मैं ही
सब में सर्व श्रेष्ठ हूं- Yjur-Veda
आप्यायध्वम्= इस प्रकार तुम प्रतिदिन
बढ़ो और तुम्हार झुकाव श्रेष्ठ कर्मों में हो।
“दृष्ट्वा रूपे व्याकरोत् सत्यानृते प्रजापतिः । अश्रद्धाममनृतेSधाच्छ्रद्धां सत्ये प्रजापतिः ।।” (यजुर्वेदः–१९.७७)
सर्वज्ञ और आदिस्रष्टा परमेश्वर ने
अश्रद्धा को असत्य में तथा श्रद्धा को सत्य में स्थापित किया है । “श्रद्धा”–शब्द श्रत् धा इन दो तत्त्वों के योग से निष्पन्न होता है ।
“श्रत्”
का अर्थ है सत्य या ज्ञान और धा का तात्पर्य धारण करना या भावना
है । अतः केवल सहज विश्वास अथवा अन्धविश्वास का नाम श्रद्धा नहीं है । सत्य को निश्चयपूर्वक
जानकर उसे दृढता के साथ धारण करना श्रद्धा है । सत्य धारणा अथवा निष्ठा के साथ अभीष्ट
की ओर उन्मुख रहना श्रद्धा है अथवा हृद की गहनतम भावना के साथ साध्य की साधना करना
श्रद्धा है ।श्रद्धा हृदय की उत्कृष्टतम अनुभूति है । अन्य शब्दों में श्रेष्ठता की
प्रति अटूट आस्था का नाम ही श्रद्धा है । अन्तःकरण की दिव्यभूमि में जब श्रद्धा अंकुरित
होती है तो व्यक्ति का समग्र जीवन प्रशस्त हो उठता है । श्रद्धा आध्यात्मिक क्षेत्र
की ऊर्जा है । जिस प्रकाप भौतिक क्षेत्र में अग्नि या सूर्य की शक्ति ऊर्जा मानी जाती
है, वैसे ही
अध्यात्म के क्षेत्र में आन्तरिक ऊर्जा श्रद्धा ही है । श्रद्धा ही सारे धार्मिक कृत्यों
और आयोजनों का प्राण है, उसके बिना मनुष्य के सब धर्म निष्फल है । धार्मिक कर्मकाण्ड
और मान्यताएँ श्रद्धा के अभाव में मूल्यहीन हो जाती है । अतः शक्ति या प्रभाव आडम्बर
की विशालता में नहीं, श्रद्धा की शक्ति में सन्निहित होता है । कर्मकाण्ड की या साधन-विधान
की उतनी महत्ता नहीं, जितनी उसके मूल में काम करने वाला श्रद्धा की है । श्रद्धाविहीन
कर्म मनुष्य को लकीर का फकीर बना देते हैं । श्रद्धा न हो तो यज्ञ की अग्नि और रसोई
के चूल्हे की अग्नि, वेदमन्त्रों और साधारण शब्दों तथा गाय और घोडे में कोई अन्तर
नहीं रह जाएगा । इसीलिए श्रुति का उद्घोष है- “श्रद्धयाग्निः समिध्यते श्रद्धया हूयते हविः ।”
(ऋग्वेदः–१०.१५१.१) श्रद्धा
के अभिसिञ्चन से असाध्य कार्य भी सिद्ध हो सकते हैं, पाषाण में भी प्राणवानों जैसी दिव्य शक्ति का सञ्चार हो सकता
है । श्रद्धा के बल पर ही एकलव्य ने मिट्टी की द्रोणाचार्य की प्रतिमा से उतनी शिक्षा
प्राप्त कर ली थी, जितनी पाण्डव साक्षात् द्रोणाचार्य से भी प्राप्त नहीं कर सके
। श्रद्धा के कारण ही युधिष्ठिर का विशाल राजसूय यज्ञ नेवले के आधे शरीर को सुवर्णमय
नहीं बना सका, किन्तु निर्धन ब्राह्मण के त्याग ने उसे आधी कञ्चन काया प्रदान कर दी थी । इसलिए
नारदपुराण में कहा गया है कि श्रद्धा से ही सब कुछ सिद्ध होता है और श्रद्धा से ही
भगवान् सन्तुष्ट होते हैं । श्रद्धा की महिमा प्रकट करते हुए गीताकार ने भी कहा है—
“सत्त्वानुरूपा सर्वस्य श्रद्धा भवति भारत
। श्रद्धामयोSयं पुरुषों
यो यच्छर्रद्धः स एव सः ।।” (गीता–१७.३)
अर्थ—जिसकी जैसी श्रद्धा होती है, वह वैसा ही बन जाता है । व्यक्तित्व की श्रेष्ठता-निकृष्टता
की पहचान यही श्रद्धा ही है । श्रद्धा से ही सत्य की सिद्धि होती है—“श्रद्धया सत्यमाप्यते” (यजुर्वेदः–१९.३०) श्रद्धा से ही वसु की उपलब्धि होती है—“श्रद्धया विन्दते वसु” (ऋग्वेदः–१०.१५१.४) तथा श्रद्धा से ही विद्वान् जन देवत्व को प्राप्त
