़ा जिसमें धर्म के दस लक्षण बताये
गए हैं –“धृति क्षमा दमोस्तेयं, शौचं इन्द्रियनिग्रहः
। धीर्विद्या सत्यं अक्रोधो, दसकं धर्म लक्षणम।। इसमें धर्म के दस लक्षण हैं पर कहीं भी अहिंसा
नहीं है, हाँ, अक्रोध अवश्य है । पर
अक्रोध और अहिंसा तो अलग अलग है ।फिर अहिंसा परम धर्म कैसे हुआ ? क्या ये
सारे शास्त्र, पुराण धर्म के बारे में कुछ गलत कह रहे हैं या हम अहिंसा को
कुछ गलत समझ रहे हैं ? इन सारी बातों पर बहुत विचार करने पर एक निष्कर्ष निकला कि अहिंसा
का अर्थ “हिंसा न करना” नहीं है अपितु अंहिंसा का जो संभव अर्थ
हो सकता है – “अकारण हिंसा न करना” । किसी
जीव को अकारण नुक्सान न पहुँचाना ही अहिंसा है, चाहे मानसिक
हो या शारीरिक क्योंकि हिंसा मानसिक भी हो सकती है । हाँ, यदि आपके
पास कारण है, यदि सामने कोई आताताई है, यदि कोई
किसी स्त्री का शोषण कर रहा है, यदि कोई आपके कुटुंब पर आघात करता हो, यदि कोई
आपकी मातृभूमि पर कब्ज़ा करने का प्रयास करता है तो हिंसा आवश्यक है और परम पुण्य की
प्राप्ति कराने वाली है। समय के साथ बहुत सी बातें और बहुत सा ज्ञान विलुप्त हो रहा
है, ऐसा इसलिए नहीं कि कलियुग है या फलाना है या ढिकाना है, वरन इसलिए क्योंकि हमने शब्दों के अर्थ
बदल दिए हैं। हम शब्दों के अर्थों पर उतना मनन नहीं करते जितना आवश्यक है क्योंकि ये
कार्य तो हमने विचारकों के लिए छोड़ दिया है। जो बाबा जी ने स्टेज पर से बता दिया वही
सही है, क्यों सही है ? अरे देखो कितने लोग इनको करते है । ये
क्या गलत कहेंगे ? इन्होने इतने शास्त्रों का अध्ययन किया है, ये क्या
गलत बात बोलेंगे ? ये जो खुद की बुद्धि को प्रयोग न करने वाली जो प्रवुत्ति है, ये जो खुद
को विचार न करने देने की प्रवृत्ति है, ये खतरनाक है। इसने ही धर्म का नाश किया है। आप केवल बाबाओं के
भाषण मत सुनिए, उनसे प्रश्न कीजिये । गुरु-शिष्य परम्परा कभी प्रचवन वाली नहीं
रही। उसमें शिष्य अपने अज्ञान को मिटाने के लिए अपने गुरु से विभिन्न प्रश्न करता है
और गुरु उन प्रश्नों का समाधान करते हैं। आप
भी प्रश्न कीजिये। पूछिए अपने गुरुओं से, बाबाओं से, डरिये मत
कि लोग क्या कहेंगे ? कहने दीजिये लोग जो कहते हैं, यदि आप
को सही में ज्ञान चाहिए तो आपको खड़े हो कर सवाल करने पड़ेंगे। चीजो को सही में समझना
होगा। धर्म क्या है इसके अंत तक जाना पड़ेगा। यदि आप धर्म को सझते हैं तो आपका जीवन
ऊर्ध्वगामी होगा अन्यथा जो बाबा जी कह रहे हैं उसे कीजिये और किसी भी बात को मान कर के उसे अपने जीवन
में उतारिये। आप समझ रहे हैं कि आप धर्म कर रहे हैं, पुण्य कार्य
कर रहे हैं किन्तु वास्तव में आपके जीवन में सिवाय कष्टों के कुछ नहीं है। इस बात को
समझना होगा कि तिलक छापे लगाने वाला आवश्यक नहीं कि पंडित हो, पंडित का
अर्थ तो है ग्यानी, जिसने वेद का, पुराणों का, शास्त्रों
का अध्ययन किया हो और न केवल अध्ययन किया हो वरन अध्ययन के बाद चिंतन भी किया हो। हर कोई इतना अध्ययन नहीं कर सकता, इसलिए समाज
में ब्राह्मण की परिकल्पना की गयी जिसका कार्य केवल समाज में ज्ञान का प्रचार और प्रसार
था (ब्राहमणों में कई टाइप होते थे, जिनमें सभी कार्य ज्ञान का प्रचार प्रसार नहीं होता था)। यदि आप को अपने जीवन में कोई कष्ट है, कोई समस्या