करते हैं—“श्रद्धया देवो देवत्वमश्नुते ।” (तैत्तिरीय-ब्राह्मण—३.२.३) मानव जीवन में ज्ञान का महत्त्व सर्वोच्च है—“नहि ज्ञानेन सदृशं पवित्रमिह विद्यते ।”
(गीता–३.३८) अर्थात् संसार में ज्ञान से बढकर पवित्र कुछ भी नहीं है
तथा ज्ञान प्राप्ति के मार्ग में श्रद्धा का विशेष महत्त्व है—“श्रद्धावांल्लभते ज्ञानम्।” (गीता–३.३९) श्रद्धावान् व्यक्ति को ही ज्ञान-लाभ होता है । श्रद्धा
से ही ज्ञानरूप अग्नि प्रज्वलित होती है । श्रद्धा होने पर ही सद्गुरु एवं सद्ग्रन्थ
प्रभावी होते हैं । इसीलिए कहा गया है कि श्रद्धायुक्त कर्मों का उल अनन्त होता है—
“श्रद्धाविधिसमायुक्तं कर्म यत् क्रियते नृभिः । सुविशुद्धेन भावेन तदनन्ताय कल्पते
।।” (याज्ञवल्क्य-स्मृतिः)
साधना के क्षेत्र में श्रद्धा की अपरिमित शक्ति ही काम करती है । श्रद्धा और विश्वास
होने पर ही परमात्मा की प्राप्ति होती है, यह तर्क से संभव नहीं है । हमारे शास्त्रकार स्वयं यह घोषणा
करते हैं कि जो हमारे अच्छे आचरण है, उन्हीं का तुम्हे अनुसरण करना चाहिए,
अन्य का नहीं—“यान्यस्माकं सुचरितानि तानि त्वयोपास्यानि नो इतराणि ।”
आज हमारे समाज में नैतिक मूल्यों का संकट विषम रूप में उपल्थित
है । एक ओर वैज्ञानिक प्रगति ने तथाकथित शिक्षित मनुष्य को मानवीय गुणों से शून्य,
यन्त्रवत् बना डाला है तो दूसरी ओर अधिसंख्य अशिक्षित जन अन्धश्रद्धा
के जाल में जकडे हुए हैं । अतः इस बात की महती आवश्यकता है कि “श्रद्धा” जैसे सार्वकालिक, सार्वभौमिक सद्गुणों के सत्य स्वरूप को जनसाधारण तक पहुँचाया
जाए, ताकि भारतीय
संस्कृति के सनातन सन्देश सर्वजनग्राह्य हो सके
। वैदिक ऋषि की यह कामना पूर्ण हो— “श्रद्धां प्रातर्हवामहे श्रद्धां मध्यन्दिनं परि । श्रद्धा सूर्यस्य
निम्रुचि श्रद्धे श्रद्धापयेह नः ।।” (ऋग्वेदः–१०.१५१.४)
शब्दाद्वैतवाद के अनुसार शब्द ही ब्रह्म
है। उसकी ही सत्ता है। सम्पूर्ण जगत शब्दमय है। शब्द की ही प्रेरणा से समस्त संसार
गतिशील है। महती स्फोट प्रक्रिया से जगत की उत्पत्ति हुई तथा उसका विनाश भी शब्द के
साथ होगा। इन्द्रियों में सबसे अधिक चंचल तथा वेगवान मन को माना गया है। ‘मन के तीन प्रमुख कार्य हैं’- स्मृति, कल्पना तथा चिन्तन। इन तीनों से ही मन की चंचलता बनती है। लेकिन
यदि मन को शब्द का माध्यम न मिले तो उसे चंचलता नहीं प्राप्त हो सकती। उसकी गति शब्द
की बैसाखी पर निर्भर है। सारी स्मृतियाँ, कल्पनाएँ तथा चिन्तन शब्द के माध्यम से चलते हैं। दैनन्दिन जीवन
में काम आने वाले शब्दों को दो भागों में बाँटा जा सकता है- व्यक्त और अव्यक्त। जैन
पंन्थी इन्हें अपनी भाषा में जल्प और अन्तर्जल्प कहते हैं। जो बोला जाता है उसे जल्प
कहते हैं। जल्प का अर्थ है- व्यक्त स्पष्ट मन्तव्य। जो स्पष्टतः बोला नहीं जाता,
मन में सोचा अथवा जिसकी मात्र कल्पना की जाती है वह है- अन्तर्जल्प।
मुँह बन्द होने होठ के स्थिर होने पर भी मन के द्वारा बोला जा सकता है,
जो कुछ भी सोचा जाता है, वह भी एक प्रकार से बोलने की प्रक्रिया है तथा उतनी ही प्रभावशाली
होती है जितनी की व्यक्त वाणी। शब्द अपनी अभिव्यक्ति के पूर्व चिंतन के रूप में होता
है। अपनी उत्पत्ति काल में वह सूक्ष्म होता है पर बाहर आते-आते वह स्थूल बन जाता है।
जो सूक्ष्म है वह हमारे लिये अश्रव्य है। जो स्थूल है वही सुनाई पड़ता है। ध्वनि विज्ञान
ने ध्वनियों को दो रूपों में विभक्त किया है-श्रव्य और अश्रव्य। अश्रव्य- अर्थात्-
अल्ट्रा साउण्ड- सुपर सोनिक। हमारे कान मात्र 20000 कम्पन आवृत्ति को ही पकड़ सकते
हैं। वे न्यूनतम 20 कम्पन आवृत्ति प्रति सेकेण्ड तथा अधिकतम 20 हजार कम्पन आवृत्ति
प्रति सेकेण्ड को पकड़ने में सक्षम हैं। पर उनसे कम तथा अधिक आवृत्ति वाली ध्वनि तरंगों
का भी अस्तित्व है। श्रवणेन्द्रियों की मर्यादा अपनी सीमा रेखा को चीर नहीं पाती। फलस्वरूप
वे ध्वनियाँ सुनाई नहीं पड़तीं। कान यदि सूक्ष्मातीत ध्वनि तरंगों को पकड़ने लगें तो
मालूम होगा कि संसार में नीरवता कहीं और कभी भी नहीं है। कमरे में बन्द आदमी अपने को
कोलाहल से दूर पाता है। पर सच्चाई यह है कि उसके चारों और कोलाहल का साम्राज्य है।
समूचा अन्तरिक्ष ध्वनि तरंगों से आलोड़ित है। उनमें से थोड़ी-सी ध्वनियाँ मात्र मनुष्य
के कानों तक पहुँच पाती हैं। प्रकृति की अगणित घटनाएँ सूक्ष्म जगत में पकती रहती हैं।
घटित होने के पूर्व भी उनकी सूक्ष्म ध्वनि तरंगें सूक्ष्म अन्तरिक्ष में दोलयमान रहती
हैं। उन्हें पकड़ा और सुना जा सके तो कितनी ही प्रकृति की घटनाओं का पूर्वानुमान लगा
सकना सम्भव है। मनुष्येत्तर कितने ही जीव ऐसे हैं जिन्हें प्रकृति की घटनाओं का भूकम्प,
तूफान आदि विभीषिकाओं का पूर्वाभास हो जाता है। सूचना मिलते
ही उनका व्यवहार बदल जाता है। अपनी आदत के विरुद्ध वे अस्वाभाविक आचरण करने लगते हैं।
कितने ही सुरक्षा के लिए सुरक्षित स्थानों की ओर दौड़ने लगते हैं। सूक्ष्म ध्वनि स्पन्दनों
के आधार पर ही वे सम्भाव्य विभीषिकाओं का अनुमान लगा लेते हैं। जो कुछ भी बोला अथवा
सोचा जाता है वह तुरन्त समाप्त नहीं हो जाता, सूक्ष्म रूप में अन्तरिक्ष में विद्यमान रहता,
तरंगित होता रहता है। हजारों-लाखों वर्षों तक ये कम्पन उसी रूप
में रहते हैं। ऐसे प्रयोग भी वैज्ञानिक क्षेत्र में चल रहे हैं कि भूतकाल में जो कुछ
भी कहा गया है ईथर में विद्यमान है उसे यथावत् पकड़ा जा सके। सदियों पूर्व महा-मानवों
ऋषि कल्प देव पुरुषों ने क्या कहा होगा, उसे प्रत्यक्ष सुना जा सके ऐसे अनुसन्धान प्रयोगावधि में हैं।
अभी सफलता तो नहीं मिल पायी है पर वैज्ञानिक आश्वस्त हैं कि आज नहीं तो कल वह विद्या
हाथ लग जायेगी। निस्सन्देह यह उपलब्धि मानव जाति के लिए महत्वपूर्ण तथा अद्वितीय होगी
अब तक की वैज्ञानिक उपलब्धियों में वह सर्वोपरि होगी। सम्भवतः इसी आधार पर कृष्ण द्वारा
कही गयी गीता, एवं राम रावण संवादों को अपने ही कानों से सुनना सम्भव हो सकेगा। रेडियो,
टेलीविजन, राडार की भाँति प्राचीन काल के आविष्कारों में सबसे अधिक महत्वपूर्ण
तथा चमत्कारी खोज थी- मन्त्र विद्या। मन्त्र ध्वनि विज्ञान का सूक्ष्मतम विज्ञान था।
इसके अनुसार जो कार्य आधुनिक यन्त्रों के माध्यम से हो सकते हैं वे मन्त्र के प्रयोग
से भी सम्भव हैं। पदार्थ की तरह अक्षरों तथा अक्षरों से युक्त शब्दों में अकूत शक्ति
का भाण्डागार मौजूद है। मन्त्र कुछ शब्दों के गुच्छक मात्र होते हैं पर ध्वनि शास्त्र
के आधार पर उनकी संरचना बताती है कि एक विशिष्ट ताल, क्रम एवं गति से उनके उच्चारण से विशिष्ट प्रकार की ऊर्जा उत्पन्न
होती है। प्राचीन काल में ऋषियों ने शब्दों की गहराई में जाकर उनकी कारण शक्ति की खोज-बीन