है तो राह चलते किसी तिलक छापे वाले से मत पूछिए, किसी भी
बाबा से मत पूछिए बल्कि अपने चारों ओर ऐसे
व्यक्ति को ढूंढिए जो सही में ग्यानी हो। ऐसे
व्यक्ति को, ऐसे गुरु को ढूंढना पड़ता है, वो आसानी
से नहीं मिलते। वो तम्बू डेरा लगा कर भाषण देने नहीं आते। पहले खुद को शिष्य बनाना पड़ेगा, सौम्य बनाना
पड़ेगा, ये मानना पड़ेगा कि जो मुझे जो आता है, जो मैंने
सीखा है वो पूर्ण नहीं है क्योंकि जब तक आपका खुद का गिलास खाली नहीं होगा, तब तक उसमें
और जल नहीं भरा जा सकता। जब आप ये मान लेंगे, गुरु आपको
मिलेगा और जब तक आप ये नहीं मानेगे, यकीन मानिए वो आपके सामने आकर निकल जाएगा और आप अपने अहंकार
में ही डूबे रहेंगे कि मैंने तो इतना अध्ययन किया है, मैंने तो
गीता पढ़ी है, मैंने तो फलाने गुरु जी से ज्ञान प्राप्त किया है, मुझे तो
सब पता है। जाने कितने पड़े हैं गीता पढ़ने
वाले, जाने कितने पड़े हैं पुराण पढने वाले जिन्हें पूरी पूरी गीता
कंठस्थ है किन्तु वो रट्टू तोते से ज्यादा कुछ नहीं…. वो केवल
शब्दों का अर्थ जानते हैं, बता सकते हैं कि कौन से पेज पर, कौन से
श्लोक में, क्या लिखा है लेकिन ये ज्ञान नहीं है, ज्ञान तो
बिना चिंतन के बिना मनन के आ ही नहीं सकता। आपको ऐसा चिंतन करना पड़ेगा। एक एक वाक्य पर, एक एक शब्द
पर, आपके दिमाग में प्रश्न आयेंगे, आप उनका
समाधान ढूंढिए, प्रश्न पूछिए अपने आप से, अपने गुरु
से तभी आपको आगे का रास्ता साफ़ दिखाई देगा।|
अहिंसा परमो धर्मः, अहिंसा
परमो दमः। अहिंसा परम दानं, अहिंसा परम तपः॥ अहिंसा परम यज्ञः अहिंसा परमो फलम्।
अहिंसा परमं मित्रः अहिंसा परमं सुखम्॥ महाभारत/अनुशासन पर्व (११५-२३/११६-२८-२९)
याद रखने वाली बात है अहिंसा का अर्थ है अकारण हिंसा न करना। जीव हत्या पाप है यदि अकारण हो किन्तु यदि वही जीव
आप पर आक्रमण कर दे तो उसका वध करना ही उचित है। यदि कोई आपको या आपकी स्त्री को, कुटुंब
को, गाय को और अन्यान्य प्राणियों को कष्ट पहुंचता है तो आपको भी
हिंसा करनी पड़ेगी और उस समय वह धर्म होगा। बस आपकी ओर से हिंसा शुरू नहीं होनी चाहिए
वो भी अकारण। तब ये अहिंसा ही धर्म बन जाती
है।
अहिंसा की कामना या हिंसा की वासना
से मुक्त हो जाने का क्या अर्थ है? बहुत मजे की बात है कि ये सारे भिन्न-भिन्न मार्ग बहुत गहरे
में कहीं एक ही मूल से जुड़े होते हैं। जब तक मनुष्य के मन में इंद्रियों का लोभ है, तब तक हिंसा
से मुक्ति असंभव है। जब तक आदमी इंद्रियों को तृप्त करने के लिए विक्षिप्त है, तब तक हिंसा
से मुक्ति असंभव है। इंद्रियां पूरे समय हिंसा कर रही हैं। जब आपकी आंख किसी के शरीर
पर वासना बन जाती है, तब हिंसा हो जाती है। तब आपने बलात्कार कर लिया। अदालत में नहीं
पकड़े जा सकते हैं आप, क्योंकि अदालत के पास आंखों से किए गए बलात्कार को पकड़ने का
अब तक कोई उपाय नहीं है। लेकिन जब आंख किसी के शरीर पर पड़ी और आंख मांग बन गई, काम बन
गई, वासना बन गई; और आंख ने एक क्षण में उस शरीर को चाह लिया, पजेस कर
लिया; एक क्षण में उस शरीर को भोगने की कामना का धुआं चारों तरफ फैल
गया–बलात्कार हो गया। आंख से हुआ, आंख शरीर
का हिस्सा है। आंख से हुआ, आंख के पीछे आप खड़े हैं। आंख से हुआ, आपने किया; हिंसा हो