के आधार मन्त्रों एवं छन्दों की रचना की थी। पिछले दिनों ध्वनि विज्ञान पर अमेरिका
पश्चिम जर्मनी में कितनी ही महत्वपूर्ण खोजें हुई हैं। साउण्ड थैरेपी एक नयी उपचार
पद्धति के रूप में विकसित हुई है। ध्वनि कम्पनों के आधार पर मारक शस्त्र भी बनने लगे
हैं। ब्रेन वाशिंग के अगणित प्रयोगों में ध्वनि विद्या का प्रयोग होने लगा है। अन्तरिक्ष
की यात्रा करने वाले राकेटों, स्पेस शटलों के नियन्त्रण संचालन में भी शब्द विज्ञान का महत्वपूर्ण
योगदान है। पर वैज्ञानिक क्षेत्र में ध्वनि विद्या का अब तक जितना प्रयोग हुआ है,
वह स्थूल है, सूक्ष्म और कारण स्वरूप अभी भी अविज्ञात अप्रयुक्त है जो स्थूल
की तुलना में कई गुना अधिक सामर्थ्यवान है। मन्त्रों में शब्दों की स्थूल की अपेक्षा
सूक्ष्म एवं कारण शक्ति का अधिक महत्व है। मानवी व्यक्तित्व की गहरी परतों- मन एवं
अन्तःकरण को मन्त्र की सूक्ष्म एवं कारण शक्ति ही प्रभावित करती है। व्यक्तित्व का
रूपान्तरण- विचारों में परिवर्तन उसके प्रभाव से ही होता है। यों तो वेदों के हर मन्त्र
एवं छन्द का अपना महत्व है। देखने में गायत्री महामन्त्र भी अन्य मन्त्रों की तरह सामान्य
ही लगता है, जो नौ शब्दों तथा 24 अक्षरों से मिलकर बना है। पर जिन कारणों से उसकी विशिष्टता
आँकी गई है वे हैं- मन्त्र के विशिष्ट क्रम में अक्षरों एवं शब्दों का गुँथन प्रवाह,
उनका चक्र-उपत्यिकाओं पर प्रभाव तथा उसकी महान प्रेरणाएँ। हर
अक्षर एक विशिष्ट क्रम में जुड़कर असीम शक्तिशाली बन जाता है। 24 रत्नों के रूप में
अक्षरों के नवनीत का एक मणिमुक्तक बना तथा आदिकाल में प्रकट हुआ। ब्रह्म की स्फुरणा
के रूप में गायत्री मन्त्र का प्रादुर्भाव हुआ तथा आदि मन्त्र कहलाया। सामर्थ्य की
दृष्टि से इतना विलक्षण एवं चमत्कारी अन्य कोई भी मन्त्र नहीं है। दिव्य प्रेरणाओं
की उसे गंगोत्री कहा जा सकता है। संसार के किसी भी धर्म में इतना संक्षिप्त,
पर इतना अधिक सजीव एवं सर्वांगपूर्ण कोई भी प्रेरक दर्शन नहीं
है जो एक साथ उन सभी प्रेरणाओं को उभारे जिनसे महानता की ओर बढ़ने तथा आत्मबल सम्पन्न
बनने का पथ-प्रशस्त होता है। ब्रह्म की अनुभूति शब्द ब्रह्म-नाद ब्रह्म के रूप में
भी होती है जिसकी सूक्ष्म स्फुरणा हर पर सूक्ष्म अन्तरिक्ष में हो रही है। गायत्री
महामन्त्र नाद ब्रह्म तक पहुँचने का एक सशक्त माध्यम है। प्राचीन काल की तरह सामान्य
व्यक्ति को भी अतिमानव- महामानव बना देने की सामर्थ्य उसमें मौजूद है। आवश्यकता इतनी
भर है कि गायत्री मन्त्र की उपासना के विधि-विधानों तक ही सीमित न रहकर उसने निहित
दर्शन एवं प्रेरणाओं को भी हृदयंगम किया जाय और तद्नुरूप अपने व्यक्तित्व को ढाला जाय।
पूरी श्रद्धा के साथ मन्त्र का अवलम्बन लिया जा सके तो आज भी वह पुरातन काल की ही तरह
चमत्कारी सामर्थ्यदायी सिद्ध हो सकता है।
राजकुमार और उसके पुत्र के बलिदान की
कहानीः- किसी समय शूद्रक नामक राजा राज्य किया करता था। उसके राज्य में वीरवर नामक
महाराजकुमार किसी देश से आया और राजा की ड्योढ़ी पर आ कर द्वारपाल से बोला,
मैं राजपुत्र हूँ, नौकरी चाहता हूँ। राजा का दर्शन कराओ। फिर उसने उसे राजा का
दर्शन कराया और वह बोला-- महाराज, जो मुझ सेवक का प्रयोजन हो तो मुझे नौकर रखिये,
शूद्रक बोला - तुम कितनी तनख्वाह चाहते हो ?
वीरवर बोला -- नित्य पाँच सौ मोहरें दीजिये। राजा बोला -- तेरे
पास क्या- क्या सामग्री है ? वीरवर बोला -- दो बाँहें ओर तीसरा खड्ग। राजा बोला यह बात नहीं
हो सकती है। यह सुनकर वीरवर चल दिया। फिर मंत्रियों ने कहा-- हे महाराज,
चार दिन का वेतन दे कर इसका स्वरुप जान लीजिये कि यह क्या उपयोगी
है, जो इतना
धन लेता है या उपयोगी नहीं है। फिर मंत्री के वचन से बुलवाया और वीरवर को बीड़ा देकर
पाँच सौ मोहरें दे दी। और उसका काम भी राजा ने छुप कर देखा। वीरवर ने उस धन का आधा
देवताओं को और ब्राह्मणों को अर्पण कर दिया। बचे हुए का आधा दुखियों को,
उससे बचा हुआ भोजन के तथा विलासादि में खर्च किया। यह सब नित्य
काम करके वह राजा के द्वार पर रातदिन हाथ में खड्ग लेकर सेवा करता था और जब राजा स्वयं
आज्ञा देता, तब अपने घर जाता था। फिर एक समय कृष्णपक्ष की चौदस के दिन,
रात को राजा को करुणासहित रोने का शब्द सुना। शूद्रक बोला -
यहाँ द्वार पर कौन- कौन है ? उसने कहा - महाराज, मैं वीरवर हूँ। राजा ने कहा - रोने की तो टोह लगाओं। जो महाराज
की आज्ञा, यह कहकर वीरवर चल दिया और राजा ने सोचा- यह बात उचित नहीं है कि इस राजकुमारों
को मैंने घने अंधेरे में जाने की आज्ञा दी। इसलिये मैं उसके पीछे जा कर यह क्या है,
इसका निश्चय कर्रूँ।
फिर राजा भी खड्ग लेकर उसके पीछे नगर से बाहर गया और वीरवर ने जा कर उस रोती
हुई, रुप तथा
यौवन से सुंदर और सब आभूषण पहिने हुए किसी स्री को देखा और पूछा - तू कौन है ?
किसलिये रोती है ? स्री ने कहा - मैं इस शूद्रक की राजलक्ष्मी हूँ। बहुत काल से
इसकी भुजाओं की छाया में बड़े सुख से विश्राम करती थी। अब दूसरे स्थान में जाऊँगी। वीरवर
बोला - जिसमें नाश का संभव है, उसमें उपाय भी है। इसलिए कैसे फिर यहाँ आपका रहना होगा ?