गई। हिंसा सिर्फ छुरा भोंकने से नहीं होती, आंख भौंकने
से भी हो जाती है। इंद्रियां जब तक आतुर हैं भोगने को, तब तक हिंसा
जारी रहती है। इंद्रियां जब भोगने को आतुर नहीं रहतीं, तभी हिंसा
से छुटकारा है। जिसे हम हिंसा कहते हैं, वह कब पैदा होती है? यह सूक्ष्म
हिंसा छोड़ें; जिसे हम हिंसा कहते हैं, स्थूल, वह कब पैदा
होती है? वह तभी पैदा होती है, जब आपकी
किसी कामना में अवरोध आ जाता है, अटकाव आ जाता है। तभी पैदा होती है। अगर आप किसी के शरीर को
भोगना चाहते हैं और कोई दूसरा बीच में आ जाता है; या जिसका
शरीर है, वही बीच में आ जाता है कि नहीं भोगने देंगे–तब हिंसा शुरू होती
है। जब भी आपकी इंद्रियां भोगने के लिए कहीं कब्जा मांगती हैं और कब्जा नहीं मिल पाता, तभी हिंसा
शुरू हो जाती है। स्थूल हिंसा शुरू हो जाती है। सूक्ष्म हिंसा पहले, भाव हिंसा
पहले, फिर हिंसा सक्रिय होती और स्थूल बन जाती है। कृष्ण कहते हैं, अहिंसा
के मार्ग से भी, अर्थात इंद्रियों से जिसने अब मांगना छोड़ दिया, इंद्रियां
जिसके भिक्षापात्र न रहीं; इंद्रियों से जिसने छेदना छोड़ दिया, इंद्रियां
जिसके शस्त्र न रहीं; इंद्रियों से जिसने आक्रमण छोड़ दिया। ध्यान में जाना हो, तो पहले
प्रतिक्रमण। कभी आपने सोचा है कि प्रतिक्रमण का मतलब होता है, आक्रमण
से उलटा! आक्रमण का मतलब है, दूसरे पर हमला। प्रतिक्रमण का मतलब है, आक्रमण
की सारी शक्तियों को अपने में वापस लौटा ले जाना प्रतिक्रमण, आंख गई
आप पर आक्रमण करने को, तो हिंसा हो गई। और मैंने आंख को वापस लौटा लिया उसकी पूरी कामना
के साथ अपने भीतर, अपने भीतर, गहरे में वहां, जहां से उठती है कामना, वहीं उसे
ले गया वापस–तो यह हुआ प्रतिक्रमण। और जब प्रतिक्रमण हो, तभी ध्यान
हो सकता है, अन्यथा ध्यान नहीं हो सकता। क्योंकि आक्रमण करने वाली इंद्रियों
के साथ ध्यान कैसा? प्रतिक्रमण करने वाली इंद्रियों के साथ ध्यान फलित हो सकता है।
कृष्ण कहते हैं, अहिंसा के मार्ग से भी, अर्थात
आक्रमण जो नहीं कर रहा। अब ध्यान रखें, अगर ठीक से समझें, तो किसी
भी तल पर आक्रमण की कामना हिंसा है–किसी भी तल पर। सूक्ष्म से सूक्ष्म तल पर भी आक्रमण की इच्छा
हिंसा है। अनाक्रमण, प्रतिक्रमण, शक्तियों को लौटा लेना वापस अपने में–आंख लौट जाए आंख के
मूल में; कान लौट जाए कान के मूल में; स्वाद लौट
जाए स्वाद के मूल में; फैलाव बंद हो; सब सिकुड़ आए अपने मूल में–जब ऐसा प्रतिक्रमण फलित
हो, तब व्यक्ति ध्यान को उपलब्ध हो पाता है। अहिंसा का अर्थ है, प्रतिक्रमण, लौटना, हिंसा का
मतलब है, जाना दूसरे के ऊपर, किसी भी
रूप में दूसरे के ऊपर जाना। दूसरे पर जाना! यह हिंसा शत्रुतापूर्ण भी हो सकती है, मित्रतापूर्ण
भी हो सकती है। जो नासमझ हैं, वे शत्रुता के ढंग से दूसरे पर जाते हैं; जो होशियार
हैं, वे मित्रतापूर्ण ढंग से दूसरों के ऊपर जाते हैं। लेकिन जब तक
कोई दूसरे पर जाता है, तब तक हिंसा है। और जब कोई दूसरे पर जाता ही नहीं, अपने जाने
को ही वापस लौटा लेता है, तब अहिंसा है। इस अहिंसा के क्षण में भी वही हो जाता है, जो योगाग्नि
में जलकर होता है।
मैं ही
सब में सर्व श्रेष्ठ हूं- Yjur-Veda
मैं गुरुओं
का भी गुरु हूं- Rig-Veda
मैं
वायु के समान संसार रूप शरीर में प्राण हूं- Rig-Veda