लक्ष्मी बोली - जो तू बत्तीस लक्षणों से संपन्न अपने पुत्र शक्तिधर
को सर्वमंगला देवी की भेंट करे, तो मैं फिर यहाँ बहुत काल तक रहूँ। यह कह कर वह अंतर्धान हो
गई। फिर वीरवर ने अपने घर जा कर सोती हुई अपनी स्री को और बेटे को जगाया। वे दोनों
नींद को छोड़, उठ कर खड़े हो गये। वीरवर ने वह सब लक्ष्मी का वचन उनको सुनाया। उसे सुन कर शक्तिधर
आनंद से बोला - मैं धन्य हूँ, जो ऐसे, स्वामी के राज्य की रक्षा के लिए मेरा उपयोग प्रशंसनीय है। इसलिए
अब विलंब का क्या कारण है ? ऐसे काम में देह का त्याग प्रशंसनीय है।
धनानि जीवितं चैव परार्थे प्राज्ञ
उत्सृजेत। सन्निमित्ते वरंत्यागो विनाशे नियते सति।। अर्थात,
पण्डित को परोपकार के लिए धन और प्राण छोड़ देने चाहिए,
विनाश तो निश्चत होगा ही, इसलिये अच्छे कार्य के लिए प्राणों का त्याग श्रेष्ठ है। शक्तिधर
की माता बोली - जो यह नहीं करोगे तो और किस काम से इस बड़े वेतन के ॠण से उनंतर होगे
? यह विचार
कर सब सर्वमंगला देवी के स्थान पर गये। वहाँ सर्वमंगला देवी की पूजा कर वीरवर ने कहा
- हे देवी, प्रसन्न हो, शूद्रक महाराज की जय हो, जय हो। यह भेंट लो। यह कह कर पुत्र का सिर काट डाला। फिर वीरवर
सोचने लगा कि - लिये हुए राजा के ॠण को तो चुका दिया। अब बिना पुत्र के जीवित किस काम
का ? यह विचार
कर उसने अपना सिर काट दिया। फिर पति और पुत्र के शोक से पीड़ित स्री ने भी अपना सिर
काट डाला, तब राजा आश्चर्य से सोचने लगा,
जीवन्ति च म्रियन्ते च मद्विधा: क्षुद्रजन्तवः।
अनेन सदृशो लोके न भूतो न भविष्यति।।
अर्थात, मेरे समान नीच प्राणी संसार में जीते हैं और मरते भी हैं,
परंतु संसार में इसके समान न हुआ और न होगा। इसलिए ऐसे महापुरुष
से शून्य इस राज्य से मुझे भी क्या प्रयोजन है बाद में शूद्रक ने भी अपना सिर काटने
को खड्ग उठाया। तब सर्वमंगला देवी ने राजा का हाथ रोका और कहा- हे पुत्र,
मैं तेरे ऊपर प्रसन्न हूँ, इतना साहस मत करो। मरने के बाद भी तेरा राज्य भंग नहीं होगा।
तब राजा साष्टांग दंडवत और प्रणाम करके बोला -- हे देवी, मुझे राज्य से क्या है या जीन से भी क्या प्रयोजन है ?
जो मैं कृपा के योग्य हूँ तो मेरी शेष आयु से स्री पुत्र सहित
वीरवर जी उठे। नहीं तो मैं अपना सिर काट डालूँगा। देवी बोली"-- हे पुत्र,
जाओ तुम्हारी जय हो। यह राजपुत्र भी परिवार सहित जी उठे। यह
कह कर देवी अन्तध्र्यान हो गई। बाद में वीरवर अपने स्री- पुत्र सहित घर को गया। राजा
भी उनसे छुप कर शीघ्र रनवास में चला गया। इसके उपरांत प्रातःकाल राजा ने ड्योढ़ी पर
बैठे वीरवर से फिर पूछा और वह बोला- हे महाराज, वह रोती हुई स्री मुझे देखकर अंतध्र्यान हो गई,
और कुछ दूसरी बात नहीं थी। उसका वचन सुन कर राजा सोचने लगा
-""इस महात्मा की किस प्रकार बड़ाई कर्रूँ।''
प्रियं ब्रूयादकृपणः शूरः स्यादविकत्थनः।
दाता नापात्रवर्षी च प्रगल्भः स्यादनिष्ठुरः।
क्योंकि, उदार पुरुष को मीठा बोलना चाहिये, शूर को अपनी प्रशंसा नहीं करनी चाहिये,
दाता को कुपात्र में दान नहीं करना चाहिए और उचित कहने वाले
को दयारहित नहीं होना चाहिये। यह महापुरुष
का लक्षण इसमें सब है। बाद में राजा ने प्रातःकाल शिष्ट लोगों की सभा करके और सब वृत्तांत
की प्रशंसा करके प्रसन्नता से उसे कर्नाटक का राज्य दे दिया।
एक समय की बात है । एक नगर में एक
कंजूस राजेश नामक व्यक्ति रहता था । उसकी कंजूसी सर्वप्रसिद्ध थी । वह खाने,
पहनने तक में भी कंजूस था । एक बात उसके घर से एक कटोरी गुम
हो गई । इसी कटोरी के दुःख में राजेश ने 3 दिन तक कुछ न खाया । परिवार के सभी सदस्य
उसकी कंजूसी से दुखी थे । मोहल्ले में उसकी कोई इज्जत न थी,
क्योंकि वह किसी भी सामाजिक कार्य में दान नहीं करता था । एक
बार उस राजेश के पड़ोस में धार्मिक कथा का आयोजन हुआ । वेदमंत्रों व् उपनिषदों पर आधारित
कथा हो रही थी । राजेश को सद्बुद्धि आई तो वह भी कथा सुनने के लिए सत्संग में पहुँच
गया । वेद के वैज्ञानिक सिद्धांतों को सुनकर उसको भी रस आने लगा क्योंकि वैदिक सिद्धान्त
व्यावहारिक व् वास्तविकता पर आधारित एवं सत्य-असत्य का बोध कराने वाले होते है । कंजूस
को ओर रस आने लगा । उसकी कोई कदर न करता फिर भी वह प्रतिदिन कथा में आने लगा । कथा
के समाप्त होते ही वह सबसे पहले शंका पूछता । इस तरह उसकी रूचि बढती गई । वैदिक कथा
के अंत में लंगर का आयोजन था इसलिए कथावाचक ने इसकी सूचना दी कि कल लंगर होगा । इसके
लिए जो श्रद्धा से कुछ भी लाना चाहे या दान करना चाहे तो कर सकता है । अपनी-अपनी श्रद्धा
के अनुसार सभी लोग कुछ न कुछ लाए । कंजूस के हृदय में जो श्रद्धा पैदा हुई वह भी एक
गठरी बांध सर पर रखकर लाया । भीड़ काफी थी । कंजूस को देखकर उसे कोई भी आगे नहीं बढ़ने
देता । इस प्रकार सभी दान देकर यथास्थान बैठ गए । अब कंजूस की बारी आई तो सभी लोग उसे
देख रहे थे । कंजूस को विद्वान की ओर बढ़ता देख सभी को हंसी आ गई क्योंकि सभी को मालूम
था कि यह महाकंजूस है । उसकी गठरी को देख लोग तरह-तरह के अनुमान लगते ओर हँसते । लेकिन
कंजूस को इसकी परवाह न थी । कंजूस ने आगे बढ़कर विद्वान ब्राह्मण को प्रणाम किया । जो
गठरी अपने साथ लाया था, उसे उसके चरणों में रखकर खोला तो सभी लोगों की आँखें फटी-की-फटी
रह गई । कंजूस के जीवन की जो भी अमूल्य संपत्ति गहने, जेवर, हीरे-जवाहरात आदि थे उसने सब कुछ को दान कर दिया। उठकर वह यथास्थान
जाने लगा तो विद्वान ने कहा, “महाराज! आप वहाँ नहीं, यहाँ बैठिये ।” कंजूस बोला, “पंडित जी! यह मेरा आदर नहीं है, यह तो मेरे धन का आदर है, अन्यथा मैं तो रोज आता था और यही पर बैठता था,
तब मुझे कोई न पूछता था।” ब्राह्मण बोला, “नहीं, महाराज! यह आपके धन का आदर नहीं है, बल्कि आपके महान त्याग (दान) का आदर है । यह धन तो थोड़ी देर
पहले आपके पास ही था, तब इतना आदर-सम्मान नहीं था जितना की अब आपके त्याग (दान) में
है इसलिए आप आज से एक सम्मानित व्यक्ति बन गए है। शिक्षा :- मनुष्य को कमाना भी चाहिए और दान भी अवश्य देना
चाहिए । इससे उसे समाज में सम्मान और इष्टलोक तथा परलोक में पुण्य मिलता है ।
मैं गुरुओं
का भी गुरु हूं- Rig-Veda
मैं
वायु के समान संसार रूप शरीर में प्राण हूं- Rig-Veda
मैं
तुम सब का अमृत हूं- Rig -Veda
मैं ही
तुम सब का पिता हूं- Rig-Veda
मैं
तुम्हारा शासक हूं- Rig Veda
मैं तुम्हारे
समीप ही हूं- Rig Veda
मैं ही
अंगों का रस अङ्गिरस हूं-Rig Veda
मैं ही
सत्या का रक्षक हूं- Rig Veda
मैं ही सभी
ऐश्वर्यों का पर ऐश्वर्य रूप परम धन हूं Rigved
I Am Ancestor
of all Ancestors -Rigved - मैं
ऋषियों का पुर्वज हूं
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Feet land A Hindi Story of Leo Tolstoy- Hindi दो बहनों कि कथा
श्रवण
और कालु किसान -story in Hindi
रीक्ष का शिकार story
of Leo-Tolstoy Hindi
परमेश्वर ने दर्शन देने का वादा किया
कृष्ण और पांडव के स्वर्गारोहण की कथा
सृष्टि के प्रारंभ में मानव एवं सृष्टि उत्पत्ति
अभिज्ञानशाकुन्तल संक्षिप्त कथावस्तु
महाकविकालिदासप्रणीतम् - अभिज्ञानशाकुन्तलम् `- भूमिका
वैराग्य
संदीपनी गोस्वामितुलसीदासकृत हिंदी
अग्नि
सुक्तम् - अग्निमीळे पुरोहितं यज्ञस्य देवमृत्विजम्
S’rimad
Devî Bhâgavatam THE FIRST BOOK
Chapter
XV-XVI-XVII-XVIII-XIX-XX-XXI-XII
S’rimad Devî
Bhâgavatam THE FIRST BOOK Chapter XIII-XIV
S’rimad Devî
Bhâgavatam THE FIRST BOOK Chapter XI-XII
S’rimad Devî
Bhâgavatam THE FIRST BOOK Chapter IX-X
S’rimad Devî
Bhâgavatam THE FIRST BOOK Chapter VII-VIII
S’rimad Devî
Bhâgavatam THE FIRST BOOK Chapter V-VI
S’rimad Devî
Bhâgavatam THE FIRST BOOK Chapter III-IV
S’rimad Devî
Bhâgavatam THE FIRST BOOK Chapter I-II
VISHNU PURANA. -
BOOK III. CHAP -16,17,18
VISHNU PURANA. -
BOOK III. CHAP. XV.