मैं
तुम सब का अमृत हूं- Rig -Veda
मैं ही
तुम सब का पिता हूं- Rig-Veda
मैं
तुम्हारा शासक हूं- Rig Veda
मैं तुम्हारे
समीप ही हूं- Rig Veda
मैं ही
अंगों का रस अङ्गिरस हूं-Rig Veda
मैं ही
सत्या का रक्षक हूं- Rig Veda
मैं ही सभी
ऐश्वर्यों का पर ऐश्वर्य रूप परम धन हूं Rigved
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6
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संदीपनी गोस्वामितुलसीदासकृत हिंदी
अग्नि
सुक्तम् - अग्निमीळे पुरोहितं यज्ञस्य देवमृत्विजम्
S’rimad
Devî Bhâgavatam THE FIRST BOOK
Chapter
XV-XVI-XVII-XVIII-XIX-XX-XXI-XII
S’rimad Devî
Bhâgavatam THE FIRST BOOK Chapter XIII-XIV
S’rimad Devî
Bhâgavatam THE FIRST BOOK Chapter XI-XII
S’rimad Devî
Bhâgavatam THE FIRST BOOK Chapter IX-X
S’rimad Devî
Bhâgavatam THE FIRST BOOK Chapter VII-VIII
S’rimad Devî
Bhâgavatam THE FIRST BOOK Chapter V-VI
S’rimad Devî
Bhâgavatam THE FIRST BOOK Chapter III-IV
S’rimad Devî
Bhâgavatam THE FIRST BOOK Chapter I-II
VISHNU PURANA. -
BOOK III. CHAP -16,17,18
VISHNU PURANA. -
BOOK III. CHAP. XV.
VISHNU PURANA. -
BOOK III. CHAP. XIV.
VISHNU PURANA. -
BOOK III. CHAP. XIII.
VISHNU PURANA. -
BOOK III. CHAP. XII.
VISHNU PURANA. -
BOOK III. CHAP. XI.
VISHNU PURANA. -
BOOK III. CHAP. X
VISHNU PURANA. -
BOOK III. CHAP. IX
VISHNU PURANA. - BOOK
III. CHAP. VIII
VISHNU PURANA. -
BOOK III. CHAP. VII.
VISHNU PURANA. -
BOOK III. CHAP. VI
VISHNU PURANA. -
BOOK III. CHAP. V
VISHNU PURANA. -
BOOK III. CHAP. IV
VISHNU PURANA. - BOOK
III.- CHAP. III
VISHNU PURANA. -
BOOK III.- CHAP. II.
चंद्रकांता
(उपन्यास) पहला अध्याय : देवकीनन्दन खत्री
खूनी औरत का
सात खून (उपन्यास) : किशोरी लाल गोस्वामी
ब्राह्मण की
बेटी : शरतचंद्र चट्टोपाध्याय (बांग्ला उपन्यास)
SELF-SUGGESTION AND
THE NEW HUNA THEORY OF MESMERISM AND HYPNOSIS – chapter-1, BY- MAX FREEDOM LONG
VISHNU PURAN-BOOK I
- CHAPTER 11-22
VISHNU PURANA. -
BOOK I. CHAP. 1. to 10
THE ROLE OF PRAYER.
= THOUGHT: CREATIVE AND EXHAUSTIVE. MEDITATION EXERCISE.
HIGHER REASON AND
JUDGMENT= CONQUEST OF FEAR.
QUEEN CHUNDALAI, THE
GREAT YOGIN
THE POWER OF
DHARANA, DHIYANA, AND SAMYAMA YOGA.
THE POWER OF THE
PRANAYAMA YOGA.
KUNDALINI,
THE MOTHER OF THE UNIVERSE.
TO THE KUNDALINI—THE
MOTHER OF THE UNIVERSE.
Yoga Vashist part-1
-or- Heaven Found by Rishi Singh Gherwal
Shakti and Shâkta
-by Arthur Avalon (Sir John Woodroffe),
Mahanirvana Tantra-
All- Chapter -1 Questions relating to
the Liberation of Beings
Tantra
of the Great Liberation
श्वेतकेतु और
उद्दालक, उपनिषद की कहानी, छान्द्योग्यापनिषद,
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उषस्ति की
कठिनाई, उपनिषद की कहानी, आपदकालेमर्यादानास्ति,
_4 -GVB the uiversity of veda
वैराग्यशतकम्, योगी
भर्तृहरिकृत, संस्कृत काव्य, हिन्दी
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