VISHNU PURANA. -
BOOK III. CHAP. XIV.
VISHNU PURANA. -
BOOK III. CHAP. XIII.
VISHNU PURANA. -
BOOK III. CHAP. XII.
VISHNU PURANA. -
BOOK III. CHAP. XI.
VISHNU PURANA. -
BOOK III. CHAP. X
VISHNU PURANA. -
BOOK III. CHAP. IX
VISHNU PURANA. - BOOK
III. CHAP. VIII
VISHNU PURANA. -
BOOK III. CHAP. VII.
VISHNU PURANA. -
BOOK III. CHAP. VI
VISHNU PURANA. -
BOOK III. CHAP. V
VISHNU PURANA. -
BOOK III. CHAP. IV
VISHNU PURANA. - BOOK
III.- CHAP. III
VISHNU PURANA. -
BOOK III.- CHAP. II.
चंद्रकांता
(उपन्यास) पहला अध्याय : देवकीनन्दन खत्री
खूनी औरत का
सात खून (उपन्यास) : किशोरी लाल गोस्वामी
ब्राह्मण की
बेटी : शरतचंद्र चट्टोपाध्याय (बांग्ला उपन्यास)
SELF-SUGGESTION AND
THE NEW HUNA THEORY OF MESMERISM AND HYPNOSIS – chapter-1, BY- MAX FREEDOM LONG
VISHNU PURAN-BOOK I
- CHAPTER 11-22
VISHNU PURANA. -
BOOK I. CHAP. 1. to 10
THE ROLE OF PRAYER.
= THOUGHT: CREATIVE AND EXHAUSTIVE. MEDITATION EXERCISE.
HIGHER REASON AND
JUDGMENT= CONQUEST OF FEAR.
QUEEN CHUNDALAI, THE
GREAT YOGIN
THE POWER OF
DHARANA, DHIYANA, AND SAMYAMA YOGA.
THE POWER OF THE
PRANAYAMA YOGA.
KUNDALINI,
THE MOTHER OF THE UNIVERSE.
TO THE KUNDALINI—THE
MOTHER OF THE UNIVERSE.
Yoga Vashist part-1
-or- Heaven Found by Rishi Singh Gherwal
Shakti and Shâkta
-by Arthur Avalon (Sir John Woodroffe),
Mahanirvana Tantra-
All- Chapter -1 Questions relating to
the Liberation of Beings
Tantra
of the Great Liberation
श्वेतकेतु और
उद्दालक, उपनिषद की कहानी, छान्द्योग्यापनिषद,
GVB THE UNIVERSITY OF VEDA
यजुर्वेद
मंत्रा हिन्दी व्याख्या सहित, प्रथम अध्याय 1-10,
GVB THE UIVERSITY OF VEDA
उषस्ति की
कठिनाई, उपनिषद की कहानी, आपदकालेमर्यादानास्ति,
_4 -GVB the uiversity of veda
वैराग्यशतकम्, योगी
भर्तृहरिकृत, संस्कृत काव्य, हिन्दी
व्याख्या, भाग-1, gvb the university of Veda
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वैदिक
विद्वान वैज्ञानिक विश्वामित्र के द्वारा अन्तरिक्ष में स्वर्ग की स्थापना
राजकुमार और
उसके पुत्र के बलिदान की कहानीः-
पुरुषार्थ और विद्या- ब्रह्मज्ञान
संस्कृत के अद्भुत सार गर्भित विद्या श्लोक हिन्दी अर्थ सहित
श्रेष्ट
मनुष्य समझ बूझकर चलता है"
पंचतंत्र- कहानि क्षुद्रवुद्धि गिदण की
कनफ्यूशियस के शिष्य चीनी विद्वान के शब्द। लियोटालस्टा
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